Tuesday, October 28, 2014

काले धन की चाह

-अशोक मिश्र
घर में घुसते ही घरैतिन को पंचम सुर में गाता देखकर मैं समझ गया कि उनकी यह खुशी मेरी जेब पर भारी पडऩे वाली है। मैंने बनावटी उत्साह प्रकट करते हुए पूछा, ‘अरे साढू भाई का फोन-वोन आया था क्या? जो तुम सूरजमुखी की तरह चमक रही हो?’ अपने जीजा के बारे में पूछे जाने पर घरैतिन लहराकर बोलीं, ‘अरे नहीं..बात दरअसल यह है कि हम सभी बहुत जल्दी करोड़पति बनने वाले हैं। आह..कितने हजार के नोट मिलकर दो करोड़ रुपये बनते हैं। मैं तो सोच-सोचकर खुशी से मरी जा रही हूं। अभी जब यह हाल है, तो जब दो करोड़ रुपये का ढेर मेरे सामने होगा, तो कहीं खुशी के मारे गश खाकर न गिर पड़ूं। अगर ऐसा हो, तो तुम मुझे संभाल लोगे न!’ घरैतिन की बात सुनकर मैं चौंक उठा, ‘क्या..कहीं कोई लॉटरी-वॉटरी लग गई है क्या? करोड़पति कैसे हो जाओगी?’
मेरी बात सुनकर घरैतिन के चेहरे पर एक रंग आकर चला गया। बोलीं, ‘इसीलिए कहती हूं कि खबरिया चैनल देखा करो..अखबार-शखबार पढ़ा करो। सिर्फ कागज काला करने से जिंदगी नहीं चलती। आपको याद है..चुनाव से पहले बाबा रामदेव ने कहा था कि मोदी सरकार बनी, तो छह महीने के भीतर सरकार विदेश में जमा सारा काला धन देश में लाकर अपने देश की गरीब जनता में बांट देगी। मोदी साहब भी तो उन दिनों पानी पी-पीकर सरदार जी को काला धन वापस न लाने के लिए कोसते रहते थे। तो किस्सा कोताह यह कि मोदी साहब की सरकार बन गई। कुछ ही दिन में मोदी सरकार के छह महीने भी पूरे होने वाले हैं। बस..कुछ ही दिनों में हम सभी गरीब करोड़पति हो जाएंगे। हो जाएंगे न..!’ पत्नी की बात पर मुझे गुस्सा आ गया। मैंने कहा, ‘नहीं होंगे करोड़पति। वह सब बाबा रामदेव और मोदी जी का चुनावी रसगुल्ला था। काला धन नहीं आने वाला देश में। सरकार कह रही है कि अगर विदेश में जमा काला धन यहां आया, तो वहां के लोग भूखों मर जाएंगे। अपने यहां तो लोगों को दो रोटी खाने के बाद पेट भर पानी पीकर सोने की आदत है। जैसे अब तक रहते आए हैं, वैसे आगे भी रह लेंगे।’ इतना कहकर मैं घर से बाहर हो गया।
(आज दिनांक 28 अक्टूबर 2014 को अमर उजाला में प्रकाशित एक व्यंग्य)

Thursday, October 16, 2014

चल निकाल हाथ की मैल

-अशोक मिश्र
16 oct 2014 ko jansandesh times mein prakashit
जब मैंने सुना कि प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान की धमक हमारे मोहल्ले तक पहुंच चुकी है, तो मेरी छाती छप्पन इंच की हो गई। लेकिन मैं 'सबसे भले विमूढ जिन्हें न व्यापे जगत गतिÓ की तरह घर से नहीं निकला, तो नहीं निकला। हालांकि घरैतिन ने कई बार ताने मारे, लोगों की सक्रियता का विशद वर्णन किया। शाम को सौ रुपये का नोट पकड़ाते हुए सब्जी लाने का आदेश जारी हुआ, तो घर से निकला ही पड़ा। चौराहे पर पहुंचा, तो देखा कि मोहल्ले भर के छोरे एक जगह टेंट गाड़े हुए मैल इक_ा कर रहे हैं। किसी के हाथ में हाकी थी,तो किसी के हाथ में डंडा। कुछ की जेब में देशी कट्टा (बंदूक) होने का भी