Wednesday, July 29, 2015

'सेर' को मिल गया 'सवा सेर'

अशोक मिश्र
जिस कार्यालय में मैं दिन भर खबरों की कतरब्योंत करता हूं, उसी आफिस में काम करता है अच्छन प्रसाद। बीस-बाइस साल का चेहरे से भोला-भाला लगने वाला लड़का। हल्की-हलकी दाढ़ी,  ऊपर की ओर संवारे गए बाल। रंग न बहुत गोरा, न बहुत काला। स्वस्थ किंतु पतला-दुबला शरीर। पहली ही नजर में देखने पर एक 'अच्छे' लड़के की छवि मन-मस्तिष्क में उभरती है। एक दिन मैं किसी गंभीर समस्या पर कुछ लिखने का मूड बनाकर बैठा ही था कि वह अपना सिर खुजाता नमूदार हो गया। मैंने उसकी ओर प्रश्नवाचक निगाह से देखा, तो उसने पूछा, 'सर! अगर आप डिस्टर्ब न हों, तो एक बात पूछूं। बहुत दिनों से पूछना चाहता हूं।' मैंने गुर्राते हुए कहा, 'सारे मूड का सत्यानाश करके पूछता है कि डिस्टर्ब तो नहीं हो रहे हैं। चल, अब बक भी दे जो बकना है..मुंह बाये खड़ा देख क्या रहा है।'
अच्छन प्रसाद ने धीमे स्वर में पूछा, 'सर..ये मुंबई वाले ये हीरोइनें तो रोज नहाती होंगी?'
उसकी बात सुनकर मुझे गुस्सा आ गया। भला बताओ..कहां मैं राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार कर रहूा हूं, ईरान-तूरान से लेकर साइबेरिया तक, भारत से लेकर अमेरिका तक के लोगों को एक नई रोशनी से रू-ब-रू कराने की जुगत में लगा हुआ हूं और यह कमबख्त हीरोइनों के नहाने-धोने पर ही अटका हुआ है। मैंने गुर्राते हुए कहा, 'हां..नहाती-धोती हैं, तो तुझे क्या?' उसने फिर मासूमियत भरे लहजे में पूछा, 'सर...अमेरिका, लंदन, फ्रांस की हीरोइनें भी नहाती-धोती होंगी? मेरा मतलब अंग्रेजी फिल्मों की हीरोइनें....?'
उसकी बात सुनकर मेरा पारा चढ़ गया। मैंने लगभग डपटते हुए कहा, 'तू कहना क्या चाहता है? तेरी बात मेरे पल्ले तो पड़ नहीं रही है? जो कुछ पूछना है, साफ-साफ पूछ और फूट ले यहां से। बात को जलेबी की तरह घुमा मत।' मेरी तल्ख आवाज को सुनकर वह सिटपिटा गया। फिर थोड़ी देर वह बोला, 'सर...क्या कभी ऐसा आविष्कार हो सकता है कि आदमी के शरीर का कोई हिस्सा मशीन में डाला जाए और वह साबुन-शैंपू बन जाए।'
उसकी बात मेरे सिर के ऊपर से गुजर गई। मैंने कुछ देर तक उसकी बात के मायने-मतलब निकालने की कोशिश की। काफी मशक्कत के बाद भी मेरे अक्ल के दरवाजे नहीं खुले, तो मैंने गिड़गिड़ाने वाले अंदाज में कहा, 'भाई मेरे!...तेरे कहने का मतलब क्या है? साफ-साफ बता।' 
