Sunday, February 27, 2011

सांसद जी, प्लीज लाइन में आइए

अशोक मिश्र
मेरे दफ्तर में घुसते ही टाइम आफिस के पास उपस्थिति रजिस्टर रखा हुआ है। इस रजिस्टर में आते और जाते समय हम जैसे मजदूरों को दस्तखत करना पड़ता है। आने और जाने के समय में थोड़ा सा भी हेरफेर हुआ, तो समझो कि मजदूरी कट। उस दिन काम करने के बावजूद वेतन बट्टे-खाते में गया। यही वजह है कि जिस दिन कोई घर जाने की जल्दी में अगर ड्यूटी खत्म करने का समय डालना भूल गया, तो वह घर पहुंचने के बाद फोन करता है, 'अरे सुरेश! यार मैं आते समय टाइम डालना भूल गया था, जरा बारह पीएम का टाइम डाल देना। रजिस्टर पर पेज नंबर 420 है।' कोई किसी को फोन करता है, तो कोई किसी को। सभी अपने-अपने खासुलखास को फोन करते हैं।
यह हाल जब मुझे देश की संसद में देखने को मिला, तो मैं समझ गया कि दफ्तर और संसद में कोई फर्क नहीं है। हुआ क्या कि एक दिन मैं अपने एक परिचित सांसद की पहुंच की बदौलत संसद में प्रवेश का पास पा गया। पहली बार संसद भवन में घुसने का रोमांच और गर्व कुछ खास किस्म का होता है। इस बात को वही समझ सकता है, जिसने पहली बार संसद भवन में प्रवेश करने का हक बड़ी आसानी से प्राप्त किया हो। मैंने अपना कॉलर ऊंचा किया और सोचा, 'अब मोहल्ले और दफ्तरवालों को बड़े गर्व से बताऊंगा कि बेटा! मैं भी संसद भवन रिटर्न हूं।'
मुझे संसद भवन में प्रवेश दिलाने वाले सांसद महोदय तो मेरे चकित होकर चकरबकर देखने के दौरान ही कहां गुम हो गए, मुझे नहीं मालूम। पास हाथ में पकड़े मैं इधर-उधर भटकने लगा। एक जगह देखा कि रिसेप्शन पर रजिस्टर रखा हुआ है और सांसद-मंत्री लाइन में लगे हुए हैं। तब तक पीछे वाले एक मुरहे सांसद ने आगे वालों को ठेल दिया। लाइन बिगड़ गई। पीछे वाले आगे हो गए और आगे वाले पीछे। आगे से पीछे हो जाने वाले एक सांसद ने आगे हो गए विरोधी दल के नेता सांसद का कुरता पकड़कर खींचा, तो कुरता 'चर्र...चर्र' की आवाज करता हुआ फट गया। इस पर दोनों सांसद गुत्थमगुत्था हो गए। मार्शल ने आकर उन्हें छुड़ाया। यह देखकर मुझे रेलवे स्टेशन पर टिकट खिड़की पर लगने वाली लाइन याद आ गई। संसद भवन में मार्शल ठीक उसी तरह बार-बार लाइन लगवा रहा था जिस तरह डंडे के बल पर रेलवे स्टेशन पर जीआरपी, होमगार्ड्स या रेलवे पुलिस का सिपाही लाइन सही करवाता है। मार्शल बार-बार टेढ़ी लाइन को सीधी करवाने के बाद कहता जाता था, 'सांसद जी, प्लीज लाइन में आइए। दस्तखत कीजिए। यह भत्ता रजिस्टर शाम तक रखा रहेगा।' यह देखकर मेरी समझ में आ गया कि रेलवे स्टेशन की टिकट खिड़की, मेरे कार्यालय में रखा वेतन एवं हाजिरी रजिस्टर, हम कर्मचारियों और सांसदों, मार्शल और होमगार्ड्स के जवान में बेसिक फर्क कुछ नहीं है।
(28 फरवरी 2011 को अमर उजाला के संपादकीय पेज पर प्रकाशित)

