Wednesday, July 30, 2014

स्कूल बैग में हथियार

-अशोक मिश्र
मैं भागा-भागा अपने सपूत के स्कूल में पहुंचा और हांफते हुए प्रिंसिपल से मैंने कहा, जी, मैं ही सोनू का पापा हूं। आपने मुझे तुरंत स्कूल आने को कहा था। फरमाइए, क्या कोई खास बात है? प्रिंसिपल ने मुझे ऐसे घूरा, जैसे मैंने उनकी भैंस खोल ली हो। फिर वह बोले, आप अपने बच्चे के साथ कल से एक गार्ड भेजिए। अगर बच्चे के साथ कुछ ऊंच-नीच हो गई, तो स्कूल प्रशासन कतई जिम्मेदार नहीं होगा। मैंने उनसे पूछा, स्कूल पर कोई आतंकी हमला होने वाला है? क्या किसी आतंकी या नक्सली संगठन ने रंगदारी मांगी है? अगर ऐसा है, तो भी लख्ते जिगर के साथ सुरक्षाकर्मी भेज पाने की हैसियत मेरी नहीं है।
इतना कहकर मैं उन्हें प्रश्नसूचक निगाहों से घूरने लगा। इस पर वह थोड़ा अचकचाए, फिर संभलते हुए बोले, देखिए, आजकल जिस तरह हादसे होने लगे हैं, उसमें जरूरी हो गया है कि छात्र-छात्राओं की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। स्कूल में कुछ हुआ नहीं कि मां-बाप दौड़ते हुए चले आते हैं। ऐसे में हम क्या करें? अगर आप अपने बच्चे के साथ गार्ड नहीं भेज सकते, तो उसके बैग में कोई हथियार ही रख दें, ताकि झगड़ा-फसाद के वक्त बच्चा अपना बचाव कर पाए। इतनी तो औकात आपकी है ही या इसमें भी आप असमर्थ हैं?
प्रिंसिपल की बात सुन मेरे होश उड़ गए। मैं घबराए स्वर में कहा, क्या कह रहे हैं आप? मैं अपने बच्चे को सभ्य और जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए स्कूल भेजता हूं या गुंडा बनाने के लिए? आप कैसी शिक्षा देना चाहते हैं बच्चों को, यह मेरी समझ से बाहर है।
प्रिंसिपल ने जैसे फैसला सुनाते हुए कहा, ऐसे में तो यही विकल्प बचता है कि आप अपने नौनिहाल को स्कूल से निकाल लें या फिर स्कूल प्रशासन को लिखकर दें कि भविष्य में बच्चे के साथ कोई दुर्घटना होती है, तो उसकी जिम्मेदारी स्कूल की नहीं होगी।

मैंने बेटे को उस स्कूल से निकाल लिया है और एक ऐसे स्कूल की तलाश में हूं, जहां शिक्षा के साथ सुरक्षा की भी गारंटी हो। आपकी नजर में ऐसा कोई स्कूल हो, तो बताएं।  

(31 जुलाई 2014 को अमर उजाला के सम्पादकीय पेज पर प्रकाशित)

Friday, July 25, 2014

बगदादी से मुलाकात

अशोक मिश्र

Meet with Bagdadi

उस्ताद गुनहगार घबराए हुए से मेरे घर में घुसे और मेरे प्रणाम को नजरंदाज करते हुए बोले, यह बताओ, सीआईए वाले जब किसी को पकड़ते हैं, तो क्या बहुत मारते हैं? पहले टॉर्चर करते हैं, उसके बाद गोली मारते हैं या फिर सीधे गोली मार देते हैं? मारने से पहले कुछ खिलाते-पिलाते हैं या खाली पेट ही इस दुनिया-ए-फानी से विदा कर देते हैं?

मैंने कहा, उस्ताद! सीआईए वाले मारते कम और घसीटते ज्यादा हैं। वैसे बात क्या है? दुआ न सलाम, आते ही बंदूक तान दी।
उस्ताद गुनहगार ने इधर-उधर देखते हुए कहा, क्या बताएं, मेरी मति ही मारी गई थी, जो दुनिया के मोस्ट वांटेड अबू बकर अल बगदादी से यों ही टहलते हुए मुलाकात करने जा पहुंचा। खुदा झूठ न बुलवाए, उसने खातिरदारी भी बहुत की। उसके एक चेले ने तो बड़े अदब से हम दोनों की एक तस्वीर भी खींची। लेकिन जब से मालूम हुआ है कि उसे अमेरिका वाले खोज रहे हैं, तब से मुझे दस्त आ रहे हैं। कई तरह की आशंकाएं घेरे हुए हैं। मेरी पत्नी तो अपनी सहेलियों और मोहल्ले की औरतों को भी मुलाकात गाथा सुना आई हैं। अब समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं? जब सीआईए पूरी दुनिया में बगदादी को खोजते घूम रहे हैं, तो फिर वे मुझे भी खोज सकते हैं।


