-अशोक मिश्र
उस्ताद गुनाहगार कह रहे थे, ‘यार...वर्ल्ड बैंक के ग्लोबल डेवलेपमेंट फाइनेंस की रिपोर्ट कहती है कि हम दुनिया के पांचवें बड़े कर्जदार देश हैं। यह बात हमारे वित्त मंत्री प्रणव दादा बड़े गर्व से लोकसभा में बताते हैं। वैसे तो कर्ज लेने के मामले में अपने दिल्ली वाले मिर्जा गालिब ही बदनाम थे। लेकिन लगता है कि अपने दादा तो उनसे भी चार जूता आगे निकले। मिर्जा गालिब तो कर्ज की दारू पीने के बाद अपनी फाकामस्ती के रंग लाने का इंतजार करते थे। लेकिन हमारी सरकार वर्ल्ड बैंक से भारी भरकम कर्ज लेने के बाद मरभुक्खे मंत्रियों और सांसदों की समिति गठित करके तरह-तरह के आयोजन कराती है, ताकि उनकी फाकामस्ती दूर की जा सके।’
मैंने जमुहाई रोकते की कोशिश करते हुए कहा, ‘सच? आपकी बात पर विश्वा स नहीं होता है।’
गुनाहगार ने मुझे झिड़कते हुए कहा, ‘जब प्राइमरी वाले गुरु जी कहते थे, इतिहास पढ़ लो, काम आयेगा। तब आपको कुछ दूसरा ही सूझता था। यदि आपने ठीक से इतिहास पढ़ा होता, तो आपको पता होता कि हम सदियों तक कर्ज मांगने के मामले में विश्व शिरोमणि रहे हैं। हमारे यहां का राष्ट्रीय कर्म कर्ज मांगना था। यदि कर्ज न मिले, तो भीख मांगो। पहले पूरा देश एक दूसरे से भीख या कर्ज मांगता था, लेकिन बाद में यह काम कुछ वर्ण के लोगों को ठेके पर दे दिया गया। बाद में इस ठेके के खिलाफ आवाज उठी, तो यह हक देश के उन निकम्मे और कामचोरों को सौप दिया गया जिसे साधु कहते हैं। चार्वाक महोदय ने तो बाकायदा एक सूत्र पूरे देश को थमा दिया था, ‘ऋणम कृत्व घृतम पिबेत।’ चार्वाक तो कहते थे कि इस शरीर के भस्म हो जाने पर कौन किससे कर्ज की रकम वसूलने आयेगा।’
मैंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, ‘क्या...कभी ऐसा भी होता था। लोगों को भीख या कर्ज मांगने में लज्जा भी नहीं आती थी?’
गुनाहगार ने कहा, ‘काहे की लज्जा। लज्जा और भिक्षा में वैसा ही बैर होता है जैसे सौतों में होता है। अरबों-खरबों का कर्ज लेने वाली सरकार कहीं शर्माती है क्या? रूस और चीन कभी शर्म से पानी-पानी हुए? ऐसी कोई खबर अखबारों में छपी क्या?’ इसके बाद गुनाहगार का स्वर एकाएक अत्यंत मधुर हो उठा। वे बोले, ‘यार तुम्हें तो मालूम है कि अगले कुछ ही दिनों में होली आने वाली है। पिछले कई दिनों से लोगों की पाकेट मार रहा हूं, लेकिन कोई खास रकम मिली नहीं। किसी के पर्स से दो सौ से ज्यादा की रकम निकली नहीं। और तुम जानते ही हो कि इस महंगाई के जमाने में इतनी रकम से होली नहीं मनाई जा सकता है। यदि तुम कुछ मदद कर सको, तो....’
गुनाहगार ने पलभर मेरे चेहरे को निहारा, फिर बोले, ‘क्या बताऊं यार, अपने घर का बजट भी बिल्कुल आम बजट की तरह है। होली हो या दीवाली, हमेशा गड़बड़ाया ही रहता है। कभी बच्चे त्योहार के अवसर पर कम बजट का रोना रोते हैं, तो कभी घरैतिन राशन, कपड़े, हारी-बीमारी के मद में कम पैसे को लेकर अपना माथा पीटती है। हर महीने कुछ न कुछ रुपये तो उधारी चुकाने में चला जाता है। अगर तुम कुछ मदद कर सको, तो थोड़े-थोड़े रुपये तुम्हें भी हर महीने वापस करता रहूंगा। वैसे होली पर जब लोग रंग खेलने में मशगूल होंगे, तब मैं अपने ब्लेड का भरपूर उपयोग करूंगा और हो सकता है कि तुम्हारी रकम होली की शाम तक ही वापस हो जाए।’
इसके बाद गुनाहगार ने कर्ज मांगने के वे तमाम लटके झटके अपनाए, जो आम तौर पर सरकारें वर्ल्ड बैंक से कर्ज लेते समय अपनाती हैं। मैं भी दस-बारह हजार रुपये का चूना लगवाकर घर लौट आया।
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