Monday, December 26, 2011

दो संस्कृतियों को न समझ पाने की नादानी

-अशोक मिश्र

हिंदू धर्म ग्रंथ भगवद्गीता को लेकर इन दिनों भारत और रूस में एक विवाद चरम पर है। दरअसल यह विवाद श्रीमद्भागवत पर नहीं बल्कि इस्कॉन समूह के संस्थापक भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की लिखी पुस्तक ‘भगवद गीता एज इट इज’ पर है। रूस के क्रिश्चयन आथोर्डोक्स चर्च से जुड़े कुछ लोगों ने इसी साल जून के महीने में साइबेरिया की अदालत में एक मुकदमा दायर करके इसे खतरनाक और चरमपंथ को बढ़ावा देने वाला बताया है। इस विवाद की परिणति क्या होगी? इस विवाद के चलते भारत-रूस संबंधों पर क्या फर्क पड़ेगा जैसे मुद्दों पर विचार करने से पूर्व अगर हम इस तथ्य की पड़ताल करें कि आजादी के बाद भारत के सोवियत गणराज्य का कई दशकों तक पिछल्लगू बनने के बाद और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करने से क्या हासिल हुआ? अगर हम गौर करें, तो आजादी के बाद कथित समाजवादी जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बनने वाली सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं से लेकर वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में बहुत कुछ उधार लिया। हमारे देश की सभ्यता, संस्कृति और आचार-विचार को सीखने-समझने को वहां से भी साहित्यकार, कलाकार, रंगकर्मी और अधिकारी आते रहे, हमारे देश से भी बहुत बड़ी संख्या में लोग जाते रहे। भारत-रूस से आने जाने वाले ये सामाजिक और सांस्कृतिक कर्मी प्राप्त ज्ञान को वहां की परिस्थितियों के अनुरूप आम जनता की भाषा में ढालकर लोगों को समझाने और बतलाने में नाकाम रहे। इसी नाकामी का नतीजा है वर्तमान गीता विवाद।

श्रीमद्भागवत का भारतीय जीवन में क्या महत्व है? इसका दर्शन भारतीय जीवन को किस तरह प्रभावित करता है या सचमुच यह चरमपंथी दर्शन है? इस पर विचार करने की बजाय अगर सिर्फ विवाद पर ही बात की जाए, तो इसके पीछे दो सभ्यता ओं, संस्कृतियों और जीवन दर्शन में अंतर को न समझ पाने का मामला है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि एशिया महाद्वीप में सबसे पहली सभ्यता का विकास वोल्गा नदी के किनारे हुआ था। यह वोल्गा नदी रूस में उतना ही महत्व रखती है जितनी कि भारत में गंगा। वोल्गा नदी के किनारे विकसित हुई सभ्यता के कुछ लोगों ने जब चारागाह और भोजन की तलाश में अफगानिस्तान के रास्ते भारत की ओर रुख किया और वे भारतीय उपमहाद्वीप में बसते चले गए। अगर हम इस बात को स्वीकार कर लें, तो वोल्गा नदी के किनारे विकसित सभ्यता की ही एक शाखा भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान आदि में फली-फूली और विकसित हुई। यह भी सही है कि एक ही मूल की सभ्यताएं जब दो जगहों पर पुष्पित-पल्लवित हो रही थीं, तो वे अपने मूल से अलग होकर भी किसी हद तक जुड़ी हुई थीं।

शब्द, आचरण, मान्यताएं और परंपराओं में काफी हद तक समानता थी। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, उन शब्दों, आचरणों, मान्यताओं और परंपराओं का स्थान नए शब्द, मान्यताएं, परंपराएं लेती गर्इं। बाद में तो एक समय ऐसा आया, जब इन दोनों सभ्यताओं को जोड़ने वाली चीजें ही अप्रासंगिक होकर मिट गईं। रहन-सहन, बोली-भाषा, आचार-विचार और प्रशासनिक व्यवस्था में जमीन-आसमान का अंतर आ गया। हमारे देश के प्रमुख ग्रंथ वहां के जनजीवन में अपना महत्व खो बैठे। ऐसे में कोई जरूरी नहीं है कि हमारे देश की प्रमुख मानी जाने वाली गीता, रामायण जैसे ग्रंथ रूस या दुनिया के किसी अन्य देश के लिए महत्वपूर्ण हों। आखिर हमारे देश की कितनी फीसदी आबादी रूस, चीन, अमेरिका, मिस्र या अफगानिस्तान आदि देशों के धर्म ग्रंथों, धार्मिक आचार-विचार या मान्यताओं के बारे में जानती है। बमुश्किल एकाध फीसदी से भी कम। ऐसे में किसी व्यक्ति या समूह विशेष की नादानी को उस देश की सरकार या बहुसंख्यक आबादी से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए।

