Thursday, November 26, 2015

गले पड़ गए गुनाहगार

अशोक मिश्र
केजरीवाल जी ने लाख टके की बात कही है। अब अगर कोई गले पड़ ही जाए, तो क्या किया जा सकता है। अब इसे विरोधी कुछ और समझते हैं, तो समझते रहें। सच बताऊं, मैं तो केजरीवाल जी की बात से सौ फीसदी नहीं, चार सौ बीस फीसदी सहमत हूं। अब कल का ही वाकया सुनाऊं। घरैतिन ने पांच सौ रुपल्ली थमाकर हजार रुपये का इस्टीमेट थमाकर कटरा बाजार भेज दिया। 
कटरा बाजार की सब्जी मंडी में मिल गए उस्ताद गुनाहगार। वे खरीद तो रहे थे आलू, लेकिन पता नहीं किसको चकर-मकर देखते जा रहे थे। तभी उनकी निगाह मुझ पर पड़ गई। मैंने भी संयोग से उन्हें देख लिया, तो चुपके से खिसक लेने की सोची। अपनी सोच को क्रियान्वित कर पाता कि उससे पहले वे लपके और मुझे गले लगा लिया। मैं भौंचक किसी मोम के पुतले की तरह उनके गले लगा रहा। आसपास सब्जी खरीदने वाले लोग और दुकानदार मुझे इस तरह देखने लगे, मानो बिहार के शपथ ग्रहण समारोह में दो विपरीत ध्रुव गले मिल रहे हों। 
अब आप बताइए, इसमें मेरी क्या गलती थी। यह मैं जानता हूं कि उस्ताद गुनाहगार एक निहायत शरीफ, रहम दिल और अपने पेशे के प्रति समर्पित पाकेटमार हैं। उनका दावा है कि उन्होंने कभी किसी महिला, बच्चे और गरीब की पाकेट नहीं मारी है। उनका दावा है कि यदि अंगुलियों में फंसी ब्लेड सलामत रहे, तो वे किसी की भी पाकेट मार सकते हैं। वैसे उनकी सबसे बड़ी ख्वाहिश प्रधानमंत्री जी का बटुआ मार कर बाद में उन्हें गिफ्ट करने का है। ऐसा करके वे अपनी प्रतिभा और कला से प्रधानमंत्री जी को प्रभावित करना चाहते हैं। शायद इसी बहाने 'मेक इन इंडिया' में उनके लिए कोई रोजगार मुहैय्या हो जाए।
जब से उस्ताद गुनाहगार मेरे गले पड़े हैं, लोग मुझे अविश्वास की नजर से देखने लगे हैं। सुबह ही पड़ोस में रहने वाले मेरे धुर विरोधी वर्मा जी मुझे सुनाते हुए अपनी पत्नी से कह रहे थे, सुनती हो! अब यह मोहल्ला शरीफों के रहने लायक नहीं रहा। अब तो ठग, उठाईगीर, पाकेटमार ही रहेंगे यहां। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि लोगों को कैसे समझाऊं? और लोग हैं कि समझने को तैयार ही नहीं हैं। http://epaper.amarujala.com/ac/20151127/08

Wednesday, November 25, 2015

रूसी भाषा में शपथ लूं, तो चलेगा?

