Thursday, March 24, 2011

कुत्तों की खरीद पर आयकर

-अशोक मिश्र
आज श्यामलाल का चेहरा उतरा हुआ था। सब्जी लेते समय मिले, तो उन्होंने बिना चीनी की गुझिया की तरह फीके अंदाज में अभिवादन किया। मैंने पूछा, ‘भाई श्याम लाल, घर में सब सुख-सांद तो है न! काफी उदास से लग रहे हैं। बात क्या है?’

श्याम लाल ने फुफकार की तरह गहरी सांस छोड़ी, ‘अच्छा, भाई साहब! एक बात बताइए। सरकारी महकमे के अधिकारियों के पास कोई काम नहीं है क्या? बैठे-ठाले बस फिजूल की बातें सोचते और खुरपेंच करते रहते हैं।’
मैं हंस पड़ा। पूछा, ‘हुअ क्या? कुछ तो बताइए। आप बात तो बताते नहीं है और बस अधिकारियों को खरी-खोटी सुनाए जा रहे हैं। मामले की पूंछ कुछ पकड़ में आए, तो कुछ सलाह-वलाह दे सकूंगा।’

मेरी इस बात पर श्यामलाल जी कुछ खुले। उन्होंने कहा, ‘बात यह है कि मेरी मुनिया ने चार बच्चे दिए थे। बड़े प्यारे-प्यारे, सुंदर-सुडौल बच्चे। उन बच्चों में से एक को मेरे पड़ोसी के पड़ोसी मेहता जी मांग कर ले गए। दूसरे को मेरे आफिस के सुपरवाइजर कालरा साहब उठा ले गए, बोले कि इसे मैं पालूंगा। बाकी बचे दो बच्चों में से एक को कोई रात में चुरा ले गया। एक मेरे पास है जिस पर मेरे बच्चे के क्लास टीचर की निगाह है। वह रोज शाम को मेरे बेटे को ट्यूशन पढ़ाने आता है और जाते समय उसे बड़ी हसरत भरी निगाहों से देखता है।’

‘तो इसमें ऐसी कौन सी बात हो गई कि आप अधिकारियों के खिलाफ लट्ठ लिए घूम रहे हैं। और फिर एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि यह मुनिया कौन है? बकरी है, कुतिया है या फिर कोई महिला है? कौन है यह मुनिया?’ मैंने झल्लाते हुए पूछा।

मेरी बात सुनकर श्यामलाल जी के चेहरे पर नागवारी के भाव उभरे। उन्होंने कठोर लहजे में कहा, ‘आप इतना भी नहीं समझते! मुनिया मेरे घर की पालतू कुतिया है। उसने चार बच्चे दिए हैं। अब असली समस्या यह है बरखुरदार कि कल ही आयकर विभाग, दिल्ली से एक सरकुलर जारी हुआ है कि कुत्तों की खरीद-फरोख्त बाकायदा रसीद लेकर की जाए। यदि कुत्ते किसी को दान में भी दिए जाएं, तो इसकी भी लिखत-पढ़त जरूरी है। अब भला बताओ, यह भी कोई बात हुई, कुत्ते न हो गए सोने-चांदी के जेवर हो गए कि लिखत-पढ़त करा लो, ताकि भविष्य में कोई जेवर खराब निकले, तो मामला सुलटाया जा सके।’

मुझे श्यामलाल की बात सुनकर काफी गुस्सा आया। श्यामलाल जी की यही एक आदत मुझे खराब लगती है। वे किसी बात को आधा सुनते हैं, बाकी ले उड़ते हैं। मैंने उन्हें समझाते हुए कहा, ‘भाई साहब, यह सरकुलर गली-कूचे में हर आते-जाते लोगों को देखकर भौं-भौं करने वाले कुत्तों के लिए नहीं है। कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली। यह आदेश उन कुत्तों के लिए है, जो कारों में घूमते हैं, शैंपू से जिनके बाल धोए जाते हैं। जिन्हें उनकी मालकिन या मालकिन की बिटिया गोद में लिए घूमती-फिरती है। ऐसे कुत्तों की खरीद-फरोख्त पर अब रसीद जरूरी होगी। आपकी मुनिया के लिए नहीं, जिसे दिन भर में पूरी एक रोटी भी नसीब नहीं होती है। कार में घूमने और महलनुमा कोठियों में रहने वाले कुत्तों का कारोबार कई सौ करोड़ रुपये सालाना है। अब अगर आयकर विभाग वाले इन कुत्तों की खरीद-फरोख्त पर आयकर वसूलने की फिराक में है, तो आपको क्या तकलीफ है।’ मेरी बात सुनकर श्यामलाल जी सिर्फ इतना ही बोले, ‘अच्छा तो यह बात है। मैं तो बेकार में ही कल से दुबला होता जा रहा था।’ इतना कहकर श्यामलाल खुशी-खुशी सब्जियां खरीदने लगे।

Wednesday, March 16, 2011

ओटन लगे कपास

अशोक मिश्र

एक हैं स्वामी जी। खा-अघाकर मुटा गए तोंदियल धन्ना सेठों और मध्यमवर्गीय लोगों को कसरत कराते-कराते उन्होंने काफी नाम और दाम कमा लिया। उनके कसरत शिविरों में लोग फीस देकर जाते हैं। गरीब को वैसे भी कसरत-फसरत की जरूरत नहीं होती और उसका प्रवेश भी स्वामी जी के कसरत शिविरों में वर्जित रहता है। जैसा कि आमतौर पर होता है, स्वामी जी को एक दिन अहसास हुआ कि अरे! मैं तो ब्रह्म हो गया। मैं जो कुछ कहूंगा, लोग भक्तिभाव से सुनेंगे। तो वे लगे भ्रष्टाचार और कालेधन पर भाषण देने। उन्होंने सोचा, वे राजनीतिक पार्टी बनाएंगे, तो लोग उन्हें चुनकर देश का भाग्यनियंता बना देंगे और वे योग (कसरत) के बल पर देश को भ्रष्टाचार मुक्त बना देंगे। इस ज्ञानोदय के बाद स्वामी जी लगे, प्रवचन देने। फलां व्यक्ति का कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है, अमुक व्यक्ति चोर है। जिसके वे कालेधन का मालिक बताते, वह तो तिलमिलाकर रह जाता, लेकिन उसके विरोधियों को एक मौका मिल जाता घेरने का। एक पार्टी के पीछे तो वे हाथ-पैर धोकर पड़े हुए थे।