ऐसी ही नादानी के उदाहरण अपने ही देश में बहुत मिल जाएंगे। हमारे देश के वामपंथी दलों को ही लें। जब भी बात दर्शन की चलती है, वे मानवतावादी दार्शनिक कार्ल मार्क्स, रूसी क्रांति के अगुवा वी. लेनिन और चीनी क्रांति के नायक मात्से तुंग के दर्शन को अपनाने की बातें करते हैं। किसी भी देश के दर्शन की अच्छाइयों को ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं है। कार्ल मार्क्स और लेनिन के क्रांतिकारी विचार आज भी सामयिक हैं, लेकिन जब हमारे देश के वामपंथी दल भारतीय जीवन शैली, विशेष काल-परिस्थितियों को ध्यान में रखे बगैर रूढ़िवादी तरीके से लागू करने की बात करते हैं, तो हंसी आती है। वे यह नहीं सोचते कि जिस युग में मानवतावादी लेनिन ने रूसी क्रांति का आह्वान करते हुए कहा था कि यदि क्रांतिकारी तत्व वेश्यालयों में मिलता है, तो कामरेडों को वहां भी जाना चाहिए। क्या आज की परिस्थितियों में ऐसा संभव है? कतई नहीं। ऐसी नादानी करने से हमें बचना चाहिए। गीता हमारे देश के लिए पवित्र वस्तु हो सकती है, लेकिन दुनिया के सभी देश उसे सिर माथे पर उठाए फिरें, ऐसा न तो संभव है, न व्यावहारिक। हां, इस विवाद का कूटनीतिक हल निकाला जा सकता है और ऐसा होना भी चाहिए।

नएवर्ष का स्वागत कीजिए, जनाब!

-अशोक मिश्र

लीजिए जनाब! महीने, सप्ताह और दिनों की चहारदीवारी पर पैर रखकर कूदता-फांदता नया वर्ष आपके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। उठिए, उठकर माशूका की तरह लपककर उसका मुंह चूमिए, हंसकर स्वागत कीजिए। नया साल है भई! आपके लिए नई आशाओं, नई कामनाओं और योजनाओं की सौगात लेकर आया है। भूल जाइए कि पिछले साल आपने कितनी रातें भूखे रहकर और सुबह की रोटी की जुगाड़ में सोचते-विचारते गुजारी हैं। यह भी भूल जाइए कि अभी आपको अपने बेटे या बेटी के स्कूल की फीस देनी है। बीवी की शॉल छेद के चलते ‘चलनी’ बन चुकी है और उसमें अब पैबंद लगाने की गुजांइश ही नहीं बची है। यह भी सही है कि महंगाई की मार ने आपकी कमर को लाठी जैसी सीधी रखने की जगह धनुष की तरह दोहरी कर दी है। अब अगर महंगाई का दबाव कुछ और बढ़ा, तो यह बिल्कुल ही टूट जाएगी। अगर यह टूटती है, टूट जाने दीजिए। लेकिन नए साल का स्वागत करने में पीछे रह गए, तो आपके अड़ोसी-पड़ोसी साल भर ताना मारेंगे। बीवी-बच्चों को तो उनके बीच ही रहना होता है, साल भर वे एहसास-ए-कमतरी (इन्फीरियारिटी कॉम्प्लेक्स) के चलते घुट-घुट कर जिएंगे। बच्चे नए साल के बाद जब स्कूल जाएंगे, तो वे अपने सहपाठियों को कैसे बताएंगे कि उनके डैडी उन्हें किस डिस्कोथेक या बार में ले गए। उन्होंने दिसंबर का आखिरी दिन कैसे सेलिब्रेट किया? पापा पड़ोस वाली आंटी के साथ कैसे नाचे? मम्मी बाजू वाले अंकल के साथ डिस्को करती हुई कितनी ‘क्यूट’ लग रही थीं।

भाई मेरे! भले ही आपकी जेब ‘ठनठन गोपाल’ बोल रही हो, लेकिन आपके पास ‘प्लास्टिक मनी’ यानी क्रेडिट कार्ड तो है न! फिर काहे की चिंता। जानते हैं, मेरी गली के पीछे वाले पीपल के पेड़ के पास जो •िाखारी बैठता है, वह भी क्रेडिट कार्ड होल्डर है। पिछले हफ्ते उसने परेड के सामने भीख मांगने वाली माशूका को पजेरो गिफ्ट किया है। अगर आपके पास यह सब कुछ नहीं है, तो आपसे बड़ा घोंचू इस दुनिया में कोई दूसरा नहीं है। वैसे आपके पास एक मौका है। अभी नया साल आने में कुछ घंटों की देर है, आप चाहें तो किसी बैंक कर्मी या उसके दलाल से टांका भिड़ा लें और फिर क्या! आपकी पांचों अंगुलियां घी में और सिर कड़ाही में होगा। मैंने आपको नए साल का मौज-मस्ती के साथ स्वागत करने का बेहतरीन आइडिया दे दिया है। अब देर किस बात की है।

