Sunday, February 24, 2013

‘भड़ास’ थी, निकल गई

-अशोक मिश्र
अंदर ‘वे’ परेशान थे और बाहर मीडियाकर्मियों और समर्थकों-चमचों की भीड़। उन्हें हुआ क्या है, इसके कयास लगाए जा रहे थे। परिजनों की भी नाक में सुबह से दम था। हां, बच्चे अपने में जरूर मस्त थे। पत्नी के जी का जंजाल बनी हुई थी उनकी परेशानी। वे बार-बार करवट बदल रहे थे, ‘ऊह...आह...हाय’ कर रहे थे। उनकी पत्नी सांत्वना व्यक्त करने आई पास-पड़ोस की महिलाओं में बैठी नए फैशन की ज्वैलरी पर डिस्कस कर रही थीं। थोड़ी-थोड़ी देर में वह यह कहती हुई उठ लेती थीं, ‘मिसेज खन्ना! आप बैठें जरा, मैं उनसे पूछ आऊं, आराम मिला या नहीं।’ इसके बाद वे उनके पास पहुंचतीं। पत्नी को आता देख वे पंचम सुर में कराहने लगते। पत्नी सहानुभूति दर्शाती हुई कहतीं, ‘क्या थोड़ा-सा भी आराम नहीं मिला? पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ था?’ इतना कहकर पत्नी बाहर निकल गईं, उन्हें अभी मिसेज शकुंतला से नई रेसिपी सीखनी थी। उन्हें डर था कि यदि यहां ज्यादा देर रुकी, तो कहीं मिसेज शकुंतला चली न जाएं।
पत्नी को जाता देखकर वे खीझ उठे। ‘वे’ यानी मटरू लाल औतार, एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता। जब भी उनकी पार्टी सत्ता में आई, उन्होंने लूटा कम, खसोटा ज्यादा। परिणाम यह हुआ कि उनका ‘मध्य प्रदेश’ बढ़ता गया। आप तो जानते हैं कि मध्य प्रदेश चाहे औरत का बढ़े या पुरुष का, परेशानी बढ़ जाती है। वे सुबह से शाम तक मीडिया, कार्यकर्ता और प्रशंसक रूपी चमचों से घिरे रहते थे। मटरू लाल औतार अक्सर कहा करते हैं, ‘मुझे सत्ता का कभी मोह नहीं रहा है। विधायक, सांसद और मंत्री-संत्री जिसको बनना हो, वो बने। मैं तो पैदायशी एमएलए हूं, था और रहूंगा।’ एक बार मीडिया के सामने जब वे यह दोहरा रहे थे, तो दैनिक ‘कउवा काटे’ का एक संवाददाता पूछ बैठा, ‘नेताजी, आपको तो सिर्फ एक बार ही टिकट मिला था और उस बार आपको जमानत बचानी भारी पड़ गई थी।’ यह सुनते ही वे आग बबूला हो गए, ‘देखो, कैसा बुड़बक जैसा बात करता है। हमको बोलता है...हमको... जमानत जब्त हो गया था। अरे, एक्कौ दिन वोट मांगे गए रहे फील्ड मा। हमका तो अध्यक्ष जी दिल्ली मा फंसाए रहे चुनाव भर। कहता है...चुनाव हार गए थे। अरे हमरा कै एक्कौ दिन फील्डिया मा जाए का मौका मिलता, तो देखते कतना वोटवा हमरे पक्ष मा गिरता। गिनत-गिनत अंगुरिया पिराई लागत चुनाव आयोगवा कै।’ पार्टी प्रवक्ता को नाराज देखकर कुछ समर्थकों ने उस ‘नादान’ पत्रकार को भगा दिया। दिन भर मीडिया और समर्थकों से घिरे रहने वाले वही प्रवक्ता कम नेता अंदर आलीशान बिस्तर पर पड़े कराह रहे थे।
तभी कमरा समर्थक कार्यकर्ताओं से भर गया। शोर सुनकर उन्होंने दरवाजे की ओर मुंह किया। एक कार्यकर्ता ने हाथ में पकड़ी कटोरी आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘नेता जी! बस एक चम्मच यह अजवाइन का काढ़ा पी लीजिए। मेरी सास की भतीजी को भी एक बार ऐसी ही दिक्कत हुई थी, मेरी सास ने सिर्फ एक चम्मच ही पिलाई थी। अब आपसे क्या कहें, इधर दो घूंट काढ़ा अंदर गया, उधर भतीजी अपना बस्ता उठाकर स्कूल चली गई थी।’ समर्थकों ने समवेत स्वर में कहा, ‘नेता जी! पी लीजिए दो घूंट...क्या पता फायदा हो ही जाए।’ नेता जी कराहते हुए उठे, दो घूंट काढ़ा पिया और बोले, ‘बहुत कड़वा है।’
