Wednesday, October 28, 2015

पिता तुल्य है मेरा बेटा!

अशोक मिश्र
गांव के रिश्ते से मुसई तो वैसे भाई लगते हैं, लेकिन हैं दोस्त की तरह। उनके मुंह से बयान तो ऐसे निकलते हैं, मानो फुलझडिय़ां छूट रही हों। गांव-जवार की कोई भी बात पता चली नहीं कि खट से एक बयान हाजिर, एकदम भगवा ब्रांड की तरह। बयान भी ऐसे कि सुनने वाले की कनपटी लाल हो जाए। पहले तो सुनकर कान में काफी देर 'सांय..सांय' की आवाज घूमती रहे, फिर वह दिमाग वाया दिल तक होकर पहुंचे, तो दिमाग का दही हो जाए। मुसई भाई बोलते समय न आगा देखते हैं, न पीछा। जो मुंह में आया तुरंत बाहर। किसी मल्टीनेशनल कंपनी के प्रोडक्ट के विज्ञापनों की तर्ज पर 'इधर ऑर्डर करो, उधर कंपनी का सेल्समैन प्रोडक्ट हाथ में लिए कालबेल बजा रहा होगा। तुरंत की तुरंत डिलीवरी।' उनके बयान से किसी को अच्छा लगेगा या बुरा, उनकी बला से। कोई कुढ़ता है, तो कुढ़ता रहे। वे तो मस्त हाथी की तरह डायलाग डिलिवरी में सतत लगे रहते हैं। 
लोग तो कहते हैं कि अगर मुसई भाई राजनीति में होते, तो बड़े-बड़े नेताओं के कान काटते। आज जो देश की राजनीति में बड़े तुर्रम खां बने घूमते हैं, वे उनके आगे पानी भरते। नेता चाहे जातिवादी हो, धर्मवादी हों, अधर्मवादी हों, दक्षिणपंथी हों, वामपंथी हों, सेक्युलरवादी हों, असेक्युलरवादी हों, लेकिन उनके घाघवाद के सामने सब बेकार। घाघ इतने कि आपकी आंखों से काजल चुरा लें और आपको भनक तक नहीं लगे। वे चुनावी राजनीति में कितना सफल होते, यह तो नहीं कहा जा सकता है, लेकिन जितने वोट बटोरू नेता हैं, उनका तंबू उखाड़ देने की काबिलियत जरूर मुसई में है। वे अच्छे से अच्छे नेताओं को टके के भाव बेच देने की काबिलियत रखते हैं। लेकिन एक छोटे से गांव में राजनीति की कितनी गुंजाइश हो सकती है। सो, मुसई भाई टैलेंटेड होते हुए भी सबके निशाने पर हैं। उनके बयानवीर होने का सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ता है, उनके बेटे बलभद्र को। बेचारा हर समय आशंकित रहता है कि पता नहीं, कब और कहां से उलाहना आ आए। अगर दो-चार लोग उसके घर की ओर आते दिखते हैं, तो वह दहल जाता है कि पता नहीं आज कौन-सा बयान उसके पिता ने जारी कर दिया है। वैसे मुसई भाई को पल्टासन भी बहुत अच्छी तरह से आता है। बयान देने की कला में वे जितने सिद्धहस्त हैं, उतने ही माहिर वे बयान देने के बाद मुकर जाने में भी हैं। हजार क्या लाखों लोग कहते रहें कि आपने मेरे सामने यह बात कही थी, लेकिन वे नहीं मानेंगे, तो नहीं मानेंगे। कर लो उनका जो भी कर सकते हो।
अभी पिछले दिनों की बात है। नथईपुरवा गांव के एक आदमी की बेटी रात में रामलीला देखने गई, तो सुबह तक घर नहीं आई। मुसई के संज्ञान में जैसे ही मामला आया, तुरंत बयान जारी कर दिया, 'भाग गई होगी किसी के साथ।' मुसई का इतना कहना था कि घरों से लाठियां निकल पड़ीं। मच गया गांव में गदर। मुसई के सुपुत्र बलभद्र ने उग्र लोगों के सामने हाथ जोड़े, पांव पकड़े। तब जाकर किसी तरह मामला शांत हुआ। बाद में पता चला कि रामलीला देखने गई लड़की बगल के गांव में ब्याही बुआ के घर सोने चली गई थी। बलभद्र अपने पिता की बांह पकड़कर खींचता हुआ घर लाया और काफी थुक्का-फजीहत की। बस हाथ नहीं उठाया, बाकी जितना वह 'हत्तेरी की, धत्तेरे की' कर सकता था, उसने किया। समझाया-बुझाया, हाथ-पैर जोड़े। गांव-जवार और घर-परिवार की दुहाई दी। थोड़ी देर बाद जब वह घर से बाहर निकले, तो पहले की ही तरह चौचक। बेटे का सारा समझाना-बुझाना, डांटना-डपटना, सब धूल की तरह झाड़ कर पहले की तरह बिंदास लग रहे थे। लोगों ने हंसते हुए पूछ लिया, 'क्यों मुसई भाई, बचवा ने तो खूब हत्तेरे-धत्तेरे की होगी?' मुसई ने रोष भरे स्वर में कहा, 'पिता तुल्य है मेरा बेटा! वह जो कुछ कहेगा, मुझे मानना होगा। तुम लोग कौन होते हो, बीच में टांग अड़ाने वाले।' इतना कहकर वे खेतों की ओर निकल गए।

