Thursday, November 9, 2017

बप्पा की लाश छोड़ पहले खाना खाया, फिर बैठकर रोने लगा

बचपन की कुछ यादें-4

एक बार की बात है। गर्मी की छुट्टियों में गांव गया हुआ था। तब शायद पांचवीं या छठी कक्षा में पढ़ता था। तब अप्रैल में परीक्षा होने के बाद स्कूल सीधे जुलाई में खुला करते थे। बच्चे सात-आठ जुलाई तक स्कूल में लौटते थे। जून का महीना था। बारिश हो चुकी थी और बप्पा उंचउवा (हम लोगों का वह खेत जो गांव में सबसे ऊंचे पर स्थित है) पर धान बैठाने जा रहे थे। बियाड़ (रोपने के लिए तैयार किए गए धान के पौधे) उखाड़कर खेत में पहुंचा दिया गया था। लोकई काका पलेवा करने के बाद हेंगा (पाटा जिससे खेत को समतल किया जाता है) चला रहे थे। मैंने भी जिद पकड़ ली कि हेंगा पर बैठूंगा। बप्पा बार-बार मना करते- अब्बै हेंगा पर से मुंह के बले गिरिहौ और परान निकरि जाई। इसके बाद बहन और बेटी की तीन-चार गालियां। लोकई काका ने बैलों को रोककर मुझे हेंगा पर बिठा लिया। थोड़ी देर तक तो बड़ा मजा आया। लेकिन अचानक पता नहीं क्या हुआ कि हेंगा उछला और मैं पीछे पीठ के बल गिरा और सारा शरीर मिट्टी से लथपथ हो गया। बप्पा गरियाते हुए मारने को दौड़े। मैं उठते ही दो-तीन बार पलेवा वाले खेत में गिरा, लेकिन बप्पा मारने की बजाय मुझे खेत से भगाना चाहते थे। सो, उन्होंने जानबूझकर मुझे नहीं पकड़ा और मैंने समझा कि अपनी तेज रफ्तार और चुस्ती-फुर्ती की वजह से पकड़ में नहीं आया।
सुबह सोकर उठता, तो हम भाई भर बप्पा को घेर लेते। कभी मैं और राजेश, पप्पू या ओम प्रकाश बप्पा के कांधे पर सवार हो जाते-बप्पा...बप्पा...झाड़े फिराय लाओ। (लैट्रीन करवा लाओ)। बप्पा प्रसन्न होते, तो दो लोगों को कांधे पर बिठाकर लैट्रीन करवा लाते। नाराज होते, तो दो-चार गालियों के बाद बप्पा लैट्रीन करवाने ले जाते। यह सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक मैं पंद्रह साल का नहीं हो गया। बप्पा गांव में जब तक रहते, नंगे पैर ही रहते थे। जूता वे तभी पहनते थे, जब उन्हें कहीं आना-जाना होता था। एक तो नौ-दस नंबर का जूता आसानी से मिलता नहीं था, दूसरे दो-तीन दशक पहले तक किसान तभी जूता या चप्पल पहनते थे, जब उन्हें अपनी ससुराल जाना हो या समधियाने जाना हो। मेरी या मेरे चचेरे भाइयों की ननिहाल जाते समय बप्पा धुला-धुलाया कुर्ता-धोती और जूता जरूर पहनते थे।
बात शायद 1982 की है। यह वर्ष 1984 भी हो सकता है। ठीक से मुझे याद नहीं। इन्हीं दोनों वर्षों में से किसी एक वर्ष में करुणेश भइया की शादी तय हुई। करुणेश भइया हमारे दादा श्री बालेश्वर प्रसाद मिश्र के ज्येष्ठ पुत्र हैं। शादी से कुछ दिन पूर्व ही मुझे किसी काम से अचानक लखनऊ आना पड़ा। इस वैवाहिक समारोह में बाबू और भइया के साथ-साथ मेरे सभी भाइयों ने भाग लिया था। शादी के दौरान ही बप्पा बीमार पड़े। हाथ-पैरों में असहनीय पीड़ा होती थी। उम्र भी लगभग 75 के आसपास हो रही थी, लेकिन उस साल भी वह अपने कंधे पर हम लोगों को बिठाकर लगभग एक किलोमीटर दूर खेतों में झाड़ा फिराने ले जाते रहे। खैर...। शादी निबट जाने के बाद बाबू जी बप्पा को इलाज के लिए लखनऊ ले आए। लखनऊ के केजीएमसी में उन्हें दिखाया गया। तब हम लोग छोटा बरहा में हरनाम सिंह के हाते में किराये के मकान में रहते थे। मुझे इतना अवश्य याद है कि तब मैंने आठवीं कक्षा पास कर ली थी। उन्हीं दिनों दादू यानी कि कामेश्वर नाथ मिश्र के ज्येष्ठ पुत्र अरविंद कुमार मिश्र उर्फ लाल जी भइया केजीएमसी से एमबीबीएस कर रहे थे। शायद पहला साल था और टैगोर हास्टल में रहते थे। हालत बिगड़ने पर लाल जी भइया की मदद से बप्पा को केजीएमसी के गांधी वार्ड में भर्ती कराया गया। कई तरह के परीक्षण शुरू हुए। इस दौरान तीन-चार महीने बीत गए। जीवन भर वैष्णवों की तरह जीवन गुजारने वाले बप्पा की