Wednesday, December 29, 2010

राजा-राडिया के लिए भी शुभ हो नववर्ष

-अशोक मिश्र
खरामा-खरामा दिन, सप्ताह और महीने की देहरी को पार करता हुआ यह साल बीत गया। जो बीत गया, सो बीत गया। उसके बारे में बुरा कहना, हमारी संस्कृति के खिलाफ है। अब आप छमिया को ही लें। वह पूरी जिंदगी घूरेलाल से परेशान रही। उठते-बैठते उसके पूरे हो जाने की कामना करती रही हो, लेकिन जिस दिन घूरेलाल पूरा हुआ, उसी दिन से छमिया के लिए घूरेलाल देवता हो गया, भला मानुष हो गया। बीते साल को भी घूरेलाल समझकर अच्छा साल बताने में ही भलाई है। कहते हैं कि बीता वक्त आने वाले वक्त की आधारशिला होती है। पिछले साल अगर प्रतिदिन एक घोटाले का रिकार्ड कायम हुआ हो, तो कामना कीजिए कि इस बार दो घोटाले प्रतिदिन के हिसाब से रिकार्ड बनाकर हम दुनिया के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी देश के निवासी होने का फख्र हासिल कर सकें। आप कल्पना कीजिए, जब भ्रष्टाचार में छंटाक-छंटाक भर के देश हमसे आगे निकल जाते हैं, तो हम देशवासियों को कितनी कोफ्त होती है। अरे, हम दुनिया भर के ज्ञान गुरु रहे हैं। हमने ही दुनिया को जीरो का ज्ञान देने के साथ-साथ कागजों में अपनी मर्जी के मुताबिक जीरो बढ़ाकर हेराफेरी करने का भी ज्ञान दिया था। लेकिन यह बात अब बीते जमाने की हो गयी है। इसलिए इसे भी घूरेलाल की तरह भूल जाने में ही भलाई है।
हां, तो जनाब! 365 दिन का चक्र पूरा करके नया साल आपके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। उठिए, दिल खोलकर स्वागत कीजिए, राई-नोन उवारिये, बलइया लीजिए। भले ही जेब में पैसा न हो, लेकिन नए साल का स्वागत उत्साह के कीजिए। जरूरत पड़े तो उधार लीजिए, डाका डालिए, किसी की जेब काटिए, गला काटिए, लेकिन नए साल को इंज्वाय करने में कोताही न करें। होटलों और पार्कों में अपनी/अपने उनके साथ गलबहियां डालकर मस्ती से झूमिए। दारू-शारू पीजिए, हो-हल्ला मचाइए, कुछ भी कीजिए, लेकिन नए साल पर पड़ोसियों को यह नहीं लगना चाहिए कि आपकी जेब इन दिनों ढीली है। जो भी मिले, उसे लपककर शुभकामनाएं दीजिए। अगर किसी पार्टी-शार्टी में ‘वे’ मिल जाएं, तो घरैतिन की निगाह बचाकर ‘जप्फियां-वप्फियां’ पाइए।
मेरी शुभकामना यही है कि नया साल आप सबके लिए शुभ हो। आप पूरे साल प्रेम रस में आकंठ डूबते-उतराते रहें। आपके बेटे-बेटियां राडिया और राजा बनें। उन्हें मीडिया, सरकार और अधिकारियों को मैनेज करने का गुर राडिया और राजा से सीखने को मिले, ऐसी मेरी हार्दिक इच्छा है। आप सब इन महापुरुषों और महास्त्रियों की ट्यूशन फीस जुटा सकें, तो समझिए कि यह साल आपके लिए शुभ रहा। हां, अगर आपके बेटे-बेटियों, भाई-बहनों में सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, डॉ. बिनायक सेन, शंकर गुहा नियोगी बनने के कीटाणु पैदा हो रहे हों, तो उनका नए साल पर समूल नाश हो जाए, यह मैं सोते-जागते कामना करता हूं।
नया साल उनके लिए शुभ हो, जो डिटरजेंट पाउडर, तेल आदि से नकली देशी घी, दूध, खोया आदि बनाकर बेचते हैं। नया साल उनके लिए भी शुभ हो, जो इन्हें खाकर मर जाते हैं, रोगी हो जाते हैं, कई असाध्य रोगों के शिकार हो जाते हैं। तराजू के नीचे चुंबक लगाकर घटतौली करने वालों को नया साल मुबारक हो। यह साल उनके लिए भी नया उजाला लेकर आये, जो इस घटतौली के शिकार होते हैं। नये साल पर उनके लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं हैं, जो गरीबों और देश के विकास के लिए बनाई जाने वाली बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को उदरस्थ कर जाते हैं। यह नववर्ष उन्हें भी शुभ हो जो इन परियोजनाओं के इंतजार में एक-एक दिन काटकर पूरी जिंदगी बिता देते हैं और ये परियोजनाएं इनके द्वार पर दस्तक तक नहीं देती हैं। दल-बदल और पार्टी से भितरघात करने वालों को इस साल कुछ स्वर्णिम मौके मिलें, इस कामना के साथ मेरी शुभेच्छा उनके प्रति भी है, जो किसी एक पार्टी रूपी खूंटे से आजीवन बंधे रहकर अपना और अपनी भावी पीढ़ी का कबाड़ा कर लेते हैं।
मेरी शुभकामना है कि सभी राजनीतिक दलों की सत्ता बरकरार रहे। विपक्ष में बैठने वालों को भी सत्ता का सुख भोगने को मिले। भले ही संविधान में संशोधन करना पड़े कि चुनाव आयोग में पंजीकृत सभी पार्टियां बिना चुनाव लड़े सत्ता की भागीदार मानी जाएंगी। राजा, राडिया के साथ-साथ देश भर के भ्रष्टों, दलालों, भितरघातियों, पाकेटमारों और लुच्चे-लफंगों के लिए नया साल सुखद हो। इसी के साथ आप लोग मेरे लिए कामना करें कि पिछले साल की तरह इस बार भी मेरी रसोईघर के कनस्तर खाली न रहें। बच्चों की फीस समय पर पहुंच जाए। बीवी को जरूरत के मुताबिक समय पर कपड़े-लत्ते और दवा-दारू में से दवा उसे और दारू मुझे मिल जाया करे।

Tuesday, December 28, 2010

उनका देश

-विवेक दत्त मथुरिया
यह देश किसका है?
उनका, आपका या फिर हम सबका
यह देश उन्हीं का है
और इसका पूरा विधान भी उनका है
व्यवस्था परिवर्तन की बात
या जनहित में उसकी आलोचना
अभिव्यक्ति नहीं, देशद्रोह है
यह गलती भगत सिंह, आजाद, बोस ने की
और यही गलती कर बैठा विनायक सेन।
राजा हो या राडिया, या फिर कल्माड़ी...
लूटना कोई अपराध नहीं
स्टेट्स सिंबल है आज
इनके लिए इंसाफ
एक दिखावा है या फिर छलावा
क्योंकि ये जन-गण-मन के अधिनायक हैं
इसलिए यद देश उन्हीं का है
हमारा और आपका नहीं।

Sunday, December 19, 2010

गुनाहगार को चाहिए कैरेक्टर सर्टिफिकेट

-अशोक मिश्र

भारत-पाकिस्तान का वनडे क्रिकेट मैच देखने के लिए बहाना बनाकर आफिस से छुट्टी लेने के बाद बिस्तर पर लेटा ही था कि दरवाजे पर उस्ताद गुनाहगार की आवाज सुनाई दी। उनकी आवाज सुनते ही मुझे बहुत कोफ्त हुई। मैं समझ गया कि रजाई ओढ़कर चाय पीते हुए क्रिकेट मैच देखने का सपना अब पूरा होने वाला नहीं है। तब तक घरैतिन को ढेर सारा आशीर्वाद देते हुए उस्ताद गुनाहगार कमरे में घुस आए, ‘अमां यार! तुम अभी तक बिस्तर पर लंबे पड़े हुए हो। काहिल कहीं के...।’
झुंझलाहट के बावजूद मैंने उठकर चरण स्पर्श करते हुए कहा, ‘उस्ताद..आज तबीयत कुछ नासाज थी, इसलिए आफिस से छुट्टी लेकर आराम फरमा रहा हूं। आप बताएं, आज मेरे गरीबखाने पर कैसे पधारने का कष्ट किया। ’
‘एक मुसीबत में फंस गया हूं। मुझे एक कैरेक्टर सर्टिफिकेट बनवाना है। समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं?’ उस्ताद गुनाहगार ने रजाई हटाकर बिस्तर पर ही पसरते हुए हांक लगाई, ‘अरे बहू! आज चाय नहीं, काफी पीने का मन है। ठंड कुछ ज्यादा है, अगर साथ में पनीर की पकौड़ियां भी हो जाएं, तो मजा आ जाए।’ मैं समझ गया कि घरैतिन आशीर्वाद और अच्छी बहू का खिताब पाने के चक्कर में आज बची-खुची काफी और शाम को ही लाए गए पनीर का कबाड़ा करके रहेगी। लेकिन उस्ताद गुनाहगार के सामने कुछ बोल पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
‘उस्ताद! आखिर बात क्या है? आपको कैरेक्टर सर्टिफिकेट की क्या जरूरत पड़ गयी। कौन-सी आपको किसी की नौकरी करनी है। पाकेटमारी कोई कैरेक्टर सर्टिफिकेट देखकर होती है?’ मैं भी अपनी खीझ से मुक्त होकर चुहुल के मूड में आ गया था।
‘यार तुम समझोगे नहीं। अंतरराष्ट्रीय पाकेटमारी संघ का चुनाव होना है। इस बार मैं अध्यक्ष पद के लिए खड़ा हो रहा हूं। इसके लिए अन्य कागजात के साथ कैरेक्टर सर्टिफिकेट भी जमा करना होगा।’ गुनाहगार ने मुझे जानकारी दी।
‘तो इसमें क्या दिक्कत है? आपको एक फार्म भरकर जमा करना होगा और जिला पुलिस मुख्यालय से आपको कैरेक्टर सर्टिफिकेट मिल जाएगा। हां, आपको बाबुओं की जेब इस ठंडक में गर्म करनी पड़ेगी।’ मैंने मुफ्त में ही सलाह दे डाली। वैसे आपको बता दूं, मैं सलाह देने की बाकायदा फीस लेता हूं। लेकिन उस्ताद गुनाहगार मेरे बड़े भाई हैं, उनकी मैं इज्जत भी खूब करता हूं। इसलिए कभी-कभी मुफ्त में सलाह देने से भी परहेज नहीं करता।
मेरी सलाह सुनते ही गुनाहगार गुस्से से उछल पड़े, ‘अबे व्यंग्यकार की दुम! तुम्हारी अक्ल हमेशा घुटने में ही रहेगी। बताओ भला, किसी पाकेटमार को किस जिले की पुलिस चरित्र प्रमाण पत्र देगी। पकड़े जाने पर पब्लिक और पुलिस जो प्रमाणपत्र देती है, वह मैं ही जानता हूं। पाकेट में भले ही लवलेटर्स, दवाइयों या बीवी द्वारा की गयी शॉपिंग के बिल्स पड़े हों, लेकिन जैसे ही पाकेटमार पकड़ा जाता है, पर्स वाला पांच हजार रुपये से ज्यादा रकम होने की गुहार लगाने लगता है।’
गुनाहगार की बात सुनते ही मैंने अक्ल के घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिए, ‘तो गुरु...पुलिस-वुलिस का चक्कर छोड़िए। स्कूल-कालेज छोड़ते समय तो आपको कैरेक्टर सर्टिफिकेट तो मिला ही होगा। उसी को जमा कर दीजिए न...। फालतू में टेंशन लेने की जरूरत नहीं है।’ तब तक घरैतिन पनीर के पकौड़े और गर्मागर्म काफी ले आयीं। गुनाहगार ने पकौड़े भकोसते हुए कहा, ‘अब तुम्हें क्या कहूं। अगर मैं स्कूल-कालेज ही गया होता, तो कहीं किसी कालेज या विश्वविद्यालय में प्रोफेसर होता, सांसद-विधायक होता, किसी बैंक का मैनेजर होता। कहने का मतलब यह है कि इनमें से कुछ भी होता, लेकिन पाकेटमार तो नहीं होता। मैंने जिस कालेज में पढ़ाई की है, वहां से मिलने वाली डिग्री और कैरेक्टर सर्टिफिकेट ब्लेड ही होती है। इस बात को अंतरराष्ट्रीय पाकेटमार संघ के लोग भी जानते हैं, लेकिन उन बेवकूफों को कौन समझाए। अब उन्होंने कैरेक्टर सर्टिफिकेट मांगा है, तो देना ही पड़ेगा। जब मैं अध्यक्ष बन जाऊंगा, तो इस नामाकूल नियम को बदलवा कर रहूंगा।’
एकाएक मेरी खोपड़ी में एक आइडिया क्लिक कर गया। मैंने उनकी बांह पर हाथ मारते हुए कहा, ‘गुरु मिल गया आइडिया...आपको कैरेक्टर सर्टिफिकेट चाहिए न। ऐसा करें, भाभी जी या भाभी जी की बहन से कैरेक्टर सर्टिफिकेट ले लें। भला एक बीवी या साली से बेहतर कौन बता सकता है कि उसके पति या जीजा का कैरेक्टर क्या है? मुझे लगता है कि इससे बेहतर और प्रामाणिक सर्टिफिकेट और कोई दूसरा नहीं दे सकता है। इस दुनिया में कोई ऐसा नहीं होगा जो इस सर्टिफिकेट को अमान्य कर सके। उस्ताद! अगर बीवी या साली द्वारा दिया गया सर्टिफिकेट मान्य हो जाए, तो मजा आ जाए। लोग अपनी बीवी या साली की लल्लोचप्पो करते हुए आगे-पीछे घूमेंगे। वाकई...कल्पना कीजिए, कितना मजा आएगा।’ यह बात सुनते ही गुनाहगार गुस्से में ‘मुझसे मसखरी करता है’ कहते हुए मेरी ओर झपटे और मैं ‘बचाओ’ कहता हुआ भागकर घरैतिन के पीछे छिप गया।

