अशोक मिश्र
स्वामी सत्यानंद सरस्वती का जन्म अल्मोड़ा में 24 दिसंबर 1923 को हुआ था। इनके पिता ब्रिटिश शासन में पुलिस अधिकारी थे। इनकी मां नेपाल के राज घराने से थीं। यह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे। बचपन से ही धर्म और अध्यात्म की ओर रुचि होने की वजह से जब सत्यानंद ने संन्यास लेने की बात कही, तो इनके माता-पिता काफी विचलित हो गए थे। 18 वर्ष की आयु में सत्यानंद ने घर का त्याग कर दिया था।
वर्ष 1946 में उन्होंने शिवानंद सरस्वती से दीक्षा ली थी। 12 साल तक गुरु की सेवा करने के बाद उन्होंने देश-विदेश में भ्रमण किया। बाद में स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने योगाश्रम खोला जिसमें लोगों को योग सिखाया जाता था। एक दिन योगाश्रम में एक अमीर किसान योग सीखने आया। पहले ही दिन उसकी मुलाकात स्वामी सत्यानंद से हो गई। स्वामी जी ने उससे हालचाल पूछा तो उसने खीझते हुए कहा कि आज खाने को मिली रोटियां अधपकी और ठंडी थीं। खाने में अच्छी नहीं लगी।
स्वामी जी ने कहा कि कल से रसोई की जिम्मेदारी आपकी है। अगले दिन उस किसान ने जो रोटियां बनाई, उसकी सबने प्रशंसा की। कुछ दिनों बाद वह दिन भी आया, जब पहले की तरह अधपकी रोटियां बनने लगीं। एक दिन तो काफी देर तक किसान रसोई घर में भी नहीं आया। यह बात स्वामी जी को पता चली तो उन्होंने उससे पूछा, तो उसने कहा कि मैं रोज-रोज रोटियां बनाते-बनाते ऊब गया हूं, इसलिए देर से आया।
इस पर स्वामी जी ने सबको बुलाकर कहा कि हम यहां परमयोग प्राप्त करने की कामना से आए हैं। इसलिए जरूरी है कि छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दें। दूसरों की निंदा करने से अच्छा है कि हम खुद श्रम करके देखें, तभी दूसरों के श्रम का सम्मान कर पाएंगे।
बहुत सुंदर लेख
ReplyDeleteश्रम ही सार्थक सुंदर है , श्रम का सम्मान करना श्रमिक के लिए सबसे बड़ा पारिश्रमिक होता है ।
ReplyDeleteसंतजनों की संगति सदैव प्रेरणास्पद और सुखदायक होती है ।
श्रम का सम्मान ही सही मायने में उचित पारिश्रमिक होता है।
ReplyDeleteसंदेशात्मक कहानी
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शनिवार १९ जुलाई २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सादर अभिवादन, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद कि आपने मेरी सामग्री को अपने ब्लाग पर लगाने के काबिल समझा।
Deleteअच्छा प्रसंग लिखा आपने!🙏
Deleteआपको फॉलो कैसे करें. कृपया अपना नाम परिचय भी दें ब्लॉग पर 🙏
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