लेकिन एक कहावत है न! आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास। कहां योग के नाम पर कसरत सिखा रहे थे, कहां योग से सत्ता सुंदरी को भोगने के चक्कर में पड़ गए। उनकी सत्ता भोग लिप्सा और एक ही पार्टी को निशाना बनाने की प्रवृत्ति पर निशाना बन रही पार्टी ने जवाबी हमला कर दिया। स्वामी जी से पूछा जाने लगा कि एक हजार करोड़ से ज्यादा की संपत्ति कहां से आई? जानते हैं स्वामी जी का क्या जवाब था इस पर। स्वामी जी कहते हैं कि उन्होंने जितना भी कमाया, अपनी मेहनत से कमाया। काला धन अगर लिया भी, तो उसे साबुन से धोकर श्वेत धन में बदल दिया था। अब स्वामी जी की इस बात का तोड़ विरोधी खोजने में लगे हुए हैं। हो सके, तो आप भी उनकी मदद करें।

ये क्या हो रहा है?

-अशोक मिश्र

कभी सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने एक फिल्म में गीत गाया था, ये क्या हो रहा है, भाई ये क्या हो रहा है? इसका जवाब यह दिया गया कि कुछ नहीं...कुछ नहीं... बस प्यार हो रहा है। मैंने इस फिल्म को देखा नहीं है। लेकिन गीत के बोल से लगता है कि प्रेमी-प्रेमिका को कुछ ऐसा-वैसा करते पकड़ लेने पर ही उनके मुंह से निकला होगा कि ये क्या हो रहा है? आज हालत यह है कि सुप्रीम कोर्ट पूरे देश से पूछ रही है कि यह क्या हो रहा है और इसका जवाब देने वाला कोई नहीं है। यही सवाल एक दिन सुबह-सुबह मैंने उस्ताद गुनाहगार के घर जाकर पूछा, तो वे झल्ला उठे। उन्होंने भाभी जी से चाय पिलाने का अनुरोध करते हुए कहा, ‘होने को तो बस केवल भ्रष्टाचार हो रहा है, घपले हो रहे हैं, घोटाले हो रहे हैं। महिलाओं और बच्चियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं। इसके अलावा कुछ नहीं हो रहा है। तुम और क्या सुनना चाहते हो? सुबह-सुबह राम का नाम लेने के बजाय मेरे मुंह से खराब बातें ही निकलवा रहे हो।’

मैंने उस्ताद गुनाहगार को छेड़ा, ‘आप भी अमिताभ बच्चन की तरह लोगों से पूछिए, यह क्या हो रहा है?’
गुनाहगार थोड़े नम्र हुए। बोले, ‘यार! किससे-किससे पूछोगे। सुप्रीम कोर्ट पूछ तो रही है? है कोई जवाब देने वाला? प्रधानमंत्री से पूछो, तो अपनी ईमानदारी का तमगा और मजबूरी का रोना रो देंगे। विपक्षी सिर्फ हाय-हाय करना जानते हैं। उनको भी पता है कि देश में क्या हो रहा है। कुछ उन्होंने किया है, कुछ उनके भाई-बंधु कर रहे हैं और कुछ उनके भविष्य में करने की आशा है। इसी आशा पर उनकी सारी हाय-हाय टिकी है।’

मैंने कहा, ‘सरकार को कुछ मत कहिए। उसने किया तो है। ए राजा को जेल भेजा, सुरेश कलमाड़ी के किये-कराये पर पानी फेर दिया। बेचारे अब सफाई देते फिर रहे हैं कि मैंने कुछ नहीं किया।’

गुनाहगार फिर झल्ला उठे, ‘अरे, तो करते न! उन्हें कुछ करने के लिए ही तो जिम्मेदारी सौंपी गई थी। जब कुछ नहीं किया, तो इतना बड़ा घोटाला निकला और अगर कहीं खुदा न खास्ता करते, तो फिर पूरा देश ही कंगाल हो जाता। भगवान बचाए, ऐसे करने वालों से। अगर अपने देश में दो-चार ऐसा करने वाले निकल जाएं, तो फिर देश का बंटाढार ही समझो।’

‘भाई साहब, ऐसा करने वालों से हमारे देश की धरती कभी खाली नहीं रही है। आजादी के बाद से लेकर आज तक के इन घोटालेबाजों के नाम गिनाऊं क्या?’

‘रहने दो यार...अपने देश के तो भाग्य नियंता हो गए हैं घोटालेबाज। हम जन-गण-मन के अधिनायक तो यही हैं। इन्हीं का जयगान गाते-गाते इस दुनिया से विदा हो जाएंगे।’ उस्ताद गुनाहगार अब कुछ भावुक और भाग्यवादी से हो चले थे। उन्हें अधिक परेशान करने की बजाय घर की ओर लौट चला। चौराहे पर पहुंचा, तो वहां भीड़ देखकर मैं मामला जानने की नीयत से पास गया, तो पता चला कि एक रिक्शे पर कुछ लड़के गोमती नगर से पालिटेक्निक कालेज तक बड़े ठाठ से बैठकर आये और किराये के नाम पर पांच रुपये पकड़ाकर चल दिए। रिक्शेवाले ने विरोध किया, तो उसे मारा पीटा और उसके पास जो कुछ था, वह भी छीन कर भाग गए। लुटा-पिटा रिक्शावाला तमाशाई भीड़ से पूछ रहा था, ‘भइया, यह क्या हो रहा है? एकदम अंधेर मची है इस देश में। मेहनत भी कराया और जो कुछ था, वह भी लूटकर चलते बने।’ मैं गुनगुनाता हुआ घर लौट आया, ‘यह क्या हो रहा है...भाई...यह क्या हो रहा है?’