धार्मिक निष्ठा को देखते हुए खाने-पीने की समस्या उठ खड़ी हुई कि उनका खाना-पीना अस्पताल में कैसे होगा, तो बप्पा ने जवाब दिया था- सारे धार्मिक क्रिया कलाप शरीर रहने पर ही हो सकते हैं, जब शरीर ही नहीं रहेगा, तो कैसा धर्म और कैसी पूजा? जिस आदमी ने जिंदगी भर शौच-अशौच के नियम का कड़ाई से पालन किया हो, वह सोच के स्तर पर कितना प्रगतिशील रहा होगा, उनकी इस बात से समझा जा सकता है। मैं दोपहर में स्कूल से आकर खाना खाता, बप्पा और दद्दा का खाना टिफिन में रखता और छोटा बरहा से चारबाग तक पैदल जाता और फिर वहां से बस पकड़कर केजीएमसी जाता। विनोद कुमार मिश्र उर्फ दद्दा खाना खाकर वहीं से रात में ड्यूटी पर चले जाते थे।
उन दिनों जल निगम में इंजीनियर थे वेद प्रकाश श्रीवास्तव। वे आरएसपीआई (एमएल) के जिला सेक्रेट्री थे। उन दिनों बरसात के मौसम में बाढ़ आपदा राहत कैंप लगाया जाता था चार महीने के लिए। वे हर साल दद्दा को इस कैंप में रखवा देते थे। उस समय गोमती नदी में बाढ़ का खतरा बरसात के दिनों में हुआ करता था। कैंप में एक टेलीफोन रखा रहता था जिस पर लोग फोन करके बाढ़ से बचने के लिए सहायता मांगते रहते थे। उन दिनों हम लोग आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे थे, ऊपर से बप्पा की दवाइयों का खर्चा, आने-जाने और दूसरे तरह के खर्चे बढ़ गए थे। काफी पैसा खर्च हो रहा था और परिवार में निश्चित आय का कोई साधन भी नहीं था। दादू और दादा से भी कोई मदद नहीं मिल पा रही थी। दादू उन दिनों सारनाथ में और दादा बलरामपुर में थे।
इस दौरान कुछ टेस्ट और हुए और पता चला कि बप्पा को रक्त कैंसर है जो अपने अंतिम स्टेज में पहुंच चुका है। इस बीच जब लंबा समय बीत गया और बप्पा गांव नहीं पहुंचे, तो दादी भी करुणेश भइया को साथ लेकर लखनऊ आ गईं। तब तक बप्पा की सेहत काफी गिर चुकी थी। पेनकिलर्स का असर खत्म होता, तो बप्पा दर्द से कराहते। रात में भइया या बाबू जी गांधी वार्ड में बप्पा की देखभाल के लिए रुकते, दिन में हम दोनों भाई। दद्दा और मेरी पढ़ाई का भी नुकसान हो रहा था, लेकिन किया क्या जा सकता था। तब भी बाबू और भइया जूझ रहे थे संकट से उबरने के लिए। चूंकि केजीएमसी एक कालेज था, तो एमबीबीएस करने वाले लड़के-लड़कियां अक्सर आकर घेर लेते और पूछते रहते तरह तरह के सवाल। एक बैच जाता, तो दूसरा आ जाता। फिर वही सवाल दोहराए जाते, बप्पा जवाब देते-देते थक जाते। बप्पा झुंझला जाते, तो अवधी में गरियाते हुए कहते-आओ भौजी...तुहूं एक्कै बतिया पूछि लेव। स्टूडेंट अवधी समझ पाते थे या नहीं, मैं कह नहीं सकता।
बप्पा की हालत जैसे-जैसे बिगड़ रही थी, दर्द बेपनाह बढ़ता जा रहा था। मैं उन्हें दर्द से छटपटाता देखता रहता। जिन लोगों ने कैंसर पीड़ित व्यक्ति के साथ कुछ दिन बिताया होगा, वे बप्पा की पीड़ा को समझ सकते हैं और सोलह-सत्रह साल की उम्र फिर एक दिन बाबू जी ने कहा-आनंद (भइया को) मैं पार्टी की केंद्रीय कमेटी की बैठक में कलकत्ता जा रहा हूं, तुम कुछ पार्टी कामरेड्स से मिल लो। उन्होंने कुछ मदद करने का आश्वासन दिया है। और फिर एक दिन भइया और बाबू जी लखनऊ से बाहर चले गए। अब बप्पा की जिम्मेदारी दद्दा और मुझ पर थी। दद्दा रात में राहत शिविर वाली अस्थायी नौकरी के चलते रात में रुक नहीं सकते थे। अब रात में भी बप्पा के पास मुझे रुकना पड़ता था। 8 सितंबर 1982 (या 84) की रात घर से खाना खाकर आया था और दद्दा का खाना साथ लेकर आया था। बप्पा तब तक ठोस पदार्थ ग्रहण कर पाने की स्थिति में नहीं रह गए थे। नाक में एक नली लगा दी गई थी और उसी के माध्यम से दवा और तरल रूप में पथ्य दिया जाने लगा था। लैट्रीन कराने के लिए भी टेकाकर ले जाना पड़ता था और साफ भी करना पड़ता था। हां, इसके बाद तो जब नाक में नली लगा दी गई, तो तीसरे-चौथे दिन एनीमा लगाना पड़ता था। नर्से जब एनीमा लगाती तो आपस में मजाक भी करतीं। एक तो बप्पा की दयनीय होती स्थिति और उस पर नर्सों का आपस में मजाक करना बहुत बुरा लगता। तबीयत होती कि लगा दूं एक कंटाप कान के नीचे। लेकिन विवशता बहुत कुछ सहने को मजबूर कर देती है।
