Wednesday, April 13, 2011

पलटासन के फायदे

अशोक मिश्र
एक राजनीतिक पार्टी का प्रशिक्षण शिविर चल रहा था। पार्टी अध्यक्ष घपलानंद अपनी पार्टी के नवांकुरों को समझा रहे थे, ‘राजनीति में पलटासन का विशेष महत्व है। चर्चा में बने रहने के लिए कोई विवादास्पद बयान दो और बाद में जब मामला तूल पकड़ जाए, तो पलट जाओ। आपके पलट जाने पर एक बार फिर मामला गर्माएगा और यह गर्माहट आपको एक बार फिर चर्चा में ला देगा। आपकी छवि और निखर कर जनता के सामने आ जाएगी। इस पलटासन का एक फायदा यह भी होता है कि लोग कन्फ्यूज हो जाते हैं। उन्हें पता नहीं लग पाता कि आपने जो पहले बयान दिया था, वह सही था या आपके पलटने के बाद दिया गया बयान। आप इस कन्फ्यूजन को अपनी पार्टी के हित में उपयोग कर सकते हैं।’

एक छुटभैये नेता ने सवाल दागा, ‘सर, भारतीय राजनीति के संदर्भ में उदाहरण देते हुए समझाइए, ताकि हम लोग इस आसन को अच्छी तरह से आत्मसात कर सकें।’

घपलानंद उस नेता की बात सुनकर मुस्कुराये और बोले, ‘अब देखो, योग गुरु ने लोकपाल बिल प्रारूप कमेटी में भाई-भतीजावाद का मुद्दा उछाला और बाद में जब थुक्का-फजीहत हुई, तो वे पलट गए। कपिल सिब्बल पलटासन के बेहतरीन उदाहरण हैं। पाकिस्तान क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान शाहिद अफरीदी, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी भी पलटासन में काफी माहिर हैं। अभी कुछ दिन पहले ये लोग भारत में रहे, भारत का अन्न खाते रहे, तब तक तो भारत उनके लिए बहुत अच्छा था। लेकिन जैसे ही उनके पेट में पाकिस्तानी अन्न पहुंचा, उन्हें भारत के लोग तंगदिल और खुरपेंची नजर आने लगे। इनसे हर राजनीतिक दल के नेता को पलटासन सीखना चाहिए। वैसे तो भारतीय राजनीति का हर बड़ा नेता अपने जीवन में कभी न कभी विवादास्पद बयान देता और बाद में पलट जाता है।’

एक दूसरे नवांकुर ने उत्सुकता जाहिर की, ‘अगर पलटासन फेल हो जाए, तो फिर क्या किया जाए?’
पार्टी अध्यक्ष ने खैनी रगड़कर होंठों के नीचे दबाते हुए कहा, ‘वैसे तो पलटासन के फेल होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। लेकिन अगर थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि विशेष काल परिस्थितियों में पलटासन बेअसर साबित होता है, तो बिगड़ी बात को संभालने के लिए कुतर्कासन, मीडिया आरोपासन, चुप्पासन, ढीठासन जैसे कई उपाय हैं जिनका प्रयोग कर विषम परिस्थितियों से निपटा जा सकता है। इन आसनों के बारे में आप लोगों को कल बताया जाएगा, तब तक आप लोग एक दूसरे को विरोधी मानकर खूब कीचड़ उछालिए और पलटासन का अभ्यास कीजिए।’ इतना कहकर अध्यक्ष जी ने प्रशिक्षण शिविर कल तक के लिए स्थगित कर दिया।

Sunday, April 10, 2011

बीवी-बेटे की रिश्वतखोरी भी रुकेगी?