होली का त्योहार और कर्ज

-अशोक मिश्र

उस्ताद गुनाहगार कह रहे थे, ‘यार...वर्ल्ड बैंक के ग्लोबल डेवलेपमेंट फाइनेंस की रिपोर्ट कहती है कि हम दुनिया के पांचवें बड़े कर्जदार देश हैं। यह बात हमारे वित्त मंत्री प्रणव दादा बड़े गर्व से लोकसभा में बताते हैं। वैसे तो कर्ज लेने के मामले में अपने दिल्ली वाले मिर्जा गालिब ही बदनाम थे। लेकिन लगता है कि अपने दादा तो उनसे भी चार जूता आगे निकले। मिर्जा गालिब तो कर्ज की दारू पीने के बाद अपनी फाकामस्ती के रंग लाने का इंतजार करते थे। लेकिन हमारी सरकार वर्ल्ड बैंक से भारी भरकम कर्ज लेने के बाद मरभुक्खे मंत्रियों और सांसदों की समिति गठित करके तरह-तरह के आयोजन कराती है, ताकि उनकी फाकामस्ती दूर की जा सके।’

मैंने जमुहाई रोकते की कोशिश करते हुए कहा, ‘सच? आपकी बात पर विश्वा स नहीं होता है।’

गुनाहगार ने मुझे झिड़कते हुए कहा, ‘जब प्राइमरी वाले गुरु जी कहते थे, इतिहास पढ़ लो, काम आयेगा। तब आपको कुछ दूसरा ही सूझता था। यदि आपने ठीक से इतिहास पढ़ा होता, तो आपको पता होता कि हम सदियों तक कर्ज मांगने के मामले में विश्व शिरोमणि रहे हैं। हमारे यहां का राष्ट्रीय कर्म कर्ज मांगना था। यदि कर्ज न मिले, तो भीख मांगो। पहले पूरा देश एक दूसरे से भीख या कर्ज मांगता था, लेकिन बाद में यह काम कुछ वर्ण के लोगों को ठेके पर दे दिया गया। बाद में इस ठेके के खिलाफ आवाज उठी, तो यह हक देश के उन निकम्मे और कामचोरों को सौप दिया गया जिसे साधु कहते हैं। चार्वाक महोदय ने तो बाकायदा एक सूत्र पूरे देश को थमा दिया था, ‘ऋणम कृत्व घृतम पिबेत।’ चार्वाक तो कहते थे कि इस शरीर के भस्म हो जाने पर कौन किससे कर्ज की रकम वसूलने आयेगा।’

मैंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, ‘क्या...कभी ऐसा भी होता था। लोगों को भीख या कर्ज मांगने में लज्जा भी नहीं आती थी?’

गुनाहगार ने कहा, ‘काहे की लज्जा। लज्जा और भिक्षा में वैसा ही बैर होता है जैसे सौतों में होता है। अरबों-खरबों का कर्ज लेने वाली सरकार कहीं शर्माती है क्या? रूस और चीन कभी शर्म से पानी-पानी हुए? ऐसी कोई खबर अखबारों में छपी क्या?’ इसके बाद गुनाहगार का स्वर एकाएक अत्यंत मधुर हो उठा। वे बोले, ‘यार तुम्हें तो मालूम है कि अगले कुछ ही दिनों में होली आने वाली है। पिछले कई दिनों से लोगों की पाकेट मार रहा हूं, लेकिन कोई खास रकम मिली नहीं। किसी के पर्स से दो सौ से ज्यादा की रकम निकली नहीं। और तुम जानते ही हो कि इस महंगाई के जमाने में इतनी रकम से होली नहीं मनाई जा सकता है। यदि तुम कुछ मदद कर सको, तो....’

गुनाहगार ने पलभर मेरे चेहरे को निहारा, फिर बोले, ‘क्या बताऊं यार, अपने घर का बजट भी बिल्कुल आम बजट की तरह है। होली हो या दीवाली, हमेशा गड़बड़ाया ही रहता है। कभी बच्चे त्योहार के अवसर पर कम बजट का रोना रोते हैं, तो कभी घरैतिन राशन, कपड़े, हारी-बीमारी के मद में कम पैसे को लेकर अपना माथा पीटती है। हर महीने कुछ न कुछ रुपये तो उधारी चुकाने में चला जाता है। अगर तुम कुछ मदद कर सको, तो थोड़े-थोड़े रुपये तुम्हें भी हर महीने वापस करता रहूंगा। वैसे होली पर जब लोग रंग खेलने में मशगूल होंगे, तब मैं अपने ब्लेड का भरपूर उपयोग करूंगा और हो सकता है कि तुम्हारी रकम होली की शाम तक ही वापस हो जाए।’

इसके बाद गुनाहगार ने कर्ज मांगने के वे तमाम लटके झटके अपनाए, जो आम तौर पर सरकारें वर्ल्ड बैंक से कर्ज लेते समय अपनाती हैं। मैं भी दस-बारह हजार रुपये का चूना लगवाकर घर लौट आया।

Tuesday, March 15, 2011

हाय राम...लोकतंत्र मर गया

-अशोक मिश्र

(पर्दा उठता है। दो आदमी दिल्ली की सड़कों पर पैदल जाते दिखाई देते हैं। उनके पीछे-पीछे सूत्रधार आता है और जनता की ओर मुंह करके खड़ा हो जाता है।)

