Monday, December 26, 2011

दो संस्कृतियों को न समझ पाने की नादानी

-अशोक मिश्र

हिंदू धर्म ग्रंथ भगवद्गीता को लेकर इन दिनों भारत और रूस में एक विवाद चरम पर है। दरअसल यह विवाद श्रीमद्भागवत पर नहीं बल्कि इस्कॉन समूह के संस्थापक भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की लिखी पुस्तक ‘भगवद गीता एज इट इज’ पर है। रूस के क्रिश्चयन आथोर्डोक्स चर्च से जुड़े कुछ लोगों ने इसी साल जून के महीने में साइबेरिया की अदालत में एक मुकदमा दायर करके इसे खतरनाक और चरमपंथ को बढ़ावा देने वाला बताया है। इस विवाद की परिणति क्या होगी? इस विवाद के चलते भारत-रूस संबंधों पर क्या फर्क पड़ेगा जैसे मुद्दों पर विचार करने से पूर्व अगर हम इस तथ्य की पड़ताल करें कि आजादी के बाद भारत के सोवियत गणराज्य का कई दशकों तक पिछल्लगू बनने के बाद और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करने से क्या हासिल हुआ? अगर हम गौर करें, तो आजादी के बाद कथित समाजवादी जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बनने वाली सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं से लेकर वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में बहुत कुछ उधार लिया। हमारे देश की सभ्यता, संस्कृति और आचार-विचार को सीखने-समझने को वहां से भी साहित्यकार, कलाकार, रंगकर्मी और अधिकारी आते रहे, हमारे देश से भी बहुत बड़ी संख्या में लोग जाते रहे। भारत-रूस से आने जाने वाले ये सामाजिक और सांस्कृतिक कर्मी प्राप्त ज्ञान को वहां की परिस्थितियों के अनुरूप आम जनता की भाषा में ढालकर लोगों को समझाने और बतलाने में नाकाम रहे। इसी नाकामी का नतीजा है वर्तमान गीता विवाद।

श्रीमद्भागवत का भारतीय जीवन में क्या महत्व है? इसका दर्शन भारतीय जीवन को किस तरह प्रभावित करता है या सचमुच यह चरमपंथी दर्शन है? इस पर विचार करने की बजाय अगर सिर्फ विवाद पर ही बात की जाए, तो इसके पीछे दो सभ्यता ओं, संस्कृतियों और जीवन दर्शन में अंतर को न समझ पाने का मामला है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि एशिया महाद्वीप में सबसे पहली सभ्यता का विकास वोल्गा नदी के किनारे हुआ था। यह वोल्गा नदी रूस में उतना ही महत्व रखती है जितनी कि भारत में गंगा। वोल्गा नदी के किनारे विकसित हुई सभ्यता के कुछ लोगों ने जब चारागाह और भोजन की तलाश में अफगानिस्तान के रास्ते भारत की ओर रुख किया और वे भारतीय उपमहाद्वीप में बसते चले गए। अगर हम इस बात को स्वीकार कर लें, तो वोल्गा नदी के किनारे विकसित सभ्यता की ही एक शाखा भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान आदि में फली-फूली और विकसित हुई। यह भी सही है कि एक ही मूल की सभ्यताएं जब दो जगहों पर पुष्पित-पल्लवित हो रही थीं, तो वे अपने मूल से अलग होकर भी किसी हद तक जुड़ी हुई थीं।

शब्द, आचरण, मान्यताएं और परंपराओं में काफी हद तक समानता थी। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, उन शब्दों, आचरणों, मान्यताओं और परंपराओं का स्थान नए शब्द, मान्यताएं, परंपराएं लेती गर्इं। बाद में तो एक समय ऐसा आया, जब इन दोनों सभ्यताओं को जोड़ने वाली चीजें ही अप्रासंगिक होकर मिट गईं। रहन-सहन, बोली-भाषा, आचार-विचार और प्रशासनिक व्यवस्था में जमीन-आसमान का अंतर आ गया। हमारे देश के प्रमुख ग्रंथ वहां के जनजीवन में अपना महत्व खो बैठे। ऐसे में कोई जरूरी नहीं है कि हमारे देश की प्रमुख मानी जाने वाली गीता, रामायण जैसे ग्रंथ रूस या दुनिया के किसी अन्य देश के लिए महत्वपूर्ण हों। आखिर हमारे देश की कितनी फीसदी आबादी रूस, चीन, अमेरिका, मिस्र या अफगानिस्तान आदि देशों के धर्म ग्रंथों, धार्मिक आचार-विचार या मान्यताओं के बारे में जानती है। बमुश्किल एकाध फीसदी से भी कम। ऐसे में किसी व्यक्ति या समूह विशेष की नादानी को उस देश की सरकार या बहुसंख्यक आबादी से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए।

ऐसी ही नादानी के उदाहरण अपने ही देश में बहुत मिल जाएंगे। हमारे देश के वामपंथी दलों को ही लें। जब भी बात दर्शन की चलती है, वे मानवतावादी दार्शनिक कार्ल मार्क्स, रूसी क्रांति के अगुवा वी. लेनिन और चीनी क्रांति के नायक मात्से तुंग के दर्शन को अपनाने की बातें करते हैं। किसी भी देश के दर्शन की अच्छाइयों को ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं है। कार्ल मार्क्स और लेनिन के क्रांतिकारी विचार आज भी सामयिक हैं, लेकिन जब हमारे देश के वामपंथी दल भारतीय जीवन शैली, विशेष काल-परिस्थितियों को ध्यान में रखे बगैर रूढ़िवादी तरीके से लागू करने की बात करते हैं, तो हंसी आती है। वे यह नहीं सोचते कि जिस युग में मानवतावादी लेनिन ने रूसी क्रांति का आह्वान करते हुए कहा था कि यदि क्रांतिकारी तत्व वेश्यालयों में मिलता है, तो कामरेडों को वहां भी जाना चाहिए। क्या आज की परिस्थितियों में ऐसा संभव है? कतई नहीं। ऐसी नादानी करने से हमें बचना चाहिए। गीता हमारे देश के लिए पवित्र वस्तु हो सकती है, लेकिन दुनिया के सभी देश उसे सिर माथे पर उठाए फिरें, ऐसा न तो संभव है, न व्यावहारिक। हां, इस विवाद का कूटनीतिक हल निकाला जा सकता है और ऐसा होना भी चाहिए।

नएवर्ष का स्वागत कीजिए, जनाब!