Tuesday, October 27, 2015

समाज के चेहरे से मुखौटा नोचती कहानियां

स्निग्धा श्रीवास्तव
व्यवस्था चाहे देश की हो, समाज की हो, राजनीति की हो या फिर घर, स्कूल से लेकर सभी छोटी-बड़ी इकाइयों की हो, अगर मामूली सी भी गड़बड़ी आई, तो पूरी व्यवस्था चौपट ही समझो। प्रसिद्ध पत्रकार, कहानीकार और उपन्यासकार दयानंद पांडेय की 'व्यवस्था पर चोट करती सात कहानियां' में यही बात उभर कर सामने आई हैं। ये सात कहानियां सिर्फ कहानियां नहीं हैं, बल्कि समाज के वे सात चेहरे हैं, जो पूरे समाज का खाका खींचते हैं। इन कहानियों में अलग-अलग पात्रों के जरिये लोंगो की विवशता को दर्शाने की कोशिश की गई है, सामाजिक अव्यवस्था के शिकार होते हैं। कहानीकार दयानंद पांडेय ने यह भी बताने की कोशिश की है कि समाज का हर व्यक्ति अच्छाई-बुराई के भंवरजाल में फंसा छटपटा रहा है। पहली कहानी है, मुजरिम चांद। कहानी में एक पत्रकार को सिर्फ इसलिए कई तरह की जिल्लत बर्दाश्त करनी पड़ती है क्योंकि उसने नेचुरल कॉल के चलते राज्यपाल का ट्वालेट इस्तेमाल कर लिया था। इस कहानी में ग्रामीण पत्रकारों की व्यथा-कथा के साथ-साथ प्रशासनिक व्यवस्था का चेहरा भी बेनकाब होता है। कहानी 'फेसबुक में फंसे चेहरे' बताती है कि अब दुनिया धीरे-धीरे नहीं, बल्कि बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है। पहले लोग घरेलू झगड़ों, आस-पड़ोस की बातें तथा पंचायत में व्यस्त रहते थे, मगर अब लोग इंटरनेट, व्हाट्सअप और फेसबुक में उलझ गए हैं। खाना खाएं या नहीं, व्हाट्सअप पर स्टेटस बदलने की जल्दबाजी जरूर रहती है। साथ ही यह चिंता रहती है कि स्टेटस क्या दें? फेसबुक पर तो लोग कमाल करते है, वे अपने स्टेटस कुछ ऐसे देते हैं-स्लीपिंग विद रवि, राम, राधा, राजेश ईटीसी। या फिर फीलिंग लव विद अनुरंजन, भावेश, श्याम, ईटीसी। ऐसे ही एक महोदय हैं राम सिंगार जी। राम सिंगार जी फेसबुक पर लड़कियों की फोटो पर कमेंट आने से और अपनी फोटो पर कमेंट न आने से परेशान हैं। उन्हें खुद फेसबुक खोलना नहीं आता, लेकिन वे इसके बिना रह भी नहीं सकते हैं। अजीब विडंबना है। इससे बचने के लिए वे अपने गांव जाते है, मगर फिर वापस वहां से फोटो खिंचवाकर फेसबुक पर ही अटक कर रह जाते हैं।
