Sunday, December 20, 2015

ग्लोबल वॉर्मिंग का स्थायी समाधान

-अशोक मिश्र
आप लोग यह बताएं कि दुनिया भर के बुद्धिजीवियों का अपर चैंबर खाली है क्या? अगर खाली नहीं होता, तो इतनी मामूली-सी बात को लेकर पेरिस में काहे मगजमारी करते। फोकट में अपनी-अपनी सरकारों का इत्ता रुपया-पैसा और टाइम खोटा किया। पेरिस के निवासियों को परेशान किया सो अलग। वह भी ग्लोबल वॉर्मिंग के नाम पर। अरे भाई! ग्लोबल-फ्लोबल  वॉर्मिंग समस्या का समाधान वहां नहीं है, जहां आप ढूंढ रहे हैं। यहां है..हमारे देश भारत में। जिंदगी भर दुनिया भर में घूम-घूमकर बैठकें करो, समिट करो, सेमिनार करो, लेकिन समस्या का हल मिलेगा, तो सिर्फ भारत में। भारत ऐसे ही विश्व गुरु थोड़े न कहा जाता है। हमारे देश का ज्ञान-विज्ञान हर युग में पूरी दुनिया में सबसे आगे और उन्नत रहा है। जब सारी दुनिया कच्छा  पहनने को तरस रही थी, तब हमारे देश के बच्चे मंगल, बुध और बृहस्पति पर जाकर कबड्डी खेला करते थे। शुक्र ग्रह पर उडऩे वाली पतंगों को लूटने के लिए नेप्चूयन और शुक्र ग्रह तक जाना पड़ता था। तो कहने का लब्बोलुआब यह है कि हर समस्या का समाधान हमारे देश में मौजूद है। समस्या कोई भी हो, चुटकी बजाते हल खोजने में माहिर अगर कोई है, हम ही लोग हैं। पूरी दुनिया कोई भी आविष्कार कर ले, लेकिन हमारे एक आविष्कार के आगे बेकार..। हमारे यहां जब से 'जुगाड़Ó का आविष्कार हुआ है, तब से दुनिया के सारे आविष्कार उसके आगे फेल हैं।
ग्लोबल वॉर्मिंग पर हमारे देश के ऋषि-मुनियों ने हजारों साल पहले जुगाड़ खोज निकाला था। वह था मौन। मियां-बीवी का मौन। वे इस बात को अच्छी तरह से समझ गए थे कि जब भी मियां-बीवी आपस में संवाद करेंगे, ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या पैदा होगी। तब वे ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए कभी कभी मियां-बीवी संवाद पर रोक लगा देते थे। आज अगर समस्या ज्यादा बड़ी लग रही है, तो दस साल तक पूरी दुनिया में पति-पत्नी संवाद पर प्रतिबंध लगा दीजिए। फिर देखिए, ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या छूमंतर हो जाती है कि नहीं। यह भारत का सदियों पुराना आजमाया हुआ नुस्खा है। इसकी प्रामाणिकता और सत्यता को कोई चुनौती नहीं दे सकता है।
हमारे एक प्राचीन ग्रंथ में तो साफ-साफ लिखा है कि मोटरगाडिय़ों, वातानुकूलन यंत्र (एसी), कल-कारखानों से निकलने वाले धुएं और दूसरे जीवाश्म को जलाने से उतना ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्र्जन नहीं होता है, जितना पति-पत्नी संवाद के समय हानिकारक गैसे का उत्सर्जन होता है। इस पृथ्वी पर अगर पति-पत्नी पुल वॉल्यूम पर एक दूसरे पर चीख-चिल्ला रहे हों, तो उस समय 22 वातानुकूलन यंत्र, 38 चारपहिया वाहन और 4 कल-कारखानों जितनी कार्बन डाई आक्साइड गैस का उत्सर्जन होता है। अगर पत्नी पति के देर से घर आने के चलते चीखती-चिल्लाती है, तो सवा टन कार्बन डाई आक्साइड गैस का उत्सर्जन होता है। अगर पति अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं से नैन-मटक्का करता है, तो ढाई टन कार्बन डाई आक्साइड गैस उत्सर्जित होती है। अगर पति बेवफा निकल जाए, तो ग्रीन हाउस गैसों के साथ-साथ चिमटा, बेलन, कप-प्लेट, बर्तन आदि प्रक्षेपित होने लगते हैं और घर का वातावरण गरम हो जाने से हीलियम, मीथेन, पराबैगनी किरणों का भी उत्सर्जन होने लगता है। पत्नी के दिमाग का पारा जिस अनुपात में बढ़ा होता है, कार्बन डाईआक्साइड के भारी उत्सर्जन के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण की मात्रा में भी अभिवृद्धि होने लगती है।
दस साल तक पति-पत्नी संवाद  पर कठोर प्रतिबंध के बावजूद यदि  ग्लोबल वॉर्मिंग में अपेक्षित सुधार कि इससे बात नहीं बनने वाली, तो पति-पत्नी संवाद के साथ-साथ सास-बहू, देवरानी-जिठानी, ननद-भौजाई संवाद पर भी प्रतिबंध लगा दो। फिर देखो कमाल। खट से पृथ्वी ठंडी होती है कि नहीं।
आपको अगर इस बात पर विश्वास नहीं है, तो हमारे यहां का प्राकृत, पालि या संस्कृत साहित्य उठाकर देख लो, सैकड़ों श्लोक मिल जाएंगे जिनका निहितार्थ यह है कि सप्ताह में कम से कम छह दिन प्रत्येक दंपती को मौन व्रत रखना चाहिए। पति-पत्नी संवाद पर प्रतिबंध लगाकर न केवल घर के वातावरण को गर्म होने से रोका जा सकता है, बल्कि पूरी पृथ्वी को गर्म होने से बचाया जा सकता है। 