जाइए, नया साल सेलिब्रेट कीजिए। भूल जाइए कि इस देश में कितने घोटाले हुए हैं। राजा, राडिया से लेकर सुखराम तक ने अपनी कितनी पुश्तों के सुख से जीने की व्यवस्था कर ली है। यदि मौका लगे, तो आप भी एकाध लंबा हाथ मारिए और देश को ठेंगे पर रखते हुए परिवार और मोहल्लेवालोंको ‘हैप्पी न्यू इयर’ कहें। मेरी तो यही दुआ है कि नया वर्ष आप सबके लिए शुभ हो। उनके लिए भी शुभ हो, जो किसी का गला काटकर अमीर बने हैं। नया साल उनके लिए भी मंगलमय हो, जो अपना गला कटाने के बावजूद जी रहे हैं। नया साल जहां राजा, राडिया, कनिमोझी जैसे भूतपूर्व और वर्तमान मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के लिए शुभ हो, तो वहीं रोज अपना खून-पसीना बहाने के बावजूद लुगाई की फटी धोती को नई में न बदल पाने वालों के लिए मंगलमय हो। लूटने वालों को नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं। लुटने वालों को भी नया साल मुबारक हो। हो सके, तो आप भी मेरे लिए बस इतनी कामना कीजिएगा कि सबके सुखी हो जाने के बाद मुझे भी थोड़ा बहुत सुख हासिल हो जाए।