उस दिन मेरी जेब में सिर्फ दो रुपये पड़े थे। वह भी मेडिकल कालेज से चारबाग तक के बस किराये के लिए। सुबह उठकर चाय और बन्न खरीदकर खाया। सोचा, दद्दा आएंगे, तो किराये के पैसे मांग लूंगा। लेकिन 9 सितंबर बीत गया, न दद्दा आए और न ही किसी के हाथ खाना भिजवाया। दिन और रात मूसलधार बारिश हुई, सो अलग। भूख के मारे जान निकल रही थी। बार-बार पानी पीता और मन को ढांढस देता कि शायद किसी काम में दद्दा फंस गए होंगे और अभी आ जाएंगे। 10 सितंबर भी इसी ऊहापोह में बीत गया। भूख से हाल बेहाल था। उस समय यदि कुछ भी खाने को मिल जाता, तो शायद मैं खा लेता। किसी का जूठा भी। लाल जी भइया के पास जा सकता था, लेकिन बप्पा को छोड़कर कैसे  जाता। बप्पा का दर्द से कराहना सुनकर अपनी भूख भूल जाता था। 11 सितंबर को बप्पा को नली के जरिये दवा दी, दूध पिलाया, जो मरीजों के लिए सरकारी तौर पर मिलता था। आधी कटोरी दूध बचा, तो खुद पी लिया। बप्पा ने कहा लिटा दो। तो मैंने उन्हें लिटा दिया। लिटाते समय कराहे।
बप्पा को लिटाने के बाद मैं गांधी वार्ड के बाहर आकर बैठ गया कि शायद दद्दा आते दिख जाएं या लाल जी भइया ही क्लास में आते-जाते दिख जाएं। कई बार लाल जी भइया गांधी वार्ड के सामने से आते-जाते दिखे भी थे और हर बार वे बप्पा का हालचाल जानने आ जाया करते थे। दो ढाई घंटा इंतजार करने के बाद मन में आया कि बप्पा को देख आऊं। उनके बेड के पास पहुंचा, तो वे एकदम शांत सोए हुए थे। सांस लेते नहीं दिख रहे थे। मैंने अपनी अंगुली नाक के पास रखी, तो लगा कि कुछ गड़बड़ है। बप्पा को हिलाया-डुलाया। कोई हरकत नहीं हुई, तो भागकर नर्स के पास पहुंचा-सिस्टर....सिस्टर....बेड नंबर 26 की हालत खराब हो रही है। यह सुनते ही सिस्टर और जूनियर डॉक्टर्स भागे हुए आए और सीने को जोर-जोर से दबाने लगे। काफी देर तक मशक्कत करने के बाद उन्होंने बप्पा के शव को वार्ड से हटाकर दूसरी तरफ कर दिया और बेड पर लगे कागज पत्र समेटकर चले गए। मैं तो हिलाने-डुलाने से ही समझ गया था कि बप्पा साथ छोड़ गए हैं।
बप्पा के शव को छोड़कर मैं भागा टैगोर हास्टल की ओर, लाल जी को खबर देने के लिए। टैगोर हास्टल के गेट पर ही लाल जी मिल गए। वे क्लास अटेंड करने जा रहे थे। मैं बदहवास उनके पास दौड़कर गया और बोला-भइया...बप्पा...। लाल जी समझ गए। थोड़ी देर तक अवाक रहे और फिर मेरे चेहरे की ओर देखते हुए पूछा-तुमने खाना खाया है? बड़का दादा या भइया आए थे आज? मैंने रुंआसे स्वर में कहा, तीन दिन से कोई नहीं आया। दद्दा भी नहीं। उन्होंने पांच रुपये निकालकर देते हुए कहा-जाकर खाना खा लो। अब जो होना था, वह तो हो चुका है। उनको तो आज नहीं कल, जाना ही था।
मैंने पांच रुपये मुट्ठी में दबाए और मेडिकल कालेज के गेट पर आया। वहां पांच रुपये की पूड़ी-सब्जी खरीदी और खाने के बाद पानी पिया। खाने के बाद बप्पा के शव के पास बैठकर रोने लगा। उधर दद्दा की भी हालत ठीक मेरी जैसी ही थी। आठ सितंबर की रात शुरू हुई मूसलधार बरसात 11 सितंबर को ही बंद हुई थी। तीन दिन तक दद्दा का रिलीवर ही नहीं आया और ऐसी हालत में दद्दा राहत कैंप को छोड़ नहीं सकते थे। दद्दा को मेरी तरह भूखे तो नहीं रहना पड़ा, लेकिन तीन दिन तक उन्हें फंसे रहना पड़ा था। बप्पा की मौत के बाद शाम को भइया और रात में बाबू जी भी कलकत्ता से लौट आए थे। 12 सितंबर की सुबह सारनाथ से दादू भी आ गए थे। बप्पा का दाह संस्कार गोमती नदी के किनारे स्थित भैसाकुंड घाट पर किया गया और तेरहवीं संस्कार के लिए सभी नथईपुरवा चले गए थे।