Tuesday, December 8, 2015

भुक्खड़ नहीं होते ईमानदार

-अशोक मिश्र
केजरी भाई लाख टके की बात कहते हैं। अगर आदमी भूखा रहेगा, तो ईमानदार कैसे रहेगा? भुक्खड़ आदमी ईमानदार हो सकता है भला। हो ही नहीं सकता। आप किसी तीन दिन के भूखे आदमी को जलेबी की रखवाली करने का जिम्मा सौंप दो। फिर देखो क्या होता है? पहले तो वह ईमानदार रहने की कोशिश करेगा। देश, समाज, परिवार और गांव-गिरांव की नैतिकता की दुहाई देगा। अपने होंठों पर जुबान फेरेगा। भूख से लडऩे की कोशिश करेगा। और जब...भूख बर्दाश्त से बाहर हो जाएगी, तो...? तो वह मन ही मन या फिर जोर से चीख कर कहेगा, 'ऐसी की तैसी में गई ईमानदारी। पहले पेट पूजा, फिर काम दूजा।' सच है कि मुरदों की कोई ईमानदारी नहीं होती है। जब आदमी जिंदा रहेगा, तभी न ईमानदार रहेगा। मरे हुए आदमी के लिए क्या ईमानदारी, क्या बेईमानी..सब बराबर है। वैसे भी भूख और ईमानदारी में जन्म जन्मांतर का बैर है। हमारे पुराने ग्रंथों में भी कहा गया है कि बुभुक्षितम किम न करोति पापम!
इस सत्य को बहुत पहले हमारे ऋषि-मुनि, त्यागी-तपस्वी समझ-बूझ गए थे। तभी तो उन्होंने कहा कि भूखे भजन न होय गोपाला। यह लो अपनी कंठी-माला। कहते हैं कि एक बार ऐसी ही स्थिति महात्मा बुद्ध के सामने आ पड़ी। उनका एक शिष्य भूखे आदमी को अहिंसा का संदेश दे रहा था। उसका ध्यान ही नहीं लग रहा था। शिष्य उस आदमी के कान पकड़कर महात्मा बुद्ध के सामने ले गया। महात्मा बुद्ध तो अंतरयामी थे। समझ गए कि भूखे भजन न होय गोपाला। फिर क्या था, पहले भर पेट उस आदमी को फास्टफूड खिलाया। जब उस आदमी ने तृप्त होने के बाद डकार ली, तो महात्मा बुद्ध बोले, अब ले जाओ। इसे जी भरकर अहिंसा का संदेश दो। बस, इत्ती सी बात को लोग बूझ ही नहीं रहे हैं। हमारे केजरी भइया ने यह बात बूझी, तो लोग हल्ला मचा रहे हैं। घर के आगे धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। कर रहे हो विरोध-प्रदर्शन तो करते रहो, केजरी भइया की बला से। 
भला बताओ, यह भी कोई बात हुई। इतनी ज्ञान-ध्यान की बात केजरी भाई कह रहे हैं और लोग हैं कि खाली-पीली विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। ये लोग इस बात को समझ ही नहीं पाते हैं कि केंद्र से लेकर राज्यों तक, गांव से लेकर शहर तक भ्रष्टाचार, अनाचार, रिश्वत खोरी, लूट-खसोट सिर्फ इसलिए है क्योंकि केंद्र और विभिन्न राज्यों के कर्मचारियों का पेट ही नहीं भरता। इन्हें अगर इतनी तनख्वाह मिलने लगे कि वे अपनी धर्मपत्नी, अधर्म पत्नी, गर्लफ्रेंड्स या ब्वायफ्रेंड्स, अपने जायज-नाजायज बेटे-बेटियों को अमेरिका, स्वीटजरलैंड, इंग्लैंड, जापान घुमाने ले जा सकें, उन्हें बढिय़ा-बढिय़ा विदेशी कपड़े, परफ्यूम, शराब खरीदवा सकें, तो वे क्यों रिश्वत लेंगे। किसी फाइल को क्यों अटकाएंगे। चपरासी से लेकर बड़का अधिकारी तक ऑडी-फेरारी से आफिस आए-जाए, तो वह क्या सौ-पचास रुपये की टुच्ची रिश्वत लेगा।
अब आप लोग ही बताइए, बारह-पंद्रह हजार रुपये की तनख्वाह कोई तनख्वाह होती है। वैसे ढाई-तीन लाख रुपये भी कोई बड़ी रकम नहीं होती है। अरे इत्ती मामूली रकम से दिल्ली जैसी महंगी जगह में विधायकों का महीने भर गुजारा चल पाएगा? हमारे मोहल्ले में रहने वाले गुनाहगार शाम को अपनी टांके वाली प्रेमिका कल्लो भटियारिन को किसी मामूली होटल में भी लंच-डिनर कराने ले जाते हैं, तो दस-पंद्रह हजार के चपेट में आ जाते हैं। अरे विधायकों की भी कोई इज्जत है कि नहीं। किसी अरजेंट मीटिंग में जाना है और एल्लो..गाड़ी न पेट्रोल है, न पेट्रोल का पैसा। ऐसा कहीं कोई विधायक होता है। और फिर विधायकी का चुनाव कोई समाज सेवा के लिए लड़े थे क्या? होना तो यह चाहिए था कि कोई भी सांसद, मंत्री, बड़ा अधिकारी हो, तो उसे पद ग्रहण करते ही दस-बारह करोड़ रुपये उसके खाते में डाल दिए जाएं, ताकि वह ईमानदार रह सके। देश में ईमानदारी बची रहेगी, तो देश बचा रहेगा।
http://epaper.dainiktribuneonline.com/660408/Dainik-Tribune-Local-Edition/DT_09_December_2015#page/8/1

कहां नहीं है असहिष्णुता?

