अशोक मिश्र
प्राचीनकाल में जब हमारा देश छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था, तो उन दिनों राजा-महाराजा अपनी प्रजा का बहुत ख्याल रखते थे। प्रजा को राजा अपने पुत्र के समान मानता था और उसी हर जरूरतों को पूरा किया करता था। वह टैक्स भी वसूलता था, लेकिन वह टैक्स इतना कम होता था कि किसी को इससे कोई परेशानी नहीं होती थी।
कुछ राजा-महाराजा अपने राज्य की प्रजा को सुखी बनाने के लिए हर संभव प्रयास करते थे। टैक्स के रूप में जमा हुए धन को भी वह अपने ऊपर बहुत कम खर्च किया करते थे। एक राज्य का राजा आए दिन वेष बदलकर प्रजा का हालचाल जाना करता था। एक बार उसने सोचा कि सीमावर्ती इलाकों में गांव वालों को क्या समस्याएं होती हैं, इसके बारे में पता किया जाए।
अपने एक सहायक को लेकर वह निकल पड़ा। सीमावर्ती गांवों की समस्याओं को जानकर उसने सहायक को तत्काल उन्हें दूर करने का आदेश दिया और फिर आगे बढ़ गया। एक जगह उसने देखा कि एक बुजुर्ग लकड़हारा पेड़ काटने में जुटा हुआ है। उसका शरीर पसीने से भीगा हुआ था। राजा को उस पर दया आ गई। वह लकड़हारे की मदद करने की नीयत से उसके पास पहुंचा।
अचानक उसने देखा कि जहां लकड़हारा लकड़ी काट रहा है, उसके पास ही कई हीरे पत्थर में दबे हुए हैं। राजा ने लकड़हारे से कहा कि बाबा! आपके पास ही इतने हीरे पड़े हैं कि आप एक भी हीरा बेच दें, तो आपको कोई काम करने की जरूरत ही नहीं रहेगी। लकड़हारे ने बिना रुके राजा से कहा कि उसे तो मैं कई साल से देख रहा हूं, लेकिन जब अभी मेरे हाथ-पैर काम कर रहे हैं तो भला मेहनत करने से क्यों कतराऊं। यह सुनकर राजा ने लकड़हारे की कर्मशीलता को प्रणाम किया और आगे बढ़ गया।
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