तब तक एक दूसरा व्यक्ति अंदर आया और उसने कहा, ‘दद्दा! यह काढ़ा-फाड़ा छोड़िए, यह ‘सर्वभस्मक चूर्ण’ लीजिए। मेरे पूजनीय गुरु स्वामी चुतरानंद मतिमंद जी को हिमालय पर तपस्यारत उनके गुरु जी ने प्रदान किया था। इसे फांकते ही आप भी उठकर पार्टी कार्यालय चल देंगे।’ नेता जी ने एक चम्मच चूर्ण भी फांक लिया। तभी ‘हटो..हटो..रास्ता दो’ की आवाज गूंजी। कमरे में कुछ कैमरामैन और पत्रकार घुसे। पत्रकारों ने उनसे पूछा, ‘एमएलए जी, सत्ताधारी दल द्वारा किए गए मुर्गी घोटाले के बारे में आपकी पार्टी की क्या प्रतिक्रिया है? आपकी पार्टी इस घोटाले को लेकर क्या करने जा रही है?’ तभी कमरे में ‘भर्रर्र... र्रर्र...’ की आवाज गंूजी, मानो किसी कपड़ा व्यापारी ने कपड़े का थान पकड़कर फाड़ा हो। चारों तरफ बदबू-सी फैल गई। नेता जी उछलकर बिस्तर पर बैठ गए, बोले, ‘हमारी पार्टी इसके खिलाफ राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन करेगी, प्रधानमंत्री को नैतिकता के आधार पर तुरंत इस्तीफा दे देना चाहिए। इस बार हमारी पार्टी अपने सहयोगियों के साथ संसद का बहिष्कार करेगी।’ तभी एक पत्रकार ने पूछा, ‘नेता जी, सुना है कल से आपकी तबीयत खराब थी?’ नेताजी कैमरे के सामने मुस्कुराए, ‘कल से एक भड़ास अटकी हुई थी, अभी निकली है। अब मैं ठीक हूं।’ इतना कहकर नेताजी बाहर आए और कार्यकर्ताओं को संबोधित करने लगे।

Thursday, February 14, 2013

‎...गुड़ गोबर हो गया


-अशोक मिश्र
वेलेंटाइंस डे नजदीक आ रहा था। काफी ऊहापोह में था कि वेलेंटाइंस डे क्या करूं? किसको प्रपोज करूं? जिसको प्रपोज करूं, वह मानेगी भी या नहीं? कहीं रोज डे के दिन बड़े प्रेमभाव से लाया गया गुलाब मेरे ही मुंह पर तो नहीं फेंक दिया जाएगा? हग डे के दिन पिट तो नहीं जाऊंगा? कई बार हिंदूवादी संगठनों की तोड़फोड़ का भी खयाल आया। संभावनाओं और आशंकाओं पर काफी विचार-विमर्श किया। पहले सोचा कि ज्यादा पचड़े में कौन पड़े, पत्नी को ही ह्यरोज-सोजह्ण देकर और ह्यजफ्फिया-पप्पियांह्ण पाकर शगुन के तौर पर वेलेंटाइंस डे मना लिया जाए। इसमें पिटने का भी कोई चांस नहीं था, लेकिन फिर खयाल आया कि जब साठ-पैंसठ साल के बुड्ढे भी इस दिन नया गिटार बजाने की जुगत में रहते हैं, तो मैं ही पुराना गिटार क्यों बजाऊं? मैं तो अभी जवान हूं।
काफी सोच विचार के बाद मैंने अपने ज्योतिषी मित्र मुसद्दीलाल से सलाह लेने की सोची। एक दिन पहुंच गया सुबह-सुबह उनकी दुकान पर। वे मुझे देखते ही लपककर उठे और गले लगा लिया। बोले, ह्यजिस दिन तुम आ जाते हो, उस दिन तुम्हारे जैसे कई ह्यआंख के अंधे, गांठ के पूरेह्ण फंस जाते हैं।ह्ण मैंने आंखें तरेरी, ह्यक्या मतलब है तुम्हारा?ह्ण मुसद्दीलाल ने बात संभाली, ह्यअरे यार! मैं तो मजाक कर रहा था। तुम न आंख के अंधे हो और न तुम्हारी गांठ में पैसा है, जो तुम मुझे दोगे। हां...यह बताओ, किसी खास काम से आए हो?ह्ण मैंने कहा, ह्ययार! मैं इस बार वेलेंटाइंस डे धमाकेदार अंदाज में मनाना चाहता हूं। कोई धांसू आइडिया हो, तो अपने ज्योतिष के पिटारे से निकालो और पुडिया बनाकर दे दो।ह्ण मुसद्दीलाल मेरी बात सुनकर मूंछों में मुस्कुराए और बोले, ह्यअपनी कुंडली लाए हो?ह्ण मैंने जेब से अपने भाग्य की ही तरह मुड़ी-तुड़ी कुंडली निकाली और उन्हें थमा दी। वे काफी देर तक मेरी कुंडली को गौर से देखते रहे और फिर गहरी सांस लेकर बोले, ह्यतुम्हारे वेलेंटाइंस डे पर इस वर्ष ह्यउल्कापातह्ण योग भारी पड़ रहा है। हो सके, तो इस बार वेलेंटाइंस डे को बख्श दो। दूर रहो वेलेंटाइंस डे के झमेले से, इसी में तुम्हारी भलाई है।ह्ण मुसद्दीलाल की बात सुनकर मुझे ताव आ गया। मैंने झट से अपनी कुंडली उठाई और बिना कोई दक्षिणा दिए घर चला आया। मन खिन्न हो रहा था। सो, पेट में दर्द होने और आफिस न आ पाने की असमर्थता जताकर अपने संपादक से एक दिन की छुट्टी ली और फेसबुक पर वेलेंटाइन ढूंढने लगा।