-अशोक मिश्र
बंगाल में बड़े भाई को कहा जाता है दादा। ऐसा मैंने सुना है। उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में दादा पिताजी के बड़े भाई को कहते हैं। बड़े भाई के लिए शब्द 'दद्दा' प्रचलित है। समय, काल और परिस्थितियों के हिसाब से शब्दों के अर्थ बदलते रहते हैं। आज दादा का मतलब क्या है, यह समझाने की नहीं, समझने बात है। वैसे अब दादा का समानार्थी कहिए, पर्यायवाची कहिए, नेताजी हो गया है। मेरे गांव नथईपुरवा में रहते हैं मुसद्दी लाल। पहले वे दो-चार चेले-चपाटों के बल पर दादा बने, फिर नेता बन गए। कुछ रुतबा और ओहदा बढ़ा, तो ग्राम पंचायती का चुनाव लड़ गए। अपने चेले-चपाटों की दबंगई और मतदाताओं की कायरता की कृपा से वे जीत भी गए। वे जब भी मुझसे मिलते हैं, तो विनम्रता की साक्षात प्रतिमूर्ति बन जाते हैं। जिस दिन ग्राम पंचायत चुनाव का परिणाम निकला, तो उनके समर्थकों ने हवा में ही दनादन सौ-पांच सौ फायरिंग की और उन्हें कंधे पर उठा लिया। इससे पहले वे फूल-मालाओं से लादे जा चुके थे।
यह जुलूस जब गांव की सीमा में घुसा, तो संयोग से मैं अपने घर के बाहर बैठा गन्ना चूस रहा था। मुझे देखते ही मुसद्दी लाल अपने चेले-चपाटों के कंधे से कूद पड़े और लपककर साक्षात दंडवत प्रणाम किया। बोले, 'दादा..आप आशीर्वाद दीजिए, हम ग्राम पंचायत का चुनाव जीत गए हैं। यह बताइए, चुनाव जीतने के बाद शपथ-वपथ भी लेना पड़ेगा क्या?' मैंने फौरन से पेशतर जवाब दिया, 'हां..शपथ तो लेना ही होगा।' 
मुसद्दी लाल ने पूछा, 'हिंदी में लेना होगा या अंग्रेजी में?' मैंने कहा, 'नहीं जिस भाषा में आप चाहें..।' वे मेरी बात सुनकर मुस्कुराए, 'रूसी भाषा में शपथ ले सकता हूं?' मैंने कहा, 'हां ले सकते हो? लेकिन रूसी भाषा तुम्हें आती कहा हैं?' मुसद्दी लाल ने कान खुजाते हुए कहा, 'अरे...मुझे नहीं आती है, आपकी यह बात मैंने मान ली। लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि जो ससुरा शपथ-वपथ दिला रहा होगा, उसे भी रूसी आती ही होगी। बात यह है दादा...रूसी में अपेक्षित, उपेक्षित, सम्यक, संपर्क, संसूचित, सूचित जैसे शब्द तो नहीं होंगे न...। फिर रूसी में चाहे जो कुछ पढ़ लो, बोल दो, कौन जानेगा कि सही है या गलत। और फिर मन ही मन पढऩे का आप्शन भी तो होगा कि नहीं।'  