मुझे आभास हुआ। सडक़ परआने-जाने वालों को ये छोरे रोकते, उन्हें कुछ समझाते, जो उनकी बात मानकर टेंट के भीतर चला जाता, तो वे प्रसन्न हो जाते। यदि कोई हुज्जत करता, तो गाल पर दो-चार कंटाप, पीठ पर एकाध ल_ जमा देते। वह आदमी अपनी औकात में आ जाता। यदि इन छोरों की जमात का कोई निकल आता, तो वे हाथ उठाकर उसी तरह नमस्कार करते हैं, जैसे दाहिना हाथ उठाकर कामरेड लोग क्रांतिकारी अभिवादन करते हैं। टेंट के आसपास बड़े-बड़े पोस्टरों पर लिखा हुआ था, 'हाथ की मैल यहां दें।Ó 
मैंने सोचा, इन छोरों का तरीका भले ही गलत हो, लेकिन इनका उद्देश्य कितना पवित्र है। मेरा मन गदगद हो गया। तभी टेंट से उस्ताद मुजरिम बाहर निकले और मुझे देखते ही बोले, 'आओ..आओ..इस पुनीत कार्य में तुम्हारी भी कुछ भागीदारी होनी चाहिए।Ó बड़े प्रेम से मेरी बांह पकडक़र वे मुझे टेंट में ले गए। मैंने देखा, लोग आते और मेज पर रखे बक्से में नोट डालकर चले जाते। मैंने उस्ताद मुजरिम से पूछा, 'उस्ताद यह क्या? बाहर तो लिखा है, हाथ की मैल यहां दें और भीतर आप लोग वसूली कर रहे हैं।Ó मेरी बात सुनकर मुजरिम हंसे और बोले, 'तुम नादान हो। भारत के बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यही कहते आए हैं कि रुपया-पैसा इंसान के हाथ की मैल है। मोदी जी ने जब स्वच्छता अभियान की शुरुआत की, तो मैंने सोचा, लोगों के हाथ की मैल सबसे पहले छुड़ानी चाहिए। जब तक व्यक्ति पाक-साफ नहीं होगा, तब तक भारत स्वच्छ हो ही नहीं सकता।Óइतना कहकर मुजरिम ने मेरी ओर देखा और बोले, 'तू भी हाथ की मैल निकाल दे।Ó और फिर मैं सब्जी लिए बिना घर लौट आया।

Tuesday, October 14, 2014

राजनीतिक दलों का बेनकाब होता चेहरा

-अशोक मिश्र
धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश में लव जेहाद का असली चेहरा सामने आता जा रहा है। हालांकि, बहुत सारे ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब मिलना अभी शेष है। कुछ राजनीतिक दलों ने लव जेहाद को चुनावी हथियार बनाकर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ हिंदी पट्टी के दूसरे प्रदेशों की राजनीति को गरमाने की कोशिश की। किसी हद तक वे इसमें सफल भी हुए। एक महीने पहले देश में हुए उपचुनावों के दौरान लव जेहाद और गरबा नृत्य में मुसलमानों के आने-जाने को लेकर कई तरह की बातें कही गईं। मध्य प्रदेश में भाजपा के कुछ विधायकों ने अपनी सांस्कृतिक संस्थाओं के माध्यम से लोगों को सचेत किया कि वे अल्पसंख्यकों को हिंदुओं के धार्मिक आयोजनों में न आने दें। वोट बैंक के ध्रुवीकरण की आशा में हिंदुत्ववादियों ने अल्पसंख्यकों के खिलाफ ऐसे-ऐसे तीर छोड़े कि जैसे उनका नामोनिशान मिटाकर ही दम लेंगे। गुजरात के इमाम मेहदी हुसैन जैसे लोगों ने भी माहौल को खराब करने का प्रयास किया। इसके पीछे किन लोगों का हाथ था, यह कहने की जरूरत नहीं है। गरबा में राक्षस आते हैं यह कहने वाला इमाम मेहदी हुसैन मुसलमानों के उन तत्वों का प्रतिनिधि है, जो थोड़े से लाभ के लिए सांप्रदायिक माहौल को बिगाड़ने में थोड़ा सा भी संकोच नहीं करते हैं, ठीक हिंदुत्ववादियों की तरह। ऐसे हिंदुत्ववादियों और इस्लामवादियों का इंसानियत, धर्म, राष्टÑ और संप्रदाय से कोई नाता नहीं होता है। बस, ये एक चेहरे होते हैं, सियासी गणित के। इस बात को साबित करती है मेरठ के खरखौदा गांव में हुए कथित धर्मांतरण और लव जेहाद की खुलती कलई।
