Tuesday, December 30, 2014

कांग्रेस को विचार करना होगा

-अशोक मिश्र
इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर अभी तक बरकरार है। इस बात को जम्मू-कश्मीर और झारखंड विधानसभाओं के आए चुनाव परिणाम से भी साबित होता है। लेकिन यह भी सच है कि मोदी की लोकप्रियता की चमक थोड़ी-सी फीकी अवश्य पड़ी है। ऐसा इसलिए माना जा रहा है क्योंकि झारखंड में तो भाजपा और आजसू गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला, लेकिन जम्मू-कश्मीर में उसे दूसरे नंबर पर ही संतोष करना पड़ा। इसी वर्ष हुए लोकसभा चुनाव के दौरान जिस तरह भारतीय मतदाताओं ने उन पर विश्वास किया, शायद कश्मीर के मतदाताओं का विश्वास जीतने में वे सफल नहीं हो पाए। हां, लोकसभा चुनाव के बाद वे हरिणाया में अपनी सफलता को जरूर दोहराने में कामयाब रहे। महाराष्ट्र में भी उन्हें शिवसेना से गठबंधन करने को मजबूर होना पड़ा। कुल मिलाकर अगर देखें, तो एक बात साफ है कि अभी नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व की लहर खत्म नहीं हुई है। १६ मई को लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद राजनीति के विशेषज्ञ यह मानने लगे थे कि अब केंद्र और राज्यों में गठबंधन की राजनीति का युग समाप्त हो गया। लेकिन झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर राज्यों के चुनाव परिणाम से साफ है कि अभी राज्यों में गठबंधन युग की समाप्ति नहीं हुई है।
इसके कुछ महत्वपूर्ण कारण भी हैं। मतदाता अपना सांसद चुनते समय तो राष्ट्रीय मुद्दों को तवज्जो देते हैं। उनके लिए तब विकास, विदेश नीति, महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दे प्रमुख होते हैं, लेकिन जब उन्हें अपना विधायक चुनना होता है, तो स्थानीय मुद्दे उनके लिए प्रमुख हो जाते हैं। वे राष्ट्रीय मुद्दों को दरकिनार कर देते हैं। वे यह आकलन करने लगते हैं कि उनके इलाके का विकास, बिजली, पानी, सड़क और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं को कौन दिला सकता है? उनके दुख-दर्द कौन सुन सकता है। क्षेत्रीय मुद्दों को प्रमुखता देने की वजह से ही कई बार चुनाव परिणाम बिलकुल अप्रत्याशित आते हैं। कश्मीर में भाजपा की लहर इसलिए भी प्रभावी नहीं हो पाई क्योंकि उसकी छवि हिंदूवादी पार्टी की बन गई थी। इसके लिए किसी हद तक भाजपा और संघ के लोग जिम्मेदार हैं। पिछले कुछ महीनों में संघ और भाजपा नेताओं ने हिंदू राष्ट्र, धर्म परिवर्तन और अल्पसंख्यकों में अविश्वास पैदा करने वाले जो बयान दिए, उससे देश के अल्पसंख्यकों में मोदी के प्रति पैदा होता विश्वास डगमगा गया। विहिप, बजरंग दल और  संघ को पहले यह तय करना होगा कि उन्हें भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी को विकास के एजेंडे पर काम करने देना है या फिर देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के एजेंडे पर। जिन मुद्दों पर चुनाव लड़कर मोदी ने सफलता हासिल की है, वह रास्ता उन्हें  और भाजपा को कई दशक सत्ता का हकदार बना सकता है। भाजपा और लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस की स्थिति अवश्य कमजोर हुई है। उसने अपने कई राज्यों की सत्ता गंवाई है। कांग्रेस लगातार हाशिये पर सिमटती जा रही है। उसे अपनी स्थिति पर गंभीरता से विचार करना होगा। आत्ममंथन करना होगा कि आखिर ऐसी स्थितियां पैदा हो रही हैं, तो क्यों? और इसका कारण क्या है? इन कारणों की पहचान और उसके बाद तदनुरूप क्रियान्वयन बहुत जरूरी है। झारखंड के चुनाव परिणाम तो उन लोगों को भी सोचने पर मजबूर करने वाले हैं जिन्होंने मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए एक महागठबंधन का निर्माण किया है। झारखंड में उनका तो खाता तक नहीं खुल पाया। उन्हें अपने बड़बोलेपन पर लगाम लगाकर गंभीरता से अपनी हार के कारणों की तलाश करनी होगी। अपनी कमजोरियों से निजात पानी होगी। तभी वे राजनीति में अपनी पुरानी साख कायम रख पाने में सफल होंगे।

