बस यों ही बैठे ठाले-5रचनाकाल-----------मई 2020
मेरा ख्याल है कि मई दिवस के बारे में किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं है। देश-दुनिया के लोग मई दिवस के बारे में कमोबेस कुछ न कुछ जानते ही हैं। हां, आज के अखबारों में एक खबर छपी है कि इस देश के कुछ उद्योगपति लॉकडाउन के दौरान का वेतन अपने कर्मचारियों को नहीं देना चाहते हैं। उनका कहना है कि यदि उन्हें लॉकडाउन के दौरान का वेतन अपने कर्मचारियों को देने पर मजबूर किया गया, तो लाकडाउन के दौरान और उसके बाद उद्योग धंधे पचास फीसदी तक चौपट हो जाएंगे। उद्योग धंधों को बचाने के लिए सरकार को बिजली रियायती दरों पर दे, फलां टैक्स में छूट दे सरकार। इतने साल तक कच्चा माल लाने-ले जाने में रियायत दे।
सरकार से तमाम तरह के छूट और अपने कर्मचारियों को लाकडाउन के दौरान का वेतन न देने की गुहार लगाने वाले ये वही उद्योगपति और पूंजीपति हैं जिन्होंने सालोंसाल इनके कार्यालयों, कल-कारखानों और दुकानों में काम करने वाले कर्मचारियों, मजदूरों और नौकरों की बदौलत मुनाफा कमाते रहे हैं। आज जब देश-दुनिया में संकट आया है, देश की आम जनता अपनी गाढ़ी कमाई से कुछ हिस्सा निकालकर महामारी से लड़ने के लिए पीएम केयर्स फंड में दे रहा है, तब ये उद्योगपति और पूंजीपति सालों साल कमाए गए मुनाफे का छोटा सा भी हिस्सा देने को तैयार नहीं हैं। (कुछ अपवादों को छोड़कर)। आज मई दिवस पर प्रकाशित हुई इन खबरों ने पूंजीवादी वर्ग व्यवस्था की कलई खोलकर रख दी है।े
मुझे याद है, बचपन में भइया (का. आनंद प्रकाश मिश्र, महामंत्री, आरएसपीआई(एमएल)) मई दिवस और लेनिन से जुड़ा एक प्रसंग सुनाया करते थे।
जिन दिनों लेनिन लंदन में निर्वासित जीवन बिता रहे थे, उन्हीं दिनों मई दिवस आया। लेनिन बहुत प्रसन्न हुए कि आज दुनिया भर के मजदूरों का सबसे बड़ा दिन आया है। जरूर लंदन में मजदूरों ने बहुत बड़ा आयोजन किया होगा। मजदूर दिवस पर मजदूरों की अगुवाई में होने वाले कार्यक्रम में भाग लेने के लिए वे सुबह ही तैयार होकर लंदन की सड़कों पर घूमने लगे। कुछ देर बाद देखा कि राज पथ पर बैंड-बाजों के साथ एक जुलूस चला आ रहा है। बैंड-बाजे के पीछे-पीछे ब्रिटेन की संसद के दोनों सदनों के सदस्य राजसी पोशाक में मजदूर दिवस अमर रहे का नारा लगाते हुए चले आ रहे हैं। उस जुलूस में एक भी मजदूर नहीं था। मई दिवस को दुनिया भर के पूंजीपतियों ने हाथों हाथ लपक लिया था, ताकि मई दिवस के संदेश और मजदूर वर्गीय चेतना से मजदूरों को लैस होने से रोका जा सके। आज भी देश में मई दिवस मनाने में कौन सबसे आगे है?
दक्षिण पंथी राजनीतिक पार्टियां जिनको मजदूर वर्गीय दर्शन और सिद्धांत से एलर्जी है, मध्य मार्गी पार्टियां जिन्होंने अपने हमेशा पूंजीपतियों के हितों का ही पोषण संरक्षण किया है और वामपंथी कम्युनिस्ट पार्टियां जिन्होंने मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रांतिकारी दर्शन और सिद्धांतों की जगह प्रतिक्रियावादी ट्राटस्कीवाद, माओवाद, स्टालिनवाद, ख्रुश्चेववाद, नक्सलवाद को अपना रखा है जिन्होंने मजदूरों और मजदूर वर्गीय दर्शन के साथ अपने जन्मकाल से ही गद्दारी की है। दक्षिण पंथियों, मध्य मार्गीयों और वामपंथियों को न तो मजदूरों से कोई लेना देना है, न ही मजदूर दिवस से। इस देश की तमाम ट्रेड यूनियनें भी मजदूर दिवस यानी मई दिवस को मनाने में अग्रणी रहती हैं।
(इस वर्ष कोरोना महामारी के चलते सामूहिक कार्यक्रम नहीं हो पा रहे हैं) दरअसल, कभी ट्रेड यूनियनों का वर्गीय चरित्र मजदूर वर्ग के समर्थन में रहा है, लेकिन कालांतर ये सभी तरह की ट्रेड यूनियनें (चाहे वे दक्षिण पंथी पार्टियों द्वारा समर्थित हों, मध्य मार्गीयों द्वारा समर्थित हों या वाम पंथियों द्वारा ) मजदूर वर्ग विरोधी हो गईं। मजदूरों के नाम पर इनका एक मात्र कार्य मजदूरों के नाम पर पूंजीपतियों की दलाली करना रहा है। आज मई दिवस पर मजदूर वर्ग को एक बात अच्छी तरह से समझना होगा कि शोषण पर आधारित बिकाऊ माल की पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था में एक मात्र क्रांतिकारी मजदूर वर्ग ही है। किसान क्रांति में सहयोगी तो हो सकता है, लेकिन क्रांति में अग्रणी भूमिका नहीं निभा सकता है। प्रख्यात क्रांतिकारी का. केशव प्रसाद शर्मा कहा करते थे कि यह सभ्य किंतु अमानवीय पूंजीवादी वर्ग समाज है, इसे मानवीय मानव समाज में बदलने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी मजदूर वर्ग पर ही है।
मजदूर व्यक्तिगत रूप से नस्लभेदी, रंगभेदी, जातिवादी, प्रांतवादी, सांप्रदायिक, प्रतिक्रियावादी और इस भ्रष्ट पूंजीवादी व्यवस्था का एक अंग हो सकता है, लेकिन जब वह उत्पादन कार्य क्षेत्र में होता है, तो वह क्रांतिकारी मजदूर वर्ग में तब्दील हो जाता है। उसके पास खोने को कुछ नहीं होता है, लेकिन वह चाहे तो इस संसार की सकल संपदा का स्वामी बन सकता है। यही इस मई दिवस का सार रूप में संदेश है। और यही संदेश मजदूर वर्ग तक न पहुंच पाए, इसका सारा यत्न पूंजीवादी व्यवस्था की रक्षक-पोषक राजनीतिक दल करते हैं। तमाम तरह के झंडे, डंडे, चेहरे और दर्शन, विचारधारा को लेकर एक दूसरे से लड़ने वाले राजनीतिक दलों का वर्ग चरित्र एक ही है। इनमें वैचारिक मतभेद नहीं है। ये बस इस पूंजीवादी राजसत्ता का संचालन और संरक्षक बनने के लिए लड़ते हैं। आम लोगों को बस एक बात समझने की जरूरत है कि गड़बड़ी गाड़ी में है और हम हर पांच साल बाद उस गाड़ी का ड्राइवर बदल रहे हैं।