Tuesday, December 20, 2011

मटुकनाथ-जूली लव कोचिंग सेंटर

अशोक मिश्र
कोहरे की रजाई ओढ़े अगहनी सूरज की तरह मैं भी अपने बिस्तर पर अलसाया पड़ा था कि किसी फिल्मी गीत के पहले अंतरे की आखिरी लाइन ‘जूली ओ जूली...’ मेरे कानों में शहद घोलती-सी घुसी। मैं चौंक उठा कि इतना भावविभर होकर कौन जूली को टेरता फिर रहा है? यह आवाज घर के किसी सदस्य की थी नहीं। सो, मेरा चौंकना स्वाभाविक था। मेरी निगाहें दरवाजे की ओर उठीं, तो देखा कि पड़ोसी मुसद्दीलाल ‘आ जा रे, ओ मेरे दिलवर आ जा...’ गाते हुए किसी घुसपैठिये की तरह घुसे चले आ रहे थे। पड़ोसी मुसद्दीलाल की गिनती मोहल्ले के श्रेष्ठ रसिकजनों में होती है। मुसद्दीलाल को नायिका •ोद से लेकर प्रेम और शृंगार के सभी पक्षों का गंभीर ज्ञान है। मोहल्ले की फलां स्त्री या अमुक कन्या नवोढ़ा नायिका है या विदग्धा, यह मुसद्दीलाल उसे देखते ही झट से बता देते हैं।
मैंने बिस्तर पर ही थोड़ा-सा स्थान बनाते हुए उन्हें बैठने का इशारा किया, ‘यह जूली भाभी जी की कोई सहेली या उनकी बहन है क्या? जिसको ‘हे खग, हे मृग.......’ की तर्ज पर मोहल्ले में खोजते फिर रहे हो?’ मेरी बात सुनते ही मुसद्दीलाल के चेहरे पर छाया शृंगार रस का भाव वीर रस में बदल गया। वे गुर्राते हुए बोले, ‘तुम हमेशा खीर में नमक डालकर सारा गुड़ गोबर कर देते हो। तुम्हें इसमें क्या मजा आता है!’
मुसद्दीलाल के तेवर देखकर मैं सिटपिटा गया, ‘भाई साहब! आप यह बताने की कृपा करेंगे कि यह जूली कौन है? आप तो जानते ही हैं कि औरतों के मामले में मैं बचपन से ही निरा •ोंदू रहा हूं।’ मेरी बात सुनकर मुसद्दीलाल ने गहरी सांस ली और बोले, ‘ताज्जुब है कि तुम जूली को नहीं जानते। जूली लवगुरु मटुकनाथ की रानी ‘पद्मिनी’ है, जाने जिगर है, जाने बहार है जिसके लिए लवगुरु अपनी पत्नी से पिटे, अपने योग्य शिष्यों की मार खाई, बगलोल नारायण कालेज (बीएन कालेज, पटना) की मास्टरी गंवाई। अब उसी मास्टरी को लवगुरु और उनकी जाने जां जूली अपनी हिम्मत और संघर्ष की बदौलत हासिल करने में सफल हो गए हैं। अब वे कालेज में फिर से पढ़ाने जा रहे हैं। उनकी कक्षा में पढ़ने के लिए देशभर से रसिक और प्रेमीजन पटना पहुंच रहे हैं। मैं आपको भी पटना चलने का न्यौता देने आया था।’
मैं कुछ कहता कि बगल के कमरे से मेरे सुपुत्र चुन्नू बाबू नमूदार हुए। मुसद्दीलाल और कुलभूषण चुन्नू बाबू की आंखें मिली। आंखों ही आंखों में एक गुप्त इशारा हुआ, जिसे मैं समझ नहीं पाया। चुन्नू बाबू बोले, ‘डैडी! मुझे पांच हजार रुपये चाहिए, पटना जा रहा हूं।’ यह सुनते ही मैं उछल पड़ा।
‘क्या कहा.....पटना जाना है! वहां क्या है? चुपचाप पढ़ाई करो, परीक्षाएं सिर पर आ रही हैं।’ मुझे गुस्सा आ गया।
‘पढ़ने ही तो जा रहा हूं।’ मेरे कुल तिलक चुन्नू का आवेशरहित जवाब था।
‘पढ़ने जा रहे हो! वहां कौन-सी पढ़ाई होगी? मैं भी तो जानूं जरा?’
‘लवगुरु से प्रेम पुराण पढ़ूंगा, जूली से नायिका •ोद सीखूंगा। सुना है कि ‘मटुकनाथ-जूली लव कोचिंग सेंटर’ में पढ़ने के लिए अमेरिका, कनाड़ा और आस्ट्रेलिया से भारी संख्या में लड़के-लड़कियां आ रहे हैं। डैड...आप तो जानते ही हैं कि सीटें लिमिटेड हैं। अंकल ने अपना और मेरे एडमिशन का जुगाड़ •िाड़ा लिया है। सिर्फ पांच हजार रुपये महीने में काम चल जाएगा।’ चुन्नू बाबू एक ही सांस में सारी बातें कह गए। मैं उल्लुओं की तरह बैठा उसका चेहरा देखता रहा। मुसद्दीलाल मेरी दशा देखकर मंद-मंद मुस्कुराते रहे। मैं समझ गया कि इन दोनों में साठगांठ हो गई है। मैंने अपना ब्रह्मास्त्र फेंका, ‘अरी भागवान! सुनती हो, तुम्हारा लाडला क्या कह रहा है। लवगुरु से प्रेम पुराण पढ़ने जा रहा है। जरा इस नामाकूल को समझाओ।’
इधर मैंने पत्नी को हांक लगाई, उधर वह चेहरे पर बत्तीस इंची मुस्कान समेटे कमरे में घुसी। उसने हाथों की ट्रे को टेबल पर रखते हुए कहा, ‘चुन्नू के पापा! जाने दीजिए उसे पटना। अगर वह प्रेम में विशेषज्ञता हासिल करना चाहता है, तो बुरा क्या है। एक फिल्म में राजकपूर कह गए हैं कि प्यार कर ले, नई तो यूं ही मर जाएगा। प्यार कर ले.....अगर मेरा बेटा प्यार सीखने जाना चाहता है, तो जाने दीजिए।’
घरैतिन की बात सुनकर मैंने कहा, ‘अरी पागल! तू यह क्यों भूल जाती है कि प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय। क्या सदियों से प्रेम करना सिखाया जाता रहा है? यह तो समय आने पर इंसान खुद ही सीख जाता है।’
‘पता नहीं किस दुनिया में रहते हैं आप। आजकल तो प्रेम बाड़ी में उपजता भी है और हाट में बिकता भी है। यह थ्योरी कब की बदल चुकी है। आप यह बताइए, सुबह उठकर मेरा बेटा स्कूल जाता है, शाम को तीन-चार बजे लौटता है। खाने-पीने के बाद वह ट्यूशन पढ़ने चला जाता है। शाम को छह सात बजे लौटता है, तो फिर एकाध घंटे के लिए खेलने चला जाता है। उसके बाद तुम सिर पर Þडंडा लेकर सवार हो जाते हो कि चलो पढ़ो। ऐसे में वह प्रेम का पाठ कब पढ़े। मोहल्ले के लड़के-लड़कियां ऐसे-ऐसे नायाब लव लेटर्स लिखते हैं कि अब आपको क्या बताऊं। उनकी काबिलियत और अपने बेटे की अज्ञानता पर मुझे कितनी शर्म आती है, यह आप क्या जानें। मोहल्ले में शर्म से मेरा सिर झुक जाता है।’ इतना कहकर घरैतिन ने खूंटे में बांध रखे पांच हजार रुपये निकाले और बेटे को देते हुए कहा, ‘लो बेटा! पांच हजार रुपये। इस महीने इतने में काम चलाओ। अगले महीने की फीस और खर्चे के छह हजार रुपये तुम्हारे डैडी तनख्वाह मिलने पर तुम्हारे खाते में ट्रांसफर करा देंगे।’ पैसा हाथ में आते ही बेटे ने बेमन से मेरा पैर छुआ और अपनी मम्मी को ‘बॉय’ करता हुआ निकल गया। उसके साथ ही पड़ोसी मुसद्दीलाल भी चलते बने।

ह्वाय दिस कोलावेरी डी!