Wednesday, November 8, 2017

दो भाइयों का निर्मल और निस्वार्थ प्रेम

बचपन की कुछ यादें-3

छोटे पंडित से बप्पा के डरने की एक मजेदार घटना भइया ने बताई थी। भइया के अनुसारएक दिन लगभग दस बजे बिट्टा बुआ आंगन में खड़ी जोर-जोर से चिल्ला रही थीं-बप्पा....ओ बप्पा...।’ और बप्पा गाय-बैलों की चारा-पानी करते-करते नदारद थे। उधर बिट्टा बुआ हर पांच-सात मिनट बाद बप्पा....ओ बप्पा...’ की गुहार लगाती और अपने काम में व्यस्त हो जाती थीं। यह प्रक्रिया जब चार पांच बार दोहराई गईतो दुआरे पर बैठे बाबा ने बिट्टा बुआ को डपटते हुए कहा, ‘काहे चोकरति हौतोहार बप्पा भुसैलवा मा सांड निहाइत फुंफुआत है।’ (चिल्ला क्यों रही होतुम्हारे बप्पा भुसैले में सांड की तरह फुंफकार रहे हैं।)  बिट्टा बुआ चुप..। सचमुच दस मिनट बाद बप्पा पसीने से लथपथ सिर पर खैंची भर भूसा लिए भुसैले से निकले और गाय-बैलों को खिलाने लगे। बाबा ने बिट्टा बुआ को आवाज देते हुए कहा-फुंफुआय कै निकरि आए तोहार बप्पा... आरती वारती उतारि लेव।
बप्पा को पहलवानी का बड़ा शौक था। जब बाबा बलरामपुर में रहते थेतो गांव में बप्पा निर्द्वंद्व हो जाते थे। जो मन में आता करते थे। दरवाजे पर ही उठक-बैठकडंड बैठक लगाते। लेकिन जिस दिन स्कूलों में छुट्टी होतीतो बाबा गांव आ जाते थे। उस दिन मानो पूरे गांव में कर्फ्यू लग जाता। बाबा के गांव की चौहद्दी में घुसते ही गांव में हल्ला हो जाता-छोटे पंडित आ गए...छोटे पंडित आ गए। उन्हें छोटे पंडित इसलिए कहा जाता था कि वे लंबाई में छोटे थे। पांच फुट कुछ इंच की ऊंचाई थी। वहीं बप्पा को नौ या दस नंबर का जूता लगता था। बाबा गांव में होतेतो बप्पा की डंड बैठक पर विराम लग जाता या फिर भुसैला ही डंड बैठक का गुप्त स्थल हो जाता था। बल भी बहुत था। जब किसी को अपने घर पर छप्पर चढ़वाना होता थातो वह बप्पा को बुलाने जरूर आता था। तब किसी का छप्पर चढ़वानादलदल में फंसी लढ़िया (बैलगाड़ी) निकालनाबोझ उठवाना आदि बड़ा पुण्य का काम समझा जाता था। लोग अपने काम का हर्जा करके भी ये काम करने जाते थे क्योंकि यदि लोग ऐसा नहीं करतेतो जब उनका छप्पर चढ़वाना होतातो कौन आताये काम सामूहिक ही होते थे। बीस-बाइस हाथ का फरका (छप्पर) होतातो बप्पा लोगों से दस हाथ फरका छोड़कर कंधा लगाने को कहते थे। इस बात की गवाही देने वाले लोग आज भी नथईपुरवा गांव में हैं। खैर...।
इसके बावजूद दोनों भाइयों में अतिशय प्रेम था। दोनों के कार्यक्षेत्र बंटे थे। छोटे पंडित सबकी सुख-सुविधाओं का ख्याल रखते थे। घर में किसके लिए कपड़ा लाना हैकिसके लिए गहना-गुरिया खरीदना हैसाबुन-तेल से लेकर बाहर का हर काम छोटे पंडित के जिम्मे रहता था। बप्पा को इससे कोई मतलब नहीं था। छोटे पंडित ने अपनी छोटी बहन का विवाह तय कर दियाबन्नवत (बरीक्षा) के समय बप्पा को बताया गया और दोनों भाई बन्नवत कर आए। बप्पा की पांच बेटियों यानी हमारी बड़की बुआ (फूल कुंवरि)सावी बुआ (सावित्री)बिट्टा बुआ (पावित्री)धना बुआ और नान्हि बुआ का विवाह छोटे पंडित ने जहां तय कर दियाबप्पा ने उज्र तक नहीं किया। अपने बेटों रामेश्वर दत्तकामेश्वर नाथबालेश्वर प्रसाद और बेटी कमला का विवाह भी छोटे पंडित ने ही जहां उचित समझा तय किया और बप्पा ने कुछ पूछने की जरूरत नहीं समझी। वरना आज हालात यह है कि छोटा भाई अपनी बेटी का बन्नवत (बरीक्षा) बलरामपुर से सपरिवार जाकर लखनऊ में कर आता है और लखनऊ में ही रहने वाले बड़े भाई को बन्नवत की भनक तक नहीं लगने देता। दो भाइयों के निर्मल और निस्वार्थ प्रेम की कथा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि दोनों भाइयों में संपत्ति के बंटवारे या संपत्ति पर हक को लेकर कभी कोई विचार आजीवन पैदा नहीं हुआ। भतीजी-बुआ यानी जिठानी-देवरानी में भी जीवन भर कभी मनमुटाव तक नहीं हुआ। जिठानी के पद पर आसीन भतीजी ने जो फैसला कर लियाबुआ यानी देवरानी ने सिर झुकाकर मान लिया। छोटे पंडित के एक पुत्र और थे हरीश्वर प्रसाद जिनकी पंद्रह-सोलह साल की उम्र में ही चेचक से मृत्यु हो गई थी। हांकिस खेत में क्या बोना हैकितना अनाज रखकर बाकी बेच देना हैयह सब कुछ छोटे पंडित ने आजीवन नहीं पूछा। खेती का मामला बप्पा के जिम्मे और बाकी सारे काम छोटे पंडित की जिम्मेदारी। घर में भी बच्चों को तेल-बुकवा लगाने से लेकर बड़े होने तक जब तक जिंदा रहींहमारी बड़ी दादी के जिम्मे रहा। हमारी बड़ी दादी यानी बप्पा की पत्नी का देहांत हम लोगों के जन्म से बहुत पहले हो गया था। हमारे बाबा यानी छोटे पंडित भी मेरे जन्म के एक-डेढ़ साल के भीतर ही क्षय रोग के चलते दिवंगत हो गए थे।
