Tuesday, September 2, 2025

कृशकाय शरीर में अक्षय घट

कविता

-अशोक मिश्र
जब मैं पैदा हुआ तब
झूम उठा था मेरा बड़ा भाई
वह मुझे छूना चाहता था, दुलराना चाहता था
लेकिन डपट दिया था अम्मा ने, दादी, बुआ और काकी ने
हां, छूना नहीं, अभी बहुत छोटा है
थोड़े दिनों बाद जब अम्मा होती थीं इधर-उधर
चुपके से घुस आता था उस कमरे में
जहां या तो मैं सो रहा होता था
या पेट भरा होने पर चलाता रहता था हाथ पैर
तब चुपके से सहलाता था मेरे गाल
पकड़ता था मेरी नन्हीं-नन्हीं अंगुलियां
मैं भी जकड़ लेता था उसकी अंगुली
मानो मैं जकड़ लेना चाहता था भाई-भाई के रिश्ते को
जब मैंने पहली बार पकड़ी थी उसकी अंगुली
बहुत खुश हुआ था मेरा बड़ा भाई
उसने जब चूमा था मेरा माथा
तब मैं शायद मुस्कुराया था या नहीं
मुझे नहीं मालूम
जब मैं अपनी नरम-नरम अंगुलियों को
मुट्ठी का रूप देकर/चलाता था हाथ-पांव
तब खुश होकर तालियां बजाता था
मेरा बड़ा भाई
टूटा फूटा अपना झुनझुना मेरी मुट्ठी में थमाकर
ऐसे देखता था भाई कि मानो
मेरी मुट्ठी में थमा दी हो संपूर्ण संसृति की सकल संपदा
तब सचमुच/ उसकी सकल संपदा
हुआ करती थी
टूटे फूटे खिलौने, राखी के धागे,
पिछली दीवाली पर कुम्हार के घर से लाए गए
दीये, मिट्टी का अनगढ़ हाथी, बंदर, कंचे, प्लास्टिक के टुकड़े
सचमुच, उन दिनों उसका सारा संसार
यही खिलौने ही तो थे
अपनी संपूर्ण संपदा लुटाकर वह कितना खुश था।
जब मैंने सीखा था पहली बार चलना
तो लड़खड़ाने पर उसी ने बढ़ाई थी
अपनी बाहें/सहारा देने के लिए
फिर उसके ही सहारे चलना सीखा मैंने
फिर दौड़ना
और दौड़ते-दौड़ते इतना आगे निकल गया
कि वह भाई अकेला ही खड़ा रह गया
दृष्टि से विलीन होने तक
ताकता रहा मुझे/इस आस में
कि शायद मैं पीछे मुड़कर देखूंगा
लेकिन न मैं मुड़ा, न मुड़ने की जरूरत समझी।
इसके बावजूद कम नहीं हुआ उसका प्यार
समय के साथ-साथ वह लुटाता रहा अपनी संपदा
लेकिन कभी रीता नहीं भाई के प्यार का घट
और हम
साबित हुए वह अमरबेल
जो जिस के सहारे लसती है, पनपती है
उसी को सुखा देती है
चूस लेती है सारे पोषक तत्व।
आज जब बूढ़ा हो गया है मेरा भाई
कृशकाय हो चुका है पूरा शरीर
फिर भी नहीं रीता है हम भाइयों के प्रति
उसके प्यार का घड़ा
पता नहीं कैसे उस बूढ़े शरीर में
रिसती रहती हैं स्नेह और आशीर्वाद की बूंदें
ताज्जुब है न!

परिचय-----------
बलरामपुर जिले के नथईपुरवा घूघुलपुर गांव में 13 अप्रैल 1967 को मेरा जन्म हुआ। मेरे पिता दिवंगत रामेश्वर दत्त मानव मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारक और कवि थे। मैं पिछले 23-24 वर्षों से व्यंग्य लिख रहा हूं. कई छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में खूब लिखा. दैनिक स्वतंत्र भारत, दैनिक जागरण और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में भी खूब लिखा. कई पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी करने के बाद आठ साल दैनिक अमर उजाला के जालंधर संस्करण में काम करने के बाद लगभग दस महीने रांची में रहा. लगभग एक साल दैनिक जागरण और एक साल कल्पतरु एक्सप्रेस में काम करने के बाद साप्ताहिक हमवतन में स्थानीय संपादक, गोरखपुर से प्रकाशित न्यूज फॉक्स में समाचार संपादक और पंजाब केसरी देहरादून में उप समाचार संपादक पद पर कार्यरत रहने के बाद 27 अगस्त 2021 को पलवल से प्रकाशित होने जा रहे दैनिक देश रोजाना में समाचार संपादक के पद पर ज्वाइन किया। छह महीने बाद दैनिक देश रोजाना का संपादक बना दिया गया। तब से अद्यतन उसी पद पर कार्यरत हूं। मेरा एक व्यंग्य संग्रह 'हाय राम!...लोकतंत्र मर गया' दिल्ली के भावना प्रकाशन से फरवरी 2009 में प्रकाशित हुआ है. इसके बाद वर्ष 2013 में उपन्यास सच अभी जिंदा है भी भावना प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। पुस्तक दयानंद पांडेय समीक्षकों की नजर में का संपादन और वर्ष 2018 को वनिका प्रकाशन से व्यंग्य संग्रह दीदी तीन जीजा पांच प्रकाशित हुआ।

2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में शनिवार 06 सितंबर 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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