-अशोक मिश्र
दिल्ली के किसी पार्क में एक गधा गुनगुनी धूप का आनंद लेते हुए मुलायम घास चर रहा था। गधे के घास चरने की स्टाइल बता रही थी कि वह दिल्ली का रहने वाला है। तभी रखवाले की निगाह बचाकर गांव से आया एक दूसरा गधा पार्क में घुस आया। आते ही उसने न इधर देखा, न उधर। मुलामय घास को किसी भुक्खड़ की तरह भकोसने लगा। यह देखकर पार्क के बीचोबीच में बड़ी शान से चर रहा दिल्लीवासी गधा ‘ढेंचू-ढेंचू’ की आवाज करता हुआ दूसरे गधे की ओर दौड़ा। एक बार तो लगा कि वह दुलत्ती झाड़ ही देगा, लेकिन पास जाकर वह गुर्राया, ‘अबे बेवकूफ! तू कहां से घुस आया। जल्दी से दो-चार गफ्फे मार ले और चलता बन। अगर गेटकीपर ने देख लिया, तो तेरी वजह से मुझे भी बाहर जाना पड़ेगा।’
बाद में आया गधा दीन स्वर में बोला, ‘भइया! बड़ी मुश्किल से कई दिनों बाद हरी और मुलायम घास दिखी है। आज तो पेट भर खा लेने दो।’
‘आज तो पेटभर खा लेने दो....बाप का माल है क्या?..’ दिल्लीवाले गधे ने हिकारतभरी नजरों से उसे देखते हुए कहा, ‘ठीक है, जल्दी से थोड़ी घास चरो और चलते-फिरते नजर आओ।’
कुछ देर दोनों चरने के बाद पार्क से बाहर आ गए। पार्क के साइड में बने फुटपाथ पर दोनों खड़े पगुराते रहे। थोड़ी देर बाद दिल्ली वाला गधा पंचम सुर में दुलत्तियां झाड़कर गाने लगा, ‘ह्वाय दिस कोलावेरी डी।’ गांव से आए गधे को पार्क की मुलायम घास अब भी लुभा रही थी। वह एक बार फिर थोड़ी घास खाने की फिराक में था। उसने दिल्लीवाले गधे के गाने में व्यवधान डालते हुए कहा, ‘घास कितनी मुलायम है। काश कि पूरे देश में ऐसे ही चारागाह होते, तो हमें चारा के लिए गली-गली भटकना नहीं पड़ता।’
गाने में व्यवधान पड़ने से झल्लाया गधा बोला, ‘अबे गधे! चारागाह तो पूरा देश है। देखते नहीं, इनसानों को। वे चरते तो अपने क्षेत्र में हैं, लेकिन पगुराने आते हैं दिल्ली। इनसानों के पगुराने के अड्डे हैं संसद और राज्यों की विधानसभाएं। मजे की बात तो यह है कि ये लोग पगुराने के पैसे भी लेते हैं। हां, इनमें होड़ इस बात की होती है कि कौन पक्ष में बैठकर पगुराएगा, कौन विपक्ष में। ये लोग जब चरकर अघा जाते हैं, तो ये देशी बनियों को चारागाह सौंप देते हैं चरने के लिए। ये बनिये गांव के गली-कूंचे से लेकर शहर के पॉश इलाकों में अपनी दुकान सजाकर बैठ जाते हैं। इन बनियों के भी कई गुट हैं, कई पार्टियां हैं, कई झंडे हैं। कुछ नेता नामधारी इंसान कभी इनको समर्थन देते हैं, तो कभी उनको।’
‘तब तो सभी इंसानों की मौज होगी। सभी चरते होंगे।’ देहाती गधे ने उत्सुकता जताई।
‘नहीं जी...गरीब कहे जाने वाले इंसान बेचारे मारे-मारे फिरते हैं। सुना है कि एफडीआई आने वाली है। यह क्या बला है, मुझे नहीं मालूम। लेकिन अपने मालिक के बेटे के मुंह से जो सुना है, उसके मुताबिक अपने देश के चारागाह में चरने के लिए अब विदेशी कंपनियां भी आएंगी। इक्यावन फीसदी अब ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां चरेंगी और उन्चास फीसदी देशी कंपनियां।’ इतना कहकर लयात्मक ढंग से दुलत्तियां झाड़कर दिल्लीवाला गधा एक बार फिर से गाने लगा, ‘ह्वाय दिस कोलावेरी कोलावेरी कोलावेरी डी।’ और देहाती गधा पार्क में घुसकर चरने लगा।

