ईरान और इजरायल युद्ध में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कूद पड़ने को आतुर दिखाई दे रहे हैं। वह बार-बार ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्लाह अली खामेनेई को चेतावनी दे रहे हैं कि वह तत्काल सरेंडर कर दें। वहीं, खामेनेई हैं कि जिद पर अड़े हुए हैं कि वह किसी भी हालत में सरेंडर नहीं करेंगे। खामेनेई ने तो अपने देश की जनता को संबोधित करते हुए यहां तक कहा है कि मेरे मर जाने से कोई फर्कनहीं पड़ेगा, लेकिन ईरान झुकेगा नहीं। वैसे जब से दूसरी बार ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने हैं, उनकी विश्वसनीयता दांव पर है। वह अस्थिर मानसिकता वाले व्यक्ति की तरह कार्य कर रहे हैं। वह कब और क्या बोल जाएंगे, इसका कोई भरोसा नहीं है।
वैसे तो ट्रंप दुनिया भर में यह भौकाल बनाते फिर रहे हैं कि वह पूरी तरह युद्ध के खिलाफ हैं। रूस और यूक्रेन के युद्ध को खत्म कराने का दावा और प्रयास दोनों कर चुके हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच सीजफायर कराने का श्रेय पहले दिन से ही लेने का प्रयास कर रहे हैं। भारत कई बार उनके इस बयान को खारिज कर चुका है। कल भी ट्रंप से 35 मिनट की टेलिफोनिक बातचीत में पीएम नरेंद्र मोदी पाकिस्तान के मामले में किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता की बात से इनकार कर चुके हैं। लेकिन इस बात को चौबीस घंटे भी नहीं बीते थे कि ट्रंप ने फिर वही राग अलापना शुरू कर दिया। उस पर कोढ़ में खाज जैसी स्थिति तब पैदा हुई जब पाकिस्तानी फील्ड मार्शल आसिम मुनीर ने भारत-पाक समझौता करवाने के बदले में नोबल पुरस्कार देने की मांग कर बैठे। मुनीर की बात सुनकर एक बहुत पुरानी कहावत याद आ गई-घर में नहीं हैं दाने, अम्मा चली भुनाने। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था किस तरह डूबती नाव की तरह हिचकोले खा रही है, यह पूरी दुनिया जानती है। लेकिन अमेरिका की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं है।
यह वही अमेरिका है, जो पूरी दुनिया को आर्थिक अनुशासन का घोल पिलाता रहता था। आज वही अमेरिका अपने कर्जदाताओं से यह गुहार लगा रहा है कि वह ब्याज की दरें घटा दो, कर्ज चुकाने की अवधि घटा दो, जिन शर्तों पर कर्ज चुकाने की बात हुई थी, उन शर्तों पर कर्ज चुकाना संभव नहीं है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था 27-28 ट्रिलियन डॉलर की मानी जाती है, जबकि उस पर सन 2024 तक 34.6 ट्रिलियन डॉलर से अधिक हो चुका था। अमेरिका के लिए कर्ज चुकाना भारी पड़ रहा है। एक तरह से देखें तो पाकिस्तान और अमेरिका की आर्थिक स्थिति एक जैसी है। फर्क इतना है कि पाकिस्तान छोटी अर्थव्यवस्था वाला देश है और उसे अमेरिका से खुरचन जैसी मदद भी मिल जाती है, तो उसका भला हो जाता है।
ऐसी स्थिति में यदि अमेरिका ईरान और इजरायल के बीच चल रहे युद्ध में अपनी टांग अड़ा बैठा, तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था की क्या स्थिति होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था और हिचकोले खाने लगेगी। लेकिन शायद ट्रंप को इसकी कोई परवाह नहीं है। यदि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ट्रंप को परवाह होती, तो वह राष्ट्रपति बनते ही टैरिफ-टैरिफ की रट नहीं लगाते। उनकी इसी जिद की वजह से ही अमेरिका की जीडीपी में कुछ प्रतिशत की कमी आई गई थी। अमेरिकी जनता ही ट्रंप के टैरिफ राग और कर्मचारियों की छंटनी नीति से परेशान है।
कुछ समय के लिए ट्रंप के मित्र बने एलन मस्क की सलाह पर लाखों अमेरिकी कर्मचारियों की छंटनी करना, ट्रंप को भारी पड़ा। अमेरिका लगभग सभी प्रांतों में लाखों नागरिकों ने इसके खिलाफ प्रदर्शन किया। भविष्य में भी ऐसे ही प्रदर्शन और होंगे। ट्रंप के ही आप्रवासन नीति के विरोध में लॉस एंजिलिस जल रहा है। वहां की जनता तोड़फोड़ और उग्र प्रदर्शन कर रही है। ऐसी स्थिति में ट्रंप का ईरान के खिलाफ युद्ध में कूद पड़ना, कहीं भारी न पड़ जाए। अमेरिकी जनता ट्रंप के इस फैसले का कितना समर्थन करेगी, यह कह पाना आसान नहीं है।
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