गंधाती, बजबजाती पत्रकारिता को आईना

-अशोक मिश्र
सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ही नहीं, जीवन के सभी क्षेत्रों में स्थापित मूल्यों में ह्रास आया है। पत्रकारिता इससे अछूती कैसे रह सकती है। पिछले दो दशकों में राजनीति और पत्रकारिता का बड़ी तेजी से पतन हुआ है। पैसा, चमक-दमक, रुतबा और दलाली का पर्याय बनती पत्रकारिता का खूबसूरत चेहरा ही बदरंग होता नजर आ रहा है। पत्रकारिता जगत में चल रही उठापटक, खींचतान, अखबार के दफ्तरों में चलने वाली राजनीति का चित्र उकेरता दयानंद पांडेय का उपन्यास ‘हारमोनियम के हजार टुकड़े’ अपने उद्देश्य में काफी हद तक सफल रहा है। लखनऊ से प्रकाशित होने वाले एक अखबार ‘आजाद भारत’ के माध्यम से लखनऊ और दिल्ली की पत्रकारिता की कलई खोलकर उपन्यासकार दयानंद पांडेय ने रख दी है। इस उपन्यास को पढ़ने का आनंद तब द्विगुणित हो जाता है, जब उन पात्रों से आप किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हों। उपन्यास ‘हारमोनियम के हजार टुकड़े’ के कई पात्र ऐसे हैं जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, उनके साथ काम किया है या लखनऊ की पत्रकारिता में कुछ वर्ष सक्रिय रहने की वजह से उन तमाम पात्रों को जानता-पहचानता हूं। उपन्यास में उकेरी गई स्थितियां कमोबेश आज लगभग हर अखबार के दफ्तर में दिखाई देती हैं। अखबार के दफ्तरों में वरिष्ठ पदों पर बैठे लोगों के बीच चलने वाली घृणित राजनीति से मीडिया जगत से जुड़ा हर व्यक्ति वाकिफ होगा। उपन्यासकार एक स्थान पर मीडिया जगत की कलई खोलते हुए लिखता है कि दलाली करना, दुम हिलाना और बात है, अखबार चलाना और बात। उन दिनों अखबारों में क्या था कि अस्सी परसेंट पत्रकार काम करने वाले होते थे और बीस परसेंट दलाली करने वाले। और यह अनुपात रिपोर्टरों के बीच का ही होता था। डेस्क का कोई इक्का-दुक्का ही दलाल पत्रकार होता। तो यह दलाल पत्रकारिता के नाम पर अखबार मालिकों से लेकर मंत्रियों, अधिकारियों, दारोगाओं तक के आगे जी-हुजूरी और दुम हिलाने में एक्सपर्ट। एक स्थान पर उपन्यासकार जातीय और सिफारिश के बल पर कुर्सी हथिया लेने वाले अक्षम संपादकों पर टिप्पणी करते हुए कहता है, ‘मुकुट जी जिला संवाददाता होने की योग्यता नहीं रखते, लेकिन उनकी किस्मत देखिए कि वह वर्षों से विशेष संवाददाता हैं और विधानसभा कवर करते हैं। और अब यही मुकुट जी कार्यकारी संपादक बनने जा रहे हैं।
उपन्यास की कथा वस्तु एक हारमोनियम के माध्यम से पिरोई गई है। वस्तुत: हारमोनियम प्रतीक है पत्रकारिता जगत की पेशेगत पवित्रता का, उसकी साफगोई और जन पक्षधरता का, जो वक्त-बेवक्त बजता ही रहता है। लेकिन अफसोस है कि जब संपादक नामधारी गुंडा इसे तोड़ देता है, तो पेशेगत पवित्रता, जनपक्षधरता और साफगोई विपरीत समय जानकर चुप हो जाती है। सुनील कथा का नायक है, उसके माध्यम से कथा आगे बढ़ती है। आजाद भारत में कभी एक ट्रेडयूनियन होती थी। हालांकि अपने जन्म काल में ट्रेड यूनियन भले ही इस व्यवस्था के खिलाफ रही हो, लेकिन कालांतर में इसका स्वरूप बदला और मिल, कारखानों से लेकर अखबार के दफ्तरों में सक्रिय ट्रेड यूनियनें मालिकों की दलाली ही इनका पेशा बन गया। उपन्यास में ट्रेड यूनियन की कलई पर्त-दर-पर्त प्याज के छिलके की तरह खोली गई है। इस उपन्यास में संपादक और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के बीच चलने वाली उठापटक, भितरघात और आपसी खींचतान का प्रामाणिक खाका खींचा गया है। उपन्यास ‘हारमोनियम के हजार टुकड़े’ में मालिक या संपादक बदल जाने पर अखबार आजाद भारत के मुलाजिमों को होने वाली परेशानी, जुझारू और चमचागिरी न कर पाने वाले रिपोर्टरों और डेस्क पर काम करने वालों को क्या-क्या और किस तरह की दिक्कत होती है, उसका खाका नायक सुनील के माध्यम से खींचा गया है। उपन्यास पत्रकारिता के बदलते चरित्र का एक खूबसूरत कोलाज रचता हुआ अपनी यात्रा पूरी करता है।