परलोक में आरटीआई

-अशोक मिश्र
आदरणीय भगवान जी, सादर प्रणाम। मैं यह नहीं जानता कि परलोक में सूचना का अधिकार कानून लागू है या नहीं। आप यह तो अच्छी तरह जानते होंगे कि मृत्युलोक में इसकी बदौलत कल तक केंचुओं की तरह रेंगने वाली जनता ने देश के बड़े-बड़े सियासी शेरों की मिट्टी पलीद कर रखी है। आरटीआई का नाम सुनते ही बड़े-बड़े सूरमाओं की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है। हां, तो भगवान जी सबसे पहले यह बताएं कि परलोक में जनलोकपाल, आरटीआई, राइट टू रिजेक्ट और राइट टू रिकॉल जैसे कानून लागू है या नहीं। वहां सी या डी ग्रेड के कर्मचारियों को माल झटकने की कितनी छूट है? यहां का हाल तो यह है कि देश की विभन्न पार्टियां लोकपाल में भी आरक्षण की बात कर रही हैं। हालांकि मैं यह नहीं जान पाया हूं कि ये पार्टियां और उनके वरिष्ठ नेता भ्रष्टाचार में आरक्षण चाहते हंे या भ्रष्टाचार रोकने को बनने वाली समिति में। भगवन! आपको तो पता होगा कि मृत्युसोत में गांधीवादी अन्ना हजारे की बड़ी धाक है। वे पहले तो भूख हड़ताल करते हैं, फिर पांच सितारा अस्पताल में जाकर चेकअप करवाते हैं। गांधीवादी होते हुए भी गांधी जी की तरह पैदल नहीं, हवाई जहाज से आते-जाते हैं। उनके चेले-चपाटे भी ठीक उनके ही नक्शेकदम पर चलते हैं। परलोक में अन्ना जैसी कोई शख्सियत पहुंची या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं, परलोक का काम-काज अभी तक महात्मा गांधी से ही चल रहा है।
भगवान साथ ही यह जानकारी भी प्रेषित करें कि अगर परलोक का कोई मुलाजिम या अधिकारी किसी आत्मा या वहीं के निवासियों से रिश्वत लेते हुए पकड़ा जाए, तो क्या उस पर वैसे ही मुकदमा चलता है, जैसा हमारे देश में होता है। हमारे देश में तो सालों मुकदमे चलते रहते हैं और देश की संपदा लूटकर अपने घर भर लेने वाला मौज करता रहता है। बहुत हुआ, तो महीने-दो महीने के लिए वातावरण बदलने की तरह तिहाड़ जेल चले गए। कुछ दिनों बाद जमानत का ढोंग रचकर बाहर आए, तो फिर पूरी जिंदगी गुजर जाती है और मुकदमे का फैसला नहीं हो पाता है। भगवान जी, आप तो सर्वज्ञानी हैं, सबके मन की बात समझते हैं। मैं एक छोटा-मोटा पाकेटमार हूं। ए. राजा, कनिमोझी, सुखराम जैसा लंबा हाथ मारने को जिंदगी भर तरसता रहा। कभी किसी का पाकेट मार लिया, तो कुछ दिन तक पेट भरने का जरिया हो जाता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि जब मैं परलोक में आई, तो कोई लंबा हाथ मारने का मौका आप ही मुहैया करा दें। जो इच्छा यहां जीते-जी पूरी नहीं हो सकी, उसे मरने के बाद परलोक में पूरी कर लूं, तो आपके निजाम में कोई फर्क तो पड़ने वाला नहीं है। आखिर ‘इस लोक और उस लोक’ में आपकी इजाजत के बिना कोई पत्ता भी नहीं हिलता। यह बात हमें बचपन से ही पुजारी काका बताते चले रहे थे। अभी कुछ दिन पहले ही वे परलोक गए हैं, आप चाहें तो उन्हें बुलाकर पूछ लें। जब मृत्युलोक में भ्रष्टाचार, चोरी, लूट-खसोट, हत्या-बलात्कार जैसे अपराधों में आपकी सहमति है, तो वहां एक बार मुझे लंबा हाथ मारने का मौका देने से कोई पहाड़ नहीं टूट जाएगा। हमारे देश की से आपके परलोक में सोशल साइट्स पर सरकारी नियंत्रण है या नहीं। अगर लागू है, तो उसका प्रारूप क्या है? वहां आरटीआई की फीस किस मुद्रा में जमा होगी, यह भी मुझे नहीं मालूम है। अगर आप चाहें, तो यह फीस मैं रुपये में चुका दूं या फिर आप जिस मुद्रा में चाहें, वह मुद्रा परलोक आने पर लेता आऊंगा। आशा है कि आप मुझे हफ्ते-दस दिन में यह सारी जानकारियां जरूर उपलब्ध करा देंगे। आपका ही-मुजरिम।
(व्यंग्यकार साप्ताहिक हमवतन के स्थानीय संपादक हैं)

नारी मन के अंतरद्वंद्व की गाथा ‘सोफी’


-अशोक मिश्र
वाकई विश्वास नहीं होता कि कोई लेखिका अपने पहले ही उपन्यास में नारी मन के अंतरद्वंद्व को इतनी साफगोई और विश्वसनीयता के साथ उकेरती हुई अपने पाठकों को अ•िाभूत कर देगी। प्रीति रमोला गुसांई ‘मृणालिनी’ के पहले उपन्यास ‘सोफी’ की शुरुआत प्रमुख पात्र लंदन निवासी सोफी के सौतेले बेटे जैमी डिसूजा के शिमला वापसी से होती है। वह शिमला में उन जगहों पर जाकर अपने बचपन की यादों को ताजा करना चाहता है। शिमला के लाल कोठी में पहुंचने पर उसका केयरटेकर उसे खरीददार समझकर पूरी कोठी दिखाता है। वहां उसे वह पत्थर दिखाई देता है, जिसके सामने बचपन में जैसी ने गिड़गिड़ाने के अंदाज में कभी अपनी सौतेली मां सोफी की सुरक्षा, उसके न भटकने की फरियाद की थी। वह उस पत्थर को लेकर पठानकोट की ओर यात्रा शुरू करता है और यहीं से फ्लैशबैक में पूरी कहानी चलती रहती है।

