Monday, November 22, 2010

बदनाम होंगे, तो क्या नाम न होगा!

-अशोक मिश्र
सुबह के चार बजे मुझे लगा कि कोई मेरे घर का दरवाजा पीट रहा है। मैं घबरा गया कि कहीं पाकिस्तान ने हमला तो नहीं कर दिया या मोहल्ले में आतंकी हमला तो नहीं हो गया। आंखें मलते हुए हड़बड़ाकर मैंने उठकर दरवाजा खोला। मेरे परम मित्र, जो मेरे ही दफ्तर में काम करते थे, बदहवास से खड़े जमुहाई ले रहे थे। मैंने उलाहना देते हुए कहा, ‘क्या यार, जब भी मैं कोई बढ़िया सपना देखता हूं, तुम राहु-केतु की तरह बीच में टपक पड़ते हो। भइया, इस जन्म में या पिछले जन्म में मैंने तुम्हारी भैंस खोली थी क्या? और अगर खोली थी, तो जब भैंस पालूंगा, तो तुम भी मेरी भैंस खोलकर बदला पूरा कर लेना। फिलहाल टलो और मुझे सपना देखने दो।’
मेरे मित्र ने मुझे दरवाजे से ढकेलते हुए भीतर प्रवेश किया, ‘पिछले जन्म का तो पता नहीं, लेकिन इस जन्म में तुम मेरा पूरा तबेला ही उजाड़ने पर क्यों तुले हो, इसकी शिकायत करने आया हूं।’ मैं सिटपिटा गया। पता नहीं, कौन-सी गलती हो गयी कि मित्र का पूरा तबेला ही संकट में आ गया। वह जब कह रहा है, तो झूठ थोड़े न कह रहा होगा। मैं सत्तर फीसदी सीरियस हो गया। ‘आखिर मैंने किया क्या है? मेरी गलती तो पता चले?’ मैंने सोचा मित्र से ही पूछ लिया जाए।
‘अमां यार, तुम अपने घर की महाभारत वहीं तक सीमित रहने दो। तुमसे किसने कहा था कि अपनी पाठिकाओं को ‘राखी’ से शिकायत करने की सलाह दो।’
‘लेकिन वह मामला तो ठीक हो गया था। तुमने शायद पढ़ा नहीं, मेरी घरैतिन ने ‘आग लगे ऐसे इंसाफ पर’ कहकर मामले को ठीक कर दिया था।’ मैंने मित्र को याद दिलाया।
‘अमां यार, तुम्हारी तो ठीक हो गई, पर अपनी तो बिगड़ गयी है। मेरी घरवाली कहती है कि तुम्हारी संगत में रहकर मैं भी बिगड़ गया हूं। अब मेरी घरवाली ने बाकायदा मोहल्ले की महिलाओं की अध्यक्षता में जांच कमेटी बिठा दी है, जो मेरे बारे में जांच करेगी। यह तो तुम जानते ही हो कि आज के इस जमाने में कोई दूध का धुला तो होता नहीं। फिर दूध ही आजकल कौन सा असली मिलता है। मैंने कुछ नहीं किया होगा, तो ताका-झांकी तो की ही होगी। अगर एक भी मामला खुल गया, तो फिर पूरी फाइल बनते देर ही कितनी लगती है।’ मित्र रुआंसे हो गये थे।मैंने उनके गीले नयनों को पोंछते हुए कहा, ‘यार विवेक से काम लो। जब मेरी फाइल बंद हो सकती है, तो तुम्हारी बंद होने में कितनी देर लगेगी।’
