बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र
सहनशील व्यक्ति अपने जीवन में न केवल सुखी रहता है, बल्कि वह दूसरे प्राणियों के प्रति उदार भी रहता है। सहनशीलता उसे दूसरों की पीड़ा को जानने और लोगों की मदद करने के लिए भी प्रेरित करती है। सहनशाल व्यक्ति को कभी किसी प्रकार की परेशानी का सामना भी नहीं करना पड़ता है। यदि दुनिया का हर आदमी सहनशील हो जाए, तो पूरे विश्व में लड़ाई झगड़ों को खत्त्म किया जा सकता है।
ऐसे ही एक सहनशील और दया की प्रतिमूर्ति थे संत सरयू दास। उनका जन्म गुजरात के किसी गांव में हुआ था। इनकी पढ़ाई लिखाई बहुत कम हो पाई थी। वह बचपन से ही अपने मामा के यहां रहते थे। जब थोड़े समझदार हुए, तो यह अपने मामा के ही कारोबार में मदद करते थे। इनका बचपन से ही अध्यात्म की ओर झुकाव होने लगा था। युवा होने पर इनके मामा-मामी ने इनका विवाह करा दिया।
लेकिन संयोग की बात है कि इनकी पत्नी बहुत ज्यादा दिन जीवित नहीं रहीं। पत्नी की मृत्यु के बाद तो इनका झुकाव पूरी तरह अध्यात्म की ओर हो गया। सरयू दास ने संन्यास ग्रहण कर लिया। एक बार की बात है, यह कहीं जा रहे थे। रेलगाड़ी में इन्हें कहीं बैठने की जगह नहीं मिली। किसी तरह इन्होंने जगह बनाई और डिब्बे में ही फर्श पर बैठ गए। इनके सामने खड़ा एक व्यक्ति बार-बार अपना पैर इनके पैर पर मारता और हटा लेता।
कई बार ऐसा होने पर संत सरयू दास ने उस आदमी से कहा कि भैया, मुझे लगता है कि आपके पैर में किसी किस्म की तकलीफ है। इसलिए आप मेरा ध्यान उस खींचना चाहते हैं। इसके बाद उन्होंने उस व्यक्ति का पैर अपनी गोद में रख लिया और उसे सहलाने लगे। यह देखकर उस व्यक्ति ने सरयूदास से क्षमा मांगते हुए कहा कि मुझे माफ कर दीजिए। मैं ही नीच आदमी हूं।
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