Monday, December 6, 2010

दीदी तीन...जीजा पांच

-अशोक मिश्र
आज आपको एक कथा सुनाने का मन हो रहा है। एक गांव में बलभद्दर (बलभद्र) रहते थे। क्या कहा...किस गांव में? आप लोगों की बस यही खराब आदत है...बात पूछेंगे, बात की जड़ पूछेंगे और बात की फुनगी पूछेंगे। तो चलिए, आपको सिलसिलेवार कथा सुनाता हूं। ऐसा हो सके, इसलिए एक पात्र मैं भी बन जाता हूं। ...तो मेरे गांव में एक बलभद्दर रहते थे। अब आप यह मत पूछिएगा कि मेरा गांव कहां है? मेरा गांव कोलकाता में हो सकता है, लखनऊ में हो सकता है, आगरा में हो सकता है, पंजाब के किसी दूर-दराज इलाके में भी हो सकता है। कहने का मतलब यह है कि मेरा गांव हिंदुस्तान के किसी कोने में हो सकता है, अब यह आप पर निर्भर है कि आप इसे कहां का समझते हैं।
तो बात यह हो रही थी कि मेरे गांव में एक बलभद्दर रहते थे। उसी गांव में रहते थे छेदी नाऊ। तब मैं उन्हें इसी नाम से जानता था। उस समय मैं यह भी नहीं जानता था कि ‘छेदी बड़का दादा’ (पिता के बड़े भाई) यदि शहर में होते तो छेदी सविता कहे जाते। उन दिनों जातीयता का विष इस कदर समाज में नहीं व्याप्त था। तब ब्राह्मण, ठाकुर, पासी, कुम्हार, चमार आदि जातियों में जन्म लेने के बावजूद लोग एक सामाजिक रिश्ते में बंधे रहते थे। तो कहने का मतलब यह था कि छेदी जाति के नाऊ होने के बावजूद गांव किसी के भाई थे, तो किसी के चाचा। किसी के मामा, तो किसी के भतीजा। हर व्यक्ति उनसे अपने रिश्ते के अनुसार व्यवहार करता था। छेदी बड़का दादा को तब यह अधिकार था कि वे किसी भी बच्चे को शरारत करते देखकर उसके कान उमेठ सकें। कई बार वे मुझे भी यह कहते हुए दो कंटाप जड़ चुके थे, ‘आने दो पंडित काका को, तुम्हारी शिकायत करता हूं।’ पंडित काका बोले, तो मेरे बाबा जी। हां, तो बात चल रही थी बलभद्दर की और बीच में कूद पड़े छेदी। बात दरअसल यह थी कि एक दिन भांग के नशे में यह कथा छेदी बड़का दादा ने मुझे सुनाई थी। और अब कागभुसुंडि की तरह यह कथा मैं आपको सुना रहा हूं।
हां, तो बात यह थी कि मेरे गांव में एक बलभद्दर रहते थे। उनका एक बेटा था श्याम सुंदर। बाइस साल की उम्र हुई, तो उसे लड़की वाले देखने आये और एक जगह बात तय हो गयी। बात तय होने की देर थी कि बर-बरीच्छा, तिलक आदि कार्यक्रम भी जल्दी-जल्दी निपटा दिए गए। उन दिनों आज की तरह लड़के का कमाऊपन तो देखा नहीं जाता था। बस, लड़के की सामाजिक हैसियत, जमीन-जायदाद और घर का इतिहास देखा जाता था। आज की तरह लड़कियों को दिखाने का भी चलन नहीं था। तो साहब, मेरे गांव में जो बलभद्दर रहते थे, उनके बेटे के विवाह का दिन आ पहुंचा। आप लोगों को शायद यह पता ही हो कि आज से तीन-तीन साढ़े तीन दशक पहले तक शादी-ब्याह, तिलक, मुंडन, जनेऊ आदि जैसे समारोहों में नाऊ की क्या अहमियत होती थी। शादी के दिन सुबह से ही छेदी की खोज होने लगी थी। दूल्हे की मां कई बार चिरौरी कर चुकी थी, ‘भइया छेदी, देखना समधियाने में कोई बात बिगड़ न जाये। मेरा लड़का तो बुद्धू है। तुम जानकार आदमी हो, सज्ञान हो। तुम्ही लाज रखना।’छेदी ने गुड़ का बड़ा सा टुकड़ा मुंह में डालते हुए कहा, ‘काकी, तुम चिंता मत करो। मैं हूं न।’
छेदी बड़का दादा की बुद्धि का लोहा सचमुच लोग मानते थे। अगर पिछले एकाध दशक की बात छोड़ दी जाए, तो पंडित और नाऊ को बड़ा हाजिर जवाब और चतुर माना जाता था। छेदी वाकई थे चतुर सुजान। उनकी बुद्धि की एक मिसाल आपके सामने रखता हूं। उन दिनों मैं लखनऊ में पांचवीं में पढ़ता था। गर्मी की छुट्टियों में गांव जाता था। एक दिन मेरे छोटे भाई के बाल छेदी बड़का दादा काट रहे थे और उनके आगे मैं अपना ज्ञान बघार रहा था, ‘बड़का दादा...आपको मालूम है, सूर्य के चारों ओर पृथ्वी चक्कर लगाती है और पृथ्वी का चक्कर चंद्रमा लगाता है।’
मेरे इतना कहते ही छेदी बड़का दादा खिलखिलाकर हंस पड़े, ‘तुम्हारा पढ़ना-लिखना सब बेकार है। यह बताओ गधेराम...अगर पृथ्वी सूरज महाराज का चक्कर लगाती है, तो हम सब लोगों को मालूम क्यों नहीं होता। अगर ऐसा होता, तो अब तक चलते-चलते हम लोग किसी गड्ढे में गिर गए होते। हमारे घर-दुवार किसी ताल-तलैया में समा गए होते।’
उनकी इस बात का जवाब तब मेरे पास नहीं था। मैं लाख तर्क देता रहा, लेकिन वहां बैठे लोग छेदी नाऊ का ही समर्थन करते रहे। तब सचमुच सापेक्षता का सिद्धांत नहीं जानता था या यों कहो कि ट्रेन में बैठने पर खिड़की से देखने पर पेड़ों के भागने का उदाहरण नहीं सूझा था। खैर...।
बात कुछ इस तरह हो रही थी कि मेरे गांव में जो बलभद्दर रहते थे, उनके बेटे श्याम सुंदर की बारात दो घंटे लेट से ही सही दुल्हन के दरवाजे पहुंच गयी। थोड़े बहुत हो-हल्ला के बाद द्वारपूजा, फेरों आदि का कार्यक्रम भी निपट गया। इस झमेले में दूल्हा और छेदी काफी थक गए थे। लेकिन मजाल है कि छेदी ने दूल्हे का साथ एक पल को भी छोड़ा हो। वैसे भी उन दिनों दूल्हे के साये की तरह लगा रहना नाऊ का परम कर्तव्य माना जाता था। इसका कारण यह है कि तब के दूल्हे ‘चुगद’ हुआ करते थे। ससुराल पहुंचते ही वे साले-सालियों से ‘चांय-चांय’ नहीं किया करते थे। साले-सालियों से खुलते-खुलते दो-तीन साल लग जाते थे। हां, तो आंखें मिचमिचाते छेदी दूल्हे के हमसाया बने उसके आगे-पीछे फिर रहे थे। सुबह के चार बजे हल्ला हुआ, ‘दूल्हे को कोहबर के लिए भेजो।’ यह गुहार सुनते ही छेदी चौंक उठे। थोड़ी देर पहले ही दूल्हे के साथ उन्होंने झपकी ली थी। लेकिन बलभद्दर ने जैसे ही दूल्हे से कहा, ‘भइया, चलो उठो। कोहबर के लिए तुम्हारा बुलावा आया है।’
छेदी ने जमुहाई लेते हुए दूल्हे के सिर पर रखा जाने वाला ‘मौर’ उठा लिया और बोले, ‘श्याम भइया, चलो।’
जनवासे से पालकी में सवार दूल्हे के साथ-साथ पैदल चलते छेदी नाऊ उन्हें समझाते जा रहे थे, ‘भइया, शरमाना नहीं। सालियां हंसी-ठिठोली करेंगी, तो उन्हें कर्रा जवाब देना। अपने गांव-जंवार की नाक नहीं कटनी चाहिए। लोग यह न समझें कि दूल्हा बुद्धू है।’
पालकी में घबराये से दूल्हे राजा बार-बार यही पूछ रहे थे, ‘कोहबर में क्या होता है, छेदी भाई। तुम तो अब तक न जाने कितने दूल्हों को कोहबर में पहुंचा चुके हो। तुम्हें तो कोहबर का राई-रत्ती मालूम होगा।’
‘कुछ खास नहीं होता, भइया। हिम्मत रखो और कर्रे से जवाब दो। तो सालियां किनारे नहीं आयेंगी।’ छेदी दूल्हे को सांत्वना दे रहे थे। तब तक पालकी दरवाजे तक पहुंच चुकी थी। पालकी से उतरकर दूल्हा सीधा कोहबर में चला गया और छेदी कोहबर वाले कमरे के दरवाजे पर आ डटे। घंटा भर लगा कोहबर के कार्यक्रम से निपटने में। इसके बाद दूल्हे को एक बड़े से कमरे में बिठा दिया गया। रिश्ते-नाते सहित गांव भर की महिलाएं और लड़कियां दूल्हे के इर्द-गिर्द आकर बैठ गयीं। लड़कियां हंस-हंसकर दूल्हे से चुहुल कर रही थीं। उनके नैन बाणों से श्याम सुंदर लहूलुहान हो रहे थे। कुछ प्रौढ़ महिलाएं लड़कियों की शरारत पर मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं। तभी एक प्रौढ़ महिला ने दूल्हे से पूछा, ‘भइया, तुम्हारे खेती कितनी है?’
सवाल सुनकर भी दूल्हा तो सालियों के नैन में उलझा रहा लेकिन छेदी नाऊ सतर्क हो गए। उन्हें याद आया कि चलते समय काका ने कहा था, बेटा बढ़ा-चढ़ाकर बताना। सो, उन्होंने झट से कहा, ‘ बयालिस बीघे....’ दूल्हा यह सुनकर प्रसन्न हो गया। मन ही मन बोला, ‘जियो पट्ठे! तूने गांव की इज्जत रख ली।’
इसके बाद दूसरी महिला ने बात आगे बढ़ाई, ‘दूल्हे के चाचा-ताऊ कितने हैं?’रेडीमेड जवाब तैयार था छेदी नाऊ के पास, ‘वैसे चाचा तो दो हैं, लेकिन चाचियां चार।’
यह जवाब भी सुनकर दूल्हा मगन रहा। वह अपनी सबसे छोटी साली को नजर भरकर देखने के बाद फिर मन ही मन बोला, ‘जियो छेदी भाई...क्या तीर मारा है।’
पहली वाली महिला ने ब्रह्मास्त्र चलाया, ‘और बुआ?’
छेदी ने एक बार फिर तुक्का भिड़ाया, ‘बुआ तो दो हैं, लेकिन फूफा साढ़े चार।’ यह सवाल सुनते ही दूल्हा कुनमुना उठा। दूल्हे ने अपना ध्यान चल रहे वार्तालाप पर केंद्रित किया और निगाहों ही निगाहों में उसे उलाहना दी, ‘अबे क्या बक रहा है?’ लेकिन बात पिता के बहिन की थी, सो उसने सिर्फ उलाहने से ही काम चला लिया। तभी छेदी बड़का दादा भी सवाल दाग बैठे, ‘और भउजी के कितनी बहिनी हैं?’
वहां मौजूद महिलाएं चौंक गयीं। एक सुमुखी और गौरांगी चंचला ने मचलते हुए पूछ लिया, ‘कौन भउजी?’
छेदी के श्यामवर्ण मुख पर श्वेत दंतावलि चमक उठी, ‘अपने श्याम सुंदर भइया की मेहरारू...हमार भउजी...।’ इस बार दूल्हे ने प्रशंसात्मक नजरों से छेदी को देखा। दोनों में नजर मिलते ही छेदी की छाती गर्व से फूल गयी, मानो कह रहे हों, ‘देखा...किस तरह इन लोगों को लपेटे में लिया।’
सुमुखी गौरांगी चंचला ने इठलाते हुए कहा, ‘चार...जिसमें से एक की ही शादी हुई है...तुम्हारे भइया के साथ।’
तभी एक दूसरी श्यामवर्णी बाला ने नाखून कुतरते हुए पूछ लिया,‘जीजा जी के कितनी बहिनी हैं।’
छेदी के मुंह से एकाएक निकला, ‘दीदी तो तीन, लेकिन जीजा पांच।’ इधर छेदी के मुंह से यह वाक्य पूरा भी नहीं हो पाया था कि दूल्हा यानी श्याम सुंदर अपनी जगह से उछला और छेदी पर पिल पड़ा, ‘तेरी तो...’ इसके बाद क्या हुआ होगा। इसकी आप ही कल्पना कर सकते हैं। मुझे इसके बारे में कुछ नहीं कहना है, कोई टिप्पणी नहीं करनी है। हां, मुझे छेदी बड़का दादा का यह समीकरण न तो उस समय समझ में आया था और न अब समझ में आया है। अगर आप में से कोई इस समीकरण को सुलझा सके तो कृपा करके मुझे भी बताए कि जब श्याम सुंदर के दीदी तीन थीं, तो जीजा पांच कैसे हो सकते हैं।

Sunday, December 5, 2010

अपना डेथ सर्टिफिकेट

-अशोक मिश्र
नगर निगम के जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र के कार्यालय में पहुंचकर उस्ताद मुजरिम ने एक बाबू से पूछा, ‘सर, क्या आप बता सकेंगे कि यह मृत्यु प्रमाण पत्र कहां बनता है?’ बाबू ने बिना सिर उठाये जबाब दिया,‘कामता बाबू से जाकर मिलो। ऐसे घटिया काम वही देखते हैं। उनकी पैदाइश ही ऐसे घटिया कामों के लिए हुई है।’मुजरिम ने मासूम सा सवाल किया ,‘सर जी! ये आपके कामता बाबू कहां मिलेंगे? यह आप मुझे बताने की कृपा करेंगे।’मुजरिम ने यह सवाल क्या किया मानो उस बाबू की कुर्सी के नीचे हाईड्रोजन बम रख दिया हो। उस बाबू ने पहली बार अपना सिर झटके से उठाया और झल्लाकर कहा,‘मेरे सिर पर! आपको कामता बाबू के बैठने का स्थान बताने के लिए सरकार ने मुझे यहां नहीं बैठा रखा है। जिस तरह से आपने मुझे ढूंढ़ लिया, उसी तरह कामता बाबू को भी खोज लीजिए। और अब आप जाइए, मेरा भेजा मत खाइए। पता नहीं कहां से चले आते हैं, लोग मेरा सिर चाटने। भगवान की फैक्ट्री में अब भी ऐसे लोग बनाये जाते हैं, यह तो मुझे पता ही नहीं था। भगवान जाने...इस देश का क्या होगा?’क्लर्क के जवाब से आहत मुजरिम ने चारों तरफ नजर दौड़ाई और एक चपरासीनुमा जीव को किनारे बैठा देखकर उनकी आंखों में चमक आ गयी। वे उसकी ओर उसी तरह लपके, जैसे कभी सुदामा को देखकर श्रीकृष्ण लपके होंगे। उन्होंने चपरासी के पास जाकर पचास का पत्ता उसे थमाया, तो उसने उन्हें ले जाकर कामता बाबू के पास खड़ा कर दिया। वैसे भी हिंदुस्तान में गांधीवादी दर्शन की कोई उपयोगिता हो या न हो, लेकिन गांधी छाप रुपये की उपयोगिता सर्वसिद्ध है। यह कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक समान रूप से पहचाना और अपनाया जाता है। पचास का पत्ता देखते ही चपरासी की आंखों में जो चमक उभरी थी, वह इसी बात का प्रमाण है। मुजरिम को देखकर कामता बाबू ने अपने दायें हाथ की अंगुलियां चटकाई और बोले ,‘हां बताइए , आपका क्या काम है?’ इसके बाद इस तरह जमुहाई लेने लगे मानो रात भर जागने के बाद सीधे दफ्तर चले आये हों। उन्होंने पास बैठे सीनियर क्लर्क विशंभर नाथ से कहा, ‘बड़े बाबू, कुछ सुर्ती-वुर्ती खिलाएंगे या नहीं। बड़ी सुस्ती सी आ रही है।’ इसके बाद उनका ‘सुर्ती पुराण’ चालू हो गया। वे बताने लगे कि उनके गांव में तंबाकू खूब बोया जाता है। उस तंबाकू को एक बार खाने के बाद व्यक्ति जिंदगी भर वही खोजता फिरता है। वे बड़े गर्व से बता रहे थे कि उनके गांव की सुर्ती को को खरीदने कांधार से व्यापारी आते हैं। उनके खेत में उपजी तंबाकू के दीवाने तो रूस के पूर्व राष्ट्रपति रहे ब्रेझनेव तक रहे। उनके पिता जी जब तक जिंदा रहे, पूर्व राष्ट्रपति ब्रेझनेव को तंबाकू उपहार में भेजते रहे।मुजरिम ने अपने आने का मकसद बताया, तो कामता बाबू ने एक फार्म निकाला और बोले,‘यह फार्म भर लाइए। चालीस रुपये के साथ ‘सेवा पानी’ जमा कर दीजिए। दो दिन में आपका काम हो जाएगा।’ इसके बाद वे फिर बड़े बाबू से बात करने लगे। कामता बाबू की बातों पर बड़े बाबू सिर्फ ‘हूं-हां’ करते जा रहे थे, लेकिन उनका ध्यान कहीं और था। वे अपने चश्मे से सामने बैठी मिस कविता को प्यार भरी नजरों से घूर रहे थे। मिस कविता भी तिरछी नजरों से पहले बड़े बाबू को देखतीं और मुस्कुराकर अपने सामने बैठे अभी कुछ ही दिन पहले भर्ती हुए जूनियर क्लर्क को देखने लगतीं। कामता बाबू इस नैन व्यापार से अप्रभावित अपने ‘सुर्ती पुराण’ में लगे हुए थे। उन्हें अपनी बात कहने के सिवा न बड़े बाबू से कुछ लेना-देना था, न ही मिस कविता या जूनियर क्लर्क से।थोड़ी देर बाद फार्म भरकर मुजरिम कामता बाबू के हुजूर में पेश हुए। कामता के ‘सुर्ती पुराण’ में बाधा पड़ी, तो वे तिलमिला उठे। उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपने क्रोध को काबू में किया और नाक पर चश्मा चढ़ाते हुए कहा, ‘मुजरिम आपके क्या लगते थे? उनकी कब मौत हुई थी? ग्राम प्रधान या सरकारी अस्पताल के डॉक्टर का प्रमाण-पत्र लाए हैं? अगर न लाए हो, तो अभी मौका है, घर जाकर ले आओ। आज न ला सको, तो कल-परसों ले आना। लेकिन फार्म जमा करने के साथ यह सब कुछ जरूरी है। इसके बिना फार्म रिजेक्ट हो जाएगा, तो मुझे दोष देते फिरोगे।’मुजरिम ने घिघियाते हुए कहा, ‘बड़े बाबू...मुजरिम मेरा ही नाम है और खुदा के फजल से मैं अभी तक जिंदा हूं।’मुजरिम की बात सुनकर कामताबाबू इस कदर चौंक पड़े कि उनका चश्मा टेबल पर गिर पड़ा। उन्होंने चश्मा उठाकर नाक पर टिकाते हुए कहा, ‘क्या....आप अपना मृत्यु प्रमाण-पत्र बनवाने आए हैं? शर्म नहीं आती आपको सरकारी कर्मचारियों से आन ड्यूटी मजाक करते हुए। अगर मैं शिकायत कर दूँ, तो आप गए बिना भाव के। सरकारी मुलाजिमों से मजाक करना क्या इतना आसान है? आपको अंदाज नहीं है कि ऐसा करने पर क्या सजा हो सकती है।’मुजरिम ने बेचारगी अख्तिायार करते हुए कहा, ‘वो क्या है कि बड़े बाबू! सरकारी कामकाज कितना फास्ट होता है, मैं जानता हूं। इसलिए सोचा कि मैं अपनी मृत्यु प्रमाण-पत्र के लिए अभी से अप्लीकेशन दे दूँ । बहुत जल्दी काम हुआ, तो दस-पांच साल में बन ही जाएगा। तब तक मैं भी खुदा के फजल से टपक ही जाऊंगा। पैसठ साल की उम्र हो गयी है। बाद में अगर मृत्यु प्रमाण पत्र बन गया, तो मेरे बच्चे आकर ले जाएंगे।’ मुजरिम का जबाब सुनकर कामता बाबू उन्हें ताकते ही रह गये।
(व्यंग्य संग्रह ‘हाय राम!...लोकतंत्र मर गया’ से)

Monday, November 22, 2010

बदनाम होंगे, तो क्या नाम न होगा!