अशोक मिश्र

मैं गहरी निद्रा में था। अपनी एक अदद बीवी की निगाह बचाकर देर रात तक ऐसे-वैसे चैनल देखने के बाद सोया था। सुबह नौ बजे बीवी ने पीठ पर एक धौल जमाते हुए कहा, ‘उठिये...सत्य की जीत हो गई। अन्ना दादा देश से भ्रष्टाचार खत्म करने में सफल हो गए।’ मैं चौंक गया। मुझे लगा कि कहीं भूकंप आया है और घरैतिन बचने के लिए कह रही हों। मैं हड़बड़ाकर उठ गया। मैंने कहा, ‘अरे हुआ क्या? सुबह-सुबह पंचम सुर में काहे को अलाप ले रही हो। कौन सा पहाड़ टूट पड़ा है या भूकंप आया है।’

बीवी ने उत्साहित होकर बताया, ‘यह अखबार देखो, सरकार ने कह दिया है कि वह आगामी लोकसभा सत्र में जन लोकपाल विधेयक को पेश कर देगी। विधेयक मंजूर होते ही समझो भ्रष्टाचारियों के दिन। फटाफट नहा-धो लो, मंदिर चलना है। मैंने मनौती मानी थी कि यदि अन्ना दादा सफल होते हैं, तो मैं मंदिर में 51 रुपये का प्रसाद चढ़ाऊंगी।’ यह सुनते ही मैं चौंक गया। मेरे मुंह से यकायक निकला, ‘हे भगवान! भ्रष्टाचार खत्म होने की खुशी में भगवान को रिश्वत। चलो थोड़ी देर के लिए मान लिया कि इस देश में जन लोकपाल विधेयक पारित होकर कानून बन गया। लेकिन क्या बात-बात में भगवान को घूस देने की इस सनातनी परंपरा पर अंकुश लगाया जा सकेगा?’ यह बात वैसे तो मैंने बहुत धीमें सुर में कही थी, लेकिन घरैतिन के कानों का एंटीना कुछ ज्यादा ही सेंसटिव था। उसने तुरंत मेरी बात को कैच कर लिया और नतीजा यह हुआ कि घरैतिन ने तुरंत मुंह फुला लिया। मुझे लगा कि आज का चाय नाश्ता ही नहीं, खाना-पानी भी कट। मैंने खुशामदी लहजे में कहा, ‘अरी भागवान! यह तो मैंने मजाक किया था। आज तुम कुछ ज्यादा ही खूबसूरत लग रही हो, इसलिए।’

घरैतिन नहीं मानी। तो सहायता के लिए आठ वर्षीय बेटे टुन्नू को पुकारा। मामला जैसे ही उसकी समझ में आया, वह किसी रिश्वतखोर बाबू की तरह कुटिलता से मुस्कुराया और बोला, ‘आपने कुछ दिन पहले मुझसे वायदा किया था कि खिलौने खरीदने के लिए पांच सौ रुपये देंगे। लेकिन इस बात को आप महिला आरक्षण विधेयक की तरह लटकाते आ रहे हैं। यदि आप अपने वायदे पूरा करें, तो मैं मम्मी को समझाने का प्रयास करूं।’ बेटे की बात पूरी हुई भी नहीं थी कि बेटी भी बीच में कूद पड़ी। उसने कहा, ‘हां पापा...आप मामले को टरकाने में काफी उस्ताद हैं। आप अपना मतलब निकालने के लिए वायदा तो करते हैं और मतलब निकल जाने पर भूल जाते हैं। आप अपना पिछला वायदा पूरा करने की हामी भरें, तो मैं भी प्रयास करूं।’ ‘मरता क्या न करता’ वाली हालत से मैं दो-चार हो रहा था। बीवी को मनाना था, सो एक बार आश्वासन रूपी ब्रह्मास्त्र आजमाने की सोची। मैंने कहा, ‘ठीक है, आप लोग जो कहेंगे, वह पूरा करूंगा। लेकिन उससे पहले तुम्हारी मम्मी चाय-नाश्ता तो दें। पेट में चूहे कूद रहे हैं।’