चटपटे वर्ष 2015 का कुरकुरा राशिफल

-अशोक मिश्र 
मेष: इस वर्ष मेष राशि के जातकों को अपनी प्रेमिका से बचकर रहना होगा, बतोले बाबा जी प्रेमिका से पिटने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं। शुक्र के वक्री होने के चलते बीवी नाराज होकर मायके जा सकती है। काले कपड़े पहनकर जातक ऑफिस जाएं, तो आफिस में कार्यरत प्रेमिका के प्रभावित होने की संभावना है।
वृष: इस राशि के जातकों को अपने दोस्त को उधार देने से बचना चाहिए। कुंडली के नवें घर में बृहस्पति के कुचाली होने के चलते ससुराल वाले नाराज रहेंगे। सालियां और सलहजें थोड़ा वक्री रहेंगी। अगर जातक ससुराल में ही छह महीने के लिए डेरा डाल ले, तो वर्ष का उत्तरार्ध उसके लिए शुभ फलदायक रहेगा।
मिथुन : इस राशि के जातकों को इस वर्ष साली से कोई बड़ा उपहार मिलने का योग है। बस थोड़ा साले से बचकर रहना होगा, ऐसा बतोलेबाबा जी का कहना है। बीवी द्वारा पाकेटमारी की आशंका भी बतोलेबाबा जी व्यक्त कर रहे हैं। महिला जातकों को अपने पूर्व प्रेमियों से सावधान रहना होगा, वे गड़बड़ कर सकते हैं। जून के बाद प्रेमी या प्रेमिका में से किसी एक के विदेश जाने का योग बन रहा है।
कर्क : इस राशि के जातकों का भविष्य इस वर्ष बड़ा उज्जवल रहेगा। शनि और मंगल की ढइया उन्हें प्रधानमंत्री नहीं, तो किसी राज्य का राज्यपाल बनाने की ओर इशारा कर रही है। बड़े थोड़ी सी राजनीति की एबीसीडी सीखने की जरूरत पर बतोलेबाबा जी जोर दे रहे हैं। यदि जातक घोटालों में निपुण हो, तो किसी राष्ट्रीय पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बन सकता है। बस, हर सुबह काले गधे को तीन सेर बेसन का लड्ड़ू खिलाना होगा।
सिंह-इस राशि के जातकों को चाहिए कि वे अपने आफिस में काम कम और अधिकारी की चमचागिरी ज्यादा करें, वर्ष भर अपने घर की छोड़, अधिकारी के घर की सब्जियां लाने, गैस बुक कराने, बच्चों की फीस जमा कराने को प्राथमिकता दें, तो विदेश यात्रा के योग बन सकते हैं। वैसे इस राशि के जातकों के सातवें घर में बैठा मंगल तीसरे घर के राहु से नैन मटक्का कर रहा है, इससे सावधानी न बरतने पर यह दांव उल्टा पड़ सकता है। ऐसा बतोलेबाबा जी इशारा कर रहे हैं। 
कन्या-इस राशि में जन्मे जातकों के भाग्य इस वर्ष बड़े प्रबल हैं। भ्रष्टाचार के कई अवसर आपके द्वार खटखटाएंगे, आप देश और प्रदेश के घोटाला शिरोमणि कहलाए जा सकते हैं। बस, आत्मा और ईमानदारी के कीटाणुओं से बचकर रहने की जरूरत पर बल दे रहे हैं बतोलेबाबा जी। भ्रष्टाचार से कमाई गई संपत्ति में से दसवां भाग भी अगर आप अपने से ज्यादा भ्रष्ट को दान में देते हैं, तो वर्ष भर मौज करने के आसार है।
तुला-इस राशि के जातकों को सबसे पहले आत्मा-परमात्मा जैसे संक्रमण से बचना होगा। बतोलेबाबा जी का कहना है कि यदि आत्मा की आवाज अनसुनी करने में जातक सफल हुए, तो उनके विधायक बनने के योग हैं। दिल्ली का मुख्यमंत्री भी इस राशि के जातक बन सकते हैं। बस, केजरीवाल मार्का नेता बनने की हिमाकत करने से बचना होगा। धरना-प्रदर्शन के दौरान अपना हानि-लाभ देखकर ही जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाने पर लाभ हो सकता है।
वृश्चिक-आपके विदेश जाने के योग हैं, बशर्ते आपने कहीं लंबा हाथ मारा हो। विदेश जाने के इच्छुक जातक पूरी जनवरी सुबह चार बजे बर्फीले पानी से मुंह धोने के बाद बीवी के पांच बार चरण स्पर्श करें, तो विदेश जाने और वहां किसी गोरी मेम से प्रेम प्रसंग की संभावना बतोलेबाबा जी जता रहे हैं।
धनु--इस राशि के जातकों को परस्त्री या परपुरुष को देखने से बचना होगा। यदि भीड़ भरा चौराहा पार करते समय बीच रास्ते में भी यदि पर (पुरुष या स्त्री) दिख जाए, तो आंख बंद करके चुपचाप खड़े रह जाना उचित है। यदि इस वर्ष आप ऐसा करने में सफल हो गए, तो अगले वर्ष में आपको कम से कम बीस हजार करोड़ रुपये की संपत्ति के स्वामी बनने के योग बन रहे हैं। ऐसा बतोलबाबा जी के संकेत हैं।
मकर-इस राशि के जातकों के तो पूरे वर्ष पांचों अंगुलियां घी में और सिर कढ़ाई में रहने के योग बन रहे हैं। सालियां भले ही हो या न हों, लेकिन सलहजों और देवरों की कुंडली में शनि की ढइया और साढ़ेसाती की वजह से आप अपने विपरीत जातकों से घिरे रहेंगे। इस राशि के जातकों के पति या पत्नी आपके प्रति प्रेमभाव बनाए रखेंगे/रखेंगी।
कुम्भ-इस राशि के जातकों को रिश्वत लेने-देने से बचना होगा। बिना रिश्वत दिए इस वर्ष कोई भी काम पूरा नहीं होने की आशंका बतोलेबाबा जी जता रहे हैं। सुबह-शाम पत्नी की चरणों में गिरकर अपने पूर्व जन्म में किए गए पापों के शमन के लिए माफी मांगने से होलिकोत्सव के बाद पुुरुष जातकों की स्थिति में सुधार होगा।
मीन--इस राशि के जातकों के लिए यह वर्ष शुभफल दायक है। घर, दुकान और अन्य इमारतों को पहले तुड़वाकर जमीन की खुदाई करवाएं, उसमें पूर्वजों का गड़ा धन मिलने की संभावना बतोलेबाबा जी जता रहे हैं। कुंडली में राहु के पंचमेश में होने से कई बार आता हुआ धन जाता दिखाई पड़ सकता है, लेकिन बतोलेबाबा जी का कहना है कि घबड़ाएं नहीं, अंतत: यह धन आपको ही मिलेगा।

Saturday, December 27, 2014

यू-टर्न बहुत जरूरी है जनाब!

अशोक मिश्र
सोचिए, अगर जिंदगी में यू-टर्न नहीं होता, तो जिंदगी कितनी नीरस और बेमजा होती। कल्पना कीजिए, आप पैदल या किसी वाहन पर बैठे बस नाक की सीध में चले जा रहे हैं, कोई मोड़ नहीं, कोई यू-टर्न (घुमाव) नहीं, तो आपका सफर कैसा होगा? बस..एक सरल रेखा में भागे चले जा रहे हैं। जीवन अगर सरल रेखीय हो, कोई सम-विषम परिस्थितियां न हों, तो जीवन का आनंद क्या रह जाएगा? इसलिए, एक बात तो तय मानिए, जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, यू-टर्न बहुत जरूरी है, चाय में चीनी और दाल में नमक और सरकारी-गैर सरकारी कामों में ली गई रिश्वत की तरह। अगर यू-टर्न नहीं, तो सब कुछ बेकार। बेस्वाद..बेमजा..बेलज्जत। भले ही वह राजनीति हो, पारिवारिक जीवन हो या फिर सामाजिक, यू-टर्न के बिना कोई मजा नहीं। जरा दिल पर हाथ रखकर सोचिए, अगर मोदी सरकार किसी भी मामले में यू-टर्न नहीं मारती, अपने सभी चुनावी वायदे पूरे करती, तो संसद का दृश्य क्या होता? संसद सत्र के दौरान सारे पक्षी-विपक्षी संसद में आते, एक दूसरे से 'हाय-हेल्लोÓ करते, बिल-शिल पेश होते, सारे सांसद हाथ उठाकर या मेज थपथपाकर उसका समर्थन करते और फिर घर चले जाते। संसद के बाहर रैलियां विपक्षी दलों की होतीं और प्रशंसा की जाती सरकार की। देश-प्रदेश की सरकार ने यह किया, वह किया आदि..आदि। संसद में इतना हंगामा हो पाता? संसद में किस्म-किस्म के डायलॉग, छीना-झपटी, हाथापाई और विपक्षियों का छाती पीट-पीटकर हाय-हाय करने का दृश्य देशवासी देख पाते? नहीं न..। इसी यू-टर्न की वजह से देश और प्रदेश में विरोधी दलों को मुद्दा मिलता है, आलोचना करने की ताकत मिलती है। यू टर्न की महत्ता को देखते हुए हमारे आधुनिक ऋषि-मुनियों ने योग में एक आसन की खोज की है, वह है पलटासान। अब आप जानते ही हैं कि अति हर किसी की बुरी होती है। अगर कोई सिर्फ और सिर्फ यू-टर्न को ही जिंदगी मान बैठे, तो उसे बीमार माना जाना चाहिए। ऐसे व्यक्ति के लिए एक दवा ईजाद की गई है पलटमाईसिन। यह दवा हर कहीं नहीं किसी खास जगह पर ही मिलती है।
इतना ही नहीं, आप अपनी घरैतिन से साड़ी लाने का वायदा करके पड़ोसन को रुमाल दिलाकर देखिए, कितना मजा आता है। यह पारिवारिक किस्म का यू-टर्न है। घरैतिन को फिल्म दिखाने का वायदा कीजिए और छबीली के साथ फिल्म देखते पकड़े जाने पर होने वाली पिटाई की कल्पना करके देखिए, कैसा सुख मिलता है। यह सब अपने वायदे से यू-टर्न लेने का आनंद है। इसमें एक सनसनी है, उत्तेजना है, परमानंद है। जीवन में उन्नति, पदोन्नति और अवनति का यही मूल मंत्र है कि जीवन और राजनीति में हमेशा यू-टर्न की गुंजाइश बनी रहनी चाहिए। बच्चे को सुबह चॉकलेट दिलाने का वायदा करके भूल जाइए, बच्चे को नाराज होकर मचलने दीजिए और फिर शाम को चॉकलेट के साथ चिप्स के पैकेट दिलाकर देखिए, बच्चा कैसे खुश होता है। इससे बच्चे को एक सीख मिलती है, यू-टर्न की कला में प्रवीणता हासिल होती है। जब वह बड़ा होगा, तो वह भी यू-टर्न मारने की कला से ओतप्रोत होगा।