इस उपन्यास में अखबार के मालिक और संपादक के बदलते संबंधों को अच्छी तरह से रेखांकित किया गया है। आजाद भारत के मालिकान की पहली पीढ़ी अपने ही अखबार के संपादक को फोन करके पूछते थे कि आपके पास समय हो, तो बताइए। हम आपसे मिलना चाहते हैं, एक बहुत जरूरी काम है। लेकिन बाद की पीढ़ी के मालिक संपादक को हुक्म देते हुए कहते कि जरा कोठी पर जल्दी आ जाइए। हमें आपसे कुछ बातें करनीहै। अगर कहीं संपादक का अहम जागा और वह कह बैठा कि अभी तो मैं व्यस्त हूं। अखबार के काम से फुरसत पाकर आपके पास हाजिर हो जाऊंगा। तो मालिकान झिड़क देते कि बाद में मेरे पास फुरसत नहीं है। आजाद भारत में दूसरी पीढ़ी के मालिकों का वर्चस्व कायम होने पर जब ऐसा ही कुछ शुरू हुआ तो पैंतीस साल से दैनिक आजाद भारत में नौकरी करने के बाद अपनी मेहनत और योग्यता के बल पर बने संपादक को लग गया कि अब नौकरी के दिन पूरे हो गए हैं। वह किसी की सिफारिश या चापलूसी करके तो संपादक बने नहीं थे। कोई लालच या कोई दबाव उनके आगे बेमानी था। वे कभी झुकते नहीं थे। सिद्धातों और पत्रकारिता के मूल्यों को सर्वोपरि समझने वाले संपादक ने जब इस्तीफा दिया, तो आफिस से घर जाते और अपने निजी सामान ले जाते समय उनकी तलाशी ली गयी। उन्हें निजी सामान और किताबें ले जाने की अनुमति नहीं दी गई। संपादक के इस अपमान के विरोध में न तो यूनियन का कोई नेता बोला, न ही पत्रकार और मैनेजमेंट से जुड़े कर्मचारी। यह पत्रकारिता के पतन की शायद पहली सीढ़ी थी। इतना ही नहीं, इस अखबार के साथ-साथ निकल रहे अंग्रेजी अखबार के एडीटर इन चीफ मेहता को भी अखबार मालिकों और राजनीतिज्ञों के तलवे सहलाना या तलवे चाटना पसंद नहीं था। नतीजा यह हुआ कि उनकी अखबार प्रबंधन से आए दिन ठनी रहती। अखबार में जब प्रबंधन और मालिकों का हस्तक्षेप कुछ ज्यादा बढ़ गया, तो उन्होंने भी इस्तीफा दे दिया। वैसे भी मेहता जी किसी अखबार में दो-तीन साल से ज्यादा टिक नहीं पाते थे। वे अखबार के मामले में किसी का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं कर पाते, तो मालिक उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाता।
संपादक के त्यागपत्र देने के बाद कार्यकारी संपादक बनाए गए मुकुट जी। मुकुट जी का सपना अखबार का संपादक बनना, विधानपरिषद में जाना और पद्मश्री हासिल करना था। लेकिन उनके ये तीनों सपने पूरे नहीं हुए। नया संपादक मुख्यमंत्री की सिफारिश से नियुक्त किया गया। मुख्यमंत्री ने लाखों रुपये के विज्ञापन एडवांस दिलाये। इस संपादक ने सबको साध लिया, मुख्यमंत्री, सरकारी अधिकारियों, अखबार के एमडी और चेयरमैन सबको। नए संपादक ने आजाद भारत के सहयोगी प्र्रकाशन की 125वीं जयंती पर तत्कालीन प्रधाानमंत्री स्व. राजीव गांधी से अखबार के मालिकों की मुलाकात करवाई, तो मालिकों ने इस मौके का फायदा उठाया और दो केमिकल फैक्ट्रियों का लाइसेंस ले लिया। यह वही समय था, जब अखबार के मालिकों में अपने संपादक या रिपोर्टरों की बदौलत फायदा उठाने की प्रवृत्ति सिर उठा रही थी।
इसके बाद बिहार के मुंगेर निवासी मनमोहन कमल दैनिक आजाद भारत के प्रधान संपादक नियुक्त किए गए। एक कांग्रेसी राज्यपाल की सिफारिश और कांग्रेस के कोषाध्यक्ष केशरी की बदौलत प्रधान संपादक बने मनमोहन कमल का स्त्री प्रेम विख्यात था। पढ़ाई के दौरान वैश्य परिवार की लड़की से प्रेम विवाह करने मनमोहन कमल की शोहरत महिला प्रेम के लिए कम नहीं थी। वे चाहे समाचार एजेंसी में रहे हों, किसी साप्ताहिक या दैनिक में, उनके अपनी पी.ए. से लेकर कई तरह की महिलाओ से संबंधों के चर्चे खूब चटखारे लेकर किए जाते रहे। लखनऊ में एक सूचना अधिकारी की पत्नी से उनके संबंधों की कथा अभी पूरी तरह से विस्मृत भी नहीं हुई थी कि एक दिन उसी सूचना अधिकारी की बेटी से संबंधों की कहानी आम हो गई। लोग पीठ पीछे रस ले-लेकर अवैध संबंधों का यह पुराण बाचने लगे। लेकिन मनमोहन कमल सूचना अधिकारी की बेटी को भोग कर अन्य औरतों की तरह किनारे नहीं कर पाए। उन्हें उससे विवाह करना ही पड़ा। जैसे-जैसे उनका कैरियर उछाल पाता जा रहा था, औरतों के प्रति उनकी आशक्ति बढ़ती जा रही थी। उनको कोई कुछ बिगाड़ भी नहीं पा रहा था। उनके कार्यकाल के दौरान ब्यूरो में भी यह बात प्रचलित हो गई थी कि लगभग हर यूनिट या ब्यूरो में किसी सुदर्शना का होना जरूरी था। ताकि जब कभी मनमोहन कमल वहां जाएं, तो उनका सौंदर्यबोध तृप्त हो और उन्हें काम करने में भी आसानी हो। आजाद भारत के लखनऊ यूनिट के पुरुष पत्रकार महिला साथियों की दिनोंदिन होती प्रगति को लेकर चिढ़ते थे। वे आपस में बातचीत करते हुए कहा करते थे कि यार हम लोग भी आपरेशन करवाकर अपना जेंडर चेंज करवा लें। सफलता, प्रमोशन और पैसा तभी मिलेगा। मनमोहन कमल के बारे में एक बात और मशहूर थी कि वे जिस अखबार में जाते हैं, वह अखबार या तो बिक जाता है या फिर बंद हो जाता है। अखबारों को बंद कराने का लांछन उनके आगे आगे चलता था।