-अशोक मिश्र
सुबह के चार बजे मुझे लगा कि कोई मेरे घर का दरवाजा पीट रहा है। मैं घबरा गया कि कहीं पाकिस्तान ने हमला तो नहीं कर दिया या मोहल्ले में आतंकी हमला तो नहीं हो गया। आंखें मलते हुए हड़बड़ाकर मैंने उठकर दरवाजा खोला। मेरे परम मित्र, जो मेरे ही दफ्तर में काम करते थे, बदहवास से खड़े जमुहाई ले रहे थे। मैंने उलाहना देते हुए कहा, ‘क्या यार, जब भी मैं कोई बढ़िया सपना देखता हूं, तुम राहु-केतु की तरह बीच में टपक पड़ते हो। भइया, इस जन्म में या पिछले जन्म में मैंने तुम्हारी भैंस खोली थी क्या? और अगर खोली थी, तो जब भैंस पालूंगा, तो तुम भी मेरी भैंस खोलकर बदला पूरा कर लेना। फिलहाल टलो और मुझे सपना देखने दो।’
मेरे मित्र ने मुझे दरवाजे से ढकेलते हुए भीतर प्रवेश किया, ‘पिछले जन्म का तो पता नहीं, लेकिन इस जन्म में तुम मेरा पूरा तबेला ही उजाड़ने पर क्यों तुले हो, इसकी शिकायत करने आया हूं।’ मैं सिटपिटा गया। पता नहीं, कौन-सी गलती हो गयी कि मित्र का पूरा तबेला ही संकट में आ गया। वह जब कह रहा है, तो झूठ थोड़े न कह रहा होगा। मैं सत्तर फीसदी सीरियस हो गया। ‘आखिर मैंने किया क्या है? मेरी गलती तो पता चले?’ मैंने सोचा मित्र से ही पूछ लिया जाए।
‘अमां यार, तुम अपने घर की महाभारत वहीं तक सीमित रहने दो। तुमसे किसने कहा था कि अपनी पाठिकाओं को ‘राखी’ से शिकायत करने की सलाह दो।’
‘लेकिन वह मामला तो ठीक हो गया था। तुमने शायद पढ़ा नहीं, मेरी घरैतिन ने ‘आग लगे ऐसे इंसाफ पर’ कहकर मामले को ठीक कर दिया था।’ मैंने मित्र को याद दिलाया।
‘अमां यार, तुम्हारी तो ठीक हो गई, पर अपनी तो बिगड़ गयी है। मेरी घरवाली कहती है कि तुम्हारी संगत में रहकर मैं भी बिगड़ गया हूं। अब मेरी घरवाली ने बाकायदा मोहल्ले की महिलाओं की अध्यक्षता में जांच कमेटी बिठा दी है, जो मेरे बारे में जांच करेगी। यह तो तुम जानते ही हो कि आज के इस जमाने में कोई दूध का धुला तो होता नहीं। फिर दूध ही आजकल कौन सा असली मिलता है। मैंने कुछ नहीं किया होगा, तो ताका-झांकी तो की ही होगी। अगर एक भी मामला खुल गया, तो फिर पूरी फाइल बनते देर ही कितनी लगती है।’ मित्र रुआंसे हो गये थे।मैंने उनके गीले नयनों को पोंछते हुए कहा, ‘यार विवेक से काम लो। जब मेरी फाइल बंद हो सकती है, तो तुम्हारी बंद होने में कितनी देर लगेगी।’
‘बेटा...यह कहकर तुम मुझे नहीं बहला सकते। मुझे तो लगता है कि यह सब तुम्हारा ही किया धरा है। तुमने मेरी भट्ठी बुझाने के लिए ही अपना व्यंग्य चुन्नू के हाथ ‘रचना’ के पास भिजवाया था। मुझे तुमसे ऐसी ‘यारमारी’ की उम्मीद नहीं थी।’ मेरे मित्र उबलने के साथ बरस पड़े यानी फिफ्टी परसेंट क्रोध के साथ फिफ्टी परसेंट रोने लगे।मैंने उन्हें सांत्वना दी, ‘राधे-राधे...मेरे रहते तुम्हारा कोई बाल बांका नहीं कर सकता। वैसे भी ऐसे मामले उछलने से हम लोगों की ‘टीआरपी’ में जबरदस्त उछाल आता है। मेरा एक सूत्र वाक्य गांठ बांध ले, ‘बदनाम होंगे, तो क्या नाम न होगा।’ हम मोहल्ले में जितने बदनाम होंगे, महिलाएं उतनी ही चर्चा करेंगे। सोच अगर श्रीकृष्ण जी सत्यभामा या रुक्मिणी से डरकर बैठ जाते, तो क्या गोपिकाओं से नैन-मटक्का कर पाते। वे तो चाहते ही थे कि लोग उनके बारे में चर्चा करें, विरोधी उनकी आलोचना करें, ताकि वे और पापुलर हो जाएं। मोहल्ले में जब चार औरतें अपने किशन कन्हैया होने की कहानियां गढ़ती या एक दूसरे को सुनाती हैं, तो हम लोगों के ‘चांस’ बढ़ जाते हैं, चांस। समझा कर यार। तू तो पक्का कृष्ण भक्त है। कृष्ण का संदेश समझ और चुपचाप कड़वा घूंट समझकर बीवी की डांट-डपट सह जा।’
सच बताऊं, उसकी बात सुनकर भीतर ही भीतर मैं सहम गया कि जिस मामले की फाइल मैंने बड़ी मुश्किल से ठंडे बस्ते में डलवाई है, कहीं मेरे मित्र की राम कहानी सुनकर मेरी घरवाली के दिमाग में फिर वही धुन न सवार हो जाए,‘महिलाओं की कोर कमेटी बनाकर मेरे चरित्र की जांच कराने वाली।’ लेकिन मन की भावनाओं को छिपाकर मैंने अपने मित्र एक बार फिर मीठी सुपारी खिलाने की कोशिश की, ‘यार, तू एक ही मामले से इतना डर गया। अरे, अपने देश के नेताओं से कुछ तो सीख। उन ‘बेचारों’ पर इतने कीचड़ उछाले जाते हैं, कैसे-कैसे आरोप लगाए जाते हैं। कभी कमीशन खाने के, तो कभी अवैध संबंधों के। उनके बारे में ऐसी-ऐसी कहानियां गढ़ी जाती हैं कि अगर उनमें से एक भी तुम्हारे बारे में होती, तो अब तक बेटा तुम शर्म से पानी-पानी होकर इस दुनिया से ‘गो, वेंट, गॉन’ हो गए होते। लेकिन उनकी हिम्मत तो देखो, वे न सिर्फ मुस्कुराते रहते हैं, बल्कि दुनिया के सामने अपनी सच्चरित्रता और पाक दामन की कसमें तक खाते फिरते हैं। सीखो.. अपने देश की सियासत से कुछ तो सीखो। नहीं अच्छी बात सीख सकते, तो बुरी ही सीखो। कुछ तो सीखो।’
मेरे मित्र गहरी सांस लेकर रह गया। तभी मेरी घरवाली ने दो कप चाय लाकर रख दिया। मैंने मन ही मन अपनी घरैतिन को धन्यवाद दिया क्योंकि चाय आ जाने से बातचीत का क्रम टूट गया और मुझे इस हालात से बच निकलने का मौका मिल गया। मैंने अपने मित्र से चाय पीने को कहा, तो वह ‘सुड़क-सुड़क’कर चाय पीने लगा। जब तक मैं आधी चाय पीता, मेरा मित्र कप खाली कर चुका था। कप को मेज पर जोर से पटकते हुए बोला, ‘एक बात बता दूं। मैं कोई नेता या अभिनेता नहीं हूं कि बीवी की मार खाऊं और हंसता रहूं। अगर मेरी घरवाली ने मेरे खिलाफ कोई एक्शन लिया, तो मैं तुम्हें छोडूंगा नहीं।’ इतना कहकर वह उठ खड़ा हुआ। मेरे मुंह से सिर्फ इतना निकला, ‘कैसी बात करता है यार। मैं रचना भाभी को समझा दूंगा। बस निश्चिंत होकर घर जा।’ मित्र के जाते ही मैं सिर पकड़कर बैठ गया।

Monday, November 15, 2010

‘राखी’ बहन से शिकायत कर दूंगी....हां

-अशोक मिश्र
ऑफिस से थक हारकर घर पहुंचा, तो मेरी इकलौती घरैतिन एनडीटीवी पर प्रसारित हो रहे इमेजिन शो ‘राखी का इंसाफ’ देख रही थी। मैंने सोफे पर पसरते हुए अपनी पत्नी से पानी पिलाने को कहा, तो वह रोज की तरह झटपट पानी लाकर देने की बजाय घूरते हुए बोली, ‘आप आफिस से कोई गोवर्धन पर्वत उठाकर नहीं आ रहे हैं। इसलिए बराये मेहरबानी आप पानी लेकर पी लीजिए। हां, थोड़ी देर बाद अपने लिए चाय बनाऊंगी, तो आपके लिए भी चाय बन जाएगी। तसल्ली रखिये।’घरैतिन के रंग-ढंग देखकर मैं चौंका। मैं सोचने लगा कि आखिर घरैतिन इतनी अकड़ क्यों दिखा रही है। कहीं मिसेज शर्मा के फीगर की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने वाली बात तो उसे नहीं पता चल गयी? लेकिन उसे यह कैसे पता चल सकता है, उस समय तो वह रसोई में दलिया उबाल रही थी। या फिर कहीं पड़ोस वाली भाभी जी ने शिकायत तो नहीं कर दी कि मैं उसे घूर-घूर कर देखता हूं। लेकिन जब पिछले दो साल से लगातार घूर रहा हूं, तो आज शिकायत करने वाली कौन सी बात हो गयी। नहीं, कोई और बात है। मैंने मामले की पूंछ पकड़ने के लिए मस्का मारा, ‘मेरी जोहरा जबीं, आज कोई खास बात है क्या? जो माहताब से आफताब बनी मेरे दिल पर बिजलियां गिरा रही हो। पानी नहीं देना है, तो मत दो। मैं खुद पानी निकालकर पी लूंगा। लेकिन बात क्या है? यह तो बताओगी।’घरैतिन ने मुंह बिचकाया और ‘राखी का इंसाफ’ देखने में मशगूल हो गयीं। संयोग से तभी अपने कार्यक्रम में ‘राखी’ एक प्रतिभागी लक्ष्मण से चीख-चीख कर कहने लगीं, ‘तू नामर्द है, इसीलिए तो तेरी बीवी भाग गयी।’ राखी का चिल्लाना और इस तरह अश्लील भाषा का प्रयोग करते देख मैं भौंचक रह गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि हमेशा अच्छे और सामाजिक सरोकारों से जुड़े सीरियल देखने वाली मेरी बीवी कितनी रुचि से ‘राखी का इंसाफ’ देख रही है। मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने उठकर टीवी बंद करते हुए कहा, ‘आज से तुम लोगों का यह सब देखना बंद...। यह फूहड़ कार्यक्रम तुम खुद देख रही हो और बच्चों को भी दिखा रही हो। शर्म नहीं आती...तुम्हें।’मैंने समझा कि हमेशा की तरह मेरी बीवी अपनी गलती पर शर्मिंदा होगी और चाय बनाने या पानी पिलाने के लिए उठकर चल देगी। लेकिन हुआ इसका उल्टा। बीवी गुर्राई, ‘देखो...ज्यादा तीन-पांच मत करो। अगर ज्यादा चूं-चपड़ की, तो ‘राखी’ बहन से शिकायत कर दूंगी...हां। राखी बहन आजकल अच्छे-अच्छों के कस-बल ढीले कर रही हैं। देखते नहीं हो, बड़े-बड़े सूरमा राखी के सामने भीगी बिल्ली बने गिड़गिड़ाते रहते हैं और वह शेरनी की तरह बैठी इंसाफ करती रहती हैं। एकदम विक्रमादित्य की तरह दूध का दूध, पानी का पानी....राखी बहन, तुम्हारी जय हो।’ इतना कहकर टीवी की ओर घरैतिन ने बड़ी श्रद्धा से हाथ जोड़ लिए।घरैतिन की बात सुनकर मुझे चार सौ चालीस वोल्ट का झटका लगा। मुझे भी ताव आ गया। मैंने ताल ठोंकते हुए कहा, ‘जा..जा...तुझसे या तेरी राखी बहन से जो करते बने कर ले।’‘हां...हां...जरूर करूंगी शिकायत। राखी से सब बताऊंगी। तुम क्या जानती हो कि मुझे पता नहीं है। पड़ोस वाली भाभी जी से तुम्हारा टांका भिड़ा है। बाजू वाली भी कई बार तुम्हारी शिकायत कर चुकी है। तुम कहां-कहां नैन-मटक्का करते हो, यह मुझे सब मालूम है।’ घरैतिन हाथ नचाते हुए लड़ने की मुद्रा में आ गयी। घरैतिन की बात सुनकर मेरे होश उड़ गये। अब तक जिस बात को इतने जतन से छिपाता चला आ रहा था, वही बात सरेआम हो गयी। घरैतिन ने एक और धमाका किया, ‘तुम मर्दोँ की मनमानी अब नहीं चलेगी। मोहल्ले की सभी महिलाएं एक हो गयी हैं और राखी का इंसाफ की तर्ज पर हम सभी महिलाएं आप सबका इंसाफ खुद करेंगी। आपके खिलाफ कुछ शिकायतें मुझे मिली हैं। मैं उन पर विचार कर रही हूं। चार दिन बाद रविवार को हम सभी महिलाएं मोहल्ले के कम्यूनिटी हाल में इकट्ठी होकर आपके खिलाफ सुनवाई करेंगी। आपको अपने बचाव में जो कुछ कहना होगा, वहीं कहिएगा। हमने तय किया है कि जिसके खिलाफ शिकायत होगी, उसकी बीवी उस इंसाफ की अध्यक्ष होगी।’तभी मेरे बेटे ने टीवी आॅन करके न्यूज चैनल लगा दिया था। उत्तेजित स्वर में न्यूज एंकर चिल्ला-चिल्लाकर बता रही थी, ‘राखी द्वारा नामर्द बताये गये अवसादग्रस्त लक्ष्मण की मौत। लोगों में आक्रोश।’ तेज आवाज में प्रसारित हो रहे खबर को हम दोनों देखने लगे थे। मैंने अपनी घरैतिन की ओर देखा,‘अब बताओ...तुम्हारी राखी बहन ने तो एक की जान ले ली। बहुत उछल रही थी तुम राखी बहन के बल पर।’ मैंने घरैतिन की नकल उतारते हुए कहा, ‘हम महिलाओं ने तुम मर्दों का इंसाफ करने का फैसला किया है।’मैंने देखा कि खबर प्रसारित होने के बाद से घरैतिन का उत्साह ठंडा पड़ गया था। वह सिर्फ इतना बुदबुदाईं, ‘आग लगे ऐसे कार्यक्रम को। बेचारे लक्ष्मण की जान ही ले ली। मुझे कवि डॉ. बलजीत की ये पंक्तियां याद आने लगीं।टीवी टीबी दे रहा, मीठा-मीठा दर्द,अच्छे-अच्छे वैद्य भी, सिद्ध हुए नामर्द।