इतना कहकर मुसद्दी लाल ने अपने समर्थकों की ओर देखा, तो कुछ समर्थकों ने तालियां बजानी शुरू कर दी, तो कुछ जिंदाबाद के नारे लगाने लगे। लग रहा था कि हर कोई मुसद्दी लाल की निगाह में अपना नंबर बढ़ाना चाह रहा हो। थोड़ी देर लोगों के चुप होने का इंतजार किया, फिर मैंने कहा, 'मन ही मन शपथ पढऩे का आप्शन नहीं है। बोलना पड़ता है माइक के सामने। वैसे जोर से पढऩे या मन ही मन बोलने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। अब अगर आपने अपेक्षित को उपेक्षित पढ़ भी लिया, तो क्या फर्क पड़ेगा। आपके मतदाताओं की अपेक्षा होगी कि आप अपने इलाके का विकास करेंगे, लेकिन होगा यह कि आप उनके हितों की उपेक्षा ही करेंगे। सबसे पहले अपने हित देखेंगे कि लोगों के? आप रूसी, जापानी, अंग्रेजी का झंझट छोडि़ए। किसी अच्छे ट्यूटर का बंदोबस्त करके थोड़ी बहुत हिंदी लिखना पढऩा सीख लीजिए। शब्दों का सही-सही उच्चारण भी सीख लीजिए। आज पंचायती का चुनाव जीता है, कल विधायकी का भी जीत सकते हैं। अगर खुदा मेहरबान हो, तो गधा पहलवान हो ही जाता है। विधायकी जीत गए, तो कल सीएम, डिप्टी सीएम, मंत्री, संतरी कुछ भी बन सकते हैं। तब भी शपथ लेना ही पड़ेगा, तो क्यों न अभी से सारे कील-कांटे दुरुस्त कर लें।'
दोस्तो! मुझसे बस सलाह देने की यही गलती हो गई। मेरी बात सुनकर मुसद्दी लाल पसर गए। बोले, 'दादा..आपसे बेहतर कौन हिंदी पढ़ाएगा और देखिए..इनकार मत कीजिएगा।' अब पिछले पंद्रह दिन से मुसद्दी लाल को हिंदी पढ़ा रहा हूं। आंगन में मुसद्दी लाल कुर्सी डाल हिंदी पढ़ते हैं और उनके समर्थक हाथों में पिस्तौल-राइफल लिए घर को चारों ओर से तब तक घेरे रहते हैं, जब तक मुसद्दी लाल हिंदी पढ़कर चले नहीं जाते। कुपात्र को सलाह देने का नतीजा भुगत रहा हूं।