मैंने अपने कई फेसबुकिया गर्ल फ्रेंड से चैट करके पूछा, ह्यक्या वे मेरी वेलेंटाइन बनेंगी?ह्ण सत्तर फीसदी लड़कियों ने तो घास नहीं डाली, बाइस फीसदी लड़कियों ने कहा कि वे शहर से बाहर हैं, वरना वे मुझे निराश नहीं करतीं। सिर्फ आठ फीसदी लड़कियां ही प्रपोज डे के दिन मिलने को राजी हुईं, लेकिन इन आठ फीसदी में से ज्यादातर लड़कियां फाइव स्टार होटल में ही मिलने को तैयार थीं। फाइव स्टार होटल में उन्हें ले जाने मेरे बूते की बात नहीं थी। सो, ऐसे प्रस्ताव पर मैंने धूल डाली और बाकियों के इरादे जानने में जुट गया। एकाध ने लांग ड्राइव पर जाने प्रस्ताव रखा, तो मैंने उन्हें बताया कि मेरे पास कार तो है नहीं। हां, अगर साइकिल पर वे लांग ड्राइव पर जाना चाहें, तो उनका स्वागत है। मेरी यह दशा जानते ही उनमें से एक को छोड़कर बाकी सभी लड़कियां तुरंत साइन आउट (फेसबुक बंद करना) हो गईं। अकेली बची लड़की की प्रोफाइल पर नजर डाली, तो दिल गार्डेन-गार्डेन हो गया। क्या, लल्लन टॉप जवान लड़की थी। फोटो देखते ही दिल पसली में धाड़-धाड़ करके धड़कने लगा। उससे गांधी पार्क में सुबह दस बजे मिलने का प्रोग्राम तय करके सो गया। दिन-रात सोने के बाद जब अगली सुबह उठा, तो काफी उल्लास में था। गाते-गुनगुनाते नहाया-धोया, खाना खाया और सज-धजकर तैयार हुआ। घर से निकलते समय घरैतिन ने तंज कसा, ह्यसज-धज तो ऐसे रहे हो, जैसे ससुराल जा रहे हो?ह्ण मैंने मुंह बिचकाते हुए कहा, ह्यऐसा ही समझ लो।ह्ण
गांधी पार्क पहुंचा, तो फेसबुक पर नियत किए गए स्थान पर गुलाब की टहनी लेकर खड़ा हो गया। काफी देर बाद बुर्के में लिपटी एक महिला आई और भर्राई हुई आवाज में बोली, ह्यदेर तो नहीं हुई?ह्ण मैंने वाणी में मिठास घोलते हुए कहा, ह्यनहीं जी...।ह्ण इतना कहकर मैंने एक घुटने को मोड़कर जमीन से टेकने के बाद गुलाब की टहनी पेश करते हुए कहा, ह्यजिस तरह यह गुलाब का फूल कांटों के बीच रहकर भी मुस्कुरा रहा है, उसी तरह कांटे रूपी पत्नी के होते हुए भी मेरा दिल सिर्फ आपके लिए धड़क रहा है। इसे स्वीकार कीजिए।ह्ण बुर्के में से आवाज आई, ह्यस्वीकार किया...।ह्ण आवाज सुनकर मैं चौंका, यह आवाज तो मेरी घरैतिन जैसी है। उसने बुर्का उतारते हुए कहा, ह्यमियां मंजनू..वेलेंटाइंस डे मुबारक।ह्ण और मैं बीवी का चेहरा देखकर होश खो बैठा। बाद में पता चला कि फेसबुक वाली लड़की मेरे मोहल्ले में रहती है और मेरी घरैतिन से अच्छी जान पहचान है। उसी ने मेरी कामनाओं पर उल्कापात करने की योजना बनाई थी। बुर्का भी उसी ने अरेंज किया था।

Thursday, February 7, 2013

उपन्यास ‘चिरकुट’ का एक अंश


मित्रो! पिछले काफी दिनों से एक उपन्यास पर काम कर रहा हूं। काफी समय हो गया है, इस पर काम करते हुए। पिछले एक साल से सुस्त सा हो गया था, लेकिन इधर फिर से उसमें जुट गया हूं। उम्मीद है कि तीन-चार महीने में इसे पूरा करने में सफल हो जाऊंगा। क्या करूं, पापी पेट की आग बुझाने के लिए नौकरी भी करनी पड़ती है। ज्यादातर समय आफिस में ही निकल जाता है, फिर बाकी बचा समय खाने-पकाने में। सोने से बचे समय में अब मैं अपने उपन्यास को पूरा करने का भरपूर प्रयास करूंगा। पत्रकारिता पर आधारित इस उपन्यास का नाम रखा है ‘चिरकुट’। बानगी के तौर पर पेश है उपन्यास ‘चिरकुट’ का एक अंश। 
