Sunday, June 6, 2010

चिरकुट

'नहीं...मैं जो कह रहा हूं। उसे समझो। मुझे कभी 'क्रासÓ करने की कोशिश सपने में भी मत करना।Ó राजेंद्र को विनम्र होते देख दुर्गेश के क्रोध का पारा चढऩे लगा था।
शिवाकांत अपनी सीट पर बैठा यह कौतुक देख सुन रहा था। उसे राजेंद्र से सहानुभूति हो रही थी। अभी कुछ ही देर पहले वह समाचार संपादक तिवारी के सामने लगभग ऐसी ही परिस्थितियों से जूझ रहा था। इस वजह से राजेंद्र के प्रति सहानुभूति मानव स्वभाव के अनुरूप थी। वह अपनी सीट से उठा और दुर्गेश के सामने आ खड़ा हुआ। उसने बिना पूछे सामने पड़ी एक कुर्सी घसीटी और विराजमान हो गया। डा. दुर्गेश ने उसकी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा। उसने डा. दुर्गेश से कहा, 'क्या डा. साहब! अब जाने भी दीजिए...कहां आप...? लखनऊ की पत्रकारिता जगत के वटवृक्ष और कहां प्रशिक्षु संवाददाता राजेंद्र...जर्नलिज्म के क्षेत्र में नवांकुर... यह आपको क्या क्रास करेगा।...और फिर जब आपका बड़े-बड़े बाल बांका नहीं कर सके, तो फिर यह बेचारा प्रशिक्षु संवाददाता आपका क्या 'उखाड़Ó लेगा।Ó
शिवाकांत ने मजाक करते हुए कहा। वह राजेंद्र की ओर घूमा, 'जाओ यार! खबरें लिखो। सुप्रतिम आता ही होगा।...खबरें न मिलने पर वह भी 'झांय-झांयÓ करेगा।Ó शिवाकांत ने 'झांय-झांयÓ शब्द पर जोर दिया।
शिवाकांत के बीच में पडऩे से राजेंद्र ने मुक्ति की सांस ली। शिवाकांत की इसी आदत से कुछ वरिष्ठ नाराज रहते थे। जब भी कोई वरिष्ठ अपने किसी कनिष्ठ साथी को 'कसनेÓ की कोशिश करता, वह बीच में पड़कर कनिष्ठ साथी को बचा लेता। इससे वरिष्ठ सहकर्मी आहत हो जाते। उन्हें लगता कि कनिष्ठ के सामने उसे औकात बताने की कोशिश की जा रही है। शिवाकांत का मामले के बीच कूद पडऩा, उन्हें आहत कर जाता। कई बार तो साथियों से झगड़ा होते-होते बचता। उसके दूसरे साथी कभी संकेतों ेसे, तो कभी खुलकर समझाते, लेकिन वह इस मामले में चिकना घड़ा घड़ा साबित होता। कई बार वह मूड ठीक होने पर स्वीकार भी करता कि उसका लोगों के मामले में टांग अड़ाना अनुशासन की दृष्टि से गलत है। लेकिन जैसे ही कोई मामला उसके सामने आता, एक अजीब सी सनक उस पर सवार हो जाती। वह अपनी उस बात को भूल जाता और वरिष्ठ साथियों से पहले की तरह भिड़ जाता। उसके शुभचिंतक समझाते, 'देखो! अपने से कनिष्ठ साथियों के सख्ती से पेश आना, उन्हें थोड़ा बहुत प्रताडि़त करना, उत्पीडऩ नहीं है। यह अनुशासन बनाये रखने को जरूरी है। यह सब तो पत्रकारिता के निजाम का एक हिस्सा है। ऐसा होता आया है, भविष्य में भी इस पर रोक लगने की संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आती। और फिर यह मानवाधिकारों के हनन का भी कोई मामला नहीं है जिसके पीछे तुम लट्ठ लेकर घूमो। तो फिर तुम बेवजह सिरदर्द क्यों मोल लेते हो।Ó
