Wednesday, April 30, 2025

राजा भोज ने सेवक की सजा माफ कर दी

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

गलती हर किसी से होती है। गलती होने पर क्षमा कर देना ही बड़प्पन है। परिवार के लोगों से भी कई बार कुछ गलतियां हो जाती हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें माफ न किया जाए। मित्र भी कई बार चाहे-अनचाहे गलती कर बैठते हैं, तो क्या उनसे दोस्ती तोड़ दी जाए। नहीं, उनको माफी देकर आगे बढ़ा जाए, यही उचित है। धारानगरी के राजा भोज और उनके सेवक के संबंध में एक बहुत ही रोचक कथा कही जाती है। 

आपको बता दें कि राजा भोज परमार वंश के शासक थे। उनकी राजधानी का नाम धारानगरी था। उनका राज्य उत्तर में चितौड़ से लेकर दक्षिण में उत्तरी कोंकण और पूर्व में विदिशा से लेकर पश्चिम में साबरमती नदी तक फैला हुआ था। राजा भोज ने अपने आसपास के राजाओं से अलग-अलग युद्ध में विजय प्राप्त की थी, लेकिन वह चंदेल सम्राट विद्याधर वर्मन से युद्ध में पराजित हो गए थे।  

वह चंदेल सम्राट के आधीन राजा होकर रह गए थे। एक बार की बात है। राजा भोज अपने राजमहल मेंभोजन कर रहे थे। भोजन एक सेवक परोस रहा था। इसी बीच खाना परोसते समय सेवक से थोड़ी सी सब्जी राजा भोज के कपड़ों पर गिर गई। राजा भोज को बहुत गुस्सा आया। उन्होंने गुस्से में उस सेवक को मृत्यु दंड की सजा सुना दी। सेवक बहुत गिड़गिड़ाया। अपने अपराध की क्षमा मांगी, लेकिन राजा भोज नहीं माने। थोड़ी देर बाद उस सेवक ने सब्जी से भरा कटोरा उठाया और राजा भोज के सिर पर पलट दिया। 

राजा भोज ने कहा कि यह क्या किया तुमने? उस सेवक ने कहा कि जब कल दूसरे लोग सुनेंगे कि मामूली गलती पर राजा भोज ने सेवक को मृत्यु दंड दिया, तो आपकी बदनाम होगी। अब सब लोग यही कहेंगे कि सेवक बदमाश था, उसे उचित सजा मिली। यह सुनकर राजा भोज ने उसकी सजा माफ कर दी।

Tuesday, April 29, 2025

आंबेडकर को बड़ौदा के राजा ने दी छात्रवृत्ति

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

भीमराव रामजी आंबेडकर को बाबा साहेब के नाम से भी जाना जाता है। आंबेडकर विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, सामाजिक सुधार के प्रणेता और राजनीतिज्ञ माने जाते थे। आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू जिले के सैनिक छावनी में हुआ था। इनके पिता रामजी सकपाल ब्रिटिश सेना में सूबेदार थे। इनके परिवार के लोग कबीरपंथी माने जाते थे। 

इनके पिता रामजी सकपाल का बाद में मुंबई ट्रांसफर हो गया, तो वह पूरे परिवार को भी मुंबई लेते गए। सन 1906 में जब वह पंद्रह साल के थे, तो उनकी शादी नौ वर्षीय रमाबाई से हुई। तब बीआर आंबेडकर पांचवीं कक्षा के छात्र थे। सन 1897 में मुंबई में आंबेडकर का दाखिला एलफिंस्टन हाईस्कूल में कराया गया। 

उन दिनों यह कालेज बांबे विश्वविद्यालय से संबद्ध था। मुंबई में जगह की कमी के कारण वह अपनी पढ़ाई करने के लिए स्कूल के पास स्थित एक पार्क में चले जाया करते थे। आंबेडकर अपने पिता रामजी सकपाल और भीमाबाई की चौदहवीं और अंतिम संतान थे। इसलिए पढ़ने के लिए जगह की कमी होना स्वाभाविक था। 

उन्हीं दिनों विलसन हाईस्कूल के हेड मास्टर कृष्णा अर्जुनराव केलुसकर रोज शाम को उस पार्क में घूमने आया करते थे। उन्होंने पार्कमें किसी बच्चे को पढ़ते देखा, तो उत्सुकता हुई। उन्होंने एक दिन आंबेडकर से पार्क में पढ़ने का कारण पूछा, तो आंबेडकर ने सारी बात बताई। इस तरह आंबेडकर और केलुसकर की धीरे-धीरे बातचीत होने लगी। दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण होने पर केलुसकर ने आंबेडकर की आगे की पढ़ाई के लिए बड़ौदा के राजा से छात्रवृत्ति देने की सिफारिश की जो मंजूर हो गई। इस प्रकार आगे बढ़ते हुए बाबा साहब भीमराव रामजी आंबेडकर एक दिन भारत के संविधान निर्माता बने।

हमारे देश की एकता को नहीं तोड़ सकती कोई शक्ति

अशोक मिश्र

मिनी स्वीटजरलैंड कहे जाने वाले कश्मीर के पहलगाम में 28 निर्दोष नागरिकों के मारे जाने का दुख पूरे देश को है। पहलगाम में क्रूर हत्याकांड को अंजाम देने के बाद आतंकियों और उनके आका ने सोचा  था कि इससे कश्मीर और देश का माहौल बदलेगा। हिंदू-मुसलमान के बीच वैमनस्य बढ़ेगा। फिर से पहले की तरह हाथों में पत्थर लेकर कश्मीर के युवा निकलेंगे। मस्जिदों से भारत विरोधी तकरीरें दी जाएंगी, युवाओं को आत्मरक्षा के नाम पर बचे खुचे कश्मीरी पंडितों और हिंदू पर्यटकों पर हमले किए जाएंगे? लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 

माहौल तो बदला, लेकिन उस तरह नहीं जिस तरह आतंकी संगठनों और उनके आकाओं ने सोचा था। आतंकियों के इस कुकृत्य की जितनी निंदा कश्मीर के अलावा दूसरे राज्यों ने की, उससे भी बढ़चढ़कर कश्मीरियों ने की। मस्जिदों से पत्थर उठाने की नहीं, बल्कि शांति बनाए रखने और आतंकियों को मुंहतोड़ जवाब देने की अपील की गई।

शायद कश्मीर के इतिहास में पहली बार कश्मीरी जनता पहलगाम की धरती पर मरने वाले लोगों को श्रद्धांजलि देने के लिए सड़कों पर उतरी, आतंकियों और पाकिस्तान की कड़े शब्दों में निंदा की। जिस तरह हमले के वक्त स्थानीय कश्मीरियों ने पर्यटकों की सुरक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डाली, उनको अपने घर में रखा, उनकी देखभाल की, ऐसा शायद पहले नहीं देखा गया था।  

घटना के चश्मदीद गवाहों के बयान सोशल मीडिया पर मौजूद हैं। भाजयुमो की छत्तीसगढ़ इकाई के सदस्य अरविंद अग्रवाल की पोस्ट वायरल हो रही है जिसमें उन्होंने अपने टूरिस्ट गाइड नजाकत अली से अपने परिवार की जान बचाने के लिए आभार व्यक्त किया है। उन्होंने नजाकत अली के लिए लिखा है कि आपने हमारी जान बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी। हम नजाकत भाई का कभी भी पर्याप्त धन्यवाद नहीं कर पाएंगे। 

आतंकियों ने जब धर्म पूछकर निर्दोष लोगों की हत्या की थी, तो उन्होंने सोचा था कि हिंदुस्तान में इससे आग लग जाएगी। हिंदू-मुसलमान एक दूसरे पर टूट पड़ेंगे। पूरे देश में अराजकता का माहौल होगा। लेकिन देश के हिंदू-मुसलमानों ने आतंकियों और उनके आकाओं के मनसूबों पर पानी फेर दिया। उनमें वैमनस्य पैदा होने की जगह सांप्रदायिक सद्भाव पैदा हुआ। अगर हम सोशल मीडिया पर डाली जा रही कुछ विषैली पोस्टों को नजरअंदाज कर दें, तो पूरा देश पहलगाम हमले को लेकर एकमत है। सभी क्रूर हत्यारों को उनके किए की सजा देने की मांग कर रहे हैं। इस बार तो देश की सभी राजनीतिक पार्टियां भी सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं। 

पाकिस्तान और आतंकियों के खिलाफ की जाने वाली किसी भी कार्रवाई में वह केंद्र सरकार के साथ हैं। नेशनल कान्फ्रेंस के नेता और कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, पीडीपी की सर्वेसर्वा महबूबा मुफ्ती से लेकर एआईएमआईएम असदुद्दीन ओवैसी तक पाकिस्तान को मजा चखाने की मांग कर रहे हैं। कांग्रेस, सपा, बसपा, टीएमसी सहित इंडिया गठबंधन की सभी पार्टियां अपने सारे मतभेद भुलाकर सरकार के साथ खड़ी हैं।

स्वस्थ लोकतंत्र की यही निशानी है। इस देश का आम नागरिक भी अपने सरकार के साथ खड़ा है और उसकी भी इच्छा यही है कि क्रूर हत्यारों को कठोर से कठोरतम दंड मिले और पाकिस्तान को उसके किए की सजा दी जाए।

देश के कुछ राज्यों में कुछ अराजक तत्वों ने कश्मीरी छात्र-छात्राओं और मुसलमानों को परेशान करने का प्रयास जरूर किया। किसी ने हॉस्टल खाली करने को कहा तो किसी मकान मालिक ने मकान। कुछ लोगों ने तो राज्य छोड़कर न जाने पर हमला करने की धमकी दी, लेकिन ऐसे मामलों में सतर्क राज्य सरकारों ने त्वरित कार्रवाई की और अराजक तत्वों पर अंकुश लगाकर माहौल को शांत करा दिया। 

इसका नतीजा यह हुआ कि दूसरे लोगों को माहौल खराब करने का मौका नहीं मिला। यह बदलाव बताता है कि भारत की आत्मा एकता में अनेकता वाली है। कोई कितना भी प्रयास कर ले, देश की आत्मा में गहरे तक बसे भाईचारे को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता है।

Monday, April 28, 2025

गरीबों को मिले रोटी तो मेरी जान सस्ती है

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

‘गरीबों को मिले रोटी तो मेरी जान सस्ती है’ कहने वाले क्रांतिकारी चंद्र शेखर
आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश के अलीराजपुर में हुआ था। वह भगत सिंह और राम प्रसाद बिस्मिल आदि क्रांतिकारियों के अनन्य साथी थे। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के वह कमांडर रहे। उन्होंने कसम खाई थी कि वह आजाद ही रहेंगे, कभी अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार नहीं होंगे। 

15 साल की उम्र में 15 बेंत की सजा के बारे में तो लगभग सभी जानते ही हैं। उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन को एक नई दिशा दी थी। चंद्र शेखर आजाद का निशाना बड़ा पक्का था। कहा जाता है कि भाबरा में वह बचपन में ही आदिवासी लड़कों से तीर चलाना सीख लिया था। जब क्रांतिकारी जीवन में आए, तो उन्होंने झांसी के निकट अपना कार्य क्षेत्र बनाया। झांसी के जंगलों में उन्होंने बंदूक चलाने की प्रैक्टिस की और कई क्रांतिकारियों को निशाना लगाना सिखाया। 

डीलडौल से लंबे तगड़े आजाद अंग्रेजों की आंख में धूल झोंकने के लिए कभी मोटे पेट वाला लाला बन जाया करते थे, तो कभी त्रिपुण्डधारी पंडित जी। उन्होंने कुछ समय तक झांसी में हरिशंकर ब्रह्मचारी के नाम से स्कूल में पढ़ाया भी था। एक बार वह फरारी के दिनों में पंडित का वेश धरे कहीं जा रहे थे। उन्होंने देखा कि एक सिपाही अपनी पगड़ी उतारकर पेड़ के नीचे सो रहा है। 

उनको मजाक सूझा और वह पगड़ी चुपके से उठाकर थानेदार के पास पहुंच गए। उन्होंने थानेदार से कहा कि यह पगड़ी उन्हें रास्ते में पड़ी मिली, तो यह पगड़ी आपको सौंपने के लिए चला आया हूं। जो पुलिस इतनी लापरवाह हो, वह चंद्रशेखर आजाद को कैसे पकड़ेगी। यह कहकर आजाद हंसते हुए अपनी राह चले गए। बाद में थानेदार को पता चला कि यही तो चंद्रशेखर आजाद थे, तो वह अपना सर पकड़कर बैठ गया।


Sunday, April 27, 2025

जॉर्ज बर्नार्ड शा ने दी युवक को सीख

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता जॉर्ज बर्नार्ड शा का जन्म 26 जुलाई 1856 को डबलिन में हुआ था। पश्चिमी रंगमंच, साहित्य और राजनीति पर उनका काफी प्रभाव रहा है। उन्होंने साठ से अधिक नाटक लिखे जिनमें मैन एंड सुपरमैन काफी प्रसिद्ध रहा। सन 1925 में उन्हें साहित्य का नोबल पुरस्कार दिया गया। बर्नार्ड शा को अपने जीवन में काफी संघर्ष करना पड़ा। 

