Tuesday, October 16, 2012

‘करसी’ चली गई


-अशोक मिश्र
आप लोगों को एक मजेदार वाकया सुनाऊं। बात उन दिनों की है, जब नया-नया जवान हुआ था। कविताओं से समाज में क्रांति लाने का जज्बा मन में हिलोरें मार रहा था। उन्हीं दिनों नया-नया मार्क्सवादी भी हुआ था। कवि गोष्ठियों में जिन कविताओं में जरा-सा भी शृंगार रस या छायावादी काव्य की झलक मिलती, झट से फरमान जारी कर देता था, ‘अरे यार! यह कवि है या सामंतीवादी टट्टू।’ समंदर की लहरों की तरह ठाठें मारता जोश किसी से भी भिड़ने को तैयार रहता था। मैंने बहस और अंतहीन विवादों से अपना नाता इस तरह जोड़ रखा था, जैसे आंसू और विरह का आपसी रिश्ता होता है। लखनऊ में कोई भी साहित्यिक गोष्ठी हो, अपनी क्रांतिकारी कविताओं और विचारों के साथ मैं हाजिर। इस पुनीत कार्य को संपादित करने के लिए बीस-बाइस किमी तक साइकिल चलाता था। उन दिनों गजल लिखने का नया-नया शौक भी पाला था।

मेरे क्रांतिकारी विचारों और फरमानों का नतीजा यह हुआ कि कवि गोष्ठियों में जैसे ही मैं अपनी गजलें पढ़ता, कुछ मठाधीश टाइप के शायर तुरंत सुना देते, ‘बेटे! तुम्हारी गजलें ‘बहर’ से खारिज हैं, ‘काफिया’ भी दुरुस्त नहीं है, ‘रदीफ’ में सख्ता है।’ दूसरों को अपने फरमान से परेशान करने वाला मैं अब खुद परेशान रहने लगा, कि सारी रात उल्लुओं की तरह जागकर तुक और छंद भिड़ाने के बावजूद ये कमबख्त बहर, काफिया और रदीफ क्यों नहीं काबू आ रहे हैं। इसका जवाब सूझा कि मैं भी इन उर्दूदां लोगों की तरह उर्दू सीखूं और उर्दू अदब का कायदा भी। सो, मैं एक मौलवी जी के सान्निध्य में इस काम में युद्ध स्तर पर जुट गया। कुछ दिनों बाद हिज्जे मिला-मिलाकर उर्दू पढ़ लेने लगा। पारंगत होने के लिए ‘कौमी आवाज’ अखबार भी घर पर मंगाने लगा। एक दिन अखबार में एक शे’र पढ़ा, ‘करने चला सुधार तो करसी चली गई।’ मैं यहां ‘करसी’ शब्द का अर्थ नहीं समझ पाया, तो मैंने लखनऊ के एक मशहूर शायर ‘गाफ नून’ साहब से इसका अर्थ पूछा। उन्होंने समझाया, ‘यह एक क्रांतिकारी गजल है। आपने रामधारी सिंह दिनकर का महाकाव्य उर्वशी पढ़ा है न! उर्वशी का अर्थ ‘उर-वशी’ यानी दिल में बसने वाली भी है। इस शे’र में करसी शब्द भी ‘कर-सी’ यानी कर (टैक्स) की तरह के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ यह है कि जब शायर ने अपने आस-पास गरीबों को आर्थिक स्थिति सुधारने के गुर बताए, तो उनकी गरीबी और परेशानियां धीरे-धीरे ठीक वैसे ही खत्म हो गईं, जैसे जनता से धीरे-धीरे सरकार ‘कर’ (टैक्स) के रूप में पैसा खींच लेती है।’