Friday, November 12, 2010

पोसम्पा भाई पोसम्पा

-अशोक मिश्र
‘पोसम्पा भाई पोसम्पा
डाकिये ने क्या किया?
सौ रुपये की घड़ी चुराई
अब तो जेल में जाना पड़ेगा
जेल की रोटी खानी पड़ेगी...’
किसने रचा था यह गीत। कम से कम मुझे तो नहीं मालूम। लेकिन जिसने भी रचा होगा, वह बाल मनोविज्ञान का धुरंधर रहा होगा। यह गीत बाद में किस तरह बच्चों के खेल में शामिल हो गया, इसके बारे में सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। आज भी जब बच्चों के मुंह से इस गीत को सुनता हूं, इसकी उपादेयता के प्रति नतमस्तक हो जाता हूं। कितनी खूबसूरती से इस गीत के माध्यम से बच्चों को अपराध से दूर रहने और अपराध करने पर मिलने वाले दंड के प्रति जागरूक किया गया है। जिन दिनों यह गीत रचा गया होगा, उन दिनों सौ रुपये की कीमत कम नहीं रही होगी। तब डाकिया समाज का एक सम्मानित पात्र हुआ करता था, जो लोगों के सुख-दुख के समाचार लेकर उनके बीच जाता था। समाज में उसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती थी। सरकारी कर्मचारी होने के बाद भी उसके जेल जाने से बचने की कोई गुंजाइश बच्चों को नहीं दिखायी देती। जो बच्चे इस गीत को गाकर खेलते हुए बड़े हुए हैं, उनमें न्यायिक व्यवस्था के प्रति आस्था देखने को मिल जाती है। ‘अब तो जेल में जाना पड़ेगा’ इन पंक्तियों में बच्चों का न्यायिक प्रक्रिया के प्रति विश्वास की एक झलक मिलती है।

दो दशक पहले और आज के खेलों में सबसे बड़ा अंतर यही है कि एक से सामूहिकता का विकास होता है, दूसरे से बच्चा समाज से कटता जाता है। टीवी और कंप्यूटर युग से पहले बच्चे अपने भाई-बहनों ( चचेरे-मौसेरे, ममेरे) के अलावा मोहल्ले के लगभग सभी बच्चों के साथ खेलते थे। इस दौरान वे ऐसे भी खेल खेलते थे जिनमें दो पक्ष होते थे। संयोग से जिस बच्चे के साथ एक दिन पहले किसी बच्चे की खूब लड़ाई हुई होती थी और वह बच्चा आज अपने पक्ष में होता था, तो वह बच्चा कल की लड़ाई को भूल जाता था। उसे सिर्फ इतना याद रहता था कि फलां अपने पक्ष का खिलाड़ी है और उसकी हार अपनी हार है। एक दिन पहले न बोलने की कसम खाने वाला बच्चा खेल के दौरान चिल्लाता है, ‘सुरेश...भाग...’ और खेल के बाद दोनों फिर पहले की तरह दोस्त हो जाते थे। इन खेलों की यही विशेषता थी। यदि किसी कारणवश दो बच्चे झगड़ भी पड़े, तो ज्यादा समय तक उन दोनों में ‘अबोला’ नहीं रह सकता था क्योंकि उन्हें खेलना है, तो उन्हीं बच्चों के बीच।इन खेलों के दौरान बच्चे में नेतृत्व और सामंजस्य की भावना और क्षमता का विकास होता था। वे रिश्तों की परिधि में रहकर रिश्तों की मर्यादा के प्रति जागरूक होने की शिक्षा प्राप्त करते थे। उन्हें उम्र के लिहाज से संबोधन करना सिखाया जाता था। ‘हां... तुमसे चार महीने बड़ा है...तुम उसे भइया या दादा नहीं कह सकती।’ अकसर माएं अपनी बेटियों को अपने हमउम्र साथी को नाम लेकर पुकारते देख टोक दिया करती थीं। मोहल्ले की लड़कियां या तो दीदी होती थीं या बुआ, मौसी। लड़के भी इन्हीं रिश्तों के पाये से बंधे रहते थे। ऐसे में छेड़छाड़ या अवैध संबंध की गुंजाइश कम रहती थी। संबंधों की मर्यादा इनमें आड़े आ जाती थी।

ऐसा नहीं है कि इन खेलों को खेलने वाले ज्यादातर लड़के पढ़ते नहीं थे, या उनकी मेधा में विकास नहीं होता था। उनके मां-बाप तब भी उनकी पढ़ाई को लेकर चिंतित रहा करते थे। लड़के-लड़कियां एक निश्चित समय तक खेलने के बाद घर आ जाते थे। आज स्थितियां काफी भिन्न हैं। बच्चे घर से स्कूल, ट्यूशन के लिए निकलते हैं। बाकी समय वे घर में रहकर ही कंप्यूटर, वीडियो गेम्स खेलते हैं। अगर घर में इंटरनेट कनेक्शन हो, तो फिर चैटिंग करते हैं, अश्लील फिल्में देखते हैं।

ऐसा सभी बच्चे करते हैं यह भी नहीं कहा जा रहा है, लेकिन ऐसे बच्चों का जो प्रतिशत है, वह चिंताजनक है। यह समाज के हित में कतई नहीं है। सामाजिकता के अभाव में न तो अच्छे नागरिक बन पा रहे हैं और न ही अच्छे बेटे-बेटियां। घर में अकेले रहकर असमय कुंठित और तनावग्रस्त रहने वाले बच्चे बड़े होकर अच्छे मां-बाप भी नहीं बन पाते। एकल परिवार के उदय ने समाज को और कुछ अहित किया हो या नहीं, लेकिन एकल परिवार ने बच्चों को आत्मकेंद्रित अवश्य बना दिया है। आत्मकेंद्रित बच्चा अपने सिवा किसी और के विषय में सोच ही नहीं पाता। ऐसे बच्चे जब अपराध की ओर मुड़ते हैं, तो वे कई बार ऐसे अपराधों को अंजाम देते हैं कि उसे पढ़-सुनकर रोयें खड़े हो जाते हैं। बच्चों के प्रति जागरूकता अच्छी बात है,लेकिन जब जागरूकता बच्चे के विकास में बाधा बन जाये, तो वह उसके लिए किसी अभिशाप से कम नहीं होती है। बच्चों का स्वाभाविक विकास होता रहे, इसके लिए जरूरी है कि उन पर निगाह रखी जाये, लेकिन उन्हें टोका न जाये। अगर लगे कि बच्चा गलत मार्ग पर जा रहा है, उस पर अंकुश लगाने की हर संभव कोशिश की जानी चाहिए। लेकिन उसे प्रताड़ित कदापि नहीं किया जाना चाहिए। इससे बच्चे में हठधर्मी हो जाती है।

Sunday, October 31, 2010

हाथ जिस जिस के गुनाहों में सने हैं अब तक

अशोक मिश्र

‘आज को आज, कल को कल लिखना

सिर्फ थोड़ा संभल-संभल लिखना

दिल में बस दर्द का अहसास रहे

कोई मुश्किल नहीं गजल लिखना।’

ये जजबात हैं गजलगो कुंवर ‘कुसुमेश’ के। वे अपनी गजल संग्रह ‘कुछ न हासिल हुआ’ में आदमीयत के ह्रास और धन-दौलत के पीछे भागने की प्रवृत्ति पर प्रहार करने से नहीं चूकते हैं। वे कहते हैं, आदमी छोड़कर आदमीयत, डूबता जा रहा मालो-जर में।’ दरअसल आज के युग की वास्तविक पहचान जैसे मालो-जर ही हो गए हैं। यह कैसी विडंबना है कि इंसान अपने चारित्रिक, मानसिक और सामाजिक गुणों की बजाय धन-दौलत से पहचाना जाने लगा है। आज समाज में उसी को महत्व दिया जा रहा है, जो जायज-नाजायज तरीके से अकूत धन कमा रहा है। वे आदमी को पहचाने की हिदायत देते हुए कहते हैं, कभी घर से बाहर निकलकर तो देखो, पलटकर जमाने के तेवर तो देखो। जिसे फख्र से आदमी कह रहे हो, मियां झांककर उसके अंदर तो देखो।’ फैशनपरस्ती और पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण का खामियाजा हमारी पुरानी सभ्यता और संस्कृति को उठाना पड़ रहा है। फैशन के नाम पर नग्नता बढ़ती जा रही है। विज्ञापन भले ही किसी वस्तु का हो, उसमें आज के बाजार ने स्त्रियों की उपस्थिति अनिवार्य बना दी है। यहां तक कि ट्रैक्टर और ट्रक के विज्ञापन में भी नारी किसी न किसी बहाने मौजूद रहती है। बाजार ने स्त्री को एकदम वस्तु बना दिया है। शायर कुंवर ‘कुसुमेश’ के शब्दों में-

‘वाकई वक्त अच्छा नहीं है

हो रहा जो वो होता नहीं है

पश्चिमी सभ्यता का नतीजा-

तन पे नारी के कपड़ा नहीं है।’

ग्लोबल वार्मिंग आज की प्रमुख समस्या है। पृथ्वी का लगातार बढ़ता तापमान और समुद्र का तल हमें आगाह कर रहा है कि यदि हम अब भी नहीं संभले, तो इसका खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ी को भुगतना पड़ेगा। महानगरों में बढ़ती कारों, एयरकंडीशनरों और कल-कारखानों से निकलने वाले प्रदूषित पदार्थों के चलते पर्यावरण का मिजाज बिगड़ रहा है। यही वजह है कि पिछले कुछ सालों से कुछ ऐसे इलाकों में बर्फबारी हो रही है, जहां पहले बर्फबारी नहीं होती थी। वहीं मास्को के रेड स्क्वायर जैसे इलाकों में पिछले साल बर्फ ही नहीं पड़ी। इन पर्यावरणीय परिवर्तन के प्रति कुंवर ‘कुसुमेश’ की नजर गयी है। वे मानव जाति को सचेत करते हुए कहते हैं,

‘धरातल डगमगाना जानता है

फलक गुस्सा दिखाना जानता है।

सुनामी से चला हमको पता यह

समंदर भी डराना जानता है।

समझना मत कभी कुदरत को गूंगा

ये गूंगा गुनगुनाना जानता है।’

झूठ, फरेब और मतलबपरस्ती के इस दौर में भी दोस्ती, पाकीजा प्रेम और इंसानियत का जज्बा भले ही मात्रात्मक रूप से कम पाया जाता हो, लेकिन पाया जरूर जाता है। अकसर वे लोग अपने जीवन में सफल दिखते हैं, जो जीवन भर स्वार्थपरता, बेईमानी और झूठ का कारोबार करते हैं। दुनिया उन्हीं को झुककर सलाम करती है, लोग उनकी बातों को अहमियत भी देते हैं। बेईमान और दगाबाज लोग इसके बावजूद लबादा ईमानदारी और प्रेम का ही ओढ़ते हैं। कुसुमेश का एक शे’र ऐसी स्थिति का खुलासा करता है, ‘दौरे हाजिर में हरिश्चंद्र वो हुआ जो, झूठ बोला है सरासर जिंदगी में। दुश्मनी इंसान की फितरत में शामिल, दोस्ती किसको मयस्सर जिंदगी में।’ गजल संग्रह ‘कुछ न हासिल हुआ’ में शायर कुंवर कुसुमेश ने जीवन के विविध पक्षों और रंगों को उकेरने का प्रयास किया किया है। राजनीति, पर्यावरण, शिक्षा, सभ्यता, गांव-गिरांव, खेती और जीवन के विविध रंग इसमें बिखरे पड़े हैं। ‘नाहक जरा से चांद पर इतरा रहा फलक, एक चाँद इस जमीं पे हमारा है देखिए’ कहकर माहताब को चुनौती देने वाले शायर कुंवर कुसुमेश ने वर्तमान राजनीति की नब्ज कुछ इस तरह टटोली है,

‘फूल के नाम पे कांटे ही मिले हैं अब तक,

और हम हैं कि उम्मीदों पे टिके हैं अब तक।

दौरे हाजिर ने उसे काबिले-कुर्सी माना,

हाथ जिस जिस के गुनाहों में सने हैं अब तक।’

Friday, October 29, 2010

मैं उल्लू हूँ, तुम नादान

-अशोक मिश्र
घरैतिन और बच्चों ने सुबह से ही घर को संसद भवन बना रखा था। कोई पटाखों के लिए अनुदान मांग रहा था, तो कोई लक्ष्मी पूजा के लिए हजारों का वित्त विधेयक पारित कराने की जुगत में घेराव पर आमादा था। मैं हर बार की तरह सिर्फ आश्वासन और अंतरिम राहत के बल पर दीपावली सत्र बिता लेना चाहता था। बच्चे पटाखों, फुलझड़ियों के लिए मेरे आगे पीछे ठुनक रहे थे, बेटी, स्टाइलिश लहंगा-चुन्नी की पुरानी मांग का प्रस्ताव अपनी जननी से स्वीकृत करवाकर मेरे सामने भी पेश कर चुकी थी। बेटा दो-ढाई हजार रुपये की कीमत वाले पटाखों और बमों की लिस्ट थमाकर पड़ोस में खेलने जा चुका था। घरैतिन को बनारसी साड़ी और दो तोले वजन वाले सोने के कंगन चाहिए थे। बार-बार प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिए जाने से वे मौन रहकर विरोध प्रकट कर रही थीं। सो, मरता क्या न करता वाली कहावत चरितार्थ करते हुए मैं सभी प्रस्तावों और मांगों की सूची समेटकर बाजार जाने के लिए घर से निकल पड़ा।
हाथ में थैला पकड़े मैं खरामा-खरामा पैदल ही बाजार की ओर चला जा रहा था। जेब में पड़ी मामूली सी रकम और पर्ची में लिखे सामान की कीमत का समीकरण बनाता-बिगाड़ता मैं बगिया नाले के पास स्थित काफी पुराने पीपल के पेड़ के पास पहुंचा ही था कि ऊपर से आवाज आई, ‘मैं उल्लू हूं। तुम बुद्धिबेचू व्यंग्यकार हो।’ इस आवाज को मैंने पहले तो अपना भ्रम समझा। सोचा कि पिछले कई दिनों से पैसे की किल्लत और घरैतिन की लगातार बढ़ती मांग के चलते दिमाग का कोई नट-बोल्ट ढीला होकर गिर गया है और चलने से इस नट-बोल्ट की आवाज आती है। या फिर ज्यादा सोचने की वजह से शायद मेरे कान बज रहे हैं। यही सोचकर आगे बड़ा ही था कि एक बार आवाज आई, ‘मैं उल्लू हूं। तुम नादान हो।’ इस बार मुझे दिमाग के हिल जाने का कोई भ्रम नहीं रहा। मैं चौंक उठा। बचपन में मेरी मां अक्सर कहा करती थीं, दोपहर में बाहर खेलने मत जाया करो। पुराने पीपल के पेड़ पर भूत, पिशाच या ब्रह्मराक्षस रहता है। भूत-पिशाच से बचने के लिए सचमुच दोपहर को हम सभी भाई बाहर नहीं निकलते थे। एकाएक याद आया कि कहीं कोई भूत-पिशाच तो नहीं? मैंने ऊपर की ओर देखा। एक बड़ा-सा उल्लू बैठा मुझे उल्लू की तरह निहार रहा था। उसने मुझे घूरते हुए कहा, ‘अबे उल्लू की दुम! मैं कोई ऐरा-गैरा उल्लू नहीं हूं। लक्ष्मी जी का वाहन उल्लूकराज हूं। लक्ष्मी जी इस बार मृत्युलोक वासियों को एक विशेष पैकेज देने जा रही हैं। उसी की सेटिंग के लिए मैं पहले से भेजा गया हूं।’
मैं उस उल्लू को मनुष्यों की तरह बोलता पाकर भौंचक था, ‘हे उल्लूकराज! पहले तो दीपावली की रात किसी दीन-हीन के घर आकर देवी लक्ष्मी उसका भाग्य बदल देती थीं। लेकिन क्या अब ऐसा नहीं होता?’
उल्लूकराज ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, ‘तुम तो रहे पूरे काठ के उल्लू। बाइसवीं शताब्दी में रहकर उन्नीसवीं शताब्दी की बात करते हो। क्या मर्त्यलोक में मुंह देखकर पैकेज नहीं दिया जाता। विधवा पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन से लेकर दाह संस्कार पर मिलने वाला अनुदान क्या बिना लिए-दिये मिल जाता है? जब तुम मर्त्यलोकवासी हर बात में उत्कोच का मुंह देखते हो, तो हम क्यों पीछे रहें। अगर इस बार दीपावली पर दरिद्रता हरण परियोजना के तहत अनुदान लेना है, तो बताओ कितने प्रतिशत मुझे और कितने प्रतिशत लक्ष्मी जी को दोगे? जल्दी सोचकर बताओ। इस बार विष्णु जी ने बहुत कम फंड दरिद्रता हरण परियोजना के लिए पारित किया है। महामहिम विष्णु जी तो इस पूरे प्रोजेक्ट को ही खत्म करने पर तुले हुए थे, लेकिन लक्ष्मी जी ने अपने विशेषाधिकार का उपयोग कर इस वर्ष के लिए मंजूरी ले ली है। अब तक पूरे देश में चार सौ उन्नीस लोग तलाशे जा चुके हैं। अब केवल एक की तलाश बाकी है। अगर तुम ठीक-ठाक उत्कोच, वह भी एडवांस देने का वायदा करो, तो मैं इस बार तुम्हें करोड़पति बनवा सकता हूं।’
मैं सोच में पड़ गया। एक तरफ तो मुझे करोड़पति बनने का लालच कुछ कर गुजरने को उकसा रहा था, दूसरी तरफ बुद्धिजीवी होने का दंभ इस बात को मानने को तैयार नहीं था कि यह मनुष्य की भाषा में बोलने वाला उल्लू लक्ष्मी का वाहन हो सकता है? लक्ष्मी और विष्णु की गाथाएं मुझे हमेशा कपोल कल्पित लगते रहे हैं। लेकिन एक बार फिर मन डांवाडोल हुआ कि क्या पता सचमुच यह लक्ष्मी का वाहन हो और मेरी किस्मत बदलने वाली हो! मैंने साहस करके पूछा, ‘लक्ष्मी के प्रिय वाहन उल्लूकराज जी! यह बताइए कि मुझे आपके और आदरणीया मिसेज लक्ष्मी जी के लिए क्या करना होगा?’
‘कुछ नहीं...बस मेरे लिए सिर्फ एक प्रतिशत और मालकिन के लिए पांच प्रतिशत अभी देना होगा। आज रात आपको यह रकम इस तरह लौटाई जाएगी कि आप करोड़पति भी हो जाएं और सरकार को दमड़ी भी न देनी पड़े।’ उल्लूकराज जी मुस्कुराए।
मैंने विनीत भाव से कहा, ‘लेकिन लक्ष्मी जी से कहिएगा कि वे जो कुछ भी दें, जरा व्हाइट मनी के रूप में दें। ब्लैक मनी अपने से पचती नहीं है। छोटा-मोटा व्यंग्यकार हूं न, सो अपना हाजमा जरा कमजोर है।’
उल्लूकराज जी मुस्कुराये, ‘तुम इसकी चिंता मत करो। इस बार मर्त्यलोक पर जिसे भी दरिद्रता हरण प्रोग्राम के तहत उपकृत किया जाएगा, उसकी सूची मर्त्यलोक के आयकर विभाग के कमिश्नर को पहले से ही दे दी जाएगी। सौ करोड़ का पैकेज इस बार सूबे के आयकर कमिश्नर को भी दिया जा रहा है। अब जल्दी से रकम ढीली करो। शाम हो रही है, सात बजे तक लक्ष्मी जी को फाइनल सूची भी देनी है।’
‘पर मेरे पास सिर्फ पैंतीस हजार रुपये हैं, वह भी पत्नी और बच्चों के लिए गहने, खिलौने, कपड़े और मिठाइयां खरीदने के लिए हैं।’ मैंने दांत निपोर दिये।उल्लूकराज भुनभुनाए, ‘पता नहीं किस भुक्खड़ से पाला पड़ गया है? अब तक जिसके सामने भी प्रस्ताव रखा है, उसने न केवल अपना हिस्सा अदा कर दिया, बल्कि दस-बीस हजार मुझे बख्शीश भी दी है। लाओ, अभी जितना है, बाकी अनुदान मिलने के बाद दे देना। लक्ष्मी जी का हिस्सा मैं अपने पास से दे दूंगा।’मैंने अपने जेब में पड़े पैंतीस हजार छह सौ रुपये में से छह सौ निकालने के बाद रकम पीपल के पेड़ के पास रख दी। उल्लूकराज ने पेड़ की डाल से उड़ान भरी और चोंच में रकम दबाकर अनंत आकाश में विलुप्त हो गये।
मैं खाली हाथ घर पहुंचा, तो सबने घेर लिया और सवालों की झड़ी लगा दी। मैंने मुस्कुराते हुए लक्ष्मीवाहन उल्लूकराज से मुलाकात और दरिद्रता हरण अनुदान मिलने की गाथा सुनाई, तो सब खुश हो गये। बेसब्री और चहलकदमी करते-करते रात आई। पूजा का समय हुआ, तो सजी-धजी घरैतिन और बच्चे अमीर होने की खुशी में चमक रहे थे। लेकिन यह क्या...? पूजा का समय निकल गया, लेकिन लक्ष्मी जी तो क्या...उल्लूकराज के भी दर्शन नहीं हुए। फिर तो पूरी रात गुजर गयी। न लक्ष्मी जी आईं और न उल्लूकराज। घरैतिन को लगता है कि मैं सारी रकम जुए में हार गया था और उन्हें कपोल-कल्पित कहानी सुनाकर बहलाने की कोशिश की थी। बच्चे भी अपनी मां के साथ हैं। पिछले चार दिन से मैं अपने ही घर में बेगानों की तरह रहकर उल्लूकराज का इंतजार कर रहा हूं। मैं अब भी निराश नहीं हूं। हो सकता है, इस बार लेट हो जाने से सूची में नाम न पड़ पाया हो और अगले साल मेरी किस्मत बदल ही जाए।