‘बेटा...यह कहकर तुम मुझे नहीं बहला सकते। मुझे तो लगता है कि यह सब तुम्हारा ही किया धरा है। तुमने मेरी भट्ठी बुझाने के लिए ही अपना व्यंग्य चुन्नू के हाथ ‘रचना’ के पास भिजवाया था। मुझे तुमसे ऐसी ‘यारमारी’ की उम्मीद नहीं थी।’ मेरे मित्र उबलने के साथ बरस पड़े यानी फिफ्टी परसेंट क्रोध के साथ फिफ्टी परसेंट रोने लगे।मैंने उन्हें सांत्वना दी, ‘राधे-राधे...मेरे रहते तुम्हारा कोई बाल बांका नहीं कर सकता। वैसे भी ऐसे मामले उछलने से हम लोगों की ‘टीआरपी’ में जबरदस्त उछाल आता है। मेरा एक सूत्र वाक्य गांठ बांध ले, ‘बदनाम होंगे, तो क्या नाम न होगा।’ हम मोहल्ले में जितने बदनाम होंगे, महिलाएं उतनी ही चर्चा करेंगे। सोच अगर श्रीकृष्ण जी सत्यभामा या रुक्मिणी से डरकर बैठ जाते, तो क्या गोपिकाओं से नैन-मटक्का कर पाते। वे तो चाहते ही थे कि लोग उनके बारे में चर्चा करें, विरोधी उनकी आलोचना करें, ताकि वे और पापुलर हो जाएं। मोहल्ले में जब चार औरतें अपने किशन कन्हैया होने की कहानियां गढ़ती या एक दूसरे को सुनाती हैं, तो हम लोगों के ‘चांस’ बढ़ जाते हैं, चांस। समझा कर यार। तू तो पक्का कृष्ण भक्त है। कृष्ण का संदेश समझ और चुपचाप कड़वा घूंट समझकर बीवी की डांट-डपट सह जा।’
सच बताऊं, उसकी बात सुनकर भीतर ही भीतर मैं सहम गया कि जिस मामले की फाइल मैंने बड़ी मुश्किल से ठंडे बस्ते में डलवाई है, कहीं मेरे मित्र की राम कहानी सुनकर मेरी घरवाली के दिमाग में फिर वही धुन न सवार हो जाए,‘महिलाओं की कोर कमेटी बनाकर मेरे चरित्र की जांच कराने वाली।’ लेकिन मन की भावनाओं को छिपाकर मैंने अपने मित्र एक बार फिर मीठी सुपारी खिलाने की कोशिश की, ‘यार, तू एक ही मामले से इतना डर गया। अरे, अपने देश के नेताओं से कुछ तो सीख। उन ‘बेचारों’ पर इतने कीचड़ उछाले जाते हैं, कैसे-कैसे आरोप लगाए जाते हैं। कभी कमीशन खाने के, तो कभी अवैध संबंधों के। उनके बारे में ऐसी-ऐसी कहानियां गढ़ी जाती हैं कि अगर उनमें से एक भी तुम्हारे बारे में होती, तो अब तक बेटा तुम शर्म से पानी-पानी होकर इस दुनिया से ‘गो, वेंट, गॉन’ हो गए होते। लेकिन उनकी हिम्मत तो देखो, वे न सिर्फ मुस्कुराते रहते हैं, बल्कि दुनिया के सामने अपनी सच्चरित्रता और पाक दामन की कसमें तक खाते फिरते हैं। सीखो.. अपने देश की सियासत से कुछ तो सीखो। नहीं अच्छी बात सीख सकते, तो बुरी ही सीखो। कुछ तो सीखो।’
मेरे मित्र गहरी सांस लेकर रह गया। तभी मेरी घरवाली ने दो कप चाय लाकर रख दिया। मैंने मन ही मन अपनी घरैतिन को धन्यवाद दिया क्योंकि चाय आ जाने से बातचीत का क्रम टूट गया और मुझे इस हालात से बच निकलने का मौका मिल गया। मैंने अपने मित्र से चाय पीने को कहा, तो वह ‘सुड़क-सुड़क’कर चाय पीने लगा। जब तक मैं आधी चाय पीता, मेरा मित्र कप खाली कर चुका था। कप को मेज पर जोर से पटकते हुए बोला, ‘एक बात बता दूं। मैं कोई नेता या अभिनेता नहीं हूं कि बीवी की मार खाऊं और हंसता रहूं। अगर मेरी घरवाली ने मेरे खिलाफ कोई एक्शन लिया, तो मैं तुम्हें छोडूंगा नहीं।’ इतना कहकर वह उठ खड़ा हुआ। मेरे मुंह से सिर्फ इतना निकला, ‘कैसी बात करता है यार। मैं रचना भाभी को समझा दूंगा। बस निश्चिंत होकर घर जा।’ मित्र के जाते ही मैं सिर पकड़कर बैठ गया।