जब मैंने होश संभाला और गर्मी की छुट्टियों में गांव जातातो वहां बप्पा और मेरी दादी (जेठ और भयो) ही रहते थे। बप्पा जब भी आंगन में आते तो खंखारते हुए आते थे। बलरामपुरबहराइचगोंडा आदि जिलों में भयो यानी अनुज वधु को देखनाछूना निषिद्ध माना जाता है। उतने बड़े घर में सिर्फ दो प्राणी जो एक दूसरे से बोल बतिया भी नहीं सकते थेअपने-अपने सुख-दुख नहीं कह सकतेकैसे दशकों जीवन काटा होगाइसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है। कभी कभी गांववाले बप्पा को चिढ़ाते-सारी जिंदगी जिनके लिए तुमने परिश्रम करते हुए काट दीवे लोग शहरों में मौज से काट रहे हैं और भग्गन भाई तुम्हें बुढ़ापे में यहां छोड़ रखा है। भग्गन मिसिर यानी बप्पा के सिर्फ पांच बेटियां ही थींबेटा नहीं। गांव वालों के चिढ़ाने पर कई बार तो बप्पा आग बबूला हो जाते थे। अपने भाई के बेटों से नाराज हो जातेलेकिन जैसे ही कोई गांव पहुंच जाताउनका सारा गुस्सा काफूर हो जाता। गर्मी की छुट्टियों में जैसे ही हम लोग गांव पहुंचतेबप्पा खिल जाते। मुझे याद हैएक बार मैंने बप्पा से पूछा था-बप्पा! जब आप बड़े थेतो बाबा की मौत आपसे पहले कैसे हो गईतब मैं यह समझता था कि जो जिस क्रम में पैदा हुआ हैउसकी मौत भी उसी क्रम में होगी।
बप्पा ने गहरी सांस लेते हुए कहा था-सब भगवान  की मर्जी। बप्पा धार्मिक बहुत थेलेकिन रूढ़िवादी या ढोंगी कतई नहीं थे। वे नहाए बिना कुछ खाते नहीं थे। भूजा-चबैना या गुड़ जरूर अपवाद थे। नहाने के बाद शालिग्राम और महादेव को नहला-धुलाकर फूल अक्षत चढ़ाने के बाद खाना खाने से पहले शालिग्राम को भोग लगाते उसके बाद खाना खाते थे। बिना नहाये चौके में किसी का भी प्रवेश वर्जित था। खाना बनाने वाली महिला के लिए जरूरी था कि वह बिना सिला कपड़ा पहनकर खाना बनाए। पेटीकोट और ब्लाउज पहनकर चौके में घुसना निषिद्ध था। बप्पा भी जाड़ागर्मीबरसात सभी मौसमों में सिर्फ धोती पहनकर खाना खाते थे।
बात बप्पा के बल की हो रही थी। हमारे गांव में लोकनाथ प्रजापति और फौजदार प्रजापति नाम के दो भाई थे। लोकनाथ को हम लोग लोकई काका कहते थे। वे हमारे यहां हरवाही (खेत जोतने का काम) करते थे। उन्हीं दिनों बप्पा एक बैल लाए थे जो मरकहा था। एक दिन की बात है। बप्पा उसे चारा-पानी खिलाकर दूसरी जगह बांधने के लिए रस्सी पकड़कर आगे चलेतो उस बैल ने पीछे से सींग मारकर बप्पा को गिरा दिया। बप्पा ठहरे दुर्वासा के साक्षात अवतार। यहां एक बात बताता चलूं।बप्पा बताते थे कि हम लोगों का गोत्र घित्र कौशल्य है। जहां तक मेरी जानकारी हैघित्र नाम के कोई ऋषि नहीं हुए हैं। यह दरअसल अत्रि कौशल्य का अपभ्रंश है। कौशल प्रदेश में रहने वाले अत्रि वंशीय ब्राह्मणों का यह गोत्र हैयही अत्रि वंशीय ब्राह्मण जब दक्षिण भारत में गएतो आत्रेय कहे गए। खैर..बप्पा तमतमाकर उठे और बैल की सींग पकड़ ली। दोनों ओर से बल प्रयोग होने लगा। लोकई खड़े तमाशा देख रहे थे। धीरे-धीरे गांव के कुछ लोग जमा हो गए। लोगों ने कहा-क्या भग्गन भाई...तुम भी बैल के साथ बैल बन गए। वह तो पशु हैतुम्हें तो सोचना चाहिए।’ और बप्पा ने बैल की सींग पर से पकड़ ढीली कर दी।
बप्पा की एक खूबी और थी और वह यह कि वे गाली शास्त्र के प्रोफेसर थे। कहने को तो वे कक्षा दो तक ही पढ़े थे। कक्षा दो में ही उनके किसी मुंशी जी ने किसी गलती पर एक हाथ जमा दिया था। बसबप्पा को क्रोध चढ़ आया और उन्होंने उस मुंशी जी को उठाकर पटक दिया। सांड की तरह क्रोध में फनफनाते बप्पा ने मुंशी जी का कुर्ता फाड़ाफिर धोती  खोल कर दांत से हलका कट लगाकर कई टुकड़ों में कर दिया। वह धोती और कुर्ता किसी भी तरह से पहनने लायक नहीं रहा। उन दिनों पुरुष धोती के नीचे जांघिया या चड्ढी नहीं पहनते थे। बप्पा दो दिन तक अरहर के खेत में छिपे रहे बिना कुछ खाए पिये। दूसरे दिन शाम को बप्पा के बप्पा उन्हें पकड़कर लाए और स्कूल जाने से उन्हें मुक्ति मिल गई। हांतो बात बप्पा के गाली शास्त्र में विशेषज्ञ होने की हो रही थी। बप्पा खुश होतेतो बहन और बेटी की गाली देते। बप्पा नाराज हुए तो समझो बहन-बेटी की गाली कहीं गई नहीं है। कुत्ताबिल्लीगाय-बैल से लेकर निर्जीव पदार्थ तक उनकी गाली के दायरे में थे। आंगन में कोई बिल्ली घुस आई और बप्पा की नजर पड़ गई,तो बप्पा उसे ललकारते हुए कहते थे-आओ...आओ..भौजी...तोहरे... (इसके बाद इतनी अश्लील गाली कि सुनने वाले की कनपटी तक लाल हो जाती थी)। दादी बप्पा की गाली सुनकर तिलमिला जाती थीं। जेठ से कुछ कह तो नहीं पातींलेकिन कई बार जब बर्दाश्त नहीं होतातो वे झिड़क देती थीं-काहे आपन जुबान गंदी करते हैं। जानवरों को भी नहीं छोड़ते हैं। बगल में रहने वाली पहलवानिन आजी तो अक्सर दादी से कहती थीं-बापी बहुत गरियाते हैं। अरे..गाली भले ही कुत्ते-बिल्ली को देते होंलेकिन अंग तो हम औरतों का ही होता है। इन सबके बावजूद बप्पा को न सुधरना थान सुधरे। मोमिन का एक बहुत प्रसिद्ध शेर है-गुजरी तमाम उम्र इश्के बुंता में मोमिनअब आखिरी उम्र में क्या खाक मुसलमां होंगे।