-अशोक मिश्र

लीजिए जनाब! महीने, सप्ताह और दिनों की चहारदीवारी पर पैर रखकर कूदता-फांदता नया वर्ष आपके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। उठिए, उठकर माशूका की तरह लपककर उसका मुंह चूमिए, हंसकर स्वागत कीजिए। नया साल है भई! आपके लिए नई आशाओं, नई कामनाओं और योजनाओं की सौगात लेकर आया है। भूल जाइए कि पिछले साल आपने कितनी रातें भूखे रहकर और सुबह की रोटी की जुगाड़ में सोचते-विचारते गुजारी हैं। यह भी भूल जाइए कि अभी आपको अपने बेटे या बेटी के स्कूल की फीस देनी है। बीवी की शॉल छेद के चलते ‘चलनी’ बन चुकी है और उसमें अब पैबंद लगाने की गुजांइश ही नहीं बची है। यह भी सही है कि महंगाई की मार ने आपकी कमर को लाठी जैसी सीधी रखने की जगह धनुष की तरह दोहरी कर दी है। अब अगर महंगाई का दबाव कुछ और बढ़ा, तो यह बिल्कुल ही टूट जाएगी। अगर यह टूटती है, टूट जाने दीजिए। लेकिन नए साल का स्वागत करने में पीछे रह गए, तो आपके अड़ोसी-पड़ोसी साल भर ताना मारेंगे। बीवी-बच्चों को तो उनके बीच ही रहना होता है, साल भर वे एहसास-ए-कमतरी (इन्फीरियारिटी कॉम्प्लेक्स) के चलते घुट-घुट कर जिएंगे। बच्चे नए साल के बाद जब स्कूल जाएंगे, तो वे अपने सहपाठियों को कैसे बताएंगे कि उनके डैडी उन्हें किस डिस्कोथेक या बार में ले गए। उन्होंने दिसंबर का आखिरी दिन कैसे सेलिब्रेट किया? पापा पड़ोस वाली आंटी के साथ कैसे नाचे? मम्मी बाजू वाले अंकल के साथ डिस्को करती हुई कितनी ‘क्यूट’ लग रही थीं।

भाई मेरे! भले ही आपकी जेब ‘ठनठन गोपाल’ बोल रही हो, लेकिन आपके पास ‘प्लास्टिक मनी’ यानी क्रेडिट कार्ड तो है न! फिर काहे की चिंता। जानते हैं, मेरी गली के पीछे वाले पीपल के पेड़ के पास जो •िाखारी बैठता है, वह भी क्रेडिट कार्ड होल्डर है। पिछले हफ्ते उसने परेड के सामने भीख मांगने वाली माशूका को पजेरो गिफ्ट किया है। अगर आपके पास यह सब कुछ नहीं है, तो आपसे बड़ा घोंचू इस दुनिया में कोई दूसरा नहीं है। वैसे आपके पास एक मौका है। अभी नया साल आने में कुछ घंटों की देर है, आप चाहें तो किसी बैंक कर्मी या उसके दलाल से टांका भिड़ा लें और फिर क्या! आपकी पांचों अंगुलियां घी में और सिर कड़ाही में होगा। मैंने आपको नए साल का मौज-मस्ती के साथ स्वागत करने का बेहतरीन आइडिया दे दिया है। अब देर किस बात की है।

जाइए, नया साल सेलिब्रेट कीजिए। भूल जाइए कि इस देश में कितने घोटाले हुए हैं। राजा, राडिया से लेकर सुखराम तक ने अपनी कितनी पुश्तों के सुख से जीने की व्यवस्था कर ली है। यदि मौका लगे, तो आप भी एकाध लंबा हाथ मारिए और देश को ठेंगे पर रखते हुए परिवार और मोहल्लेवालोंको ‘हैप्पी न्यू इयर’ कहें। मेरी तो यही दुआ है कि नया वर्ष आप सबके लिए शुभ हो। उनके लिए भी शुभ हो, जो किसी का गला काटकर अमीर बने हैं। नया साल उनके लिए भी मंगलमय हो, जो अपना गला कटाने के बावजूद जी रहे हैं। नया साल जहां राजा, राडिया, कनिमोझी जैसे भूतपूर्व और वर्तमान मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के लिए शुभ हो, तो वहीं रोज अपना खून-पसीना बहाने के बावजूद लुगाई की फटी धोती को नई में न बदल पाने वालों के लिए मंगलमय हो। लूटने वालों को नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं। लुटने वालों को भी नया साल मुबारक हो। हो सके, तो आप भी मेरे लिए बस इतनी कामना कीजिएगा कि सबके सुखी हो जाने के बाद मुझे भी थोड़ा बहुत सुख हासिल हो जाए।