मनमोहन कमल थे तो हिंदी भाषा के पत्रकार, पर रहते बड़े ठाठ से थे। बिल्कुल किसी करोड़पति-अरबपति सेठ की तरह। हरदम सफारी सूट में लकदक, सेंट से गमकते हुए। गले में सोने की मोटी सी चेन, हाथों की अंगुलियों में भारी-भरकम हीरे की अंगूठियां। महंगी घड़ी, महंगे कपड़े पहने हुए मनमोहन कमल पत्रकार तो एकदम नहीं लगते थे। हां, वे किसी कारपोरेट सेक्टर के सीईओ की तरह जरूर नजर आते थे। मनमोहन कमल के भीतर मानो चार-पांच किस्म के आदमी निवास करते थे। अपने चैंबर के भीतर का मनमोहन कमल अपने अखबार के मुलाजिमों के लिए झक्की, निर्दयी और तानाशाह होता था। चैंबर से बाहर निकलते ही उसका पूरा व्यक्तित्व बदल जाता था। तब मनमोहन कमल निहायत उदार, प्रजातांत्रिक और भाई चारे वाला चेहरे पर मुस्कान बिखेरता इंसान नजर आता थ। किसी बहते निर्मल पानी की तरह। पुरुषों से और, महिलओं से और। महिलाएं जब उसके चैंबर में जातीं, तो बाहर का लाल बल्ब जल जाता था। इसका मतलब यह था कि कोई भीतर नहीं आए।
इस उपन्यास में एक अंतरकथा और चलती है। भइया जी नामक एक दबंग संपादक की। यह भइया जी वास्तव में कौन है, इसे लखनऊ की पत्रकारिता से जुड़ा लगभग हर व्यक्ति बाखूबी समझता और जानता है। मनमोहन कमल जहां सब कुछ चैंबर के भीतर करते थे, वहीं भइया जी अखबार के दफ्तर में ही सब कुछ कर लेते। वह एक साथ दो-दो औरतों को गोद में बिठा लेते। सबके सामने गालों में चिकोटी काट लेते, किसी के भी आगे-पीछे, जहां कहीं भी मन होता हाथ फेर लेते। लेकिन मजाल है कि कोई इसके खिलाफ बोल सके। मनमोहन कमल भइया जी से इस मायने में पीछे थे कि वे गुंडे नहीं थे। भइया जी की गुंडई की चहुं ओर स्वीकृति पर सुनील जैसे पत्रकार शर्मसार तो थे, लेकिन बंद कमरों में। खुलेआम प्रतिरोध करने का साहस न तो तब किसी पत्रकार में था, अब तो खैर भइया जी और मनमोहन कमल दोनों इस असार संसार को विदा कह चुके हैं। भइयाजी ने अखबार का सरकुलेशन बढ़ाने के लिए हाकरों में शराब बंटवाई, उन्हें विभिन्न तरह के गिफ्ट दिए। लेकिन इस पर भी जो हाकर नहीं मानता, अपने गुंडों से पिटाई करवा देता। नतीजा यह हुआ कि भइया जी का अखबार लखनऊ में सबसे ज्यादा बिकने लगा। अपने संपादकीय विभाग में भी उसकी गुंडई खूब चलती थी।
उपन्यास में बेरोजगार पत्रकारों की बेबसी, उनकी पीड़ा और टूट कर समझौता करने या समझौता न कर पाने की वजह से टूटकर बिखर जाने की अंतरकथा भी साथ-साथ चलती रहती है। इस उपन्यास में एक पात्र है सूर्य प्रताप। वह अपनी लेखनी और खबरों के जरिये आगे बढ़ रहा था। उस समय मुख्यमंत्री से लेकर छुटभैये नेताओं का वह प्रिय रहा। मस्ती और स्वाभिमान से लवरेज पत्रकार सूर्य प्रताप की एक दलित महिला नेता से ठन गई। वह भी समाजवादी मुख्यमंत्री के लिए। जब वही दलित महिला प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी, तो उसका सबसे पहला हमला सूर्य प्रताप पर ही हुआ। मालिकों ने दबाव में आकर उसको इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया। बेरोजगारी के दौर में उसने क्या-क्या झेल, इसकी विशद गाथा उपन्यास ‘हारमोनियम के हजार टुकड़े’ में। कभी ब्यूरो चीफ रहे सूर्य प्रताप को आजीविका चलाने के लिए स्ट्रिंगर की नौकरी तक करनी पड़ी। यह वह दौर था जब उसके अंदर से टूट-फूट चल रही थी। वह अकेले में बैठकर रोता, लेकिन अपने दुख-दर्द किसी को नहीं बताता। आजाद भारत एक बार फिर बिका, तो सबकी तनख्वाह में भारी कटौती की गई। विरोध प्रदर्शन हुआ। धरने पर बैठे कर्मचारियों की संपादक ने अपने गुंडों से पिटाई करवा दी। उनके तंबू कनात उखाड़ दिये। यह नया संपादक आपराधिक प्रवृत्ति का था। हत्या के चार मुकदमे लंबित थे। यह पत्रकारिता के पतन का चरम था, जब कोई हत्या का आरोपी संपादक बना हो। मैनेजमेंट ने उसे संपादक भी इसी लिए बनाया था ताकि वह पुराने कर्मचारियों को डरा-धमका कर बाहर कर दे। यह हिंदी पत्रकारिता के पतन और पराभव की गाथा रुकी नहीं है। किसी न किसी रूप में आज भी प्रवाहमान है। किसी बदबूदार नाली की तरह बजबजाती, गंधाती पत्रकारिता का सम्यक चत्रिण उपन्यास ‘हारमोनियम के हजार टुकड़े’ में है। अट्ठासी पेज के इस उपन्यास की भाषा और शैली कन्टेंट के हिसाब से बिल्कुल फिट बैठती है। एक बार पढ़ना शुरू करने पर उपन्यास को छोड़ पाना कठिन है। पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय रहे पराजित लोगों की कथा बड़ी शिद्दत से महसूस की जा सकती है। उपन्यास की छपाई और कागज अच्छा है। इसका मूल्य भी महंगाई के इस दौर में उचित ही प्रतीत होता है।
उपन्यास : हारमोनियम के हजार टुकड़े
उपन्यासकार : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर-9, विश्वास नगर, दिल्ली- 32