Sunday, December 21, 2014

सिर्फ एक सियासी खेल है धर्मांतरण

-अशोक मिश्र
अगर देश की इतनी बड़ी आबादी में से लाख-दो लाख ईसाई या मुसलमान या फिर दोनों संप्रदाय के लोग अपना धर्म परिवर्तन करके हिंदू हो जाएं, तो उससे क्या हिंदू धर्म में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा? जिस देश में साठ-सत्तर करोड़ से भी ज्यादा हिंदू रहते हों, उस देश में चंद लोगों के धर्म परिवर्तन कराने से धार्मिक क्रांति होने वाली नहीं है। इस बात को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी संगठनों को अच्छी तरह गांठ बांध लेनी चाहिए। आगरा में जिन ५८-६० परिवारों ने पहले धर्म परिवर्तन किया और बाद में मुकरते हुए हिंदुत्ववादी संगठनों पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया, वह देश के माहौल को देखते हुए चिंताजनक है। आगरा में पहले धर्म परिवर्तन और बाद में धोखाधड़ी का आरोप लगाने वाले ५८-६० मुस्लिम परिवारों के लोग इतने भी नादान या नाबालिग नहीं थे कि कोई उनके हाथों में मूर्तियां दे दे, उनके माथे पर तिलक लगाए, हाथों में कलावा बांधे और बाकायदा समारोह आयोजित करके उनसे हवन करवाए और वे यह न जान पाएं कि उनका धर्मांतरण कराया जा रहा है। इन सभी परिवारों की अगुवाई कर रहे इस्माइल (राजकुमार) का कहना है कि उन्हें लालच देकर जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया। हिंदू धर्म अपनाने के लिए पैसे और बीपीएल राशन कार्ड, एक-एक प्लॉट देने का वादा किया गया था। अब जब ये सारे आश्वासन पूरे होते दिखाई नहीं दे रहे हैं, तो यह धोखाधड़ी हो गई!
दरअसल, आगरा में धर्म परिवर्तन के नाम पर जो कुछ भी हुआ, उसमें दोनों पक्षों की बाकायदा सहमति थी। धर्मांतरण या कथित घर वापसी के बाद जब खबरें मीडिया में आईं और इसको लेकर विवाद पैदा हुआ, तो धर्म परिवर्तन करने वालों ने वही किया, जो उस हालत में कोई भी करता। यानी कि बहानेबाजी, आरोप-प्रत्यारोप और चोंचलेबाजी। अब इस मामले में पुलिस ने कथित धर्मांतरण कराने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषांगिक संगठन धर्म जागरण प्रकल्प (मंच) और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया है, तो स्वाभाविक है कि निकट भविष्य में दोनों पक्ष अपने-अपने तर्क और सुबूत के साथ अदालत में होंगे। धर्म परिवर्तन या कथित घर वापसी करने वाले कोलकाता के मूल निवासी  हैं या फिर बांग्लादेशी, यह भी एक विवाद का मुद्दा है। जिन ५८-६० मुस्लिम परिवारों के धर्मांतरण का मुद्दा जब संसद से लेकर सड़क तक को गर्मा रहा है। अब धर्मांतरण या कथित घर वापसी को लेकर हिंदू और अन्य धर्मों से जुड़े संगठनों की बयानबाजी दुखद है। यह बयाबबाजी देश में असुरक्षा का माहौल पैदा कर रही है। इसमें हिंदुत्ववादियों के अलावा दूसरे धर्मों के लोग भी शामिल हैं। अभी जो खबरें आ रही हैं, उसके मुताबिक ईसाई संगठन भी इससे बरी नहीं हैं। हो सकता है कि कुछ मुस्लिम संगठन भी ऐसा ही कर रहे हों।
अब जब मामले ने राजनीतिक रुख अख्तियार कर लिया है, तो स्वाभाविक है कि देश के सारे दल इसको लेकर अपने-अपने वोट बैंक को साधने की दिशा में सक्रिय हो जाएंगे, बल्कि हो गए हैं। अब सड़क से लेकर संसद तक देश खास तौर पर उत्तर प्रदेश की सियासत को गर्माने की कोशिश की जाएगी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तो यहां तक कहा था कि आगामी क्रिसमस पर पांच हजार अल्पसंख्यकों की घरवापसी कराई जाएगी। हालाँकि अब इस आयोजन को टाल देने की बात कही जा रही है। आरएसएस ऐसे आयोजन पहले भी कर चुका है। हां, ऐसे आयोजन पहले इस तरह डंके की चोट पर नहीं होते थे। यह शायद पहली बार है कि संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों ने खुले आम धर्म परिवर्तन या कथित घर वापसी की घोषणा की है। हिंदू धर्म त्यागकर ईसाई या मुसलमान बनने वालों या इस्लाम और ईसाइयत त्याग कर कथित रूप से हिंदू बनने वालों को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि वैसे तो धर्मांतरण पर भारत में कोई संवैधानिक रोक नहीं है। यद्यपि केंद्र सरकार कह रही है कि यदि विपक्ष चाहे तो धर्मान्तरण पर प्रतिबन्ध लगाने को सरकार तैयार है। लेकिन इससे पहले जिन लोगों ने अपना धर्म त्याग कर किसी प्रेरणावश, लालच या अपने धर्म की विसंगतियों से ऊबकर दूसरे का धर्म अपनाया है, उनकी क्या दशा हुई है, इसे भी वे जान-समझ लें। आजादी से पहले और आजादी के बाद जितने भी लोगों ने किसी कारणवश हिंदू धर्म का परित्याग किया है, वे आज उस धर्म के लोगों द्वारा कितने स्वीकार किए गए, यह जानना बहुत जरूरी है। जहां तक हिंदुत्व की बात है, तो उसके बारे में एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि हिंदू बनाए नहीं जाते हैं, पैदा होते हैं। हिंदू धर्म की सदस्यता जन्म से ही प्राप्त होती है। इसके लिए कोई अनुष्ठान, आयोजन या प्रयास नहीं करना पड़ता है। हिंदू धर्म का कट्टर आलोचक भी हिंदू ही होता है, यदि वह हिंदू परिवार में पैदा हुआ है, जबकि मुसलमान बनने के लिए उसका अल्लाह पर विश्वास, खतना होना, कुरान की आयतों पर विश्वास रखना जरूरी होता है। मुसलमान बनने की एक निश्चित प्रक्रिया है, उसके बाद ही वह मुसलमान होता है। ऐसा ही ईसाई धर्म में भी होता है। बाकायदा एक धार्मिक अनुष्ठान के बाद ही वह अपने को ईसाई कह सकता है, लेकिन हिंदू..? बच्चा तो हिंदू घर में पैदा होते ही हिंदू हो जाता है।
अब जो लोग ईसाई या मुस्लिम धर्म त्याग कर हिंदू बनेंगे, क्या वे ब्राह्मण हो जाएंगे? क्षत्रिय हो जाएंगे, वैश्य हो जाएंगे या दलितों की तरह जीवन बिताने को अभिशप्त होंगे? उन्हें समाज का वह तबका, जो अपने को उच्च मानता है, उन्हें गले से लगा लेगा? उनकी हालत तो ठीक वैसी ही होगी, जो न घर का हुआ, न घाट का। ऐसे परिवारों में क्या हिंदू समाज का सबसे निचला तबका भी अपनी बहन-बेटी का रिश्ता लेकर जाएगा? फिर लोग कथित धर्मांतरण के बाद मुंगेरी लाल की तरह सुखद जीवन यापन के सुहाने सपने क्यों देखते हैं? भारतीय संविधान  के निर्माता कहे जाने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर ने हिंदू समाज की असमानताओं, विसंगतियों और जाति-पांति जैसी क्रूर प्रथाओं से आजिज आकर बौद्ध धर्म अपना लिया था, लेकिन कहते हैं कि बाद में बौद्ध धर्म में अपनाए जा रही कुछ विसंगतियों से वे भी दुखी हो गए थे। किसी भी धर्म से किसी दूसरे धर्म में जाने वाले लोगों से एक बार यह जरूर जानने की कोशिश की जानी चाहिए कि वे जिन रूढिय़ों, कुप्रथाओं, ऊंच-नीच के भेदभावों से ऊबकर उन्होंने अपना धर्म त्यागा था, तो क्या वे जिस धर्म में गए, उसमें यह विसंगतियां हैं या नहीं? उनका जवाब ही सारी हकीकत को उजागर कर देगा। ऊंच-नीच, छोटे-बड़े का भेदभाव हर धर्म में मौजूद है। ऐसे में जाहिर है कि आगरा में धर्म परिवर्तन केपीछे कोई लालच, कोई दबाव, कोई अपेक्षा काम कर रही थी। अभी तो इस बात का खुलासा होना बाकी है कि आगरा में कथित रूप से धर्मांतरण करने वालों को क्या-क्या आश्वासन दिए गए थे? उन्होंने क्या-क्या अपेक्षाएं हिंदुत्व के कथित ठेकेदारों से की थी और जब पूरी नहीं हुईं या मुस्लिम संगठनों का दबाव पड़ा, तो वे अपने बयान से पलट गए या धोखाधड़ी का आरोप लगाकर अपनी सांसत में फंसी जान छुड़ाने की जुगत में हैं।
कोई माने या न माने, लेकिन इतना तो तय है कि पूरी दुनिया में धर्मांतरण एक सियासी खेल है। इस खेल में हिंदूवादी संगठन लगे हुए हैं, तो पाक साफ मुस्लिम और ईसाई संगठन भी नहीं हैं। मुस्लिम और ईसाई संगठन पिछले कई सदियों से भारत में धर्मांतरण का खेल खेल रहे हैं। दलितों, आदिवासियों और समाज के आर्थिक रूप से कमजोर समुदायों को ईसाई संगठन किस तरह आर्थिक मदद के नाम पर, उनकी सेवा के नाम पर और धर्मांतरण के बाद सुखद जीवन का लालच देकर धर्मांतरण कराते चले आ रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, केरल, उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि में सक्रिय ईसाई मिशनरियां यही तो कर रही हैं। इसमें कथित रूप से मुस्लिम संगठन भी पीछे नहीं हैं। इस खेल में पिछले चार-पांच दशक से हिंदू सगंठन भी शामिल हो गए हैं। अब तो सत्ता हथियाने, समाज में विक्षोभ पैदा करके सांप्रदायिक धुव्रीकरण की प्रक्रिया को तेज करने का एक हथियार बन गया है धर्मांतरण। समाज को इससे ही बचाना होगा, तभी हम शांति से रहने की अपेक्षा कर सकते हैं।