उन्हें कई बार निराश भी होना पड़ा, लेकिन जीवन में पढ़ने की रुचि ने उन्हें एक महान लेखक बना दिया। शा ने लेखन की शुरुआत में पांच उपन्यास लिखे जिसे प्रकाशकों ने प्रकाशित करने से इनकार कर दिया था। हालांकि उनका पांचवां उपन्यास एक समाजवादी पत्रिका टू-डे में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ था। शुरुआती दौर में उन्हें अपने पिता की थोड़ी सी आर्थिक सहायता में ही जीवन गुजारना पड़ा। लेकिन जब वह प्रसिद्ध हो गए, तो उनके जीवन में थोड़ा संघर्ष कम हुआ। एक बार बर्नार्ड शा कहीं जा रहे थे। 

लोगों ने उन्हें घेर लिया। वह हंसमुख और मिलनसार व्यक्ति थे। हाजिरजवाब भी थे। उनके पास एक युवक आया और उसने शा से कहा कि वह उनके लेखन से बहुत प्रभावित है। उनका  सारा साहित्य उसने पढ़ा है। युवक ने कहा कि मैं भी आपकी तरह बनना चाहता हूं। कृपया मेरी डायरी पर आप हस्ताक्षर कर दें। 

शा ने युवक से उसकी डायरी ली और उस पर लिखा कि जीवन में सफल होना चाहते है, तो खूब मेहनत करो। लगन से काम करने से सफलता जरूर मिलती है। इतनी अधिक मेहनत करो कि तुम्हें किसी के हस्ताक्षर की जरूरत न हो, बल्कि लोग तुमसे हस्ताक्षर की मांग करें। यह लिखकर उन्होंने डायरी युवक को लौटा दी। युवक ने उनका लिखा हुआ पढ़कर उनसे वैसा ही बनने का वायदा किया।

आतंकी संगठनों की सबसे पहले रुकवानी होगी फंडिंग

अशोक मिश्र

पहलगाम हमले के बाद देश के जो हालात हैं, वह अपनी सरकार से कुछ ऐसा करने की मांग कर रहे हैं जिससे आतंकवाद की कमर टूट जाए। भारत सरकार ने जो पांच बड़े फैसले लिए हैं, उससे पाकिस्तान पर तत्काल बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है। जहां तक सिंधु और उसकी दो सहायक नदियों झेलम और चिनाब के पानी को रोक देने का सवाल है, उसे रोकने के लिए फिलहाल काफी समय और पैसा चाहिए। इन तीनों नदियों के कुछ प्रतिशत पानी को रोक देने से बात बनने वाली नहीं है। वाघा-अटारी बार्डर बंद करने से भी पाकिस्तान बहुत ज्यादा फर्क पड़ने की संभावना नहीं दिखाई दे रही है। जो देश अपनी खराब हालत के बावजूद आतंकियों को ट्रेनिंग देने, उन्हें भारत के खिलाफ आतंकी कार्रवाई करने के लिए उकसाता हो, उसके लिए वाघा बार्डर बंद हो या खुला, क्या मायने रखता है।

पहलगाम की घटना से प्रत्येक देशवासी दुखी और गुस्से में है। पाकिस्तान से युद्ध छेड़ना, काफी खर्चीला होगा। युद्ध से हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर कोई सकारात्मक प्रभाव तो पड़ेगा नहीं। जब दो देशों में युद्ध होता है, तो दोनों ओर के सैनिकों की मौत होती है। अभी तो हम अपने देश के 26 नागरिकों की मौत को सहन नहीं कर पा रहे हैं, ऐसी स्थिति में सैनिकों की शहादत कैसे बर्दाश्त की जा सकेगी। इसके लिए जरूरी है कि भारत पाकिस्तान और पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठनों पर ऐसा करारा प्रहार करे जिससे उसकी कमर ही टूट जाए। इसके लिए जरूरी है कि पाकिस्तान के आतंकी संगठनों तक पहुंचने वाली फंडिंग की नदी को सुखा दिया जाए। 

आतंकी संगठनों को विभिन्न देशों से जकात के नाम पर मिलने वाली फंडिंग ही रोकने की कोशिश की जाए। सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अल सऊद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मित्रता जगजाहिर है। सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मुस्लिम संगठनों को भारी मात्रा में अनुदान (जकात) देने के लिए प्रसिद्ध हैं। पाकिस्तान के कुछ संगठनों को भी उनसे जकात मिलती है।

यदि पीएम मोदी सऊदी अरब सहित मुस्लिम देशों से पाकिस्तान और पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठनों की करतूत का खुलासा करते हुए अपील करें कि वह ऐसे संगठनों को अनुदान देना बंद करें क्योंकि उनके द्वारा दिए गए अनुदान का उपयोग मानवता के खिलाफ किया जा रहा है। भारत सहित कुछ और देशों में निर्दोष जनता की हत्या करने में उनसे मिले पैसे का उपयोग किया जा रहा है। तो बात बन सकती है। पीएम मोदी का रसूख मुस्लिम देशों पर भी उतना ही है जितना प्रभाव अमेरिका, रूस, यूक्रेन आदि देशों पर है। 

संयुक्त अरब अमीरात के क्राउन प्रिंस शेख खालिद बिन मोहम्मद बिन जाएद अल नाहयान हों या बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर से लेकर सऊदी अरब तक के राष्ट्राध्यक्ष सबसे पीएम मोदी के मधुर संबंध हैं। यदि पीएम मोदी की अपील पर मुस्लिम देशों के राष्ट्राध्यक्ष थोड़ा सा भी तवज्जो दे दें, तो निश्चित रूप से पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों और उनके आकाओं की कमर टूट जाएगी। बस, इसके लिए इन देशों से व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से आह्वान करना होगा। थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि मुस्लिम देश पीएम मोदी की बात पर ध्यान नहीं देते हैं, तो कम से कम यह मलाल तो नहीं रहेगा कि हमने प्रयास ही नहीं किया।

फंडिंग के साथ-साथ पाकिस्तानी आतंकवादियों तक हथियारों की पहुंच को रोकना होगा। पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के पास चीन निर्मित हथियार पाए जाते हैं या फिर अमेरिका निर्मित। इन दिनों चीन टैरिफ वॉर में उलझा हुआ है। उसे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ वार से बचने के लिए भारत की बहुत जरूरत है। वह टैरिफ वॉर शुरू होने के बाद भारत की ओर कई बार दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका है। 

यदि चीन इस बारे में बात की जाए, तो इस बात की ज्यादा संभावना है कि वह पाकिस्तान को हथियार बेचना बंद कर दे। हालांकि पाकिस्तान से उसकी मित्रता काफी गहरी है। ठीक यही प्रक्रिया अमेरिका के साथ अपनाई जा सकती है। एक बार बात करने में कोई बुराई नहीं है। यत्ने कृते यदि न सिद्धयति, को अत्र दोष:।

Saturday, April 26, 2025

शाबाश बेटा! तुम ऐसे ही बने रहना

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

ज्ञान हमें विनम्र होना सिखाता है, लोगों का कल्याण करना सिखाता है। वह हमें प्रेरित करता है कि अपनी भलाई सोचते हुए भी दूसरे लोगों का भला कैसे किया जा सकता है। उस ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है जिससे समाज को कोई फायदा न हो। किसी राज्य में एक गुरुकुल था। 

उस गुरुकुल में सैकड़ों बच्चे शिक्षा हासिल कर रहे थे। कई राज्यों से गरीब और धनवान परिवारों के बच्चे समान रूप से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। गुरुकुल में कुछ राज्यों के राजकुमार तक वहां पढ़ रहे थे। जब किसी शिष्य की पढ़ाई पूरी हो जाती थी तो गुरु जी कई तरह की परीक्षाएं लिया करते थे। एक बार तीन शिष्यों की एक साथ शिक्षा पूरी हो गई। गुरु जी ने कई तरह की परीक्षाएं लीं और उन तीनों शिष्यों को बुलाकर कहा कि अभी तुम लोग अपनी कुटिया में जाओ। कल सुबह आना, तुम लोगों की अंतिम परीक्षा होगी। 

यह सुनकर तीनों शिष्य अपनी-अपनी कुटिया में चले गए। आधी रात को गुरु जी ने तीनों कुटिया से लेकर अपनी कुटिया तक ढेर सारे कांटे बिखेर दिए। सुबह हुई। तीनों शिष्य अपनी-अपनी कुटिया से बाहर निकले। एक शिष्य तो कांटों की परवाह किए बिना चलता हुआ गुरु जी की कुटिया के पास पहुंचा और बैठकर कांटे निकालने लगा। दूसरे शिष्य ने पहले वाले को कांटों पर चलते देखा, तो वह सतर्क हो गया। वह कांटों से बचकर चलने लगा और गुरु जी की कुटिया के बाहर बैठ गया। 

वहीं तीसरे शिष्य ने कांटों को देखा, तो उसने पास के पेड़ की कुछ टहनियां तोड़ी और उन्हें झाड़ू की तरह बांधकर रास्ते से सारे कांटे इकट्ठा किया और उसे कूड़ा फेंकने वाली जगह पर डाल आया। गुरु जी की कुटिया तक आकर उसने गुरु जी को प्रणाम किया और एक किनारे बैठ गये। गुरु जी ने उससे कहा कि शाबाश बेटा! तुम जीवन भर ऐसे ही बने रहना।

चित्र-साभार गूगल

Friday, April 25, 2025

पैसे के लिए नहीं किया लोगों का इलाज

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

शरलॉक होम्स नामक जासूस स्कॉटलैंड के चिकित्सक और जासूसी उपन्यास के लेखक सर आर्थर एग्नाशियस कॉनन डॉयल का काल्पनिक पात्र है। उनके जासूसी उपन्यासों का एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग रहा है। वह एक उच्च कोटि के चिकित्सक भी थे। उनका जन्म 22 मई 1959 में स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग में हुआ था। वह अपने दस भाई-बहनों में तीसरे नंबर पर थे। 

सन 1876 से 1881 तक उन्हें एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई की। कहते हैं कि शुरुआत में उनके पास मरीज बहुत कम आते थे। इसकी वजह से उन्होंने खाली समय में लघु कथाएं लिखनी शुरू की। बाद में उन्होंने शरलॉक होम्स को लेकर कुछ जासूसी उपन्यास भी लिखे। इससे वे काफी प्रसिद्ध हो गए। उन्होंने कविता, उपन्यास, लेख, विज्ञान कथाएं और प्रेमगीत भी लिखे हैं। एक बार की बात है। 

स्कॉटलैंड के एक पुराने अस्पताल में उनकी नियुक्ति की गई। संयोग से उन्हीं दिनों इलाके में सर्दी, निमोनिया और अन्य संक्रामक रोग फैल गया। अस्पताल में काफी मरीज इकट्ठा हो गए। संयोग से उस अस्पताल का सीनियर डॉक्टर खुद बीमार पड़ गया। अनुभवहीन नए डॉक्टर कॉनन पर लोगों का विश्वास नहीं था। लेकिन उन्होंने बिना कोई संकोच किए बच्चों को गोद में उठाया, दुलराया और उपचार किया। 

बीमार लोगों को बड़े आत्मविश्वास के साथ दवाएं दीं। उनके इलाज से लोग आश्चर्यजनक रूप से ठीक होने लगे। उस दिन उन्होंने बीस घंटे तक लोगों का इलाज किया। अगले दिन लोगों ने उन्हें पैसे देने चाहे, लेकिन उन्होंने लेने से इनकार करते हुए कहा कि यह मेरा काम था। बस आप लोग मुझे आशीर्वाद दें ताकि मैं अपने काम को ठीक से कर सकूं। कॉनन की यह बात सुनकर लोग प्रसन्न हो गए और खूब आशीर्वाद दिया।