अच्छन प्रसाद  ने कहा, 'सर..बात यह है कि टीवी पर एक विज्ञापन आता है जिसमें एक हीरोइन नहा रही है..साबुन उठाती है और पूरे शरीर पर साबुन लगाने लगती है। तो सर..मेरे मन में ख्याल आया कि अगर मैं वह साबुन होता, तो..। बस सर...यह ख्याल आते ही सोचा कि आपसे पूछ लूं कि कहीं कोई ऐसे आविष्कार की गुंजाइश बनती दिख रही हो, तो मैं इस जन्म में आशा रखूं, वरना...।' अच्छन प्रसाद की बात सुनते ही मेरे भीतर का आक्रोश किसी शक्तिशाली हैंड ग्रेनेड की तरह फट पड़ा। मैं चीखा, 'अबे भाग जा, वरना तेरी वो गत करूंगा कि तीन दिन तक हल्दी पियेगा।'
अच्छन प्रसाद तो मूड का कबाड़ा करके खिसक गया। सारा दिन मूड उखड़ा-उखड़ा सा रहा। काम पूरा न होने की वजह से क्रोध में संपादक जी ने गिरधर की कुंडलियों का पाठ किया, वह अलग है। तब से मैं अच्छन प्रसाद को देखते ही किनारा काट जाता हूं। एक दिन मैं अपना काम खत्म करके घर जा रहा था। आफिस के गेट पर ही अच्छन प्रसाद दिख गए। मैंने कतराकर निकल जाने में ही भलाई समझी। मुझे देखते ही अच्छन प्रसाद ने लगभग सैल्यूट की मुद्रा में लंबा नमस्कार किया। बोला, 'सर..सर...एक बात बताइए, बराक ओबामा हिंदू हैं क्या?' उसकी कम अक्ली पर मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने कहा, 'यह तुमसे किसने कह दिया?' उसने कहा, 'सर जी..आज अपने अखबार में छपा है, इसलिए मुझे लगा कि बराक ओबामा हिंदू हैं।'
'अबे मंदअक्ल..अपने अखबार में यह कहां लिखा है कि बराक ओबामा हिंदू हैं।' मैंने खीझते हुए कहा। अच्छन प्रसाद ने बड़े सलीके से उत्तर दिया, 'सर जी..अपने अखबार के पहले पन्ने पर छपा है कि बराक ओबामा ने कहा, हे भगवान! तेरा लाख-लाख आभार...हमने अमेरिका की गिरती अर्थव्यवस्था को संभाल लिया। अब अगर वे हिंदू न होते, तो भगवान को आभार क्यों जताते?' अच्छन प्रसाद की बात सुनकर मैं अपना माथा पकड़कर वहीं बैठ गया। मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा, 'अरे यार! तू मुझे 'पकाता' क्यों रहता है? मेरा पीछा छोड़ दे..मेरे भाई..मैं तो आजिज आ गया हूं, तुझसे।'
अच्छन प्रसाद के चेहरे पर पहली बार मुझे मुस्कान दिखी। वह मुस्कुराते हुए बोला, 'सर... आप भी तो पकाते रहते हैं, कभी व्यंग्य के नाम पर, तो कभी लेख के नाम पर। सर..आप 'पकाएं', तो यह आपकी प्रतिभा और मैं 'पकाऊं' तो मेरा पागलपन। सोचिए सर, आपके इन सड़े-गले व्यंग्यों और लेखों को पढ़कर हमारे पाठकों को कितनी कोफ्त होती होगी।' इतना कहकर अच्छन प्रसाद तो आफिस में चले गए और मैं गेट पर खड़ा रहा। मन तो यही कर रहा था कि अपना सिर सामने की दीवार पर दे मारूं।