सूत्रधार : यह दिल्ली है। वह दिल्ली जो कई बार उजड़ी और बसी। उजड़ने के दौरान दिल्ली और उसके आस-पास रहने वालों का खून बहा, तो बसने के दौरान श्रमिकों का पसीना। इसी दिल्ली में 15 अगस्त 1947 को पैदा हुई थी लूली-लंगड़ी स्वतंत्रता जिसका अपहरण पैदा होते ही काले बनियों के दलालों ने कर लिया। इसी के कुछ दिन बाद पैदा हुआ लोकतंत्र जिसके सीने पर घोटालों का बदनुमा जन्मजात दाग था। यह लोकतंत्र मर गया, पर कैसे? यह आज तक रहस्य है। तो आइए, आपको रू-ब-रू कराते हैं उस्ताद मुजरिम और टुटपुंजिया पत्रकार से।

(इतना कहकर सूत्रधार पर्दे के पीछे चला जाता है। दिल्ली की सड़कों पर उस्ताद मुजरिम और पत्रकार बुद्धिबेचू प्रसाद घूमते दिखाई देते हैं।)

पत्रकार बुद्धिबेचू प्रसाद :
हाय...हाय...सुबह से दिल्ली की गलियों की खाक छानते-छानते पैर और दिमाग का कचूमर निकल गया। उस्ताद! अगर इन दिनों बेरोजगार न होता, तो आपके चंगुल में कतई नहीं आता। (दर्शकों की ओर मुंह करके) भाइयों, आप तो जानते ही होंगे, बेरोजगार आदमी किसी काम का नहीं होता। बेरोजगारी का एक मच्छर आदमी को नपुंसक बना देती है। अभी कुछ ही दिन पहले तो दैनिक ‘बमबम टाइम्स’ की नौकरी से इस्तीफा दिया है।

उस्ताद मुजरिम :
बेटा बुद्धिबेचू प्रसाद वल्द कलम खसीटू प्रसाद! सड़कों की खाक छानने के फायदे से अभी तुम वाकिफ नहीं हो। इसी से ऐसी बातें करते हो। अगर सुबह से शाम तक खाली पेट सड़कों की खाक छानी जाए, तो दिमाग रूपी गटर से ढेर सारे नए-नए विचार निकलते हैं। ये विचार किसी भी आदमी की तकदीर बदल देते हैं।

बुद्धिबेचू प्रसाद : उस्ताद! सुबह की एक चाय की बदौलत आधी दिल्ली की खाक छान आए हैं। दिमाग के गटर से आइडिये के बगूले तो अब तक नहीं फूटे। हां, इतना जरूर हुआ कि पांच घंटे पैदल चलते-चलते टांगों की कचूमर जरूर निकल गई। मुझे तो लग रहा है कि अगर अब दो कदम भी चलना पड़ा, तो गश खाकर गिर पड़ूंगा। वहीं आप हैं कि किसी जिराफ की तरह लंबे डग भरे चले जा रहे हैं।

(तभी मंच के एक कोने में खड़ी भीड़ नजर पड़ते ही दोनों ठिठक जाते हैं।)

मुजरिम : या इलाही ये माजरा क्या है? यहां इतनी भीड़ क्यों लगी हुई है। बेटा बुद्धिबेचू, आओ चलते हैं, देखते हैं कि मामला क्या है? ’

(दोनों लपककर भीड़ के पास पहुंचते हैं। सड़क के बीचोबीच एक लाश पड़ी है और पुलिस के कुछ सिपाही उसके पास खड़े हैं। भीड़ में शामिल एक आदमी फुसफुसाता है।)

आदमी : साले, पिछले आधे घंटे से खड़े अपने बाप का इंतजार कर रहे हैं। यह नहीं होता कि इसे हटाकर रास्ता साफ करायें।

मुजरिम : अरे! यहां तो कोई मरा पड़ा है, लगता है कि कोई एक्सीडेंट हुआ है। इस देश में कोई भरोसा नहीं कब एक्सीडेंट हो जाए। (उस आदमी से) ‘शिनाख्त हुई? किसकी लाश है यह? पुलिस कुछ करती क्यों नहीं?’

आदमी : (मुस्कुराते हुए) अभी तक तो नहीं हो पाई है। आप भी देख लें, क्या पता आपका ही कोई परिचित निकल आए। वैसे आपको बता दें, पुलिस अपना काम कर रही है।
मुजरिम : मुझे तो पुलिस कोई काम करती नहीं दिखाई दे रही है। हां, सनातनी काम करती जरूर दिख रही है पुलिस। चुपचाप खड़ी मक्खियां मार रही है।

आदमी : (विरोध करते हुए) जी नहीं, पुलिस अपने काम में बड़ी मुस्तैदी से जुटी हुई है। पुलिस को भीड़ में से एक ऐसे आदमी की तलाश है जिसको बलि का बकरा बनाया जा सके। वह आदमी आप भी हो सकते हैं, मैं भी हो सकता हूं। इस भीड़ में शामिल हर व्यक्ति पुलिसवालों की निगाह में सिर्फ बकरा है जिसे जब चाहे, जहां चाहे हलाल किया जा सकता है।

(तब तक मुजरिम भीड़ को चीरकर लाश के पास पहुंच चुके थे।

मुजरिम : (लाश पर नजर पड़ते ही चिल्लाते हैं) अरे! यह तो लोकतंत्र है! हाय राम...यह क्या हो गया?...लोकतंत्र मर गया?’