दादी या पहलवानिन आजी की आपत्ति अपनी जगह जायज थी। लेकिन बप्पा ने बचपन से ही भाषा का जो संस्कार ग्रहण कर लिया थावह मरते दम तक नहीं छूट सकता था। हम सभी भाई थोड़ी सी भी शरारत करतेतो बप्पा आग बबूला हो जाते। गालियों का मधुर गान शुरू हो जाता।

बौद्ध और जैन धर्म के प्रभाव क्षेत्र में बसा नथईपुरवा

बचपन की कुछ यादें-2

मेरा गांव नथईपुरवा बलरामपुर-बहराइच मार्ग पर पूर्व-उत्तर दिशा में थोड़ा हटकर लगभग एक किमी की दूरी पर स्थित है। यह गांव बलरामपुर से 18 किमी और श्रावस्ती से मात्र दो किमी की दूरी पर है। यह वही श्रावस्ती है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे राम के पुत्र कुश ने बसाया था। कुश वंश के अंतिम शासक प्रसेनजित के शासनकाल में ही महात्मा बुद्ध ने 24 चौमासा बिताया था। महात्मा बुद्ध वर्ष भर भ्रमण करते रहते थे, लोगों को उपदेश देते रहते थे, लेकिन वर्षाकाल में वे एक स्थान पर ठहर जाते थे। बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद वर्षाकाल बिताने वाले कई प्रमुख स्थलों में श्रावस्ती प्रमुख स्थान रखती थी। राजकुमार जेत का वन महात्मा बुद्ध का निवास स्थान हुआ करता था। आज श्रावस्ती को स्थानीय लोग सहेट-महेट कहते हैं। सहेट-महेट का स्थानीय लोग अर्थ बताते हैं-उल्टा-पुल्टा हो जाना। पौराणिक नदी अचिरावती (राप्ती) श्रावस्ती के पास से ही बहती है। अचिरावती नदी की एक विशेषता यह है कि वह एक स्थान पर हमेशा नहीं बहती है। बरसात के दिनों में वह अपना स्थान बदलती रहती है। बहराइच और बलरामपुर में यह नदी गहरी नहीं रहती है। यह जब अपना स्थान बदलती है, तो छोड़ा गया इलाका दलदली हो जाता है। अचिरावती के रौद्र रूप का दुष्परिणाम हमारे इलाके से लोग आज भी हर साल बाढ़ के रूप में भुगतते हैं। सहेट-महेट के बारे में हमारी दादी एक लोकोक्ति का जिक्र करती थीं। कहती थीं कि सहेट-महेट का एक राजा था। उसने एक दिन भूल से अपनी भयो (अनुज वधु) की अंगुली छू लिया था, इससे नगर उल्टा-पुल्टा होकर धंस गया था यानि पूरा नगर सहेट-महेट हो गया। यह लोकोक्ति किस राजा के बारे में है, यह न दादी बता सकीं, न मुझे मालूम है। हां, यह कथा आज भी बलरामपुर या कहिए कि श्रावस्ती के इर्द-गिर्द बसे गांवों में आज भी कही जाती है। वैसे सहेट-महेट का अर्थ यह भी है कि क्षत-विक्षत कर देना, ध्वंस-विध्वंस कर देना, विनाश कर देना। हमारे इलाके में आज भी जब कोई काम बिगड़ जाता है, तो कहा जाता है-अरे मारा सहेट-महेट कर दिया। वैसे जहां तक मैं समझता हूं कि श्रावस्ती के बगल से होकर बहने वाली अचिरावती की वजह से आसपास का इलाका दलदली हो गया था और कालांतर में वह नगर धीरे-धीरे उस दलदल में समाता चला गया। जिसे बाद में राहुल सांस्कृत्यायन और अन्य पुरातत्वविदों ने खोज निकाला और श्रावस्ती को दुनिया के सामने लाकर खड़ा किया। राहुल सांस्कृत्यायन ने श्रावस्ती नामक पुस्तिका भी लिखी है जिसमें उन्होंने श्रावस्ती का गौरव विस्तार से लिखा है। यही वजह है कि श्रावस्ती बौद्ध धर्म मतावलंबियों के लिए प्रमुख है।
कहा तो यह भी जाता है कि जैन धर्म के संभवतः तीसरे तीर्थंकर संभवनाथ का जन्म भी यहां हुआ था। श्रावस्ती से आदि तीर्थंकर महावीर का भी प्रगाढ़ संबंध रहा है। कहा तो यह भी जाता है कि महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी समकालीन रहे हैं। इस तरह बौद्ध और जैन धर्म के प्रभाव क्षेत्र में बसे नथईपुरवा में मेरे पूर्वज निवास करते थे। मेरे बाबा दो भाई और एक बहन थे। मेरे बाबा रामाचार्य मिश्र उर्फ छोटे पंडित ब्रिटिश शासन काल में ही प्राइमरी के मास्टर थे। बलरामपुर के कई प्राइमरी स्कूलों में उन्होंने अध्यापन कार्य किया था। उनके बड़े भाई रामचंद्र मिश्र उर्फ भग्गन मिसिर वैसे कक्षा दो तक ही पढ़े थे। विशालकाय शरीर और शरीर के अनुरूप बलशाली भग्गन के बारे में आज भी लोग मिसाल देते हैं। गांव जवार में जिन्होंने भग्गन मिसिर को देखा है, उनके साथ जीवन के कुछ साल बिताए हैं, वे कहते हैं कि जब भग्गन काका रिसियाते थे, तो बैल से भिड़ जाया करते थे। लोग उन्हें अपने-अपने रिश्ते के हिसाब से भग्गन भाई, भग्गन काका कहते थे। हम लोग उन्हें बप्पा कहते थे क्योंकि हमारी छहों बुआ, बाबू जी, दादू जी यानी प्रो. कामेश्वर नाथ मिश्र और दादा जी यानी श्री बालेश्वर प्रसाद मिश्र उन्हें बप्पा ही कहते थे। एक मजेदार बात बताऊं। हमारी दोनों दादियां यानी भग्गन मिसिर की पत्नी और छोटे पंडित की पत्नी सगी बुआ-भतीजी थीं। हमारी दादी बुआ थीं और बप्पा की पत्नी भतीजी। लेकिन भतीजी अपनी बुआ से उम्र में बड़ी थीं। शादी के बाद भतीजी अपनी बुआ की जेठानी हो गई और बुआ देवरानी। बप्पा और बाबा यानी दोनों भाइयों की शादी एक ही दिन एक ही मंडप में हुई थी। मुझे अपने बाबा यानी छोटे पंडित को देखने का सौभाग्य नहीं मिला। जब मैं साल-डेढ़ साल का ही था, तभी उनकी क्षय रोग से मृत्यु हो गई थी। हां, अम्मा और दादी बताती थीं कि मेरा नामकरण उन्होंने ही किया था।
जब मैं सात-आठ महीने का था, तो अम्मा तेल-बुकवा (सरसों का उबटन), काजल लगाकर कपड़ा-लत्ता पहना-ओढ़ाकर धूप में लिटा देती थीं और कामकाज में लग जाती थीं। मैं लेटा लोगों को टुकुर-टुकुर देखता रहता था। बाबा जब गांव में होते, तो फुरसत पाकर मेरे खटोले के पास बिछी चारपाई या तख्त पर बैठ जाते। कभी कभी दुलार करते हुए कहते-संतोषी हो, अशोक हो...। बात दरअसल यह थी कि उस उम्र के अन्य बच्चों की तरह मैं अकेला होने पर रोता नहीं था। और इस तरह मेरा नाम अशोक रख दिया गया।
बाबू, भइया, दादू, दादा, दादी, बुआ और अम्मा से मिली जानकारियों के मुताबिक छोटे पंडित अनुशासन प्रिय बहुत थे। वे बोलते थे, तो बेलौस बोलते थे। सच बात कहने में तनिक भी हिचक उन्हें नहीं होती थी। चाहे वह कोई भी हो। गांव भर की औरतों की बात कौन कहे, गांव के बूढ़े-बुजुर्ग भी छोटे पंडित से डरते थे। यहां तक बप्पा भी अपने छोटे भाई से डरते थे।