पूरा उपन्यास शिमला और पठानकोट के बीच घूमता रहता है। शिमला के प्रसिद्ध जगहों की विवेचना से यह तो पता लगता है कि लेखिका का यहां से गहरा जुड़ाव रहा है। उपन्यास ‘सोफी’ एक ईसाई परिवार के मुखिया मि. एंटनी और उनके पुत्र रोड्रिक के बीच चलने वाली अहम और सामंतवादी प्रवृत्ति के टकराव की गाथा है। धनलोलुप और अंग्रेजों के चाटुकार मि. एंटनी ने अपनी युवावस्था के दौरान भारतीय क्रांतिकारियों के खिलाफ मुखबिरी करके काफी धन कमाया और राय साहब की पदवी पाई। उनकी आकांक्षा की थी कि उनका पुत्र उनके नक्शेकदम पर चलकर उनकी संपत्ति को और बढ़ाए। लेकिन विडंबना यह है कि वह मुंबई की एक तवायफ से प्रेम कर बैठा और दो लड़कियों और एक बेटे जैमी का बाप बन गया। सामंती प्रवृत्ति के एंटनी अपने बेटे के ऐसा करने से टूट गए। उन्होंने अपने सारे संबंध बेटे से तोड़ लिए। पठानकोट में लकड़ियों से बनी एक आलीशान हवेली में अकेले रहने वाले एंटनी को अपने वंश वृद्धि की उम्मीद तब दिखाई दी, जब अपनी पत्नी और दोनों लड़कियों की हादसे में मौत से टूटा रौड्रिक अपने इकलौते बेटे जैमी के साथ पिता के घर में आकर रहने लगा। उसके पिता जैमी को अपना पौत्र मानने को तैयार नहीं हैं। इसी दौरान माली की लड़की सोफी एक नाटकीय घटनाक्रम के तहत ग्यारह वर्षीय जैमी के कमरे में सो जाती है और उसी दौरान नशे में धुत रौड्रिक आकर उसी कमरे में सो जाता है। सुबह लोग अस्तव्यस्त हालत में जब उसे रौड्रिक और सोफी को कमरे से निकलते देखते हैं, तो उनके बीच अवैध संबंधों की चर्चा शुरू हो जाती है। और शिकारी की तरह घात में बैठे एंटनी अपने बेटे को सोफी से विवाह करने को बाध्य कर देते हैं। एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति के साथ व्याह दी जाती है सोलह साल की सोफी।

यदि उपन्यास की कथा वस्तु पर विचार करें, तो यह पिता-पुत्र के बीच के टकराव और पति का प्रतिरोधस्वरूप पत्नी को शादी के बाद सोफी को त्याज्य रखने की व्यथा कथा है। शादी के चार साल बाद सोफी के जीवन में प्रवेश करता है जयंत। जयंत सोफी के सौतेले बेटे जैमी को ट्यूशन पढ़ाने आता है। उसका सान्निध्य पाकर एक बार फिर मरी हुई कामनाएं और काम उद्वेग सिर उठाने लगते हैं। वह एक दिन...सिर्फ एक दिन अपने मन मुताबिक जीवन जीना चाहती है। इसी दौरान रौड्रिक मुंबई अपने परिवार सहित मुंबई जाता है, तो जयंत भी दुबई में नौकरी मिलने की वजह से फ्लाइट पकड़ने मुंबई जाता है। पानी के जहाज पर नववर्ष के अवसर पर होने वाले एक प्रोग्राम के चार टिकट खरीदकर रौड्रिक के पास पहुंचे जयंत को पता चलता है कि रौड्रिक बीमार है और वह इस कार्यक्रम में भाग नहीं ले सकेगा। वह सोफी और जैमी को जयंत के साथ कार्यक्रम में भाग लेने को बाध्य करता है और वहां पहुंचकर दोनों उस रंगीनियों में खो जाते हैं। अपनी सौतेली मां को अपने ट्यूटर जयंत के सामने काम याचना करते देख जैमी विचलित हो जाता है। कुछ दिनों बाद सोफी के गर्भवती होने और इस रहस्य को रहस्य बनाए रखने के लिए पिता को ढकेलकर मार देने वाले सोलह वर्षीय जैमी जिस अंदाज में पिता के अंतिम संस्कार के अवसर पर वह दुनिया के सामने जयंत के बच्चे को अपने पिता की संतान बताता है, वह कुछ ज्यादा ही नाटकीय लगता है। बाद में मि. एंटनी जैमी और उसकी सौतेली मां सोफी को पठानकोट ले जाते हैं। अपनी सारी संपत्ति का वारिस वह सोफी के बच्चे को बता देते हैं। यह कथा इसी तरह आगे बढ़ती है और बाद में सोफी के सामने अपने वायदे के अनुसार जयंत काफी पैसा कमाकर दुबई से लौटता है, लेकिन वह जयंत को पहचानने से इनकार कर देती है। पढ़ाई के नाम पर दिल्ली और फिर बाद में लंदन गए जैमी को अब अपनी सौतेली मां से उतनी ही घृणा है जितनी वह अपने पिता से करता था। बाद में सोफी मर जाती है और उसकी कब्र के पास अकसर आकर बैठने वाला पागल जयंत भी एक दिन मर जाता है।