(मुजरिम की बात सुनते ही ऐं...कहता हुआ एक पुलिस वाला चौंकता है।)

सिपाही : (पिच्च से तंबाकू थूकता हुआ) अबे! तू जानता है इसे? (एक दूसरे पुलिस वाले की तरफ घूमता हुआ)चौबे जी, एक प्रॉब्लम तो इस ससुरे ने साल्व कर दी।’

(सिपाही चौबे जी को पास आने का इशारा करता है।)

मुजरिम: (रुआंसा होकर) ‘हां साब! मैं शिनाख्त कर सकता हूं इसकी। यह लोकतंत्र है...भारतीय लोकतंत्र...दुनिया का सबसे बड़ा किंतु किसी कोढ़ के रोगी की तरह सड़ांध मारता हमारा प्यारा लोकतंत्र। घपलों और घोटालों का मारा लोकतंत्र। विपक्षी दलों द्वारा पंगु बना दिया गया बेचारा लोकतंत्र।’

सिपाही : (मुजरिम का कालर पकड़ते हुए) : ‘क्या बकता है बे! जिस लोकतंत्र की सुरक्षा का भार ‘चार कंधों’ पर हो, वह इस तरह लावारिस मर जाए, यह हमारे लिए शर्म की बात है। तू कहीं नशे में तो नहीं है?’

मुजरिम : (अपना कॉलर छुड़ाते हुए) आप चारों की वजह से ही तो परेशान था यह! आप में से जिसे भी जब मौका मिलता था, दबोच लेते थे और वह सब कुछ कर डालते थे, जो नहीं करना चाहिए। बेचारा साठ-बासठ साल में ही सात सौ साल का लगने लगा था। इधर कुछ दिनों से तो बहुत परेशान था।

सिपाही : (जमीन पर डंडा फटकारता है) साफ-साफ बता, बात क्या है? पहेलियां बूझने की न तो अपनी आदत है और न ही यह भाषा अपने पल्ले पड़ती है। डंडे की भाषा जानता हूं और यह समझाना जानता हूं। कहे तो समझाऊं? तेरे जैसों से रोज पाला पड़ता है।

मुजरिम : (पुलिस वाले के तेवर देखकर खुशामदी लहजा अख्तियार करते हुए) साब! जब से यह टू-जी, राडिया-राजा प्रकरण और आदर्श घोटाला हुआ है, तब से कुछ ज्यादा ही बेचैन था। कुछ साल पहले जब कुछ सांसदों ने सवाल पूछने के नाम पर रोकड़ा मांगा था, तब तो एकदम पागल हो गया था लोकतंत्र। अपनी करतूतों से जितनी बार लोकतंत्र के ये चारों स्तंभ दुनिया के सामने नंगे होते थे, जितनी बार भारतीय राजनीति दागदार होती थी, उतने दाग इसके शरीर पर उभर आते थे। साब, आपको विश्वास न हो, तो इसकी कमीज उलटकर देख लें। इसकी पीठ और पेट पर घोटालों और शर्मनाक कांडों के निशान आपको मिल जाएंगे।’

(मुजरिम की बात पूरी नहीं हो पाती है कि पुलिस की एक जीप आकर भीड़ के पास रुकती है। उसमें से एसएचओ और कुछ सिपाही उतर कर भीड़ को लाश के आसपास से हटाने लगते हैं। पहले से मौजूद सिपाही एसएचओ को जोरदार सल्यूट मारता है।)

सिपाही : ‘मृतक की शिनाख्त हो चुकी है सर। यह आदमी इसे लोकतंत्र बताता है। बाकी आप दरियाफ्त कर लें, हुजूर।

थानेदार : (मुजरिम को पहले ऊपर से नीचे तक निहारता है। फिर कड़क स्वर में पूछता है।) तू क्या बेचता है और कैसे कह सकता है कि यह लोकतंत्र है? जिस लोकतंत्र की रक्षा में देश-प्रदेशों के सांसद, विधायक, सत्तारूढ़ और गैर सत्तारूढ़ पार्टियों के नेता, अफसर लगे हुए हों। पूरा का पूरा पुलिस महकमा लगा हुआ हो, वह लोकतंत्र इस तरह सड़क पर लावारिस मरा हुआ पाया जाए, यह कैसे हो सकता है? अगर सचमुच लोकतंत्र मर गया, तो सबके भूसा भर दूंगा।

मुजरिम : (थूक निगलते हुए) हुजूर! मैं कुछ बेचता नहीं, एक मामूली पाकेटमार हूं। मेरा और आपका पेशा लगभग एक जैसा है। जिस काम को आप बड़े पैमाने पर सामूहिक रूप से करते हैं, वही काम मैं छोटे स्तर पर व्यक्तिगत रूप से करता हूं। आप इस काम की पगार लेते हैं, जबकि मैं अगर यह करता पकड़ा जाऊं, तो पब्लिक से लेकर पुलिसवालों तक के जूते खाता हूं। अब तो आप जान ही गए होंगे कि मेरा नाम मुजरिम है।