बेटे ने कुशल अभिनेता की तरह हाथ नचाते हुए काह, ‘नहीं पापा...इस बार आश्वासन की चासनी हम लोग नहीं चाटने वाले। पहले आप एक हजार रुपये निकालिए, तब कोई बात होगी।’ मजबूरन मुझे अपनी टेंट ढीली करनी पड़ी। रुपया पाते ही भाई-बहन कोपभवन की ओर भागे। थोड़ी देर बाद बेटे ने आकर बताया,‘मम्मी...शाम को मंदिर चलकर भगवान को प्रसाद चढ़ाने को तैयार हैं, लेकिन अभी आपको बाजार जाकर वह साड़ी लानी होगी जिसे पिछले हफ्ते पैसे की कमी का रोना रोकर आप मम्मी को टरका चुके हैं।’

मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘हे भगवान! यह घर-घर में हो रही रिश्वतखोरी कब रुकेगी? इसके खिलाफ भी कोई बिल संसद में पेश होगा या नहीं?’ इतना कहकर मैंने हाथ-मुंह धोया और साड़ी लाने के लिए निकल पड़ा।

Saturday, April 9, 2011

अब चाहिए जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार



अशोक मिश्र

भ्रष्टाचार को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर 97 घंटे तक अनशन करने वाले अन्ना हजारे की सदिच्छा पर शायद ही किसी को कोई अविश्वास हो। उन पर कभी किसी आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप शायद ही लगे हों और यदि लगे भी हों, तो उस पर किसी ने विश्वास नहीं किया होगा क्योंकि अन्ना हजारे ने हमेशा कुछ करके दिखाने में विश्वास किया है, बयानबाजी करने में नहीं। उन्हें जहां भी लगा कि गलत हो रहा है, उसका मुखर विरोध किया। इसके लिए कभी अपने-पराये का भेद भी नहीं किया। शायद यही वजह है कि जब उन्होंने जन लोकपाल विधेयक पारित कराने की मांग को लेकर जंतर-मंतर पर प्रदर्शन का फैसला किया, तो पूरा देश उनके साथ उठ खड़ा हुआ। लेकिन अब जब उन्होंने केंद्र सरकार के आश्वासन पर अपना अनशन तोड़ दिया है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जिस उद्देश्य को लेकर उन्होंने अनशन किया और जिसे पूरे देश का भरपूर समर्थन मिला, वह उद्देश्य पूरा होगा? सरकार ठीक वैसा ही लोकपाल विधेयक संसद में पेश करेगी, जैसा अन्ना हजारे और देश की आम जनता चाहती है, इसकी क्या गारंटी है। और संसद इस विधेयक को पास भी कर देगी, इसको लेकर आश्वासन देने की स्थिति में शायद कोई नहीं है। थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि ड्राफ्ट कमेटी के सदस्य अन्ना हजारे द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक की मूल अवधारणा से छेड़छाड़ नहीं करेंगे। लेकिन इस भ्रष्ट लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसे पास कराना सबसे टेढ़ी खीर होगी।...कहीं इस विधेयक का हश्र महिला आरक्षण विधेयक जैसा ही तो नहीं होगा। जिस तरह दबाव में आकर सरकार ने अन्ना समर्थकों की सभी मांगों को स्वीकार किया है, उससे तो यही लगता है कि वह फिलहाल मसले को कुछ दिनों के लिए टालकर अपने लिए राहत की जुगाड़ में थी। उसने ड्राफ्ट कमेटी में सरकारी और गैर सरकारी सदस्यों की बराबर संख्या की बात भी मान ली है। लेकिन जिस तरह अन्ना हजारे समर्थकों ने आनन-फानन सरकार की बात मान ली है, उससे यह शक पैदा होता है कि कहीं वाहवाही लूटने के लिए तो नहीं जनता के उन्माद और जोश का इस्तेमाल किया गया।