इस कहानी संग्रह की एक विचारणीय कहानी है 'देहदंश।' कहानी देहदंश राजनीति में महिलाओं की स्थिति का बेहद कटु किंतु साफगोई से किया गया विवेचन है। नेता जी राजनीति में सब कुछ पा लेना चाहते हैं। सत्ता का लालच उन्हें अच्छाई-बुराई का भी आभास नहीं होने देता है।  यहां तक की उनकी पत्नी एक मंत्री की अभद्रता का शिकार हो जाती है, लेकिन उन्हें कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। हां, पत्नी यानी मिश्राइन जरूर इसे सदमे की तरह लेती हैं, लेकिन फिर वे भी माहौल में ढल जाती हैं। असल में मिश्रा- मिश्राइन सिर्फ कहानी के दो पात्र ही नहीं है, अपितु वे राजनीति के स्याह-सफेद पहलुओं के जीते-जागते उदाहरण हैं जिनसे आज समाज गुजर रहा है। राजनीति में ऐसे कई नेता हैं, जो न सिर्फ औरतों का इस्तेमाल करते है, उन्हें बुरी तरह भोगते हैं, बल्कि अपनी सद्चरित्रता का चोला भी पहने रहते हैं।  मिश्रा और मिश्राइन के घावों को कुरेदने में मीडिया भी पीछे नहीं रहता है। राजनीति, पत्रकारिता की शवपरीक्षा करती हुई यह कहानी समाज के चेहरे से छद्म मुखौटा खींच लेने का दुस्साहस करती है। राजनीति और पत्रकारिता के लिए स्त्री की हैसियत एक देह से बढ़कर नहीं है, यह कहानी 'देहदंश' बांचती हुई चलती है।
कहते हैं कि इन्सान चाहे जितनी कामयाबी हासिल कर ले, रोजी-रोटी के लिए दूर देश में बस जाए, लेकिन उसके मन में कहीं न कहीं बचपन में वापस जाने की इच्छा मौजूद रहती है। ऐसा ही है कुछ, कहानी 'सुंदर लड़कियों वाला शहर' में। इसके दो पात्र शरद और प्रमोट को सालों बाद परिस्थितियां अपने गांव वापस ले आती हैं। बचपन से पढऩे में होशियार शरद शहर में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है, लेकिन प्रमोद शुरू से ही लड़कियों पर ही अटका रहता है। दोनों इस कहानी में अपने बचपन की यादों में, लड़कियों में डूबते उतराते हैं। 
कहानी 'हवाई पट्टी के हवा सिंह' चुनावी दौरे पर गए एक नेता के हवाई दौरे की कहानी है। हवाई पट्टी के क्षतिग्रस्त होने के बावजूद पायलट के हवाई जहाज उतारने और अनियंत्रित भीड़ के व्यवहार की कहानी बयां हुई है इस कहानी में। कहानी 'प्लाजा' इस संग्रह की अच्छी कहानियों में से एक है। यह वर्तमान समाज में फैली बेरोजगारी से पीडि़त राकेश व्यथा-कथा ही नहीं, पूरे समाज की व्यथा कथा बनकर रह जाती है। 'संगम के शहर की एक लड़की', 'चना जोर गरम वाले चतुर्वेदी जी' जैसी कहानियां काफी मार्मिक हैं। कुल मिलाकर पूरा कहानी संग्रह पठनीय है।

कहानी संग्रह : व्यवस्था पर चोट करती सात कहानियां
कहानीकार : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : शाश्वत प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स
1/10781, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32
मूल्य : 400 रुपये 

