Wednesday, January 25, 2017

मतदाताओं का मजा, ले गए अलीरजा

अशोक मिश्र
विधानसभा चुनाव की रणभेरी क्या बजी, तरह-तरह के डमरू, बंदर-बंदरिया लेकर मदारी की तरह उम्मीदवार लगे करतब दिखाने। वे अपना करतब दिखाने में मस्त हैं। उन्हें मजा आ रहा है। मजा आए भी क्यों न! यदि चुनाव जीते, तो सत्ता सुंदरी के वरण का मौका जो मिलेगा। ये उम्मीदवार सिर्फ डमरू, बंदर-बंदरिया या जमूरे के भरोसे ही चुनाव जीतने की कोशिश में नहीं हैं। इन्होंने अपनी-अपनी पीठ पर एक ढोल भी बांध रखी है। जहां भी इन्हें मतदाता दिखा बजाने लगते हैं-मैं सबसे बहुत अच्छा हूं। मैं यह करूंगा, वह करूंगा। एक मैं ही ईमानदार हूं, बाकी सब बेईमान हैं।
इन उम्मीदवारों को भले ही चुनाव में मजा आ रहा हो, लेकिन जब से चुनाव आयोग अंग्रेजों के जमाने का जेलर बना है, तब से मतदाताओं का सारा मजा अली रजा ले गए। मुझे याद है कि दस-बीस साल पहले चुनाव के दौरान कितना मजा आता था। चुनाव से डेढ़-दो महीना पहले ही गली-मोहल्ले में दली-निर्दली सबके बैनर-पोस्टर लग जाते थे। किस्म-किस्म के पंपलेट, बुकलेट बांटे जाते थे। चुनाव खत्म होते-होते घर में दस-बीस किलो रद्दी इकट्ठा हो जाती थी। घरैतिन केरोसिन खत्म हो जाने पर उसी पंपलेट, बुकलेट और पोस्टर आदि से चाय और दूध गरम कर लेती थीं। घर के बच्चों को दूध और मुझे चाय नसीब हो जाती थी। पूरा घर उम्मीदवारों को जीभर कर आशीष देता था। रात-बिरात गाटरवा, पिंटुआ, बबलुआ, रमेशवा, सुरेशवा को उकसाकर, टाफी-कंपट, चना-चबैना का लालच देकर झंडे, बैनर उतरवा लिए जाते थे।
दलियों-निर्दलियों के ये झंडे-बैनर घरैतिन के बूटीक कला में पारंगत होने के जीवंत उदाहरण के रूप में काफी दिनों तक घर में शोभायमान रहते थे। बच्चों से लेकर घर के बड़े-बूढ़ों तक की जांघिया-कच्छे बनाने में ये झंडे-बैनर काम आते थे। घर के बच्चे यदि ज्यादा ऊर्जावान हुए, तो तकिए की लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई बढ़ जाया करती थी।
उन दिनों जब तक विधानसभा या लोकसभा के चुनाव चलते थे, लंपटों, निठल्लों, कामचोरों की मौज ही मौज हुआ करती थी। घर में भले ही फाकाकशी की नौबत हो, लेकिन उम्मीदवारों और उनके चिंटुओं-पिंटुओं की बदौलत चाय-पानी, पूड़ी-तरकारी से लेकर कच्ची-पक्की का जुगाड़ हो जाता था। हां, बस इलाके में रहने वाले उम्मीदवारों के खास चमचों की थोड़ी लल्लो-चप्पो करनी पड़ती थी। अब वह सुख तो जैसे  सपना हो गया। ललिता पवार की तरह खूसट सास बना चुनाव आयोग राई-रत्ती का हिसाब-किताब मांग रहा है। सच्ची बात बता दो कि फलां को कच्ची दी, अमुक को पक्की, तो परचा खारिज। भला बताओ, यह भी कोई बात हुई।