Wednesday, February 23, 2011

विक्रम-बेताल की लोकतांत्रिक कथा

-अशोक मिश्र

हमेशा की तरह विक्रम ने पीपल के पेड़ से बेताल को उतारा और पीठ पर लादकर श्मशान घाट की ओर चल पड़ा। कुछ दूर चलने के बाद पीठ पर लदे बेताल ने कहा, ‘राजन! आपका श्रम भुलाने के लिए कलियुग की एक कथा बताता हूं। भारत के किसी गांव में छह-सात लड़कों ने मिलकर एक सीधे-सादे गधे को मार डाला। गधे की मौत पर लड़कों के पिता गांव में रहने वाले एक पंडित जी के पास पहुंचे और इस पाप से मुक्ति का उपाय पूछा। गधे की मौत की बात सुनते ही पंडित जी को लगा कि इनसे कुछ कमाई की जा सकती है। सो, उन्होंने गंभीरता का स्वांग भरते हुए कहा,‘ बेटा!...गधा जैसे सीधे-सादे और उपयोगी पशु की हत्या अतिपातक की श्रेणी में आती है। इस पाप से मोझ के लिए सभी बच्चों के पिता को एक-एक तोले भार का सोने का गधा बनाकर किसी विद्वान पंडित को दान करना होगा।’

इतने में वहां खड़े एक लड़के ने कहा, ‘पंडित जी! गधा मारने में आपका पुत्र संतोषी भी शामिल था।’ यह सुनते ही पंडित जी को लगा कि यहां तो मामला उल्टे बांस बरेली लदने वाले हो गए हैं। उन्होंने झट से एक दोहा रचकर अतिपातक के आरोपी बच्चों के पिता को सुनाते हुए कहा, ‘अरे! जहां पूत संतोषी, वहां गधा मारे कौन दोषी? जब तुम लोगों के साथ मेरा पुत्र संतोषी था, तो सभी बच्चे अतिपातक से अपने आप ही मुक्त हो गए।’

यह कथा सुनाकर बेताल ने विक्रम से कहा, ‘राजन यह बताइए कि भारतीय लोकतंत्र में गधा किसका प्रतीक है? पंडित जी, संतोषी, बाकी बच्चे और उनके पिता की भारतीय लोकतंत्र में क्या भूमिका है। अगर इन प्रश्नों का उत्तर जानते हुए भी नहीं दोगे, तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाएगा।’

विक्रम समझ गया कि बेताल ने उसे प्रश्नों के जाल में फंसा लिया है और यह फिर पीठ से उतरकर फरार होने की फिराक में है। उसने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘तुम्हारी कथा में आया हुआ गधा भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम जनता है। कथा में आए हुए उद्दण्ड लड़कों की तरह देश के मंत्री, सांसद, विधायक और राजनेता पूंजीपतियों के साथ मिलकर जब चाहते हैं, महंगाई बढ़ाकर जनता रूपी गधे को भूखों मरने को मजबूर कर देते हैं। घोटाले, घपले करके कमाया गया काला धन विदेशी बैंको में रखते हैं और जनता के सामने विकास परियोजनाओं के लिए धन न होने का स्वांग रचते हैं। इस देश के मंत्री खेलों के लिए करोड़ों करोड़ रुपये तो फूंक सकते हैं, उसमें घोटाला करते हैं, लेकिन अस्पताल बनवाने, स्कूल खुलवाने और सड़कें बनवाने की बात आते ही हाथ खड़े कर देते हैं।’