Saturday, October 24, 2015

राजनीति में चीयरलीडर्स

-अशोक मिश्र
आज सुबह स्पोर्ट्स पेज पर छपी एक चीयरलीडर की तस्वीर बड़े गौर से देख ही रहा था। तस्वीर थी भी इतनी मादक कि नजर पड़ते ही वहीं की वहीं ठिठक जाती थी। मैं तस्वीर की मादकता पर लहालोट हो ही रहा था कि बारह वर्षीय बेटे गॉटर प्रसाद ने सवाल दाग दिया, 'पापा! मैंने हॉकी, कबड्डी और क्रिकेट जैसे खेलों में चीयरलीडर्स को तो टीवी चैनलों पर ठुमकते देखा है। क्या राजनीति में भी चीयरलीडर्स होती या होते हैं?' स्कूल की तैयारी करते हुए बेटे ने यह सवाल किया, तो पहले मैं सकपका गया। फिर सवाल की गंभीरता पर विचार किया, तो लगा कि यह सवाल तो पूरी राजनीति के करेक्टर को ही पारिभाषित करने वाला है।
मैंने कहा, 'बेटा! अब तो राजनीति में सिर्फ चियरलीडर्स ही हैं, नेता तो बचे ही कहां हैं? नेता नाम की प्रजाति कभी हिंदुस्तान में हुआ करती थी, लेकिन परिस्थितियां अनुकूल न होने से यह पूरी प्रजाति ही विलुप्त हो गई है। तुम इस बात को इस तरह से समझ सकते हो कि नेताओं ने चीयरलीडर्स के रूप में कायांतरण कर लिया है। चीयरलीडर्स खुद भले ही कम कपड़ों में रहे, लेकिन वह दूसरों का मनोरंजन करती हुई दूसरों को शालीन रहने का संदेश देती हैं। वैसे भी इन चीयरलीडर्स के कपड़े कतई अशालीन नहीं होते। वहीं राजनीतिक चीयरलीडर्स..तौबा..तौबा। थेथरई और नंगई को ही ये जामा (कपड़े) बनाकर पहने रहते हैं। वैसे तो सत्ता के गलियारे तक उसी नेता की पहुंच हो पाती है, जो भ्रष्टाचार के दलदल में डुबकी लगा चुका होता है। संसदीय जनतंत्र को इसीलिए भ्रष्टाचार की गंगोत्री कहा जाता है। भ्रष्टाचार की गंगोत्री में नहाए बिना तो राजनीतिक मोक्ष ही प्राप्त नहीं होता है। अगर कोई इस बात को उठाने का साहस भी दिखाए, तो नेता मानेंगे ही नहीं। अगर कोई इनकी इस नंगई पर आपत्ति जताता है, तो बड़ी मासूमियत से कह देते हैं। राजनीति तो एक हमाम है। हमाम में भला नंगे नहीं रहेंगे, तो क्या सूट-बूट पहनकर चहलकदमी करेंगे। राजनीति करने आए हैं तो राजनीति ही न करेंगे। राजनीति में कपड़ों का भला क्या काम। नैतिकता, शुचिता, कर्तव्यपरायणता जैसी बातें किताबी हैं। किताबी बातों से चुनाव नहीं जीते जाते हैं। चुनाव जीतने के लिए चाहिए, छल, बल, धन और समीकरण। समीकरण फिट करने के लिए खुद भी नंगा होना पड़ता है, दूसरों को भी करना पड़ता है। कभी दंगा करना पड़ता है, तो कभी दंगा कराना पड़ता है। राजनीति बगाों का खेल नहीं है। कभी गर्दन काटनी पड़ती है, तो कभी गर्दन कट जाती है।'
इतना कहकर मैंने बेटे पर नजर डाली, वह शायद मेरी बात समझ नहीं पा रहा था। मैंने समझाया, 'देखो.. चियरलीडर्स के पहनावे और हावभाव पर ध्यान दो। उनकी तुलना नेताओं से करो, तो बात समझ में आ जाएगी? नेताओं के कपड़े भले ही चियरलीडर्स की तरह रंग-बिरंगे न होकर सफेद हों, लेकिन इनका मन और कर्म बहुत बदरंगा होता है। चुनाव के दौरान इन नेताओं को नाचते देखा है न, जैसे किसी मदारी की बंदरिया नाचती है। वोट हथियाने के लिए क्या-क्या नहीं करते ये लोग। अपने विरोधियों को राक्षस, ब्रह्मपिशाच, हत्यारा, भ्रष्टाचारी और न जाने क्या-क्या कहते हैं, ताकि उन्हें वोट मिल सके।' 
मेरे बेटे को शायद बात थोड़ी-थोड़ी समझ में आने लगी थी। वह बोला, 'हां पापा! बिहार चुनाव के दौरान नेताओं ने कैसे-कैसे गंदे आरोप एक दूसरे पर लगाए। पापा, आप तो बताते थे कि पहले चुनावों के दौरान नीतियों की आलोचना की जाती थी, लेकिन अब तो लोग परिवार वालों पर कीचड़ उछालते हैं। इन्हें कीचड़ बहुत अच्छा लगता है क्या? यह खुद तो कीचड़ में लोटते रहते हैं, दूसरों को भी उसी कीचड़ में खींच लेते हैं। मजेदार बात यह है कि इस कीचड़ में पक्षी भी लोटते हैं, विपक्षी भी लोटते हैं।' मेरा बेटा कुछ और कहता कि बाहर से बस के हॉर्न की आवाज सुनाई दी। बेटे ने अपना स्कूल बैग उठाया और स्कूल चला गया।