-अशोक मिश्र
इंटरमीडिएट की राजनीति शास्त्र की परीक्षा में पूछा गया था, असहिष्णुता क्या है, उदाहरण सहित विस्तार से समझाओ। बकलोल चंद इंटर कालेज के एक परीक्षार्थी ने लिखा-असहिष्णुता इस संपूर्ण चराचर जगत में व्याप्त है। एक क्या हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं। अगर हम धार्मिक आधार पर देखें, तो मानव जीवन की उत्पत्ति ही असहिष्णुता का परिणाम है, वरना स्वर्ग लोक की हजारों, लाखों अप्सराओं, हूरों को छोड़कर इस पृथ्वी पर कौन आना चाहता है। अब मैं अपना ही उदाहरण दूं। मैं जब बच्चा था, घुटनों के बल चलता था, मिट्टी खाना चाहता था, पानी में छपछपैया खेलना चाहता था। लेकिन हमारे मां-बाप, भाई-बहन, दादा-दादी असहिष्णु और मैं सहिष्णु था। वे मेरे हाथ में जैसे ही मिट्टी देखते थे, छीन कर फेंक देते थे। यही असहिष्णुता है, इंटॉलरेंस है। थोड़ा बड़ा हुआ, कंचे खेलने में मजा आता था, पतंग उड़ाने को जी करता था। गिल्ली-डंडा उन दिनों सबसे बढिय़ा खेल था, लेकिन असहिष्णु मां-बाप थे कि नहीं, खेलना नहीं है। पढ़ो 'अ' से अनार। खाक 'अ' से अनार।
स्कूलों में मास्टर तो सबसे बड़े वाले असहिष्णु हैं। मन तो खेल के मैदान में रमा हुआ है और रटा रहे हैं हिस्ट्री, ज्याग्रफी और मैथमेटिक्स के उबाऊ सूत्र। मेरा वश चले, तो इस दुनिया के सभी अध्यापकों, माताओं-पिताओं, भाइयों-बहनों, दादा-दादियों और पड़ोसियों को एक निर्जन द्वीप पर ले जाकर छोड़ दूं और कहूं कि लो..यहीं बैठकर अपने हुकुम डुलाओ पेड़, पौधों, हवा-पानी पर। थोड़ा बड़ा हुआ..मतलब जवान हुआ। लड़कियों से बातें करना, उनके आगे-पीछे घूमना, उनके नाज-नखरे उठाने का मन करता है, लेकिन सारी दुनिया मुझे असहिष्णु लगती है। घर वाले और बाहर वालों का वश चले, तो मेरा इस देश में रहना मुहाल कर दें। अभी तो यह हाल है, कल को मेरी शादी होगी। तब तो मेरे सामने असहिष्णुता का महासागर लहराएगा। तनिक भी मुंडी इधर-उधर डोली कि शुरू हो गई जंग। तुमने उसे क्यों देखा, इधर-उधर क्या देख रहे हो। शाम को किससे बतिया रहे थे। मतलब कि मैं पति न हुआ, गुलाम हो गया। इसके बाद उत्तर पुस्तिका में कुछ नहीं लिखा हुआ था। लगता है कि कुछ लिखने का समय नहीं बचा था और पुस्तिका छीन ली गई थी।

Wednesday, December 2, 2015

वो देवता तो नहीं थे, पर...