काट गया सुलेमानी कीड़ा

अशोक मिश्र
नथईपुरवा गांव में अलाव की आग को पास पड़ी लकड़ी से कुरेदते हुए वंशीधर ने कहा, 'लगता है, नेताओं को  सुलेमानी कीड़े ने बड़ी जोर से काट लिया है। जिसे देखो, वही राजनीति के अखाड़े में ताल ठोक रहा है। जो मुंह में आ रहा है, बस उगल रहा है। अरे भइया! नेता हो, मंत्री हो, अफसर हो, तो नेतागीरी करो, अफसरी करो। जहर तो न बोओ कि कल उसकी फसल काटनी भी मुश्किल हो जाए। यह क्या कि हर जगह बस रार बोते फिर रहे हो।Ó कुरेदने से उठे धुएं से तीखी हो गई आंख को मलते हुए रामदत्त सुकुल ने कहा, 'काका..लगता है, उसी सुलेमानी कीड़े ने आपको भी काट लिया है। अच्छा भली अलाव जल रही थी, आप लगे उसे खोदने। ठीक से जलने भी नहीं देते।Ó
'बाबा..यह सुलेमानी कीड़ा क्या होता है?Ó अलाव ताप रहे बारह वर्षीय वीरभान ने पूछा। वंशीधर ने अलाव में फूंकने के बाद कहा, 'बेटा! यह बड़ा खतरनाक कीड़ा होता है, ठांव-कुठांव कहीं भी काट ले, तो दर्द नहीं होता, लेकिन आदमी राह चलते झगड़ा मोल लेने लगता है। भला, बताओ। अच्छे भले भगवान राम जी सबके दिल में रह रहे थे। वे तो इन नेताओं के न तीन में थे, न तेरह में। लेकिन इन नेताओं की करनी ऐसी कि बेचारे अयोध्या में तंबू-कनात के नीचे पड़े जाड़े-पाले के दिन काट रहे हैं। फिर भी इन नेताओं को चैन नहीं है। ये नेता तो खुद कीचड़ में हैं ही, भगवान राम को भी कीचड़ में सानने की जुगत में हैं। और तो और..बेचारी गीता..यह लो...। अब उसके नाम पर एक नया टंटा खड़ा कर दिया है नेताओं ने। भला बताओ..राष्ट्रीय ग्रंथ बना देने से क्या उसमें सुरख्वाब के पर लग जाएंगे। अरे, वह तो रहेगी वही गीता, जो आज है, जो सदियों से थी, और जो आगे भी सदियों तक रहेगी। अब राजनीति के दंगल में छीछालेदर बेचारी गीता की हो रही है। सच कहता हूं, अगर बेचारी गीता बोल पाती, तो इन नेताओं से हाथ जोड़कर सिर्फ इतना कहती, हे महामानवो! मुझे बख्श दो। अब तक न्यायालयों में चोर-उच्चके, झूठे-मक्कार मुझ पर हाथ रखकर झूठी कसमें खाते हैं, वह कम है क्या, जो मेरी और दुर्गति कराने पर तुले हो।Ó
कालीचरन ने बीच में बोलते हुए कहा, 'हां काका..आजकल तो बड़ा हल्ला है गीता को लेकर। यह मुद्दा क्या है?Ó
वंशीधर ने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'बेटा! मुद्दा तो सिर्फ सुलेमानी कीड़ा है। इस सुलेमानी कीड़े का कुछ इलाज अगर मिल जाए, तो मजा आ जाए। इंसानियत के दुश्मन हार जाएं। बस, इतना ही चाहता हूं।Ó इतना कहकर वंशीधर उठे, अपनी लाठी उठाई और टेकते हुए घर चले गए।

Tuesday, December 9, 2014

किसे छल रहे हैं मोदी?

अशोक मिश्र
इन दिनों पूरा देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लय और ताल पर झूम रहा है। उनके करिश्माई व्यक्तित्व, जोशीले अंदाज में दिए गए भाषणों और साफ-सुथरी छवि पर आम जनता से लेकर मीडिया तक मुग्ध है। होना भी चाहिए। वैश्विक और राष्ट्रीय परिदृश्य में पिछले कई दशकों से व्याप्त नीरसता, जड़ता को तोडऩे में उन्होंने सफलता जो प्राप्त कर ली है। पिछले महीने जब वे दस दिन की विदेश यात्रा से लौटकर वापस आए थे, तो देश की पूरी जनता ही नहीं, प्रधानमंत्री खुद भी आत्ममुग्ध जैसे दिखे थे। वे झारखंड और जम्मू-कश्मीर में होने वाले चुनावी रैलियों में विदेश यात्रा के किस्से सुनाने से भी नहीं चूके। उन्होंने अपनी विदेश यात्राओं का इस अंदाज में जिक्र किया, मानो बस कुछ ही दिनों में विदेशी पूंजी निवेश की बाढ़ आने वाली है और उस बाढ़ में देश का प्रत्येक व्यक्ति डूबेगा-उतराएगा। देश में इतने उद्योग-धंधे लगेंगे, इतना पैसा होगा कि सबकी समस्याएं बस छूमंतर हो जाएंगी। बेरोजगारी तो यों छूमंतर हो जाएगी। मेक इन इंडिया के भी कसीदे खूब काढ़े गए। इसे मोदी मैजिक ही कहा जाएगा कि उनकी बातों पर लोगों ने विश्वास किया। 
आगामी गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रस्तावित भारत दौरे को भी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी को यह बात कतई नहीं भूलनी चाहिए कि अभी हाल ही में अमेरिका ने एशिया में पुनर्संतुलन की समर नीति घोषित की है जिसको लेकर एशियाई देश काफी चौकन्ने हो गए हैं। बराक ओबामा की यह प्रस्तावित यात्रा उस सामरिक नीतियों का परिणाम है जिसको प्रधानमंत्री अपनी उपलब्धि बताते नहीं थक रहे हैं। बराक ओबामा भारत आकर चीन पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना चाहते हैं, ताकि वह एशिया में अमेरिकी हस्तक्षेप को लेकर विरोध न करे। 