कोलंबस बनते-बनते रह गया

बचपन की कुछ यादें--1

काश, कभी
मुझको अपना शैशव मिल जाता
मैं जा उसके पास, गले लगाता
और पूछता क्यों बिसराया मुझको।
यह कविता शायद 1994 से लेकर 1998 के बीच लिखी होगी। यह कविता का एक अंश मात्र है।पूरी कविता या तो किसी डायरी या कापी के पन्ने पर लिखी थी, जो अब कहां है मुझे नहीं मालूम। हो सकता है कि उस पन्ने का अवशेष ही न बचा हो। खैर.. ।
मेरा जन्म गोंडा जिले की कभी तहसील रहे बलरामपुर (वर्तमान में जिला) के नथईपुरवा गांव में हुआ था। मेरे बचपन की यादों का ज्यादातर हिस्सा लखनऊ से जुड़ा हुआ है, उसके बाद गांव की यादें हैं और एक बहुत मामूली सा हिस्सा इलाहाबाद के 113, पानदरीबा और सोहबतिया बाग से जुड़ा है। इलाहाबाद की वैसे तो कई घटनाएं याद हैं, लेकिन एक घटना ऐसी है जिसकी याद अब भी है।
कोलंबस बनते-बनते रह गया
जिन दिनों की बात है, उन दिनों रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) का मुख्यालय 113, पानदरीबा इलाहाबाद में हुआ करता था। वह इमारत शायद तीन मंजिली थी। नीचे दुकानें हुआ करती थीं। पहले हम लोग पार्टी कार्यालय में ही रहते थे। बाद में किन्हीं कारणों से हम लोग सोहबतिया बाग में रहने चले गए। किराये के मकान में। जब पानदरीबा में थे, तो अम्मा हम लोगों को बार-बार याद करातीं- कोई पूछे कहां रहते हो? तो क्या बताओगे?
मैं रटा-रटाया जवाब देता था-113, पानदरीबा, इलाहाबाद।
घंटाघर जीरो रोड.....अम्मा साथ में यह भी जोड़ती थीं। इलाहाबाद आने के बाद बाबू जी ने अम्मा को भी यही पता रटवाया था। बाबू जी माने का. रामेश्वर दत्त मानव। आरएसपीआई (एमएल) के होलटाइमर मेंबर। दरअसल, अम्मा का नाम जरूर सरस्वती देवी मिश्रा था, लेकिन सरस्वती से जन्मजात बैर था। निपट निरक्षर अम्मा को यह सोचकर बाबू जी ने पता रटवाया था कि यदि कभी कहीं आते-जाते अम्मा रास्ता भूल जाएं, तो पता पूछते-पूछते घर तो आ जाएं। अम्मा भी इसी मंतव्य से मुझे भी पता याद करवाती थीं।
जब हम सोहबतिया बाग में रहने चले गए, तो बाबू जी की अंगुली पकड़कर सोहबतिया बाग से पानदरीबा आया-जाया करता था। बाबू जी तो ज्यादातर रिक्शा कर लेते थे, वरना पैदल ही आते-जाते। मुझे नहीं मालूम है कि पानदरीबा से सोहबतिया बाग की दूरी कितनी है? कभी-कभी भइया भी साथ ले जाते थे। भइया बोले तो आनंद प्रकाश मिश्र। इन दिनों आरएसपीआई (एमएल) के महामंत्री और साप्ताहिक क्रांतियुग के प्रधान संपादक। सोबतिया बाग में रहते हुए कई महीने बीत चुके थे। उन दिनों मुझसे छोटा भाई राजेश और मैं दोनों स्कूल नहीं जाते थे। मुझे एक धुंधली सी याद है कि सोहबतिया बाग में जहां हम रहते थे, वहीं से थोड़ी दूरी पर एक बंधा था। शायद नदी का किनारा था। हो सकता है कि वह गंगा नदी का किनारा हो। अम्मा सुबह उठकर गंगा नदी नहाने जाती थीं। हम दोनों भाई उस बंधे के पास दिन भर बैठकर उड़ती पतंगें देखा करते थे। अम्मा सुबह आठ-नौ बजे तक नहला-धुलाकर घर के बाहर बिठा देतीं और हम उनकी निगाह बचाकर बंधे पर उड़ती पतंगें देखने पहुंच जाते। बाद में जब अम्मा बाहर निकलती और घर के बाहर न पातीं, तो बंधे तक आतीं। वहां से पकड़कर हमें  घर लातीं। वह बाहर तो कुछ नहीं कहती थीं, लेकिन घर के भीतर आते ही ठोकने लगतीं। ठुक-ठुकाकर कुछ देर रोता और फिर निकल पड़ता पतंगें देखने।