भाग-दो
अशोक मिश्र
बप्पा से लोग जरा भिड़ते कम थे। क्रोधी इतने कि एकदम परशुराम के अवतार। जो बात ठान ली तो ठान ली। एक बार मेरे मामा को बैल की जरूरत थी। मेरी ननिहाल रानीजोत मेरे गांव नथईपुरवा से मात्र दो-ढाई किमी की दूरी पर स्थित है। पहले तो पूरब-दक्षिण दिशा में गांव के बाहर आकर देखता था, तो मेरे मामा का घर धुंधला-धुंधला दिखाई देता था। पर अब नहीं दिखता। तो बात यह हो रही थी कि मेरे बड़े मामा स्व. अलखराम तिवारी मेरे बप्पा से पांच या साढ़े छह सौ रुपये में बछड़ा हांक ले गए, लेकिन पैसा नहीं दिया। यह पैसा बहुत दिनों तक पड़ा रहा। बाद में किसी बात को लेकर बप्पा और मेरे मामाओं में मनमुटाव हो गया, तो वे कई सालों तक रानीजोत नहीं गए। हर साल होली, दिवाली और अन्य तीज-त्यौहारों पर रानीजोते से आइसु (भोजन का निमंत्रण) आता, लेकिन वे नहीं जाते। लोगों को भी बाद में यह पता चल गया कि भग्गन मिसिर रानीजोत वालों से नाराज हैं। गांव-जंवार को लोगों ने जब रानीजोत वालों को हूंसना (निंदा करने का पर्यायवाची शब्द) शुरू किया, तो एक साल होली या दिवाली की सुबह (ठीक से याद नहीं) राजितराम तिवारी (अब स्वर्गीय) आकर दुआरे पर रोने लगे। बप्पा जितने क्रोधी, उतने ही नरम। उनके रोने से बप्पा पिघल गए। उन्होंने आइसु जीमने आने का आश्वासन देकर मामा को विदा कर दिया। शाम को वे न्यौता खाने भी गए। हां, उन्होंने अम्मा को उनके भाइयों की इस हरकत के लिए कभी उलाहना नहीं दिया।
बात शायद 1983 की है। उन दिनों मई का महीना था। हम सभी भाई रात में आंगन में खटिया डारे सो रहे थे। रात के दस-ग्यारह बजे होंगे। बप्पा घर के बाहर खटिया पर निखड़हरे यानी बिना कुछ बिछाए लेटे हुए थे। अचानक दरवाजा खटखटाया गया।
'ओ आनंद कै महतारी..आनंद कै महतारी..सोई गईउ का..?'
उन्नींदी सी अम्मा चौंक गई, 'का होय काकी?' इतना कहकर वह उठ बैठीं। यह बड़की काकी थीं। हम सब उन्हें बड़ी काकी कहते हैं, लेकिन वे रिश्ते में हमारी दादी हैं। चूंकि बाबूजी, दादू, दादा और सभी बुआ उन्हें काकी कहती थीं, तो हम लोग भी काकी कहते थे। अभी इधर कुछ सालों से यह संबोधन बदला है और अब हम लोग बड़ी आजी कहते हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम लोग अपने बड़े बाबा को बप्पा कहते थे। वे बड़ी किस कारण थीं, यह हम आज तक नहीं जान पाए हैं। हां, इन दिनों शायद वे गांव की महिलाओं में सबसे बुजुर्ग हैं। इसी साल मई-जून में जब गांव गया था, तो बड़ी काकी..ओह..बड़ी आजी से मिला था। उनकी स्मृति अब उतनी काम नहीं करती है। अल्जाइमर की रोगी की तरह..बात करते-करते यह भूल जाती हैं कि वे क्या कह रही थीं?