Thursday, October 8, 2015

मुंगेरी लाल के पांव में बंधी बिलार

अशोक मिश्र
बचपन में जब मैं दिन भर घूमने के बाद शाम को घर आता था, तो मेरी मां कहती थीं कि इसके पैर में बिलार (बिल्ली) बंधी है। घर में पैर रुकता ही नहीं है। तब मैं उनकी इस कहावत का ठीक-ठीक अर्थ नहीं जानता था। मगर अब अपने पड़ोसी मुसद्दीलाल के सुपुत्र मुंगेरी लाल की घुमक्कड़ प्रवृत्ति को देखकर बता सकता हूं कि पैर में बिलार बांधने का क्या मतलब होता है। मुसद्दी लाल अपने जीवन में जिले से बाहर कभी नहीं गए। एक बार उनका कोई रिश्तेदार मार-पीट के मामले में थाने में बंद हो गया था, तो उसकी जमानत देने जरूर वे जिला मुख्यालय तक गए थे। उन्होंने पूरी जिंदगी काट दी, लेकिन मजाल है कि वे अपने गांव-जवार के बाहर गए हों। एक उनके सुपुत्र मुंगेरी लाल हैं। घर में पांव रुकते ही नहीं हैं। कभी अपनी ननिहाल, तो कभी चाची, मामी, भाभी के मायके में ही नजर आते हैं। इन सबसे ऊब गए, तो चल दिया अपनी और गांव के रिश्ते बुआ, मौसी, बहन और बेटियों की ससुराल। अपने घर में चुपचाप रहने वाला मुंगेरी लाल रिश्तेदारियों में पहुंचते ही मुखर हो उठता है।
अभी हाल का ही वाकया है। चाची के मायके में पहुंचने पर हुई खातिरदारी से मुग्ध मुंगेरी लाल ने जब अगले दिन चाची के भतीजे-भतीजियों को चाय और बिस्कुट खाते देखा, तो उसके मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा,  'अरे! तुम लोग चाय में बिस्कुट भिगोकर खा रहे हो, मेरे यहां ऐसा हुआ होता, तो बवाल मच जाता। मेरे पिता जी पीट-पीटकर भुरकुस निकाल देते।' यह उसकी आदत में है। अपने घर की बुराई और दूसरों की बड़ाई करने में उसे एक अजीब सा आनंद आता है। वह अक्सर अपनी रिश्तेदारों से कहा करता है, 'अरे मौसी! आपने झाड़ू दरवाजे के पीछे खड़ा करके रखा है, हम लोग ऐसा करते, तो मेरी मां झाडू से पीटती। बुआ! शत्रुघ्न खड़ा होकर पानी पी रहा है, अगर मैं कही ऐसा करता हुआ पकड़ा जाऊं, तो समझो कयामत ही आ जाएगी।' कहने का मतलब यह है कि उसे अपने घर की हर बात, हर काम में खोट ही नजर आता है। दूसरों का कोई भी काम हो, उसे प्रशंसनीय लगता है। वह खुले आम कहता भी है, आप लोग ऐसा कर रहे हैं, मेरे यहां ऐसा होता, तो वैसा हो जाता। घर के लोग आसमान सिर पर उठा लेते, कयामत आ जाती, प्रलय तो समझो आई ही आई थी।