जिन लोगों को चुनाव के दौरान मोदी द्वारा दिए गए भाषणों के थोड़े से भी अंश याद होंगे, उन्हें मालूम होगा कि वे पूरे देश में घूम-घूमकर अच्छे दिन लाने का वायदा कर रहे थे। उनकी पार्टी ने मीडिया में इस बात का प्रचार भी खूब किया था। क्या हुआ उस वायदे का? किसके अच्छे दिन आए? सिर्फ मुकेश-अनिल अंबानी तथा गौतम अडानी के? पिछले महीने की जिस विदेश यात्रा पर मोदी इतना इतरा रहे हैं, उस यात्रा के दौरान आस्ट्रेलिया में अदानी ने एक बड़ा समझौता किया है। इस समझौते में है कि अदानी ग्रुप अब ऑस्ट्रेलिया के क्लेरमांट शहर में कारमाइकल कोयला खान से कोयला निकालेगा। ऑस्ट्रेलिया में कोयला खनन परियोजना के लिए अदानी को एक बड़े कर्ज लगभग एक अरब डॉलर (छह हजार करोड़ रुपये) की जरूरत थी। यह कर्ज दिया देश के सबसे बड़े सार्वजनिक बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने, जबकि दुनिया के छह बड़े बैंक अदानी समूह को लोन देने से मना कर चुके थे। सच बात तो यह है कि सितम्बर, 2014 के अंत तक अदानी ग्रुप पर कुल 72,000 करोड़ रुपये की देनदारी थी। यह देनदारी ज्यादातर राष्ट्रीयकृत बैंकों की है। इसके बावजूद भारतीय स्टेट बैंक ने अडानी समूह को कर्ज क्यों दिया, यह सवाल विचारणीय है। अगर हम थोड़ी देर के लिए मान लें कि इससे देश में कोयला आएगा, तो फिर केंद्रीय बिजली मंत्री पीयूष गोयल के उस बयान का क्या होगा जिसमें उन्होंने कहा है कि देश में कोयले की कोई कमी नहीं है। भारत अगले दो साल में कोयले का आयात बंद कर देगा। जिन दिनों नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, उन दिनों गुजरात की जमीनों को अदानी को सस्ते में देने के आरोप भी मोदी पर लगे थे, लेकिन उन आरोपों का क्या हुआ, आज तक किसी को नहीं मालूम है।
जिस कालेधन की आंधी चलाकर यूपीए की सत्ता को उखाड़कर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, वही काली आंधी एक दिन उन्हें भी निगल लेगी, इस बात को भाजपा को अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए। भ्रष्टाचार और बोफोर्स तोप सौदे में हुए घोटाले के आरोपों के रथ पर सवार होकर एकदम मसीहाई छवि के साथ 2 दिसंबर 1989 को प्रधानमंत्री बनने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह को जनता ने कुछ ही दिनों बाद अस्वीकार कर दिया था। उन्होंने बड़े जोर-शोर से राजीव गांधी के भ्रष्टाचार की कलई खोलने का वायदा जनता से लोकसभा चुनाव के दौरान किया था, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद जब वे बहाने बनाने लगे, तो वे साल भर के अंदर ही जनता की निगाह से उतर गए थे। प्रधानमंत्री मोदी भी अब उसी राह पर चल निकले हैं। चुनाव के दौरान सौ दिन में कालाधन देश में लाने का वायदा करने वाले प्रधानमंत्री अब इस मुद्दे पर किंतु-परंतु करते नजर आ रहे हैं। अब तो वे इस वायदे से मुकर रहे हैं कि उन्होंने ऐसा कोई वायदा किया भी था। अभी तो नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने चुनावी वायदों से मुकरना शुरू किया है। स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस की मौत से जुड़े 39 दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की बात से मोदी सरकार मुकर चुकी है। विपक्ष में रहते इसी मुद्दे पर वह बवाल काट चुकी है। तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपनी कटक यात्रा के समय नेताजी की 117वीं जयंती के मौके पर मांग की थी कि यूपीए सरकार उनसे जुड़े रेकॉर्ड को सार्वजनिक करे। लेकिन मोदी सरकार का पीएमओ अब इस बात से सहमत नहीं दिखाई देता जो कि उसके जवाब से झलकता है। पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे के दौरान मोदी ने बांग्लादेश के साथ जमीनों की अदला-बदली की बात कही है, भाजपा नेता इससे पहले इसका विरोध करते रहे हैं। यूपीए के इस फैसले को राष्ट्रविरोधी तक करार दिया गया था। रेल किराया, इंश्योंरेंस सेक्टर में एफडीआई 26 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी करने, पूरे देश में समान वस्तु और सेवा कर लाने, भूमि अधिग्रहण और फूड सिक्यॉरिटी कानून जैसे मुद्दों पर मोदी सरकार का वही रवैया है, जो इससे पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह का था। भाजपा इन्हीं मुद्दों का विरोध करने के दम पर ही तो सरकार में आने में कामयाब हुई है। लेकिन भाजपा नेता और मोदी सरकार में शामिल मंत्री इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किससे छल रहे हैं? जनता से, अपने आप से या फिर अन्य राजनीतिक दलों से? यह छल एक न एक दिन उन्हें भारी पड़ेगा। जनता की याददाश्त इतनी भी कमजोर नहीं होती कि वह मोदी के चुनावी वायदों को भूल जाएगी।