----------------------------------
चिरकुट
--------------
दिन भर की भाग दौड़ के बाद शिवाकांत आफिस पहुंचा। उसने साथियों का बेमन से अभिवादन किया और बैठकर अपना काम निपटाने लगा। आशीष ने शिवाकांत की आंखों में उदासी और निराशा की झलक देख ली थी, लेकिन उसने कुछ कहना उचित नहींसमझा। चिकित्सा और शिक्षा मामलों की बीट देखने वाले अरविंद चौधरी ने शिवाकांत के पास जाकर कहा, ‘क्या बात है, सर! आज कुछ ज्यादा ही गंभीर लग रहे हैं। आते ही काम में जुट गये। रोज की तरह न कोई हंसी, न मजाक, न कोई चुटकुला। घर-परिवार में सब खैरियत तो है?’
अपनी खबरें कंपोज करती मंजरी अग्रवाल बोल पड़ी, ‘बस दो मिनट...शिवाकांत सर...सोलह-सत्रह लाइन की खबर है, उसे पूरी कर लूं। फिर मैं भी आपका चुटकुला सुनूंगी। प्लीज सर...अभी मत सुनाइएगा।’
शिवाकांत ने अपनी खबरों की सूची तैयार करते हुए कहा, ‘नहीं... कोई खास बात नहीं है। यह सब तो मीडिया जगत में होता रहता है।’
शिवाकांत की बात सुनकर आशीष चौकन्ना हो गया। वह समझ गया कि आज कोई ऐसी घटना जरूर घटित हुई है जिसने शिवाकांत को भीतर तक आहत किया है। सच और सनक की खातिर किसी से भी भिड़ जाने वाला शिवाकांत अगर गंभीर है, तो जरूर कोई बड़ी बात है। पिछले दस-बारह साल से अपराध बीट देखने वाले शिवाकांत का मन भीतर से बहुत कोमल था...बिल्कुल किसी गौरेया के नन्हे बच्चे की तरह। मानवीय मूल्यों के ह्रास और रिश्तों को कलंकित करने वाली खबरों को लिखते समय अपनी भावनाएं भी उड़ेल देता था। मुख्य खबर के साथ साइड स्टोरियां इतने मार्मिक ढंग से लिखता कि लोग उसकी लेखनी के कायल हो जाते। आशीष ने अपना काम बंद कर दिया और शिवाकांत के पास खाली पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए पूछा, ‘क्या बात है? कुछ तो बताओ। दस-पंद्रह दिन पहले बता रहे थे कि बाबू जी की तबीयत खराब है। क्या उन्हें कुछ हुआ है? भाभी जी या बच्चों को कोई तकलीफ तो नहींहै?’
शिवाकांत ‘की बोर्ड’ पर अंगुलियां रखे कंप्यूटर स्क्रीन को घूर रहा था। उसने कहा, ‘आशीष भाई! मुझसे आज पाप हो गया।’
‘क्याऽऽऽ...?’ आशीष के मुंह से सिर्फ यही निकला। शिवाकांत के कथन ने कमरे में धमाका कर दिया था। स्थआनीय डेस्क पर काम कर रहे सभी लोगों की अंगुलियां ‘की बोर्ड’ पर पहले स्थिर हुईं और फिर सबके चेहरे शिवाकांत की ओर घूम गये।
शिवानी भटनागर की आश्चर्य की अधिकता के कारण कांपती आवाज गूंजी, ‘यह आप क्या कह रहे हैं? कैसा पाप हो गया है?’
सबके चेहरे पर उत्सुकता मिश्रित आश्चर्य था। सभी जानना चाह रहे थे कि आखिर शिवाकांत से ऐसा कौन-सा पाप हो गया है जिसने उसे इस कदर उद्वेलित कर दिया है कि उसे सबके सामने स्वीकार करना पड़ रहा है। कमरे में क्षणभर को निस्तब्धता छा गयी थी। किसी को सूझ नहीं रहा था। सब मौन शिवाकांत के बोलने की प्रतीक्षा में थे।
शिवाकांत ने शांति भंग की, ‘हां...मुझसे पाप हो गया। मुधे प्रत्युष त्रिपाठी को सीओ हजरतगंज से कहकर गिरफ्तार करवाना पड़ा।’
शिवाकांत के इतना कहते ही कमरे में दूसरा धमाका हुआ। इस बार आशीष के मुंह से तो कोई बोल नहीं फूटा, लेकिन मंजरी, शिवानी सहित कई लोगों ने लगभग एक साथ कहा,‘क्याऽऽऽ...’