दो महीने पहले खरखौदा गांव की 22 वर्षीय एक युवती ने अल्पसंख्य समुदाय के एक युवक पर सामूहिक बलात्कार और जबरन धर्म परिवर्तन का आरोप लगाकर सनसनी फैला दी थी। दो महीने बाद आज वही युवती कह रही है कि उसने अपने मां-बाप के दबाव में आकर यह बयान दिया था। मेरे मां-बाप को नेताओं ने ऐसा कहने और करने के लिए पैसे दिए थे। दो महीने पहले जब जबरन धर्मांतरण की बात सामने आई थी, तो हिंदुत्ववादी संगठनों और भाजपा ने इसको लेकर खूब बवाल किया था। प्रदेश की सपा सरकार भी संदेह के घेरे में थी। हालांकि, युवती की इस बात पर विश्वास कम है कि वह पहले गलत कह रही थी, अब सही कह रही है। इस कथित लव जेहाद और धर्मांतरण की सगााई क्या है? यह निष्पक्ष जांच का विषय है। यहां सवाल लड़की की गलत बयानी का तो है, देश की सियासी पार्टियों की मामले को अपने हित के लिए तूल देने की है। मेरठ, मुजफ्फरनगर, शामली, अलीगढ़ आदि जिलों में जिस तरह से बाकायदा एक नीयत और नीति के तहत माहौल को बिगाड़ने की कोशिश की गई, वह भारतीय लोकतंत्र के लिए काफी शर्मनाक है। ऐसी स्थिति के लिए किसी एक राजनीतिक दल, व्यक्ति या संप्रदाय को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। वोटों के ध्रुवीकरण की राजनीति में सपा, बसपा, भाजपा, कांग्रेस से लेकर अन्य दूसरी छोटी-बड़ी पार्टियां शामिल हैं। कोई दूध का धुला नहीं है। इसके लिए सबसे बड़ा दोषी और जिम्मेदार समाज का वह तबका भी है, जो वास्तविकता को जाने-परखे बिना धार्मिक, सांप्रदायिक उन्माद का शिकार हो जाता है। सबसे ज्यादा अहम रोल तो इसी तबके का होता है। हालांकि इस तबके में शामिल लोगों की संख्या बहुत कम होती है, लेकिन कई बार ये लोग पूरे समाज और देश-प्रदेश पर भारी पड़ते हैं। सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यही है। राजनीतिक दल ऐसे लोगों की इस दुखती रग से वाकिफ होने के चलते हर बार फायदा उठाने में सफल रहते हैं।

Monday, October 13, 2014

पहले पूंजी निवेश का माहौल तो बने

- अशोक मिश्र 
सौ अरब डॉलर का पूंजी निवेश भारत का दरवाजा खटखटा रहा है। अब यह राज्यों पर निर्भर है कि  वे इसमें से कितना हिस्सा अपने यहां ले जाने में सफल होते हैं। ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहते हुए राज्यों के सामने एक चुनौती पेश की  कि वे आगे बढ़ें और अपने राज्य को समृद्ध करने की दिशा में सक्रिय हो जाएं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन दिनों अपनी विदेश यात्राओं को लेकर काफी उत्साहित हैं। वे बार-बार यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्होंने विदेशी-देशी पूंजी निवेश की रुकी  हुई प्रक्रिया को गति प्रदान कर दी है, उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं को खत्म करने में लगभग सफल हो गए हैं। यह सही है कि उन्होंने उद्यमियों के हित में कई तरह की रियायत देने की घोषणा की है, लेकिन सिर्फ घोषणा से ही सब कुछ  नहीं हो जाता है। इन घोषणाओं को अमलीजामा पहनाना भी उतना ही जरूरी है, जितना कि घोषणा करना। मोदी ने ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट में कहा कि चीन, जापान और अमेरिका से सौ अरब डॉलर पूंजी निवेश आना है। इस अवसर का राज्यों को फायदा उठाना चाहिए और राज्य और केंद्र सरकार को एक दूसरे का पूरक रहकर काम करना चाहिए। सिद्धांत रूप में इस बात से शायद ही किसी की असहमति हो। सभी इस बात से सहमत होंगे कि राज्य और कें द्र सरकार को जनपक्षीय योजनाओं और परियोजनाओं को लेकर राजनीति नहीं करनी चाहिए। लेकिन भारतीय राजनीति में क्या ऐसा होता है या हो सकता है? अमूमन तो अब तक यही देखने में आया है कि केंद्र में जिस पार्टी की सरकार होती है, उसी पार्टी के शासन वाले राज्यों को केंद्र सरकार से मिलने वाली सुविधाएं बड़ी आसानी से मिल जाती हैं, परियोजनाओं में  केंद्र का अंश सुगमता से मिल जाता है, लेकिन विरोधी पार्टी द्वारा शासित राज्यों को अंशदान देने में अनावश्यक विलंब किया जाता है।
इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता है कि पिछले कुछ महीनों में मोदी की विदेश यात्राओं का भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। कई देशों से अरबों डॉलर के समझौते हुए हैं, कुछ परियोजनाओं पर सकारात्मक चर्चा भी हुई है, निकट भविष्य में उनके अमलीजामा पहनने की उम्मीद भी बलवती हुई है। लेकिन क्या सिर्फ इतना ही कर देने से पूंजी निवेश आने लगेगा? क्या दुनिया भर के उद्योगपति सिर्फ प्रधानमंत्री पर भरोसा करके पूंजी निवेश के लिए भारत चले आएंगे? जी नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा। जब तक भारत में पूंजी निवेश के  लायक माहौल, संगठनात्मक ढांचा नहीं खड़ा होता, तब तक बड़ी पूंजी निवेश की  उम्मीद करना बेमानी होगा। पूंजी निवेश करने वाले सबसे पहले बिजली, पानी की उपलब्धता, सड़को की  दशा, कानून व्यवस्था और अन्य बातों की ओर भी ध्यान देंगे। प्रधानमंत्री और राज्य सरकारों को सबसे पहले इस ओर ध्यान देना होगा कि पूंजी निवेश के बाद उत्पादित माल को ग्राहक तक पहुंचाने की व्यवस्था कैसे की  जाए? सड़को का  सघन जाल बिछाए बिना अंतिम आदमी तक उत्पादित माल को पहुंचा पाना, असंभव है। जिन क्षेत्रों में मोदी पूंजी निवेश की बात कर रहे हैं, वहां ये सब बातें काफी महत्व रखती हैं।