Tuesday, December 20, 2011

मटुकनाथ-जूली लव कोचिंग सेंटर

अशोक मिश्र
कोहरे की रजाई ओढ़े अगहनी सूरज की तरह मैं भी अपने बिस्तर पर अलसाया पड़ा था कि किसी फिल्मी गीत के पहले अंतरे की आखिरी लाइन ‘जूली ओ जूली...’ मेरे कानों में शहद घोलती-सी घुसी। मैं चौंक उठा कि इतना भावविभर होकर कौन जूली को टेरता फिर रहा है? यह आवाज घर के किसी सदस्य की थी नहीं। सो, मेरा चौंकना स्वाभाविक था। मेरी निगाहें दरवाजे की ओर उठीं, तो देखा कि पड़ोसी मुसद्दीलाल ‘आ जा रे, ओ मेरे दिलवर आ जा...’ गाते हुए किसी घुसपैठिये की तरह घुसे चले आ रहे थे। पड़ोसी मुसद्दीलाल की गिनती मोहल्ले के श्रेष्ठ रसिकजनों में होती है। मुसद्दीलाल को नायिका •ोद से लेकर प्रेम और शृंगार के सभी पक्षों का गंभीर ज्ञान है। मोहल्ले की फलां स्त्री या अमुक कन्या नवोढ़ा नायिका है या विदग्धा, यह मुसद्दीलाल उसे देखते ही झट से बता देते हैं।
मैंने बिस्तर पर ही थोड़ा-सा स्थान बनाते हुए उन्हें बैठने का इशारा किया, ‘यह जूली भाभी जी की कोई सहेली या उनकी बहन है क्या? जिसको ‘हे खग, हे मृग.......’ की तर्ज पर मोहल्ले में खोजते फिर रहे हो?’ मेरी बात सुनते ही मुसद्दीलाल के चेहरे पर छाया शृंगार रस का भाव वीर रस में बदल गया। वे गुर्राते हुए बोले, ‘तुम हमेशा खीर में नमक डालकर सारा गुड़ गोबर कर देते हो। तुम्हें इसमें क्या मजा आता है!’
मुसद्दीलाल के तेवर देखकर मैं सिटपिटा गया, ‘भाई साहब! आप यह बताने की कृपा करेंगे कि यह जूली कौन है? आप तो जानते ही हैं कि औरतों के मामले में मैं बचपन से ही निरा •ोंदू रहा हूं।’ मेरी बात सुनकर मुसद्दीलाल ने गहरी सांस ली और बोले, ‘ताज्जुब है कि तुम जूली को नहीं जानते। जूली लवगुरु मटुकनाथ की रानी ‘पद्मिनी’ है, जाने जिगर है, जाने बहार है जिसके लिए लवगुरु अपनी पत्नी से पिटे, अपने योग्य शिष्यों की मार खाई, बगलोल नारायण कालेज (बीएन कालेज, पटना) की मास्टरी गंवाई। अब उसी मास्टरी को लवगुरु और उनकी जाने जां जूली अपनी हिम्मत और संघर्ष की बदौलत हासिल करने में सफल हो गए हैं। अब वे कालेज में फिर से पढ़ाने जा रहे हैं। उनकी कक्षा में पढ़ने के लिए देशभर से रसिक और प्रेमीजन पटना पहुंच रहे हैं। मैं आपको भी पटना चलने का न्यौता देने आया था।’
मैं कुछ कहता कि बगल के कमरे से मेरे सुपुत्र चुन्नू बाबू नमूदार हुए। मुसद्दीलाल और कुलभूषण चुन्नू बाबू की आंखें मिली। आंखों ही आंखों में एक गुप्त इशारा हुआ, जिसे मैं समझ नहीं पाया। चुन्नू बाबू बोले, ‘डैडी! मुझे पांच हजार रुपये चाहिए, पटना जा रहा हूं।’ यह सुनते ही मैं उछल पड़ा।
‘क्या कहा.....पटना जाना है! वहां क्या है? चुपचाप पढ़ाई करो, परीक्षाएं सिर पर आ रही हैं।’ मुझे गुस्सा आ गया।
‘पढ़ने ही तो जा रहा हूं।’ मेरे कुल तिलक चुन्नू का आवेशरहित जवाब था।
‘पढ़ने जा रहे हो! वहां कौन-सी पढ़ाई होगी? मैं भी तो जानूं जरा?’
‘लवगुरु से प्रेम पुराण पढ़ूंगा, जूली से नायिका •ोद सीखूंगा। सुना है कि ‘मटुकनाथ-जूली लव कोचिंग सेंटर’ में पढ़ने के लिए अमेरिका, कनाड़ा और आस्ट्रेलिया से भारी संख्या में लड़के-लड़कियां आ रहे हैं। डैड...आप तो जानते ही हैं कि सीटें लिमिटेड हैं। अंकल ने अपना और मेरे एडमिशन का जुगाड़ •िाड़ा लिया है। सिर्फ पांच हजार रुपये महीने में काम चल जाएगा।’ चुन्नू बाबू एक ही सांस में सारी बातें कह गए। मैं उल्लुओं की तरह बैठा उसका चेहरा देखता रहा। मुसद्दीलाल मेरी दशा देखकर मंद-मंद मुस्कुराते रहे। मैं समझ गया कि इन दोनों में साठगांठ हो गई है। मैंने अपना ब्रह्मास्त्र फेंका, ‘अरी भागवान! सुनती हो, तुम्हारा लाडला क्या कह रहा है। लवगुरु से प्रेम पुराण पढ़ने जा रहा है। जरा इस नामाकूल को समझाओ।’
इधर मैंने पत्नी को हांक लगाई, उधर वह चेहरे पर बत्तीस इंची मुस्कान समेटे कमरे में घुसी। उसने हाथों की ट्रे को टेबल पर रखते हुए कहा, ‘चुन्नू के पापा! जाने दीजिए उसे पटना। अगर वह प्रेम में विशेषज्ञता हासिल करना चाहता है, तो बुरा क्या है। एक फिल्म में राजकपूर कह गए हैं कि प्यार कर ले, नई तो यूं ही मर जाएगा। प्यार कर ले.....अगर मेरा बेटा प्यार सीखने जाना चाहता है, तो जाने दीजिए।’
घरैतिन की बात सुनकर मैंने कहा, ‘अरी पागल! तू यह क्यों भूल जाती है कि प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय। क्या सदियों से प्रेम करना सिखाया जाता रहा है? यह तो समय आने पर इंसान खुद ही सीख जाता है।’
‘पता नहीं किस दुनिया में रहते हैं आप। आजकल तो प्रेम बाड़ी में उपजता भी है और हाट में बिकता भी है। यह थ्योरी कब की बदल चुकी है। आप यह बताइए, सुबह उठकर मेरा बेटा स्कूल जाता है, शाम को तीन-चार बजे लौटता है। खाने-पीने के बाद वह ट्यूशन पढ़ने चला जाता है। शाम को छह सात बजे लौटता है, तो फिर एकाध घंटे के लिए खेलने चला जाता है। उसके बाद तुम सिर पर Þडंडा लेकर सवार हो जाते हो कि चलो पढ़ो। ऐसे में वह प्रेम का पाठ कब पढ़े। मोहल्ले के लड़के-लड़कियां ऐसे-ऐसे नायाब लव लेटर्स लिखते हैं कि अब आपको क्या बताऊं। उनकी काबिलियत और अपने बेटे की अज्ञानता पर मुझे कितनी शर्म आती है, यह आप क्या जानें। मोहल्ले में शर्म से मेरा सिर झुक जाता है।’ इतना कहकर घरैतिन ने खूंटे में बांध रखे पांच हजार रुपये निकाले और बेटे को देते हुए कहा, ‘लो बेटा! पांच हजार रुपये। इस महीने इतने में काम चलाओ। अगले महीने की फीस और खर्चे के छह हजार रुपये तुम्हारे डैडी तनख्वाह मिलने पर तुम्हारे खाते में ट्रांसफर करा देंगे।’ पैसा हाथ में आते ही बेटे ने बेमन से मेरा पैर छुआ और अपनी मम्मी को ‘बॉय’ करता हुआ निकल गया। उसके साथ ही पड़ोसी मुसद्दीलाल भी चलते बने।

