Monday, April 14, 2025

यह राजमहल नहीं, सराय है, राजन!

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

प्रकृति में कुछ भी स्थिर नहीं है। हर पल दुनिया में बदलाव आता रहता है। ऐसी स्थिति में यही कहा जा सकता है कि प्रकृति में जो भी पदार्थ या जीवित प्राणी है, वह हमेशा प्रकृति में मौजूद नहीं रहेगा। कुछ न कुछ बदलाव जरूर होगा। जो पैदा होगा, उसकी मृत्यु निश्चित है। इस बात को बहुत सारे लोग भूल जाते हैं और यदि वह सत्ता पा जाएं या धनिक हो जाएं, तो उन्हें अपने पद और धन का अहंकार हो जाता है। 

किसी राज्य में ऐसा ही एक राजा हुआ है। उसे अपने धन का बहुत अहंकार था। वह किसी की बात नहीं सुनता था, किसी की इज्जत नहीं करता था। उसके राज्य के पड़ोसी राजओं से भी उसके संबंध ठीक नहीं थे। जब किसी पड़ोसी राजा के यहां कोई आयोजन होता, तो वह बेमन से उस राजा को निमंत्रण देते थे। प्रजा भी उस राजा से बहुत परेशान रहती थी। जब चाहता था, कोई न कोई नया फरमान जारी कर देता था। 

कहते हैं कि एक बार उस राज्य से होकर एक संत जा रहा था। उसने राजा के व्यवहार और घमंड के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। वह सीधा राजमहल की ओर आया और दरबान से कुछ कहे बिना राजमहल में घुसता चला गया। वह सीधा जाकर उस कक्ष में पहुंचा जहां राजा बैठा हुआ था। उसने राजा को देखते ही कहा कि हटो, हटो, मैं कुछ दिन इस सराय में रहना है। 

राजा ने कहा कि यह सराय नहीं मेरा राजमहल है। संत ने कहा कि यह सराय है, राज महल नहीं। राजा नाराज हो उठा और बोला,कैसी बात करते हैं आप। यह मेरा राजमहल है। संत ने कहा कि अच्छा बताओ, इस राज महल में तुमसे पहले कौन रहता था। राजा ने कहा कि मेरे पिता जी। संत ने पूछा, उनसे पहले। राजा ने कहा कि मेरे दादाजी। संत ने कहा कि फिर तो यह सराय ही हुई न। आज तुम यहां रह रहे हो, कल कोई दूसरा रहेगा। यह सुनकर राजा पर मानो गाज गिर पड़ी। वह संत की बात समझकर उसके पैरों पर गिर पड़ा।



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