हालांकि अन्ना हजारे ने सरकार के झुकने और लोकसभा में विधेयक पेश करने के आश्वासन को आम जनता की जीत बताते हुए कहा कि अब हमारी जिम्मेदारी बढ़ गई है। बिल का मसौदा तैयार करना और उसे मंत्रिमंडल में पास कराना अभी बाकी है। बिल को लोकसभा में पास करवाना भी एक बड़ा काम है। जब तक सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं होता, भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा।

इस पूरे प्रकरण में सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात पर कुछ ही लोगों ने ध्यान दिया होगा और वह था अन्ना हजारे के समर्थन में देहरादून में प्रदर्शन करने वाले विख्यात पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा और उनके साथियों द्वारा लिया गया एक पोस्टर जिसमें लिखा था कि पूंजीवादी व्यवस्था में भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है। इस पोस्टर का निहितार्थ यह हुआ कि जब तक मुनाफे पर आधारित बिकाऊ माल की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था रहेगी, तब तक भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा। जो व्यवस्था मुनाफा कमाने की इजाजत देती हो, उस व्यवस्था से रिश्वतखोरी, लूट, शोषण-दोहन खत्म हो जाएगा, इसकी कल्पना करना बुद्धिमानी नहीं होगी। शायद सुंदरलाल बहुगुणा और उनके साथियों को इस बात का पूरा विश्वास है कि पंूजीवादी संसदीय जनतंत्र भ्रष्टाचार की गंगोत्री है। और इस गंगोत्री के रहते किसी भी दल या राजनेता के पाक-साफ रहने की गुंजाइश बहुत ही कम है। इस पूरी व्यवस्था का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें, तो पता लगता है कि किसी वस्तु के उत्पादन प्रक्रिया में मुनाफा तभी पैदा होता है, जब उत्पादन कार्य में लगे श्रमिकों को उनकी वाजिब मजदूरी से कम दी जाए या उनसे दी गई मजदूरी के बदले ज्यादा समय तक काम लिया जाए।

अब जब भ्रष्टाचार के खिलाफ एक जागरूकता लोगों में पैदा हो ही गई है, तो ऐसे में उचित तो यह होगा कि जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का विधेयक पारित कराने का दबाव भी सरकार पर बनाया जाए। वैसे तो इस व्यवस्था में जब तक किसी मंत्री, सांसद या नौकरशाह पर आरोप नहीं लगता या उसके द्वारा किए गए भ्रष्टाचार का खुलासा नहीं होता, तब तक तो वह ईमानदार ही माना जाता है। लेकिन यदि किसी कारणवश उसके घपलों और घोटालों का पर्दाफाश हो भी जाए, तो वह बड़ी बेशर्मी से इसे विरोधियों द्वारा बदनाम करने की बात कहकर पहले तो अपने कुकृत्य को नकारने का प्रयास करता है। इस पर भी यदि बात नहीं बनी, तो सरकार या पार्टी उस व्यक्ति को सरकार या पार्टी से निकालकर मामले की लीपापोती में लग जाती है। कामनवेल्थ गेम्स घोटाले का खुलासा होने से पहले सुरेश कलमाडी ईमानदार नहीं माने जाते थे क्या? 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले का पर्दाफाश होने से पहले तो ए. राजा भी सीना ठोंककर अपने को ईमानदारों की श्रेणी में रखते थे। यह बात किसी व्यक्ति या राजनीतिक पार्टी विशेष पर लागू नहीं होती। यह बात इस पूरी पूंजीवादी व्यवस्था पर लागू होती है जो शोषण पर आधारित है।
सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि ड्राफ्ट कमेटी के सदस्यों में शामिल सरकारी और गैर सरकारी सदस्य किसी भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं रहे हैं, इसकी गारंटी कौन लेगा। चलिए थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए, जनलोकपाल विधेयक पारित भी हो जाएगा और तब? इस व्यवस्था को देखने के लिए जो लोग जिम्मेदार होंगे, वे दूध के धुले होंगे, इसकी भी गारंटी शायद ही कोई लेने को तैयार हो। जब तक शोषण पर आधारित व्यवस्था का खात्मा नहीं होता, तब तक के लिए सिर्फ इतना ही किया जा सकता है कि जन लोकपाल विधेयक के साथ ही जनता अपने जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार भी मांगे। जब तक जनप्रतिनिधियों पर यह तलवार नहीं लटकती रहेगी कि यदि उन्होंने कोई घपला-घोटाला किया, तो जनता न केवल उनसे पद छीन लेगी, वरन उन्हें लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा से वापस बुला लेगी। उन पर जनता की अदालत में मुकदमा चलेगा, वह अलग से। यही बात नौकरशाही के संबंध में भी लागू होनी चाहिए। एक बार अपनी पढ़ाई और योग्यता के बल पर चुने गये नौकरशाह को तभी हटाया जा सकता है, जब उसके खिलाफ पूरी तरह साबित हो जाए कि वह भ्रष्ट है या किसी गैरकानूनी कार्यों में लिप्त रहा है। लेकिन ऐसा होने का उदाहरण शायद ही कोई हो, जब किसी नौकरशाह को भ्रष्टाचार के आरोप में नौकरी से हाथ धोना पड़ा हो।