‘शिवाकांत...यह तुमने क्या किया...।’ आशीष ने दुख भरे स्वर में उलाहना दिया। बाकी सभी सकते की सी हालत में अपने स्थान पर बैठे रहे।
‘हां..मुझे यह पाप करना पड़ा क्योंकि मैं इस अखबार में नौकरी करता हूं। इस अखबार के मालिक राय साहब चाहते थे कि मैं प्रत्युष त्रिपाठी को गिरफ्तार करवाऊं।’ शिवाकांत रुआंसा हो गया।
कमरे में उपस्थित सभी रिपोर्टर और संपादकीय डेस्क के साथी आश्चर्य से अब तक मुक्त हो चुके थे। परिमल जोशी ने कहा, ‘लेकिन प्रत्युष जी ने भी कोई अच्छा तो किया नहीं था। संस्थान का डेढ़ लाख रुपये डकार गये थे। विज्ञापनदाताओं से फर्रुखाबाद में रुपये वसूलते रहे और संस्थान को देने की बजाय अपनी जेब भरते रहे। संस्थान ने जब मांगा, तो ठेंगा दिखा दिया।’
प्रशिक्षु संवाददाता राजेंद्र शर्मा ने प्रतिवाद किया, ‘लेकिन संस्थान ने भी तो उनके साथ कौन-सा भला व्यवहार किया था। इस मामले में थोड़ी बहुत सुनगुन मुझे भी है। सुना है कि त्रिपाठी जी को अट्ठारह हजार रुपये मासिक वेतन, तीन हजार रुपये आवास, डेढ़ हजार रुपये फोन के मद में देने का आश्वासन देकर संस्थान में लाया गया था। दो महीने तक तो इन आश्वासनों को पूरा किया गया, लेकिन तीसरे महीने आवास और फोन के मद में दिया जाने वाला पैसा न केवल बंद कर दिया गया, बल्कि मासिक वेतन भी बारह हजार रुपये कर दिया गया। नियुक्ति पत्र में भी धांधली की गयी। मुख्य संवाददाता की बजाय वरिष्ठ संवाददाता का पद दिया गया। यह तो सरासर बेईमानी है।’
काफी देर से चुप बैठे डॉ. दुर्गेश पांडेय ने चश्मे को नाक पर समायोजित करते हुए कहा, ‘यह बेईमानी नहीं थी। दरअसल, संस्थान ने जिन अपेक्षाओं के चलते यह पैकेज देने का फैसला किया था, उन पर वे खरे नहीं उतरे। यहां सवाल बेईमानी का नहीं,   उपयोगिता का है। प्रत्युष अपनी उपयोगिता  नहीं सिद्ध कर पाये। उनके साथ जो कुछ हुआ, कम से कम मैं गलत नहीं मानता।’
‘आपके मानने या न मानने से क्या होता है। आप तो प्रबंधकों की भाषा बोलने लगे। जित तरह का व्यवहार प्रत्युष त्रिपाठी के साथ किया गया था, अगर खुदा न करे...कल आपके साथ वही हो, तब भी आप कहेंगे कि प्रबंधकों और मालिकों ने जो किया, सही किया। कोई कुछ भी कहे, आज शिवाकांत ने जो किया, वह बहुत गलत हुआ।’ आशीष ने तल्ख स्वर में डॉ. दुर्गेश से कहा।
शिवाकांत ने भीगे स्वर में कहा, ‘पिछले बीस दिन से मुझ पर लगातार दबाव डाला जा रहा था कि प्रत्युष जी को गिरफ्तार करवाकर जेल भिजवा दूं। मैंने चिंतामणि राय जी को समझाने की पूरी कोशिश की, लेकिन वे नहीं माने। उनकी बस एक ही जिद थी कि वे डेढ़ लाख रुपये हजम कर जाने वाले को जेल भिजवा कर रहेंगे। भले ही इसके लिए तीन-चार लाख रुपये खर्च करने पड़ें। वे चार-पांच लाख रुपये और खर्च करने को तैयार थे, लेकिन वे डेढ़ लाख रुपये को भूलने को तैयार नहीं थे। प्रकारांतर से मुझे भी धमकाया गया कि अगर मैंने यह सब कुछ नहीं किया, तो मैं इस संस्थान में नौकरी नहीं कर पाऊंगा। मैं बेहतर है कि अभी से कोई दूसरा दरवाजा देख लूं।’
‘मतलब यह कि आपने अपनी नौकरी बचाने के लिए त्रिपाठी जी को गिरफ्तार करवा दिया।’ मंजरी अग्रवाल की घूरती निगाहों को शिवाकांत अपने चेहरे पर महसूस कर रहा था। तीन साल पहले एक दैनिक अखबार में प्रत्युष त्रिपाठी के साथ काम कर चुकी मंजरी इस घटना से आहत थी।