Wednesday, November 18, 2015

कुत्तों की कोई इज़्ज़त है कि नहीं?

अशोक मिश्र
सुबह सोकर उठा ही था कि घरैतिन ने नेताओं के चरित्र की तरह सड़े-गले नोट पकड़ाते हुए कहा, 'जरा दौड़कर बगल वाली गली से दूध का पैकेट लेते आइए। फिर आपको गर्मागर्म चाय पिलवाती हूं।' मैंने कहा, 'क्या यार! सुबह-सुबह चाय पिलाने की बजाय काम थमा रही हो। पहले चाय तो पिलाओ, आंख तो खुले, फिर ला दूंगा दूध।' 
घरैतिन ने हाथ नचाते हुए कहा, 'अगर घर में दूध होता, तो मुझे कोई शौक नहीं है आपसे दूध मंगाने का। एक पैकेट दूध लाने जाएंगे, दो पैकेट के पैसे गिरा आएंगे।' घरैतिन का ताना सुनकर मन मारकर मुझे घर से निकलना ही पड़ा। भुनभुनाते हुए घर से निकला ही था कि मोहल्ले भर की रोटियों पर पलने वाला एक मरियल सा कुत्ता 'पीलू' मुझ पर गुर्रा उठा, 'तुम कमीने हो, टुच्चे हो, गंदे हो..। वाहियात हो। नामाकूल हो।' मैं कुछ कहता, इससे पहले उसने अपनी बात में संशोधन किया, 'मेरा मतलब तुम नहीं..पूरी की पूरी मानव जाति..।' 
पीलू की बात सुनकर मेरे भीतर का इंसान जागा। एक तो घरैतिन ने पहले से ही मूड का कबाड़ा कर रखा था, उस पर पीलू का गुर्राना बर्दाश्त नहीं हुआ। मैं बोल उठा, 'अबे कुत्ते के पिल्ले, तेरी यह हिम्मत कि तू हम इंसानों को गाली दे। भला-बुरा कहे। तेरी औकात ही क्या है? हमारी ही रोटी पर पलता है और हम पर ही भौंकता है।' पीलू ने लंबी-सी जीभ लपलपाते हुए कहा, 'बस..यही तो..यही समझाना चाह रहा था कि जब किसी को गाली दी जाती है, तो उसे ऐसे ही बुरा लगता है। तुम इंसान अपने आप को समझते क्या हो? हर बात में हम कुत्तों की तौहीन करते रहते हो। हमारी भी कोई इज्जत है कि नहीं। आपको जब भी कोई गाली देनी होती है, हम कुत्ते ही आप इंसानों को क्यों सूझते हैं। अरे हम भी भगवान के बनाए हुए जीव हैं। हम तो नहीं जाते, तुम इंसानों को गाली देने। तुम्हारे नेता भी जब मुंह खोलते हैं, तो हम कुत्तों को ही गाली देते हैं। यह अच्छी बात तो नहीं है न।'
मेरे गुस्से का झाग पीलू की बात सुनकर थोड़ा-थोड़ा नीचे आने लगा था। पीलू ने पूछा, 'तुम्हें किसने पैदा किया है?' उसके इस सवाल पर हंसी आ गई, 'वैसे तो इस दुनिया का हर प्राणी अपने बाप की औलाद होता है, लेकिन कहते हैं कि हर प्राणी को ऊपर वाला यानी भगवान पैदा करता है।' पीलू की गुर्राहट अब कम होती जा रही थी, 'जिस भगवान ने हर प्राणी को पैदा किया है, उसमें हम कुत्ते आते हैं कि नहीं? तुम इंसान अपने आपको तुर्रम खां क्यों समझते हो? माना कि हम तुम्हारी तरह नहीं रह सकते, लेकिन हम जानवरों में न ईष्र्या है, न द्वेष है, न संपत्ति के लिए भाई-भाई का खून बहाने की ललक..न हम राजनीति करते हैं, न सत्ता के लिए कोई कर्म, धत्कर्म करते हैं। झूठ बोलना तो हमें आता नहीं। तुम्हारी दी गई रोटी पर पलते हैं, तो तुम्हारे घर की चौकीदारी भी करते हैं। हम तो सिर्फ भौंकते हैं, लेकिन तुम इंसान हर बात पर हम कुत्तों की तौहीन करते हो। तुम इंसान भले ही अपने आपको कुछ भी समझो, लेकिन दुनिया के बाकी प्राणियों से किसी मायने में ऊंचे नहीं हो। भोले और निष्पाप तो बिल्कुल नहीं। आज से यह हम कुत्तों की तुम इंसानों के लिए चेतावनी है कि हमारे नाम पर गालियां देना बंद नहीं किया और हम कुत्ते अपनी औकात पर आ गए, तो तुम इंसानों को कहीं ठिकाना नहीं मिलेगा। हर महीने रैबीज का इंजेक्शन लगवाते-लगवाते थक जाओगे, लेकिन हम काटने से नहीं थकेंगे। इस पर भी बात नहीं बनी, तो धरना-प्रदर्शन करेंगे।' इतना कहकर पीलू भौंकता हुआ कूड़े के ढेर पर कुछ खाने को तलाशने लगा। मैं पीलू की बात पर विचार करता हुआ खरामा-खरामा दूध की दुकान पर पहुंच गया कि यार पीलू बात तो सही कह रहा था।