ह्वाय दिस कोलावेरी डी!

-अशोक मिश्र
दिल्ली के किसी पार्क में एक गधा गुनगुनी धूप का आनंद लेते हुए मुलायम घास चर रहा था। गधे के घास चरने की स्टाइल बता रही थी कि वह दिल्ली का रहने वाला है। तभी रखवाले की निगाह बचाकर गांव से आया एक दूसरा गधा पार्क में घुस आया। आते ही उसने न इधर देखा, न उधर। मुलामय घास को किसी भुक्खड़ की तरह भकोसने लगा। यह देखकर पार्क के बीचोबीच में बड़ी शान से चर रहा दिल्लीवासी गधा ‘ढेंचू-ढेंचू’ की आवाज करता हुआ दूसरे गधे की ओर दौड़ा। एक बार तो लगा कि वह दुलत्ती झाड़ ही देगा, लेकिन पास जाकर वह गुर्राया, ‘अबे बेवकूफ! तू कहां से घुस आया। जल्दी से दो-चार गफ्फे मार ले और चलता बन। अगर गेटकीपर ने देख लिया, तो तेरी वजह से मुझे भी बाहर जाना पड़ेगा।’
बाद में आया गधा दीन स्वर में बोला, ‘भइया! बड़ी मुश्किल से कई दिनों बाद हरी और मुलायम घास दिखी है। आज तो पेट भर खा लेने दो।’
‘आज तो पेटभर खा लेने दो....बाप का माल है क्या?..’ दिल्लीवाले गधे ने हिकारतभरी नजरों से उसे देखते हुए कहा, ‘ठीक है, जल्दी से थोड़ी घास चरो और चलते-फिरते नजर आओ।’
कुछ देर दोनों चरने के बाद पार्क से बाहर आ गए। पार्क के साइड में बने फुटपाथ पर दोनों खड़े पगुराते रहे। थोड़ी देर बाद दिल्ली वाला गधा पंचम सुर में दुलत्तियां झाड़कर गाने लगा, ‘ह्वाय दिस कोलावेरी डी।’ गांव से आए गधे को पार्क की मुलायम घास अब भी लुभा रही थी। वह एक बार फिर थोड़ी घास खाने की फिराक में था। उसने दिल्लीवाले गधे के गाने में व्यवधान डालते हुए कहा, ‘घास कितनी मुलायम है। काश कि पूरे देश में ऐसे ही चारागाह होते, तो हमें चारा के लिए गली-गली भटकना नहीं पड़ता।’
गाने में व्यवधान पड़ने से झल्लाया गधा बोला, ‘अबे गधे! चारागाह तो पूरा देश है। देखते नहीं, इनसानों को। वे चरते तो अपने क्षेत्र में हैं, लेकिन पगुराने आते हैं दिल्ली। इनसानों के पगुराने के अड्डे हैं संसद और राज्यों की विधानसभाएं। मजे की बात तो यह है कि ये लोग पगुराने के पैसे भी लेते हैं। हां, इनमें होड़ इस बात की होती है कि कौन पक्ष में बैठकर पगुराएगा, कौन विपक्ष में। ये लोग जब चरकर अघा जाते हैं, तो ये देशी बनियों को चारागाह सौंप देते हैं चरने के लिए। ये बनिये गांव के गली-कूंचे से लेकर शहर के पॉश इलाकों में अपनी दुकान सजाकर बैठ जाते हैं। इन बनियों के भी कई गुट हैं, कई पार्टियां हैं, कई झंडे हैं। कुछ नेता नामधारी इंसान कभी इनको समर्थन देते हैं, तो कभी उनको।’
‘तब तो सभी इंसानों की मौज होगी। सभी चरते होंगे।’ देहाती गधे ने उत्सुकता जताई।
‘नहीं जी...गरीब कहे जाने वाले इंसान बेचारे मारे-मारे फिरते हैं। सुना है कि एफडीआई आने वाली है। यह क्या बला है, मुझे नहीं मालूम। लेकिन अपने मालिक के बेटे के मुंह से जो सुना है, उसके मुताबिक अपने देश के चारागाह में चरने के लिए अब विदेशी कंपनियां भी आएंगी। इक्यावन फीसदी अब ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां चरेंगी और उन्चास फीसदी देशी कंपनियां।’ इतना कहकर लयात्मक ढंग से दुलत्तियां झाड़कर दिल्लीवाला गधा एक बार फिर से गाने लगा, ‘ह्वाय दिस कोलावेरी कोलावेरी कोलावेरी डी।’ और देहाती गधा पार्क में घुसकर चरने लगा।