चचा ‘गाफ नून’ के उत्तर से मुझे संतोष नहीं मिला, तो मैंने अपने अजीज मित्र शायर ‘बतकूचन बेढंगी’ से इस पंक्ति का अर्थ पूछा। वे यह शे’र सुनते ही उछल पड़े। उन्होंने शायर को दाद देते हुए कहा, ‘वाह...वाह! क्या उम्दा गजल कही है गजलगो ने। दरअसल, यह कबीरदास के रहस्यवादी और महादेवी वर्मा के छायावादी काव्य परंपरा का मिश्रित शे’र है। मियां! मेरा ख्याल है कि इस पंक्ति में आगे-पीछे कुछ शब्द गायब हैं। जहां तक मैं समझ पा रहा हूं, पंक्ति कुछ इस प्रकार है, ‘निकाह करने चला सुधार, तो करसी चली गई।’ कहीं किसी गांव में ‘सुधार’ और ‘करसी’ नाम के आशिक-माशूका रहते थे। उनका इश्क जब गली-कूंचे में चर्चित होने लगा, तो माशूका के घरवालों ने ‘करसी’ पर तमाम तरह की बंदिशें लगानी शुरू कर दीं। एक दिन दोनों ने घर से भागकर निकाह करने का मनसूबा बनाया। दोनों नियत समय पर भागकर आशिक के एक दोस्त के घर पहुंचे। उसके बाद दूसरे दिन उनके दोस्त ने उन्हें काजी साहब के सामने निकाह के लिए पेश किया। निकाह हो पाता, इससे पहले घटनास्थल पर माशूका का चाचा आ धमका। डर के मारे माशूका करसी वहां से भाग गई।’
इतना कहकर ‘बतकूचन बेढंगी’ ने जिराफ की तरह गर्व से अपनी गर्दन उठाई, इधर-उधर देखा और चलते बने। मैं शायर ‘बतकूचन बेढंगी’ की व्याख्या से भी संतुष्ट नहीं था। काफी दिनों तक परेशान होकर इसका संभावित अर्थ खोजता रहा, मगजमारी करता रहा। ...लेकिन एक दिन, कुछ सोचते-सोचते मैं अचानक उछल पड़ा। इस पंक्ति का अर्थ मेरी समझ में आ गया था। दरअसल, यह मेरी कमअक्ली ही थी कि मैं उर्दू का बेसिक फंडा ही भूल गया था। उर्दू सिखाते समय मौलवी साहब ने बताया था कि उर्दू में लिखते समय कुछ मात्राएं लगाने का चलन नहीं है। जैसे उ, इ आदि की मात्राएं। यह बात समझ में आते ही शेर कुछ इस तरह बना, ‘करने चला सुधार, तो कुरसी चली गई।’

Sunday, October 14, 2012

‘मदरचेंज’ शॉपिंग मॉल


-अशोक मिश्र

नथईपुरवा गांव में रामभूल काका ने अपनी दस वर्षीय बेटी सुतंतरता (स्वतंत्रता) की पीठ पर एक धौल जमाते हुए कहा, ‘तू मेरी जान मत खा, अपनी अम्मा के पास जाकर मर।’ मैंने बुक्का फाड़कर रोती सुतंतरता को पलभर निहारा। उसकी आंख, नाक और मुंह से गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी बहकर ठुड्ढ़ी पर संगम जैसा कोलाज रच रही थी। मैंने रामभूल काका से उलाहने के स्वर में कहा,‘क्या काका! आप भी इस छोटी-सी बिटिया पर अपना क्रोध उतार रहे हैं। यह क्यों रो रही है?’

काका ने अंगोछे से अपना पसीना पोंछते हुए कहा, ‘क्या बताएं बेटा! श्यामता बाबू का बेटा गॉटर अभी थोड़ी देर पहले एक चमकीली पन्नी में लिए कुछ खा रहा था। अच्छा-सा उसका नाम है..खाते समय जो ‘कुर्र..कुर्र’ की आवाज करता है।’ मैंने कहा, ‘कुरकुरे...।’ काका रामभूल ने कहा, ‘हां बेटा! वही...अब ई अंगरेजी नाम तुमही लोग जानो। तो गॉटर को कुरकुरे खाते देख सुतंतरता ने जिद पकड़ ली कि मुझे भी कुरकुरे चाहिए। मैंने इस सुतंतरिया से कहा कि अपनी अम्मा से दो रुपये लेकर माता बदल पंसारी की दुकान से कंपट या टाफी ले लो, लेकिन इसे भवानी उठा ले जाए, यह अइलहवा मोड़ पर खुली ऊ चमक-दमक वाली दुकान से ‘कुर्रकुर्रे’ लेने की जिद सुबह से पकड़े हुए है।’ रामभूल काका की बात में गुस्सा, बेबसी और बेटी को पीटने का अपराधबोध एक साथ झलक रहा था। वे बोले, ‘बेटा! दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत के बाद कहीं जाकर सौ-सवा सौ रुपये मजदूरी मिलती है। अब अगर रोज-रोज सुतंतरता दस-बीस रुपये की यह आलतू-फालतू चीजें खरीदने की जिद करेगी, तो गुस्सा आएगा ही। गांव में यह अच्छी बला खोल दी है नासपीटों ने। जब से यह अंगरेजी दुकान खुली है, गांव के लड़के-लड़कियां बिगाड़ रही हैं।’

