Wednesday, January 23, 2013

गधों का कायांतरण

अशोक मिश्र
दिल्ली के संसद मार्ग पर गधों का सम्मेलन हो रहा था। एक स्वामी टाइप के बुजुर्ग गधे गदर्भानंद को सम्मेलन का सभापति बनाया गया था। सभापति के आसन ग्रहण करते ही सभी गधों ने ‘ढेंचू-ढेंचू’ की आवाज से उनका स्वागत किया। एक युवा गधे ने सम्मेलन का संचालन करते हुए कहा, ‘मित्रों, आज दिल्ली में आप सभी गधों का स्वागत करते हुए मुझे अपार प्रसन्नता हो रही है। पहले आपको यह बता दें कि यह सम्मेलन बुलाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? आप जानते हैं कि सदियों से हम गधों के आश्रयदाता धोबी रहे हैं। उनके रहते हमें कभी भोजन की समस्या नहीं रही। वे हमें खिलाते थे और जमकर काम लेते थे। इससे हमें उज्र भी नहीं था। अब जब उनके लिए हम अनुपयोगी हो गए हैं, तो हमारे सामने भोजन की समस्या आ खड़ी हुई है, इसलिए इंसानों की परंपरा के विपरीत मैं सबसे पहले सभापति महोदय से अनुरोध करता हूं कि वे विषय प्रवर्तन के लिए आगे आएं।’ इतना कहकर युवा गधा एक तरफ खड़ा हो गया।
सभापति स्वामी गदर्भानंद ने आसन के सामने रखे हरे चारे को मुंह में भरा और चबाते हुए माइक के सामने आ खड़े हुए। बोले, ‘देश भर से आये प्यारे गर्दभ भाइयो! पिछले कई दिनों से हरे चारे को देखने को तरस गईं आंखों को आज कितना सुकून मिल रहा है, यह मैं आपको नहीं बता सकता। इस सम्मेलन के आयोजकों को सबसे पहले तो मैं धन्यवाद देना चाहता हूं कि उन्होंने पद और गरिमा के हिसाब से हम सभी गधों को हरा चारा उपलब्ध कराया। कितने अफसोस की बात है कि कभी सावन-भादों में जिधर नजर दौड़ाइए, हम सबको हरा ही हरा दिखता था, लेकिन आज हरियाली या तो कोठियों में कैद है या फिर घिरे हुए फार्म हाउसों में। बाकी तो हरियाली कहीं दिखती नहीं है।’
इतना कहकर सभापति महोदय सांस लेने के लिए रुके और बोले, ‘आज सुबह मैं दिल्ली की सड़कों पर घूम रहा था, तो पाया कि हमारे कई भाई कायांतरण कर इंसानी वेश धारण किए कारों में घूम रहे हैं। कोई कोट-पैंट पहने है, तो कोई धोती कुरते में है। कुछ कायांतरित गधे तो देश के राजनीतिक दलों में भी अपनी जगह बना चुके हैं। उनकी स्थिति देखने में मुझे काफी अच्छी लगी। कई तो केंद्र और राज्य सरकारों में सरकारी अफसर बने बैठे हैं। सरकार और जनता को चरे जा रहे हैं। इससे मुझे लगा कि इस देश में चारागाह की समस्या कतई नहीं है। बस थोड़ी सी अकल दौड़ाने की जरूरत है। अगर हम लोग पूरे देश को चारागाह समझ ले, तो फिर हमारे सामने चारे की समस्या कहां रहेगी। इसलिए सबसे पहला काम यह करें कि आप लोग अपना कायांतरण करें और इंसान का रूप धारण कर जहां मौका मिले, घुस जाएं। संसद, विधानसभाओं, बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों में जब, जहां और जैसे भी मौका मिले, बड़े-बड़े पद हथियाएं। अपने भाइयों को प्रमोट करें। खुद जी भर कर चरें और बाकी साथियों को भी चरने का मौका दें।’
सभापति महोदय के इतना कहते ही सारे गधे एक बार फिर ‘ढेंचू-ढेंचू’ कहकर चिल्लाए और लयात्मक ढंग से दुलत्ती झाड़ने लगे। सभापति ने उन्हें शांत रहने का इशारा करते हुए थोड़ी-सी घास उठाई और चबाने लगे। खूब चबाकर खाने के बाद उन्होंने फिर कहना शुरू किया, ‘लेकिन भाइयों, आप लोगों को मैं अभी से आगाह कर दूं। कायांतरण के बाद आपमें कुछ इंसानी बुराइयां भी आ सकती हैं। जिस थाली में खाता है, इंसान उसी थाली में छेद करता है। उसके लिए बहन, बेटी, बीवी जैसे शब्द अब कोई मायने नहीं रखते। वह उनकी बेकद्री करता रहता है, हमें इंसानों की इसी प्रवृत्ति से बचकर रहना है। हम देश को चारागाह तो समझें, लेकिन उसे बेच खाने की कभी न सोचें।’ सभापति के इतना कहते ही सारे गधे ‘ढेंचू-ढेंचू’ कहकर लयात्मक ढंग से दुलत्तियां झाड़ने लगे। सभापति ने उन्हें शांत होने का इशारा किया, लेकिन उनकी दुलत्तियां जारी रहीं। नतीजा यह हुआ कि कई गधों को दिल्ली के अस्पतालों में भर्ती कराना पड़ा। वैसे उनका यह सम्मेलन अभी जारी है। सम्मेलन के निष्कर्ष का इंतजार मुझे भी है और आपको भी होगा ही।