गालियों का क्या बुरा मानना!

अशोक मिश्र
गालियों का क्या बुरा मानना! गालियां बुरी होतीं, तो इनका इतना विस्तार क्यों होता। गालियों का तो भगवान श्रीराम ने भी बुरा नहीं माना था। जब धनुष भंग के बाद अयोध्यापति महाराज दशरथ अपने चारों पुत्रों की बारात लेकर जनकपुरी पहुंचे, तो शादी के बाद अगले दिन कलेवा के समय राम और उनके सभी भाइयों को सीता और उनकी बहनों की सहेलियों ने ऐसी-ऐसी गालियों से नवाजा था जिसे सुनकर उनके दांत जरूर खट्टे हो गए होंगे। लेकिन मजाल है कि उन्होंने किसी गाली का बुरा माना हो। अगर माना भी हो, तो इसकी कोई चर्चा न तो आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने किया है और न ही महाकवि तुलसीदास ने। हां, महाकवि तुलसीदास ने 'रामलला नहछूÓ में नहछू (नहखुर) और कलेवा रस्म के समय गाई जाने वाली गालियों का जिक्र जरूर किया।
अवध क्षेत्र में होने वाली शादियों में कलेवा खाने की रस्म के दौरान गाई जाने वाली गालियों को सुनने पर ऐसा लगता है कि कोई पिघला सीसा कानों में उड़ेल रहा है, लेकिन आज तक ऐसा कोई बाराती समाज के सामने नहीं आया होगा, जिसने इन गालियों को लेकर कोई शिकायत थाने में दर्ज कराई हो, शादी में इन गालियों को लेकर मारपीट-गाली-गलौज हुई हो। होता तो यह है कि दूल्हे के साथ जाने वाले छोकरों की मां-बहन, मामी-काकी, मौसी के नितांत निजी क्षणों का जोर-शोर से उल्लेख करती दूल्हन की सहेलियां, बहनें और भाभियां गालियों के साथ तान-तानकर नयन वाण चलाती हैं। इन नयन वाण से घायल होकर कोई अस्पताल पहुंचा हो, ऐसी कोई खबर आज तक पढऩे-सुनने में नहीं आई। गाली (गारी) गाते समय ये निपट निरक्षर महिलाएं ऐसे-ऐसे बिंब, प्रतिबिंब, प्रतिमान, उपमान गढ़ लेती हैं, जो किसी सिद्धहस्त कवि के लिए भी असंभव प्रतीत होता है। आप इनकी कल्पना और प्रौढ़ भाषा पर मुग्ध तो हो सकते हैं, लेकिन बुरा नहीं मान सकते हैं। इन गालियों ने समाज का बहुत भला किया है, इस बात से देश की विभिन्न भाषाओं की गालियों पर शोध करने वाले छात्र-छात्राएं जरूर सहमत होंगे। गुस्सा चढऩे पर मन तो यही होता कि अमुक व्यक्ति की हत्या कर दूं, लेकिन जब उसके मुंह से गालियों का अजस्र प्रवाह होने लगता है, तो वह हत्या की बात भूल जाता है। अगर गालियों का आविष्कार मनुष्य ने न किया होता, तो शायद अब तक हर परिवार का दो-चार सदस्य हत्या के अपराध में जेल में होता। इन गालियों ने ही हर घर को उजडऩे और बरबाद होने से बचाया है। ऐसी गालियों से बुरा मानने की क्या जरूरत है, भले ही यह गाली किसी संत ने दी हो, किसी साध्वी ने दी हो। आखिर ये संत और साध्वी भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं। ये भी इंसान ही हैं। इंसानों से गलती हो ही जाती है। अगर इंसान गलती न करता, तो इन गालियों का आविष्कार ही क्यों होता।

Sunday, December 7, 2014

उपन्यास ‘विहान से पूर्व’ का एक अंश

अशोक मिश्र
उसे लगा कि कान के पर्दे फट जाएंगे। कानों पर हथेलियां रखने के बावजूद जब उसे राहत मिलती नजर नहीं आई, तो वह झुंझला उठा। उसने कभी बचपन में मुनादी करने वालों को देखा था। कि किस तरह नगाड़ा पीट-पीटकर मुनादी किया करते थे। उसे याद आया। उसने रायबली उमानाथ प्रेक्षाग्रह में औरंगजेब से संबंधित एक नाटक देखा था। उसमें मुनादी करने वाला किस तरह नगाड़ा पीट-पीटकर शहंशाह औरंगजेब का हुक्म सुना रहा था, ‘खल्क खुदा का, हुक्म शहंशाह का! बहुक्म शहंशाहे हिंदुस्तान आलमगीर औरंगजेब साहिबे आलम....रियाया को आगाह किया जाता है कि....।’ उसके चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया। उसे लगा कि आज पूरे शहर में फिर से शहंशाह औरंगजेब की जगह देवदत्त की ओर मुनादी की जा रही हो। लिसन......लिसन.....यू आल आर हियरबाई इन्फाम्र्ड द मैनेजमेंट हैज डिसाइडेड टू टर्मिनेट अवध नारायण सिंह’स सर्विस फ्राम द कंपनी इन द टर्म ऑफ अप्वाइंटमेंट लेटर इश्यूड टू अवध नारायण सिंह वाइड अवर लेटर डेटेड.......। अवध नारायण सिंह ने अपने चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछने के लिए जेब से रुमाल निकाला, तो मुड़ा-तुड़ा टर्मिनेशन लेटर जमीन पर गिर पड़ा। उसने उस पत्र को वैसे ही उठाया जैसे कि वह अपनी ही लाश उठाकर कंधे पर रखने जा रहा हो। सारा ब्रह्मांड उसे घूमने के साथ-साथ चीखता सा लग रहा था, ‘यू आर टर्मिनेटेड......यू आर टर्मिनटेड......यू आर टर्मिनेटेड..।’ वह खड़ा नहीं रह सका। तिराहे पर बने छोटे से पार्क में बैठ गया।
सुबह जब वह दैनिक समर सत्ता के आफिस जाने के लिए घर से निकल रहा था, तो बारह वर्षीय बेटी प्राची ने ठुनकते हुए कहा था, ‘पापा! इस बार मेरे बर्थडे पर आप मेरी पसंद का गिफ्ट देंगे न! हर बार छोटू को उसकी पसंद का गिफ्ट मिलता है और मुझे कोई न कोई बहाना बनाकर टरका देते हैं।’ वह बेटी की बात पर हंस पड़ा था, ‘तू मेरी अच्छी बेटी है न, इसलिए! छोटू तो नालायक है, रोने लगता है। तू समझदार है। और फिर तू उनतीस तारीख को क्यों पैदा हुई? दो-चार दिन बाद पैदा होती, तो वेतन हाथ में होता। तेरी मनपसंद के गिफ्ट भी मिल जाते।’ बेटी शर्मा गई थी, ‘उनतीस को मैं अपनी मर्जी से थोड़ी न पैदा हुई थी। वह तो भगवान ने पैदा कर दिया था।’ प्राची को बहला-फुसलाकर घर से निकला था, तो सोच लिया था कि इस बार वह बेटी के बर्थडे पर कोई कसर नहीं छोड़ेगा। समर सत्ता के आफिस के बाहर ही मुंह लटकाए नवीन सक्सेना मिल गया। नवीन फीचर डेस्क पर था।
नवीन की पीठ पर धौल जमाते हुए उसने कहा था, ‘तुम्हारी भैंस खो गई है क्या, जो मुंह लटकाए खड़े हो?’
‘अंदर जाओ, शायद तुम्हारी भी भैंस किसी ने खोल ली हो। भगवान करे कि मेरी आशंका गलत हो, लेकिन मुझे कुछ भी ठीक नहीं लग रहा है। चार लोगों को टर्मिनेशन लेटर इशू हो चुका है। कुछ ट्रांसफर हो गए हैं। भगवान जाने मेरा क्या हुआ होगा, टर्मिनेशन या ट्रांसफर? अवध भाई..मुझे बड़ा डर लग रहा है। इसी वजह से मैं अंदर नहीं जा रहा हूं।’
यह सुनकर अवध नारायण सन्न रह गया। पहले तो उसके मुंह कोई बोल नहीं फूटे। फिर उसने कहा, ‘क्यों..? टर्मिनेशन या ट्रांसफर क्यों किया जा रहा है? कोई वजह तो बताई होगी?’
रुआंसे नवीन सक्सेना ने कहा, ‘कहते हैं कि आर्थिक मंदी के चलते यह यूनिट बंद करनी पड़ रही है। फिर जब कभी यहां से अखबार निकालना हुआ, तो आप लोगों को बुलाया जाएगा।’
‘अरे यार..यह क्या धांधली है! वैश्विक मंदी तो पिछले साल आकर निकल गई। अब सन 2009 की जनवरी में आर्थिक मंदी यहां क्या कर रही है। और फिर भारत में तो आर्थिक मंदी का कोई विशेष प्रभाव भी तो नहीं हुआ।’ इतना कहकर अवध नारायण सिंह ताव में दनदनाता हुआ समर सत्ता के आफिस में घुस गया।