कहने के मतलब यह है कि वह नाते-रिश्तेदारियों में अपने ही घर की पोल खोलता रहता है। लोग उसकी बातें सुनकर मंद-मंद मुस्कुराते हैं। कुछ लोग तो जान-बूझकर उसे उकसाते हैं कि वह कुछ बोले। मुंगेरी लाल अपने मां-बाप, भाई, बहन, भाभी आदि से सीधे मुंह बात नहीं करता है। लेकिन अगर किसी रिश्तेदारी में पहुंच गया, तो सबसे पहले उस घर के बड़े-बुजुर्ग के लपककर चरण स्पर्श करता है, उन्हें भाव विभोर होकर गले से लगा लेता है। अगर कोई उस समय फोटो-शोटो खींच रहा हो और कोई दूसरा फोटो के शानदार एंगल में बाधा बन रहा हो, तो वह बड़ी बेमुरौव्वती से उस आदमी को पकड़कर किनारे भी कर देता है। लंतरानी हांकना, तो मुंगेेरी लाल जैसे मां के पेट से सीखकर आया है, अभिमन्यु की तरह। बात-बात पर रिश्तेदारों से कहता है, 'मौसा जी! साठ साल के हो गए मेरे पिता को पैदा हुए, लेकिन कुछ भी नहीं किया। आज आप जो मेरे घर को चमकता-दमकता देख रहे हैं, वह सारी शाइनिंग मेरी वजह से है। मैंने किया है वह सब कुछ। मेरी मां, बाप, भाई-बहन तो बस गोबर जैसे हैं। जितना खा सके, खाया। बच गया तो टोला-पड़ोसियों को बांट दिया। मैंने अपने 'स्किल' से घर को 'स्टार्टअप' करके 'स्टैंडअप' किया है। मेरे परिवारवालों ने तो अपने ही घर को मोहल्ले-टोले वालों की मदद से लूट खाया।'
मुंगेरी कल ही भाई की ससुराल से लौटा, तो बड़ा खुश था। सुबह-सुबह भेंट हो गई, तो मैंने पूछ लिया, 'और मुंगेरी..क्या हालचाल है?' मुंगेरी ने कहा, 'क्या बताएं चच्चा..अपने घर के लोग हैं न! एकदम बौड़म। भाई की ससुराल में जाकर देखो..क्या सलीके से रहते हैं। दिल खुश हो जाता है। यही बात अगर यहां कह दू, तो लोग मुंह नोचने को तैयार हो जाते हैं।' इतना कहकर मुंगेरी ने बाइक स्टार्ट की रफूचक्कर हो गया।