Tuesday, January 15, 2013

काव्य का नया सौंदर्यशास्त्र


-अशोक मिश्र

उस्ताद मुजरिम घर पर पधारे, तब मैं कविता का नया सौंदर्यशास्त्र लिख रहा था। उस्ताद मुजरिम ने चरणस्पर्श करने पर एक लंबा आशीर्वाद देने के बाद पूछा, ‘क्या लिख रहे हो, बरखुरदार!’ मैंने उत्साहित होकर बताया, ‘उस्ताद! काव्य का नया सौंदर्यशास्त्र रच रहा हूं। सदियों पुराना सौंदर्यशास्त्र पढ़-सुनकर लोग पक चुके हैं। वही नवोढ़ा नायिका, वही स्वकीया...परकीया का चक्कर। अरे भाई, कब तक हजारों साल पुराने प्रतिमान, बिंब-प्रतिबिंब को रोते रहोगे। अब जमाना बदल चुका है, फेसबुक और मोबाइल के जमाने में उत्कठिंता, अभिसारिका, मुग्धा, प्रगल्भा, ऊढ़ा, अनूढ़ा, रक्ता, विरक्ता नायिकाएं खोजते-फिरोगे, तो कौन पढ़ेगा या सुनेगा तुम्हारी कविताएं। यही वजह है कि आजकल कवि और प्रकाशक सिर पर हाथ रखकर जार-जार रो रहे हैं, माथा पीट रहे हैं, ‘कविताओं के अब पाठक नहीं रहे।’ अरे भाई! आज जब न्यूनतम वस्त्रों वाली नायिकाएं सौंदर्य के नए-नए प्रतिमान गढ़ रही हों, सौंदर्य का आधार ‘सब कुछ छिपाना नहीं, सब कुछ दिखाना’ रह गया हो, उस जमाने में नख से शिख तक सौलह गजी साड़ी में गुंठित-अवगुंठित नायिका को काव्य का आधार बनाओगे, तो किस रस की निष्पत्ति होगी? विरक्ति का भाव ही न उपजेगा मन में!’
मेरी बात सुनकर उस्ताद मुजरिम खिलखिलाकर काफी देर तक हंसते रहे। फिर गंभीर होकर उन्होंने नाक से ‘हूंऊ...’ की गहरी आवाज निकाली और बोले, ‘तो तुम नया नायिका भेद रच रहे हो?’ मैंने तपाक से उत्तर दिया, ‘हां उस्ताद! जिस दिन मैं अपने इस दुरूह कार्य को संपादित कर लूंगा, उस दिन कविता के क्षेत्र में क्रांति हो जाएगी। भरतमुनि, रुद्रभट्ट जैसे आचार्यों की तरह मैं भी आचार्य कहा जाऊंगा। आधुनिक काव्य में मेरी अमरता तो सुनिश्चित है। मेरा नायिका भेद स्कूल, कॉलेजों और महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाएगा। आप देखना एक दिन...।’ मेरी बात सुनकर उस्ताद एक बार फिर हंस पड़े। बोले, ‘कुछ मुझे भी सुनाओ तुमने क्या लिखा है।’ मैंने अपने चारों ओर बिखरे कागज-पत्रों को समेटने के बाद उन्हें बताया। मैंने चार तरह के नायिकाओं को ही मान्यता दी है। मेरी पहली नायिका है, फेसबुकिया। इसके भी दो उपभेद हैं, स्वकीया और परकीया। ‘स्वकीया फेसबुकिया’ नायिका वह है, जो अपने फ्रेंड सर्किल की होती है। यह नायक की गर्लफ्रेंड भी हो सकती है, वाइफ भी। इन पर नायक (यानि ब्वायफ्रेंड) का पूर्ण अधिकार होता है। वह जो कुछ भी ‘पोस्ट’ करता है, नायिका उसे ‘लाइक’ करने को मजबूर होती है। गर्लफ्रेंड की सहेली, उसकी भाभी, उसकी सिस्टर या फिर किसी फ्रेंड की गर्लफ्रेंड और उसके अन्य रिश्तेदारिनें ‘परकीया फेसबुकिया’ नायिका की कोटि में आती हैं। परकीया फेसबुकिया नायिका के दो उपभेद हैं, ‘शंका नायिका’, ‘आशंका नायिका’। ‘शंका नायिका’ वह है जिसे नायक की पत्नी, बच्चे, मां-बाप और भाई-बहनें प्रेमिका होने की शंका के चलते उसके फेसबुक एकाउंट को ‘स्पैम’ करने का दबाव डालते हैं। प्रेमिका होने का प्रमाण मिल जाने पर नायक के परिजन जिस नायिका के फेसबुक एकाउंट को नायक के फेसबुक एकाउंट से डिलीट करा देते हैं, वह आशंका नायिका कहलाती है।’
इतना कहकर मैंने उस्ताद मुजरिम की ओर देखा। वह बड़े गौर से मेरी बात को सुन रहे थे। उन्होंने मुझे अपनी बात जारी रखने का संकेत किया। मैंने आगे कहा, ‘उस्ताद! फेसबुकिया नायिका की चार कोटियां (किस्में) होती हैं। पोस्टा, शेयरा, कमेंटा और लाइका।’ ऐसी नायिकाएं, जो आए दिन कोई न कोई सामग्री पोस्ट करती रहती हैं, वे पोस्टा कहलाती हैं। ये स्वकीया और परकीया दोनों हो सकती हैं। कुछ स्वकीया और परकीया नायिकाएं अपनी प्रतिनायिकाओं (ब्वायफ्रेंड की अन्य सहेलियों/प्रेमिकाओं) को जलाने के लिए नायक की पोस्ट की गई सामग्री को शेयर कर लेती हैं, तो वे शेयरा नायिका में तब्दील हो जाती हैं। ठीक इसी तरह कमेंटा नायिकाएं होती हैं। शेयरा और कमेंटा नायिका में मामूली-सा फर्क होता है। ऐसी कोटि की नायिका नायक की पोस्ट पर कमेंट करके सारी दुनिया को यह जताने की कोशिश करती है कि फिलहाल उसके ही अपर चैंबर में दिमाग है, बाकी सबके खाली हैं। प्राचीनकाल के काव्य सौंदर्यशास्त्र में दूतिका, परिचारिका (नौकरानी) और नर्म सचिव (बचपन की सहेली) को काफी महत्व दिया गया है। हिंदी और संस्कृत साहित्य में ये नायक-नायिकाओं का दिल बहलाने का काम करते पाए जाते हैं। आधुनिक सौंदर्यशास्त्र में दूतिकाओं, परिचारिकाओं और नर्म सचिवों का काम करने वाली नायिकाओं को लाइका नायिका की श्रेणी में रखा जा सकता है। ये नायक या नायिका की पोस्ट को ‘लाइक’ करके उन्हें संदेश देते हैं, ‘लगे रहो मुन्नाभाई/लगी रहो मुन्नीबाई, हम तुम्हारे साथ हैं।’ इतना कहकर मैंने अपना कागज एकतरफ रखकर उस्ताद मुजरिम की ओर देखा। वे मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने मेरे सिर पर आशीर्वाद भरा हाथ फेरते हुए कहा, ‘तुम धन्य हो, तुम्हारी प्रतिभा धन्य है।’ इतना कहकर वे अपने घर चले गए।