पहलगाम हमला: मानवता के खिलाफ युद्ध की घोषणा

अशोक मिश्र

पहलगाम में मंगलवार को जो कुछ भी हुआ, दरअसल वह एक तरह से मानवता के खिलाफ युद्ध की घोषणा थी। यह धर्म के नाम पर कायर लोगों के समूह द्वारा कुछ निर्दोष लोगों पर किया गया कायराना हमला था। यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। कई दशकों से होता चला आ रहा है। इस हमले में इंसानियत की हत्या हुई है, भाईचारा घायल हुआ है। इसकी जितनी निंदा की जाए, वह कम ही है। 22 अप्रैल को कश्मीर के पहलगाम में जिस तरह आतंकियों ने खून की होली खेली और यह समझ लिया कि वह अपने मकसद में कामयाब हो गए, तो यह उनकी बहुत बड़ी भूल है।
किसी की निर्दोष की हत्या करने से कोई भी पवित्र उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता है। किसी बड़े और पवित्र उद्देश्य के लिए साधन की पवित्रता भी मायने रखती है। अगर लश्कर-ए-तोयबा का सहयोगी संगठन द रेजिस्टेंस फ्रंट अपने आपको इस्लामिक कायदे-कानून को मानने वाला कहतf है, तो यह सरासर झूठ है। इस्लाम या दुनिया का कोई भी धर्म किसी निर्दोष का खून बहाने की इजाजत नहीं देता। जिसका ईमान ही मुसल्लम नहीं, वह कैसा मुसलमान? पहलगाम में निर्दोषों की बेरहमी से हत्या करने वाले दरिंदे थे, हत्यारे थे, जुनूनी थे, लेकिन मुसलमान नहीं थे।
मुसलमान तो वह घोड़े वाला सैयद हुसैन शाह था जिसने अपनी जान तो दे दी, लेकिन कई लोगों की जान बचा गया। उसने हाथ जोड़ते हुए हमलावरों से कहा भी था कि इन्हें छोड़ दो। यह निर्दोष लोग हैं, भले ही इनका धर्म कोई भी हो। लेकिन हमलावर नहीं माने, तो उसने वही किया जो एक मुसलमान को करना चाहिए, ऐसी ही भिन्न परिस्थितियों में एक हिंदू को करना चाहिए, एक सिख, एक जैन, एक बौद्ध या एक ईसाई को करना चाहिए।
सैयद हुसैन शाह हमलावरों से भिड़ गया। उनकी रायफल छीनने की कोशिश में गोली चल गई और वह घायल हो गया। बाद में उसकी अस्पताल में मौत हो गई। यदि उसने यह हिम्मत न दिखाई होती, तो शायद मरने वालों की संख्या ज्यादा होती। सैयद हुसैन शाह की हिम्मत ने आतंकियों के हौसले को पस्त कर दिया। सच्चे हिंदू और मुसलमान तो वह लोग थे जो घायलों की मदद कर रहे थे, जरूरत पड़ने पर अपना खून दे रहे थे। घोड़े और खच्चर वाले वहां की हालत देखकर रो रहे थे और अपनी जान पर खेलकर यात्रियों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा रहे थे।
सच कहा जाए, तो द रेजिस्टेंस फ्रंट के दरिदों ने हिंदुओं पर हमला नहीं किया है, उन्होंने जम्मू-कश्मीर में पिछले कुछ सालों से फल-फूल रही पर्यटन इंडस्ट्री पर हमला किया है। धारा-370 लागू होने के बाद जम्मू-कश्मीर में चारों ओर फैलती जा रही शांति और खुशहाली पर हमला किया है। पर्यटकों पर हमला करके उन्होंने जम्मू-कश्मीर की धीरे-धीरे मजबूत होते भाईचारे और अर्थव्यवस्था पर हमला किया है। इस हमले के बाद जम्मू-कश्मीर में गए पर्यटक जल्दी से जल्दी अपने घर लौट जाना चाहते हैं।
हमलावरों ने उस विश्वास पर हमला किया है जिसने भारत और दूसरे देशों के पर्यटकों को श्रीनगर, पहलगाम जैसे पर्यटन स्थलों पर आने के लिए आकर्षित किया था। पर्यटकों के आने से जम्मू-कश्मीर के स्थानीय लोगों के चेहरे पर रौनक आने लगी थी। पर्यटन बढ़ने से कारोबार बढ़ने की उम्मीद पैदा होने लगी थी। लेकिन अफसोस, अब आगामी चार-पांच साल तक शायद ही देशी और विदेशी पर्यटक जम्मू-कश्मीर की ओर रुख करें। हमले के बाद जिस तरह पर्यटकों में भगदड़ मची हुई है, उससे यह बात साफ हो जाती है। इस एक हमले ने केंद्र और राज्य सरकार की चार-पांच साल की मेहनत पर पानी फेर दिया है। जो मानवीय क्षति हुई है, उसकी भरपाई तो संभव ही नहीं है, लेकिन जो आर्थिक नुकसान जम्मू-कश्मीर को आगे होने वाला है, उसकी भी भरपाई शायद ही संभव हो।

Thursday, April 24, 2025

सोहन लाल ने अंग्रेजों से नहीं मांगी माफी

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र


क्रांतिकारी सोहन लाल पाठक का जन्म 7 जनवरी 1883 को अमृतसर के पट्टी गांव में हुआ था। उनके पिता पंडित जिंदाराम पाठक की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। इसलिए सोहन लाल ने गांव से ही मिडिल पास किया और अध्यापक नियुक्त हो गए। उन्हीं दिनों लाहौर से लाला लाजपत राय ने वंदेमातरम नाम से उर्दू अखबार निकाला, तो वह शिक्षक की नौकरी छोड़कर वंदेमातरम के संपादक हो गए। 

नौकरी छोड़ने से आर्थिक स्थिति और बिगड़ गई। क्रांतिकारी विचारों के चलते जब अंग्रेजों का शिकंजा उन पर कसने लगा तो वह अमेरिका चले गए। इसी दौरान 15 जून 1918 को ढाका में प्रसिद्ध क्रांतिकारी तारिणी मजूमदार पुलिस मुठभेड़ में शहीद हो गए और घायल अवस्था में क्रांतिकारी नलिनी घोष गिरफ्तार कर लिए गए। बाद में जब सोहन लाल को उनके मित्र ने इन क्रांतिकारियों की शहादत के बारे में पत्र लिखा, तो सोहन लाल पाठक अमेरिका से लौट आए और बर्मा में क्रांतिकारियों के साथ सक्रिय हो गए। 

उन्होंने सेना में विद्रोह कराने का प्रयास किया। किसी हद तक वह सफल भी हो गए थे। एक दिन वह सैनिकों को देश की आजादी के लिए काम करने के बारे में समझा रहे थे तो वहां मौजूद एक जमादार ने पकड़ लिया और उन्हें अपने अफसर के पास ले जाने लगा। वह उस समय सशस्त्र थे और चाहते तो जमादार को मारकर वह मुक्त हो सकते थे, लेकिन किसी भारतीय के खून से हाथ रंगना उन्होंने उचित नहीं समझा। 

अंग्रेजों ने उन्हें बंदी बना लिया। उन्हें फांसी की सजा हुई। जब फांसी की सजा तय हो गई, तो बर्मा के गवर्नर ने उनसे कहा कि यदि माफी मांग लो तो छूट जाओगे। उन्होंने कहा कि माफी अंग्रेजों को मांगना चाहिए। हमारा देश है। उसे हम आजाद कराना चाहते हैं। अंत में उन्हें मांडले जेल में फांसी दे दी गई।


Wednesday, April 23, 2025

मनोरंजन के लिए किसी की हत्या उचित नहीं

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

सर वाल्टर रैले का जन्म 1552 ईस्वी में डेवन के एक जमींदार परिवार में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि उत्तरी अमेरिका को ब्रिटिश उपनिवेश बनाने में उनकी बड़ी भूमिका रही थी। वाल्टर के प्रारंभिक जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है। जितनी भी जानकारी मिलती है, उसके मुताबिक वह राजनेता, लेखक, सैनिक और एक अच्छे खोजकर्ता थे। 

ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ प्रथम के वह विश्वसनीय लोगों में से एक थे। हालांकि बाद में कुछ मतभेद की वजह से महारानी के आदेश पर उन्हें लंदन आफ टावर में कैद कर लिया गया था। जिस समय वाल्टर रैले पैदा हुए थे, उस समय अपनी वीरता को प्रदर्शित करने के लिए आमने-सामने की लड़ाई हुआ करती थी। इसे देखने के लिए लोगों की भारी भीड़ जुटती थी। 

इस तलवारबाजी में यदि किसी की मृत्यु हो जाती थी, तो उससे लड़ने वाले दूसरे व्यक्ति को कोई सजा नहीं दी जाती थी। कहते हैं कि वह तलवारबाजी में बहुत निपुण थे। उनकी तलवारबाजी में बहुत ज्यादा ख्याति थी। उन्हीं दिनों एक युवक उनके पास आया और उसने कहा कि सुना है, आप तलवारबाजी में बड़ी ख्याति रखते हैं। आप मुझसे तलवारबाजी में मुकाबला करें। मैं आपको निश्चित रूप से हरा सकता हूं। 

उस युवक की कम आयु को देखते हुए वाल्टर रैले ने कहा कि बच्चे बेकार की तलवारबाजी से शांति अच्छी है। तलवार चलाने की कला किसी के मनोरंजन के लिए नहीं होती है। यह सुनते ही उस युवक ने सर वाल्टर रैले के मुंह पर थूक दिया। इसके बाद वहां मौजूद भीड़ उग्र हो गई। 

लोगों ने उस युवक को पकड़कर वाल्टर के सामने पेश किया। वाल्टर ने रुमाल से थूक साफ करते हुए कहा कि मैं मनोरंजन के लिए किसी की हत्या नहीं कर सकता। यह सुनकर युवक उनके पैरों पर गिर पड़ा।

कलिकाल में पतियों का ‘मृत्यु योग’

व्यंग्य----------------------

अशोक मिश्र

अभी मैं सोकर भी नहीं उठा था कि मुसद्दी लाल ने दरवाजे पर दस्तक दी। किचन से ही घरैतिन ने आवाज लगाई, ‘देखिए, दरवाजे पर कौन है?’ मैंने लेटे-लेटे जवाब दिया, ‘मैं संजय नहीं हूं कि यही से लेटे-लेटे देख लूं कि दरवाजे पर कौन है?’ मेरा जवाब सुनकर घरैतिन तमतमा गईं। बोली-‘सुनिए, यह द्वापर युग नहीं है और न ही कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध चल रहा है। हमारे देश के राजा भी धृतराष्ट्र नहीं हैं, अच्छे भले प्रधानमंत्री हैं। बतकूचन करने की जगह उठकर जाइए और दरवाजे पर देखिए कौन है, जो दरवाजा ही उखाड़ने पर उतारू है।’

पत्नी रौद्र रूप अख्तियार करती उससे पहले मैं भुनभुनाता हुआ उठा और जाकर दरवाजा खोला। किसी सड़े-गले, मुड़े तुड़े नोट की तरह अस्त व्यस्त कपड़ों में मुसद्दी लाल खड़े थे। कई सालों से रंगाई पुताई न होने वाले पुराने मकान की तरह शरीर लिए मुसद्दी लाल कुछ बदहवास से थे। मैंने उन्हें अंदर आने का इशारा किया। वह अंदर आकर सोफे पर इस तरह गिरे मानो लोडर से रुई की गांठ सोफे पर गिरी हो। सोफा भी कराह उठा। मैंने उनके सामने बैठते हुए चिल्लाकर कहा, ‘घरैतिन...मुसद्दी लाल भाई आए हैं। कुछ चाय-शाय पिलवाओ।’ घरैतिन ने एक प्लेट में कुछ बिस्कुट और एक गिलास पानी लाकर रख दिया। मैंने मुसद्दी लाल से पूछा-‘और बताइए, आपका ज्योतिष केंद्र कैसा चल रहा है? आंख के अंधे और गांठ के पूरे कुछ बेवकूफ आपके जाल में फंसते हैं कि नहीं?’ मेरी बात सुनकर मुसद्दी लाल का चेहरा लाल हो गया। वह मुझे घूरते हुए बोले, ‘मेरा मजाक उड़ाओ, तो मैं बर्दाश्त करलूंगा, लेकिन मेरी ज्योतिष विद्या का मजाक मैं सहन नहीं करूंगा।’

मैं कुछ कहता, इससे पहले मुसद्दी लाल ने गिलास उठाकर एक ही सांस में पानी पिया और टेबल पर गिलास पटकते हुए कहा,‘मैंने परसों ही उससे कहा था कि यह कलिकाल की चरम अवस्था है। इस अवस्था में पतियों की कुंडली में राहु सातवें घर में बैठकर तीसरे घर के शुक्र को पीड़ित कर रहा है। वहीं आठवें घर में बैठा केतु पांचवें घर के चंद्रमा पर कुदृष्टि डाल रहा है। पति नाम के जातकों का कलिकाल की उच्च अवस्था में राहु-केतु के चलते मृत्युयोग चल रहा है। प्रेमिका के चक्कर-शक्कर में मत पड़। लेकिन नहीं माना। कहा था कि मेरे जैसे ज्योतिषी टके के भाव मिलते हैं। और देख लो, अपने ही घर में वह मूर्ति बना बैठा है।’ 

मुसद्दी लाल की बात सुनकर मुझे ऐसा लगा कि शायद उनका दिमाग फिर गया है। मैंने मुसद्दी लाल को घूरते हुए कहा-‘क्या लंतरानी हांक रहे हैं? हुआ क्या यह तो बताइए।’ मुसद्दी लाल ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा-‘परसों मेरे पास एक ग्राहक आया था। उसकी कुंडली देखकर मैंने कहा था कि तू जिस औरत के प्यार में पड़ा है, वह तेरे लिए ठीक नहीं है। तेरी कुंडली के राहु-केतु बड़े  उपद्रवी हैं, तुझसे तेरी प्रेमिका के पति की हत्या करवा सकते हैं। मंगल, शुक्र और चंद्रमा भी तेरी कुंडली में कंता की जगह हंता योग बना रहे हैं। सावधान रह, नहीं तो परिणाम बुरा होगा।’

इतना कहकर मुसद्दी लाल सांस लेने के लिए रुके। फिर बोले, ‘परसों रात में उसने अपनी प्रेमिका के साथ मिलकर उसके पति को जलाकर मार डाला। दोपहर में अपने घर आया, तो उसकी पत्नी ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर पहले गला दबाया। फिर पति की लाश को प्लास्टर आॅफ पेरिस में डुबो दिया। उसकी पत्नी के कलाकार प्रेमी ने उसे बैठी हुई अवस्था में प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्ति में बदल दियाा। पत्नी का इरादा मूर्ति बनाकर नदी में विसर्जित कर देने का था, लेकिन मूर्ति बने आदमी की पकड़ी गई प्रेमिका ने सारा राज उगल दिया, तो उसकी खोज हुई। पुलिस ने जब छापा मारा, तो मूर्ति बना शव लुढ़का और प्लास्टर आफ पेरिस टूटने से हाथ बाहर आ गया। तब यह हत्यारे भी पकड़े गए। आज अखबारों में दोनों हत्याओं की खबर छपी है।’ 

मुसद्दी लाल की बात सुनकर घरैतिन किचन से निकली। मैंने उन्हें देखते हुए कान पकड़े और इशारे से छबीली से न मिलने का वायदा किया। मेरा इशारा समझकर मुस्कुराती हुई घरैतिन ने चाय लाकर रख दी। हम दोनों चाय पीने लगे। 