Tuesday, August 31, 2010

गधों का कायांतरण

दिल्ली के संसद मार्ग पर गधों का सम्मेलन हो रहा था। एक स्वामी टाइप के बुजुर्ग गधे गर्दभानंद को सम्मेलन का सभापति बनाया गया था। सभापति के आसन ग्रहण करते ही सभी गधों ने ‘ढेंचू-ढेंचू’ की आवाज से उनका स्वागत किया। एक युवा गधे ने सम्मेलन का संचालन करते हुए कहा, ‘मित्रों, आज दिल्ली में आप सभी गधों का स्वागत करते हुए मुझे अपार प्रसन्नता हो रही है। पहले आपको यह बता दें कि यह सम्मेलन बुलाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? आप जानते हैं कि सदियों से हम गधों के आश्रयदाता धोबी रहे हैं। उनके रहते हमें कभी भोजन की समस्या नहीं रही। वे हमें खिलाते थे और जमकर काम लेते थे। इससे हमें उज्र भी नहीं था। लेकिन अब जब उनके लिए हम अनुपयोगी हो गये हैं, तो हमारे सामने भोजन की समस्या आ खड़ी हुई है। इसलिए इंसानों की परंपरा के विपरीत मैं सबसे पहले सभापति महोदय से अनुरोध करता हूं कि वे विषय प्रवर्तन के लिए आगे आयें।’ इतना कहकर युवा गधा एक तरफ खड़ा हो गया।
सभापति स्वामी गर्दभानंद ने आसन के सामने रखे हरे चारे को मुंह में भरा और चबाते हुए माइक के सामने आ खड़े हुए। बोले, ‘देश भर से आये प्यारे गर्दभ भाइयों! पिछले कई दिनों से हरे चारे को देखने को तरस गयी आंखों को आज कितना सुकून मिल रहा है, यह मैं आपको नहीं बता सकता। इस सम्मेलन के आयोजकों को सबसे पहले तो मैं धन्यवाद देना चाहता हूं कि उन्होंने पद और गरिमा के हिसाब से हम सभी गधों को हरा चारा उपलब्ध कराया। कितने अफसोस की बात है कि कभी सावन-भादों में जिधर नजर दौड़ाइए, आपको हरा ही हरा दिखता था। लेकिन आज हरियाली या तो कोठियों में कैद है या फिर घिरे हुए फार्म हाउसों में। बाकी तो हरियाली कहीं दिखती नहीं है।’
इतना कहकर सभापति महोदय सांस लेने के लिए रुके और बोले, ‘आज सुबह मैं दिल्ली की सड़कों पर घूम रहा था, तो पाया कि हमारे कई भाई कायांतरण कर इंसानी वेश धारण किये कारों में घूम रहे हैं। कोई कोट-पैंट पहने है, तो कोई धोती कुरते में है। कुछ कायांतरित गधे तो देश के राजनीतिक दलों में भी अपनी जगह बना चुके हैं। उनकी स्थिति देखने में मुझे काफी अच्छी लगी। कई तो केंद्र और राज्य सरकारों में सरकारी अफसर बने बैठे हैं। सरकार और जनता को चरे जा रहे हैं। इससे मुझे लगा कि इस देश में चारागाह की समस्या कतई नहीं है। बस थोड़ी सी अकल दौड़ाने की जरूरत है। अगर हम लोग पूरे देश को चारागाह समझ लें, तो फिर हमारे सामने चारे की समस्या कहां रहेगी। इसलिए सबसे पहला काम यह करें कि आप लोग अपना कायांतरण करें और इंसान का रूप धारण कर जहां मौका मिले, घुस जायें। संसद, विधानसभाओं, बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों में जब, जहां और जैसे भी मौका मिले, बड़े-बड़े पद हथियायें। अपने भाइयों को प्रमोट करें। खुद जी भर कर चरें और बाकी साथियों को भी चरने का मौका दें।’
सभापति महोदय के इतना कहते ही सारे गधे एक बार फिर ‘ढेंचू-ढेंचू’ कहकर चिल्लाए और लयात्मक ढंग से दुलत्ती झाड़ने लगे। सभापति ने उन्हें शांत रहने का इशारा करते हुए थोड़ी सी घास उठाई और चबाने लगे। खूब चबाकर खाने के बाद उन्होंने फिर कहना शुरू किया, ‘लेकिन भाइयों, आप लोगों को मैं अभी से आगाह कर दूं। कायांतरण के बाद आपमें कुछ इंसानी बुराइयां भी आ सकती हैं। जिस थाली में खाता है, इंसान उसी थाली में छेद करता है। उसके लिए बहन, बेटी, बीवी जैसे शब्द अब कोई मायने नहीं रखते। वह उनकी बेकद्री करता रहता है, हमें इंसानों की इसी प्रवृत्ति से बचकर रहना है। हम देश को चारागाह तो समझें, लेकिन उसे बेच खाने की कभी न सोचें।’ सभापति के इतना कहते ही सारे गधे ‘ढेंचू-ढेंचू’ कहकर लयात्मक ढंग से दुलत्तियां झाड़ने लगे। सभापति ने उन्हें शांत होने का इशारा किया, लेकिन उनकी दुलत्तियां जारी रहीं। नतीजा यह हुआ कि कई गधों को दिल्ली के अस्पतालों में भर्ती कराना पड़ा। वैसे उनका यह सम्मेलन आज भी जारी है। सम्मेलन के निष्कर्ष का इंतजार मुझे भी है और आपको भी होगा ही।

भगवन! बस एक बार सांसद बनवा दो

उस्ताद मुजरिम भगवान की प्रतिमा के आगे हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहे थे, ‘भगवन! बस एक बार कृपा कर दो। आगे से कभी आपसे कुछ नहीं मांगूंगा। अच्छा आप ही बताइए, आपसे अब तक कुछ मांगा है? लेकिन अब मांगता हूं। जब तक आप मेरी मनोकामना पूरी नहीं करते, तब तक मुन्नाभाई की तरह रोज सुबह आपके मंदिर में आकर गांधीगीरी करता रहूंगा। आखिर आप कब तक नहीं पसीजेंगे। आपको मेरी बात माननी ही पड़ेगी। वैसे तो आप जानते ही हैं कि अपने नाखूनों में फंसा ब्लेड और लोगों की जेब में पर्स सलामत रहे, तो फिर अपने को कुछ नहीं चाहिए। भगवन! अब आपसे क्या छिपाऊं। मुझे नाखूनों में फंसे ब्लेड पर इतना भरोसा है कि अगर कोई ठीकठाक दाम देने को तैयार हो जाए, तो आगरे का ताजमहल उड़ाकर बेच दूं और पकड़ा न जाऊं।’
इतना कहकर उस्ताद मुजरिम ने अगरबत्ती सुलगाई और मूर्ति के चारों ओर घुमाते हुए बोले, ‘भगवन! अब तक लोगों की पाकेट मार कर अपना गुजारा करता रहा। लेकिन आप तो जानते हैं कि इस पेशे में कोई दम नहीं रहा। जब से नेता और अफसर मिलकर लोगों की पाकेट मारने लगे, तब से अपना कोई स्कोप नहीं रह गया। अब लोगों की जेब से सौ दो सौ रुपये से ज्यादा निकलता भी नहीं है। ज्यादातर पर्स से निकलते हैं प्रेमपत्र, अश्लील फोटोग्राफ्स या फिर राशन की दुकान का बिल, दवाओं की पर्चियां। इससे इतनी कोफ्त होती है कि अब पाकेटमारी छोड़ने का जी करता है।’
अब तक आंखें मूंदे प्रार्थना कर रहे मुजरिम ने चारों ओर देखा और कानाफूसी वाले अंदाज में बुदबुदाये, ‘गुरु...बस किसी तरह मुझे इस बार सांसद बनवा दो। सांसद मैं भले ही दो-चार दिन ही रहूं, लेकिन अगर एक बार सांसद बन गया, तो फिर जिंदगी भर की मौज हो जायेगी। बिना कुछ किये ही तनख्वाह के रूप में इतनी मोटी-मोटी गड्डियां मिलेंगी कि पूछो न...सुना है कि सांसद अपनी तनख्वाह खुद ही बढ़ा सकता है। एक बार सांसद बन गया, तो सबसे पहले बराक ओबामा की सैलरी पता करूंगा और उनसे चार रुपये अपनी तनख्वाह ज्यादा रखूंगा। और अगर आपने किसी को इस बार सांसद बनाने का आश्वासन दे रखा हो, तो कोई बात नहीं। दिल्ली के किसी क्षेत्र से विधायक ही बनवा दो। सुना है कि दिल्ली के विधायकों की पांचों अंगुलियां घी में और सिर कढ़ाई में जाने वाला है। मैंने आपको सामने दोनों आप्शन रख दिये हैं। आप जो चाहें बनवा दें। आप तो जानते ही हैं। मुझमें नेताओं के सारे गुण हैं। झूठ बोलना, झांसे देना, बिना कुछ किये कमीशन खाना आदि गुणों में तो बचपन से ही पारंगत हूं।’
उस्ताद मुजरिम अनवरत बोले जा रहे थे। उनके हाथ की अगरबत्ती कब की जलकर खत्म हो गयी थी। केवल सींक हाथ में पकड़े गोल-गोल घुमाते जा रहे थे, ‘अगर इसके बदले आपको कुछ चाहिए, तो अभी से बता दें। बात साफ रहे, तो हमारी आपकी दोस्ती निभ भी सकती है। अगर आप सांसद बनवाने के बदले नकद चाहते हैं, तो सवा रुपये एडवांस रखे जा रहा हूं। बाकी सांसद बनकर जब लूटखसोट कर अपना घर भरूंगा, तो हिसाब चुकता कर दूंगा। एक बात और बता दें भगवन! आगे से आप कैश लेंगे या चेक से काम चल जायेगा। हां, अगर आप अपना हिस्सा गोल्ड या डायमंड के रूप में चाहेंगे, तो अपने पास उसका भी इंतजाम है। बस आपके इशारे की देर है। लगे हाथ आप यह भी बता दें कि आपको पैसा इंडिया में चाहिए या किसी और देश में। वैसे चिंता मत करें। अगर कहीं और आपको पैसा चाहिए, तो भी उसका इंतजाम हो जायेगा। कई हवाला कारोबारी अपने गिरोह में हैं।’ इतना कहकर उस्ताद मुजरिम ने पूजा खत्म की और बाहर आ गये।

म्युनिसपैल्टी का दफ्तर था उप्र हिंदी संस्थान


आगरा निवासी प्रख्यात कवि और उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के पूर्व उपाध्यक्ष सोम ठाकुर किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनकी रचनाएं कवि सम्मेलनों में बड़े सम्मान के साथ सुनी जाती हैं। सन 1997 में उनकी पुस्तक ‘एक ऋचा पाटल को’ को निराला पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। पेश है हिंदी की दशा और दिशा के साथ-साथ उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं पर अशोक मिश्र से हुई बातचीत के संपादित अंश।
एक पारंपरिक सवाल से बातचीत की शुरुआत की जाए। आपको अपनी सबसे प्रिय रचना कौन सी है?

-मैं भी वही पारंपरिक जवाब दे रहा हूं। एक पिता को अपनी कौन सी संतान सबसे प्रिय है, यह कह पाना सबसे कठिन है। लेकिन फिर भी इतना कहूंगा कि सन 55 में मेरा गीत ‘लौट आओ मांग के सिंदूर की सौगंध तुमको, नैन का सावन निमंत्रण दे रहा है’ और सन 57 में लिखा गीत ‘जाओ पर संध्या के संग लौट आना तुम, चांद की किरन निहारते न बीत जाये रात’ काफी सुने गए। लोग कवि सम्मेलनों में अक्सर इसे सुनाने को कहते थे। सन 1957 में दिल्ली के लाल किले में एक कवि सम्मेलन हुआ था। इसमें चालीस कवि थे। इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने किया था। इसमें हरिवंश राय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर जैसे कई ख्यातिप्राप्त कवि थे। इस कवि सम्मेलन में मुझे सिर्फ दो गीत सुनाने पड़े। बाकियों ने एक ही रचनाएं सुनार्इं। मैं युगधर्म से जुड़ी रचनाएं करता रहा। सन 62 में चीन का हमला हुआ, तो मैंने लिखा,‘धरती जागी आकाश जगा, जागे कुबेर कंगाल जगे।’ सन 65 में पाकिस्तान का हमला हुआ, तो मेरा गीत ‘सागर चरण पखारे गंगा शीश चढ़ावे सौ-सौ नमन करूं मैं भइया’ बहुत प्रसिद्ध हुआ। उन दिनों पारंपरिक गीतों के साथ नवगीत भी पढ़ता था।

आज जब संचार माध्यमों और सरकारी योजनाओं के जरिये हिंदी को इतना बढ़ावा दिया जा रहा है। उस पर भी क्या हिंदी साहित्य और भाषा की स्थिति संतोषजनक है?