वैसे एकाध लोगों को छोड़कर कमरे में मौजूद सभी इस घटना से दुखी थे। प्रत्युष त्रिपाठी का नाम मीडिया जगत में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता था। पचपन वर्षीय प्रत्युष जी पिछले बत्तीस साल से पत्रकारिता जगत में सक्रिय थे। एक दैनिक अखबार में प्रशिक्षु रिपोर्टर के रूप में कैरियर की शुरुआत करने वाले प्रत्युष जी ने कभी पैसे और कैरियर की परवाह नहींकी।  नौकरी उनकी आजीविका की साधन जरूर थी, लेकिन साध्य नहीं। मान-सम्मान को उन्होंने हमेशा ऊपर रखा। कई बार तो वे चपरासियों के लिए मालिक या संपादक से भिड़ जाते थे। उन्हें अखबार में होने वाली राजनीति से कोई सरोकार नहीं था। वे अपने से कनिष्ठ संवाददाताओं और उप संपादकों को सिखाने-समझाने ेसे पीछे नहीं हटते थे। जो भी उनके पास अपनी समस्याओं को लेकर गया और कहा, ‘दद्दा जी, इस खबर को देख लें। इसका एंगल सही है या नहीं।’ तो दद्दा न केवल उसे गंभीरता से पढ़ते, बल्कि उसमें आवश्क सुधार करवाते। कई बार तो अपने कनिष्ठ साथियों की कापियां देखकर झुंझलाते, उससे कई बार लिखवाते। इस पर भी अपेक्षित सुधार नहीं होता, तो वे खीझ उठते, ‘अबे गधे! तेरी मोटी बुद्धि में कुछ घुसता भी है या नहीं।’ यह उनका तकिया कलाम था। जिससे यह बात कही जाती, वह या तो दांत निपोर देता या सिर खुजाने लगता। इन सबके बावजूद उनके मन में किसी के प्रति दुराग्रह नहीं पैदा होता। वे यह मानने वाले जीव थे कि ‘न जानना कोई अपराध नहीं, लेकिन न जानते हुए भी जानने का ढोंग करना, अक्षम्य है।’ उनके साथ  काम कर चुके अपराध संवाददाताओं की एक लंबी फेहरिश्त थी जो विभिन्न अखबारों में काम कर रहे थे। उनके सिखाये कई अपराध संवाददाता अपने संस्थान में महत्वपूर्ण पदों पर थे। शिवाकांत ने भी कई साल तक प्रत्युष त्रिपाठी की शार्गिदी की थी।
‘मैं पिछले बीस दिन से किन तनावों में जी रहा था, आप लोगों को नहीं बता सकता। कई बार सोचा कि नौकरी छोड़ दंूं। लेकिन विकल्पहीनता के चलते मुझे यह पाप करना पड़ा। हजरतगंज कोतवाली इंचार्ज उन्हें गिरफ्तार करने को ही तैयार नहीं था। वह तो कह रहा था कि त्रिपाठी जी का रसूख कोई कम तो है नहीं। आज भले ही फर्रुखाबाद में रह रहे हों, लेकिन कल को फिर लखनऊ रहने आ गये, तब...? कल को तुम्हींलोग मुझे बुरा कहोगे। तुम्हारे कहने से त्रिपाठी जी को गिरफ्तार करके शहीदों में अपना नाम क्यों लिखाऊं। इधर मैं उन्हें गिरफ्तार करूंगा, उधर उन्हें बीस पत्रकार छुड़ाने पहुंच जायेंगे। फिर कल के अखबारों में मैं विलेन की तरह पेश किया जाऊंगा। मैं जान-बूझकर आग से क्यों खेलूं।’ शिवाकांत साथियों के सामने सफाई पेश करने की कोशिश कर रहा था। इसके पीछे उसका अपराधबोध था या साथियों के सामने अपने कृत्य को सही साबित करने की मंशा, यह आशीष गुप्ता सहित अन्य साथी नहीं समझ पा रहे थे।
मंजरी अग्रवाल कहने से नहीं चूकी, ‘लेकिन भाई जी, आप चाहे जो कहें। आपके हाथों हुआ बिल्कुल गलत। एकदम गुरु द्रोणाचार्य के वध जैसा। अगर आपने नौकरी के दबाव में यह सब किया है, जैसा कि आप कह रहे हैं, तो भी न्यायपूर्ण नहीं है। यह सब कहने से न तो आपका अपराध कम हो सकता है, न ही कलंक धुल सकता है।’
मंजरी की बात पूरी होने से पहले ही कमरे में सुप्रतिम ने प्रवेश किया। उसने सब पर एक निगाह डालते हुए कहा, ‘शाबाश शिवाकांत! तुमने तो इतिहास रच दिया। देखना, इस बार तुम्हारा प्रमोशन और बंपर इंक्रीमेंट पक्का है। वाकई मजा आ गया।’
सुप्रतिम की बात सुनकर परिमल और दुर्गेश पांडेय के चेहरे पर कुटिल मुस्कान दौड़ गयी। वे समझ गये कि सुप्रतिम का मंतव्य क्या है। सब कुछ जानते हुए भी परिमल ने पूछा, ‘सर, कुछ हमें भी बताएंगे या खुद मन ही मन लड्डू फोड़ते जायेंगे।’
