Thursday, January 28, 2021

सिर्फ यही एक विकल्प है

 

-अशोक मिश्र
सड़ चुका है तालाब का पानी
मरने लगी हैं मछलियां, केकड़े
तालाब के जल में रहने वाले जीव जंतु
सूख चुके हैं तालाब के इर्द गिर्द उगे तरख्त
झाड़ियां, हरी दूब, शैवाल
तालाब के पानी से सींची गई फसलें
या तो सूख चुकी हैं
या फिर लाख प्रयास के बावजूद नहीं आई बालें
हो चुके हैं खेत के खेत बंजर
खेत की कोख से नहीं उगता एक भी पौधा
उड़ चुके हैं बगुले भी नए तालाब की तलाश में
बेकार हो चुकी है मिट्टी भी तालाब की
अब इस तालाब में नया पानी भरने से
नहीं चलेगा काम।
यदि चाहते हो कि जिंदा रहें बाकी मछलियां, केकड़े
हरी दूब, शैवाल, पेड़ पौधे, खेत
लहलहाएं फसलों की भावी पीढ़ियां
खिलखिलाएं पेड़, पौधे, दूब
तो पाट दो मिट्टी से सड़ चुके तालाब को
खुर्द-बुर्द कर दो तालाब के अस्तित्व को
खोदो नया तालाब
लाकर भरो ताजा पानी
सिर्फ यही एक विकल्प है
तुम्हारे पास
सड़ चुके समाज और सड़ चुकी व्यवस्था का भी।

Sunday, January 24, 2021

मुर्दे कभी विद्रोह नहीं करते

 

-अशोक मिश्र
वो, जो हल की मुठिया पकड़े
जोत रहा है खेत, कर रहा है निराई-गुड़ाई
सर्दी, गर्मी, बरसात नहीं डिगा पाती उसे अपने कर्म से
वह नहीं जाता हमारी, आपकी तरह आफिस, कल कारखानों में
सूट-बूट, टाई, कोट, जूते-मोजे पहनकर
अपनी बगलों में इत्र छिड़क कर
सदियों से है उसके ‘आफिस’ में नंगे पांव जाने की व्यवस्था
खेत जोतना, निराई गुड़ाई करना, सिंचाई करना
संभव है सिर्फ नंगे पांव
बिना जूता, चप्पल पहने बीत जाती है उसकी आधी जिंदगी
धोती फटी सी, लटी दुपटी अरु पांय उपानह की नहिं सामा
की साक्षात प्रतिमूर्ति.... किसान
यह देश उसका भी है।
किसी शहर के किसी चौराहे के एक गुमनाम कोने में
किसी गली, कूचे में
फटी बोरी, प्लास्टिक की पन्नी पर
अपनी बकसिया से औजार निकाल
कटे, फटे जूते-चप्पलों की संवार रहा है किस्मत
ताकि उसके ही समान गरीब के जूते
हो जाएं कुछ दिन और चलने लायक
यह देश उसका भी है।
प्रसव के ठीक छह-सात दिन बाद
अपनी और अपने बच्चे की
पेट की आग बुझाने के लिए
सिर पर मिट्टी, बालू, सीमेंट और ईंट रखकर
ढोने वाली उस कृषकाय मजदूरिन का
इस देश पर है पूरा का पूरा हक
यह देश उसका भी है।
इन सबको नहीं चाहिए तुमसे
देश भक्ति का प्रमाण पत्र
इनका श्रम ही है इनकी देशभक्ति का प्रमाण
लेकिन सुनो महाराज!
अगर तुम इन सबको खारिज कर दो
तो देश के नाम पर बचेंगे
लंपट सर्वहारा, पतित नेता, भ्रष्ट नौकरशाह
गुलाम मानसिकता के पथ भ्रष्ट युवा
और तब
यह देश देश न होकर रह जाएगा सिर्फ एक नक्शा
जो ठीक वैसा ही होगा, जैसे प्राण निकलने पर रह जाता है शरीर
और तब
मुर्दों पर शासन करना, महाराज!
क्योंकि मुर्दे कभी विद्रोह नहीं करते।

Wednesday, January 20, 2021

यकीन मानो

 

 

-अशोक मिश्र

हम बोलेंगे, विरोध करेंगे

तुम्हारी जनविरोधी नीतियों और शोषक व्यवस्था के खिलाफ

हम लामबंद करेंगे उन लोगों को

जिनके जिस्म और आत्मा पर दर्ज हैं तुम्हारी बर्बरता की कहानियां

हम तैयार करेंगे एक हरावल दस्ता

उन लोगों का जिनके सपनों को कुचल दिया है तुमने फौजी बूटों के तले

हम खोजते रहेंगे राख में पड़ी एक चिन्गारी

भले ही कुचल दो हमें

अपनी बख्तर बंद गाड़ियों और पैटर्न टैंकों के तले

भले ही हमें अपने परमाणु बमों में बांधकर फेंक दो अंतरिक्ष में

भले ही काट दो हमारी जुबां

ताकि निकल न सके विद्रोही स्वर

तुम्हारा दमन न सह पाने से निकलती चीख को

रोकने के लिए सिल दो होंठ भले ही

भले ही सागर में फेंक दो सारी दुनिया की कलम-दवात

बहा दो नाली में सारी स्याही

ताकि कुछ लिखा न जा सके तुम्हारे खिलाफ।

हम तब भी लिखेंगे

अपनी हड्डियां अपने साथी को देकर

ताकि वह इन हड्डियों की नोक से जमीन पर

गुफाओं की दीवारों पर

तुम्हारे महलों और अट्टालिकाओं की दीवारों के किसी कोने में

इन्कलाब लिख सके

हम अपनी मूक आंखों से कहेंगे अपनी दास्तां

कटी जुबान वाले चेहरे की भाव भंगिमा से ही

लोग अनुमान लगा लेंगे तुम्हारी बर्बरता की पराकाष्ठा का

हम मिटकर भी बो जाएंगे

बगावत की फसल, यकीन मानो।