Tuesday, July 21, 2015

सब कुछ चकाचक है, भइया!

अशोक मिश्र
आफिस पहुंचते ही संपादक जी ने आदेश का टोकरा मेरे सिर पर पटक दिया, 'मैं केंद्र सरकार की अब तक की उपलब्धियों पर एक परिशिष्ट (सप्लीमेंट) निकालना चाहता हूं। फौरन से पेशतर मुझे एक विश्लेषणात्मक रिपोर्ट चाहिए, ताकि उसे सप्लीमेंट में लिया जा सके।' इतना कहकर वे अपने चैंबर नुमा दड़बे में घुस गए। मैं सिर पकड़ कर बैठ गया। काफी शोध, पूछताछ और साक्षात्कार के बाद जो रिपोर्ट मैंने तैयार की, उसे देखते ही संपादक जी ने मेरे मुंह पर मारते हुए कहा, 'यह तुमने रिपोर्ट तैयार की है?...इसे ले जाकर रद्दी की टोकरी में डाल दो...।' इसके बाद वे मोबाइल पर व्यस्त हो गए। मैं लोट आया। अब आपके सामने अपनी रिपोर्ट पेश कर रहा हूँ । आप ही बताइए, इसमें मैंने क्या गलत लिखा था?
मैंने लिखा था, देश में सबके अच्छे दिन आ बहुत पुरानी बात हो चुकी है। यहां तो सब कुछ चकाचक है। दूध पीने वालों के लिए सरकार ने जहां हर गली के मोड़ पर मिल्क बूथ का इंतजाम किया है, तो शराब पीने वालों के लिए हर चौराहे पर 'मुफ्त सुरा वितरण केंद्र' स्थापित किए गए हैं। कहने का मतलब है कि जिसकी जैसी आवश्यकता है, सरकार ने वैसे ही प्रबंध किए हैं। सरकार की मेहरबानी से पूरे देश में रामराज्य कायम हो गया है। देश के प्रत्येक मोहल्ले, कालोनी और चौराहों पर लगे सरकारी नल पर शेर और बकरी एक साथ पानी पीते हैं। कई बार तो शेर एकदम लखनवी अंदाज में बकरी से 'पहले आप' कहते हुए पानी पीने का आग्रह करता है। बकरी भी दोस्ताना अंदाज में मुस्कुराती हुई पानी पीने के बात 'थैंक्स' कहती हुई चली जाती है। देश में अब न कोई गरीब है, न अमीर। इस सरकार से पहले जितने अमीर थे, सरकार के प्रभाव से वे पद और धन का मोह त्यागकर एकदम विरागी हो गए हैं। उन्होंने अपनी पूरी संपत्ति, रुपया-पैसा या तो सरकार को दे दिया है या फिर गरीबों में बराबर-बराबर बांट दिया है। अपने पास सिर्फ इतना ही छोड़ा है, जितना इस देश के एक आम आदमी के पास है। यही नहीं, सरकार ने विदेश में जमा सारा काला और सफेद धन भारत में मंगवाकर अपने देश की जनता के बीच बंटवा दिया है। इस देश का हर नागरिक पंद्रह से बीस लख टकिया हो गया है। अब तो देश में पैदा होने वाला बच्चा भी पैदा होते ही लखटकिया हो जाता है क्योंकि बच्चे के संभावित जन्म से एक सप्ताह पहले सरकार उसके नाम का किसी बैंक में खाता खुलवाकर उसके नाम उतना ही पैसा डाल देती है जितना कि उसने दूसरे नागरिकों को दिया था। सरकार ने जन-धन योजना का पैसा पहली ही किस्त जमा होते ही खाताधारक के खाते में जमा करवा दिया है कि यदि दुर्घटना में खाताधारक की मृत्यु हो गई, तो ठीक...नहीं तो बाद में खाताधारक सधन्यवाद वह पैसा सरकार को वापस कर देगा।
देश में स्किल इंडिया बड़े जोर-शोर से चल रहा है। जिन्हें आईएएस, पीसीएस से लेकर इंजीनियर, मैनेजर, मजदूर, बस चालक, रिक्शावाला...कहने का मतलब है कि जिसकी जिस क्षेत्र में रुचि है, सरकार ने वैसे-वैसे प्रशिक्षण और शिक्षण संस्थान खुलवा दिए हैं। भ्रष्टाचार, लूट-खसोट से लेकर छिनताई और पाकेटमारी की लुप्त होती कला को भी जिंदा रखने का प्रयास सरकार बड़े पैमाने पर कर रही है। आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ करप्शन से लेकर इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट आफ पिकपाकेटिंग जैसे संस्थान प्रत्येक शहर में खुलवाए गए हैं, ताकि भारत की ये अमूल्य ललित कलाएं लुप्त न हो जाएं और पश्चिमी देश इन्हें अपना बताकर पेटेंट न करवा लें। सरकारी और गैर सरकारी नौकरियों में पाकेटमारों, उठाईगीरों, ठगों, पूजा-पाठ के नाम पर ठगने वालों को बीस फीसदी आरक्षण दिया जाता है। बस, हत्या और बलात्कार जैसे मामलों में बड़ी सख्ती से सरकार पेश आती है। वैसे भी सरकार के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और छुटभैये से लेकर राष्ट्रीय स्तर के पार्टी नेताओं की चारित्रिक शुचिता, कर्तव्य पारायणता, लोक कल्याणकारी भावना ने देश की जनता को काफी प्रभावित किया है। अब कार्यालय चाहे किसी भी विभाग का हो, सरकारी हो या गैर सरकारी, ठीक दस बजे खुल जाता है और अपना काम लेकर आने वाली जनता का दरवाजे पर ही विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी मुस्कुराकर स्वागत करता है। उसे चाय-काफी पिलाकर पहले ठंडा होने दिया जाता है, फिर उसका काम पूछकर तुरंत निबटाया जाता है।
तो पाठको! यह है मेरी रिपोर्ट का निचोड़। बस आप इस बात को पुराने समय में चिट्ठियों में लिखा जाने वाला जुमला 'कि लिखा कम, समझना ज्यादा' की तर्ज पर पढ़ें। लेकिन पता नहीं क्यों, मेरी यह रिपोर्ट संपादक जी को पसंद ही नहीं आई। अब आप लोग ही बताइए, मैंने कुछ गलत लिखा था क्या?