मुजरिम : (सांस लेने के लिए पल भर को रुकता है।) इस लोकतंत्र से मेरी पुरानी यारी रही है। हम दोनों एक दूसरे के लंगोटिया यार थे। मजे की बात तो यह है कि हम दोनों की पैदाइश भी एक ही दिन की है। मेरी मां ‘व्यवस्था’ बताती हैं कि जिस समय मैं यानी मुजरिम पैदा हुआ था, खूब हट्टा-कट्टा था, लेकिन यह तो जन्म से ही लंगड़ा था। कहते हैं कि अंग्रेजों और देसी पूंजीपतियों से इसके ‘बापू’ बड़ी सहानुभूति रखते थे। वे नहीं चाहते थे कि विद्रोहिणी क्रांति यानी मेरी मौसी कोई ऐसा बच्चा जने, जो इन दोनों यानी बापू और लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो। इसलिए ‘बापू’ ने गर्भवती ‘क्रांति’ के पेट पर लात मारकर गर्भ गिरा दिया था। बाद में पता नहीं कैसे क्रांति की सौतेली बहन व्यवस्था के गर्भ से यह लंगड़ा लोकतंत्र पैदा हो गया। अंग्रेज पूंजीपतियों ने हम जैसों का खून चूसकर इसको पाला-पोसा। काले बनियों ने बैसाखी के सहारे चलना सिखाया। इसीलिए यह काले बनियों का मुरीद बनकर रह गया। काले बनियों पर जब भी कोई मुसीबत आती थी, यह डेढ़ टांग पर खड़ा होकर अपनी साजिशी तान देने लगता था। साब! मजाल है, कोई मुसीबत इसकी जानकारी में इन काले बनियों का कुछ बिगाड़ सके। यह तो बातचीत के दौरान अक्सर कहा करता था। बनिये इस देश के भाग्यविधाता हैं। भाग्य विधाता का हित सुरक्षित रहे, इसके लिए जरूरी है कि जनता के हित असुरक्षित रहें। उनका भरपूर शोषण होता रहे।

एसएचओ: (आंख पर चढ़ा काला चश्मा उतार कर लाश का मुआयना करता है। कमीज उलटकर लाश के पास बने एक पैदायशी निशान को गौर से देखता है।) हवलदार रामधनी, नोट करो। मृतक की कमर से दो इंच नीचे एक पैदायशी निशान है।

मुजरिम : (एसएचओ की बात काटते हुए) हां साब, यह निशान जीप घोटाले का है। हुजूर! आप तो जानते ही होंगे, देश का सबसे पहला घोटाला ही जीप घोटाला था। तब यह पैदा नहीं हुआ था। हां, व्यवस्था के गर्भ में भ्रूण रूप में जरूर आ चुका था। उस समय देश पर अंग्रेजों का शासन था। लेकिन उस घोटाले के पैदायशी निशान इसकी कमर पर उभर आए थे। इसके बाद देश आजाद हो गया। कुछ दिन तक सत्ताधीशों ने चना-चबैना खाकर दिन काटे, लेकिन एक मंत्री से बर्दाश्त नहीं हुआ। उसने आजाद भारत का पहला घोटाला किया। इस घोटाले का निशान आपको लोकतंत्र के ठीक दिल के पास दिख गया होगा। इसके बाद मंत्री, सांसद, विधायक और अधिकारी मरभुक्खों की तरह लोकतंत्र पर टूट पड़े और लूट-लूट कर खाने लगे। फिर क्या था। जैसे-जैसे घोटाले बढ़ते गए। लोकतंत्र के शरीर पर दाग बढ़ते गए। जितना बड़ा घोटाला, उतने बड़े दाग। लोकतंत्र का चेहरा ही बदरंग हो गया। साब, एक बात बताऊं! हर घोटाले पर इसकी आत्मा कराह उठती थी। कई बार तो मैंने इसे बिलख-बिलखकर रोते देखा था।

एसएचओ : (रोब झाड़ता हुआ) अबे! तू फालतू की राम कहानी छोड़। सबसे पहले तो तू यह बता, यह मरा कैसे?’

मुजरिम: (एसएचओ की बात सुनकर सिटपिटा जाता है।) साब! मैं यह कैसे बता सकता हूं। मैं कोई डॉक्टर तो नहीं हूं। आप लाश का पंचनामा बनाइए, पोस्टमार्टम के लिए भेजिए। कल तक आपको सब पता चल जाएगा। हां, इतना बता सकता हूं...कल रात यह मेरे पास आया था। कुछ बोल नहीं पा रहा था। बीच-बीच में आदर्श..आदर्श...कामनवेल्थ-कामनवेल्थ, राडिया-राजा जैसा कुछ बड़बड़ा रहा था। फिर बोला कि मैं किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं रहा। इतना कहकर लोकतंत्र कहीं चला गया था। मैंने समझा कि घर गया होगा। आज सुबह यहां इसकी लाश देखी। मेरा ख्याल है कि यह शर्म से मर गया है।’

सिपाही : (एसएचओ के कान में फुसफुसाता है।) ‘साब! मुझे तो यही कातिल लगता है।’

एसएचओ : पकड़ लो साले को, यही हत्यारा है। पकड़कर थाने ले चलो और चार्जशीट तैयार करो।
(लोकतंत्र की हत्या के जुर्म में मुजरिम पकड़ लिया जाता है। पत्रकार बुद्धिबेचू प्रसाद चुपचाप वहां से खिसक लेता है।)

(इस नुक्कड़ नाटक को संस्थाओं को इस शर्त पर मंचन की अनुमति प्रदान की जाती है कि वे रचियता के रूप में मेरा नाम देंगे। यदि वे कोई संशोधन या सुधार करते हैं, तो इसके बारे में भी जानकारी देंगे।)

Thursday, March 3, 2011

विकीलीक्स के फंदे में गुनाहगार

-अशोक मिश्र

कल उस्ताद गुनाहगार घर आए, तो बहुत घबड़ाए हुए थे। मैंने उन्हें ठंडा पानी पिलाया और पूछा, 'क्या बात है उस्ताद! काफी घबराए हुए से हैं। भाभी जी ने तलाक तो नहीं दिया है न!'