एक पत्र पार्वती नंदन गणेश जी के नाम

अशोक मिश्र
आदरणीय पार्वती नंदन, सादर प्रणाम। मुझे विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि इस बार आप भूलोक पर दीपावली मनाने की सोच रहे हैं। तो भगवन! आपका दासानुदास होने के नाते सबसे पहली विनती तो यह है कि आप अपना यह कार्यक्रम तत्काल स्थगित कर दें। आपका भूलोक आना खतरे से खाली नहीं है। राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियां आपके आगमन के अनुकूल नहीं हैं। आप तो प्रथम पूज्य हैं, सर्वज्ञानी हैं, ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी हैं। आपको भूलोक आने की सलाह किस ने दी है। चलिए, थोड़ी देर के लिए मान लिया कि आप आ भी जाते हैं, तो क्या करेंगे? यहां इतना प्रदूषण है कि आपका सांस लेना भी मुश्किल हो जाएगा। कहां कैलाश और स्वर्गलोक का प्रदूषणरहित वातावरण और कहां इतना प्रदूषित वातावरण कि सांस लेना भी मुश्किल। वह तो भगवन हम लोग हैं, जो इस प्रदूषण के आदी हो चुके हैं। अब तो अगर कभी भूल-चूक से ऐसी जगह पहुंच जाते हैं, जहां प्रदूषण का स्तर कम हो, तो बेचैनी सी होने लगती है। पूरे देश में सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर दिल्ली में भी हमें कोई दिक्कत नहीं होती है। हां, यह सोचकर कभी-कभी मन घबरा जाता है कि यदि कल सरकार ने दिल्ली को प्रदूषण मुक्त बनाने की ठान ली, तो लाखों-करोड़ों लोग बिना प्रदूषण के वैसे ही मर जाएंगे।
भगवन! एक भक्त हूं और भक्त अपने भगवान को मुसीबत में देख सकता है भला! मान लिया कि आप मेरे घर आएं, मैं आपको आपका प्रिय मोदक भी तो नहीं खिला सकूंगा। मोदक के नाम पर जो कुछ बेचा जा रहा है, वह मोदक नहीं, कुछ और ही होता है। उसमें न चीनी होती है, न बेसन होता है, न घी या वनस्पति तेल होता है। सब कुछ सिंथेटिक होता है। गणेश जी! मुझे नहीं मालूम कि इससे पहले आप कब पृथ्वी पर आए थे, लेकिन आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि अब भारत में दूध-दही और घी की नदियां नहीं बहती है। यहां तो अमीर अपने खेतों में उगाई गई सब्जियां, अनाज, फल और अपने फार्म में पाली गई गाय-भैंसों का दूध, दही और घी उपयोग में लाते हैं। बाकी 98 प्रतिशत जनता तो सिंथेटिक का उपयोग करती हैं। सिंथेटिक दूध, सिंथेटिक दही, सिंथेटिक पनीर, सिंथेटिक घी। और तो और भगवन...अब तो चीन देश की कृपा से प्लास्टिक के चावल, गेहूं, दालें ही हमारा आहार हैं। सब्जियों और फलों का तो पूछिए नहीं। अब आप ही सोचिए, अगर आप भूले-चूके मुझ जैसे किसी  गरीब की कुटिया में पहुंच गए और उसने अपना आतिथ्य धर्म निभाया, तो क्या होगा? यह सब चीजें खाने के बाद आपके पेट में जो परमाणु बम की तरह के 'गुडुम-गुडुम..ठुस्स..फुस्स' की आवाज करते हुए विस्फोट होंगे, उसको कितनी देर झेल पाएंगे?
और पार्वती नंदन, अगर आप इन स्थितियों से न भी गुजरें, तो दूसरे किस्म का खतरा आपके सिर पर मडंराएगा। आप देवाधिदेव भगवान शंकर के पुत्र हैं। आप 'श्री' यानी 'लक्ष्मी' जी के साथ दीपावली के दिन विराजते हैं। आप सिर से लेकर पांव तक आभूषण से लदे-फंदे रहते हैं। भगवान भला करे, अगर कहीं किसी पुलिसवाले से टकरा गए, तो सबसे पहले वह थाने ले जाएगा।  कुछ पुरानी फाइलें तलाशी जाएंगी और उन फाइलों में चोरी गई जेवरात से आपके जेवर मिलाए जाएंगे और फिर..भगवन! आगे आप सोच सकते हैं। अगर इससे भी बच गए, तो तमाम लफड़े हैं। इनकम टैक्स, सेल्सटैक्स, ईडी, ऊडी जैसे न जाने कितने विभाग हैं, जिनकी गिरफ्त में एक बार आए, तो फिर भगवन ये आपका पीछा कैलाश तक नहीं छोडऩे वाले हैं। तो हे प्रथम पूज्य गौरी सुत गणेश! आपसे यही प्रार्थना है कि आप फिलहाल इस बार आना कैंसिल करें और अगर स्थितियां सामान्य होती हैं, तो फिर मैं पत्र लिखकर सूचित करूंगा। आपका परमभक्त और कृपाकांक्षी-उस्ताद गुनहगार।

Wednesday, November 4, 2015

चरित्र पर तो नहीं पुती कालिख!