उस्ताद की बात सुनते ही मेरे दिमाग का एंटीना खड़ा हो गया। मैंने तुरंत कहा, उस्ताद! आप भी न, बैठे-बिठाए मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल देते हैं। आपको क्या पड़ी थी बगदादी से मिलने की? अब जो किया है, भुगतिए। मैं आपको कोई सलाह नहीं दे सकता, बल्कि आपसे अपना रिश्ता अभी से खत्म करने की घोषणा करता हूं। मुझे अपने बाल-बच्चों को अनाथ नहीं करना है।
इतना कहकर मैं बाहर आया और मोहल्ले वालों को सुनाकर उन्हें जोर से कहने लगा, मैं आपको जब जानता नहीं, पहचानता नहीं, तो आप क्यों खामख्वाह बेटा-बेटा कहकर घर में घुसे आ रहे हैं?

मेरे इतना कहने पर उस्ताद पहले तो अकबकाए, फिर लड़खड़ाते कदमों से अपने घर की ओर चले गए

Tuesday, July 22, 2014

संतुलन साधना ही शिवत्व

मित्रो ! दैनिक जागरण के सप्तरंग परिशिष्ट में आज 23 जुलाई 2014 को प्रकाशित शिवत्व को पारिभाषित करने का प्रयास करता मेरा एक लेख। आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया की अपेक्षा है। विवेक भाई को आभार
http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/23-jul-2014-edition-Delhi-City-page_24-189-4190-4.html

Monday, July 21, 2014

पुलिसवालों के "अच्छे दिन"