Tuesday, April 22, 2025

बुद्ध बोले, प्रकृति ने तुम्हें अमूल्य निधियां दी हैं

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद किसी गुफा या कंदरा में बैठकर तपस्या नहीं की। उन्होंने राजपाट, उस समय की सबसे सुंदर मानी जाने वाली राजकुमारी यशोधरा जैसी पत्नी और अपने पुत्र राहुल का परित्याग किसी गुफा में बैठकर आत्मोत्थान के लिए तो किया नहीं था। यही वजह है कि वह अपनी मृत्यु तक सामान्य लोगों के बीच ही अपना जीवन गुजारते रहे। वह किसी शासक या राजपुरुष के महलों में रात बिताने कभी नहीं गए। 

यदि किसी ने सम्मानपूर्वक बुलाया तो गए, लेकिन काम खत्म होने के बाद फिर वह सामान्य लोगों के बीच ही आ गए। अपने राज्य की जनता को दुखी जानकर मानव मात्र के दुखों का हल खोजने निकले थे गौतम बुद्ध। जब उन्होंने दुखों का कारण जाना, तो वह हर आदमी को समाधान बताने के लिए गांव-गांव, शहर-शहर फेरा लगाया। 

एक बार एक गांव में महात्मा बुद्ध  लोगों को उपदेश दे रहे थे। उसी गांव में एक निर्धन भी रहता था। वह रोज देखता था कि परेशान, बदहाल लोग तथागत का उपदेश सुनने जाते हैं और जब वह लौटते हैं, तो प्रसन्न चित्त होते हैं। वह सोचने लगा कि आखिर महात्मा बुद्ध ऐसा क्या कर देते हैं कि लोग प्रसन्न हो जाते हैं। उसने सोचा कि उसे भी अपनी निर्धनता दूर करनी चाहिए। 

एक दिन पहुंच गया महात्मा बुद्ध के पास और अपनी समस्या बताई। बुद्ध ने कहा कि तुम्हारे निर्धन होने का कारण तुम्हारा अज्ञान है। प्रकृति ने तुम्हें होठों पर स्मिता दी है। ताकि तुम दुनिया भर को अपनी मीठी मुस्कान से लोगों को प्रसन्नचित्त कर सको। प्रकृति ने दो हाथ दिए हैं ताकि तुम लोगों की सेवा कर सको। तुम निर्धन कहां हो? तुम्हारे पर तो प्रकृति की दी हुई अमूल्य निधियां हैं। यह सुनकर वह आदमी समझ गया कि बुद्ध उसे क्या समझाना चाह रहे हैं।

चित्र साभार गूगल

Monday, April 21, 2025

गोखले ने रानाडे को अंदर जाने नहीं दिया

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई 1866 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में मराठी परिवार में हुआ था। गोखले कांग्रेस के नरमदल के नेता थे। वह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता होने के साथ-साथ सर्वेंट आॅफ इंडिया सोसायटी के संस्थापक भी थे। वह जीवन भर किसी भी तरह के भेदभाव के खिलाफ रहे। इनके युवावस्था की एक बहुत प्रसिद्ध कथा है। कहते हैं कि पुणे में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। 

उस कार्यक्रम में महादेव गोविंद रानाडे को भी भाग लेना था। महादेव गोविंद रानाडे उस समय बाम्बे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे। उस कार्यक्रम में न्यायाधीश महादेव गोविंद रानाडे को सम्मिलित होना था। कार्यक्रम के आयोजकों ने गोखले को पंडाल के गेट पर खड़ा करते हुए कहा कि जिसके पास निमंत्रण पत्र हो उसी को पंडाल के अंदर आने देना। गोखले अपने काम में जुट गए। जो निमंत्रण पत्र दिखाता था, उसको वह उसको अंदर जाने देते थे। 

संयोग से उसी दौरान कार्यक्रम के मुख्य अतिथि महादेव गोविंद रानाडे वहां पहुंचे। उनके पास निमंत्रण पत्र नहीं था। गोखले ने उनको अंदर जाने से रोक दिया। रानाडे वहीं खड़े हो गए। थोड़ी देर बाद स्वागत समिति का अध्यक्ष वहां पहुंचा और उसने रानाडे को वहां खड़ा देखा, तो गोखले से पूछा कि आपने इन्हें अंदर क्यों नहीं जाने दिया? गोखले ने कहा कि इनके पास निमंत्रण पत्र नहीं था, तो इनको अंदर नहीं जाने दिया जा सकता है। तब अध्यक्ष ने कहा कि यही तो कार्यक्रम के मुख्य अतिथि हैं। तुम्हें इन्हें अंदर आने देना चाहिए था। 

गोखले ने कहा कि मैं तो अपने कर्तव्य का पालन कर रहा था। इसके कुछ समय बाद गोखले न्यायाधीश रानाडे की विद्वता से प्रभावित होकर उनके काफी करीब होते चले गए और गोखले ने उन्हें अपना गुरु मान लिया। 



बचपन बचाना है तो बच्चों को सोशल मीडिया से रखें दूर

अशोक मिश्र

आज जो लोग चालीस से ऊपर की आयु के लोग हैं, वे अगर अपने बचपन को याद करते हैं तो क्या पाते हैं? स्कूल में साथियों के साथ धमाचौकड़ी, मस्ती, लड़ाई-झगड़े और स्कूल के बाद परिवार वालों के जबरदस्ती पढ़ने के लिए बिठा दिए जाने के बाद भी चुपके से निगाह बचाकर खेलने के लिए निकल जाना। खेलने के लिए न जाने कैसे-कैसे बहाने खोज लिए जाते थे। खेल भी क्या? 

वही पतंगबाजी, कंचा, गुल्ली डंडा, कपड़े धोने वाली थापी या लकड़ी के पटरे से बना बैट और प्लास्टिक या रबर की गेंद। उस युग में खेल के यही साधन थे। स्कूल के बाद का सारा समय खेलने में ही निकल जाता था। तब के बच्चों ने यह सोचना ही नहीं होगा कि एक दिन इंटरनेट होगा, मोबाइल फोन होंगे और विभिन्न तरह के एप्स होंगे जो सच्ची-झूठी सूचनाओं का एक असीमित संसार खोलकर उसी में किसी उपग्रह की तरह भटकने को मजबूर कर देंगे।

पैंतीस चालीस साल पहले बच्चे पढ़ते कम और खेलते ज्यादा थे। ऐसा भी नहीं था कि सारे बच्चे फेल हो जाते थे या थर्ड डिवीजन पास होते थे। प्रतिभाशाली बच्चों की कमी न तब थी और न आज है। तब भी बच्चे 95-98 प्रतिशत अंक हासिल करते थे, लेकिन उनके बचपन में यह मायावी संसार नहीं था। आज के नब्बे प्रतिशत बच्चे पहले के बच्चों की तरह कम ही खेलते हैं। 

आउटडोर गेम्स में उनकी रुचि उतनी नहीं है जितनी उन्हें मोबाइल, लैपटॉप या कंप्यूटर पर गेम्स खेलने, सोशल मीडिया पर समय गुजारने में मजा आता है। आज तो लगभग हर बच्चा कम से कम दो-तीन घंटा इंटरनेट पर जरूर समय बिताता है। खेल-कूद, धमाचौकड़ी, अपने दोस्तों से गपशप, लप्पाझप्पी क्या होता है, शायद ही आज के बच्चे जानते हों। उन पर दबाव भी बहुत है। ज्यादा से ज्यादा मार्क्स लाने का पैरेंट्स का दबाव, स्कूल और कोचिंग से मिले होमवर्कका दबाव जब ज्यादा हो जाता है, तब वे राहत के लिए बाहर खेलने जाने की बजाय सोशल मीडिया पर समय बिताना पसंद करते हैं।

सोशल मीडिया पर ज्यादा से ज्यादा समय बिताने के चलते होने वाले दुष्परिणामों को देखते हुए दुनिया के कई देशों ने बच्चों को इंटरनेट इस्तेमाल करने से रोकने के लिए कुछ नियम सख्ती से लागू कर दिए हैं। अब तो दुनिया भर में इस बात की मांग की जाने लगी है कि 14 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। आस्ट्रेलिया ने तो इस साल 10 दिसंबर से 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए टिकटॉक, इंस्टाग्राम, स्नैपचैट, फेसबुक, ट्विटर आदि का उपयोग प्रतिबंधित करने का फैसला किया है। 

यही नहीं अमेरिका में चिल्ड्रेन  आॅनलाइन प्राइवेसी प्रोटेक्शन एक्ट के तहत 13 वर्ष से कम आयु के बच्चों की जानकारी एकत्र करने के लिए मां-बाप की अनुमति को अनिवार्य कर दिया है। चीन में तो 18 साल से कम उम्र के बच्चों को सिर्फ दो घंटे ही सोशल मीडिया का उपयोग करने देने का प्रस्ताव रखा है। फ्रांस, जर्मनी, नार्वे आदि देशों में सोलह या अट्ठारह साल से कम आयु के बच्चों के सोशल मीडिया एकाउंट बनाने से पहले मां-बाप की इजाजत लेनी पड़ती है।

दरअसल, वर्चुअल दुनिया में बच्चों के शोषण का खतरा कुछ ज्यादा ही है। यही वजह है कि दुनिया भर के देशों में बच्चों के सोशल मीडिया उपयोग को नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है। आईएएमएआई के अनुसार भारत में  16 वर्ष तक की आयु के लगभग 40 प्रतिशत बच्चे सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं। यह संख्या 7.1 करोड़ के आसपास है। 

भारत में अभी डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट 2023 के तहत बच्चों की सोशल मीडिया पर उपयोग के नियम बनाए नहीं गए हैं। संभावना है कि अगले संसद सत्र में इस तरह का कोई बिल पेश किया जा सकता है।18 साल से कम उम्र के बच्चों का सोशल मीडिया एकाउंट खोलने के लिए माता-पिता की सहमति अनिवार्य की जा सकती है।

Sunday, April 20, 2025

मृत्यु निश्चित है तो क्यों न भयमुक्त होकर जिएं?


अशोक मिश्र

मृत्यु क्या है? यह सवाल तब से मौजूद है, जब से मानव में चेतना का विकास हुआ है। सदियों से इस सवाल का जवाब खोजा जा रहा है, लेकिन यह सवाल सच कहें तो आज भी अनुत्तरित है। कुछ लोग कहते हैं कि शरीर को सक्रिय रखने वाली आत्मा जब नया शरीर धारण करती है, तो शरीर की मृत्यु हो जाती है, लेकिन आत्मा की नहीं। फिर सवाल उठता है कि यह आत्मा क्या है? शरीर, आत्मा और परमात्मा इन्हीं तीन बातों पर भाववादी दर्शन टिका हुआ है। कुछ लोग मृत्यु को नए जीवन की शुरुआत मानते हैं। खैर...। यह तो प्रकृति का यह सर्वकालिक नियम है कि कोई भी दृश्य वस्तु जिसका निर्माण हुआ है, उसका विनाश निश्चित है। शरीर भी प्रकृति में मौजूद तत्वों से निर्मित हुआ है, तो इसका विनाश यानी मृत्यु तय है। कुछ लोग मानते हैं कि जिन तत्वों को मिलाकर यह शरीर बनता है, उन तत्वों की प्रकृति में रूपांतरण हो जाना ही मृत्यु है। मनुष्य यह जानते हुए कि मृत्यु निश्चित है, उसके बावजूद मृत्यु से दूर भागने की कोशिश करता है। वह हर संभव प्रयास करता है कि उसकी मौत न ही हो, वह कभी बूढ़ा न हो, लेकिन प्रकृति के नियमों को बदलने का सामर्थ्य अभी मनुष्य अपने भीतर नहीं पैदा कर पाया है। हां, इसका प्रयास वह जरूर कर रहा है।
मनुष्य अभी इस कोशिश में लगा हुआ है कि वह मृत्यु की ओर जाते जीवन को कुछ वर्षों के लिए ठिठका दिया जाए। एंटी एजिंग यानी उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा कर देने का प्रयास शुरू हो चुका है। जिनके पास अथाह पैसा है, धन-संपत्ति है, ऐशोआराम के समस्त संसाधन मौजूद हैं, वह क्यों चाहेंगे कि इतने सारे सुखों को त्यागकर इस दुनिया से जाना पड़े। ऐसी स्थिति में एंटी एजिंग से जुड़ी योजनाओं-परियोजनाओं में दुनिया भर के धनकुबेरों ने पूंजी निवेश करना शुरू कर दिया है। क्या पता, आगे चलकर कोई ऐसी खोज हो जाए जिससे मृत्यु पर विजय पाई जा सके? सन 2023 में एंटी एजिंग से जुड़े स्टार्टअप्स में दुनिया भर के अमीरों ने 41 हजार करोड़ रुपये का पूंजी निवेश किया था। अमेजन के संस्थापक जेफ बेजोस, ओपेनएआई के सीईओ सैम आल्टमैन, ओरेकल के सह संस्थापक लैरी एलिसन, अमेरिकी अरबपति ब्रायन जॉनसन जैसे तमाम लोग रिवर्स एजिंग के क्षेत्र में पूंजी निवेश कर रहे हैं। मौत का भय उन्हें अपने आप को सदैव जवां रहने के लिए मजबूर कर रहा है। वैसे दुनिया का हर आदमी मौत से भयभीत है, यह कहना थोड़ा गलत होगा।
जैन धर्म में एक परंपरा है संथारा। इसका उल्लेख सल्लेखना के तौर पर भी किया जाता है। वैसे तो मैं जैन धर्म के बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानता हूं, लेकिन जितना पढ़ा है, उसके मुताबिक इस परंपरा को मानने वाले जब अपने जीवन के अंतिम काल में पहुंचते हैं तो वे संथारा अपना लेते हैं। संथारा अपनाने वाला व्यक्ति खाना-पीना छोड़ देता है। यदि उसके कोई घातक रोग हुआ है तो वह दवाएं भी लेना छोड़ देता है और चुपचाप मौत का इंतजार करता है। सोचकर देखिए, कितना कठिन होता है चुपचाप मौत का इंतजार करना। पल प्रतिपल मौत की ओर बढ़ना, कितने साहस का काम है। मौत को निकट आते देखकर भी न कोई अफसोस, न घबराहट, न भय, एकदम अपने परिवेश से पूर्णत: अलग होकर अपने आपको समेट लेना कितनी कठिन प्रक्रिया होती होगी संथारा। कहा जाता है कि जैन धर्म में कोई ईश्वर नहीं है। जैन शुद्ध, स्थायी, व्यक्तिगत और सर्वज्ञ आत्मा में विश्वास करते हैं। लगभग ढाई हजार साल पुराने इस धर्म को मानने वाले भारत में अनुमानत: पचास लाख लोग हैं। एक आंकड़ा बताता है कि हर साल लगभग दो से चार सौ लोग संथारा अपनाते हैं। इस दौरान परिवार के लोग भी बड़ा संयम रखते हैं। इनके इस संयम की सराहना की जानी चाहिए कि यह जानते हुए कि उनके अजीज मौत के आगोश में जा रहे हैं, इसके बावजूद वह शांत रहते हैं।