-अशोक मिश्र
जब मैं उस्ताद गुनाहगार के घर पहुंचा, तो वे भागने की तैयारी में थे। हड़बड़ी में उन्होंने शरीर पर कुर्ता डाला और उल्टी चप्पल पहनकर बाहर आ गए। संयोग से तभी मैं पहुंच गया, अभिवादन किया। उन्होंने अभिवादन का उत्तर दिए बिना मेरी बांह पकड़ी और खींचते हुए कहा, 'चलो..सामने वाले पार्क में बैठकर बतियाते हैं। अभी घर में ठहरना उचित नहीं है।' मैं भौंचक..ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। जब भी घर गया, तो उन्होंने बड़े प्यार और आदर से घर में बिठाया, चाय-नाश्ते की तो बात ही छोडि़ए, बिना खाना खिलाए आने ही नहीं दिया। अब तो हालत यह है कि जब भी मैं उनके घर आता हूं, घरैतिन मान लेती हैं कि मैं खाना खाकर ही आऊंगा। मगर आज..एक अजीब सी हड़बड़ी में थे। खैर...मैं भी उनके साथ हो लिया। 
पार्क में पहुंचकर उन्होंने तीन-चार बार खूब गहरी सांस ली, मानो प्राणायाम कर रहे हों। थोड़ी देर बाद बोले, 'उफ...बाल-बाल बच गया!' उनकी बात सुनकर मैं घबरा गया, 'क्या बात कह रहे हैं भाई साहब? कोई हादसा हुआ था क्या? कहीं चोट-वोट तो नहीं लगी?'
उन्होंने पार्क में बनी सीमेंट की बेंच पर बैठते हुए कहा, 'अरे यार..चोट-वोट की बात नहीं है। इसकी कभी परवाह की है मैंने? तुम बात को इस तरह समझो कि आज तमाशा बनने से बच गया। तमाशा बनता तो अखबारों में फोटू-शोटू छपता, चेले-चपाटे कहते कि उस्ताद का मुंह काला हो गया। मुंह काला हो जाता, तो किसी को क्या मुंह दिखाता?' बात की पूंछ मेरी पकड़ में नहीं आ रही थी। मैंने उकताए स्वर में कहा, 'उस्ताद! बात क्या है? साफ-साफ बताइए, वरना मैं चला।'
गुनाहगार सामने देखते हुए खोये-खोये से अंदाज में बोले, 'यार क्या बताऊं? मैंने कभी तुम्हारी भाभी के खिलाफ बयान भी नहीं दिया। पिछले चार-पांच हफ्तों से कोई ऐसी-वैसी हरकत भी नहीं की, पिछले शनिवार को जब साली आई थी, तो उससे भी ज्यादा लप्पो-झप्पो नहीं की। फिर क्यों मुंह पर कालिख पोतना चाहती है?' मैंने उस्ताद गुनाहगार की बांह पकड़कर झिंझोड़ते हुए कहा, 'मामला क्या है? कैसी कालिख, कैसा मुंह? यह क्या गड़बड़झाला है, उस्ताद?'
उस्ताद गुनाहगार झिंझोड़े जाने से सहज हो गए। बोले, 'यार! यही तो..यही गुत्थी तो पिछले चार घंटे से सुलझा रहा हूं। एक सिरा सुलझता है, तो दूसरा उलझ जाता है। यह गुत्थी न होकर भारत-पाक सीमा विवाद हो गया। दोनों सीमा पर फायरिंग करते हैं, फिर बातचीत का सिलसिला शुरू होता है, लगता है कि बस..बस समस्या सुलझने वाली है और फिर एकाएक कोई पेच फंस जाता है और वार्ता टूट जाती है। फिर सीमा पर गोली-बारी शुरू हो जाती है।' 
उस्ताद की बात सुनकर मैंने माथा पीट लिया, 'अरे उस्ताद! इस बात की क्या गारंटी है कि भाभी जी ने स्याही आपके मुंह पर पोतने के लिए मंगाई है। हो सकता है किसी दूसरे काम के लिए मंगाया हो। और फिर..मुंह पर आपके अगर कालिख पुत ही जाएगा, तो क्या हो जाएगा! बस, चरित्र पर कालिख नहीं पुतनी चाहिए। चेहरा काला हो, तो चलेगा, लेकिन चरित्र काला हो, तो नक्को...कतई नहीं चलेगा। आजकल जो चेहरे पर कालिख पोतने का फैशन चल निकला है न, वह फितूर है इंसान के दिमाग का। मैं जानता हूं, आपका चरित्र इस देश के नेताओं से कहीं ज्यादा उजला है।' 
मेरी बात से उस्ताद गुनाहगार का आत्मविश्वास लौट आया, कहने लगे, 'यार! तुम तो जानते हो, मैं पाकेटमार हूं। लेकिन कभी किसी गरीब, बेबस और ईमानदार का पाकेट नहीं मारा। महिलाओं और बच्चों की जेब पर मेरी ब्लेड कभी नहीं चली। आज जब बीवी को स्याही मंगाते सुना, तो मैं डर गया और घर से भाग खड़ा हुआ।' 
तभी गुनाहगार के पड़ोसी वर्मा का बेटा एक डिब्बा लिए हुआ आया और बोला, 'अंकल.. यह स्याही का डिब्बा आंटी ने तिवराइन आंटी के यहां दे आने को कहा है। तिवराइन आंटी के स्कूल में हो रहे एक नाटक में भाग लेने वाले बच्चों के चेहरे पर यह स्याही पोती जाएगी।' इतना कहकर और डिब्बे को गुनाहगार के हाथों में थमाकर वह रफूचक्कर हो गया। हम दोनों बेवकूफों की तरह उस बच्चे को जाता हुआ देखते रहे।