शिवाकांत उखड़ जाता, 'निजाम का हिस्सा नहीं 'येÓ है।Ó वह एक अंग विशेष का नाम लेकर अपना गुस्से का इजहार करता।
दुर्गेश पांडेय ने राजेंद्र को अपनी सीट पर जाने का इशारा किया, तो वह कारागार से छूटे बंदी की तरह भाग निकला। डा. दुर्गेश ने चारों ओर निगाह दौड़ायी और फिर आगे की ओर झुकते हुए मंद स्वर में बोले, 'तुम बड़े मौके पर आये शिवाकांत.... बेवजह अपने कनिष्ठ साथियों को डांटने-डपटने की अपनी आदत तो है नहीं, यह तो तुम जानते ही हो। लेकिन क्या करें, यह सब करना पड़ता है। कभी अपना हित साधने के लिए, तो कभी संपादक, डेस्क इंचार्ज या मालिक के कहने पर। शायद तुम्हें मालूम हो, इन दिनों राजेंद्र से सुप्रतिम अवस्थी किसी बात पर नाराज है। सुबह की मीटिंग में मामूली-सी गलती पर सुप्रतिम एक घंटे तक राजेंद्र को हौंकता रहा। बाद में मुझसे भी कहा कि मैं भी उसे बात-बेबात पर हौंकता रहूं।Ó
शिवाकांत मन ही मन मुस्कुराया। उसने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया। कुछ देर बाद उसने पूछ ही लिया, 'पर गुरु...हौंकने का कोई कारण तो होगा। कोई भला बेवजह किसी को क्यों हौंकेगा?Ó
'कारण...कारण तो बस एक ही है और वह है 'डग्गा।Ó परसों एक टेक्सटाइल मिलवालों की ने एक प्रेस कान्फ्रेेंस बुलाई थी...ताज होटल में। आदित्य सोनकर की गैरमौजूदगी में यह बीट राजेंद्र देखता है। आदित्य उस दिन छुट्टी पर था। सुप्रतिम उस कान्फ्रेेंस में पीयूष को भेजना चाहता था, लेकिन राजेंद्र अड़ गया,'मेरी बीट है...मैं ही जाऊंगा, वरना इस बीट की कोई खबर कवर नहीं करूंगा।Ó मजबूरन सुप्रतिम को राजेंद्र की बात माननी पड़ी। तभी से सुप्रतिम राजेंद्र से खार खाया हुआ है।Ó
'लेकिन इसमें डग्गा कहां से आ गया?Ó
'इसमें डग्गा ही तो आया..Ó दुर्गेश ने मेज पर पड़ी पिन उठाकर दांत खुरचते हुए कहा, 'मिलवालों ने डग्गे में अच्छी क्वालिटी की एक लोई और सूटपीस दिया था। पीयूष कान्फ्रेेंस में जाता, तो फोटो के साथ खबर लगवाने का आश्वासन देकर दो-दो अदद डग्गे ले आता। एक अपने लिए...दूसरा सुप्रतिम के लिए...। लेकिन राजेंद्र यह डग्गा खुद हजम कर गया और डकार भी नहीं ली। आदित्य सोनकर का मामला सुप्रतिम और प्रदीप तिवारी से सेट है। डग्गा मिलने पर वह सुप्रतिम को बता देता है। पंद्रह दिन बाद तीनों मिलकर सारे 'डग्गेÓ आपस में बांट लेते हैं। लेकिन गड़बड़ उसी दिन होती है, जिस दिन यह बीट राजेंद्र के पास होती है। राजेंद्र डग्गे में हिस्सा देने को तैयार नहींहोता। मैंने कई बार संकेतों से समझाया भी कि कौन सी तुम्हारे बाप की कमाई से डग्गा आता है। दे दिया करो उसमें से हिस्सा..लेकिन वह माने तब न! राजेंद्र लालची भी तो बहुत है।Ó

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