Monday, November 15, 2010

‘राखी’ बहन से शिकायत कर दूंगी....हां

-अशोक मिश्र
ऑफिस से थक हारकर घर पहुंचा, तो मेरी इकलौती घरैतिन एनडीटीवी पर प्रसारित हो रहे इमेजिन शो ‘राखी का इंसाफ’ देख रही थी। मैंने सोफे पर पसरते हुए अपनी पत्नी से पानी पिलाने को कहा, तो वह रोज की तरह झटपट पानी लाकर देने की बजाय घूरते हुए बोली, ‘आप आफिस से कोई गोवर्धन पर्वत उठाकर नहीं आ रहे हैं। इसलिए बराये मेहरबानी आप पानी लेकर पी लीजिए। हां, थोड़ी देर बाद अपने लिए चाय बनाऊंगी, तो आपके लिए भी चाय बन जाएगी। तसल्ली रखिये।’घरैतिन के रंग-ढंग देखकर मैं चौंका। मैं सोचने लगा कि आखिर घरैतिन इतनी अकड़ क्यों दिखा रही है। कहीं मिसेज शर्मा के फीगर की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने वाली बात तो उसे नहीं पता चल गयी? लेकिन उसे यह कैसे पता चल सकता है, उस समय तो वह रसोई में दलिया उबाल रही थी। या फिर कहीं पड़ोस वाली भाभी जी ने शिकायत तो नहीं कर दी कि मैं उसे घूर-घूर कर देखता हूं। लेकिन जब पिछले दो साल से लगातार घूर रहा हूं, तो आज शिकायत करने वाली कौन सी बात हो गयी। नहीं, कोई और बात है। मैंने मामले की पूंछ पकड़ने के लिए मस्का मारा, ‘मेरी जोहरा जबीं, आज कोई खास बात है क्या? जो माहताब से आफताब बनी मेरे दिल पर बिजलियां गिरा रही हो। पानी नहीं देना है, तो मत दो। मैं खुद पानी निकालकर पी लूंगा। लेकिन बात क्या है? यह तो बताओगी।’घरैतिन ने मुंह बिचकाया और ‘राखी का इंसाफ’ देखने में मशगूल हो गयीं। संयोग से तभी अपने कार्यक्रम में ‘राखी’ एक प्रतिभागी लक्ष्मण से चीख-चीख कर कहने लगीं, ‘तू नामर्द है, इसीलिए तो तेरी बीवी भाग गयी।’ राखी का चिल्लाना और इस तरह अश्लील भाषा का प्रयोग करते देख मैं भौंचक रह गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि हमेशा अच्छे और सामाजिक सरोकारों से जुड़े सीरियल देखने वाली मेरी बीवी कितनी रुचि से ‘राखी का इंसाफ’ देख रही है। मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने उठकर टीवी बंद करते हुए कहा, ‘आज से तुम लोगों का यह सब देखना बंद...। यह फूहड़ कार्यक्रम तुम खुद देख रही हो और बच्चों को भी दिखा रही हो। शर्म नहीं आती...तुम्हें।’मैंने समझा कि हमेशा की तरह मेरी बीवी अपनी गलती पर शर्मिंदा होगी और चाय बनाने या पानी पिलाने के लिए उठकर चल देगी। लेकिन हुआ इसका उल्टा। बीवी गुर्राई, ‘देखो...ज्यादा तीन-पांच मत करो। अगर ज्यादा चूं-चपड़ की, तो ‘राखी’ बहन से शिकायत कर दूंगी...हां। राखी बहन आजकल अच्छे-अच्छों के कस-बल ढीले कर रही हैं। देखते नहीं हो, बड़े-बड़े सूरमा राखी के सामने भीगी बिल्ली बने गिड़गिड़ाते रहते हैं और वह शेरनी की तरह बैठी इंसाफ करती रहती हैं। एकदम विक्रमादित्य की तरह दूध का दूध, पानी का पानी....राखी बहन, तुम्हारी जय हो।’ इतना कहकर टीवी की ओर घरैतिन ने बड़ी श्रद्धा से हाथ जोड़ लिए।घरैतिन की बात सुनकर मुझे चार सौ चालीस वोल्ट का झटका लगा। मुझे भी ताव आ गया। मैंने ताल ठोंकते हुए कहा, ‘जा..जा...तुझसे या तेरी राखी बहन से जो करते बने कर ले।’‘हां...हां...जरूर करूंगी शिकायत। राखी से सब बताऊंगी। तुम क्या जानती हो कि मुझे पता नहीं है। पड़ोस वाली भाभी जी से तुम्हारा टांका भिड़ा है। बाजू वाली भी कई बार तुम्हारी शिकायत कर चुकी है। तुम कहां-कहां नैन-मटक्का करते हो, यह मुझे सब मालूम है।’ घरैतिन हाथ नचाते हुए लड़ने की मुद्रा में आ गयी। घरैतिन की बात सुनकर मेरे होश उड़ गये। अब तक जिस बात को इतने जतन से छिपाता चला आ रहा था, वही बात सरेआम हो गयी। घरैतिन ने एक और धमाका किया, ‘तुम मर्दोँ की मनमानी अब नहीं चलेगी। मोहल्ले की सभी महिलाएं एक हो गयी हैं और राखी का इंसाफ की तर्ज पर हम सभी महिलाएं आप सबका इंसाफ खुद करेंगी। आपके खिलाफ कुछ शिकायतें मुझे मिली हैं। मैं उन पर विचार कर रही हूं। चार दिन बाद रविवार को हम सभी महिलाएं मोहल्ले के कम्यूनिटी हाल में इकट्ठी होकर आपके खिलाफ सुनवाई करेंगी। आपको अपने बचाव में जो कुछ कहना होगा, वहीं कहिएगा। हमने तय किया है कि जिसके खिलाफ शिकायत होगी, उसकी बीवी उस इंसाफ की अध्यक्ष होगी।’तभी मेरे बेटे ने टीवी आॅन करके न्यूज चैनल लगा दिया था। उत्तेजित स्वर में न्यूज एंकर चिल्ला-चिल्लाकर बता रही थी, ‘राखी द्वारा नामर्द बताये गये अवसादग्रस्त लक्ष्मण की मौत। लोगों में आक्रोश।’ तेज आवाज में प्रसारित हो रहे खबर को हम दोनों देखने लगे थे। मैंने अपनी घरैतिन की ओर देखा,‘अब बताओ...तुम्हारी राखी बहन ने तो एक की जान ले ली। बहुत उछल रही थी तुम राखी बहन के बल पर।’ मैंने घरैतिन की नकल उतारते हुए कहा, ‘हम महिलाओं ने तुम मर्दों का इंसाफ करने का फैसला किया है।’मैंने देखा कि खबर प्रसारित होने के बाद से घरैतिन का उत्साह ठंडा पड़ गया था। वह सिर्फ इतना बुदबुदाईं, ‘आग लगे ऐसे कार्यक्रम को। बेचारे लक्ष्मण की जान ही ले ली। मुझे कवि डॉ. बलजीत की ये पंक्तियां याद आने लगीं।टीवी टीबी दे रहा, मीठा-मीठा दर्द,अच्छे-अच्छे वैद्य भी, सिद्ध हुए नामर्द।