तो बात उस घटना की हो रही थी। मेर घर के ठीक बगल में पहलवान बाबा का घर है। इन दिनों उनके भांजे और उनका परिवार रहता है। पहलवान बाबा के आंगन और मेरे आंगन से एक छोटा सा स्थान ऐसा छोड़ा गया था, जो हमेशा खुला रहता था। उस हिस्से में दरवाजा कभी नहीं लगा था। अभी कुछ साल पहले जब हमारे यहां घर बनने लगा और पांच-पांच, छह-छह महीने तक कोई भी गांव में रहने की स्थिति में नहीं रह गया, तो बड़कऊ काका (पहलवान बाबा के भांजे) की सहमति से दीवार उठा दी गई। अब उनके घर में भी बहू-बेटियां होने की वजह से यह जरूर सा हो गया था। तो उसी चोर दरवाजे से बड़ी काकी हमारे आंगन में आ खड़ी हुईं। उनके हाथ में एक बड़ी सी लाठी थी, जिसके एक सिरे पर लोहे का मोटा सा ठोस छल्ला लगा था। वह हाथ में लाठी लिए दादी की खटिया के पास आ खड़ी हुईं और बोली, 'तू सबे सोवत हौ, गांव मा डकहा (डाकू) आय गे हैं।'
बड़ी काकी की बात सुनकर दादी ने एकदम उपहासजनक लहजे में कहा, 'जाय देव बडी..तुहूं बहुत डरपोक हौ..कहां डकहा आय गे हैं?'
'नाहीं अम्मा...सही ओढ़ाझार की ओर डकहा आए हैं। सड़किया पर रोशनी होत है। हमै लागत है कि चार-पांच मिला (आदमी) हैं, वै कांदभारी (एक गांव) और ओढ़ाझार की ओर से आवात हैं।' यह कहकर काकी ने अंधेरे में ही अपने चेहरे पर शायद चुहचुहा आए पसीने को पोंछा। आपको बता दें कि बड़ी काकी को वैवाहिक सुख ज्यादा दिन नहीं मिला था। वे काफी कम ही समय में विधवा हो गई थीं। उनके एक बेटी फुलमता बुआ हैं। वैसे तो फुलमता बुआ की ससुराल बगल के ही गांव नेतुआ में है, लेकिन अब बुआ-फूफा और उनका परिवार नथईपुरवा में ही रहता है।
तब तक अम्मा बोली, 'काकी..कहूं नाही डकहा आवत हैं। जाय कै चुप्पै सोइ रहौ।' बड़ी काकी जिद भरे स्वर में बोली, 'नाहीं आनंद कै महतारी..सचमुच डकहा आय गे है। अब तौ भगवानै बेड़ा पार लगइहैं।' एक बड़ी काकी ही उन दिनों अम्मा को 'आनंद कै महतारी' कहती थीं, बाकी औरतें बड़कू की अम्मा या अरुन कै अम्मा कहकर संबोधित करती थीं। या फिर काकी, बड़की अम्मा, बड़की दीदी आदि।
बड़ी काकी बात सुनकर हम लोगों की फूंक सरक गई। छोटा भाई राजेश जो चारपाई पर किनारे लेटा हुआ था, झट से बीच वाली चारपाई पर जाकर लेट गया और चुपचाप लेटा रहा। मैंने थोड़ी हिम्मत दिखाई, 'बड़ी काकी जब डकहा अहैं, तो पहले पच्छूं टोला (पश्चिमी टोला) की ओर ही तौ अइहैं।'
काकी बोलीं, 'अब का बताई..न जाने कौने तरफ से गांव मा घुसैं। अच्छा अम्मा..अब चलित है। सब लोग अंगना मा जागत रहौ और जब गुहार होइ, तो सब लोग लाठी, फरसा, बल्लम जौन मिले, लैके तुरंत फारिग ह्वै जाओ।' इतना कहकर वे पहलवान बाबा के आंगन की ओर चलीं। तभी दरवाजे पर आवाज आई, 'दादी..बड़की दीदी..दरवाजा खोलो..'
यह लाल जी की आवाज थी। लाल जी बोले, तो चचेरे भाई डॉक्टर अरविंद कुमार मिश्र, गोंडा जिले के सुप्रसिद्ध चिकित्सक और कुछ रोगों के विशेषज्ञ।  लाल जी दादू यानी प्रोफेसर कामेश्वर नाथ मिश्र जी के बड़े बेटे। पीछे से भइया की भी आवाज आने लगी। दुआरे पर चहल-पहल मच गई। भइया बोले, तो बड़कू..यानी आनंद प्रकाश मिश्र..।
(शेष..फिर..)