Wednesday, December 3, 2014

अहंकार त्यागने की शिक्षा देने वाले गुरु दत्तात्रेय

http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/03-dec-2014-edition-Delhi-City-page_13-7332-3546-4.html
-अशोक मिश्र
प्रकृति और पर्यावरण के साथ-साथ शैव, वैष्णव और शाक्त तीनों संप्रदाय को एकता और भाईचारे का पाठ पढ़ाने वाले गुरु और अवतारी पुरुष दत्तात्रेय ने मानव समाज को हमेशा प्रकृति संरक्षण का ही पाठ पढ़ाया। वे गुरुओं के गुरु माने जाते हैं। उनकी शक्ति अपार थी, लेकिन शक्ति का उपयोग मानव कल्याण में हो, इसका संदेश ही उन्होंने दिया है। आज जिस तरह प्रकृति का दोहन, जाति-धर्म के नाम पर हिंसा हो रही है, उससे निजात पाने का तरीका सद्गुरु दत्तात्रेय सदियों पहले बता चुके थे। शैव, वैष्णव और शाक्त तीनों संप्रदायों को एकजुट करने वाले भगवान दत्तात्रेय का प्रभाव हजारों सालों से पूरे भारत में है। 
कहते हैं कि भगवान विष्णु के अवतार दत्तात्रेय ऋषि अत्रि और माता अनुसूइया के पुत्र थे।  उन्होंने मानव समाज को साधक रूप में उस योग की शिक्षा दी, जिसके सहारे ईश्वर से एकरूपता स्थापित की जा सकती है। उनका मानना था कि ईश्वर और प्रकृति दोनों एक ही हैं। यही वजह है कि उन्होंने 24 गुरु किए जिनमें पृथ्वी, वायु, जल, अग्रि, आकाश, सूर्य से लेकर सांप और मछुआरा तक शामिल हैं। उन्होंने इन प्राकृतिक जीवों और पदार्थों को अपना गुरु बनाकर यह संदेश देने का प्रयास किया कि जब तक पृथ्वी पर संतुलन कायम रहेगा, मानव समाज और जीवन की अजस्र धारा प्रवाहित होती रहेगी। जैसे ही मनुष्य ने प्रकृति के कार्यों में हस्तक्षेप किया, वह अपने विनाश की आधारशिला रख देगा।
मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन मृग नक्षत्र में दत्तात्रेय का जन्म हुआ था। महाराष्ट्र के औदुंबर में दत्तात्रेय उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। तमिलनाडु, उत्तरांचल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में दत्तात्रेय जयंती बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। सदियों से अपनी सर्वोच्चता के लिए संघर्ष करने वाले शैव, वैष्णव और शाक्त तीनों संप्रदायों के विद्वानों, मनीषियों को एकजुट करने का प्रयास बहुत पहले दत्तात्रेय कर चुके हैं। वे अपने कार्य में सफल भी रहे। यह एक ऐसा गुरुतर कार्य था, जो तत्कालीन परिस्थियिों में काफी दुष्कर था। लेकिन उन्होंने यह कार्य कर दिखाया। इसीलिए उन्हें गुरुओं का गुरु भी कहा जाता है। 
जिन दिनों दत्तात्रेय का जन्म हुआ था, उन दिनों समाज में काफी विषमता, जाति-पांति, ऊंच-नीच और धार्मिक मतवैभिन्य व्याप्त था। इससे वे काफी दुखी भी रहते थे। मानव समाज में शांति स्थापित करने और कुरीतियों को दूर भगाने के लिए जरूरी था कि वे समाज को पहले जानें, सामाजिक विसंगतियों के मूल को पहचानें। इसीलिए उन्होंने जीवन भर भ्रमण किया। जहां भी जाते, प्रकृति की सुरक्षा का उपदेश देकर सामाजिक असमानता को दूर करने का सहज मार्ग बताते और कुछ दिनों बाद फिर अपनी राह चल देते। धीरे-धीरे दत्तात्रेय महायोगी और महागुरु के रूप में पूजनीय होते गए।
शास्त्रों के मुताबिक दत्तात्रेय ने चौबीस गुरुओं से शिक्षा ली मनुष्य, प्राणी, वनस्पति सभी शामिल थे। यही वजह है कि दत्तात्रेय की उपासना में अहं को छोडऩे और ज्ञान द्वारा जीवन को सफल बनाने का संदेश है। धार्मिक दृष्टि से उनकी उपासना मोक्षदायी मानी गई है। दत्तात्रेय की उपासना ज्ञान, बुद्धि, बल प्रदान करने के साथ शत्रु बाधा दूर कर कार्य में सफलता और मनचाहे परिणामों को देने वाली मानी गई है। धार्मिक मान्यता है कि भगवान दत्तात्रेय भक्त की पुकार पर शीघ्र प्रसन्न होकर किसी भी रूप में उसकी कामना पूर्ति और संकटनाश करते हैं।  कृष्णा नदी के तट के बीच में महाराष्ट्र के औदुम्बर में श्रीदत्त महाराज का मंदिर स्थापित है। यहां दत्तात्रेय की स्वयंभू मनोहर पादुका के दर्शन करने का पुण्य मिलता है। 

जीतेगा सबसे बड़ा झुट्ठा

3 december 2014 ko dainik jansandesh times mein chhapa
-अशोक मिश्र
कल मुझसे उस्ताद गुनाहगार पूछ रहे थे, ‘दिल्ली में यदि चुनाव होते हैं, तो किसके जीतने के आसार लग रहे हैं?’ मैंने निर्विकार भाव से पूछ लिया, ‘किसके जीतने की कामना आप कर रहे हैं? भाजपा, कांग्रेस या फिर आप? या फिर कभी आप के खिलाफ बनने वाली ‘बाप’ (भारतीय आम आदमी पार्टी) के जीतने पर सट्टा लगा रखा है?’ मेरे सवालों पर उस्ताद गुनाहगार के चेहरे पर एक उदासीन मुस्कान किस्म की बिखर गई, बोले, ‘मुझे तो ये सभी पार्टियां एक जैसी ही लगती हैं। बस, चेहरों, झंडों और नारों का फर्क है। कोई जीते, हमें उससे क्या फर्क पड़ता है? हां, चूंकि चुनाव के आसार बन गए हैं, तो एक उत्सुकता रहती है मन में। सो, तुमसे पूछ लिया।’ मैंने कहा, ‘उस्ताद! आप अपनी साठ-बासठ साल की उम्र में भी लोकतंत्र की नब्ज नहीं पकड़ पाए। दिल्ली के विधानसभा चुनाव हों या लोकसभा के। अब तक जीतता वही आया है, जो सबसे ज्यादा प्रामाणिक तरीसे से झूठ बोल सकता है, जनता को अपने झूठ का विश्वास दिला सकता है। जिसके झुनझुने में लय होगी, तान होगी, दिल्ली की सत्ता सुंदरी उसी का वरण करेगी। समाजवादी हों, विकासवादी हों, भाववादी हों, कुभाववादी हों, दक्षिणपंथी हों, वामपंथी हों, सभी आज तक चुनावों के दौरान अपने-अपने डमरू लेकर बंदरिया नचाने मैदान में आ जाते हैं। जिसकी बंदरिया ज्यादा ठुमके लगाती है, ज्यादा नखरे दिखाती है, मतदाताओं को रिझाती है, वही जीत जाता है। इसमें ऐसा नया क्या है, जो आप जानना चाहते हैं।’ इतना कहकर सांस लेने के लिए रुका। उस्ताद गुनाहगार दूर कहीं क्षितिज में ताकते से दिखे। मैंने कहा, ‘उस्ताद जी! यह भारतीय लोकतंत्र है न! साठ-पैंसठ साल में ही बुढ़ा गई है। इसमें कोई झस नहीं बचा है। इसके झुर्रीदार चेहरे को अगर गौर से आप देखें, तो सिर्फ उदासी, घुटन और कुंठा के कुछ नहीं पाइएगा। मुझे तो ऐसा लगता है कि यह बुढिय़ा लोकतंत्र बिलबिला रही है, नेताओं की कथनी और करनी से। ठीक वैसे ही जैसे हम-आप अपनी गरीबी, बेकारी, भुखमरी को लेकर बिलबिला रहे हैं। चालीस-पैंतालिस साल की उम्र में ही मुझे अपना चेहरा बुढिय़ा लोकतंत्र जैसा लगने लगा है।’ गुनाहगार गहरी सांस लेकर बोले, ‘तो क्या कोई विकल्प नहीं है?’ मैंने कहा, ‘है न! बस खोजने की जरूरत है।’ इतना कहकर हम दोनों चुपचाप क्षितिज को निहारने लगे।