रामभूल काका की बात सुनते ही मुझे याद आया कि अइलहवा मोड़ पर किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी ने अपना शॉपिंग मॉल अभी दो महीने पहले ही खोला है। छह महीने पहले जब मैं गांव आया था, तब यह शॉपिंग मॉल बन रहा था। उस समय शॉपिंग मॉल की बन रही इमारत को देखकर गांव के ही एक स्नातक बेरोजगार से मैंने पूछा था, ‘रंगनाथ भाई! यहां कोई सिनेमा हॉल बन रहा है क्या?’ गहरी सांस लेते हुए रंगनाथ ने कहा था, ‘नहीं भइया! यहां एक शॉपिंग मॉल खोला जाएगा।’ रंगनाथ की बात सुनकर मैं अवाक रह गया। रंगनाथ अपनी रौ में बोले जा रहा था, ‘भइया! आप तो जानते ही हैं, नथईपुरवा में पिछली चार पीढ़ियों से माता बदल पंसारी की दुकान चल रही है। गांव के लोग हल्दी, धनिया, गुड़, साबुन जैसी चीजों पीढ़ियों से माता बदल की दुकान से ही खरीदते आ रहे हैं। पैसा हुआ तो भी, नहीं हुआ तो भी। सुख हो, दुख हो, माता बदल पंसारी ने कभी उधार देने से किसी को मना नहीं किया। लोग सामान उधार लेते रहते हैं और जब अनाज पैदा होता है, तो चुकता कर देते हैं। लेकिन अब लगता है कि माता बदल पंसारी के बुरे दिन आ गए। सुना है, इस मॉल में सुई-धागे से लेकर हवाई जहाज, नमक-मिर्च से लेकर विदेशी कपड़े तक बिका करेंगे। सदियों से गांव में अपनी दुकान चला रहे माता बदल पंसारी की भट्ठी बुझाने और लोगों को लुभाने के लिए इस शॉपिंग मॉल का नाम जानते हो क्या रखा गया है...मदरचेंज शॉपिंग मॉल।’

रंगनाथ को उदास देखकर मैंन ढांढस बंधाते हुए कहा था, ‘रंगनाथ भाई! ये कंपनियां चाहे जो कुछ बेचें, लेकिन ये कंपनियां माता बदल पंसारी की तरह सौदा खरीदने गए बच्चों को ‘घातू’ (सौदा खरीदने गए बच्चों को दुकानदार की तरफ से दिया जाने वाला एक कंपट, भेली का एक टुकड़ा या एक बिस्कुट) तो नहीं देंगी न! तुम देखना, गांव के बच्चे घातू की लालच में इन कंपनियों की बड़ी-बड़ी दुकानों की ओर मुंह नहीं करेंगी। उन्हें घातू खाने की आदत जो पड़ गई है।’ लेकिन आज सुतंतरता को पिटने के बाद भी कुरकुरे खाने की जिद पर अड़ा देखकर मुझे लगा कि शायद मैं गलत सोच रहा था। मैंने रोती सुतंतरता को दस रुपये का नोट पकड़ाया और आगे बढ़ गया।

जुलाहे से लट्ठम लट्ठा


-अशोक मिश्र

लाला लक्ष्मी दयाल इंटर कालेज में दसवीं कक्षा की हिंदी विषय की अर्धवार्षिक परीक्षा में एक सवाल पूछा गया था, ‘सूत न कपास, जुलाहे से लट्ठम-लट्ठा’ मुहावरे का उदाहरण सहित अर्थ बताओ। इस स्कूल के एक होनहार छात्र ने मुहावरे का अर्थ बताते हुए उदाहरण दिया। भारत के किसी गांव में दो बुजुर्ग गप्प गोष्ठी जमाए बैठे थे। एक बुजुर्ग ने तंबाकू मलकर होठों के नीचे दबाने के बाद पिच्च से जमीन पर थूकते हुए कहा, ‘रामबचन! तुम यह समझो कि केजरीवाल के प्रधानमंत्री बनने की देर है, बस। इधर वे प्रधानमंत्री बने कि हम लोगों के दुख-दलिद्दर समझो दूर हो गए। गांधी बाबा (महात्मा गांधी) तो सुराज (स्वराज्य) ही लाए थे, ये तो सुराज और क्रांति दोनों ला रहे हैं। एक दवा से काम न चले, तो दूसरी दवा हाजिर है।’