Tuesday, April 5, 2011

रिश्वत बिना सब सून


-अशोक मिश्र


‘भाई साहब! यह अन्ना हजारे क्या बला है?’ कल पीडब्ल्यूडी का एक जूनियर इंजीनियर खन्ना मुझसे पूछ रहा था। ‘भल बताइए, यह भी कोई बात हुई। भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन पर बैठ गए।’ मैंने उसकी बुद्धि पर तरस खाते हुए कहा, ‘अन्ना हजारे एक बहुत बड़े सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनकी हनक इतनी है कि मुंबई का बड़े से बड़ा दादा और भाई रोज सुबह शाम पांव छूने आते हैं। केंद्र सरकार तक उनकी ईमानदारी और साफगोई की कसमें खाती है।’ ‘तो इसका मतलब अन्ना हजारे सामाजिक क्षेत्र के दादा हैं, ठीक वैसे ही जैसे आपराधिक क्षेत्र के दादा अपने दाऊद भाई हैं।’ जूनियर इंजीनियर ने अपना ज्ञान बघारा। मैं कुछ बोलता, इससे पहले खन्ना बोल उठा, ‘ यह बताओ, उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन पर बैठने की क्या जरूरत थी। अगर दाल या सब्जी में से नमक गायब कर दिया जाए, तो दाल या सब्जी कैसी लगेगी। बिल्कुल फीकी, स्वादहीन। इसे खाने में मजा आएगा? अब अगर कोई कहे कि इस दुनिया से सभी रंगों को गायब कर दो, तो दुनिया कैसी लगेगी। रंगहीन दुनिया की कल्पना करके देखो, पसीने छूट जाएंगे। ठीक ऐसे ही कल्पना करो कि इस देश-दुनिया से भ्रष्टाचार खत्म हो गया है, तो फिर क्या इस दुनिया में जीना पसंद करेगा। भ्रष्टाचार खत्म होते ही हम सबके जीने का मकसद ही खत्म हो जाएगा।’ मैंने प्रतिवाद किया, ‘अन्ना दादा जो कुछ कर रहे हैं, वह राष्ट्रहित में है। भ्रष्टाचार खत्म होते ही देश के विकास की गाड़ी पटरी पर दौड़ने लगेगी। सब तरफ खुशहाली और अमीरी छा जाएगी। यह तुम क्यों नहीं सोचते।’ ‘अरे, विकास की गाड़ी दौड़ाने के लिए और भी तो कई रास्ते हैं। उस पर तुम्हारे ये अन्ना दादा चाहे रेलगाड़ी चलाएं, चाहे ट्रक। किसी ने रोका है उन्हें। लेकिन वे हम लोगों के पेट पर लात क्यों मारते हैं। अगर भ्रष्टाचार खत्म हो गया, तो क्या हम-आप जैसे लोग अपने बच्चों को महंगे-महंगे स्कूलों में पढ़ा सकेंगे। उन्हें ऐश करने के लिए ढेर सारे पैसे और मोटर बाइक आदि कहां से लेकर दे पाएंगे। सूखी तनख्वाह से तो दाल-रोटी चल जाए, यही बहुत है। यह बताओ, अन्ना हजारे अपने को गांधीवादी कहते हैं, लेकिन गांधी जी ने तो कभी भ्रष्टाचार का विरोध नहीं किया। अरे, गांधी बाबा तो अपनी बकरी को भी मेवे खिलाते थे, ताकि वह उन्हें बदले में पौष्टिक दूध दे। वे कभी भ्रष्टाचार या रिश्वतखोरी के खिलाफ अनशन पर नहीं बैठे। यदि वे रिश्वतखोरी को बुरा समझते, तो विरोध कर सकते थे। लेकिन उन्होंने कभी इसका विरोध किया हो, ऐसा कहीं लिखा नहीं है।’ मैं कुछ कहता, इससे पहले खन्ना ने अपनी बाइक उठायी और चलता बना। मैं वहीं खड़ा उसकी बातो पर गौर करता रहा।