इसके बावजूद उम्मीद की जानी चाहिए कि देश की तस्वीर बदलेगी। राज्य और केंद्र सरकारें देश में शांति और सौहार्दपूर्ण वातावरण के निर्माण सक्रि भूमिका निभाएंगी। कु मुद्दों पर केंद्र को सहयोगात्मक रवैया अख्तियार रना होगातो कु मामलों में राज्यों को भी हठधर्मिता त्यागनी होगी। देश के आर्थि विका के  लिए पूंजी निवेश के साथ-साथ इन्फ्रास्टक्चर खड़ा होना बहुत जरूरी है। इससे  केवल लोगों को रोजगार, सुविधाएं प्राप्त होंगी, ल्कि प्रति व्यक्ति आय में भी इजाफा होगा। लोगों के रहन-सहन में बदलाव आएगा। उनकी जरूरतें आसानी से पूरी हो सकेंगी। और ऐसा तब होगा, जब राज्य में शांति हो, उद्योग लगाने के लिए आवश्य वातावरण हो। शासन-प्रशासन का  आवश्यक  सहयोग भी मिलता रहे।

Saturday, October 11, 2014

कविता की अंतरलय को समझना जरूरी-सूर्य कुमार पांडेय

-अशोक मिश्र
हास्य और व्यंग्य के साथ-साथ विभिन्न विधाओं में लिखने वाले साहित्यकार सूर्य कुमार पांडेय जितने विख्यात हैं, उतने ही सरल स्वभाव से भी हैं। उनकी कविताएं भी उतनी ही सरल किंतु गहरी भावभूमि की हैं। सरल शब्दों में चुटकी लेकर अंतरमन की वीणा को झंकृत कर देने का सामर्थ्य उनमें है। वे कविताओं में हमेशा नए प्रयोगों के आग्रही रहे हैं। हास्य-व्यंग्य कविता मंच को चुटकुलेबाजी के प्रदूषण से मुक्त रखने में कवि पांडेय जी की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। देश-विदेश के कवि-सम्मेलनों में बराबर भाग लेने वाले पांडेयजी 10 अक्टूबर को आगरा आए, तो उनसे विभिन्न मुद्दों पर बातचीत हुई पेश हैं उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश:
-क्या कविता किसी कवि का पेट भर सकती है? यहां तक कि कहानी, उपन्यास, व्यंग्य लिखने वाले भी लेखन को पूर्णकालिक पेशे के रूप में स्वीकार कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। (अंग्रेजी वालों को छोड़कर) ऐसा क्यों?
नहीं..कविता किसी को रोटी नहीं खिला सकती है। इसे जीविका या पूर्णकालिक पेशे का आधार नहीं बनाया जा सकता है। मंचीय या सम्मेलनी कवियों की बात मैं नहीं कर रहा हूं। वे कमा-खा रहे हैं, ठीक-ठाक कमा रहे हैं। बाकी दूसरे कवियों की स्थिति इससे इतर है, बदतर है। उन्हें कविता को पार्ट टाइम जॉब की तरह लेना पड़ता है। यही विडंबना है। प्रकाशकों का एक गठजोड़, एक नेटववर्क, एक कॉकस काम करता है। पिछले पचास वर्षों में इन प्रकाशकों ने प्रेमचंद और राजेंद्र यादव के बाद किसी बड़े साहित्यकार को पनपने दिया हो, तो बताइए। सरकारी विभागों और पुस्तकालयों की खरीद तक ही सीमित कर दिया है साहित्यकारों को। कुछ कवि तो स्वयं अपनी कविता छपवाने के लिए प्रकाशकों को पैसा तक देते हैं। जब कविता की किताब छपवाना इतना मुश्किल हो, तो कोई इसे पेट भरने का जरिया कैसे बना सकता है। अंग्रेजी के साहित्यकारों की किताबों का प्रचार करते हैं प्रकाशक। अंग्रेजी के दोयम दर्जे  का लेखक भी बेस्ट सेलर हो जाता है। हिंदी में पहले भी और इन दिनों भी अंग्रेजी के मुकाबले ज्यादा अच्छा लिखा जा रहा है। लेकिन इन्हीं प्रकाशकों का गठजोड़ था कि मुंशी प्रेमचंद को हंस जैसी पत्रिका निकालने पर मजबूर होना पड़ा। सब डिस्ट्रीब्यूशन, नेटववर्क, प्रोपोगंडा का कमाल है।
-तो क्या प्रकाशक कुछ नहीं करते?