रामबचन ने सिर पर बंधी पकड़ी उतारकर सिर खुजाते हुए कहा, ‘भुलावन भाई! सुराज और क्रांति सब भ्रमजाल हैं। आजादी से पहले गांधी बाबा के सुराज का बड़ा हल्ला था। आजादी तो आई, लेकिन सुराज पता नहीं कैसे रास्ता भटककर अमीरों के घर पहुंच गया और उनके घर की पहरेदारी करने लगा। जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने कहा कि वे देश की गरीब जनता के लिए ‘समाजवाद’ ला रहे हैं। वे पता नहीं कैसा समाजवाद लाए कि गरीबों की दुर्गति हो गई। उनकी बेटी ने जब गद्दी संभाली, तो ‘गरीबी हटाओ’ नारे की ओट में वे गरीबों को ही हटाने लगीं। गरीब-गुरबा त्राहि-त्राहि कर उठे। गरीबों की दुर्दशा देखकर जेपी बाबू बिलबिला उठे। उन्होंने कहा कि अब गरीबी हटाओ से काम नहीं चलेगा, संपूर्ण क्रांति करनी होगी। लेकिन भाग्य फेर देखो, कुछ दिन आंदोलन चलाने के बाद उनकी संपूर्ण क्रांति साबुन के झाग की तरह न जाने कहां बिला गई। इसके बाद बड़े-बड़े दार्शनिक आए, विचारक आए, संत आए, महात्मा आए, निरहू आए, घुरहू आए, लेकिन सब बेकार। कभी नागनाथ प्रधानमंत्री बने, तो कभी सांपनाथ। सबने हमारे दुख-दलिद्दर को दूर करने की बीन बजाई,। हमारा दुख-दलिद्दर तो दूर नहीं हुआ, लेकिन उनकी सात पीढ़ियों का दुख-दलिद्दर जरूर दूर हो गया। सबने कहा कि गरीबी दूर करना हमारी पहली प्राथमिकता है, लेकिन पिछले साठ-पैंसठ साल से दो पीढ़ियां तो इसी भ्रमजाल में जीते-जीते बूढ़ी हो गईं। आज तक न सुराज आया, न संपूर्ण क्रांति हुई। हां, हम सबकी दुर्दशा जरूर हो गई। नोन, तेल, लकड़ी जुटाने में ही पूरी जिंदगी बिला गई।’

‘केजरीवाल अन्ना हजारे के चेले हैं, अन्ना हजारे अपने को गांधी बाबा का चेला कहते हैं। तुम देखना, राम बचन! गुरु गुड़ ही रहेगा, चेला शक्कर हो जाएगा। गांधी और अन्ना का यह चेला अपने गुरुओं से कहीं आगे जाएगा। हमने तो सुना है कि हिमालय पर्वत पर पिछले सौ साल से तपस्या कर रहा कोई योगी आया था, उसने केजरीवाल को कोई सिद्ध मंत्र दिया है जिसका जाप करते ही उसकी पार्टी के सारे उम्मीदवार दूध से धुल जाएंगे। उनके चरित्र पर कोई दाग नहीं रह जाएगा। भ्रष्टाचार की ओर तो वे आंख उठाकर नहीं देखेंगे। एक हफ्ता पहले जंतर-मंतर पर केजरीवाल को देखा नहीं, केंद्र सरकार पर कैसे गरज रहे थे। एकदम सुभाष बाबू की तरह।’ राम भुलावन ने जमीन पर पास रखी लाठी उठाकर पटकते हुए कहा,‘टीवी पर मैंने देखा था, जब वे बोल रहे थे, तो उनके सिर के चारों ओर एक आभा घूमती दिखाई दे रही थी। जैसे संतों-महात्माओं के होती थी पुराने जमाने में।’

‘भुलावन भाई! ये चेला ही तो सारी खुराफात की जड़ हैं। ऊंच-नीच करते खुद हैं और फोकट में बदनाम होते हैं उनके गुरु। तुमने देखा नहीं, गांधी के चेलों ने गांधी को किस तरह बेच दिया, मानो वे घर में फालतू पड़ी रद्दी हों। देखना एक दिन अन्ना के ये चेले अन्ना को भी बेच खाएंगे।’ रामबचन के इतना कहते ही राम भुलावन तमतमाकर उठ खड़े हो गए और लाठी हाथ में ले ली, ‘चोट्टे! तूने मेरे गांधी बाबा को रद्दी कहा। तू अपने आपको समझता क्या है? तेरी सारी मस्ती अभी झाड़ता हूं।’ इतना कहकर रामभुलावन ने रामबचन के सिर पर लाठी दे मारी। सिर से खून बहता देखकर राम बचन हलाल होते बकरे की तरह चिल्लाए, तो उनके बेटे घर से निकल आए और फिर गांव में दोनों पक्षों में जमकर लाठियां चलीं। कई लोगों के हाथ-पांव टूटे, सिर फूटे और पुलिस ने दोनों तरफ के दस-दस, बारह-बारह लोगों को गिरफ्तार कर लिया।