परलोक में आरटीआई

-अशोक मिश्र
आदरणीय भगवान जी, सादर प्रणाम। मैं यह नहीं जानता कि परलोक में सूचना का अधिकार कानून लागू है या नहीं। आप यह तो अच्छी तरह जानते होंगे कि मृत्युलोक में इसकी बदौलत कल तक केंचुओं की तरह रेंगने वाली जनता ने देश के बड़े-बड़े सियासी शेरों की मिट्टी पलीद कर रखी है। आरटीआई का नाम सुनते ही बड़े-बड़े सूरमाओं की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है। हां, तो भगवान जी सबसे पहले यह बताएं कि परलोक में जनलोकपाल, आरटीआई, राइट टू रिजेक्ट और राइट टू रिकॉल जैसे कानून लागू है या नहीं। वहां सी या डी ग्रेड के कर्मचारियों को माल झटकने की कितनी छूट है? यहां का हाल तो यह है कि देश की विभन्न पार्टियां लोकपाल में भी आरक्षण की बात कर रही हैं। हालांकि मैं यह नहीं जान पाया हूं कि ये पार्टियां और उनके वरिष्ठ नेता भ्रष्टाचार में आरक्षण चाहते हंे या भ्रष्टाचार रोकने को बनने वाली समिति में। भगवन! आपको तो पता होगा कि मृत्युसोत में गांधीवादी अन्ना हजारे की बड़ी धाक है। वे पहले तो भूख हड़ताल करते हैं, फिर पांच सितारा अस्पताल में जाकर चेकअप करवाते हैं। गांधीवादी होते हुए भी गांधी जी की तरह पैदल नहीं, हवाई जहाज से आते-जाते हैं। उनके चेले-चपाटे भी ठीक उनके ही नक्शेकदम पर चलते हैं। परलोक में अन्ना जैसी कोई शख्सियत पहुंची या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं, परलोक का काम-काज अभी तक महात्मा गांधी से ही चल रहा है।
भगवान साथ ही यह जानकारी भी प्रेषित करें कि अगर परलोक का कोई मुलाजिम या अधिकारी किसी आत्मा या वहीं के निवासियों से रिश्वत लेते हुए पकड़ा जाए, तो क्या उस पर वैसे ही मुकदमा चलता है, जैसा हमारे देश में होता है। हमारे देश में तो सालों मुकदमे चलते रहते हैं और देश की संपदा लूटकर अपने घर भर लेने वाला मौज करता रहता है। बहुत हुआ, तो महीने-दो महीने के लिए वातावरण बदलने की तरह तिहाड़ जेल चले गए। कुछ दिनों बाद जमानत का ढोंग रचकर बाहर आए, तो फिर पूरी जिंदगी गुजर जाती है और मुकदमे का फैसला नहीं हो पाता है। भगवान जी, आप तो सर्वज्ञानी हैं, सबके मन की बात समझते हैं। मैं एक छोटा-मोटा पाकेटमार हूं। ए. राजा, कनिमोझी, सुखराम जैसा लंबा हाथ मारने को जिंदगी भर तरसता रहा। कभी किसी का पाकेट मार लिया, तो कुछ दिन तक पेट भरने का जरिया हो जाता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि जब मैं परलोक में आई, तो कोई लंबा हाथ मारने का मौका आप ही मुहैया करा दें। जो इच्छा यहां जीते-जी पूरी नहीं हो सकी, उसे मरने के बाद परलोक में पूरी कर लूं, तो आपके निजाम में कोई फर्क तो पड़ने वाला नहीं है। आखिर ‘इस लोक और उस लोक’ में आपकी इजाजत के बिना कोई पत्ता भी नहीं हिलता। यह बात हमें बचपन से ही पुजारी काका बताते चले रहे थे। अभी कुछ दिन पहले ही वे परलोक गए हैं, आप चाहें तो उन्हें बुलाकर पूछ लें। जब मृत्युलोक में भ्रष्टाचार, चोरी, लूट-खसोट, हत्या-बलात्कार जैसे अपराधों में आपकी सहमति है, तो वहां एक बार मुझे लंबा हाथ मारने का मौका देने से कोई पहाड़ नहीं टूट जाएगा। हमारे देश की से आपके परलोक में सोशल साइट्स पर सरकारी नियंत्रण है या नहीं। अगर लागू है, तो उसका प्रारूप क्या है? वहां आरटीआई की फीस किस मुद्रा में जमा होगी, यह भी मुझे नहीं मालूम है। अगर आप चाहें, तो यह फीस मैं रुपये में चुका दूं या फिर आप जिस मुद्रा में चाहें, वह मुद्रा परलोक आने पर लेता आऊंगा। आशा है कि आप मुझे हफ्ते-दस दिन में यह सारी जानकारियां जरूर उपलब्ध करा देंगे। आपका ही-मुजरिम।
(व्यंग्यकार साप्ताहिक हमवतन के स्थानीय संपादक हैं)

नारी मन के अंतरद्वंद्व की गाथा ‘सोफी’


-अशोक मिश्र
वाकई विश्वास नहीं होता कि कोई लेखिका अपने पहले ही उपन्यास में नारी मन के अंतरद्वंद्व को इतनी साफगोई और विश्वसनीयता के साथ उकेरती हुई अपने पाठकों को अ•िाभूत कर देगी। प्रीति रमोला गुसांई ‘मृणालिनी’ के पहले उपन्यास ‘सोफी’ की शुरुआत प्रमुख पात्र लंदन निवासी सोफी के सौतेले बेटे जैमी डिसूजा के शिमला वापसी से होती है। वह शिमला में उन जगहों पर जाकर अपने बचपन की यादों को ताजा करना चाहता है। शिमला के लाल कोठी में पहुंचने पर उसका केयरटेकर उसे खरीददार समझकर पूरी कोठी दिखाता है। वहां उसे वह पत्थर दिखाई देता है, जिसके सामने बचपन में जैसी ने गिड़गिड़ाने के अंदाज में कभी अपनी सौतेली मां सोफी की सुरक्षा, उसके न भटकने की फरियाद की थी। वह उस पत्थर को लेकर पठानकोट की ओर यात्रा शुरू करता है और यहीं से फ्लैशबैक में पूरी कहानी चलती रहती है।