Sunday, January 22, 2017

भ्रष्टाचार मुक्त भारत या भ्रष्टाचार युक्त भारत

-अशोक मिश्र
जी हां! यह आपको ही तय करना है कि आपको कैसा भारत चाहिए? नेता, अधिकारी, मंत्री-संत्री क्या कहते हैं, वे कैसा भारत चाहते हैं, यह सवाल कम से कम हम आपके लिए बहुत मायने नहीं रखता है। हमें आपको तय करना है िक हमें कैसा भारत चाहिए? वैसेे तो नेता, मंत्री, विधायक कभी नहीं कहेंगे कि भ्रष्टाचार युक्त भारत चाहिए। वे हमेशा खुले में भ्रष्टाचार का ही विरोध करेंगे, लेकिन जब भीतरखाने लेन-देन की बात आती है, तो उनका भ्रष्टाचार युक्त भारत के प्रति प्रेम जागृत हो जाता है। मैं आपको कम से कम बीसियों फायदे भ्रष्टाचार युक्त भारत के गिना सकता हूं। आप भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ ही फायदे गिनाकर चुप रहने को मजबूर हो जाएंगे।
सच पूछिए, तो जो मजा भ्रष्टाचार युक्त भारत में रहने में है, वह भ्रष्टाचार मुक्त भारत में कहां है? सोचिए, अगर भारत भ्रष्टाचार मुक्त हो गया, तो लगे रहिए लोन की लाइन में। करते रहिए अपनी बारी आने का इंतजार। तब बैंक के मैनेजर से लेकर बाबू तक आपसे यही कहते फिरेंगे, अपनी बारी का इंतजार करें। पांच करोड़ बाइस लाख बत्तीस हजार सात सौ इक्यासवां नंबर है आपका। जब नंबर आएगा, आपको सूचित कर दिया जाएगा। करते रहिए पूरी जिंदगी इंतजार। इंतजार करते-करते आपका तो इस दुनिया से टिकट कटेगा, कटेगा, आपको नाती-पोते बूढ़े हो जाएंगे, तब भी नंबर नहीं आएगा। अभी आप पांच सौ का पत्ता पकड़ाइए, चाहे जिस तरह का लोन ले लीिजए। अरे घर-कुरिया से लेकर चूहे-बिल्ली पर भी लोन हाजिर है, बस आप उनके िहस्से का ख्याल रखें।
आप आज जो इतना खूबसूरत भारत, वाइब्रेंट भारत देख रहे हैं, उसके पीछे सबसे बड़ी भूमिका भ्रष्टाचार की है। अगर भ्रष्टाचार नहीं होता, तो आपके इलाको एक भी बिजली का खंबा, एक भी नाली, एक भी सड़क, एक भी पार्क मयस्सर होता कि नहीं, कौन जानता है? खंबा भोपाल से आता, सीमेंट गुजरात से आती, जमीन खोदने वाला केरल से आता, तब कहीं जाकर आपके इलाके में एक खंबा गड़ पाता। सब कुछ नियम, कायदे, कानून के मुताबिक होना होता, तो आज भी आपके मोहल्ले में सड़क तो होती ही नहीं, आप भी नाव पर बैठकर मुख्य सड़क तक जाते। अगर राष्ट्रीय या प्रांतीय राजमार्ग वालों की मेहबानी से आपके जिले का नंबर आया होता तो। अभी तो दो किमी सड़क बनाने को जितना पैसा पास होता है, तो भले ही बीस फीसदी नेता, मंत्री, संत्री की जेब में जाता हो। बीस फीसदी ठेकेदार कमाता हो, दस-पांच फीसदी पैसा इधर-उधर खर्च होता हो। पचास-साठ फीसदी रकम में भले ही टूटी-फूटी, ऊबड़-खाबड़ सड़क बनती तो है, वरना अब तक इंतजार करते रहते कि अलीगढ़ तक सड़क बन गई है, अब आगरा का नंबर है।

Sunday, January 8, 2017

कालातीत होते हैं ‘मोहल्ला पुराण’