गुजराती संत सरयू दास की उदारता

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

सहनशील व्यक्ति अपने जीवन में न केवल सुखी रहता है, बल्कि वह दूसरे प्राणियों के प्रति उदार भी रहता है। सहनशीलता उसे दूसरों की पीड़ा को जानने और लोगों की मदद करने के लिए भी प्रेरित करती है। सहनशाल व्यक्ति को कभी किसी प्रकार की परेशानी का सामना भी नहीं करना पड़ता है। यदि दुनिया का हर आदमी सहनशील हो जाए, तो पूरे विश्व में लड़ाई झगड़ों को खत्त्म किया जा सकता है। 

ऐसे ही एक सहनशील और दया की प्रतिमूर्ति थे संत सरयू दास। उनका जन्म गुजरात के किसी गांव में हुआ था। इनकी पढ़ाई लिखाई बहुत कम हो पाई थी। वह बचपन से ही अपने मामा के यहां रहते थे। जब थोड़े समझदार हुए, तो यह अपने मामा के ही कारोबार में मदद करते थे। इनका बचपन से ही अध्यात्म की ओर झुकाव होने लगा था। युवा होने पर इनके मामा-मामी ने इनका विवाह करा दिया। 

लेकिन संयोग की बात है कि इनकी पत्नी बहुत ज्यादा दिन जीवित नहीं रहीं। पत्नी की मृत्यु के बाद तो इनका झुकाव पूरी तरह अध्यात्म की ओर हो गया। सरयू दास ने संन्यास ग्रहण कर लिया। एक बार की बात है, यह कहीं जा रहे थे। रेलगाड़ी में इन्हें कहीं बैठने की जगह नहीं मिली। किसी तरह इन्होंने जगह बनाई और डिब्बे में ही फर्श पर बैठ गए। इनके सामने खड़ा एक व्यक्ति बार-बार अपना पैर इनके पैर पर मारता और हटा लेता। 

कई बार ऐसा होने पर संत सरयू दास ने उस आदमी से कहा कि भैया, मुझे लगता है कि आपके पैर में किसी किस्म की तकलीफ है। इसलिए आप मेरा ध्यान उस खींचना चाहते हैं। इसके बाद उन्होंने उस व्यक्ति का पैर अपनी गोद में रख लिया और उसे सहलाने लगे। यह देखकर उस व्यक्ति ने सरयूदास से क्षमा मांगते हुए कहा कि मुझे माफ कर दीजिए। मैं ही नीच आदमी हूं।


Saturday, April 19, 2025

मार्टिन लूथर ने चलाया सुधार आंदोलन

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

संत मार्टिन लूथर जर्मनी में ईसाई धर्म में सुधार आंदोलन चलाने के लिए जाना जाता है। उनका जन्म 10 नवंबर 1486 को जर्मनी के इस्लीडेन राज्य में हुआ था। इनके पिता हैंस लूथर किसी खान में मजदूरी करते थे। वह चर्चों में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ थे। वह ईसाई धर्म की रूढ़ियों के भी विरोधी थे। कहा जाता है कि संत लूथर को संगीत बहुत पसंद था। वह वीणा बजाते थे। 

उन्होंने अपना पहला भजन सन 1524 में लिखा था जो काफी प्रसिद्ध हुआ था। 1525 में जब मार्टिन लूथर ने ईसाई धर्म में सुधार का आंदोलन चलाया, उसी दौरान उन्होंने कैटरीना वॉन बोरा से विवाह कर लिया था। उनके छह बच्चे थे जिसमें से एक नवजात पुत्र और तेरह वर्षीय एक पुत्री की मौत हो गई थी। कहते हैं कि लूथर ने ही बाइबिल का जर्मन भाषा में अनुवाद किया था जिसकी वजह से जर्मनी में ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में आसानी हुई थी। 

जब वह ईसाई धर्म में सुधारवादी आंदोलन चला रहे थे, तो ईसाई धर्म के ही कुछ लोग उनसे नाराज हो गए। इन लोगों ने लूथर के बारे में कुछ गलत कहना शुरू किया। इससे उनके शिष्य काफी नाराज हो गए। एक दिन उनके एक शिष्य ने लूथर से कहा कि आपके विरोधी आपके बारे में ऊटपटांग प्रचार कर रहे हैं। आप उनको श्राप दे दें ताकि वह नष्ट हो जाएं। 

तब मार्टिन लूथर ने कहा कि मैं कोई सर्वशक्तिमान तो हूं नहीं कि मैं उन्हें श्राप दे दूं। तब शिष्य ने कहा कि आप ईश्वर से प्रार्थना करें कि उनका मन बदल जाए। तब लूथर ने कहा कि यदि वह अपने मन से राग और द्वेष को निकालना ही नहीं चाहें, तो कोई उनकी कैसे सहायता कर सकता है। इसके लिए तो उन्हें खुद प्रयास करना होगा। ईश्वर ही उनको सच्ची राह दिखा सकता है। यह सुनकर शिष्य चुप रह गया।

चित्र--साभार गूगल

Friday, April 18, 2025

चाय की बदौलत थामस लिप्टन ने कमाए अरबों रुपये

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

चाय पीने वालों ने लिप्टन टी का नाम जरूर सुना होगा। लिप्टन चाय के संस्थापक थॉमस लिप्टन का जन्म 10 मई 1848 को ब्रिटेन के ग्लासगो में हुआ था। थॉमस के तीन भाई और एक बहन थी जो बचपन में ही मर गए थे। इनके माता और पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इनके पिता पेंटर से लेकर छोटी-मोटी दुकान चलाने का काम करते थे। लेकिन थॉमस बचपन से ही बड़ा आदमी बनने का सपना देखते रहते थे। अपने पिता की आर्थिक मदद करने की खातिर तेरह साल की उम्र में ही थॉमस ने पढ़ाई छोड़ दी थी। 

उन्होंने कई तरह के काम किए। 1864 में उन्होंने एक स्टीमर पर केबिन बॉय के रूप में काम करना शुरू किया। उसी दौरान नाविकों से अमेरिका के बारे में सुना तो वह अपनी बचत से अमेरिका जाने का निश्चय किया। अमेरिका में पांच साल रहे और विभिन्न काम किए। 

हर जगह काम के दौरान उन्हें तर्जुबा हासिल हुआ। इस दौरान उन्होंने पूरे अमेरिका का भ्रमण किया। 1870 में वह अपने माता-पिता के पास ग्लासगो लौट आए। यहां उन्होंने एक प्रोवीजन स्टोर खोला और उसे अच्छी तरह से सजाया। ग्राहक आने लगे। लेकिन कुछ चीजों के दाम ज्यादा होने की वजह से गरीब परिवारों के लोग उनके यहां से खरीदारी नहीं कर पा रहे हैं। 

उन्होंने महसूस किया कि गरीब और मध्यम आयवर्ग के लोग चायपत्ती का पैकेट उठाते हैं और दाम पूछकर रख देते हैं। तब उन्होंने फैसला किया कि वह चाय के बागान में जाकर सीधे उत्पादक से चाय खरीदेंगे। उत्पादक से चाय खरीदकर उन्होंने छोटे-छोटे पैकेट बनाकर सस्ते दामों पर बेचना शुरू किया। उन्होंने अपने ब्रांड का नाम रखा लिप्टन टी। देखते ही देखते उनकी चाय मशहूर हो गई। उन्होंने चाय की बदौलत अरबों रुपये कमाए।


चित्र--साभार गूगल

Thursday, April 17, 2025

सब कुछ राष्ट्र के नाम कर गए चितरंजन दास

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

चितरंजन दास को ‘देशबंधु’ की उपाधि लोगों ने दी थी क्योंकि उन्होंने जीवनभर लोगों के हितों का ही ध्यान रखा। चितरंजन दास का जन्म 5 सितंबर 1870 को कोलकाता हाईकोर्ट के प्रसिद्ध वकील भुबन मोहन दास के यहां हुआ था। भुबन मोहनदास और उनके भाई दोनों कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत करते थे। एक दिन जब चितरंजन दास दस-ग्यारह साल के थे, तो उनके चाचा ने बस यों ही पूछ लिया कि चितरंजन तुम बड़े होकर क्या बनोगे? 

चितरंजन ने जवाब दिया कि बड़ा होकर मैं क्या बनूंगा, यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन मैं वकील नहीं बनूंगा। क्योंकि वकीलों को पैसे लेकर झूठ बोलना पड़ता है और अपराधियों को बचाना पड़ता है। इस बात का चाचा क्या जवाब देते, इसलिए चुप रह गए। चितरंजन को बचपन से ही झूठ से बड़ी नफरत थी। 

संयोग देखिए, बड़े होकर चितरंजन दास वकील ही बने, लेकिन उन्होंने जीवन भर वकालत के पेशे में कभी झूठ नहीं बोला। वह गरीबों और देश को स्वाधीन कराने वाले क्रांतिकारियों के मुकदमे बिना फीस लिए लड़ते थे। देशबंधु ने अपने जीवन में कई भूमिकाएं निभाई। वह बैरिस्टर होने के साथ-साथ लेखक, पत्रकार, स्वाधीनता संग्राम सेनानी और कवि थे। सन 1907 में देशबंधु ने कांग्रेस की सदस्यता हासिल की। उन्होंने बंगाल कांग्रेस के विभिन्न पदों को सुशोभित किया। 

वह महात्मा गांधी से काफी प्रभावित थे। उन्होंने महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन को पूरा समर्थन दिया, लेकिन वह असहयोग आंदोलन से असहमत थे। हालांकि बाद में वह असहयोग आंदोलन में शरीक भी हुए। जब उनका राजनीतिक जीवन अपने चरम पर था, उन्हीं दिनों देशबंधु का स्वास्थ्य बिगड़ गया और 16 जून 1925 को दार्जिलिंग में तेज बुखार के चलते उनका निधन हो गया।

Wednesday, April 16, 2025

झींगा और केकड़ा के लिए लड़ते अमेरिकी और कनाडाई लोग

अशोक मिश्र

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि बेशकीमती झींगा और केकड़े (क्रस्टेसिएन्स) दो देशों के बीच विवाद का कारण बन सकते हैं। वह भी आज से नहीं, सत्रहवीं सदी से। अमेरिका और कनाडा के बीच एक द्वीप है मचियास सील। यह द्वीप ग्रे जोन में आता है। ग्रे जोन उस क्षेत्र विशेष को कहते हैं जिसको लेकर किसी देश या राज्य का अधिकार स्पष्ट न हो या दो देशों के बीच स्वामित्व को लेकर विवाद हो या उस क्षेत्र विशेष को अंतर्राष्ट्रीय अदालत ने दो देशों की साझा संपत्ति माना हो। मचियास सील द्वीप पर स्वामित्व को लेकर अमेरिका और कनाडा में कई सौ साल से विवाद चला आ रहा है। इन दोनों देशों के बीच सदियों से चले आ रहे विवाद को निपटाने के लिए 1984 में अंतर्राष्ट्रीय अदालत ने कहा था कि इस जलमार्ग पर दोनों देश यानी कनाड़ा और अमेरिका को मछली पकड़ने का अधिकार है।

 अब मचियास सील द्वीप पर झींगा मछली और केकड़े आदि पकड़ने के लिए अमेरिकी और कनाडाई नागरिकों में आए दिन भिड़ंत हो जाती है। मचियास सील द्वीप के चारोंं ओर 277 वर्ग किमी क्षेत्रफल है। दोनों देशों के नागरिक अपने अपने क्षेत्र में पड़ने वाले इलाके में मछली पकड़ते हैं, लेकिन कभी कनाडाई तो कभी अमेरिकन एक दूसरे पर मछली पकड़ने वाले जाल को चुरा ले जाने का आरोप लगाते हैं, तो कभी एक दूसरे के क्षेत्र में अतिक्रमण करके मछली पकड़ने का। इसके चलते मारपीट हो जाती है, खून बहाया जाता है और मचियास सील द्वीप का पानी लाल हो जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि कनाडा और अमेरिका के अधिकारी एक दूसरे से भिड़ जाते हैं तो इसी मुद्दे को लेकर दोनों देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री।