महान होना है, तो बीवी से पिटो

अशोक मिश्र
अपने घर के बाहर रुआंसे से बैठे मुसई भाई आकाश की ओर निहार रहे थे, मानो भगवान से किसी बात की उलाहना दे रहे हों। मैंने पास जाकर उनके कंधे पर हाथ रखा, तो वे चौंक उठे। मैंने सहानुभूति जताते हुए पूछ ही लिया, 'आखिर बात क्या है मुसई भाई? आप इस तरह गमगीन क्यों बैठे हो? भाभी से कोई लड़ाई-झगड़ा हो गया है क्या? किसी ने कुछ कह-सुन दिया हो, तो बताओ, उसकी अभी टांग तोड़ देता हूं, लेकिन अगर यहां भाभी जी का मामला है, तो भइया तुम जानो, तुम्हारी बीवी जाने। उस पचड़े में मैं नहीं पडऩे वाला।' 
मेरी बात पर मुसई भाई की आंखें डबडबा आईं। बोले, 'अब सहन नहीं होता। अरे यार! बात-बात पर बीवी पीट देती है। अभी कल ही सब्जी थोड़ी ज्यादा तीखी हो गई, तो बीवी ने पीट दिया। भला बताओ, अगर सब्जी में थोड़ी मिर्च ज्यादा हो गई, तो कौन सी आफत आ गई? एक दिन तीखी सब्जी नहीं खा सकती थीं।'
मुसई भाई की बात सुनकर मैं हंस पड़ा, अरे मुसई! आप भी न...एकदम बौड़म हैं। आपको दुनियादारी की राई-रत्ती भी जानकारी नहीं है। अगर भाभी जी ने आपको पीटा है, तो इसके लिए आपको खुशी मनानी चाहिए, भंगड़ा पाना चाहिए, नाचना-गाना चाहिए कि आप बहुत जल्दी महान होने वाले हैं।'
मेरी बात सुनकर मुसई ने मेरी ओर निरीह भाव से निहारा, तो मैंने उन्हें समझाया, 'देखो..बिल क्लिंटन को जानते हो। अमेरिका के राष्ट्रपति हुआ करते थे। बड़े धाकड़ राष्ट्रपति थे, लेकिन वे अपनी बीवी से पिट जाते थे। इस बात का खुलासा इस महान राष्ट्रपति की जीवनी लिखने वाले महान लेखक ने की है। उनकी सारी महानता के पीछे उनकी पीटने वाली बीवी थी। महाकवि कालिदास, महाकवि भक्त शिरोमणि तुलसीदास महान कैसे बने?  वे महान पैदा ही हुए थे। इन्हें बस प्रेरणा की जरूरत थी। उस युग में पति और पत्नी के रिश्ते आज की तरह थोड़े न हुआ करते थे। दोनों अपनी-अपनी मर्यादा का पालन करते थे। बस, प्रेरणा के लिए इन दोनों महान भक्त कवियों को उनकी पत्नी थोड़ा-बहुत ऐसा-वैसा कह दिया, तो आज के युग में जी रहे लोगों ने अपने हिसाब से उसका अर्थ निकाल लिया। बात का बतंगड़ बना दिया।' इतना कहकर मैं सांस लेने के लिए रुका।
'यह तो तुम जानते ही हो। सारी दुनिया को थर्रा देने वाले हिटलर, मुसोलिनी..सबके सब अपनी बीवी और प्रेमिकाओं के सामने भीगी बिल्ली बन जाते थे। सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती थी। आपने कई बार 'मेरा भारत महान' का नारा लगाया होगा। आपने सोचा है कि यह नारा क्यों दिया गया। इस नारे का संबंध इस कहावत से है कि हर महान पुरुष के पीछे किसी स्त्री का हाथ होता है। बचपन में वह हाथ होता है, मां का, बहन का, भाभी का। और बड़े होने पर इनका स्थान ले लेती है बीवी। महान पुरुष के पीछे स्त्री का हाथ.. अब आप पीटने की मुद्रा का ध्यान करें। तो भइया, मेरा भारत महान इसलिए है क्योंकि इस देश की विवाहिताएं अपने पति को पीट-पीटकर महान बना देती हैं। कहा भी गया है, 'जो नर पीटे जात हैं बीवी से सौ बार/ उनके महान बनने में लगै न तनिकौ बार।' यहां बार का मतलब देर से है।'
मैंने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 'इस दुनिया में जितने भी महान लोग हैं, उनकी जीवनी उठाकर पढ़ लीजिए। वे घर से बाहर भले ही बहुत बड़े तीरंदाज रहे हों, लेकिन घर में घुसते ही वे कांपने लगते थे। बीवी या प्रेमिका अगर कहती थी, अभी तो रात है, तो मजाल है कि वे दिन कहने का साहस दिखा जाएं। जिन्होंने साहस दिखाया, वे महान बने हों, तो बताओ। हर महान व्यक्ति अपने जीवन में एकाध बार बीवी से पिटता जरूर है। अगर खुदा न खास्ता आप पिट गए, तो कौन सा आकाश टूट पड़ा। मैं भी तो हफ्ते में एकाध बार पिट जाता हूं। चलिए, उठिए और घर जाकर पहले की तरह काम-काज निबटाइए, हंसी-खुशी आफिस जाइए। मेरे तसल्ली देने से मुसई भाई का दुख कम हुआ। वे खरामा-खरामा घर में घुस गए।