Friday, November 12, 2010

पोसम्पा भाई पोसम्पा

-अशोक मिश्र
‘पोसम्पा भाई पोसम्पा
डाकिये ने क्या किया?
सौ रुपये की घड़ी चुराई
अब तो जेल में जाना पड़ेगा
जेल की रोटी खानी पड़ेगी...’
किसने रचा था यह गीत। कम से कम मुझे तो नहीं मालूम। लेकिन जिसने भी रचा होगा, वह बाल मनोविज्ञान का धुरंधर रहा होगा। यह गीत बाद में किस तरह बच्चों के खेल में शामिल हो गया, इसके बारे में सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। आज भी जब बच्चों के मुंह से इस गीत को सुनता हूं, इसकी उपादेयता के प्रति नतमस्तक हो जाता हूं। कितनी खूबसूरती से इस गीत के माध्यम से बच्चों को अपराध से दूर रहने और अपराध करने पर मिलने वाले दंड के प्रति जागरूक किया गया है। जिन दिनों यह गीत रचा गया होगा, उन दिनों सौ रुपये की कीमत कम नहीं रही होगी। तब डाकिया समाज का एक सम्मानित पात्र हुआ करता था, जो लोगों के सुख-दुख के समाचार लेकर उनके बीच जाता था। समाज में उसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती थी। सरकारी कर्मचारी होने के बाद भी उसके जेल जाने से बचने की कोई गुंजाइश बच्चों को नहीं दिखायी देती। जो बच्चे इस गीत को गाकर खेलते हुए बड़े हुए हैं, उनमें न्यायिक व्यवस्था के प्रति आस्था देखने को मिल जाती है। ‘अब तो जेल में जाना पड़ेगा’ इन पंक्तियों में बच्चों का न्यायिक प्रक्रिया के प्रति विश्वास की एक झलक मिलती है।