पूरा उपन्यास शिमला और पठानकोट के बीच घूमता रहता है। शिमला के प्रसिद्ध जगहों की विवेचना से यह तो पता लगता है कि लेखिका का यहां से गहरा जुड़ाव रहा है। उपन्यास ‘सोफी’ एक ईसाई परिवार के मुखिया मि. एंटनी और उनके पुत्र रोड्रिक के बीच चलने वाली अहम और सामंतवादी प्रवृत्ति के टकराव की गाथा है। धनलोलुप और अंग्रेजों के चाटुकार मि. एंटनी ने अपनी युवावस्था के दौरान भारतीय क्रांतिकारियों के खिलाफ मुखबिरी करके काफी धन कमाया और राय साहब की पदवी पाई। उनकी आकांक्षा की थी कि उनका पुत्र उनके नक्शेकदम पर चलकर उनकी संपत्ति को और बढ़ाए। लेकिन विडंबना यह है कि वह मुंबई की एक तवायफ से प्रेम कर बैठा और दो लड़कियों और एक बेटे जैमी का बाप बन गया। सामंती प्रवृत्ति के एंटनी अपने बेटे के ऐसा करने से टूट गए। उन्होंने अपने सारे संबंध बेटे से तोड़ लिए। पठानकोट में लकड़ियों से बनी एक आलीशान हवेली में अकेले रहने वाले एंटनी को अपने वंश वृद्धि की उम्मीद तब दिखाई दी, जब अपनी पत्नी और दोनों लड़कियों की हादसे में मौत से टूटा रौड्रिक अपने इकलौते बेटे जैमी के साथ पिता के घर में आकर रहने लगा। उसके पिता जैमी को अपना पौत्र मानने को तैयार नहीं हैं। इसी दौरान माली की लड़की सोफी एक नाटकीय घटनाक्रम के तहत ग्यारह वर्षीय जैमी के कमरे में सो जाती है और उसी दौरान नशे में धुत रौड्रिक आकर उसी कमरे में सो जाता है। सुबह लोग अस्तव्यस्त हालत में जब उसे रौड्रिक और सोफी को कमरे से निकलते देखते हैं, तो उनके बीच अवैध संबंधों की चर्चा शुरू हो जाती है। और शिकारी की तरह घात में बैठे एंटनी अपने बेटे को सोफी से विवाह करने को बाध्य कर देते हैं। एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति के साथ व्याह दी जाती है सोलह साल की सोफी।

यदि उपन्यास की कथा वस्तु पर विचार करें, तो यह पिता-पुत्र के बीच के टकराव और पति का प्रतिरोधस्वरूप पत्नी को शादी के बाद सोफी को त्याज्य रखने की व्यथा कथा है। शादी के चार साल बाद सोफी के जीवन में प्रवेश करता है जयंत। जयंत सोफी के सौतेले बेटे जैमी को ट्यूशन पढ़ाने आता है। उसका सान्निध्य पाकर एक बार फिर मरी हुई कामनाएं और काम उद्वेग सिर उठाने लगते हैं। वह एक दिन...सिर्फ एक दिन अपने मन मुताबिक जीवन जीना चाहती है। इसी दौरान रौड्रिक मुंबई अपने परिवार सहित मुंबई जाता है, तो जयंत भी दुबई में नौकरी मिलने की वजह से फ्लाइट पकड़ने मुंबई जाता है। पानी के जहाज पर नववर्ष के अवसर पर होने वाले एक प्रोग्राम के चार टिकट खरीदकर रौड्रिक के पास पहुंचे जयंत को पता चलता है कि रौड्रिक बीमार है और वह इस कार्यक्रम में भाग नहीं ले सकेगा। वह सोफी और जैमी को जयंत के साथ कार्यक्रम में भाग लेने को बाध्य करता है और वहां पहुंचकर दोनों उस रंगीनियों में खो जाते हैं। अपनी सौतेली मां को अपने ट्यूटर जयंत के सामने काम याचना करते देख जैमी विचलित हो जाता है। कुछ दिनों बाद सोफी के गर्भवती होने और इस रहस्य को रहस्य बनाए रखने के लिए पिता को ढकेलकर मार देने वाले सोलह वर्षीय जैमी जिस अंदाज में पिता के अंतिम संस्कार के अवसर पर वह दुनिया के सामने जयंत के बच्चे को अपने पिता की संतान बताता है, वह कुछ ज्यादा ही नाटकीय लगता है। बाद में मि. एंटनी जैमी और उसकी सौतेली मां सोफी को पठानकोट ले जाते हैं। अपनी सारी संपत्ति का वारिस वह सोफी के बच्चे को बता देते हैं। यह कथा इसी तरह आगे बढ़ती है और बाद में सोफी के सामने अपने वायदे के अनुसार जयंत काफी पैसा कमाकर दुबई से लौटता है, लेकिन वह जयंत को पहचानने से इनकार कर देती है। पढ़ाई के नाम पर दिल्ली और फिर बाद में लंदन गए जैमी को अब अपनी सौतेली मां से उतनी ही घृणा है जितनी वह अपने पिता से करता था। बाद में सोफी मर जाती है और उसकी कब्र के पास अकसर आकर बैठने वाला पागल जयंत भी एक दिन मर जाता है।