 डोनॉल्ड ट्रंप जब पहली बार राष्ट्रपति बने थे, तो दोनों देशों में काफी दोस्ताना था। बात बहुत पुरानी नहीं है। जब सन 2017 में ट्रंप ने जब कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की ह्वाइटहाउस में मेजबानी की थी, तो उन्होंने कनाडा की दोस्ती की तारीफ में खूब कशीदे काढ़े थे। ट्रंप ने तो यहां तक कहा था कि दोनों देशों के रिश्ते बहुत खास हैं। दोनों देश एक दूसरे से बहुत कुछ लेते हैं और देते हैं। लेकिन जब ‘ड्रिल बेबी ड्रिल’ का नारा लगाकर दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बने, तो हालात बदल गए। ट्रंप ने कनाडा पर सबसे पहला हमला उसे अमेरिका का 51वां प्रांत बताते हुए  तत्कालीन प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को कनाडा का गवर्नर तक बताया था। हालांकि तब ट्रूडो इस ट्रंप के इस बयान को लेकर चुप ही रहे। लेकिन अब कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्ने अमेरिका द्वारा लगाए गए टैरिफ और मचियास सील द्वीप को लेकर मुखर हैं।

कनाडाई जनता को और प्रधानमंत्री कार्ने को ट्रंप का कनाडा को अमेरिका का 51वां प्रांत कहना भी पसंद नहीं आया। हाल ही में पीएम कार्ने ने कहा था कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था और मिलिट्री के साथ पुराने दौर के संबंध अब खत्म हो गए हैं। मैं कनाडा को कमजोर करने की हर कोशिश को अस्वीकार करता हूं। जाहिर सी बात है कि कई मुद्दों को लेकर कनाडा और अमेरिका की दूरी बढ़ती जा रही है। कुछ राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि जब से ट्रंप अमेरिका के दूसरी बार राष्ट्रपति बने हैं, तब से वह अपना सारा देश उन देशों पर केंद्रित कर रहे हैं, जहां पर प्राकृतिक खनिज और संसाधन प्रचुर मात्रा में है। 

कनाडा के पास रेयर अर्थ मेटल, तेल, कोयला और लकड़ी का भंडार हैं। अपनी इसी नीति को आगे बढ़ाते हुए ट्रंप ग्रीनलैंड, कनाडा, मैक्सिको और पनामा नहर को अपने कब्जे में लेने की बात कह चुके हैं। इस मामले में फिलहाल ट्रंप की नीति सफल होती नहीं दिख रही है। यही वजह है कि पिछले एक डेढ़ महीने से ट्रंप चीन को निशाने पर लेने के साथ-साथ कनाडा, मैक्सिको, ग्रीनलैंड को टैरिफ के नाम पर डराने की कोशिश कर रहे हैं। कनाडा, मैक्सिको, भारत सहित कई देशों पर रेसिप्रोकल टैरिफ लगाने की घोषणा करते हैं और फिर दस प्रतिशत के बाद आगे नहीं बढ़ते हैं। ट्रंप का हाल ‘साफ छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं’ वाला है। 

डॉ. जाकिर हुसैन ने नौकर के लिए बनाई चाय

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

महात्मा गांधी के अनन्य सहयोगी डॉ. जाकिर हुसैन हमेशा विनम्रता को ही आचरण का आधार मानते थे। उनका जन्म 8 फरवरी 1897 को हैदराबाद के एक अफरीदी पश्तून परिवार में हुआ था। उनकी प्रारंभिक पढ़ाई लिखाई उत्तर प्रदेश में हुई थी। बाद में वह उच्च शिक्षा के लिए बर्लिन गए थे और वहां से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। 

डॉ. जाकिर हुसैन जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। बाद में वह इसी विश्वविद्यालय में कुलपति भी बनाए गए। वह भारत के उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति भी रहे। उनकी विनम्रता के बारे में एक किस्सा बहुत मशहूर है। उनके घर में एक नौकर था। काफी दिनों से वह जाकिर हुसैन के घर में काम करता आ रहा था, इसलिए वह थोड़ा आलसी भी हो गया था। 

वह सुबह देर तक सोता रहता था। घर के लोग सुबह जल्दी उठने को कहते थे, तो वह टालमटोल कर देता था। एक परिवार वालों ने इसकी शिकायत जाकिर हुसैन से की तो उन्होंने कहा कि उसे समझाओ। वह समझ जाएगा। लोगों ने उस नौकर को विभिन्न तरीके से समझाया, लेकिन उसकी समझ में नहीं आया। कुछ दिनों बाद लोगों ने उस नौकर की एक बार फिर शिकायत की और कहा कि अब आप ही उसे समझाएं। 

जाकिर हुसैन सहमत हो गए। अगले दिन सुबह पांच बजे एक गिलास में पानी लेकर उस नौकर के पास पहुंचे और उसे जगाते हुए बोले, उठिए जनाब, जागिए। मुंह हाथ धो लीजिए, तब तक मैं चाय बना लाता हूं। यह कहकर जाकिर हुसैन अंदर चले गए। थोड़ी देर बाद एक कप में चाय लेकर लौटे और नौकर से कहा, आप चाय पी लीजिए। यह सुनकर वह नौकर घबरा गया। अगले दिन वह नौकर सबसे पहले उठकर सारा काम किया। उसमें आए बदलाव से सब लोग चकित रह गए।


Tuesday, April 15, 2025

मेहनत और दृढ़ संकल्प से हुए शिक्षित

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

अगर कोई व्यक्ति पढ़ना लिखना चाहता है, तो वह अपनी शिक्षा का कोई न कोई मार्ग अवश्य तलाश लेगा। दुनिया भर में बहुत सारे ऐसे उदाहरण आपको मिल जाएंगे, जब गरीब से गरीब व्यक्ति ने पढ़ने के जुनून को पूरा करने के लिए ढेर सारा परिश्रम किया और जीवन में कुछ बनकर दिखाया। 

हमारे देश के भी कई महापुरुषों ने गरीबी से लड़ते हुए शिक्षा हासिल की और दुनिया में अपना नाम रोशन किया। ठीक इसी तरह अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन ने उदाहरण पेश किया था बचपन में। जब वह छोटे थे, तो उनमें पढ़ने की बहुत ललक थी। उनके माता-पिता बहुत गरीब थे। एक दिन वे एक स्कूल के प्रिंसिपल के पास पहुंचे और उनसे बोले कि मैं पढ़ना चाहता हूं, लेकिन मेरे माता-पिता स्कूल की फीस नहीं भर सकते हैं।

स्कूल में निशुल्क पढ़ने का कोई तरीका है तो बताएं। प्रिंसिपल ने कहा कि यदि तुम्हें स्कूल में पढ़ने को मिल जाए, तो तुम स्कूल के लिए क्या करोगे। इस पर बालक वाशिंगटन ने कहा कि मैं स्कूल के बगीचे और फर्श आदि की सफाई कर दिया करूंगा। प्रिंसिपल ने कहा कि ठीक है। कल से तुम पढ़ने आ जाओ। उस दिन जार्ज वाशिंगटन ने पूरे स्कूल की सफाई की और बगीचों को भी साफ सुथरा बना दिया।

अगले दिन से वह स्कूल जाने लगा। सुबह वह मन लगाकर पढ़ाई करता और स्कूल खत्म होने के बाद स्कूल के गार्डन और फर्श आदि की सफाई करता। यह सिलसिला काफी दिनों तक चलता रहा। अपनी क्लास के अच्छे छात्रों में गिने जाने वाले जार्ज वाशिंगटन अपनी प्रतिभा और लगन के चलते एक दिन अमेरिका के राष्ट्रपति बने, लेकिन वह उस प्रिंसिपल को आजीवन नहीं भूले।

राजेंद्र बाबू ने अपने नाती को दिया एक रुपया

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

भारतीय गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे। उनका जन्म 3 दिसम्बर 1884 को बिहार के तत्कालीन सारण जिले (अब सीवान) के जीरादेई नामक गाँव में हुआ था। कांग्रेस के अग्रगण्य नेताओं में से एक राजेंद्र प्रसाद वकालत की पढ़ाई की और वकील बनने के साथ ही साथ वह कांग्रेस से जुड़े गए। देश के आजाद होने पर उन्हें संविधान निर्मात्री समिति का अध्यक्ष बनाया गया। 

इसके बाद वह आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति चुने गए। उन्होंने 12 वर्ष तक राष्ट्रपति पद को सुशोभित किया। एक घटना उस समय की है, जब वह राष्ट्रपति थे। एक दिन उनकी बेटी राष्ट्रपति भवन में उनसे मिलने आई। बेटी के साथ उसका बेटा यानी डॉ. राजेंद्र प्रसाद का नाती भी था। 

कुछ घंटे रहने के बाद जब मां-बेटे जाने लगे, तो राजेंद्र प्रसाद ने अपने नाती को एक रुपया दिया। तब उनकी पत्नी राजवंशी देवी ने राजेंद्र प्रसाद से कहा कि आप राष्ट्रपति होते हुए भी अपने नाती को विदाई में सिर्फएक रुपया दे रहे हैं। यह सुनकर राजेंद्र बाबू गंभीर हो गए। 

उन्होंने कहा कि मेरे लिए देश का हर बच्चा मेरा नाती-पोता है। सब मेरे बच्चे हैं। अब अगर मैं अपने उन बच्चों को एक-एक रुपया देना चाहूं, तो क्या ऐसा कर पाना संभव है। मैं अपनी तनख्वाह से तो देश के सभी बच्चों को एक-एक रुपया नहीं दे सकता। यह सुनकर उनकी पत्नी राजवंशी देवी चुप रह गईं। 

वह समझ गईं कि उनके पति के विचार कितने ऊंचे हैं। राजेंद्र बाबू कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राष्ट्रपति रहते हुए अपने और अपने रिश्तेदारों के लिए कुछ नहीं सोचा। जब वह राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत्त हुए, तो वह सदाकत आश्रम में रहने चले गए। 28 फरवरी 1963 में भारत रत्न राजेंद्र बाबू का सदाकत आश्रम में निधन हो गया।

Monday, April 14, 2025

धर्म प्रचार के लिए कलिंग जाने की इच्छा

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

महात्मा बुद्ध ने अहिंसा का संदेश जन-जन को दिया था। उन्होंने लोगों को हमेशा मिल जुलकर रहने और किसी भी तरह के विवाद से दूर रहने का संदेश दिया करते थे। उन्होंने संघ की स्थापना करके धर्म का प्रचार करने के लिए अपने शिष्यों को दूर-दूर तक भेजा। 

वह लोगों में अहिंसा का प्रचार करते हुए धर्मानुसार जीवन यापन करने की प्रेरणा देते थे। एक दिन उनका शिष्य यशोवर्मन ने आकर महात्मा बुद्ध से कहा कि वह कलिंग जाकर धर्म का प्रचार करना चाहता है। बुद्ध ने कहा कि कलिंग के लोग ईष्यालु और क्रोधी हैं। वे तुम से झगड़ा करेंगे। तुम्हारा वहां जाना उचित नहीं है। इस पर शिष्य ने कहा कि वे झगड़ा ही तो करेंगे? मारेंगे तो नहीं। कलिंग के लोग तो बहुत दयालु हैं। मैं झगड़ा ही नहीं करूंगा।

यह सुनकर बुद्ध बोले कि वे मारपीट भी कर सकते हैं। तुम कलिंग वालों को नहीं जानते हो। यह सुनकर शिष्य ने कहा कि कलिंग वाले सचमुच दयालु हैं। वे मारपीट ही करेंगे, जान से तो नहीं मारेंगे। मैं धर्म के प्रचार के लिए मार खा लूंगा। बुद्ध मन ही मन मुस्कुराए और बोले, वे तुम्हें जान से भी मार सकते हैं। 

तुम्हारा वहां जाना उचित नहीं है। यशोवर्मन भी अड़ा रहा। उसने कहा कि यदि धर्म का प्रचार करने के लिए जान भी देनी पड़े, तो समझिए कि जीवन सार्थक हो गया। आपने ही तो कहा है कि यदि लोगों की भलाई के लिए जान चली जाए, तो बुरा नहीं है। बुद्ध ने कहा कि तुम सचमुच प्रचार के लिए जाने लायक हो। 

बौद्ध प्रचारक को सहिष्णु, क्षमाशील और दयालु होना चाहिए। तुममें यह तीनों गुण हैं। इसके बाद महात्मा बुद्ध ने यशोवर्मन को धर्म प्रचार के लिए कलिंग जाने की अनुमति दे दी।

यह राजमहल नहीं, सराय है, राजन!