नहीं ..करते क्यों नहीं.. लेकिन भइया जब साहित्यकारों की पहुंच बाजार तक होगी ही नहीं, तो फिर उसे लोग जानेंगे कैसे? फिल्म बनाने वाला कितनी ब्रांडिंग करता है अपनी फिल्म की। कॉमेडी कलाकारों को बुलाकर आयोजन करवाता है, उसी बीच फिल्म का प्रमोशन भी करता है। हिंदी के प्रकाशक क्या करते हैं? पुस्तक मेला लगा देने से कुछ नहीं होने वाला है। गीता प्रेस ने अच्छा काम किया है। अगर आज रामायाण, महाभारत, पुराण आदि धार्मिक पुस्तकें घर-घर में हैं, तो गीता प्रेस की वजह से। प्रकाशकों के लिए लेखक सबसे नीचे की चीज है। खुद तो व्यावसायिक बना रहता है, वह प्रिंटर को पैसा देगा, बाइंडिंग वाले को पैसा देगा, यहां तक कि कंपोजिंग वाले को भी पैसा देगा। लेकिन जहां लेखक की बात आई, वह अव्यावसायिक हो जाता है। इसके लिए साहित्यकार भी जिम्मेदार हैं। कुछ विशेष समूह, वैचारिक समूह से जुड़े साहित्यकारों को लाभ जरूर मिल जाता है।
-तो फिर झगड़ा क्या है साहित्यकार और प्रकाशक के बीच? इन दोनों के झगड़े में अच्छी पुस्तकों से वंचित तो आम पाठक ही रह रहा है।
(हंसते हुए) यह झगड़ा तो कुछ वैसे ही है, जैसे पहले  अंडा हुआ या मुर्गी। एक तरफ हिंदुस्तान है, तो दूसरी तरफ पाकिस्तान। इन दोनों के पचड़े में पिसना तो जनता को ही है। वैसे सच कहूं, तो इन सारी स्थितियों के लिए प्रकाशक ही जिम्मेदार हैं। ज्यादातर प्रकाशक एक विचारधारा विशेष के लोगों के प्रभाव में हैं। उन्हीं की पुस्तकें छपती हैं। ज्यादातर कवि तो अपनी कविता की पुस्तक छपवाते हैं, उसे भी जनता को नहीं पढ़वा पाते हैं। नेटवर्क नहीं है उनके पास।
-पढ़ने का चलन खत्म हो रहा है या हम ऐसा नहीं लिख पा रहे हैं कि लोग उसे पढ़ने को मजबूर हों?
(मुस्कुराते हुए)..जी नहीं, पढ़ने का चलन खत्म नहीं होगा। आप देखिए, सैकड़ों चैनलों पर दिन भर खबरें देखने के बाद भी लोग सुबह उठते ही समाचार पत्र को झपट कर उठाते हैं। दिन भर टीवी पर क्रिकेट मैच देखने के बाद सुबह अखबार में पढ़कर वे तस्दीक करते हैं कि क्या स्कोर रहा। देखिए, हर युग में अच्छा और बुरा दोनों लिखा जाता रहा है। मुंशी प्रेमचंद जैसे लिखने वाले रहे हैं, तो बेस्ट सेलर उपन्यासकार गुलशन नंदा भी रहे हैं। जिस युग में केशव दास लिखते रहे, उसी युग से थोड़ा आगे-पीछे तुलसीदास भी हुए हैं। केशव कठिन लिखते रहे, तो तुलसीदास ने सरल भाषा में लिखकर राम कथा को जन-जन में पहुंचा दिया। दोनों का अपना-अपना महत्व है। लोग पढ़ना चाहते हैं। उन तक पुस्तकें पहुंच नहीं रही हैं। अच्छी किताबों के लिए पाठक तरस रहे हैं। लेखक अपनी पुस्तक उन तक पहुंचा नहीं पा रहा है। हां, किसी को पढ़ने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।
-तो फिर, कविता के सामने सबसे बड़ा संकट क्या है? खास तौर पर हास्य कविता के सामने?
कविता के सामने सबसे बड़ा संकट उसका प्रयोगवाद है। हमने इतने प्रयोग किए कि कोई एक निश्चित ढर्रा तय नहीं कर पाए। ठहराव नहीं आया कविता में। उर्दू   में, हालत इससे उलट रही। गजल आज भी अपने पारंपरिक बहरों में लिखी जा रही है। एक ही बहर पर एक ही भाव भूमि की काफी गजलें लिखी गई हैं। गीत और छंद हमारी धरोहर हैं। हमने इनसे मुख मोड़ा, इन्होंने हमसे मुंह मोड़ लिया। गीत की जगह आज फिल्मी गीतों ने ले ली। रीतिकालीन कवियों ने छंद और गेयता को बरकरार रखा। उनकी लिखी रचनाएं आज भी मोहित करती हैं।
तो क्या छंद मुक्त कविताएं ही इसके लिए जिम्मेदार मानी जाएंगी?