एक दिन बंधे पर पतंगें देखते-देखते पता नहीं क्यों मन में आया कि बाबू जी के पास पानदरीबा चला जाए। लगभग रोज सोहबतिया बाग से पानदरीबा आते-जाते यह विश्वास हो चला था कि अरे पानदरीबा जाना कौन सी बड़ी बात है। बस फिर क्या था? अपने तीन-चार वर्षीय भाई राजेश का हाथ पकड़ा और चल दिया पानदरीबा की ओर। तब दद्दा पास के ही किसी स्कूल में पढ़ते थे और उनका स्कूल दस से पांच बजे तक लगता था। दद्दा यानी ननकू यानी अरुण कुमार यानी कि विनोद कुमार मिश्र। कुछ दूर जाने के बाद लगा कि अरे..यह रास्ता तो पानदरीबा की ओर नहीं जाता है। मेरा ख्याल है कि बमुश्किल चार-पांच सौ मीटर ही बंधे से चले होंगे कि रास्ता भटक गए। ऊपर से राजेश रोने भी लगा। राजेश को रोता देखकर मैं भी रोने लगा। हम दोनों भाई एक दूसरे का हाथ पकड़े रोते हुए चले जा रहे थे कि हम दोनों पर सड़क के किनारे सब्जी बेचने वाली एक महिला की पड़ी, तो उसने रोक लिया। और हम दोनों भाइयों को पास के बोरे पर बिठा लिया। हम दोनों को रोटी खाने को भी दी, लेकिन मैंने नहीं खाया। राजेश थोड़ी-थोड़ी देर में अम्मा कहकर रोता और रोने से थककर सब्जी वाली ने जो रोटी पकड़ाई थी, वह कुतरने लगता। दस-ग्यारह बजे पानदरीबा के लिए निकले दोनों भाई लगभग चार बजे तक सब्जीवाली के पास ही बैठे रहे।
उधर अम्मा जब थोड़ा-बहुत काम निबटाकर बाहर निकलीं, तो हम दोनों भाइयों को नदारद पाया। आसपास काफी खोजबीन की। बंधे पर जाकर ढूंढा। लोगों को पहचान बताकर पूछताछ की। काफी देर तक खोजने के बाद दिमाग में आया कि कहीं हम दोनों पानदरीबा तो नहीं चले गए हैं। सो, वह तीन-साढ़े तीन बजे तक थक-हारकर पानदरीबा की ओर चल पड़ीं। उधर राजेश या तो रोटी कुतरता या फिर अम्मा अम्मा कहकर रोने लगता। शुरुआत में मैं भी रोया था, पर बाद में कठुआया से बैठा लोगों को आते-जाते टुकुर-टुकुर निहारता रहता था। चार बजे के आसपास अचानक राजेश अम्मा कहता हुआ उठकर उधर ही भागा जिधर से हम आए थे। मैंने देखा-थोड़ी दूर पर अम्मा बदहवास सी चली  आ रही हैं। राजेश जाकर अम्मा से लिपट गया। अम्मा भी हमार बच्चा कहकर रोने लगीं। वह मेरे पास आईं, तो उसने अम्मा को पूरी कहानी बताई। अम्मा ने उसका बहुत-बहुत आभार व्यक्त किया और हम दोनों को घर ले आई। पहले तो बड़े प्यार से पूछताछ चली, जैसे कोई थानेदार अपराधी से पहले फुसलाकर पूछताछ करता है। उसके बाद वह ठुकाई हुई कि पूछिए मत।

अम्मा बहुत बाद तक इस घटना का सविस्तार बताती रहीं। वह बाद में चिढ़ाने के लिए भी इस घटना का जिक्र करती थीं। यह प्रसंग भी अम्मा द्वारा विस्तार से बताई गई बातों पर ही आधारित है। मेरे जेहन में तो बस सोहबतिया बाग के बंधे और हम दोनों भाइयों का बंधे पर बैठकर उड़ती पतंगों को निहारने की धुंधली सी तस्वीर है। बाकी बातें तो अम्मा की बताई हुई बातों की वजह से जेहन में अटकी रह गई हैं।