Monday, April 4, 2011

सारा गुड़ गोबर कर दिया

अशोक मिश्र

‘पता नहीं किस का शेर है कि ‘बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, चीरा तो कतरा-ए-खूं निकला।’ पिछले कई महीनों से वर्ल्ड कप भारत जीतेगा, शाबाश धोनी के धुरंधरों, देश की आन, बान-शान...और पता नहीं क्या-क्या तुम्हीं हो, तुम्हें अट्ठाइस साल पुराना इतिहास दोहराना है। जैसे-जैसे नारे सुनते-सुनते कान पक गए थे। अखबार से लेकर टीवी चैनल तक चीख-चीख कर चिल्ला रहे थे। इस बार विश्व कप हमारा है, हम जीत कर रहेंगे। कोई चैनल वाला इसे महामुकाबला बता रहा था, तो कोई महायुद्ध। और अब, जब यह महामुकाबला जीत लिया, तो आईसीसी वालों की नालायकी देखिए, नकली ट्राफी थमा दी। हद हो गयी यार...सारा गुड़ गोबर कर दिया।’ यह कहते मुसद्दी लाल का चेहरा क्रोध से काला पड़ गया।

मैंने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘ट्रॉफी ट्रॉफी होती है, असली या नकली से कोई फर्क नहीं पड़ता। अब आपको बताऊं। मेरा बेटा है टुन्नू। जब वह हवाई जहाज लेने की जिद करता है तो क्या उसे मैं असली हवाई जहाज खरीद कर देता हूं। प्लास्टिक का एक खिलौना हवाई जहाज खरीदता हूं और पकड़ा देता हूं। आपने अपने बच्चे को इसी तरह बहलाया होगा, तो आपको मालूम ही होगा कि वह कितना खुश हो जाता है। वह नाचने लगता है। कभी वह दौड़कर अपने खिलौना हवाई जहाज अपनी मम्मी को दिखाता है, तो कभी अपने पड़ोस में रहने वाले दोस्त राजू को। खिलौना दिखाते समय वह उन्हें बरजता भी है, हां...पेंच मत घुमाना...टूट जाएगा। उसके उमंग और उत्साह की तुलना आज के एक अरब इक्कीस करोड़ भारतीयों से कीजिए। लगभग मेरे बेटे टुन्नू जैसी स्थिति पूरे देश की है। कहीं सोनिया गांधी नाच रही हैं, तो कहीं अमिताभ बच्चन। कहीं खुशी से युवराज फफक रहे हैं, तो कहीं सचिन की आंखें गीली हैं। कैप्टन कूल इस खुशी में मुंडन संस्कार करवा रहे हैं। आप सोच नहीं सकते कि हम भारतीयों का खुशी के मारे क्या हाल है। हम विश्व कप विजेता बन गए...यह पूरी दुनिया ने देखा, आंखें फाड़कर देखा। अब आप इसका मजा किरकिरा मत कीजिए।’