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

प्रकृति में कुछ भी स्थिर नहीं है। हर पल दुनिया में बदलाव आता रहता है। ऐसी स्थिति में यही कहा जा सकता है कि प्रकृति में जो भी पदार्थ या जीवित प्राणी है, वह हमेशा प्रकृति में मौजूद नहीं रहेगा। कुछ न कुछ बदलाव जरूर होगा। जो पैदा होगा, उसकी मृत्यु निश्चित है। इस बात को बहुत सारे लोग भूल जाते हैं और यदि वह सत्ता पा जाएं या धनिक हो जाएं, तो उन्हें अपने पद और धन का अहंकार हो जाता है। 

किसी राज्य में ऐसा ही एक राजा हुआ है। उसे अपने धन का बहुत अहंकार था। वह किसी की बात नहीं सुनता था, किसी की इज्जत नहीं करता था। उसके राज्य के पड़ोसी राजओं से भी उसके संबंध ठीक नहीं थे। जब किसी पड़ोसी राजा के यहां कोई आयोजन होता, तो वह बेमन से उस राजा को निमंत्रण देते थे। प्रजा भी उस राजा से बहुत परेशान रहती थी। जब चाहता था, कोई न कोई नया फरमान जारी कर देता था। 

कहते हैं कि एक बार उस राज्य से होकर एक संत जा रहा था। उसने राजा के व्यवहार और घमंड के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। वह सीधा राजमहल की ओर आया और दरबान से कुछ कहे बिना राजमहल में घुसता चला गया। वह सीधा जाकर उस कक्ष में पहुंचा जहां राजा बैठा हुआ था। उसने राजा को देखते ही कहा कि हटो, हटो, मैं कुछ दिन इस सराय में रहना है। 

राजा ने कहा कि यह सराय नहीं मेरा राजमहल है। संत ने कहा कि यह सराय है, राज महल नहीं। राजा नाराज हो उठा और बोला,कैसी बात करते हैं आप। यह मेरा राजमहल है। संत ने कहा कि अच्छा बताओ, इस राज महल में तुमसे पहले कौन रहता था। राजा ने कहा कि मेरे पिता जी। संत ने पूछा, उनसे पहले। राजा ने कहा कि मेरे दादाजी। संत ने कहा कि फिर तो यह सराय ही हुई न। आज तुम यहां रह रहे हो, कल कोई दूसरा रहेगा। यह सुनकर राजा पर मानो गाज गिर पड़ी। वह संत की बात समझकर उसके पैरों पर गिर पड़ा।



Sunday, April 13, 2025

हुजूर! किसी को झूठा आश्वासान न दें

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

किसी को मदद करने का आश्वासन देकर भूल जाना, बहुत बड़ा गुनाह है। जब किसी को मदद का आश्वासन दिया जाता है, तो वह आदमी उस विश्वास पर दूसरी जगह से मदद हासिल करना का प्रयास करना छोड़ देता है। ऐसी स्थिति में जब आश्वासन देने वाला अपना वायदा पूरा न करे, तो उस व्यक्ति को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है जिससे मदद का वायदा किया गया हो। इस संदर्भ में एक कथा कही जाती है। 

किसी राज्य का बादशाह कहीं अपने महल की ओर आ रहा था। मुख्य द्वार पर उसने देखा कि एक बूढ़ा दरबान अपनी फटी-पुरानी वर्दी में सर्दी में भी मुस्तैद खड़ा है। बादशाह ने उसके पास अपनी सवारी रुकवाई और उस बुुजुर्ग से पूछा कि क्या तुम्हें सर्दी नहीं लग रही है? तुमने गरम कपड़े क्यों नहीं पहने हैं? उस दरबान ने बादशाह का अभिवादन करते हुए कहा कि हुजूर, सर्दी तो लग रही है, लेकिन क्या करूं? 

मेरे पास पहनने को कोई गर्म कपड़ा नहीं है। बादशाह को उस बुजुर्ग दरबान पर दया आई। उन्होंने उससे कहा कि अच्छा, कुछ देर इंतजार करो। मैं अपने महल में जाकर देखता हूं, कोई पुराना गरम कपड़ा मिलता है, तो वह तुम्हारे लिए भिजवाता हूं। चिंता मत करो, जल्दी ही तुम्हें कपड़ा मिल जाएगा। इसके बाद बादशाह अंदर गए और अपनी पत्नी और बच्चों के चक्कर में गरम कपड़ा भिजवाना भूल गए। 

सुबह जब बादशाह दरवाजे पर पहुंचा, तो वहां एक अलग ही नजारा देखने को मिला। वह दरबान मरा हुआ पड़ा था और कच्ची मिट्टी पर अंगुली से लिखा गया था कि हुजूर, मैं कई साल से इस फटी वर्दी में सर्दियों में पहरा देता आ रहा हूं। मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। आपके आश्वासन के बाद मुझे तेज सर्दी लगी और मैं मर रहा हूं। आपसे गुजारिश है कि भविष्य में आप किसी से झूठा वायदा न करें। यह देखकर बादशाह बहुत पछताया।

Saturday, April 12, 2025

सम्राट पीटर का दूर हुआ भ्रम

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

भ्रम एक ऐसी स्थिति है जिसमें फंसे व्यक्ति को सच्चाई का ज्ञान नहीं रहता है। वह व्यक्ति अपने और संसार के बारे में सोचता कुछ है और वास्तविकता कुछ और ही होती है। ऐसे ही एक सम्राट थे पीटर। वे रूस जैसे विशाल  देश के सम्राट थे। वैसे तो सम्राट उदार हृदय, प्रजावत्सल और धर्म निष्ठ थे।

वे अपनी प्रजा के कल्याण के लिए भी प्रयासरत रहते थे। प्रजा में उनका बड़ा सम्मान था, लेकिन कई बार वे कुछ बातों को लेकर भ्रम में रहते थे। एक बार उन्होंने अपनी प्रजा के लिए एक विशालकाय चर्च का निर्माण करवाया। वह रोज उस चर्च में प्रार्थना करने जाते थे। सम्राट को चर्च आता देखकर भारी भीड़ जमा होती थी।

एक दिन उन्होंने पादरी से कहा कि हमारे देश की प्रजा बड़ी धार्मिक है। पादरी ने उस समय तो कुछ नहीं कहा, लेकिन शाम को उसने कुछ लोगों को संदेश भिजवा दिया कि कल सम्राट चर्च नहीं आएंगे। दूसरे दिन सम्राट निश्चित समय पर चर्च पहुंचे, तो देखा कि कुछ लोग वहां मौजूद हैं। सम्राट ने पादरी से इसकी वजह पूछी, तो पादरी ने कहा कि यहीं की जनता धर्मभीरु नहीं, सम्राट भीरु है।

आपने कल जो भीड़ देखी थी, वह आपके कारण थी। कल मैंने संदेश भिजवा दिया था कि आज सम्राट नहीं आएंगे। आपकी वजह से चर्च आने वाले लोग नहीं आए। सच्चे धार्मिक तो कुछ ही लोग हैं जिनको इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि सम्राट आने वाले हैं या नहीं। यह सुनकर सम्राट पीटर आश्चर्यचकित रह गए। वे मानते थे कि उनके देश की प्रजा धार्मिक है। वह प्रभु की आराधना के लिए चर्च आती है। इसके बाद पीटर की आंख खुल गई। कई बातों में उनका भ्रम दूर हो गया।





सरोद रानी के नाम से विख्यात थीं गुरु शरण रानी

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

गुरु शरण रानी माथुर को भारत की पहली महिला सरोद वादक होने का गौरव प्राप्त है। सरोद रानी के नाम से विख्यात गुरु शरण रानी का जन्म 9 अप्रैल 1929 में दिल्ली के जाने-माने व्यवसायी के घर में हुआ था। इस जमाने में संभ्रांत परिवार की लड़कियां नृत्य, वाद्य यंत्र और संगीत सीखकर मंचों पर प्रदर्शन नहीं किया करती थीं। इसको अच्छा नहीं माना जाता था। 

रूढ़ीवादी परिवार में जन्म लेने के बाद भी शरण रानी ने हार नहीं मानी और मैहर सेनिया घराने के प्रसिद्ध सरोदवादक अलाउद्दीन खान और उनके बेटे अली अकबर खान से सरोद वादन सीखा। उन्होंने एमए करने के बाद अच्छन महाराज से जहां कथक सीखा, वहीं नाभा कुमार सिन्हा से मणिपुरी शास्त्रीय नृत्य में महारथ हासिल की। सन 1960 में उन्होंने दिगंबर जैन व्यवसायी परिवार से संबंध रखने वाले सुल्तान सिंह बैकलीवाल से विवाह किया। बाबा अलाउद्दीन से सरोद सीखने के बाद उन्होंने मंचों पर प्रस्तुति देना शुरू किया। 

इसके बाद लगातार सरोद वादक शरण रानी की ख्याति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गई। उन्होंने देश-विदेश में अपने कार्यक्रम प्रस्तुत किए। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जब उनका सरोदवादन सुना, तो वह बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने शरण रानी को भारत का सांस्कृतिक राजदूत कहकर संबोधित किया। प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ने उनका सरोदवादन सुनकर कहा था कि शरण रानी के वादन को सुनकर ऐसा लगा मानो मां सरस्वती ने उन्हें अपनी गोद में ले लिया है। 

पद्म भूषण से सम्मानित शरण रानी ने अपनी कला को सिखाने के लिए अपने घर पर स्कूल खोला और अपने शिष्यों से कभी फीस नहीं ली। कुछ शिष्य तो उनके घर में रहकर खाते-पीते थे और सरोद वादन सीखते थे। उन्होंने वाद्य यंत्रों के बारे में कई पुस्तकें और अखबारों में लेख भी लिखे हैं। कुछ वर्षों तक कैंसर से जूझने के बाद  8 अप्रैल 2008 को अपने 79वें जन्मदिन से एक दिन पहले उनकी मृत्यु हो गई।


Friday, April 11, 2025

चंदेल सम्राट के अधीन थे राजा भोज

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

राजा भोज परमार वंश के शासक थे। उनकी राजधानी का नाम धारानगरी था। कहा जाता है कि उनका राज्य उत्तर में चितौड़ से लेकर दक्षिण में उत्तरी कोंकण और पूर्व में विदिशा से लेकर पश्चिम में साबरमती नदी तक फैला हुआ था। राजा भोज ने अपने आसपास के राजाओं से अलग-अलग युद्ध में विजय प्राप्त की थी, लेकिन वह चंदेल सम्राट विद्याधर वर्मन से युद्ध में पराजित हो गए थे। 

वह चंदेल सम्राट के आधीन राजा होकर रह गए थे। राजा भोज के शासनकाल के बारे में एक किंवदंती है कि उनके राज्य में सभी लोग पढ़े लिखे थे। कोई भी अनपढ़ नहीं था। यह बात कितनी सही है, यह तो इतिहासकार ही बता सकते हैं।  उन्होंने अपने शासनकाल में प्रजा के हित में काफी कार्य किए थे। राजा भोज बहुत बड़े वीर और प्रतापी होने के साथ-साथ प्रकाण्ड पंडित और गुणग्राही भी थे। 

इन्होंने कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था।  इन ग्रंथों की चर्चा आज भी की जाती है। राजा भोज बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। कहा जाता है कि सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इन्होंने ही लिखे थे। इनके राज्य में विद्वानों का जमघट लगा रहता था। यह विद्वानों का बड़ा आदर करते थे। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी। धर्मशास्त्र पर भोजदेव कृत ‘पूर्तमार्तण्ड' नामक ग्रंथ है। 

इसके अतिरिक्त उन्होंने धर्मशास्त्र सम्बन्धी और ग्रंथ भी लिखे थे, क्योंकि इसका उल्लेख अनेक सुप्रसिद्ध धर्मशास्त्र ग्रंथकारों ने अपने ग्रंथों में किया है। दक्षिण कल्याणपुर के चालुक्यवंशी प्रसिद्ध राजा विक्रमांकदेव के मंत्री भट्टविज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्लक्य स्मृति पर मिताक्षरी व्याख्या की है। भोजदेव ने 'चाणक्य राजनीतिशास्त्र' नामक ग्रंथ भी लिखा। राजा भोज आज भी अपने ग्रंथों और विद्वता के लिए प्रसिद्ध हैं।

बिना संगठन के कैसे न्याय पथ पर चलेगी कांग्रेस?