मौत, अभी मत आना मेरे पास

मौत
अभी मत आना मेरे पास
फुरसत नहीं है 
तुम्हारे साथ चलने की
लेकिन यह मत समझना
कि मैं डरता हूं तुमसे
कई काम पड़े हैं बाकी अभी
वो जो गिलहरी
बना रही है अपने बच्चों के लिए घरौंदा
ठीक से बन तो जाए।
फुरसत नहीं है मुझे
तब तक/ जब तक
इस धरती पर भूखा सोता है
एक भी बच्चा, स्त्री, पुरुष।
अभी श्रम की सत्ता
पूंजी की सत्ता को नहीं कर पाई है परास्त
पूंजी की सत्ता के खिलाफ
बिछा तो लूं विद्रोह की बारूद
कर लूं तैयार एक हरावल दस्ता
पूंजी की सत्ता के खिलाफ।
फिर तुम्हारे साथ
मैं खुद चल पडूंगा सहर्ष
मुझे मत डराओ अपनी थोथी कल्पनाओं से
स्वर्ग-नर्क, पुनर्जन्म
या फिर उन कपोल कल्पित कथाओं से
जो रच रखे हैं
तुम्हारे नाम पर धर्म के ठेकेदारों ने।
मैं जानता हूं
मृत्यु कुछ नहीं
एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में
रूपांतरण मात्र है, बस।
मौत कहां होगी मेरी
मैं तो एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में
बदलकर भी रहूंगा जीवित
विचार के रूप में
किस्सों के रूप में
कहानियों के रूप में
लेकिन हां,
मत आना अभी
फुरसत नहीं है मेरे पास
बच्चे थोड़ा बड़े तो हो जाएं।

