बोधिवृक्ष
अशोक मिश्रमदन मोहन मालवीय ने बनारस में एक विश्वविद्यालय की स्थापना करने की सोची, तो उन्होंने सबसे पहले इसके लिए आवश्यक धन जुटाने की सोची। उन्होंने देश के सभी राजाओं, महाराजाओं से लेकर आम जनता तक से चंदा लिया। जहां जहां भी उन्हें चंदा मिलने की उम्मीद थी, वहां वहां गए। बस एक ही धुन थी कि देश के युवकों को शिक्षित करने के इस पुनीत कार्य को किसी तरह पूरा करना है।
सबके सहयोग से जब बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी बनकर तैयार हुई, तो लोग उसकी भव्यता को देखकर दंग रह गए। सन 1939 में काफी मेहनत और भागदौड़ की वजह से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति मालवीय जी बीमार रहने लगे। उनकी इच्छा हुई कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन अब बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति का भार संभालें। मालवीय जी अपने दायित्व से मुक्त होना चाहते थे।
ऐसी स्थिति में डॉ. राधाकृष्णन ही उन्हें सबसे उपयुक्त लगे। मालवीय जी ने उनसे कुलपति का पदभार संभालने का अनुरोध किया, लेकिन उस समय तक बीएचयू आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा था। यह बात राधाकृष्णन को मालूम थी। उन्होंने दो दिन बिना वेतन के काम करने की स्वीकृति दी। उन्हीं दिनों दूसरा विश्व महायुद्ध छिड़ जाने की वजह से राधाकृष्णन का आक्सफोर्ड जाना टल गया।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन को यह सुनहरा अवसर महसूस हुआ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को पुन: पटरी पर लाने का। उन्होंने कुलपति की हैसियत से सबसे पहले फिजूलखर्ची पर रोक लगाई। यूनिवर्सिटी के खर्चों के लिए राधाकृष्णन ने मालवीय जी की तरह दानदाताओं से गुहार लगाई। इस बार भी लोगों ने खुले मन से सहायता की। 20 मार्च 1941 को उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर का पद त्यागकर पूरी तरह वीएचयू को समर्पित हो गए।
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