-अशोक मिश्र
चौराहे के एक किनारे खड़े सिपाही राम मूर्ति ने तम्बाकू रगड़ने के बाद "फट्ट...फट्ट" की आवाज करते हुए चूना झाड़ा। इसके बाद उसने संतुष्टि के भाव से तम्बाकू को निहारा और जैसे ही मुंह में डालने को हथेली उठाई, तभी पता नहीं किस ओर से हवलदार भदौरिया प्रकट हो गया। उसने मुस्कुराते हुए राम मूर्ति से कहा, ''क्यों राम मूर्ति ? मेरा हिस्सा भूल गए थे क्या ?' हवलदार की बात सुनते ही राम मूर्ति की फैली हुई बायीं हथेली मुट्ठी में तब्दील हुई और दायां हाथ  सैल्यूट की मुद्रा में माथे पर गया।  उसने हड़बड़ाए हुए स्वर में कहा, ''जय हिन्द साब! आपने तो डरवा ही दिया था अचानक सामने आकर।  मैंने समझा सीओ साहब आ गए हैं। भदौरिया साब ! आप भी हिस्से की क्या बात करते है। आपका हिस्सा कभी मारा है ? आप ही बताइए, कभी आपको हिस्सा देने से चूका होऊं, तो ? यह तो मुई तम्बाकू है, जब हज़ारों-लाखों की बात थी, तब भी आप मेरी नज़रों से ओझल नहीं हुए। आपको याद है, जब तीन महीने पहले  एसपी साहब के साथ '' संस एंड संस'' ज्वैलर्स की दुकान पर छापा मारने गया था। साहब ! तस्करी करके लाया गया सवा पांच किलो सोना बरामद हुआ था। जानते हैं साब, अगले दिन अख़बारों में सिर्फ चार किलो सोना बरामद होने की खबर छपी। सवा किलो सोना साहब और बड़का साहब डकार गए और किसी को भनक तक नहीं लगने दी। वो तो साब सोने के बिस्कुट गिनते समय मौका पाकर 50 ग्राम के सोने का एक बिस्कुट मैंने पार कर दिया था जूते में छिपाकर। उसमें से एक तोला सोना मैंने आपको दिया था या नहीं ? इतना ही नही, दिन भर में जितनी भी कमाई होती है, उसमें से आपका हिस्सा आपको मिलता है या नहीं ?''
भदौरिया ने तम्बाकू होठों के बीच दबाने के बाद जमीन पर पिच्च से थूक दिया। उसने उचटती सी निगाह पूरे चौराहे पर डाली और राम मूर्ति से कहा, 'छोड़ यार, दो पैसे की तम्बाकू खिलाकर चौराहे पर क्यों पैंट उतरने पर तुला हुआ है ? तुम अपनी कमाई में हिस्सा देकर कोई एहसान नहीं करते हो। मैं भी अपनी कमाई में से बड़े साहब को हिस्सा देता हूँ। पुलिस महकमे में तो हर कोई हिस्सा लेता है और देता है। ठीक दूसरे महकमे की तरह। अब अगर मैं तुम्हारी पोल-पट्टी खोलने लगूं, तो पूरा पोथन्ना भर जाए, फिर भी तुम्हारी करतूत पूरी नहीं लिखी जा सकेगी।'
भदौरिया के पलटवार करने से खिसियाए राम मूर्ति ने 'हें.……हें'  करते हुए दांत निपोर दिया और कहा, ' अरे साब ! आप तो नाराज हो गए। छोड़िये यह सब और यह बताइये, हम लोगों के अच्छे दिन कब आएंगे? इस बार तो बजट में भी तीन हज़ार करोड़ रुपये सरकार ने दिए हैं हम पुलिस वालों के अच्छे दिन लाने को। साब मैं तो जब भी तीन हज़ार करोड़ रुपये के बारे में सोचता हूँ, मेरे रोयें खड़े हो जाते हैं। मन तो बादलों के ठेंगा दिखने के बाद भी मयूर की तरह नाच उठता है। 'आय-हाय' कब आएंगे मुए तीन हज़ार करोड़ रुपये। हवलदार साहब, लगता है मैं इन रुपयों के बारे में सोच-सोच कर पागल हो जाऊंगा। मैंने तो यहाँ तक जोड़-घटा लिया है साब कि मेरे हिस्से में कितने आएंगे। मेरी घरवाली तो मोहल्ले के सुनार की दुकान पर जाकर 'लेटेस्ट डिज़ाइन' का नेकलेस तक पसंद कर आई है।  वह तो रात में भी कई बार जगाकर पूछती है कि कब मिलेंगे पैसे? सोते समय भी कुछ ना कुछ बड़बड़ाती रहती है। बेटा तो बहुत दिनों से पिकनिक मानाने के लिए गोवा जाने की जिद कर रहा है। सोचता हूँ इस बार बेटे की यह इच्छा पूरी ही कर दूँ। बेटा जवान-जहान अभी घूमे-फिरेगा नहीं तो क्या बुढ़ापे में गोवा जाएगा। चार-पांच महीने पहले एक तगड़ा हाथ मारा था तो बेटी को उसकी सहेलियों के साथ सिंगापुर पांच दिन के टूर पर भेज दिया था। बेटी जब लौट कर आई थी, तो मोहल्ले भर में उसकी धाक जम गई थी। बेटा तभी से मुंह फुलाये घूम रहा है। साब ! बच्चों की इच्छाएं पूरी न हों तो वे जीवन भर एहसास-ऐ-कमतरी (माइनॉरिटी काम्प्लेक्स) के शिकार रहते हैं।'
राम मूर्ति की बात सुनकर हवलदार भदौरिया ठहाका लगाकर हंस पड़ा। उसने हँसते हुए कहा, 'धत्त बुड़बक! उस पैसे के बारे में तो सोचना भी मत। तीन हज़ार करोड़ रुपये सरकार ने तुम्हारी घरवाली के नेकलेस और बेटे के गोवा जाने के लिए नहीं दे रही है। इस पैसे से पुलिसवालों की दशा और दिशा बदली जाएगी।' भदौरिया ने एक बार फिर पिच्च से तम्बाकू की पीच थूक दी, मानो पूरे पुलिस तंत्र पर ही थूक दिया हो। फिर पता नहीं क्या हुआ कि भदौरिया एकाएक गंभीर हो गया।  उसने आकाश की ओर देखते हुए कहा, 'कहते हैं कि इस पैसे से पुलिस तंत्र को मजबूत किया जायेगा, लेकिन इस तंत्र का कौन सा हिस्सा मजबूत होगा कोई मुझसे पूछे। तुमने भी अच्छे दिनों की बात खूब चलाईे। सुना है, बड़का ने अपना हिस्सा बढ़ा दिया है। बड़का साहब के भी बड़के साहब ने अपना हिस्सा जो बढ़ा दिया है। इन साहबों के अच्छे दिन तो आने वाले हैं। रह गए हम लोग तो पहले जिस तरह से जीते थे , वैसे ही अब भी जिएंगे। इस महंगाई के ज़माने में हम मामूली पुलिसवाले कैसे जीते हैं, इसके बारे में ना तो सरकार सोचती है और ना ही आम आदमी।'  
राम मूर्ति ने रुआंसे स्वर में कहा, 'तो क्या हमारे अच्छे दिन कभी नहीं आएंगे?' इस बीच राम मूर्ति ने दोबारा तम्बाकू निकालकर बनाने लगा था।  वह अभी चूना निकल  था कि चौराहे से क्रॉस करने वाली एक कार ने एक बाइक सवार को इतनी जोर की टक्कर मारी कि बाइक सवार काफी दूर तक घिसटता चला गया। इस घटना को देखकर भदौरिया के साथ-साथ राम मूर्ति की आँखें चमक उठीं। भदौरिया मुंह में रखी तम्बाकू को थूकने के साथ यह कहते हुए घटनास्थल की ओर बढ़ गया, 'राम मूर्ति! जिस अच्छे दिन का रोना अभी तुम रो रहे थे, वह आ गया।  तुम बाइक सवार को सम्भालो।  मैं कार वाले को पकड़ता हूँ।  अगर बाइक वाले को ज्यादा चोट न आई हो, उसे भी हलाल किए बिना जाने मत देना। ' और दोनों अपने अच्छे दिन लेन को बड़ी शिद्दत के साथ जुट गए।