वन डे क्रिकेट मैच और ग्रामीण दर्शक


-अशोक मिश्र

भारत-पाकिस्तान के बीच वनडे क्रिकेट मैच चल रहा था। पाकिस्तान की टीम ढाई सौ रन बनाकर आउट हो चुकी थी। पाकिस्तान अपनी फील्डिंग सजा चुका था, तभी पवेलियन छोर से ओपनर बल्लेबाज गौतम गंभीर और वीरेंद्र सहवाग आते दिखाई दिए। गुलरिहा गांव में सत्तन पांडेय के आंगन में मैच देखने को जमा हुए लोगों ने ‘होओ...’ की आवाज करके दोनों खिलाड़ियों का स्वागत किया। इस पर सत्तन पांडेय ने युवाओं को डांटते हुए कहा, ‘तनि चुप्पै बैठो। मैचवा शुरू तौ होय देओ।’ सारे लोग चुप हो गए।
साठ वर्षीय अमेरिका तिवारी से रहा नहीं गया, ‘आई गए भारत के आल्हा-ऊदल। अब्बै देखो, चउवा-छक्का मार कै पाकिस्तानियन का धुन कै रख देइहैं।’ अमेरिका की बात सुनकर लड़के मुंह दबाकर खिखियाए, तो सत्तन पांडेय गरज उठे, ‘सभै आपन-आपन चोंच बंद रक्खो, नाहिं तो टीविया बंद कर देबौ। तब का घंटा मैचवा देखबौ।’ तभी खेल शुरू हो गया, सारे लोग शांत होकर मैच देखने लगे। पाकिस्तानी बॉलर और फील्डर भारतीय बल्लेबाजों पर कहर बरपा रहे थे। पांच ओवर तक पहुंचते-पहुंचते सिर्फ सत्रह रन ही बन पाए थे। तभी सहवाग ने मोहम्मद हफीज की बॉल को थर्ड मैन की दिशा में ढकेला और रन लेने के लिए दौड़े, गंभीर ने उन्हें रुकने का इशारा किया। राम बरन से रहा नहीं गया, ‘ई ससुरे! ठुठुर-ठुकुर करि रहे हैं पौन घंटा से। अबहीं तक कुल सतरह रन बनाय कै अपने को योद्धा समझि रहे हैं। अरे, इनसे अच्छा तौ रमेसवा कै लड़किवा खेलत है। ऊ तौ एक्कै बॉल मा सात-आठ रन बनाए बिना मनतै नाही है।’
तभी सुखमनी पांडेय बोल उठे, ‘राम बरन भइया! सठियाय गए हौ का। एक बॉल मा सात-आठ रन कैइसै बनि जाई।’ राम बरन ने ‘रन अर्थशास्त्र’ समझाया, ‘तू हमका बुड़बक समझे हो का? जौने बॉल पर वह छक्का मारत है, उस बॉल को इंपायर ‘वाइट’ बॉल बताइ देत है। होइ गवा न, सात रन...। अब एक बॉल मां का लड़िका कै जान लेबौ? ई सहबागवा और गंभीरवा से तौ अच्छा खेलत है रमेसवा कै लड़िका।’ दोनों के बात करने से सत्तन पांडेय फिर नाराज हो उठे, ‘अगर तू सबै इतनै गियानी हौ, तो काहे नाहीं चले जात हौ इंपायरी करने। हिंया काहे घास खोदत हौ। चुप्पै रहो, नाहीं तौ टीविया बंद कैइके हम चद्दर तानि कै सोइ जाब। तब बैठि कै घुंइया छीलेओ।’ तभी गंभीर ने जुनैद खान की गेंद पर चौका लगाया, स्टेडियम और सत्तन पांडेय के घर में जमा दर्शकों ने जोर की हर्ष ध्वनि की। सत्तन सहित सबका ध्यान खेल पर चला गया। मैच आगे बढ़ता रहा। सत्तर रन पर भारतीय टीम के तीन पुरोधा पवैलियन लौट चुके थे। इस बीच सत्तन पांडेय के आंगन में जमा ज्यादातर दर्शक खैनी बनाकर मुंह में दबा चुके थे।
भूखन ने कहा, ‘सुखमनी भाई! ई बताओ। ई महेंद्र सिंघवा अपने नाम के साथ धोनी काहे लगावत है?’ इस पर श्याम बोल उठा, ‘जब महेंद्र सिंघवा खेलब सुरू किहिस रहा, तबै उसने पाकिस्तानी टीम को ऐसै धोय दिहिस रहा, जैसन कउनौ धोबी कपड़ा धोवत है, तबही से वोहकर नाम धोनी पड़ि गवा रहै। ऊ साल तौ धोनिया आसटरैलिया, कनाडा, अमेरिका, रूस और इंगलैंड की टीमन का बखिया उधेड़ दिहिस रहा। बड़ा जबर खिलाड़ी है महेंद्र सिंघवा।’ तब तक मैच आगे बढ़ चुका था। एक सौ बाइस रन पर भारत के छह खिलाड़ी आउट होकर जा चुके थे। धोनी और आर. अश्विन जमे हुए थे। दोनों खिलाड़ी एक-एक रन लेकर दबाव कम करने की कोशिश कर रहे थे। सिर्फ पंद्रह ओवर ही बचे थे। एक बॉल पर धोनी ने बल्ला अड़ाया और रन लेने को दौड़े, लेकिन फिर लौट आए। सत्तन पांडेय के आंगन में बैठे ‘छोटो बिलऊ’ चीख पड़े, ‘भाग धोनिया..भाग..कम से कम एक रन तौ लैइले..।’ ‘कैइसे लैइलें...अकमलवा बिकेटवै पर ही खड़ा है। झट से चांप नहीं देगा। बिकेट कै गुल्लियै उड़ि जाई। रन लैइहैं का घंटा? अकमलवा तौ पूरा ससुर कै नाती हइ। एक्कौ मौका नाहिं छोड़त है आउट करै कै।’ तभी सुरेश रैना ने शोएब मलिक की बॉल पर चौका लगाया। उधर बिजली गुल। सबके दिल धक्क से रह गए। सत्तन पांडेय मन मसोस कर रह गए। दर्शक वापस जाने लगे। जाते-जाते भूखन ने कहा, ‘ई बिजुरी विभाग वालेन का सम्मै माता (समय माता, एक स्थानीय देवी) उठाय लइ जाय, यही बखत बिजुरी काटै का रहा। तनिक देर अऊर नहीं रुकि सकत रहै।’ सारे दर्शक उठकर अपने-अपने घर चले गए।