Thursday, July 16, 2015

अब तो भैंस भी हो जाएगी डिजिटल

अशोक मिश्र
नथईपुरवा गांव में लुंगाड़ा ब्रिगेड (फालतू किस्म के आवारा लड़के) परचून की दुकान के सामने बैठी बतकूचन कर रही थी। उनमें से एक के हाथ में उसी दिन का अखबार था। वह अटक-अटक कर अखबार की हेडलाइंस पढ़ता जा रहा था, 'परधानमंतरी ने डिजि..टल इनडिया का किया उद..घाटन..। बोले, अब देश भर के गांव हो जाएंगे डिजि..टल।Ó इतना पढ़कर उसने शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गर्दन चारों ओर घुमाई और कुछ गर्व भरे शब्दों में पूछा, 'सुकुल काका..कुछ समझ में आया डिजि..टल का मतलब? अगर गांवों में सब कुछ डिजि..टल हो गया, तो मजा आ जाएगा।Ó
चतुरानन सुकुल ने नकारात्मक लहजे में सिर हिलाते हुए कहा, 'ई परधानमंतरी हैं न...एकदम मौका ही नहीं देते जरा भी सांस लेने का। अभी कुछ दिन पहले किए गए योग से कमर सीधी भी नहीं हुई थी कि पीठ पर लाद दिए हैं डिजिटल-फिजिटल इंडिया। अभी अच्छे दिन आना तो बाकी ही है। एक भी काम ढंग का हुआ नहीं और दूसरे का सपना दिखाने लगते हैं।Ó
'काका...आप भी न, एकदम गंवई-गंवार ही रहेंगे जिंदगी भर। अरे बड़े सपने देखिए..बड़े। सपने देखने में धेला भर का खर्च आए, तो बताइएगा। आपको क्या पता डिजि..टल होने के मतलब। अब गांव में सब कुछ डिजि...टल हो जाएगा। सब कुछ..माने सब कुछ। आपको खुर्रा-खांसी हुई, यहीं बैठे-बैठे कंपूटर से अस्पताल को अपनी हारी-बीमारी के बारे में बताइए, घंटा-आधा घंटा में दवाई आपके घर पहुंच जाएगी। न चार कोस पैदल चलने की झंझट, न अस्पताल में लाइन लगाने का टंटा।Ó लुंगाड़ा ब्रिगेड के एक वरिष्ठ सदस्य सुखई ज्ञान बघार रहे थे। वे अपनी सुविधा के अनुसार कठिन या लंबे शब्दों को दो भागों में बांटकर उच्चारण करने के आदी थे। तभी चतुरानन सुकुल ने बात काटते हुए कहा, 'कल तो यही बात परधानमंत्री जी टीबिया (टीवी) पर कह रहे थे कि अब तो किसानन का ट्यूबवेल चलाने के लिए खेत पर भी नहीं जाना पड़ेगा। अपने घर में बैठे-बैठे कंपूटर का बटन दबाओ, उधर ट्यूबवेल अपने-आप चालू हो जाएगा। खेत सींच जाने पर ट्यूबवेल अपने आप बंद भी हो जाएगा। भैंस चराने, गोबर उठाने से लेकर खेत में खाद डालने तक का काम अब सब डिजिटल हो जाएगा।Ó
 अब बारी थी लुंगाड़ा ब्रिगेड के उन युवकों के मुंह ताकने की, जो अपने को सबसे बड़ा ज्ञानी समझते थे। वे मुंह बाए चतुरानन सुकुल का मुंह ताक रहे थे और सुकुल धारा प्रवाह बोलते जा रहे थे, 'जानते हो..अब भैंस, गाय, बकरी से लेकर दूसरे जानवर तक डिजिटल हो जाएंगे। जैसे ही गाय, बकरी या भैंस को गोबर करने का समय हुआ, कंपूटर का बटन दबाओ, आपके घर के बाहर या भीतर बंधे पशु खटाखट खूंटे से अलग हटकर गोबर करने लगेंगे। दूध देने का टाइम हुआ, तो उनके थन के नीचे  बस बाल्टी रख दो, वे दूध देने लगेंगी। मजाल है कि दूध की एक बूंद भी बाल्टी या लोटे से बाहर निकल जाए? जैसे ही बाल्टी भरी, उनके दूध की धार तुरंत बंद। यहां कंपूटर का बटन 'लपलपÓ करके जलने लगेगा। जैसे ही कंपूटर का बटन लपलप करे, तुम जान जाओ कि कोई गड़बड़ है।Ó
'हां..काका.. अब तो बस मजे ही मजे हैं। अच्छा काका..गाय, भैंस, बकरी ही डिजिटल हो पाएंगी और कोई और भी...?Ó सुखई ने चुहुल के अंदाज में चतुरानन सुकुल को छेड़ा।
हाजिर जवाब चतुरानन सुकुल ने नहले पर दहला जड़ा, 'हां..हां..क्यों नहीं, तुम्हारी मौसी, मामी और महतारी भी डिजिटल हो जाएंगी।Ó गांव के रिश्ते से भौजाई लगने वाली सुखई की मां से सुकुल ने मजाक किया। चतुरानन सुकुल की बात सुनते ही वहां उपस्थित सारे लोग हंस पड़े। खिसियाए सुखई ने वहां से हट लेने में ही भलाई समझी। और फिर धीरे-धीरे यह मंडली बिखर गई किसी नई जगह मजमा जमाने की नीयत से, जहां चतुरानन सुकुल जैसे लोग उनकी गप गोष्ठी में विघ्न न डाल सकें।