‘हाय मेरे भोले बलम...मैं मर जांवा...अब भी नहीं समझ पाये। अरे मैं उसी साले बुड्ढे प्रत्युष त्रिपाठी की बात कर रहा हूं जिसकी गिरफ्तारी का तुम लोग पिछले दस-पंद्रह मिनट से रोना रो रहे हो। रुदाली की तरह छाती पीट रहे हो।’ सुप्रतिम का स्वर तेज और तल्ख हो उठा, ‘दस मिनट से तो मैं दरवाजे पर खड़ा रुदाली विलाप सुन रहा हूं। चला था हरामखोर दैनिक प्रहरी का डेढ़ लाख   रुपये मारने। आज साले की अच्छी छीछालेदर हुई।’
शिवाकांत यह सुनकर भी चुप रहा। शिवानी भटनागर से रहा नहीं गया। वह बोल उठी, ‘अगर आप अच्छे इनसान नहीं बन सके, तो कम से कम अच्छे पत्रकार तो बन गये होते। संपादक और मालिक की चमचागिरी करते-करते आप इंसानियत का तकाजा भी भूल गये। आपको क्या हो गया है।’
‘मेरी प्रतिबद्धता अपने अखबार और उसके मालिक के प्रति है। एक बात मेरी समझ में नहीं आता कि आप लोग उस ‘न्यूरोसिस्टो सरकोसिस’ से इतनी सहानुभूति क्यों रखते हैं?’
‘भाई साहब...यह न्यूरोसिस्टो सरकोसिस क्या बला है? यह किस भाषा की गाली है?’
‘यह विशुद्ध अंग्रेजी गाली है। इसका मतलब है सुअर के गू का कीड़ा। अमानत में खयानत करने वाला व्यक्ति सुअर की विष्ठा में पड़े कीड़े से भी बदतर होता है। संस्थान आप पर विश्वास करता है, आपको जिम्मेदारी सौंपता है, तो आप संस्थान को यह सिला देंगे। उसका पैसा मार लेंगे। ऐसे नमकहरामों के साथ यह सुलूक होना चाहिए।’ सुप्रतिम ने भद्दे ढंगे से मुंह को फैलाकर काफी देर से रखे गये पान को चबाते हुए कहा।
‘संस्थान के पैसे को वसूलने के बाद जमा नहीं करने को मैं भी गलत मानती हूं। यह कोई अच्छी बात नहीं है। लेकिन इसे आपको भी मानना पड़ेगा कि आज जैसी स्थिति से प्रत्युष त्रिपाठी जी जूझ रहे हैं, कल मेरे सामने आ सकती है। परसों आपको भी यह सब कुछ झेलना पड़ सकता है।’ शिवानी अब भी मुखर थी। उसे आश्चर्य हो रहा था कि ऐसे मौके पर शिवाकांत और आशीष जैसे वरिष्ठ साथी चुप क्यों हैं? उसने एक बार सबकी ओर देखा भी, लेकिन उन सबके सिर झुके हुए थे। शिवाकांत ने तो आंखें भी बंद कर रखी थी।

Tuesday, February 5, 2013

डीएनए में भ्रष्टाचार

-अशोक मिश्र
दिल्ली के सर्वसुखानंद स्टेडियम में ‘अखिल भारतीय लूटखसोट पार्टी’ का चिंतन शिविर चल रहा था। पार्टी अध्यक्ष पद पर युवा नेता ‘नादान बालक’ की ताजपोशी हो चुकी थी। पार्टी के वरिष्ठ और गरिष्ठ नेता अपने नव मनोनीत अध्यक्ष ‘नादान बालक’ के मुखारबिंद से कुछ सुनने को बेताब हो रहे थे। मौके की नजाकत भांपकर पूर्व अध्यक्ष ने ‘नादान बालक’ जी को शिविर को संबोधित करने का इशारा किया। ‘नादान बालक’ जी ने अपना चश्मा एक बार व्यवस्थित किया और बोले, ‘इस चिंतन शिविर में आने से पहले मैं बहुत चिंतित था। मेरी चिंता पार्टी के कार्यकर्ताओं, नेताओं को लेकर थी। मुझे बार-बार अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं के दयनीय चेहरे याद आ रहे थे, लेकिन अब, जब चिंतन शिविर धीरे-धीरे अपने समापन की ओर बढ़ रहा है, मैं आश्वस्त हूं। मैं जानता हूं कि आप सबकी चिंता भविष्य को लेकर है। आप इस चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव के बाद पता नहीं ‘खाने-कमाने’ को मिलेगा या नहीं। एक बात मैं आपको बता दूं। यह बात इसी चिंतन शिविर रूपी मंथन से निकलकर सामने आया है। इस देश क्या, पूरी दुनिया में जब तक पूंजीपतियों को मुनाफा