इतना कहकर विक्रम सांस लेने के लिए रुका और फिर कहने लगा, ‘तुम्हारी कथा में पंडित की भूमिका में प्रधानमंत्री और विभिन्न दलों के राजनेता हैं। वे जब सत्ता में नहीं रहते हैं, तो उन्हें सत्तारूढ़ दल के हर कामों में गलत ही नजर आता है। घोटाले, भ्रष्टाचार की बात पर संसद नहीं चलने देते, लेकिन जब उनकी सरकार बनती है, या गंदगी के छींटे उनकी ओर उछलते दिखाई देते हैं, तो अपना दामन पाक साफ दिखाने के लिए सरकार को क्लीन चिट देने से भी परहेज नहीं करते। तब इनके चश्मे का नंबर बदल जाता है। उन्हें देश की तब कराहती-भूख से बिलबिलाती जनता नजर नहीं आती है। इनकी आंखों को मोतियाबिंद हो जाता है। जब विपक्ष में बैठे नेताओं को सत्ता सुंदरी का भोग करने को मिलता है, तो वे उन घोटालों, घपलों या विदेशों में जमा काला धन वापस लाने और इन मामलों की जांच कराने की बात भूल जाते हैं। वैसे एक बात बताऊं। उद्दण्ड लड़कों के पिता सरीखे तो मुझे इस देश के बड़े-बड़े दलाल और पूंजीपति नजर आते हैं। वे भ्रष्ट सांसदों, मंत्रियों और अफसरों की दलाली करते हैं, उनके लिए एक माहौल तैयार करते हैं। कई बार पूंजीपति, मंत्री और पूंजीपति मिलकर देश को चूना लगाते हैं, तो कई बार पूंजीपति, मंत्री, अफसर और पत्रकार दलालों की भूमिका में होते हैं। राडिया, राजा मामला भारतीय लोकतंत्र में घटित होने वाला ऐसा ही एक मामला है।’

विक्रम के इतना कहते ही बेताल खुशी से चिल्लाया, ‘राजन! तुमने बिलकुल सही फरमाया है। लेकिन चूंकि तुमने अपना मौन तोड़ा है, इसलिए मैं तो चला।’ इतना कहकर बेताल विक्रम की पीठ से उतरकर गायब हो गया। विक्रम एक बार फिर पीपल की पेड़ की ओर चल पड़ा।

Sunday, February 20, 2011

तुम्हारे बाप का है राज यह मैं जानता हूं

-अशोक मिश्र
तुम्हारे बाप का है राज यह मैं जानता हूं
कटेगा शीश मेरा आज, यह मैं जानता हूं।

शांति का पाठ पढ़ाने नगर में आ गए हिजड़े
बजेंगे फिर वही सुरसाज, यह मैं जानता हूं।

मंदिर-मस्जिद की बातें सुनके सुखिया रो पड़ी
लुटेगी फिर उसी की लाज, यह मैं जानता हूं।

महल में शांति छायी है, नगर के लोग सहमे हैं
गिरेगी झोपड़ी पर गाज, यह मैं जानता हूं।

प्रेम के किस्से किताबों में पढ़ा जब भी पढ़ा है
तुम्हारे प्रेम का क्या राज, यह मैं जानता हूं।

फूल खुशियों के खिले होंगे तुम्हारे गांव में
पर नहीं दोगे मुझे आवाज, यह मैं जानता हूं।

Saturday, February 19, 2011

हाय राम...लोकतंत्र मर गया

अशोक मिश्र

उस्ताद मुजरिम के साथ मैं राजधानी दिल्ली की खाक छान रहा था। इन दिनों मैं बेकार जो था। कुछ दिन पहले ही दैनिक ‘दमदम टाइम्स’ की नौकरी से इस्तीफा दिया था। मुजरिम की सलाह थी कि सड़कों की खाक छानने से नए-नए विचार दिमाग रूपी गटर से निकलते हैं और किसी भी आदमी की तकदीर बदल देते हैं। सो, हम दोनों सुबह की एक चाय की बदौलत आधी दिल्ली की खाक छान आए थे। दिमाग के गटर से आइडिये के बगूले तो नहीं फूटे, लेकिन पांच घंटे पैदल चलते-चलते टांगों की कचूमर जरूर निकल गई। मुझे तो लग रहा था कि अगर अब दो कदम भी चलना पड़ा, तो गश खाकर गिर पड़ूंगा। वहीं उस्ताद मुजरिम थे कि किसी जिराफ की तरह लंबे डग भरे चले जा रहे थे। एक चौराहे पर भीड़ देखकर ‘या इलाही ये माजरा क्या है?’ की तर्ज पर हम दोनों उधर ही लपके। मैंने देखा कि सड़क के बीचोबीच एक लाश पड़ी है और पुलिस के कुछ सिपाही उसके पास खड़े अपने बाप...सॉरी...अपने अधिकारी का इंतजार कर रहे हैं। वहां खड़ी भीड़ अपना सनातन धर्म निभा रही थी यानी कानाफूसी कर रही थी।
मैंने एक आदमी से पूछा, ‘शिनाख्त हुई? किसकी लाश है यह? पुलिस कुछ करती क्यों नहीं?’