दरअसल, उपन्यास ‘सोफी’ में जहां नारी मन के आवेगों, उद्वेगों की सफल प्रस्तुति है, वहीं सौतेली मां और जैमी के बीच उपजे ममत्व की पराकाष्ठा कुछ अतिरंजित ही लगती है। कोई पुत्र अपनी काम पिपासु सौतेली मां और उसके नाजायज बच्चे को बचाने के लिए अपने पिता की हत्या कर दे, तो हमारा समाज उसे किसी भी रूप में जायज नहीं ठहराता है। उपन्यास की भाषा में वह प्रवाह नहीं है जो होनी चाहिए। उपन्यास पढ़ते समय भाषागत त्रुटियां खटकती हैं। अंग्रेजियत का भाव प्रबल होने और हिंदी को आत्मसात न कर पाने की वजह से ऐसा हुआ होगा। कई जगह तो भाषा और व्याकरण का अनाड़ीपन साफ झलक जाता है। अगर अंग्रेजी शब्दों को उस तरह लिखा जाता, जिसे हिंदी में जिस तरह लिया जाता है, तो शायद अच्छा होता। अब उदाहरण स्वरूप एक शब्द ‘लंडन’ को लें। अंग्रेजी से आया यह शब्द हिंदी में ‘लंदन’ के रूप में स्वीकार्य है। प्रूफ की गलतियां भी काफी हैं। इस पर ध्यान देने की जरूत थी। आशा है कि आगामी रचनाओं में लेखिका इस बात का ध्यान रखेगी। उपन्यास का मुखपृष्ठ आकर्षक है। यदि पूरा उपन्यास एक फांट में होता, तो शायद इसकी खूबसूरती और बढ़ जाती। चौर सौ चार पृष्ठों का यह उपन्यास फांट का साइज कम करके घटाया जा सकता था। तब शायद इसका मूल्य दौ सौ रुपये से कुछ कम हो जाता और कुछ ज्यादा पाठकों तक पहुंचने में सफल होता।