कमाने और निजी संपत्ति को बरकरार रखने की छूट रहेगी, हमारे ‘ख्राने-कमाने’ की व्यवस्था बनी रहेगी। जिस भ्रष्टाचार को लेकर आज लोग इतना हो-हल्ला मचा रहे हैं, वह भ्रष्टाचार तो हमारे डीएनए में है, देश की जनता के खून में है। जीवन से भ्रष्टाचार और मुनाफे पर आधारित बिकाऊ माल की अर्थव्यवस्था को खत्म कर देने का मतलब पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा...। आप किसी कांग्रेसी से पूछ कर देखें, भाजपाई से पूछें, संघियों को टटोलें, यहां तक कि मजदूरों, किसानों और शोषितों के नाम पर चांदी काटने वाले वामपंथियों से पूछें कि क्या वे मुनाफे पर आधारित इस व्यवस्था को मिटाना चाहते हैं? ये सभी पार्टियां एक स्वर में चिल्लाकर कहेंगी, नहीं...नहीं...नहीं..।’
इतना कहकर नादान बालक जी ने चारों ओर बैठे प्रतिनिधियों पर निगाह डाली, ‘भविष्य में खाने-कमाने की चिंता में मरे जा रहे आप लोग बुद्धू हैं। आपको बताऊं, जब भी मैं इस देश के गरीबों को देखता हूं, किसानों को देखता हूं, बेरोजगारों को देखता हूं, तो इनमें मुझे अपना और अपनी पार्टी का उज्जवल भविष्य दिखता है। मैं इन्हें एक शिकार के रूप में देखता हूं। जब भी मुझे सड़कों पर आते-जाते कोई बच्चा दिखता है, तो वह मुझे भावी शिकार नजर आता है। मेरी पार्टी के सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं से बस यही अपील है कि आप सभी जितनी जल्दी हो सके, झुनझुना बजाने की कला सीख लें। देशवासियों के सामने जोर-जोर से झुनझुना बजाएं, उन्हें परियोजनाओं की लालीपॉप दें, आर्थिक उदारीकरण का झांसा देना, तो आपको सबसे पहले आना चाहिए। जो नेता-कार्यकर्ता आर्थिक उदारीकरण पर घंटे-दो घंटे भाषण नहीं दे सकता हो, उसे तत्काल बाहर कर दें। हमें ऐसा नेता-कार्यकर्ता नहीं चाहिए, जो लूट, खसोट, झपटमारी, ठगी और चोरी जैसी प्राचीन और महत्वपूर्ण कला में माहिर न हो। अगर जरूरत पड़ी, तो हम जिला स्तर पर इन कलाओं में प्रवीणता के लिए ट्रेनिंग कैंप लगाएंगे। हमें हर राज्य से कम से कम पचास-पचास ठग, जेबकतरे और चालबाज लोग चाहिए, जो अपने प्रदेश को अच्छी तरह से बेच सकें, सरकारी खजाने को चूना लगा सकें। आप सभी वरिष्ठ, गरिष्ठ, कच्चे, पक्के नेताओं और कार्यकर्ताओं को दो महीने का समय दिया जाता है, आप अपने भीतर इन कलाओं का विकास कर लें।’
नादान बालक की बात सुनकर शिविर में उपस्थित युवा प्रतिनिधियों ने करतल ध्वनि की, तो नव मनोनीत अध्यक्ष खुश हो उठे। उन्होंने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा, ‘आप लोग एक बात का ध्यान और रखें। आगामी चुनाव में लोकसभा या विधानसभा का टिकट अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ता को दिया जाएगा। दूसरी पार्टियों से आने वाले ठगों, लुटेरों और बटमारों को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी। आप लोग एक बात अच्छी तरह से जान लें कि जब तक देश में एक भी भूखा, गरीब, बेरोजगार, किसान, मजदूर रहेगा, तब तक खाने-कमाने की संभावनाएं बनी रहेंगी। जो लोग भ्रष्टाचार का विरोध और राजनीति में स्वच्छता के हिमायती हैं, उनकी बातों पर कान धरने की जरूरत नहीं है। आप अपना काम करें, वे अपना काम करें। आप अपने काम में प्रवीण हों, इसी आकांक्षा के साथ यह शिविर समाप्त होता है। आप लोग अपने-अपने इलाकों में जाकर प्राणपण से अपने लक्ष्य में जुट जाएं।’ इतना कहकर अध्यक्ष नादान बालक जी ने अपना संबोधन खत्म किया और शिविर से चले गए।