Thursday, September 1, 2011

अभी सिर्फ नींद टूटी है, जागना बाकी है


-अशोक मिश्र

आज पूरे देश में चारों तरफ बस अन्ना ही अन्ना छाए हुए हैं। जिसे देखो वही, अन्ना हजारे और उनके जनसरोकारों को लेकर किए गए आंदोलन पर न केवल चर्चा कर रहा है, बल्कि अपनी समझ के मुताबिक राय भी व्यक्त कर रहा है। इसका कारण है। कारण यह है कि करोड़ों लोग इस आंदोलन से किसी न किसी रूप में जुड़े थे। कोई अपना काम-काज छोड़कर दिल्ली के रामलीला मैदान पहुंचा था, तो कोई अपनी ही गली में सिर्फ कैंडल जलाकर रह गया। कुछ लोग फैशन के तहत अन्ना से जुड़े, तो कोई सचमुच चाहता था कि अन्ना हजारे सफल हों और देश से भ्रष्टाचार का खात्मा होगा। इस जन जुड़ाव के चलते अन्ना हजारे पिछले कुछ दिनों में जनांदोलन के एक प्रतीक के रूप में उभर कर सबके सामने आए। यह जन जुड़ाव ही था कि सरकार को मजबूर होकर अवकाश के दिन संसद आहूत करके ध्वनिमत से तीनों प्रस्तावों को पारित करना पड़ा। लोकतंत्र में ‘लोक’ की शक्ति का एहसास पहली बार महसूस हुआ। इससे पहले तो पूरा ‘इंडिया’ सुशुप्तावस्था में था। अन्ना हजारे के आंदोलन ने हमें ठीक उसी तरह झकझोर कर आंखें खोलने पर मजबूर कर दिया, जैसे कोई शरारती बच्चा किसी बात पर नाराज होकर शतरंज की बिछी बिसात को झकझोर कर रख दे और शतरंज खेलने वाले अकबका कर रह जाएं। अन्ना के आंदोलन से पहले हमारे समाज की मानसिकता ‘मूंदहु आंख कतहु कुछ नाहीं’ वाली थी। हम सबके अंतर में एक बात घर कर गई थी कि हम लाख कोशिश कर लें, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई जैसी अन्य समस्याओं को दूर कर पाना हमारे वश में नहीं हैं। इसके लिए हम अपने को दोषी मानने की बजाय सभी जिम्मेदारियों को केंद्र या राज्य सरकारों, उनके प्रशासनिक अमलों पर थोपकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते थे। हम यह मान बैठे थे कि समाज को स्वस्थ और सुरक्षित रखना सिर्फ सरकार और सरकारी नुमाइंदों का काम है, लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन ने इस मिथक को तोड़ा। कहने का मतलब यह है कि इस आंदोलन से समाज की नींद जरूर टूटी है, लेकिन अभी पूरी तरह जागना बाकी है।

उन्होंने जेपी के बाद सबसे बड़ा आंदोलन खड़ा करके यह समझाया कि यदि साध्य और साधन जनसरोकारों से जुड़ते हों, तो सरकार को झुकने को बाध्य किया जा सकता है। जरूरत तो उस जड़ता को तोड़ने की है, जो सांप बनकर हमारे मन और समाज में कुंडली मारकर बैठा है। और अन्ना हजारे ने यही किया। यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है।

संसद में उनकी तीनों मांगों, नागरिक संहिता, केंद्रीय और राज्य कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाने और सभी राज्यों में लोकायुक्त की स्थापना पर प्रस्ताव पारित हो चुका है। अब उस पर स्थायी समिति विचार करेगी। इसके बाद ही यह कानून के रूप में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सशक्त हथियार बन सकेगा। दरअसल, महत्वपूर्ण यह नहीं है कि संसद में कौन-सा बिल पेश किया गया, भ्रष्टाचार के खिलाफ संसद में कौन-सा कानून पारित किया गया। सबसे अहम वह व्यवस्था है, जो भ्रष्टाचार को जन्म देती है। भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली व्यवस्था के ध्वंस और उन्मूलन की बात की जानी चााहिए। जब तक हम ऐसी सामाजिक व्यवस्था को नहीं गढ़ लेते, जो भ्रष्टाचार को प्रश्रय न दे, तब तक अन्ना हजारे जैसे लोग सिर्फ आंदोलन करते रहेंगे, गरीबी, बेकारी, महंगाई और भ्रष्टाचार को रोकने की कवायद के नाम पर कुछ तमाशे होते रहेंगे और देश के चंद मुट्ठी भर लोग करोड़ों जनता के श्रम से पैदा की गई अतिरिक्त पूंजी (मुनाफे) का उपभोग करते रहेंगे, शोषण और दोहन के साथ-साथ भ्रष्टाचार का तांडव होता रहेगा। लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि अन्ना की लड़ाई बेकार गई। अन्ना के माध्यम से छेड़े गए इस जनांदोलन का सबसे सार्थक पहलू यह है कि अब हम लड़ना सीख रहे हैं। बस जरूरत इस बात की है कि इस लड़ने की कला का उपयोग उस व्यवस्था के खिलाफ करना है, जो भ्रष्टाचार की गंगोत्री है। भ्रष्टाचार की गंगोत्री का उद्गम कहां है, इसकी तलाश अभी बाकी है। वैसे भी अन्ना हजारे के अनशन तोड़ने और संसद में तीनों प्रस्ताव पारित होने के बाद भी कुछ सवाल हैं जिनका उत्तर मिलना अभी बाकी है। सबसे पहले तो यह तय होना शेष है कि जब लोकपाल विधेयक कानून बन जाएगा, तो उसका स्वरूप क्या होगा? लोकपाल नामक संस्था किसके प्रति जवाबदेह होगी? उसको संचालित करने के लिए पैसा कहां से आएगा? लोकपाल, संसद और न्यायालय के बीच तारत्मय कैसे स्थापित होगा? थोड़ी देर के लिए यदि मान लिया जाए कि लोकपाल संस्था का ही कोई अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाए, तो फिर उसके खिलाफ कैसी और किस हद तक कार्रवाई होगी? इस जैसे कुछ और भी सवाल हैं जिनका जवाब मिलने में समय लगेगा।