अशोक मिश्र

अहमदाबाद में साबरमती के तट पर कांग्रेस का दो दिवसीय अधिवेशन खत्म हो गया। गुजरात की धरती पर कांग्रेस का अधिवेशन 64 साल बाद हुआ है। इन दो दिनों का निचोड़ यह है कि कांग्रेस अब न्याय पथ पर चलेगी। वैसे तो कांग्रेस अधिवेशन में जितने भी वक्ताओं ने अपने विचार रखे, उनमें नवीनता नजर नहीं आई। वही, मोदी सरकार पर हमला, मोदी सरकार देश बेच देगी, अडानी-अंबानी से लेकर जातिगत जनगणना और संविधान बचाने का आह्वान, यह सब तो पिछले एक-डेढ़ साल से देश की जनता सुनती आ रही है। इस अधिवेशन में ऐसा नया क्या था जिससे देश की जनता को लगे कि कांग्रेस ने नया रूप धारण किया है। कांग्रेस नेताओं ने अधिवेशन में संकल्प लिया है कि न्याय पथ पर चलते हुए सबसे पहले गुजरात को जीतना है, उसके बाद पूरा देश।
सवाल यह है कि गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले देश में लगभग आठ-नौ राज्यों में चुनाव होने हैं। इन राज्यों का क्या होगा? क्या कांग्रेस इन राज्यों में चुनाव नहीं लड़ेगी और अपनी पूरी ताकत गुजरात में ही झोंक देगी? कुछ महीनों के बाद बिहार में विधानसभा चुनाव है। कांग्रेस नेता कन्हैया कुमार इन दिनों बिहार में ‘पलायन रोको, नौकरी दो’ पदयात्रा कर रहे हैं। कुछ दिन पहले एकाध किमी की पदयात्रा कन्हैया कुमार के साथ लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने भी की थी। भीड़ भी काफी जुटी थी। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह भीड़ कांग्रेस के पक्ष में वोट में कितनी तब्दील होगी? जिस तरह कन्हैया कुमार या राहुल गांधी की सभाओं, कार्यक्रमों में भीड़ उमड़ रही है, वह पोलिंग बूथ तक कांग्रेस के पक्ष में जा पाएगी? भीड़ जुटना और कांग्रेस के पक्ष में मतदान होना, दोनों अलग-अलग बाते हैं।
सभी जानते हैं कि कांग्रेस का मुख्य मुकाबला भाजपा से है। कांग्रेस नेता जब भी हमला करते हैं, तो वह भाजपा के साथ-साथ आरएसएस को अपने लपेटे में लेते हैं। चलिए मान लिया कि भाजपा और आरएसएस के साथ कांग्रेस की विचारधारा की लड़ाई है। लेकिन कांग्रेस की विचारधारा तो सबके सामने साफ होनी चाहिए। कांग्रेस पिछले दो-तीन दशक से एक सीध में चलती हुई नजर नहीं आ रही है। राहुल गांधी की दादी के जिंदा रहते तक कांग्रेस अपने को सेक्युलर कहती थी और सेक्युलरिज्म पर विश्वास भी करती थी। लेकिन राजीव गांधी ने रामजन्म भूमि का ताला खुलवाकर अपने को हिंदुओं का पक्षधर होने की कोशिश की। शाहबानो मुद्दे पर बुरी तरह मात खाए राजीव गांधी ने अरुण नेहरू की सलाह पर राममंदिर जन्मभूमि का ताला खुलवाकर अपने को हिंदू हितैषी साबित करने की कोशिश की। एक योजना के तहत अयोध्या कोर्ट में मुकदमा दायर किया गया और सिर्फ 40 मिनट में अयोध्या की कोर्ट ने फैसला देकर रामजन्म भूमि का ताला खुलवा दिया। बस, कांग्रेस का वैचारिक भटकाव यहीं से शुरू हुआ। वह भाजपा और आरएसएस के मुकाबले में वह न हिंदुत्व का झंडाबरदार बन पाई और न ही अपना धर्म निरपेक्ष चरित्र ही बरकार रख पाई।
नतीजा हुआ कि कांग्रेस से वह जनता दूर होती चली गई जो अपने को धर्म निरपेक्ष मानती थी। कार्यकर्ता दूर नहीं हुए, दूर कर दिए गए। ऊपर बैठे नेताओं ने जनता और कार्यकर्ता की उपेक्षा शुरू कर दी। इसका परिणाम यह हुआ कि पूरे देश में एक मजबूत जनाधार वाली पार्टी धीरे-धीरे खोखली होती चली गई और कार्यकर्ता विहीन हो गई। आज जब कांग्रेस के नेता पूरे देश को जीतने की बात करते हैं, तो हंसी आती है। बिना किसी संगठन के कोई चुनाव जीत सकता है, इसका कोई उदाहरण शायद ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में मिले। कांग्रेस को अगर देश में मजबूती से खड़ा होना है, तो उसे सबसे पहले अपना संगठन खड़ा करना होगा। बूढ़े और अकड़ में चूर नेताओं को बेमुरौव्वत होकर विदा करना होगा। युवा, उत्साही और निष्ठावान कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी सौंपनी होगी। गुटबाजों को तो कान पकड़कर बाहर करना होगा।


Thursday, April 10, 2025

बुद्ध बोले, कांटों पर भी आ जाती है नींद

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

महात्मा बुद्ध पूरी दुनिया में शायद पहले दार्शनिक थे जिन्होंने दुख का कारण खोजने का प्रयास किया था। उन्होंने इस बात का पता तो लगा लिया था कि सांसारिक दुखों का कारण निजी संपत्ति है, तभी तो उन्होंने अपने बनाए संघ में निजी संपत्ति के नाम पर एक भिक्षा पात्र और दो जोड़ी कपड़ों को ही मान्यता दी। महात्मा बुद्ध ने लोगों को पाखंड और तमाम तरह के कर्मकांड से दूर रहने की सलाह दी। अहिंसा उनके उपदेशों का मूल आधार हुआ करता था। एक बार की बात है। वे अपना चातुर्याम मास जेतवन में बिता रहे थे।

एक दिन जब वे पर्णशय्या पर लेटे हुए थे, तो उनके एक शिष्य ने कहा कि प्रभु! आज आपको अच्छी नींद आई? बुद्ध ने शांत भाव से कहा कि हां, आज मुझे अच्छी नींद आई। तब शिष्य ने कहा कि लेकिन प्रभु! कल रात तो ठंडा बहुत था, बर्फ भी गिर रही थी। आपकी पर्णशय्या भी बहुत पतली थी। फिर आपको किस तरह अच्छी नींद आई? महात्मा बुद्ध मुस्कुराते हुए कहा कि यदि किसी धनिक के पुत्र को एक अच्छे कमरे में सोने दिया जाए जिसमें खूब मुलायम बिस्तर हो। सुख-सुविधा के सारे साधन मौजूद हों। कमरे में इत्र छिड़का गया हो, तो क्या उसे अच्छी नींद आएगी? शिष्य ने तत्काल उत्तर दिया कि यकीनन अच्छी नींद आएगी।

महात्मा बुद्ध ने अगला सवाल किया कि यदि उस धनिक पुत्र को कोई गंभीर बीमारी हो जाए, तब? शिष्य ने कहा कि तब वह अच्छी नींद या सुकून की नींद नहीं सो सकेगा। महात्मा बुद्ध ने फिर अगला सवाल किया, यदि उस धनिक पुत्र को कोई मानसिक रोग हो जाए, तब? शिष्य ने फिर वहीं जवाब दिया, जो दूसरे प्रश्न के समय दिया था। 

तब  बुद्ध बोले कि महत्वपूर्ण शैय्या नहीं है, जरूरी है मन की शांति। यदि चित्त शांत हो, तो पर्णशय्या पर भी नींद आ जाएगी। नींद तो कहते हैं कि कांटों पर भी आ जाती है। यह सुनकर शिष्य की जिज्ञासा शांत हो गई।

जिंदगी भर घुमक्कड़ ही रहे राहुल सांकृत्यायन

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

महापंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्म 9 अप्रैल 1893 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में हुआ था। राहुल सांकृत्यायन का बचपन अपने नाना के गांव पदहा में बीता था।तीसरी कक्षा की उर्दू पुस्तक में राहुल ने एक शे’र पढ़ा था-सैर कर दुनियाँ की गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ, जिंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ। इस शे’र ने इनकी पूरी जिंदगी बदल दी। ग्यारह-बारह साल की उम्र में घर से 22 रुपये लेकर राहुल भाग खड़े हुए दुनिया की सैर करने को। वैसे उनका नाम केदारनाथ पांडेय था। 

बाद में उन्हें लोगों ने दामोदर स्वामी कहना शुरू किया। सन 1930 में जब उन्होंने श्रीलंका में बौद्ध धर्म स्वीकार किया, तो अपना नाम महात्मा बुद्ध के बेटे राहुल के नाम पर रख लिया। राहुल के साथ अपने सांकृत्य गोत्र को भी जोड़कर राहुल सांकृत्यायन बन गए। राहुल सांकृत्यायन आजीवन घुमक्कड़ ही रहे। विभिन्न देशों की यात्राएं की। राहुल ने भारत के प्राचीन इतिहास पर बहुत काम किया। 

उन्होंने विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ‘वोल्गा से गंगा’ लिखी, जो आज भी बडे़ चाव से पढ़ी जाती है। इसके अलावा भागो नहीं, दुनिया को बदलो, तुम्हारी क्षय हो, मानव समाज जैसी न जाने कितनी पुस्तकों की रचना की। वह जब भी मास्को, लंदन, कोरिया, तिब्बत, चीन, लद्दाख, मास्को, यूरोप की यात्रा की, वहां से कुछ न कुछ ज्ञान लेकर लौटे। कहा जाता है कि उन्होंने डेढ़ सौ से अधिक पुस्तकों की रचना की, लेकिन प्रकाशित केवल 129 पुस्तकें ही हुई हैं। 

राहुल जी ने हिंदी साहित्य के अतिरिक्त धर्म, दर्शन, लोक साहित्य, यात्रा साहित्य, जीवनी, राजनीति, इतिहास, संस्कृत ग्रंथों की टीका और अनुवाद, कोश, तिब्बती भाषा आदि विषयों पर अधिकार के साथ लिखा है। हिंदी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में राहुल जी ने 'अपभ्रंश काव्य साहित्य', 'दक्खिनी हिंदी साहित्य', 'आदि हिंदी की कहानियाँ' प्रस्तुत कर लुप्तप्राय निधि का उद्धार किया है।


Wednesday, April 9, 2025

ईर्ष्यालु व्यक्ति राज्य में रहने लायक नहीं

 बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र
ईर्ष्या कभी सुखद नहीं होती है। ईर्ष्यालु व्यक्ति अपने जीवन में हमेशा परेशान रहता है। ऐसे व्यक्ति से दूसरे लोग खुश नहीं रहते हैं। इसकी वजह से वह किसी का प्रिय भी नहीं बन पाता है। ईर्ष्या और चुगलखोरी व्यक्तित्व के विकास में बाधक होती है। कई बार तो यह मनुष्य के सामने इतना बड़ा संकट पैदा कर देती है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति का अपनी जान बचाना मुश्किल हो जाता है। इस बारे में एक किस्सा सुनाया जाता है। 
कहते हैं कि किसी राज्य का राजा बहुत दयालु था। वह अपनी प्रजा का बहुत ख्याल रखता था। उसके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। दूर-दूर से व्यापार करने दूसरे राज्य के व्यापारी भी आया करते थे। एक दिन किसी बात पर राजा दूसरे देश के एक विदेशी व्यापारी से नाराज हो गया। राजा ने गुस्से में आकर व्यापारी को फांसी पर चढ़ाने की सजा दे दी। फांसी की सजा सुनने के बाद व्यापारी ने अपनी भाषा में राजा को खूब गालियां देनी शुरू कर दीं। राजा उस व्यापारी की भाषा को समझ नहीं पा रहा था। उसने अपने दरबारियों से पूछा कि यह क्या कह रहा है? 
एक मंत्री ने खड़े होकर बताया कि महाराज, यह आपको दुआएं दे रहा है। आप का राज्य हमेशा फलता फूलता रहे। आप चिरंजीवी हों। तभी दूसरे मंत्री ने खड़े होकर कहा कि नहीं महाराज, यह आपको गालियां दे रहा है।  राजा ने पहले मंत्री की ओर देखा, तो उसने कहा, हां महाराज, यह आपको गालियां दे रहा है। 
यह सुनकर राजा ने व्यापारी को सजा मुक्त करते हुए कहा कि तुम निर्दोष थे, इस वजह से तुम्हें गुस्सा आया। पहले मंत्री ने व्यापारी को निर्दोष जानकर उसे बचाने का प्रयास किया और इसलिए झूठ बोला। दूसरे मंत्री ने ईर्ष्यावश पहले मंत्री की पोल खोली। ऐसा ईर्ष्यालु व्यक्ति मेरे राज्य में रहने लायक नहीं है।

स्वामी विवेकानंद की पढ़ने की ललक

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

भारत में स्वामी विवेकानंद की जयंती को युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वामी विवेकानंद की मात्र 39 साल की उम्र में ही मौत हो गई थी। उनका जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ था। स्वामी जी के बचपन का नाम नरेंद्रनाथ था। जब उन्होंने बंगाल के प्रसिद्ध संत स्वामी रामकृष्ण परमहंस से संन्यास की दीक्षा ली, तो उनका नाम स्वामी विवेकानंद रखा गया। 

उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था। कहा जाता है कि 25 साल की उम्र में ही विवेकानंद ने वेद पुराण, बाइबल, कुरआन, धम्मपद, दास कैपिटल, गुरु ग्रंथ साहिब सहित राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, संगीत, साहित्य और दर्शन की किताबों का बहुत ही गहराई से अध्ययन कर लिया था। एक बार वह भ्रमण पर निकले हुए थे। गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानंद और स्वामी तुयार्नंद में से कोई एक उनके साथ  था। 

वह उनकी पढ़ने के प्रति आसक्ति को जानते थे। उन्होंने एक जगह अच्छी लाइब्रेरी देखी, तो वहीं कुछ दिन रुकने का फैसला किया। उनका गुरु भाई लाइब्रेरी जाता और किसी न किसी विषय की दो पुस्तकें ले आता। मौका मिलने पर विवेकानंद पढ़ते और उसे लौटा देते। जब कई दिन ऐसा ही हुआ, तो लाइब्रेरियन ने कहा कि तुम यदि इन पुस्तकों को देखने के लिए ले जाते हो, तो मैं आपको यहीं दिखा देता हूं। 

इनको ढोकर ले जाने की क्या जरूरत है। गुरुभाई ने कहा कि इन पुस्तकों को मेरे गुरुभाई स्वामी विवेकानंद पढ़ते हैं। एक दिन लाइब्रेरियन स्वामी विवेकानंद से मिला तो स्वामी जी ने कहा कि मैं वास्तव में इन पुस्तकों को गंभीरता से पढ़ता हूं। मैं जो पढ़ता हूं, वह मुझे याद हो जाता है। उन्होंने पुस्तकों के कुछ अंश भी सुनाए। यह सुनकर लाइब्रेरियन चकित रह गया। विवेकानंद ने कहा कि यदि एकाग्रचित्त होकर पढ़ा जाए तो याद रह जाना कोई बड़ी बात नहीं है।