उस्ताद ने बसंत ऋतु में ही माथे पर चुहचुहा आए पसीने को पोछते हुए कहा, 'तुम्हारी भाभी गयीं मिट्टी का तेल लेने। तुम्हें इसके अलावा कुछ सूझता भी है? यहां विकीलीक् स वालों द्वारा नाक में दम कर देने का अंदेशा है और तुम हो कि भरी दोपहरिया में राग विहान गा रहे हो। पहले तो मुझे यह बताओ कि ये विकीलिक्स क्या बला है। क्या विकीलीक्स की पहुंच हर कहीं है? अमेरिका राष्ट्रपति के बेडरूम से लेकर अमीनाबाद के मदर चेंज...मेरा मतलब है कि माता बदल पंसारी के गोदाम तक...।'

उस्ताद की बात सुनकर मैं चौंक गया। उस्ताद और विकीलीक्स के बीच किसी कनेक्शन की बात मैं सोच भी नहीं पा रहा था। काफी दिमाग खपाने के बाद भी जब नहीं सूझा, तो उस्ताद से ही पूछ लिया, 'उस्ताद, विकीलीक्स का आपसे क्या लेना देना। कहां आप और कहां विकीलीक्स। भारत के ख्यातिप्राप्त पाकेटमार का विकीलीक्स जैसे टुटपुंजियां नेकवर्क से क्या वास्ता?'

उस्ताद ने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'अमां यार! कुछ भी कहो, विकीलीक्स ने तो अमेरिका और भारत जैसे देशों की आंख में अपनी अंगुली घुसेड़ रखी है। पट्ठे ने कैसी-कैसी बातें उजागर की है। अमेरिका के राष्ट्रपति विदेशी राष्ट्राध्यक्षों को यह कहते हैं, वह कहते हैं, जैसी बातें भी खोल कर रख दी है। तभी तो अमेरिका वाले तिलमिलाए घूम रहे हैं। गुरु कहो चाहे कुछ भी, लेकिन ये विकीलीक्स वाले हैं बडेÞ शातिर।'

'लेकिन आप यह बताएं कि आप विकीलीक्स के मामले में कहां फिट होते हैं। आपकी टांग उसमें कैसे फंसी हुई है।'

मेरी बात सुनते ही उस्ताद एक बार फिर उदास हो गए। उन्होंने कहा,'कोई जुगाड़ हो, तो विकीलीक्स वालों से मेरी बात कराओ। अगर विकीलीक्स वालों के पास मेरे बारे में कोई जानकारी हो, तो मैं उसे किसी भी कीमत पर खरीद या वह सूचना लीक करने से रोकना चाहता हूं।'

उस्ताद की बात सुनकर मुझे कोफ्त हुई। बात क्या है, यह बताने की बजाय लंतरानी हांके चले जा रहे हैं। मैंने थोड़ा तल्ख लहजे में कहा, 'जब तक मामले की पूंछ मेरी पकड़ में नहीं आएगी, तब तक मैं आपकी समस्या का हल नहीं सुझा सकता। आप कम से कम मुझे तो साफ-साफ बताएं कि माजरा क्या है। विकीलीक्स वालों ने आपकी कौन-सी भैंस खोल दी है। या आपके घर से भेली (गुड़) चुरा ली है।'

उस्ताद ने 'सूं...' करके गहरी सांस ली और बोले, 'बात यह है कि तुम्हारी भाभी को शक है कि मैं बाजू वाली मिसेज सक्सेना को लाइन मारता हूं। बात दरअसल यह है कि कुछ दिन पहले घर से निकलते वक्त मिसेज सक्सेना से थोड़ी बात हो गई। उसके अगले दिन मिसेज सक्सेना बाजार में मिल गईं। ऐसा ही संयोग तब बना, जब मैं तुम्हारी भाभी जी के साथ मल्टीप्लैक्स में 'आन मिलो सजना' देखने गया। वहां मिसेज सक्सेना को देखते ही बेगम के कान खड़े हो गए। पता नहीं किस नामुराद ने तुम्हारी भाभी को पिछली दो मुलाकातों के बारे में बता दिया। तब से मैं उसको खोज रहा हूं। अगर वह मिल जाए, तो उसके कान के नीचे गरम कर दूं। इस मामले में तो वही कहावत चरितार्थ हो रही है कि सूत न कपास, जुलाहे से लट्ठमलट्ठा। अभी कल ही अखबारों में पढ़ा है कि विकीलीक्स वालों की इतनी तगड़ी पहुंच है कि वे पूरी दुनिया के बारे में राई-रत्ती खबर रखते हैं। सोचता हूं कि कहीं विकीलीक्स वालों ने तो तुम्हारी भाभी के कान नहीं भरे हैं। अगर उनके पास मेरी और मिसेज सक्सेना की बात करते हुए फोटो-सोटो हो और वह बेगम के हाथ लग गए, तो अपनी लंका लग जाएगी। यदि कोई सुबूत वगैरह हो, तो पैसा ले-देकर मामला सुलट जाए, तो अच्छा है।'

उस्ताद गुनाहगार की बात सुनकर मुझे काफी हंसी आई। मैंने ठहाका लगाते हुए कहा, 'उस्ताद! काली भेड़ को खोजना है, तो अपने इर्द-गिर्द रहने वालों में तलाशिए। विकीलीक्स वालों के पास आपके खिलाफ कोई सुबूत नहीं होगा, इसकी मैं गारंटी लेता हूं।'

मेरी बात सुनकर उस्ताद गुनाहगार झटके से उठे और बोले, 'तुमसे कोई सलाह मांगना ही बेकार है। जब मैं कहता हूं कि विकीलीक्स वालों की यह करतूत हो सकती है, तो आप उसे क्लीन चिट देने पर तुले हुए हैं। लगता है कि तुम विकीलीक्स वालों से पैसा खा गए हो।!' इतना कहकर वे चलते बने।