उस आदमी ने परमहंसी मुद्रा में जवाब दिया, ‘अभी तक तो नहीं हो पाई है। आप भी देख लें, क्या पता आपका ही कोई परिचित निकल आए। वैसे आपको बता दें, पुलिस अपना काम कर रही है। भीड़ में से एक ऐसे आदमी की तलाश जारी है जिसको बलि का बकरा बनाया जा सके। वह आदमी आप भी हो सकते हैं, मैं भी हो सकता हूं। इस भीड़ में शामिल हर व्यक्ति पुलिसवालों की निगाह में सिर्फ बकरा है जिसे जब चाहे, जहां चाहे हलाल किया जा सकता है।’ वह आदमी रौ में बकता जा रहा था।

तब तक मुजरिम भीड़ को चीरकर लाश के पास पहुंच चुके थे। लाश पर नजर पड़ते ही वह चिल्लाए, ‘अरे! यह तो लोकतंत्र है! हाय राम...यह क्या हो गया?...लोकतंत्र मर गया?’

मुजरिम की बात सुनते ही पुलिस वाले चौंके। एक सिपाही ने तंबाकू थूकते हुए पूछा, ‘अबे! तू जानता है इसे? चौबे जी, एक प्रॉब्लम तो इस ससुरे ने साल्व कर दी।’ पुलिस वाले ने चौबे जी को पास आने का इशारा किया।
मुजरिम रुआंसे हो गए, ‘हां साब! मैं शिनाख्त कर सकता हूं इसकी। यह लोकतंत्र है...भारतीय लोकतंत्र...दुनिया का सबसे बड़ा किंतु किसी कोढ़ के रोगी की तरह सड़ांध मारता हमारा प्यारा लोकतंत्र।’

‘क्या बकते हो’ कहकर पुलिस वाले ने मुजरिम का कॉलर पकड़ लिया, ‘जिस लोकतंत्र की सुरक्षा का भार ‘चार कंधों’ पर हो, वह इस तरह लावारिस मर जाए, यह हमारे लिए शर्म की बात है।’

मुजरिम ने अपना कॉलर छुड़ाते हुए कहा, ‘आप चारों की वजह से ही तो परेशान था यह! आप में से जिसे भी जब मौका मिलता था, दबोच लेते थे और वह सब कुछ कर डालते थे, जो नहीं करना चाहिए। बेचारा साठ साल में ही सात सौ साल का लगने लगा था। इधर कुछ दिनों से तो बहुत परेशान था।’

पुलिस वाले ने जमीन पर डंडा फटकारते हुए कहा, ‘साफ-साफ बता, बात क्या है? पहेलियां बूझने की न तो अपनी आदत है और न ही यह भाषा अपने पल्ले पड़ती है। डंडे की भाषा जानता हूं और यह समझाना जानता हूं। कहे तो समझाऊं?’

पुलिस वाले के तेवर देखकर मुजरिम के होश उड़ गए। उन्होंने खुशामदी लहजा अख्तियार करते हुए कहा, ‘साब! जब से कुछ सांसदों ने सवाल पूछने के नाम पर रोकड़ा मांगा था, तब से लोकतंत्र परेशान था। अपनी करतूतों से जितनी बार लोकतंत्र के चारों स्तंभ दुनिया के सामने नंगे हो जाते थे, जितनी बार भारतीय राजनीति दागदार होती थी, उतने दाग इसके शरीर पर उभर आते थे। साब, आपको विश्वास न हो, तो इसकी कमीज उलटकर देख लें। इसकी पीठ और पेट पर घोटालों और शर्मनाक कांडों के निशान मिल जाएंगे।’

मुजरिम अपनी बात कह ही रहे थे कि पुलिस की एक जीप आकर भीड़ के पास रुकी। उसमें से एसएचओ और कुछ सिपाही उतर कर भीड़ को लाश के आसपास से हटाने लगे। पहले से मौजूद एक सिपाही ने एसएचओ को जोरदार सल्यूट मारते हुए कहा, ‘मृतक की शिनाख्त हो चुकी है। यह आदमी इसे लोकतंत्र बताता है। बाकी आप दरियाफ्त कर लें, हुजूर।’

थानेदार ने पहले तो ऊपर से नीचे तक पुलिस को निहारा और फिर कड़क कर कहा, ‘तू क्या बेचता है और कैसे कह सकता है कि यह लोकतंत्र है? जिस लोकतंत्र की रक्षा में देश-प्रदेशों के सांसद, विधायक, सत्तारूढ़ और गैर सत्तारूढ़ पार्टियों के नेता, अफसर लगे हुए हों। पूरा का पूरा पुलिस महकमा लगा हुआ हो, वह लोकतंत्र इस तरह सड़क पर लावारिस मरा हुआ पाया जाए, यह कैसे हो सकता है?’