अशोक..जिन छंद मुक्त कविताओं के नाम पर यह सारा प्रपंच रचा जा रहा है, उसको समझने की जरूरत है। निराला ने कविता की अंतर लय तो नहीं तोड़ा, छंद को तोड़ा था। उनकी सारी कविताएं (भले ही छंद मुक्त हों) गेय हैं। उनकी गेयता बरकरार है। नई कविता ने उस अंतर लय को खारिज कर दिया। वह अपना मुहावरा नहीं गढ़ पाई। वह भाव प्रधान है, बौद्धिक है, लेकिन बोझिल है। सुदामा पांडे धूमिल की कविताएं कितने लोगों को याद होंगी? नागार्जुन की गेय कविताएं लोगों को जरूर याद होंगी।
-तो क्या आम पाठकों की रुचि पढ़ने में घटी है? अंग्रेजी वाले तो खूब पढ़े जा रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले चेतन भगत कीहॉफ गर्लफ्रेंडआई है, उसकी बड़ी चर्चा है। हिंदी वालों की इतनी चर्चा नहीं होती।
हिंदी के पाठक कभी कम नहीं होंगे। हिंदी का स्थान कोई दूसरी भाषा नहीं ले सकती है। हां, एक समय था, जब लोग अपने ड्राइंग रूम में अंग्रेजी का अखबार रखते थे, लेकिन आज सब कुछ बदल गया है। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या देख लीजिए। हिंदी ने अपनी संप्रेषणीयता, ग्राह्यता और स्वीकार्यता में बढ़ोत्तरी की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त राष्टÑ में हिंदी में भाषण दे आए। दूसरे देशों में भी हिंदी बोली जा रही है। फ्रांस के एयरपोर्ट पर मैंने हिंदी में लिखा देखा है, ‘आपका स्वागत है।लिपि के आधार पर देखें, तो बोली और ग्राह्यता के चलते हिंदी स्वीकार की जा रही है। जिस चेतन भगत की बात आप कर रहे हैं, उसके पाठकों की संख्या कितनी है? इलीट क्लास में भले ही पढ़ा जा रहा हो, लेकिन आम पाठक को तो आज भी प्रेमचंद याद आते हैं, धरमवीर भारती, राजेंद्र यादव, ममता कालिया, मैत्रेयी पुष्पा याद आते हैं।
-कभी शहर में साहित्यकारों के अड्डे हुआ करते थे। अब ये अड्डे नहीं रहे। इनका साहित्य पर कोई फर्क पड़ा?
बिल्कुल पड़ा..मैं तो कहता हूं कि इसका पूरे साहित्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। अड्डेबाजी साहित्य और समाज के हित में थी। साहित्यिक अड्डों पर सभी तरह के साहित्यकार जुटते थे, उनमें आपस में विचार-विनिमय होता था। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि एक दूसरे से बात-चीत करके वे रीचार्ज हो जाते थे। साहित्यकारों को यह पता चल जाता था कि कौन क्या लिख रहा है। वरिष्ठ साहित्यकारों का मार्गदर्शन मिलता था कनिष्ठ साहित्यकारों को। कुछ गलत लिख जाता था, तो इन्हीं अड्डों पर वरिष्ठ साहित्यकार बड़े अपनेपन से डांट लगा देते थे। कोई बुरा भी नहीं मानता था। सही गलत की तमीज इन्हीं अड्डों से मिलती थी। अब वह बात नहीं रही। एक कवि जो वीररस की कविता लिखता है, उसे भारत की विदेश के बारे में पता ही नहीं है। बस..मार देंगे, काट देंगे..आंव-बांव लिखे जा रहा है। इस बात को अच्छी तरह से समझने की जरूरत है कि कवि सम्मेलनों में रात के अंधेरे में तालियां बजाने वाले लोग दूसरे दिन जुलूस का हिस्सा नहीं बनते। लोग किसानों से कभी मिले नहीं, मजदूरों का दुख-दर्द देखा-समझा नहीं, लेकिन मजदूरों-किसानों का दर्द उलीचे जा रहे हैं कविता में।