दो दशक पहले और आज के खेलों में सबसे बड़ा अंतर यही है कि एक से सामूहिकता का विकास होता है, दूसरे से बच्चा समाज से कटता जाता है। टीवी और कंप्यूटर युग से पहले बच्चे अपने भाई-बहनों ( चचेरे-मौसेरे, ममेरे) के अलावा मोहल्ले के लगभग सभी बच्चों के साथ खेलते थे। इस दौरान वे ऐसे भी खेल खेलते थे जिनमें दो पक्ष होते थे। संयोग से जिस बच्चे के साथ एक दिन पहले किसी बच्चे की खूब लड़ाई हुई होती थी और वह बच्चा आज अपने पक्ष में होता था, तो वह बच्चा कल की लड़ाई को भूल जाता था। उसे सिर्फ इतना याद रहता था कि फलां अपने पक्ष का खिलाड़ी है और उसकी हार अपनी हार है। एक दिन पहले न बोलने की कसम खाने वाला बच्चा खेल के दौरान चिल्लाता है, ‘सुरेश...भाग...’ और खेल के बाद दोनों फिर पहले की तरह दोस्त हो जाते थे। इन खेलों की यही विशेषता थी। यदि किसी कारणवश दो बच्चे झगड़ भी पड़े, तो ज्यादा समय तक उन दोनों में ‘अबोला’ नहीं रह सकता था क्योंकि उन्हें खेलना है, तो उन्हीं बच्चों के बीच।इन खेलों के दौरान बच्चे में नेतृत्व और सामंजस्य की भावना और क्षमता का विकास होता था। वे रिश्तों की परिधि में रहकर रिश्तों की मर्यादा के प्रति जागरूक होने की शिक्षा प्राप्त करते थे। उन्हें उम्र के लिहाज से संबोधन करना सिखाया जाता था। ‘हां... तुमसे चार महीने बड़ा है...तुम उसे भइया या दादा नहीं कह सकती।’ अकसर माएं अपनी बेटियों को अपने हमउम्र साथी को नाम लेकर पुकारते देख टोक दिया करती थीं। मोहल्ले की लड़कियां या तो दीदी होती थीं या बुआ, मौसी। लड़के भी इन्हीं रिश्तों के पाये से बंधे रहते थे। ऐसे में छेड़छाड़ या अवैध संबंध की गुंजाइश कम रहती थी। संबंधों की मर्यादा इनमें आड़े आ जाती थी।

ऐसा नहीं है कि इन खेलों को खेलने वाले ज्यादातर लड़के पढ़ते नहीं थे, या उनकी मेधा में विकास नहीं होता था। उनके मां-बाप तब भी उनकी पढ़ाई को लेकर चिंतित रहा करते थे। लड़के-लड़कियां एक निश्चित समय तक खेलने के बाद घर आ जाते थे। आज स्थितियां काफी भिन्न हैं। बच्चे घर से स्कूल, ट्यूशन के लिए निकलते हैं। बाकी समय वे घर में रहकर ही कंप्यूटर, वीडियो गेम्स खेलते हैं। अगर घर में इंटरनेट कनेक्शन हो, तो फिर चैटिंग करते हैं, अश्लील फिल्में देखते हैं।

ऐसा सभी बच्चे करते हैं यह भी नहीं कहा जा रहा है, लेकिन ऐसे बच्चों का जो प्रतिशत है, वह चिंताजनक है। यह समाज के हित में कतई नहीं है। सामाजिकता के अभाव में न तो अच्छे नागरिक बन पा रहे हैं और न ही अच्छे बेटे-बेटियां। घर में अकेले रहकर असमय कुंठित और तनावग्रस्त रहने वाले बच्चे बड़े होकर अच्छे मां-बाप भी नहीं बन पाते। एकल परिवार के उदय ने समाज को और कुछ अहित किया हो या नहीं, लेकिन एकल परिवार ने बच्चों को आत्मकेंद्रित अवश्य बना दिया है। आत्मकेंद्रित बच्चा अपने सिवा किसी और के विषय में सोच ही नहीं पाता। ऐसे बच्चे जब अपराध की ओर मुड़ते हैं, तो वे कई बार ऐसे अपराधों को अंजाम देते हैं कि उसे पढ़-सुनकर रोयें खड़े हो जाते हैं। बच्चों के प्रति जागरूकता अच्छी बात है,लेकिन जब जागरूकता बच्चे के विकास में बाधा बन जाये, तो वह उसके लिए किसी अभिशाप से कम नहीं होती है। बच्चों का स्वाभाविक विकास होता रहे, इसके लिए जरूरी है कि उन पर निगाह रखी जाये, लेकिन उन्हें टोका न जाये। अगर लगे कि बच्चा गलत मार्ग पर जा रहा है, उस पर अंकुश लगाने की हर संभव कोशिश की जानी चाहिए। लेकिन उसे प्रताड़ित कदापि नहीं किया जाना चाहिए। इससे बच्चे में हठधर्मी हो जाती है।