-हिंदी की दशा-दिशा कतई संतोषजनक नहीं है। मैं तो तब मानूंगा, जब हिंदी भाषा किसी बेरोजगार को रोजी-रोटी मुहैया कराये। हिंदी भाषा के विकास का ढिंढोरा लाख पीटा जाये, लेकिन सब बेकार। अब आप कहेंगे कि कंप्यूटर आ जाने से हिंदी के प्रचार-प्रसार का मार्ग काफी सुगम हो गया है। लेकिन कंप्यूटर के उपयोग का माध्यम क्या है? अंग्रेजी न...और अंग्रेजी भाषा रोजगार दिलाती है, इसलिए इसका प्रचार प्रसार निरंतर हो रहा है। हिंदी भाषा को भी ऐसा ही होना होगा।

जब आप उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष थे, तो आपने हिंदी के विकास के लिए क्या किया? कौन-कौन सी योजनाएं चलार्इं? उनकी हिंदी भाषा या साहित्य के विकास में क्या भूमिका रही?

-जब मैंने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का कार्यभार संभाला, उससे पहले 50-50 हजार रुपये के पुरस्कार दिये जाते थे। मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह से कहकर उसकी रकम बढ़वाई। यश भारती पुरस्कार एक लाख रुपये का दिया जाता था। मैंने मुलायम सिंह से कहा कि एक लाख रुपये के पुरस्कार तो कई हैं। यश भारती पुरस्कार पांच लाख रुपये का होना चाहिए। और वही हुआ। हिंदी संस्थान की लाइब्रेरी को पब्लिक लाइब्रेरी बनाया। सबके लिए लाइब्रेरी के द्वार खोले। हिंदी संस्थान की इमारत काफी खस्ताहाल थी, 75 लाख रुपये खर्च करके उसकी दशा सुधारी। सोलह लाख रुपये खर्च करके लिफ्ट लगवाई। पहले हिंदी संस्थान म्युनिसपैल्टी का दफ्तर लगता था, मैंने उसे फाइव स्टार होटल जैसा बनाया। हिंदी भाषी प्रदेशों के साहित्यकारों को अहिंदी भाषी प्रदेशों में ले गया। वहां परिचर्चाएं, सेमिनार और गोष्ठियां करार्इं। गैर हिंदी भाषी प्रदेशों के रचनाकारों को हिंदी प्रदेशों में लाकर उनका हिंदी के रचनाकारों से परिचय कराया। गैर हिंदी भाषी प्रदेशों के लोग चाहते हैं कि हिंदीतर भाषी प्रदेश का रचनाकार कहा जाये। लेकिन अब हिंदी संस्थान में कुछ भी नहीं हो रहा है।

इमारतों को सुधारने या रचनाकारों की पुरस्कार राशि बढ़ा देने से हिंदी भाषा या साहित्य का क्या भला हुआ?

-क्यों...हिंदी भाषी रचनाकारों का अहिंदी भाषी प्रदेशों से परिचय कराने और दोनों तरह के प्रदेशों में कार्यक्रम कराने से हिंदी भाषा का विकास नहीं हुआ! और भी बहुत से काम मैंने अपने कार्यकाल में किये जिनसे हिंदी साहित्य का उन्नयन हुआ। सुना है कि उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में इन दिनों तो कुछ भी नहीं हो रहा है। हिंदी के विकास की कोई सार्थक पहल नहीं हो रही है।

अच्छा यह बताएं...मुलायम सिंह की सरकार ने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का उपाध्यक्ष आपको ही क्यों चुना? किसी और को क्यों नहीं?

-इसका जवाब तो वे ही बेहतर दे सकते हैं। मैं मुलायम सिंह या समाजवादी पार्टी के पास नहीं गया था। वे ही आये थे मुझे बुलाने।कुछ साहित्यकार मुलायम सिंह की सरकार के समय में कैबिनेट मंत्री का दर्जा पा गये। जैसे कि आप, गोपालदास नीरज...इससे साहित्य का कितना भला हुआ? सपा का ठप्पा लगने से आप कितना संतुष्ट हैं?-देखिये...सपा के शासनकाल में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का उपाध्यक्ष बनना ठप्पा लगवाने जैसा नहीं है। नीरज जी की सपा से नजदीकी का कारण उनका इटावावासी होना है। मुलायम सिंह और गोपालदास नीरज काफी पहले से एकदूसरे के निकट रहे हैं। इसका कोई राजनीतिक कारण नहीं रहा। उनका कोई कार्यक्रम लखनऊ में हो रहा है और मैं वहां मौजूद रहा, तो मुलायम सिंह जी ने मुझे मंच पर बुला लिया। इसका कोई राजनीतिक निहितार्थ नहीं तलाशा जाना चाहिए।

इससे आपको कोई नुकसान हुआ?

-हां...नुकसान हुआ। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का उपाध्यक्ष बनने से पहले मैं लखनऊ महोत्सव में बुलाया जाता था। जब तक उपाध्यक्ष रहा, बुलाया जाता रहा। लेकिन जब से मायावती की सरकार बनी है, लखनऊ महोत्सव वालों ने बुलाना बंद कर दिया है। उसके आयोजक बदल गये। उन्होंने मुझ जैसे कई साहित्यकारों को बुलाने की जरूरत नहीं समझी। यह नुकसान तो हुआ न...। वैसे मेरा मानना है कि राजनीतिक दलों से साहित्यकार को दूर ही रहना चाहिए। साहित्यकार तटस्थ रहकर जितना अच्छा लिख सकता है, उतना अच्छा किसी राजनीतिक दल से जुड़कर नहीं। इससे साहित्यकार का व्यक्तिगत नुकसान होता है।

आज कविता का बाजार से रिश्ता टूट चुका है। कहने का मतलब यह है कि आज प्रकाशक कविता छापने को तैयार नहीं हैं। इसके लिए आप दोषी किसे मानते हैं? प्रकाशक को, कवियों को या पाठकों को।

-सबसे बड़ा दोषी तो बाजार व्यवस्था है जिसने काव्य को भी वस्तु बना दिया। आज प्रकाशक कविता का बाजार देखते हैं। उनकी अपनी चयन समितियां हैं, इन समितियों के सदस्य तय करते हैं कि प्रकाशक को पुस्तक छापनी चाहिए या नहीं। स्वयं प्रकाशक तो काव्य की बारीकियों को समझता नहीं है। वह दूसरों पर निर्भर रहता है। समिति सदस्य बाजार को ध्यान में रखते हैं, ऐसे में वे कवियों की पुस्तकों का प्रकाशन क्यों करेंगे। जो किताबें छपती भी हैं, उनकी कीमत बहुत ज्यादा होती है। सामान्य पाठकों की पहुंच से बाहर। हमारे रचनाकार बंधु भी ऐसी स्थिति के लिए कम दोषी नहीं हैं। वे आम जन में काव्य का प्रसार करने की जगह मंचीय होना ज्यादा उपयुक्त समझते हैं। मंचीय कवि का मतलब है जनता द्वारा स्वीकृत कवि। लेकिन आजकल तो मंचीय कवि का तात्पर्य आयोजक द्वारा स्वीकृत कवि हो गया है।

मंचों पर आजकल या तो चुटकुलेबाजी की जा रही है, कविता के नाम पर फूहड़ तुकबंदी? क्या आप इससे अपना सामंजस्य बिठा पाते हैं?

-यह स्थिति काफी दुखद है। इससे कविता का भला नहीं होगा। इसके लिए कवि सम्मेलनों के आयोजक दोषी हैं। यह सही है कि इन दिनों मंचों पर या तो नारेबाजी होती है किसी सियासी दल के समर्थन में या फिर फूहड़ चुटकुलेबाजी। ऐसा करने वाले कवियों को आयोजक पसंद करते हैं क्योंकि उनकी दुकान ऐसे ही कार्यक्रमों से चलती है। आयोजक तो कवियों को पैसा ही इसी बात का देते हैं कि वे रंग जमा देंगे। आयोजकों के अपनी-अपनी पसंद के कवि हैं। पैसे ने कवियों का स्तर गिरा दिया है। पहले शैक्षणिक संस्थाओं द्वारा कार्यक्रम आयोजित किये जाते थे। स्कूल-कालेजों में नाटक, कविता, कहानी और सामाजिक मुद्दों पर कार्यक्रम होते थे, सेमिनार और बहस गोष्ठियां आयोजित की जाती थीं। छात्र यूनियनें इन कार्यक्रमों का नेतृत्व करती थीं। लेकिन चौधरी चरण सिंह ने अपने शासनकाल में यूनियनें क्या खत्म की, कार्यक्रम होने बंद हो गये। इसका नतीजा यह हुआ कि कार्यक्रम आयोजकों की बन आयी।

कवियों में अब बेहतर काव्य सृजन का दम भी तो नहीं दिखायी देता है? निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध जैसे कवियों का नितांत अभाव है।

-हां, यह बात सही है। निराला, मुक्तिबोध नहीं पैदा हो रहे हैं। लेकिन कुछ लोग अच्छा लिख रहे हैं। मैं पहले भी कह चुका हूं कि कविता तभी प्रसिद्ध होती है, जब वह उपयोगी होगी। अंग्रेजों की भाषा पहले फ्रेंच थी, लेकिन जब जॉन मिल्टन, विलियम शेक्सपियर जैसे महान कवियों ने अंग्रेजी में रचनाएं की, तो उन्हें भी अंग्रेजी अपनानी पड़ी। भाषा के उन्नयन के लिए साहित्य का श्रेष्ठ होना आवश्यक है। इन दिनों हंसाने वाली कविताएं ज्यादा लिखी जा रही हैं, लेकिन गंभीर साहित्य का अभाव हिंदी प्रेमियों को स्पष्ट दिखायी देता है। हां, गद्य में काम ज्यादा हुआ है। श्रीलाल शुक्ल, गोपाल चतुर्वेदी जैसे साहित्यकार बढ़िया काम कर रहे हैं।

इसका कारण क्या है?

-इसका कारण यह है कि लोग पढ़ना नहीं चाहते। हम लोगों ने जब इस क्षेत्र में कदम रखा था, तो हमारे बुजुर्ग बार-बार खूब पढ़ने को कहते थे। दूसरे कवियों की रचनाएं पढ़नी पड़ती थीं। उर्दू में तो एक परंपरा ही है कि वे अपने शार्गिद को सात-आठ सौ गजलें याद करा देते हैं, ताकि वे मुहावरों और कहावतों से परिचित हो जायें। वे भाषा का स्वरूप समझ लें। उर्दू में तो आज भी ‘इस्लाह’ और ‘सलाह’ के बिना मंचों पर उतरने की इजाजत नहीं मिलती। लेकिन पंडित हरिशंकर शर्मा अकसर कहा करते थे कि हमारे यहां तो ‘एक इंच काता और लेकर दौड़े जुलाहे के पास, कपड़ा बुन दो’ वाली स्थिति है। एक कविता क्या लिखी कि दौड़ लिए मंचों की ओर। यह स्थिति काफी दुखद है।


कृते गीत-स्वतंत्रता उवाच
मैं नहीं आयी यहां, बहकी हवाओं की तरह
पीढ़ियों के सर चढ़े बलिदान ले आये यहां।

जन्म तो मेरा हुआ संकल्प के ही वंश में
ये सहज संयोग है, मैं शक्ति के हाथों पली
खुशबुओं के घर बसाने थे, मुझे हर हाल में
दम-बदम मुझको खली है हर कली की बेकली
हो न हो स्वीकार तुमको, पर सचाई है यही
वे शहादत से जगे श्मशान ले आये मुझे।

पांव मेरे पड़ न पाये बंद गलियों में कभी
वास्ता कुछ भी नहीं मेरा उठी दीवार से
रास आ पाई न मुझको नफरतों वाली घुटन
मैं सदा फलती रही हूं प्यार की बौछार से
मजहबी कोहर न जिसकी राह पर छाया कभी

मंजिलों तक धूप के फरमान ले आये मुझे।

रह सकूंगी मैं न पलभर ध्वंस की चौपाल पर
कब सुहाया है मुझे ओछे समय का आचरण
लोग माने या न माने, शर्त मेरी है यही
कर सकेगा बस सृजन का पुत्र ही मेरा वरण
स्वार्थ की शैया बुलाती तो न मैं आती कभी
फांसियों पर झूलते अरमान ले आये मुझे।
कुछ कमी छोड़ी नहीं थी जाफरो-जयचंद ने
लोग थे, जो कारवां अपना नहीं रुकने दिया
वे निहत्थे ही लड़े हर बार अंधे जुल्म से
लाठियां खाते रहे, परचम नहीं झुकने दिया
देश आधा तन ढके आवाज देता था मुझे
वे अहिंसा सत्य के संधान ले आये मुझे।

बोल मत सिंहासनों से
बोल मत सिंहासनों से, वे अंधेरों से घिरे हैं
सूर्य का आकाश देगी सिर्फ मृगछाला तुझे

रोशनी के नाम कोई दिन न होगा
यह अनोखी त्रासदी है इस सदी की
ग्रंथ सारे दीमकों ने चाट डाले
अब न परिभाषा रही नेकी-बदी की
तू स्वयं में कुछ नहीं है, फैसला इस बात पर है-
किस तुला पर तौलता है तौलने वाला तुझे।

दीप होकर आंधियों के साथ रहना
इस सफर में आदमी की बेबसी है
भोर का संकल्प है संबल हमारा
जन्म से ही जिंजगी जिसमें कसी है
कंठ से स्वीकार ह ोगा जब गरल का आचमन तो-
धारनी होगी गले में शब्द की माला तुझे।

फूल तो चाहे अकेला ही खिला हो
पर चमन में शूल इकलौता नहीं है
जिंदगी तो है चुनौती पर चुनौती
मावसों से संधि समझौता नहीं
तू भले सात समंदर मुट्ठियों में बांध ले पर
चैन से रहने न देगी वक्त की ज्वाला तुझे।