Saturday, December 10, 2011

जूते में गुन बहुत है


- अशोक मिश्र

कुछ लोग कहते हैं कि आज से हजारों साल पहले जब बंदर ने अपने दो हाथों को चलने के काम से मुक्त कर लिया, तो वह बंदर से आदमी हो गया। यह एक बहुत बड़ी घटना थी। क्रांतिकारी टाइप की। उस पर 'करेला और नीम चढ़ा` वाली कहावत तब चरितार्थ हुई, जब उसने पहिए और हथियार का आविष्कार किया और आधुनिक मानव समाज की नींव पड़ी। मेरे खयाल से यह धारणा बिल्कुल बकवास है। यह इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों की कल्पना की उड़ान है। भला पहिया और हथियार से विकास का क्या नाता-रिश्ता है। थोथे तकरीरों से इन समाजशास्त्रियों ने दुनिया को बहुत दिनों तक बेवकूफ बनाया। अब दुनिया को यह बताने का समय आ गया है कि बंदर का चलने के काम से दो हाथों को अलग कर लेने की घटना क्रांतिकारी नहीं थी, बल्कि बाकी बचे दो पैरों की सुरक्षा के लिए जूते का आविष्कार कर लेना, बंदर और उसके बाद आदमी के लिए वरदान साबित हुआ। उस पर गजब यह हुआ कि जूते का उपयोग जब पांवों की सुरक्षा के साथ-साथ दूसरे कामों में होने लगा, तो मानो मानव समाज अंधकार युग से निकलकर प्रकाश युग में प्रवेश कर गया। आदमी के दिमाग पर सदियों से छाया अंधकार 'जूता हाथ` में लेते ही उसी तरह छंट गया, जैसे जेठ-बैसाख में हवा चलने से देखते ही देखते बदली छंट जाती है। काफी दिनों तक समाज में जूते का जोर रहा, बात-बात पर जूता चलता रहा। लेकिन जैसा कि प्रकृति का नियम है। यह पूरा संसार द्वंद्वमय तत्वों से निर्मित है। कुछ लोग जूते के खिलाफ बोलने लगे। उन्हें जूता असुंदर और विकास विरोधी लगने लगा, तो उन्होंने लाठी को अपना लिया। विडंबना देखिए, कल तक जिस जूते की पूजा की जाती थी, वह जूता घर के किसी कोने में उपेक्षित सा पड़ा रहने लगा। कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश में एक जूता मिला है, जिसकी कार्बन डेटिंग के आधार पर वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि यह गिरधर कविराय का जूता है। कोई इस बात से सहमत हो या नहीं, लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वह यकीनन गिरधर कविराय का ही जूता है। गिरधर कविराय शुरुआती दिनों में जूते के ही हिमायती थे। जूता दर्शन में उनकी लोकप्रियता का डंका पूरे इलाके में बजता था। इसे देखकर उस समय के प्रतिष्ठित जूताबाज भी उनकी चमचई करने को लालायित रहते थे। लेकिन एक दिन क्या हुआ कि उनकी भिड़ंत किसी लट्ठबाज से हो गई। उसकी लाठी में गिरधर के जूते से ज्यादा दमखम था। सो, उसने दो लट्ठ गिरधर की पीठ पर जमाया, तो बेचारे लाठीवादी हो गए। उनके लाठीवादी होते ही समाज में लाठी का बोलबाला हो गया। इसे 'जूता युग` का अवसान काल भी कहा जा सकता है। देखते ही देखते लाठी की समाज में तूती बोलने लगी। कोई भी लाठी के बल किसी की भी भैंस खोल लेता था। तभी से यह कहावत समाज में मशहूर हो गया, जिसकी लाठी उसकी भैंस। सारे नियम-कानून लाठी की लंबाई और मजबूती के आधार पर तय किए जाते थे। जूते के मोह से विरक्त हुए गिरधर कविराय ने फतवा जारी कर दिया, 'लाठी में गुन बहुत है, सदा राखिए पास।` उनके इस फतवे का व्यापक असर हुआ और हर आदमी लाठी रखने के साथ ही साथ लाठी की भाषा बोलने लगा। उस युग की प्राथमिकता लाठी थी। लाठी ने न जाने कितने युद्ध कराए, न जाने कितने प्रपंच रचे, लेकिन वह भी समय के हाथों पराजित हुआ। लाठी युग का खात्मा होकर रहा। जैसे दिन के बाद रात आती है और रात के बाद दिन। इस देश में यह मानने वाले आपको करोड़ों लोग मिल जाएंगे, जो मानते हैं कि सबसे पहले 'सतयुग` आया, उसके बाद द्वापर और इसके बाद त्रेता और फिर कलियुग। अब कलियुग की अंतिम सांस चल रही है, इससे बाद सतयुग का ही नंबर है। ठीक इसी प्रकार मानव समाज ने जूता युग से लाठी युग में प्रवेश किया। फिर लाठी युग खत्म हुआ, तो एक बार फिर जूता युग आ गया। समाज के विकास का चक्रीय सिद्धांत तो यही कहता है। आज समाज में जूते-चप्पल की गूंज चारों ओर सुनाई दे रही है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा अभागा होगा जिसने जूता-चप्पल का शाश्वत उपयोग कभी न किया हो। आज के जूता-चप्पलवादी युग में गिरधर कविराय पैदा हुए होते, तो उनकी एकाध कुंडलियां जूता-चप्पल की प्रशंसा में जरूर होतीं। आज के जूता-चप्पलवादी युग का बेसिक फंडा है कि जूता जितना बड़ा होगा, पॉलिस उतनी ही खर्च होगी। कुछ लोग हमेशा अपना जूता बड़ा करने के चक्कर में लगे रहते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो विरोधी दल के विधायकों और सांसदों को आश्वस्त करते रहते हैं, तुऔहारे जूते में जितनी पॉलिस लगेगी, उसका खर्च मैं दूंगा। चिंता मत करो। बस जब मैं कहूं, तो आपको अपना जूता चमकाना होगा और यह जूता 'चमकौव्वल` तुऔहें उस पाले में रहकर नहीं, इस पाले में रहकर करना होगा। कई बार तो यह पाला बदल मनोरंजक हो जाता है। पाला बदलकर पॉलिस का जुगाड़ करने वाला नेता भी जब देखता है कि उसका जूता ही फटने वाला है, तो पॉलिस देने वाले को ठेंगा दिखाकर अपने मूल पाले में जा बैठता है या फिर नया जूता गांठ लेता है। राजनीति की भाषा में इसी को 'राजनीतिक दलों का जूतम-पैजार` कहा जाता है। विधानसभाओं के अंदर और बाहर नेताओं के बीच होने वाली जूतम-पैजार से देश का बच्चा-बच्चा वाकिफ है। यह तो जूता-चप्पलवादी युग की पहली पहचान है। उत्तर प्रदेश और बिहार की विधानसभाएं जूतम-पैजार के स्वर्णिम दौर से कई बार गुजर चुकी हैं। एक साल पहले एक पूर्व (तब वर्तमान) मुख्यमंत्री की चप्पल को लेकर खूब चर्चा हुई थी। नासमझ मीडिया वालों ने मामूली सी बात का बतंगड़ बना दिया था। बात केवल इतनी थी कि विधायकों का विधानसभा में मजमा लगा हुआ था। संयोग से तत्कालीन मुख्यमंत्री ने देखा कि उस विधायक की चप्पल मुख्यमंत्री के चप्पल से ज्यादा चमक रही थी। सो, उन्होंने इशारे से पूछा थी कि वह किस कंपनी की पॉलिस यूज करता है। लेकिन विधानसभा में मच रहे शोर-शराबे की वजह से वह (अब भूतपूर्व) मुख्यमंत्री की बात सुन नहीं पाया था। मजबूर होकर मुख्यमंत्री जी को चप्पल दिखाकर दो-तीन बार यह बात सांकेतिक भाषा में पूछनी पड़ी। लेकिन उस नासमझ विधायक को क्या कहा जाए कि उसने तड़ से मुख्यमंत्री जी पर आरोप म़ दिया कि वे उसे चप्पल दिखा रही थीं। मीडिया भी पूर्वाग्रह के चलते मामले को तूल देता रहा। आखिरकार मुख्यमंत्री जी को कहना पड़ा, 'चल तू ऐसा समझता है, तो ऐसा ही सही। जा जो कुछ कर सकता है, तो कर ले। देखूं, तेरी पार्टी में क्या बिगाड़ लेती है।` पाठकों, सच बताऊं। वह विधायक उस समय तो कुछ नहीं कर पाया था, लेकिन बाद में उसकी पार्टी ने बहुत कुछ कर दिखाया। मुख्यमंत्री को चुनाव में वह धोबिया पाट मारा कि वह चारों खाने चित हो गईं। अब बेचारी विपक्ष में बैठकर अपने चप्पल को चमकाने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, वह चमकती ही नहीं है। शायद इसी को कहते हैं करम का लेखा। जूते का महत्व सिर्फ राजनीति में ही नहीं, सामाजिक कार्यों में भी है। शादी-विवाह के समय दूल्हे से भी ज्यादा कीमती जूता ही होता है। दूल्हा अपनी इज्जत की तरह अपने जूते को छिपाता घूमता है और उसकी नई नवेली सालियां हाथ धोकर जूते के पीछे पड़ी रहती हैं। अगर खुदा न खास्ता, सालियों के हाथ में जूता लग गया, तो फिर शुरू हो जाता है उच्च स्वर में गायन 'पैसे ले लो, जूते दे दो।` उधर, दोनों समधियों में लेन-देन का मामला ठीकठाक निपट गया, तो समझो गनीमत है। वरना अगर बात बिगड़ जाए, तो जूता चलने में देर ही कितनी लगती है। पुलिस वाले भी हर बात में कानून को जूते की नोक पर रखते हैं। अभी कल ही एक पुलिस वाले ने चौराहे पर एक रिक्शेवाले को रोककर पहले तो खूब गालियां सुनाई, दो-चार डंडे लगाए और दिहाड़ी छीनने के बाद यह कहते हुए भगा दिया, 'जा! तू जाकर शिकायत कर दे अपने बाप से। जानता नहीं, कानून को में जूते की नोक पर रखता हूं। ज्यादा चबड़-चबड़ किया, तो तुझे और तेरे बाप को लगाऊंगा चार जूते कि तबीयत हरी हो जाएगी।` बेचारा रिक्शा वाला फटे जूते की तरह अपना मुंह लेकर बड़बड़ाता हुआ अपने रास्ते चला गया। छबीली भी जब मुझसे खफा होती है, तो बड़े प्यार से कहती है, 'तुम जैसे निखट्टू से प्यार करे मेरी जूती।