-अशोक मिश्र
अगर आपसे पूछा जाए कि पुराण कितने हैं, तो आप अपने बचपन में रटा हुआ ‘अष्टादश पुराणेषु..’ सुना देेंगे। जी नहीं, इन पुराणों के अलावा एक पुराण होता है ‘मोहल्ला पुराण’।  यह पुराण वाचिक परंपरा का वाहक होता है। वाचिक और श्रव्य परंपरा में समय-असमय, रात-विरात हर मोहल्ले में ‘मोहल्ला पुराण’ का लेखन अनवरत चलता रहता है। समय के अदृश्य पृष्ठ पर मोहल्लावासी मौखिक रूप से मोहल्ला पुराण लिखते रहते हैं। इस पुराण के पुराने पृष्ठ दिन, सप्ताह, महीने में खुद ब खुद काल कवलित होते रहते हैं और नए पृष्ठ स्वत: जुड़ते चले जाते हैं। मोहल्ला वालों में लेखकीय गुण या उनका संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, पाली, पाकृत जैसी भाषाओं में प्रवीण होना कतई जरूरी नहीं है। कानाफूसी, बतकूचन या अफवाह फैलाने की कला में निष्णात स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध इसके रचनाकार हो सकते हैं। बस, रचनाकार के पास चटपटी, मसालेदार खबरों का अकूत कोष होना चाहिए।
किसका किससे टांका भिड़ा है। किसने अपने अड़ोसी या पड़ोसी को कुत्ता, गधा, बदतमीज, नकारा, आवारा, पागल या घमंडी कहा, तो अड़ोसी या पड़ोसी ने ऐसा कहने वाले की मां-बहन, बेटी से अंतरंग रिश्ते कायम किए। पड़ोस में रहने वाले शर्मा जी, तिवारी जी, कुशवाहा जी आदि जितने भी ‘जी’ टाइप के व्यक्ति हैं, उनके घर की कलह या प्रणय कथाओं का वाचन-श्रवण मोहल्ला पुराण की दैनिक, साप्ताहिक या मासिक कतई अनैतिक नहीं माना जाता है। नैतिकता-अनैतिकता जैसी वाहियात दर्शन और सिद्धांत मोहल्ला पुराण में वर्ज्य माने जाते हैं। किसकी बहन, बेटी, मां सुबह घर से निकली थी और देर रात को घर वापस आई थी। पड़ोसी के घर में आज सब्जी बनी थी या कढ़ाई पनीर िकसी होटल से आया था। मिसेज वर्मा की रामू की अम्मा, प्रदीप की भाभी, शकुंतला की ननद से लड़ाई होने वाली है। ऐसी खबरें मोहल्ला पुराण में सबसे ऊपर स्थान पाती हैं।
जैसे कोई ठीक-ठीक यह नहीं बता सकता कि ‘अट्ठारह पुराण’कब लिखे गए और किसने लिखा, ठीक उसी तरह मोहल्ला पुराण भी कालातीत हैं। जब से समाज अस्तित्व में आया है, तब से मोहल्ला पुराण में रोज कुछ न कुछ जोड़ा-घटाया जा रहा है। इससे पहले जब आबादी कम थी, लोग गांवों या नगरों में रहते थे, तब इसे गांव या नगर पुराण कहते रहे होंगे। बाद में जैसे-जैसे समाज का विकास हुआ,  नगर, कस्बा, मोहल्ला और गांव के नाम पर इसका नामकरण होता गया। मोहल्ला या गांव पुराण में ऐसे-ऐसे चुटीले और व्यंग्यीले (कुछ-कुछ रंगीले जैसा) प्रसंग रोज दर्ज होते रहते हैं, जिसको पढ़कर दुनिया भर के व्यंग्यकारों की चुटैया खड़ी हो जाए। अगर देश के व्यंग्यकार मोहल्ला पुराण के लेखकों से कुछ सीख सकें, तो व्यंग्य का बहुत भला होगा।