Sunday, June 6, 2010

'टाईअप-ब्रेकअपÓ का खेल

मैं पार्क में पहुंचकर सीमेंट की बेंच पर बैठा ही था कि बगल में खाली स्थान पर एक चौदह वर्षीय लड़की आकर बैठ गयी। उसकी आंखें नम थीं। लगा कि वह कुछ देर पहले रो रही थी। मैं पार्क में जमा जोड़ों की अठखेलियां निहारने में मशगूल हो गया। पार्क की खूबसूरती बढ़ाने के लिए जगह-जगह झाडिय़ों को काट-छांटकर विभिन्न पशुओं की आकृतियां प्रदान की गयी थी। पार्क से कुछ दूर बैठा एक प्रेमी युगल आपस में चुहलबाजियां कर रहा था। तभी मेरा ध्यान उस लड़की की ओर गया। वह सुबक रही थी। मुझे लगा कि एक अच्छे नागरिक होने के नाते उससे उसका दुख-दर्द पता करके यदि संभव हो, तो दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। मैंने उससे सहानुभूतिपूर्वक पूछा, 'क्या हुआ...तुम रो क्यों रही हो? कोई परेशानी हो, तो बताओ। मैं दूर करने का प्रयास करूंगा।Óउसने अपने आंसू पोंछते हुए कहा, 'अंकल...आप मेरी परेशानी नहीं दूर कर सकते।Óमैंने भी हाकिमताई बनने का पूरा फैसला कर लिया था। सो मामले की पूंछ पकडऩे की कोशिश में लगा रहा, 'फिर तुम रो क्यों रही हो?Ó
'दरअसल...आज ही मेरा अपने ब्वायफ्रेेंड से ब्रेकअप हो हुआ है। उसकी याद आ रही थी, तो आंसू नहीं रोक पायी।Ó कहकर लड़की सामने बैठे प्रेमी युगल को निहारने लगी।मैं चौंक उठा। उसे एक बार गौर से निहारा। सोचा, बाप रे बाप...छंटाक भर की इस छोकरी को मुझ अपरिचित से अपने ब्वायफ्रेेंड के बारे में चर्चा करने में झिझक नहीं हुई। मुझे अपना जमाना याद आया, जब आशिक दीदार-ए-यार के लिए घंटों माशूका के घर के चक्कर लगाया करते थे। 'जान-ए-जिगरÓ की एक झलक देखने को आशिक जेठ की दोपहरी में घंटों छत पर बैठे टकटकी लगाये रहते थे और दूर से ही दीदार हो जाने पर इस तरह खुश होते थे मानो कारू का खजाना मिल गया हो। दीदार को घंटों छत पर खड़े रहने से आंखें बटन हो जाती थीं। माशूका के भाई, बहन या मां-बाप, अड़ोसी-पड़ोसी को तो छोडि़ए, अपने ही भाई-बहन या अड़ोसी-पड़ोसी के देख लेने पर पिटने का खतरा था। कई बार तो 'वन वे ट्रैफिकÓ होने पर माशूका के हाथों पिटने की नौबत तक आ जाती थी, लेकिन मजनूं इसे भी लैला की एक अदा मानकर जी-जान न्यौछावर करने को तैयार रहते थे।
मामले की संवेदनशीलता जानते-बूझते हुए भी मैंने टांग अड़ा दी। हालांकि कई बार तो ऐसे मामले में टांग के शहीद होने का खतरा ज्यादा रहता है, 'तुम्हें इस उम्र में इन फालतू बातों पर ध्यान देने की बजाय पढ़ाई करनी चाहिए। यह कोई उम्र है इश्क फरमाने की।Óलड़की मेरी बेवकूफी पर हंस पड़ी। बोली, 'अंकल...यह गाना तो आपके ही जमाने में गया था...यार बिना चैन कहां रे...इश्क की कोई उम्र नहीं होती...जब हो जाये, समझो...वही उम्र सही है।Ó
'तुम्हारा उससे यह निगोड़ा इश्क कब से चल रहा था?Ó मैंने दरियाफ्त करने की नीयत से पूछा।
लड़की मानो अतीत में खो गयी। उसने कहा, 'यह मेरा सातवां ब्वायफ्रेेंड था। चार महीने पहले वह मेरा ब्वायफ्रेेंड बना था। उससे पहले नीलेश सपना का ब्वायफ्रेेंड था। सपना मेरे से दो क्लास आगे यानी कि दसवीं में पढ़ती है। सपना का नीलेश छठा ब्वायफ्रेेंड था और सपना नीलेश की नौवीं गर्लफ्रेेंड थी। अंकल...आप ऊंट की आकृति वाली झाड़ी के पास स्थित बेंच पर बैठे उन दोनों लड़के-लड़की को देख रहे हैं...वह लड़का मेरा एक्स ब्वायफ्रेेंड नीलेश है। उसके साथ मनोरमा है...जो मेरी सहेली की बहन है। कल ही मनोरमा और नीलेश का 'टाईअपÓ हुआ है।Ó इतना कहकर लड़की चुप हो गयी। उसकी आंखें नम हो गयीं।
'और नीलेश का नंबर कितना था?Ó मेरी उत्सुकता ने यह सवाल करने को मजबूर कर दिया। हालांकि इस मामले में मैं एहसास-ए-कमतरी (माइनॉरिटी कांप्लेक्स) के बोझ से दबा जा रहा था। मुझे अपने जवानी के वे दिन याद आ गये, जब छबीली से आंखें चार होने के बावजूद उसके सामने इजहार-ए-इश्क की हिम्मत नहींजुटा पाया। नतीजतन...घर परिवारवालों ने जिसके पल्ले बांध दिया, अब तक बिना चूं-चपड़ किये उसी के इर्द-गिर्द कोल्हू के बैल की तरह आंखों पर पट्टी बांधे घूम रहा हूं। रोज सुबह उठकर बेगम अपनी किस्मत को कोसती हैं और मैं अपनी गल्ती पर पछताता हूं कि काश! मैंने थोड़ी सी हिम्मत दिखायी होती...? ऐसे में लड़कपन से ही आंखें लड़ाने वाली इस बित्ता भर की छोकरी के हिम्मत की दाद दिये बिना मैं नहीं रह सका।
वह कुछ देर सोचने के बाद बोली, 'नीलेश शायद सातवां था...अगर प्रदीप को भी ब्वायफ्रेेंड में गिना जाये, तो आठवां...प्रदीप से मेरा अफेयर सिर्फ एक सप्ताह चला था। उसके बाद वह शालिनी के चक्कर में फंस गया और मेरी उसकी बात खत्म हो गयी थी।Óमैंने फिर सवालों का गोला दागा, 'तुम्हारा पहला अफेयर...मेरा मतलब है कि तुम्हारा पहला टाईअप कब और किससे हुआ था?Ó
'मैं पांचवींक्लास में मेरा पहला अफेयर क्रिस्टीना के कजन डेविड से हुआ था। क्रिस्टीना मेरी क्लासफेलो थी। अब वह हैदराबाद में पढ़ती है। छह महीने तक यह अफेयर चला था। इसके बाद परमजीत अच्छा लगने लगा। परमजीत ने मेरे लिए किरणजोत को छोड़ दिया।Ó'क्या तुम्हें नहीं लगता कि इस उम्र में तुम्हें यह सब कुछ नहीं करना चाहिए? अभी तुम्हारी पढऩे-लिखने की उम्र है, मन लगाकर पढ़ाई करो...अपना भविष्य सुधारो। पढ़-लिखकर कुछ बन जाओ...तब यह सब करना।Ó मैंने अपना धर्म निभाया और उसे उपदेश की घुट्टी पिलाई।
'अंकल...क्या आपको नहीं लगता कि कैरियर बनते-बनते मैं बूढ़ी हो जाऊंगी। 28-29 साल की उम्र कैरियर बनाने में निकल जायेंगे। हो सकता है कि उससे पहले ही मम्मी-डैडी किसी बेवकूफ के साथ बांध दें, तब अफेयर करने का मौका कहां मिलेगा। न...बाबा..न...मैं यह रिस्क नहीं ले सकती। जितने दिन मौज-मस्ती की जा सकती है, उतने दिन खूब जमकर करूंगी। उसके बाद तो कोल्हू का बैल बनना ही है।Ó लड़की काफी समझदार हो गयी थी।
'तुम्हारे मम्मी-डैडी को तुम्हारी इस 'करतूतÓ का पता है?Ó मैं सवाल पूछे बिना नहीं रह पाया।
'हां...नीलेश के बारे में मम्मी को पता है। उन्होंने डांट भी लगायी थी। लेकिन जब मेरी क्लास की सारी सहेलियां अपने ब्वायफ्रेेंड के बारे में चर्चा करती हैं, तो मुझसे रहा नहीं जाता और किसी न किसी से अफेयर कर बैठती हूं। आपको पता नहीं होगा, मेरे मम्मी-डैडी ने लव मैरिज की थी। मेरे डैडी मम्मी के आठवें ब्वायफ्रेेंड थे और मेरे डैडी की ग्यारहवींप्रेमिका मम्मी थीं। लेकिन उनकी लव मैरिज सिर्फ तीन साल चली, बाद में दोनों ने डाइवोर्स ले लिया।Ó लड़की के चेहरे पर न चाहते हुए भी दर्द उभर आया। लेकिन यह दर्द ज्यादा देर तक नहीं टिक सका।
मैंने पूछा, 'अब आगे क्या इरादा है?Ó
लड़की ने चुहुल भरे अंदाज में कहा, 'सोचती हूं...अब आपको अपना ब्वायफ्रेेंड बना लूं। आप दूसरों के मुकाबले कहीं अच्छे साबित हो सकते हैं।Ó
उसकी बात सुनते ही मुझे झटका लगा। बेगम का रौद्र रूप याद आया और मैं झटके से उठ खड़ा हुआ, 'मुझे काफी देर हो गयी है बैठे-बैठे। चलता हूं घर पर बेगम इंतजार कर रही होंगी।Ó इतना सुनते ही लड़की खिलखिलाकर हंस पड़ी। मैंने जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाये और पार्क से बाहर हो गया। पार्क के बाहर निकलते-निकलते पीछे मुड़कर देखा। लड़की काफी देर से पीछे बैठे एक लड़के का हाथ पकड़े उसकी बाइक की ओर बढ़ रही थी। उसके चेहरे पर 'ब्रेकअपÓ का दर्द नहीं, बल्कि नए 'टाईअपÓ की खुशी थी।

कंपनियों का मुनाफा और हमारा विनाश


मुनाफा कमाने की होड़ में लगी राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुनाफा कमाने की होड़ के चलते हमारे देश की ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की जैव विविधता खतरे में है। कई वनस्पतियां हमारे बीच से विलुप्त हो चुकी हैं। चिडिय़ा गौरेया, फाख्ता, गिद्ध, कौवे, गंगा में पायी जाने वाली डाल्फिन सहित कई प्रजाति की मछलियां, मेंढक, सांप आदि कल तक हम सबके जीवन का हिस्सा थे, लेकिन आज वे खोजने पर भी नहीं मिलते। नील गाय, मोर, गीदड़, सियार, रोही बिल्ली, पाटा गोह, उडऩे वाली गिलहरी, खनखजूरा, विभिन्न प्रकार के मेंढक अब विलुप्त होने की कगार पर हैं। इसका कारण जैव विविधता वाले क्षेत्र यानी प्रकृति में पाये जाने वाले सूक्ष्मतम और विशालतम जीव जंतुओं के जीवन चक्र क्षेत्र में लगातार और अनियंत्रित रूप से बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप है। नदियों और समुद्रों में पाये जाने वाले जीव जंतु बड़े पैमाने पर शिकार और अनुकूल परिस्थितियां न रहने के कारण विनष्ट होते गये। खेती-बाड़ी में उपयोग होने वाले रासायनिक उवर्रकों के चलते प्रकृति के मित्र समझे जाने वाले कीट-पतंग या तो नष्ट हो गये या फिर उनकी प्रजननक्षमता कम हो गयी। नतीजा यह हुआ कि वे धीरे-धीरे हमारे बीच से विलुप्त हो गये, जब तक हमें पता लगता, मामला काफी गंभीर हो चुका था। मोबाइल टावरों, हवाई जहाजों से निकलने वाली तरंगों ने हमारी जैव विविधता को कम नुकसान नहीं पहुंचाया।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पशु-पक्षियों के संरक्षण को लेकर सक्रिय संस्था आईयूसीएन (इंटरनेशनल यूनियन कंजरवेशन फार नेचर) की रिपोर्ट चौंकाती ही नहीं, प्रकृति प्रेमियों और पर्यावरणविदें को डराती भी है। आईयूसीएन की रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में पाए जाने वाले जीवों में से एक तिहाई विलुप्त होने के कगार पर हैं। यह खतरा हर दिन बीतने के साथ बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट में किहांसी स्प्रे टोड के बारे में खास तौर पर चर्चा की गयी है जिसके मुताबिक मेंढक की यह प्रजाति इसलिए विलुप्त हो गयी क्योंकि जिस नदी में इनका निवास था, उस नदी के ऊपरी हिस्से पर बांध बना दिया गया। पानी के बहाव में कमी आने से ये मेंढक खत्म हो गये। ठीक ऐसा ही हमारे देश में भी हुआ। गंगा, यमुना, राप्ती और व्यास आदि नदियों और उसके किनारे रहने वाले जीव जंतु पानी कम होने की वजह से या तो नष्ट हो गये या भविष्य में नष्ट हो जायेंगे।
आईयूसीएन के रिपोर्ट के मुताबिक महासागरों की हालात काफी चिंताजनक है। रिपोर्ट से पता चलता है कि समुद्री प्रजातियों में से ज्यादातर जीव-जंतु अधिक मछली पकडऩे, जलवायु परिवर्तन, तटीय विकास और प्रदूषण की वजह से नुकसान का सामना कर रहे हैं. शार्क सहित कई समुद्री प्रजाति के जलीय जीव, छह-सात समुद्री प्रजातियों के कछुए विलुप्त होने के कगार पर हैं। चट्टान मूंगों की 845 प्रजातियों में से 27 प्रतिशत विलुप्त हो चुकी हैं, 20 प्रतिशत विलुप्त के निकट हैं। समुद्री पक्षियों पर खतरा कुछ अधिक है। स्थलीय पक्षियों के 11.8 प्रतिशत की तुलना में 27.5 प्रतिशत समुद्री पक्षियों पर विलुप्त होने के खतरा अधिक है। थार की पाटा गोह हो या फोग का पौधा, गंगा की डाल्फिन हो, हिमालय के ग्लेशियर हों या तंजानिया का का किहांसी स्प्रे मेंढक, सब पर खतरा मंडरा रहा है। भारत में 687 पौधे और इतने ही जीवों पर संकट के बादल गहराते जा रहे हैं।
आईयूसीएन की रेड लिस्ट बताती है कि 47,677 में से कुल 17,291 जीव प्रजातियां कब खत्म हो जायें, कहा नहीं जा सकता है। इसमें 22 प्रतिशत स्तनधारी जीव हैं, 30 प्रतिशत मेंढकों की प्रजातियां हैं, इसमें 70 प्रतिशत पौधे और 35 प्रतिशत सरीसृप जैसे जीव हैं। भारत में ही पौधे और वन्य जीवों की कुल 687 प्रजातियां लुप्त होने वाली हैं। इनमें 96 स्तनपायी, 67 पक्षी, 25 सरीसृप, 64 मछली और 217 पौधों की प्रजातियां हैं।
इन प्रजातियों पर सबसे बड़ा खतरा मुनाफा कमाने की होड़ में लगी देशी और विदेशी कंपनियों से है। जैव विविधता पर सबसे ज्यादा हमला करने वाली कंपनियां अमेरिका, रूस, चीन जैसी विकसित देशों की हैं। यही वजह है कि ये विकसित देश दुनिया भर के विकासशील देशों और उनमें बसे लोगों को आगाह कर रहे हैं कि जैव विविधता और ग्लोबल वार्मिंग के चलते इससे पृथ्वी पर एक भीषण खतरा मंडरा रहा है। बेमौसम बरसात, आंधी-पानी, बर्फबारी, भूकंप और ज्वालामुखी का सक्रिय होना, ग्लोबल वार्मिंग का ही नतीजा है। जैव विविधता पर बढ़ते संकट के चलते दुनिया भर में समुद्र, नदियों, पहाड़ों और मैदानों में रहने वाले हजारों जीवों का संकट खतरे में हैं। जीव-जंतुओं की हजारों प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं, हजारों विलुप्त होने के कगार पर हैं। यह बात भी सही है। मजेदार बात तो यह है कि इस बात को चीख वही लोग कह रहे हैं, जो जैव विविधता पर लगातार बढ़ रहे खतरे और ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा दोषी हैं। विकसित देश दुनियाभर में स्थापित अपनी कंपनियों के माध्यम से न तो जैव विविधता के दोहन पर रोक लगाने को और न ही ग्लोबल वार्मिंग के प्रमुख कारण कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन को कम करने को तैयार हैं। वे विकासशील देशों को प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम करने और कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन घटाने की घुड़की देते रहते हैं।
भारत में सरकार की लापरवाही और लोगों की अनभिज्ञता के चलते जैव विविधता पर खतरा कुछ ज्यादा ही मंडरा रहा है। सरकार के ढुलमुल रवैया का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि भारत के दक्षिण पूर्व में स्थित मन्नार की खाड़ी से करोड़ों रुपये का समुद्री शैवाल निर्यात करने वाली कंपनी पेप्सी राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण के दबाव के चलते रायल्टी दे भी तो सिर्फ 38 लाख रुपये। अभी पिछले महीने पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने एक कार्यक्रम में बड़े गर्व से कहा था कि पेप्सी से हुए करार के तहत समुद्री शैवाल के निर्यात के लिए उससे 38 लाख रुपये की रायल्टी हासिल की गयी है। इस राशि को उस स्थानीय समुदाय के बीच वितरित किया जायेगा, जहां से पेप्सी कंपनी समुद्री शैवाल का निर्यात करती है। करोड़ों रुपये का सालाना कारोबार करने वाली कंपनी से सिर्फ 38 लाख रुपये की रायल्टी वसूल लेना वाकई काबिलेतारीफ है। पेप्सी जैसी विभिन्न कंपनियां जिस समुद्री शैवाल का सिंगापुर, मलेशिया और अन्य देशों में निर्यात करती हैं, उस शैवाल को भारत के दक्षिण पूर्व में स्थित मन्नार की खाड़ी से निकाला जाता है। मन्नार की खाड़ी के आसपास रहने वालों के बीच जब यह रायल्टी (38 लाख रुपये) वितरित किये जायेंगे, तो स्थानीय समुदाय के लोगों को कितनी रकम प्राप्त होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। इससे इनका कितना भला हो पायेगा, यह भी विचारणीय प्रश्न है।
अब दुनिया के 193 देशों के प्रतिनिधि आगामी अक्टूबर 2010 में जापान के नागोया शहर में जैव विविधता पर अंतरराष्ट्रीय संधि करने जा रहे हैं। इससे पहले विभिन्न मुद्दों पर आम सहमति बनाने को जुलाई 2010 में कनाडा के मांट्रियाल में एक बैठक होगी। इन दोनों बैठकों में जो भी फैसले होंगे, उसके आधार पर नई दिल्ली में सन 2012 के अक्टूबर महीने में होने वाली कॉप-11 (कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज) की 11वीं बैठक में जैव विविधता पर अंतरराष्ट्रीय संधि होगी जिसका पालन करने को सभी वार्ताकार बाध्य होंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि दिल्ली में होने वाली कॉप-11 की बैठक का नतीजा वही तो नहीं होगा जो अभी कुछ महीने पहले ग्लोबल वार्मिंग को लेकर कोपेनहेगन में होने वाली बैठक का हुआ था। अपने-अपने हितों की सुरक्षा को लेकर अड़े विकसित देशों के अडिय़ल रवैये के चलते कोपेनहेगन में होने वाली यह बैठक सफल नहीं हो पायी थी।

