Thursday, April 17, 2025

सब कुछ राष्ट्र के नाम कर गए चितरंजन दास

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

चितरंजन दास को ‘देशबंधु’ की उपाधि लोगों ने दी थी क्योंकि उन्होंने जीवनभर लोगों के हितों का ही ध्यान रखा। चितरंजन दास का जन्म 5 सितंबर 1870 को कोलकाता हाईकोर्ट के प्रसिद्ध वकील भुबन मोहन दास के यहां हुआ था। भुबन मोहनदास और उनके भाई दोनों कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत करते थे। एक दिन जब चितरंजन दास दस-ग्यारह साल के थे, तो उनके चाचा ने बस यों ही पूछ लिया कि चितरंजन तुम बड़े होकर क्या बनोगे? 

चितरंजन ने जवाब दिया कि बड़ा होकर मैं क्या बनूंगा, यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन मैं वकील नहीं बनूंगा। क्योंकि वकीलों को पैसे लेकर झूठ बोलना पड़ता है और अपराधियों को बचाना पड़ता है। इस बात का चाचा क्या जवाब देते, इसलिए चुप रह गए। चितरंजन को बचपन से ही झूठ से बड़ी नफरत थी। 

संयोग देखिए, बड़े होकर चितरंजन दास वकील ही बने, लेकिन उन्होंने जीवन भर वकालत के पेशे में कभी झूठ नहीं बोला। वह गरीबों और देश को स्वाधीन कराने वाले क्रांतिकारियों के मुकदमे बिना फीस लिए लड़ते थे। देशबंधु ने अपने जीवन में कई भूमिकाएं निभाई। वह बैरिस्टर होने के साथ-साथ लेखक, पत्रकार, स्वाधीनता संग्राम सेनानी और कवि थे। सन 1907 में देशबंधु ने कांग्रेस की सदस्यता हासिल की। उन्होंने बंगाल कांग्रेस के विभिन्न पदों को सुशोभित किया। 

वह महात्मा गांधी से काफी प्रभावित थे। उन्होंने महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन को पूरा समर्थन दिया, लेकिन वह असहयोग आंदोलन से असहमत थे। हालांकि बाद में वह असहयोग आंदोलन में शरीक भी हुए। जब उनका राजनीतिक जीवन अपने चरम पर था, उन्हीं दिनों देशबंधु का स्वास्थ्य बिगड़ गया और 16 जून 1925 को दार्जिलिंग में तेज बुखार के चलते उनका निधन हो गया।

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