‘लेकिन अगर असली ट्रॉफी दे देते, तो आईसीसी वालों का क्या बिगड़ जाता?’ मुसद्दी लाल अब भी बरस रहे थे। उनके क्रोध का पारा नीचे आने को जैसे तैयार ही नहीं था।

मैंने समझाने वाले लहजे में कहा, ‘भइया बात यह है कि बच्चे जिद कर रहे थे। इस बार हम ही वर्ल्डकप ट्रॉफी लेंगे। आईसीसी के मुखिया शरद पवार ने एक अरब इक्कीस करोड़ बच्चों को बहलाने के लिए एक झुनझुना थमा दिया। अब आप अगर किसी चीज की जिद कर बैठेंगे, तो कोई क्या करेगा। इसीलिए हमारे पूर्वज कहते थे कि अच्छे बच्चों को जिद नहीं करनी चाहिए। अब अगर जिद की है, तो भुगतो।’

मेरी बात सुनकर मुसद्दी लाल थोड़ा नरम पड़े। बोले, ‘यार...मुझे तो अब समझ में आ रहा है कि पाकिस्तान वालों ने सचिन के सात कैच क्यों छोड़ दिये या श्रीलंका वालों ने मैच में ज्यादा रन क्यों नहीं बनाए। जबकि वे इससे पहले के मैचों में अपने विरोधियों के छक्के छुड़ा चुके थे।’

मुसद्दी लाल की बातें अब कुछ रस देने लगी थी। मुझे भी उत्सुकता हुई कि आखिर कौन सी ऐसी बात है जिसे मुसद्दी लाल समझ गए और मैं अभी तक नहीं समझ पाया। मैंने पुचकारने वाले अंदाज में कहा, ‘भाई साहब! बात क्या है! लगता है कि आपने कोई रहस्य पा लिया है। वैसे भी हमारे देश में जो रहस्य पा लेता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है। इस असार संसार के आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है। लगता है कि आप भी बुद्धत्व को प्राप्त हो गए हैं।’

मुसद्दी लाल ने मुझे घूरते हुए कहा, ‘मेरी बात को हल्के में मत लो। अब तो मुझे पक्का विश्वास हो गया है कि पाकिस्तान और श्रीलंका की क्रिकेट टीम को यह बात पहले से ही पता थी कि ट्रॉफी नकली है। अब जब वे इस बात को जान चुके थे, तो नकली ट्रॉफी के लिए क्यों अपनी जान लड़ाते। उन्होंने मैच इसी तरह खेला जैसे कोई बुजुर्ग खिलाड़ी किसी बच्चे से कोई खेल खेले और झूठ-मूठ में हार जाए। अपनी इस जीत पर बच्चा खुश हो जाता है। वह इसे अपनी प्रतिभा और खेलने की कला की विजय मानकर इतराता घूमता है। अब आप जरा पाकिस्तान और श्रीलंका के खिलाड़ियों के चेहरे को याद कीजिए। वे हारने के बाद भी दुखी नहीं थे। उनके चेहरे पर शायद इस बात का संतोष था कि वे नकली ट्रॉफी के बेकार में ढोकर अपने देश ले जाने की जहमत से बच गए।’ इतना कहकर मुसद्दी लाल ने एक गिलास पानी पिया और बैठकर आईसीसी वालो को कोसने के पुनीत कर्म में लग गए। मैं उन्हें कोसता छोड़कर अपने घर लौट आया।