मुजरिम ने थूक निगलते हुए कहा, ‘हुजूर! मैं कुछ बेचता नहीं, एक मामूली पाकेटमार हूं। मेरा और आपका पेशा लगभग एक जैसा है। जिस काम को आप बड़े पैमाने पर सामूहिक रूप से करते हैं, वही काम मैं छोटे स्तर पर व्यक्तिगत रूप से करता हूं। आप इस काम की पगार लेते हैं, जबकि मैं अगर यह करता पकड़ा जाऊं, तो पब्लिक से लेकर पुलिसवालों तक के जूते खाता हूं। अब तो आप जान ही गए होंगे कि मेरा नाम मुजरिम है।’
इतना कहकर मुजरिम सांस लेने के लिए पल भर को रुके। फिर बोले, ‘इस लोकतंत्र से मेरी पुरानी यारी रही है। हम दोनों एक दूसरे के लंगोटिया यार थे। मजे की बात तो यह है कि हम दोनों की पैदाइश भी एक ही दिन की है। मेरी मां ‘व्यवस्था’ बताती हैं कि जिस समय मैं पैदा हुआ था, खूब हट्टा-कट्टा था, लेकिन यह तो जन्म से ही लंगड़ा था। कहते हैं कि अंग्रेजों और देसी पूंजीपतियों से इसके ‘बापू’ बड़ी सहानुभूति रखते थे। वे नहीं चाहते थे कि विद्रोहिणी क्रांति कोई ऐसा बच्चा जने, जो इन दोनों यानी बापू और लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो। इसलिए ‘बापू’ ने गर्भवती ‘क्रांति’ के पेट पर लात मारकर गर्भ गिरा दिया था। बाद में पता नहीं कैसे क्रांति की सौतेली बहन व्यवस्था के गर्भ से यह लंगड़ा लोकतंत्र पैदा हो गया। अंग्रेज पूंजीपतियों ने हम जैसों का खून चूसकर इसको पाला-पोसा। काले बनियों ने बैसाखी के सहारे चलना सिखाया। इसीलिए यह काले बनियों का मुरीद बनकर रह गया। काले बनियों पर जब भी कोई मुसीबत आती, यह डेढ़ टांग पर खड़ा होकर अपनी साजिशी तान देने लगता था। साब! मजाल है, कोई मुसीबत इसकी जानकारी में बनियों का कुछ बिगाड़ सके। यह तो बातचीत के दौरान अक्सर कहा करता था। बनिये इस देश के भाग्यविधाता हैं। भाग्य विधाता का हित सुरक्षित रहे, इसके लिए जरूरी है कि जनता के हित असुरक्षित रहें। उनका भरपूर शोषण होता रहे।

तभी एसएचओ ने अपनी आंख पर चढ़ा काला चश्मा उतार कर लाश का मुआयना करना शुरू किया। कमीज उलटकर लाश के पास बने एक पैदायशी निशान को गौर से देखते हुए कहा, ‘हवलदार रामधनी, नोट करो। मृतक की कमर से दो इंच नीचे एक पैदायशी निशान है।’

‘हां साब, यह निशान जीप घोटाले का है।’ मुजरिम ने एसएचओ की बात काटते हुए कहा, ‘हुजूर! आप तो जानते ही होंगे, देश का सबसे पहला घोटाला ही जीप घोटाला था। तब यह पैदा नहीं हुआ था। हां, व्यवस्था के गर्भ में भ्रूण रूप में जरूर आ चुका था। उस समय तब देश पर अंग्रेजों का शासन था। लेकिन उस घोटाले के पैदायशी निशान इसकी कमर पर उभर आए थे। इसके बाद देश आजाद हो गया। कुछ दिन तक सत्ताधीशों ने चना-चबैना खाकर दिन काटे, लेकिन एक मंत्री से बर्दाश्त नहीं हुआ। उसने आजाद भारत का पहला घोटाला किया। इस घोटाले का निशान आपको लोकतंत्र के ठीक दिल के पास दिख ही गया होगा। इसके बाद मंत्री, सांसद, विधायक और अधिकारी मरभुक्खों की तरह लोकतंत्र पर टूट पड़े और लूट-लूट कर खाने लगे। फिर क्या था। जैसे-जैसे घोटाले बढ़ते गए। लोकतंत्र के शरीर पर दाग बढ़ते गए। जितना बड़ा घोटाला, उतने बड़े दाग। लोकतंत्र का चेहरा ही बदरंग हो गया। साब, एक बात बताऊं! हर घोटाले पर इसकी आत्मा कराह उठती थी। कई बार तो मैंने इसे बिलख-बिलखकर रोते देखा था।’
एसएचओ ने रोब झाड़ते हुए कहा, ‘अबे! तू फालतू की राम कहानी छोड़। सबसे पहले तो तू यह बता, यह मरा कैसे?’

मुजरिम एसएचओ की बात सुनकर सिटपिटा गए, ‘साब! मैं यह कैसे बता सकता हूं। म ैं कोई डॉक्टर तो नहीं हूं। आप लाश का पंचनामा बनाइए, पोस्टमार्टम के लिए भेजिए। कल तक आपको सब पता चल जाएगा। हां, इतना बता सकता हूं...कल रात य मेरे पास आया था। कुछ बोल नहीं पा रहा था। बीच-बीच में आदर्श..आदर्श... कामनवेल्थ, राडिया-राजा जैसा कुछ बड़बड़ा रहा था। फिर बोला कि मैं किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं रहा। इतना कहकर लोकतंत्र कहीं चला गया था। मैंने समझा कि घर गया होगा। आज सुबह यहां इसकी लाश देखी। मेरा ख्याल है कि यह शर्म से मर गया है।’

पास खड़ा एक सिपाही अपने एसएचओ के कान में फुसफुसाया, ‘साब! मुझे तो यही कातिल लगता है।’ और फिर मुजरिम लोकतंत्र की हत्या के जुर्म में धर लिए गए। मैंने चुपचाप वहां से खिसक लेने में ही भलाई समझी।