सेल्फी वाला पत्रकार नहीं हूं

-अशोक मिश्र
घर पहुंचते ही मैंने अपने कपड़े उतारे और पैंट की जेब से मोबाइल निकालकर चारपाई पर पटक दिया। मोबाइल देखते ही घरैतिन की आंखों में चमक आ गई। दूसरे कमरे से बच्चे भी सिमट आए थे। घरैतिन ने मोबाइल फोन झपटकर उठा लिया और उसमें कुछ देखने लगीं। मोबाइल को इस तरह झपटता देखकर मेरा माथा ठनका। मैं समझ गया कि घरैतिन का सर्च अभियान चालू हो गया है। जिस तरह बच्चों ने मुझे घेर लिया था, उससे लग रहा था कि मैं जैसे कोई आतंकवादी होऊं, घरैतिन और बच्चे सुरक्षा कर्मी, जो मुझे घेरे में लेने का प्रयास कर रहे हों। इसकी तत्काल प्रतिक्रिया हुई। मैंने उनके हाथ से लगभग मोबाइल फोन  छीन ही लिया। 
मोबाइल फोन अपने हाथ से जाते ही घरैतिन मनुहार करते हुए बोलीं, 'दिखा दीजिए न! अब छिपा क्यों रहे हैं?'  'क्या..? मैं क्या छिपा रहा हूं?' घरैतिन की बात सुनकर मैं सतर्क हो गया। उसने जिस तरह झपटकर सोफे पर रखा गया मोबाइल उठाया था, मैं समझ गया कि दाल में कुछ काला जरूर है। अगर पूरी दाल ही काली हो, तो कोई ताज्जुब नहीं। मेरे इतना कहते ही घरैतिन ने अपना सुर बदल लिया, 'चलिए..अब जल्दी से सेल्फी वाली तस्वीर दिखा दीजिए। ज्यादा इठलाइए मत। मैंने तो मोहल्ले की सभी औरतों को बता भी दिया है कि गॉटर के पापा सेल्फी वाली तस्वीर लेकर आने वाले हैं।'
मैं कुछ बोलता, इससे इससे पहले मेरा बेटा गॉटर बोल उठा, 'हां पापा! मैंने भी अपने स्कूल के दोस्तों को बता दिया है कि मेरे पापा पीएम तक से हाथ मिलाते हैं। उनके साथ फोटो खिंचवाते हैं। पापा..जल्दी से व्हाट्सएप से सेल्फी वाली तस्वीर मुझे दीजिए, मैं अपने दोस्तों को शेयर करूं।' बेटे गॉटर की बात सुनते ही मैंने उसे घुड़क दिया, 'मेरे पास कोई सेल्फी-वेल्फी नहीं है, समझे तुम लोग। मैं सेल्फी वाला पत्रकार नहीं हूं।'
मेरी बात सुनते ही घरैतिन गुर्राईं, 'फिर कैसे पत्रकार हैं आप? जिंदगी भर कलम ही घसीटते रहिएगा आप। आप पीएम के साथ एक सेल्फी नहीं ले पाए, तो कौन सा पहाड़ तोड़ लेेंगे आप अपनी पत्रकारिता के बल-बूते पर।' मैंने घरैतिन और बच्चों को समझाने का प्रयास किया, 'देखो..पीएम के साथ सेल्फी लेना और बात है, पत्रकारिता करना और बात। फिर उतनी भीड़ में घुसने की मेरी हिम्मत ही नहीं पड़ी। जानती ही हो, भीड़ देखकर मेरा बीपी हाई हो जाता है?'
घरैतिन ने मुंह बिचकाते हुए कहा, 'हुंह..भीड़ देखकर मेरा बीपी हाई हो जाता है। और जब वर्माइन, शुक्लाइन, चौधराइन आ जाती हैं, तो आपका बीपी नहीं उबाल खाता है, तब तो औरतों को टुकुर-टुकुर निहारते रहते हैं। जब से सुना था कि प्रधानमंत्री जी पत्रकारों से मिलेंगे, तब से एक उमंग थी कि चलो गॉटर के पापा भी पीएम साहब से मिलकर सेल्फी लेंगे। वर्माइन जब भी किटी पार्टी में आती है, तो बताती है कि उसके हब्बी  फलां मंत्री से मिले, अलां सांसद से मिले, इस विधायक से गलबहियां डाली। सोचा था, मैं भी अपने हब्बी की तस्वीर दिखाकर उसकी बोलती बंद कर दूंगी, लेकिन आपने तो सारे मनसूबे पर पानी फेर दिया।' 
हां पापा..अगर आप बस एक..एक सेल्फी ले लेते तो क्या बिगड़ जाता। आप सोचिए, वह सेल्फी मेरा कितना रुतबा बढ़ा देती। जब मैं स्कूल जाती, तो सारी सहेलियां अदब से पेश आतीं। टीचर्स भी मुझे मेरी गलती पर डांट से पहले सौ बार सोचतीं कि इसके पापा की पीएम तक पहुंच है, कहीं मेरी शिकायत न करें। सोचिए..पापा..सोचिए, आपने सेल्फी न लेकर कितना कुछ खोया है।' मेरी बेटी ने तमतमाते हुए कहा। अपने पर हो रहे हमलों से मेरा बीपी हाई हो गया, मैं चिल्लाया, 'बस..बहुत हो चुका..मुझे अब कोई ज्ञान न दे। मुझे जो उचित लगा, मैंने किया। समझे आप लोग।' मेरी बात सुनकर घरैतिन मुंह बनाती हुई किचन में चली गईं। बच्चे भी उदास मन से बैठकर पढ़ाई करने लगे।