चिरकुट

'नहीं...मैं जो कह रहा हूं। उसे समझो। मुझे कभी 'क्रासÓ करने की कोशिश सपने में भी मत करना।Ó राजेंद्र को विनम्र होते देख दुर्गेश के क्रोध का पारा चढऩे लगा था।
शिवाकांत अपनी सीट पर बैठा यह कौतुक देख सुन रहा था। उसे राजेंद्र से सहानुभूति हो रही थी। अभी कुछ ही देर पहले वह समाचार संपादक तिवारी के सामने लगभग ऐसी ही परिस्थितियों से जूझ रहा था। इस वजह से राजेंद्र के प्रति सहानुभूति मानव स्वभाव के अनुरूप थी। वह अपनी सीट से उठा और दुर्गेश के सामने आ खड़ा हुआ। उसने बिना पूछे सामने पड़ी एक कुर्सी घसीटी और विराजमान हो गया। डा. दुर्गेश ने उसकी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा। उसने डा. दुर्गेश से कहा, 'क्या डा. साहब! अब जाने भी दीजिए...कहां आप...? लखनऊ की पत्रकारिता जगत के वटवृक्ष और कहां प्रशिक्षु संवाददाता राजेंद्र...जर्नलिज्म के क्षेत्र में नवांकुर... यह आपको क्या क्रास करेगा।...और फिर जब आपका बड़े-बड़े बाल बांका नहीं कर सके, तो फिर यह बेचारा प्रशिक्षु संवाददाता आपका क्या 'उखाड़Ó लेगा।Ó
शिवाकांत ने मजाक करते हुए कहा। वह राजेंद्र की ओर घूमा, 'जाओ यार! खबरें लिखो। सुप्रतिम आता ही होगा।...खबरें न मिलने पर वह भी 'झांय-झांयÓ करेगा।Ó शिवाकांत ने 'झांय-झांयÓ शब्द पर जोर दिया।
शिवाकांत के बीच में पडऩे से राजेंद्र ने मुक्ति की सांस ली। शिवाकांत की इसी आदत से कुछ वरिष्ठ नाराज रहते थे। जब भी कोई वरिष्ठ अपने किसी कनिष्ठ साथी को 'कसनेÓ की कोशिश करता, वह बीच में पड़कर कनिष्ठ साथी को बचा लेता। इससे वरिष्ठ सहकर्मी आहत हो जाते। उन्हें लगता कि कनिष्ठ के सामने उसे औकात बताने की कोशिश की जा रही है। शिवाकांत का मामले के बीच कूद पडऩा, उन्हें आहत कर जाता। कई बार तो साथियों से झगड़ा होते-होते बचता। उसके दूसरे साथी कभी संकेतों ेसे, तो कभी खुलकर समझाते, लेकिन वह इस मामले में चिकना घड़ा घड़ा साबित होता। कई बार वह मूड ठीक होने पर स्वीकार भी करता कि उसका लोगों के मामले में टांग अड़ाना अनुशासन की दृष्टि से गलत है। लेकिन जैसे ही कोई मामला उसके सामने आता, एक अजीब सी सनक उस पर सवार हो जाती। वह अपनी उस बात को भूल जाता और वरिष्ठ साथियों से पहले की तरह भिड़ जाता। उसके शुभचिंतक समझाते, 'देखो! अपने से कनिष्ठ साथियों के सख्ती से पेश आना, उन्हें थोड़ा बहुत प्रताडि़त करना, उत्पीडऩ नहीं है। यह अनुशासन बनाये रखने को जरूरी है। यह सब तो पत्रकारिता के निजाम का एक हिस्सा है। ऐसा होता आया है, भविष्य में भी इस पर रोक लगने की संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आती। और फिर यह मानवाधिकारों के हनन का भी कोई मामला नहीं है जिसके पीछे तुम लट्ठ लेकर घूमो। तो फिर तुम बेवजह सिरदर्द क्यों मोल लेते हो।Ó
शिवाकांत उखड़ जाता, 'निजाम का हिस्सा नहीं 'येÓ है।Ó वह एक अंग विशेष का नाम लेकर अपना गुस्से का इजहार करता।
दुर्गेश पांडेय ने राजेंद्र को अपनी सीट पर जाने का इशारा किया, तो वह कारागार से छूटे बंदी की तरह भाग निकला। डा. दुर्गेश ने चारों ओर निगाह दौड़ायी और फिर आगे की ओर झुकते हुए मंद स्वर में बोले, 'तुम बड़े मौके पर आये शिवाकांत.... बेवजह अपने कनिष्ठ साथियों को डांटने-डपटने की अपनी आदत तो है नहीं, यह तो तुम जानते ही हो। लेकिन क्या करें, यह सब करना पड़ता है। कभी अपना हित साधने के लिए, तो कभी संपादक, डेस्क इंचार्ज या मालिक के कहने पर। शायद तुम्हें मालूम हो, इन दिनों राजेंद्र से सुप्रतिम अवस्थी किसी बात पर नाराज है। सुबह की मीटिंग में मामूली-सी गलती पर सुप्रतिम एक घंटे तक राजेंद्र को हौंकता रहा। बाद में मुझसे भी कहा कि मैं भी उसे बात-बेबात पर हौंकता रहूं।Ó
शिवाकांत मन ही मन मुस्कुराया। उसने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया। कुछ देर बाद उसने पूछ ही लिया, 'पर गुरु...हौंकने का कोई कारण तो होगा। कोई भला बेवजह किसी को क्यों हौंकेगा?Ó
'कारण...कारण तो बस एक ही है और वह है 'डग्गा।Ó परसों एक टेक्सटाइल मिलवालों की ने एक प्रेस कान्फ्रेेंस बुलाई थी...ताज होटल में। आदित्य सोनकर की गैरमौजूदगी में यह बीट राजेंद्र देखता है। आदित्य उस दिन छुट्टी पर था। सुप्रतिम उस कान्फ्रेेंस में पीयूष को भेजना चाहता था, लेकिन राजेंद्र अड़ गया,'मेरी बीट है...मैं ही जाऊंगा, वरना इस बीट की कोई खबर कवर नहीं करूंगा।Ó मजबूरन सुप्रतिम को राजेंद्र की बात माननी पड़ी। तभी से सुप्रतिम राजेंद्र से खार खाया हुआ है।Ó
'लेकिन इसमें डग्गा कहां से आ गया?Ó
'इसमें डग्गा ही तो आया..Ó दुर्गेश ने मेज पर पड़ी पिन उठाकर दांत खुरचते हुए कहा, 'मिलवालों ने डग्गे में अच्छी क्वालिटी की एक लोई और सूटपीस दिया था। पीयूष कान्फ्रेेंस में जाता, तो फोटो के साथ खबर लगवाने का आश्वासन देकर दो-दो अदद डग्गे ले आता। एक अपने लिए...दूसरा सुप्रतिम के लिए...। लेकिन राजेंद्र यह डग्गा खुद हजम कर गया और डकार भी नहीं ली। आदित्य सोनकर का मामला सुप्रतिम और प्रदीप तिवारी से सेट है। डग्गा मिलने पर वह सुप्रतिम को बता देता है। पंद्रह दिन बाद तीनों मिलकर सारे 'डग्गेÓ आपस में बांट लेते हैं। लेकिन गड़बड़ उसी दिन होती है, जिस दिन यह बीट राजेंद्र के पास होती है। राजेंद्र डग्गे में हिस्सा देने को तैयार नहींहोता। मैंने कई बार संकेतों से समझाया भी कि कौन सी तुम्हारे बाप की कमाई से डग्गा आता है। दे दिया करो उसमें से हिस्सा..लेकिन वह माने तब न! राजेंद्र लालची भी तो बहुत है।Ó

Saturday, May 22, 2010

चिरकुट

अप्रैल के पहले हफ्ते में ही काफी गर्मी पडऩे लगी थी। सुबह से ही चलने वाली गर्म हवाएं पशु-पक्षियों और इंसानों को व्याकुल कर रही थीं। ग्यारह बजते-बजते सड़के जन शून्य हो जाती थीं। लोग मजबूरी में ही दोपहर को घर से निकलते थे। सुबह से ही कई कार्यक्रम निबटाने के बाद शिवाकांत दैनिक प्रहरी के दफ्तर पहुंचा, तो हांफ रहा था। स्कूटर स्टैंड पर खड़ा करने के बाद वह पहली मंजिल पर स्थित दफ्तर में पहुंचा, तो उसे राहत महसूस हुई। उसने अपनी कुर्सी पंखे के नीचे खिसकाई और कमीज के ऊपरी दो बटन खोलकर पसीना सुखाने लगा। थोड़ी देर बाद उसने कमरे में निगाह दौड़ायी। कोने में बैठी मंजरी उसकी ओर देखकर मुस्कुरा रही थी। उसे अपनी ओर देखता पाकर उसने झट से अपनी कमीज के बटन बंदकर लिये। उसे अपनी ओर देखता पाकर उसमें खीझ पैदा हुई-'साली रंड़ी! आफिस में ऐसे सजकर आई है जैसे स्वयंवर रचाने आई हो।Ó
उसने मेज पर रखा पानी का गिलास उठाया और गटागट पी लिया। उस पर भी प्यास नहीं बुझी, तो उसने कोने में रखे जग से लेकर तीन गिलास पानी और पिया। उसने सोचा कि शीघ्रता से खबरें लिख ले, तो उसे अपनी स्पेशल स्टोरी पर काम करने का मौका मिल जायेगा। यही सोचकर शिवाकांत अपनी सीट पर आकर बैठा ही था कि चपरासी रामशरण ने आकर कहा, 'तिवारी जी आपको दो एक दफा पूछ चुके हैं। आप उनसे मिल लीजिए।Ó
शिवाकांत ने सरसरी निगाह रामशरण पर डालते हुए कहा, 'तुम चलो, मैं आता हूं।Ó'ठीक हैÓ कहकर रामशरण आगे बढ़ गया। शिवाकांत मेज पर रखी कलम को कमीज की जेब में खोंसते हुए बुदबुदाया, 'साले! काम ही नहीं करने देते। बाद में हौंकेेंगे....तुमने खबर इतनी देर से क्यों दी? तुम्हारे कारण अखबार देर से छूटा। समय-असमय बुलाकर अपने पास बिठाकर दरबार सजाओगे, तो कोई खबर समय पर क्या खाक लिखेगा। साला...दल्ला!Ó
शिवाकांत मरी सी चाल चलता हुआ समाचार संपादक प्रदीप तिवारी के चेंबर में पहुंचा। उसे आता देखकर तिवारी जी व्यस्त हो गये। यह उनकी पुरानी आदत थी। जब उन्हें अपना महत्व और किसी व्यक्ति की उपेक्षा करनी होती थी, तो वे उस व्यक्ति को बुलाकर सामने बिठा लेते और काफी देर तक व्यस्त होने का बहाना करते। सामने बैठा व्यक्ति ऊबकर कुछ पूछता, तो वे आंऽऽऽ...कहकर या तो फिर चुप्पी साध लेते या कह देते, 'बस थोड़ी देर रुको। अभी तुमसे बात करता हूं।Ó उन्होंने शिवाकांत को बैठने का इशारा किया और मेज पर रखा पुराना अखबार उठाकर पढऩे लगे। शिवाकांत कुछ देर तक उन्हें पढ़ता हुआ देखता रहा। फिर उसने पूछ लिया, 'भाई साहब! आप मुझे पूछ रहे थे?Ó
आंऽऽऽ....हांऽऽ.. कहकर तिवारी जी ने चौंकने का अभिनय किया। अखबार को मोड़कर एक तरफ रखते हुए उन्होंने शिवाकांत से पूछा, 'तो तुम कब जा रहे हो?Ó
'कहां जा रहा हूं....?Ó
'अरे वहीं....।Ó
'वहींकहां?Ó शिवाकांत ने प्रतिप्रश्न किया।
'वहींजहां तुम जा रहे हो?Ó
'मेरी तो समझ में नहींआ रहा है कि मैं कहां जा रहा हूं? अभी तो मैं कल ही सात दिन की छुट्टी के बाद लौटा हूं। अब मैं कहां जा रहा हूं, यह आप ही बता दें, भाई साहब!Ó, शिवाकांत खीझ उठा।
'सात दिन बाद लौटे हो, तभी तो पूछ रहा हूं कि कहां जा रहे हो?Ó, तिवारी जी अब भी खुलकर खेलने के मूड में नहीं थे। वे सोच रहे थे कि बिना कोई चाल चले ही सामने वाले को मात हो जाये, तो फिर बेकार में दिमाग खपाने से क्या फायदा। उन्हें अब इस शह और मात के खेल में मजा आने लगा था। वे चुप हो गये। उन्हें सामने वाली की चाल का इंतजार था।शिवाकांत समझ गया कि सामने बैठा समाचार संपादक उसे लपेटने के चक्कर में है। वह कुर्सी से उठता हुआ बोला, 'भाई साहब...आप लाल बुझक्कड़ी छोड़कर साफ-साफ बतायें कि मामला क्या है? वरना मैं चला...मेरे पास समय कम है और कई खबरें लिखनी है।Ó
तिवारी जी के पास अब खुलकर खेलने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहींबचा था। उन्होंने सामने झुककर खड़े शिवाकांत की बड़ी और गहरी आंखों में झांकते हुए कहा, 'देखो शिवाकांत! दाई से पेट नहीं छिपाया जाता। अगर तुम्हें जाना है, तो जाओ। लेकिन मर्दों की तरह...यह क्या बात हुई कि मां की बीमारी का बहाना बनाकर छुट्टी ली और पहुंच गये दिल्ली...जनसत्ता के दफ्तर में नौकरी मांगने। तुम क्या समझते हो, मुझे खबर नहीं होगी। मेरे भी सूत्र जनसत्ता के दफ्तर में हैं। मुझे तो यहां तक मालूम है कि तुम्हारी कब और किससे क्या-क्या बातें हुईं?Ó
अब यह सब कुछ शिवाकांत के लिए असह्यï हो उठा। क्रोधातिरेक में उसकी कनपटी लाल हो गयी। उसने भभके स्वर में कहा, 'तिवारी जी, एक बात आपको साफ-साफ बता दूं। आप दाई हों, तो हों। लेकिन मैं गर्भवती हो भी नहींसकता। जहां तक दैनिक जनसत्ता के दफ्तर में जाने की बात है, तो मैं वहां पिछले कई महीने से गया ही नहीं। वैसे आपके सामने स्पषटीकरण पेश करने की मुझे कतई आवश्यकता नहींहै। लेकिन फिर भी आपको बता दूं कि दैनिक जनसत्ता के दफ्तर में पहले भी आता-जाता रहा हूं, आगे भी आता-जाता रहूंगा। आपसे जो करते बने, कर लीजिएगा।Ó
इतना कहकर शिवाकांत मुड़ा और समाचार संपादक के चेंबर से बाहर आ गया। वह अपनी सीट पर पहुंचा, तब तक स्थानीय डेस्क के सभी संवाददाता आ चुके थे। अमितेश रावत, आदित्य सोनकर, दिवाकर शुक्ल अपनी खबरें लिखने में व्यस्त थे। स्थानीय डेस्क के इंचार्ज सुप्रतिम अवस्थी या तो आए नहींथे या हमेशा की तरह कहीं बैठे निंदा रस के आस्वादन में व्यस्त होंगे। डा. दुर्गेश पांडेय अपनी बीट के जूनियर साथी राजेंद्र शर्मा को ज्ञान दे रहे थे, 'तुम अपनी आदतें सुधार लो, वरना बहुत ज्यादा दिन नौकरी नहींकर पाओगे। मैं तो तुमसे तंग आ गया हूं।Ó
'आखिर मुझसे गलती क्या हुई? यह तो बताएंगे, सर!Ó राजेंद्र शर्मा ने असमंजस भरे स्वर में कहा। दरअसल उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसकी बीट का इंचार्ज उसे 'हौंकÓ क्यों रहा है। राजेंद्र शर्मा को दैनिक प्रहरी से जुड़े अभी कुछ ही महीने हुए थे। इससे पहले वह एक साप्ताहिक 'जमानाÓ का प्रतिनिधि रह चुका था। पत्रकारिता जगत के इस नवप्रशिक्षु पत्रकार में संभावनाएं कुछ अधिक हैं, इसका अंदाजा दुर्गेश को हो चुका था। पिछले सत्रह साल से दैनिक प्रहरी मं शिक्षा संवाददाता के रूप में जमे दुर्गेश अब तक कई संभावनाशील पत्रकारों का 'कामÓ लगा चुके थे। संपादक से लेकर अखबार के मालिक तक सबके प्रिय थे। दुर्गेश पांडेय अपने लिए 'डाक्टर साहबÓ कहलवाना पसंद करते थे।