Thursday, July 9, 2015

जितना बड़ा फेंकू, उतना बड़ा मौनी

अशोक मिश्र
एनसीआर से प्रकाशित
दैनिक 'न्यू ब्राइट स्टारÓ के
10/07/2015 के अंक में छपा
मेरा एक व्यंग्य
मौन की महिमा संस्कृत साहित्य में बहुत बढ़-चढ़कर बताई गई है। पूरा संस्कृत साहित्य मौन की महत्ता से भरा पड़ा है। कहा गया है कि मौन  सबसे बड़ा हथियार है, जिससे आप कितने ही वीर, पराक्रमी और तेजस्वी शत्रु को पराजित कर सकते हैं। कहते हैं कि मौन रहना भी एक साधना है। जैसे अतिभोग से वितृष्णा होने पर व्यक्ति योगी हो जाता है, वैसे ही लंबी-लंबी फेंकने के बाद मौन एक सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया है। जिस तरह योग की पराकाष्ठा अतिभोग के बिना संभव नहीं है, ठीक उसी प्रकार मौन का रास्ता भी लंबी-लंबी फेंकने, लंबे-चौड़े वायदे करने से ही होकर जाता है। जो व्यक्ति फेंकने की कला में जितना ज्यादा  निष्णात होता है, उसे मौन की भी कला बहुत अच्छी तरह से आती है। वह जानता है कि उसे कब और कितना फेंकना है और फेंकने के बाद उठे बवंडर के थमने तक किस तरह मौन रहना है? इससे पहले वाले मौनी बाबा जब यह कहते थे कि 'हजारों जवाबों से अच्छी है खामोशी मेरी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखेÓ, तो यही लोग संसद और सड़क तक बाइस पसेरी धान बोए रहते थे। संसद में तो हल्ला-गुल्ला मचाते ही थे, सड़क पर भी छाती पीटते थे। बात-बात पर नारा लगाते थे, इस्तीफा दो..इस्तीफा दो..।
अब इसे राजनीति की द्वंद्वात्मकता कहें, इतिहास का अपने को दोहराना कहें, कल तक जो लोग बात-बात पर सावन-भादों के मेढक की तरह एक लय और सुरताल में टर्राते थे, इस्तीफा दो.. बर्खास्त करो..जवाब दो..भ्रष्टाचारियों को बाहर करो..। आज वे लोग उन्हीं सवालों से जूझ रहे हैं। कल तक छप्पन इंच का सीना फुलाकर मौनी बाबा को कठघरे में खड़ा करने वाला आज खुद कठघरे में हैं। राजनीति में भूमिका बदल गई है। कल तक मौन रहने वाले अपना व्रत तोड़ चुके हैं, बात-बात पर हंगामा खड़ा करने वाले इन दिनों भीगी बिल्ली की तरह टुकुर-टुकुर इस्तीफा मांगने वालों के जोश ठंडे होने का इंतजार कर रहे हैं। यह मौन रहने वाले का सबसे बड़ा हथियार है।

पहले वाले मौनी बाबा को किसी ने विरोधियों के उकसाने पर कुछ कहते सुना है? नहीं न..वे अपना मौन व्रत तभी तोड़ते थे, जब उनके व्रत के पारायण का समय आता था। जो लोग आज गरज-बरस रहे हैं, खुदा न खास्ता..कल अगर वे प्रधानमंत्रित्व को प्राप्त हुए, तो वे भी मौन धारण कर लेंगे। आप उनका कुछ बिगाड़ लेंगे क्या? बोलना-न बोलना, मौन व्रत धारण करना, उनका लोकतांत्रिक अधिकार है।