Tuesday, January 3, 2017

बाप के जूते में बेटे के पांव

-अशोक मिश्र
बाप तो आखिरकार बाप ही होता है। बेटा बेटा होता है। बाप के आगे बेटे की क्या बिसात है। अगर आप माई बापों ने इस कहावत को रट्टा मारकर याद कर रखा है कि तो भूल जाइए। सच पूछिए, तो भूल जाने में ही भलाई है। अगर आप आसानी से नहीं भूले, तो बेटे भुलवा देंगे और आपको यह कहावत याद करा देंगे कि बेटे किसी के भी कान काट सकते हैं। अब आपको इस मुहावरे का अर्थ बताने की भी जरूरत है? टीपू ने कितनी खूबसूरती से नेताजी के कान काटे, यह सारी दुनिया देख-सुन रही है। उसने तो बाप के ही कान नहीं काटे, चाचा, अंकल सबके नाक-कान बिना उस्तरे के ही रेत दिया। हाय..हाय कर रहे हैं बेचारे। लखनऊ से दिल्ली तक दौड़ लगा रहे हैं। सबको अपने कटे कान दिखा रहे है, लेकिन बाप-बेटे की लड़ाई में अपनी टांग अड़ाए कौन? इस मामले में जिसकी भी टांग टूटी है या टूटेगी, उन्होंने जरूर पिता-पुत्र के पचड़े में अपनी टांग फंसाई होगी।
आप इतिहास उठाकर देख लें। जिस बेटे ने अपने बाप-दादाओं के कान काटे, उसी का नाम इतिहास में दर्ज हुआ है। इतिहास में नाम दर्ज कराने की पहली शर्त यही है कि वह अपने बाप से चार जूता आगे निकले। भला बताइए, अगर आप लोहिया के सिद्धांतों को धता बता सकते हैं। उनके सिद्धांतों के नाम पर सात-आठ चेले-चपाटों के साथ पार्टी खड़ी कर सकते हैं। फिर चेले-चपाटों को ठेंगा दिखाकर उस पार्टी के भी टुकड़े करा सकते हैं, तो अब बुढ़ौती में आपकी पार्टी और आपके साथ भी तो वही इतिहास दोहराया जा सकता है। अब काहे को दैया-दैया कर रहे हो, चच्चा! दई (विधाता) दई सो कुबूल। वैसे तो यह ध्रुव सत्य है कि आज जो बाप है, कभी वह बेटा था। जो आज बेटा है, वह कभी न कभी बाप बनेगा। बाप-बेटे की यह उठापटक सनातनी है। जिस बेटे ने बाप को गच्चा दिया, तो समझो, दुनिया को गच्चा देने में प्रवीण हो गया। अगर बुढ़ापे में अपने ही बेटे से गच्चा खा गया, तो दुनिया को दिखाने को भले चीखता-चिल्लाता हो, लेकिन भीतर ही भीतर वह खुश होता रहता है-वाह बेटा! इस पुरातन गच्चावादी परंपरा को कितनी खूबसूरती से आगे बढ़ाया है।
अगर आप चाहते हैं कि आपका बेटा बुढ़ापे में आपको गच्चा न दे, आपके और आपके बेटे के बीच जूते में दाल न बंटे, तो यह बात अच्छी तरह गांठ बांध लें कि बेटा किसी भी हालत में आपके जूते में पांव डालने ही न पाए। बचपन में ही जब वह आपके जूते में पांव डालने की कोशिश करे, तो उसे बरज दें, मना कर दें। यदि आपने ऐसा नहीं किया, तो जिस दिन आपके जूते में बेटे का पैर फिट हुआ, उसी दिन से समझ लीजिए कि अब आप बाप-बेटे के बीच जूते में दाल बंटने के दिन आ गए हैं। जूतमपैजार अवश्यंभावी है। इसे टाला नहीं जा सकता है। अब अगर समाजवादी बाप-बेटे में जूतमपैजार हो रही है, तो किम आश्चर्यम!