छबीली, मुसद्दीलाल और सेंसर

-अशोक मिश्र

मुसद्दी लाल इन दिनों बहुत परेशान हैं। उनकी परेशानी का कारण दिनोंदिन दैनिक जीवन में उपयोगी साबित होने वाली तकनीकी वस्तुएं हैं। कल सुबह होते ही वे मेरे घर में नमूदार हुए। उनके चेहरे की भावभंगिमा बता रही थी कि वे इन दिनों संकट में हैं। उनके प्रति मुझे प्रतिद्वंद्वीभाव वाली सहानुभूति हुई। दरअसल प्रतिद्वंद्वी भाव इसलिए क्योंकि जब मैं भी परेशान या बीवी से पिटा हुआ उनके पास पहुंचता हूं, तो वे भी सहानुभूति जताते हुए मंद मुस्कान बिखेरते रहते हैं। मैंने पूछा,' भाई साहब! क्या आजकल कुछ गड़बड़ चल रही है। घर या आफिस में सब कुछ ठीक-ठाक तो है।' मुसद्दीलाल ने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'यार! यह बताओ, क्या टेक्नोलॉजी का इतना महत्व हो सकता है कि वह किसी का जीना हराम कर दे। इन दिनों मैं आधुनिक तकनीक और प्यार के साइड इफेक्ट का मारा कुत्ते की तरह कभी इस घाट तो कभी उस घाट फिर रहा हूं।'

यह कहते-कहते मुझे लगा कि मुसद्दीलाल अभी रो पड़ेंगे। मैंने लपककर उनकी पीठ पर सांत्वना से थपकी देते हुए कहा, 'भाई साहब! आपकी बात मेरे पल्ले नहीं पड़ रही है। दरअसल आपके साथ दिक्कत यह है कि आप मुझे अक्लमंद समझ रहे हैं, लेकिन हूं मैं मंदअक्ल। जब तक आप मुझे सारी बातें खुलकर नहीं बताएंगे, तब तक मेरे तो पल्ले आपकी बात पड़ने से रही।'

'अब तुमसे क्या कहूं। छोटे भाई हो, तुमसे कहते हुए शर्म आती है। अच्छा एक बात बताओ...अगर तुम किसी के घर गए और उसके घर में ऐसा ताला लगा है या उस घर की दीवारें सेंसर्ड हों..मेरा कहने का मतलब यह है कि अगर तुम उस घर के ताले या दीवार को छुओ और वह जोर-जोर से बजने लगे, तो क्या तुम चोर हो जाओगे।' मुसद्दीलाल मेरे सामने थोड़ा सा खुले।

'नहीं, आप तो उस घर के मालिक से मिलने गए होंगे...तो चोर क्यों हुए। लेकिन फिर भी बात मेरी समझ में नहीं आई।' मैंने नादान बन जाने में ही भलाई समझी। मुसद्दी लाल की बातों में अकसर इतने पेंच रहते हैं कि सामने वाले को पेंच ही पेंच दिखाई देते हैं और असली बात गायब होती है। 'बात दरअसल यह है कि परसों बीवी के साथ मैं बाजार गया था। वहां एक मोटरसाइकिल खड़ी थी। अनायास मेरी बीवी का हाथ उस मोटरसाइकिल की गद्दी से छू गया, तो वह मोटरसाइकिल 'टीं...टीं...' करती हुई तब तक चिल्लाती रही, जब तक तुम्हारी भाभी ने अपना हाथ गद्दी से नहीं हटा लिया। बस, इसी घटना ने तुम्हारी भाभी के दिमाग में एक खुराफात को जन्म दिया। उस खुराफात के चलते मैं डमरू बना घूम रहा हूं।'

'भाई जी! अब भी बात मेरी समझ में नहीं आई?' मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा।

'बात यह है बेवकूफ! कि तुम्हारी भाभी ने पता नहीं कहां से वह सेंसर खरीद लिया और रात में सोते समय मेरी बांह में एक छोटा-सा चीरा लगाकर उसे रखवा दिया।' अब मुसद्दीलाल मायूस हो चले थे। उनकी मायूसी मुझसे देखी नहीं जा रही थी, लेकिन इस मामले में मैं कुछ कर पाने में अपने को असमर्थ पा रहा था। मैंने कहा, 'तो इससे क्या हुआ! आप किसी मोटरसाइकिल को छूते होंगे, तो वह 'टीं..टीं...पीं...पीं...' जैसी आवाज निकालने लगती होगी।

'नहीं बेवकूफानंद! किसी मोटरसाइकिल को नहीं, किसी महिला को छूते ही घर में रखे रिसीवर से आवाज आने लगती है। इससे मेरी बीवी जान जाती है कि आज में इतनी बार किसी महिला के संपर्क में आया हूं। अब अगर राह चलते किसी महिला या लड़की से भूलवश भी टकरा जाऊं, तो घर में महाभारत शुरू हो जाती है। हर बार आवाज आने की कैफियत देनी पड़ती हैै।'

मैंने तपाक से कहा, 'तो आप आपरेशन कराकर यह चिप निकलवा क्यों नहीं देते?' मैंने उन्हें ज्ञान दिया।

मुसद्दीलाल ने कहा, 'अजीब अहमक हो तुम! इधर मैंने चिप निकलवाया, उधर घरैतिन मायके चल देगी। अब इस उम्र में आधा दर्जन से ज्यादा बच्चों की देखभाल मेरे से नहीं हो पाएगी।'

'तो फिर मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरह एक पत्नी व्रत का पालन कीजिए।' मैंने फिर उन्हें ज्ञान देने का कर्तव्य पूरा किया।

'अबे लल्लू! राम केवल इसलिए एक पत्नी व्रतधारी रहे क्योंकि उन्हें दूसरी कोई मिली नहीं।' इतना कहते हुए मुसद्दी लाल भड़क उठे, 'पिछले चौबीस घंटे से छबीली से नहीं मिल पाया हूं और तुम हो कि थोथा ज्ञान दे रहे हो मुझे। आज बेटा मेरे सितारे गर्दिश में हैं। कल तुम इस सेंसर की गिरफ्त नहीं आओगे, इसकी क्या गारंटी है! तब बेटा मैं भी इसी तरह ज्ञान दूंगा।' इतना कहकर वे अपने घर चले गए।