-आज व्यंग्य और हास्य के नाम पर सिर्फ या तो नारे लिखे जा रहे हैं, या चुटकुले।
अशोक जी, एक बात सबको अच्छी तरह से मन में बिठा लेनी चाहिए कि चुटकुले लिखे नहीं जाते। चुटकुले लिखने के चक्कर में आजकल हास्य-व्यंग्य के कवि और लेखकर चुटकुला होते जा रहे हैं। प्रतिष्ठित साहित्यकार चुटकुला नहीं लिख सकता है। दूरसंचार के माध्यम बढ़ गए हैं। फेसबुक से लेकर ट्विटर तक जाने क्या-क्या गए हैं। सब कुछ उपलब्ध है इंटरनेट पर। गजब यह है कि ये चुटकुले भी मौलिक नहीं होते, जो कवि सम्मेलनों में सुनाए जा रहे हैं। जहां तक नारों की बात है, काव्य में नारे नहीं चलते। आप किसी पंथ विशेष के समर्थक हो सकते हैं, लेकिन नारों के लिए काव्य में कोई स्थान नहीं है।
हास्य या व्यंग्य को वैसा रुतबा क्यों नहीं मिला, जो कहानीकारों को मिलता है, उपन्यासकारों को मिलता है या दूसरी विधाओं में लिखने वालों को मिलता है?
हास्य-व्यंग्य को मान्यता बहुत पहले ही मिल गई थी। जहां तक रुतबे की बात है, व्यंग्य या हास्य विधा को समर्पित समीक्षक नहीं मिला। अगर आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसा जुझारू और समर्पित समीक्षक सूरदास, तुलसीदास और मलिक मोहम्मद जायसी को नहीं मिला होता, तो हो सकता है कि आज उनकी इतनी चर्चा नहीं होती। नामवर सिंह जैसा समीक्षक नई कविता को मिला, तभी तो आज सबके सिर चढ़कर बोल रही है नई कविता। नहीं तो नई कविता आज कहां होती, कौन कह सकता है इसके बारे में। हास्य-व्यंग्य को हरिशंकर पारसाई, श्रीलाल शुक्ल, गोपाल प्रसाद व्यास जैसे वरिष्ठ साहित्यकार मिले।
-आपने हास्य-व्यंग्य, नाटक और बाल कविताएं लिखीं हैं। सबसे ज्यादा मन किसमें रमा और क्यों?
मैंने अपनी वय के अनुसार रचनाएं लिखीं। किशोर वय में था, तो बाल गीत लिखा करता था। बच्चों के लिए कविताएं लिखीं। किशोरवय के बाद शृंगार गीत रचे, समस्यापरक कविताएं लिखीं। गरीबी, बेकारी जैसी समस्याओं पर लिखा, भरपूर   लिखा। दूरदर्शन के लिए कई नाटक लिखे, युवा होने पर जब 1975 में आपातकाल लगा, तो व्यवस्था के विरोध में व्यंग्य लिखना शुरू किया। मुझे लगा कि व्यंग्य को इस समय मेरी जरूरत है। तानाशाही के खिलाफ लिखने के लिए छटपटा उठा, तो व्यंग्य लिखा, हास्य के माध्यम से विरोध जताया। बाद में तो कवि सम्मेलनों में भी जाने लगा। अखबारों में गद्य व्यंग्य लिखा। हास्य कविता में कुछ नए प्रयोग किए। हास्य को नई शैली, नए प्रतीक, नए बिंब दिए। आज लंबी कविता का दौर खत्म हो चुका है, छोटी-छोटी कविताएं पढ़ी और सुनी जा रही हैं। सबसे सुखद यह है कि छंद की वापसी हो रही है। आज की सबसे बड़ी जरूरत यह है कि सरल लिखा जाए। सरल लिखना, काव्य की सबसे बड़ी चुनौती है। इस पर आजकल चर्चा नहीं होती, विचार-विमर्श नहीं होता। कविताएं मंचों के माध्यम से लोगों के बीच पहुंच रही हैं, लेकिन पुस्तकों के रूप में पाठक से दूर हैं। इस दिशा में भियान चलाने की जरूरत है।