दरअसल, उपन्यास ‘सोफी’ में जहां नारी मन के आवेगों, उद्वेगों की सफल प्रस्तुति है, वहीं सौतेली मां और जैमी के बीच उपजे ममत्व की पराकाष्ठा कुछ अतिरंजित ही लगती है। कोई पुत्र अपनी काम पिपासु सौतेली मां और उसके नाजायज बच्चे को बचाने के लिए अपने पिता की हत्या कर दे, तो हमारा समाज उसे किसी भी रूप में जायज नहीं ठहराता है। उपन्यास की भाषा में वह प्रवाह नहीं है जो होनी चाहिए। उपन्यास पढ़ते समय भाषागत त्रुटियां खटकती हैं। अंग्रेजियत का भाव प्रबल होने और हिंदी को आत्मसात न कर पाने की वजह से ऐसा हुआ होगा। कई जगह तो भाषा और व्याकरण का अनाड़ीपन साफ झलक जाता है। अगर अंग्रेजी शब्दों को उस तरह लिखा जाता, जिसे हिंदी में जिस तरह लिया जाता है, तो शायद अच्छा होता। अब उदाहरण स्वरूप एक शब्द ‘लंडन’ को लें। अंग्रेजी से आया यह शब्द हिंदी में ‘लंदन’ के रूप में स्वीकार्य है। प्रूफ की गलतियां भी काफी हैं। इस पर ध्यान देने की जरूत थी। आशा है कि आगामी रचनाओं में लेखिका इस बात का ध्यान रखेगी। उपन्यास का मुखपृष्ठ आकर्षक है। यदि पूरा उपन्यास एक फांट में होता, तो शायद इसकी खूबसूरती और बढ़ जाती। चौर सौ चार पृष्ठों का यह उपन्यास फांट का साइज कम करके घटाया जा सकता था। तब शायद इसका मूल्य दौ सौ रुपये से कुछ कम हो जाता और कुछ ज्यादा पाठकों तक पहुंचने में सफल होता।

Saturday, December 10, 2011

जूते में गुन बहुत है


- अशोक मिश्र

कुछ लोग कहते हैं कि आज से हजारों साल पहले जब बंदर ने अपने दो हाथों को चलने के काम से मुक्त कर लिया, तो वह बंदर से आदमी हो गया। यह एक बहुत बड़ी घटना थी। क्रांतिकारी टाइप की। उस पर 'करेला और नीम चढ़ा` वाली कहावत तब चरितार्थ हुई, जब उसने पहिए और हथियार का आविष्कार किया और आधुनिक मानव समाज की नींव पड़ी। मेरे खयाल से यह धारणा बिल्कुल बकवास है। यह इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों की कल्पना की उड़ान है। भला पहिया और हथियार से विकास का क्या नाता-रिश्ता है। थोथे तकरीरों से इन समाजशास्त्रियों ने दुनिया को बहुत दिनों तक बेवकूफ बनाया। अब दुनिया को यह बताने का समय आ गया है कि बंदर का चलने के काम से दो हाथों को अलग कर लेने की घटना क्रांतिकारी नहीं थी, बल्कि बाकी बचे दो पैरों की सुरक्षा के लिए जूते का आविष्कार कर लेना, बंदर और उसके बाद आदमी के लिए वरदान साबित हुआ। उस पर गजब यह हुआ कि जूते का उपयोग जब पांवों की सुरक्षा के साथ-साथ दूसरे कामों में होने लगा, तो मानो मानव समाज अंधकार युग से निकलकर प्रकाश युग में प्रवेश कर गया। आदमी के दिमाग पर सदियों से छाया अंधकार 'जूता हाथ` में लेते ही उसी तरह छंट गया, जैसे जेठ-बैसाख में हवा चलने से देखते ही देखते बदली छंट जाती है। काफी दिनों तक समाज में जूते का जोर रहा, बात-बात पर जूता चलता रहा। लेकिन जैसा कि प्रकृति का नियम है। यह पूरा संसार द्वंद्वमय तत्वों से निर्मित है। कुछ लोग जूते के खिलाफ बोलने लगे। उन्हें जूता असुंदर और विकास विरोधी लगने लगा, तो उन्होंने लाठी को अपना लिया। विडंबना देखिए, कल तक जिस जूते की पूजा की जाती थी, वह जूता घर के किसी कोने में उपेक्षित सा पड़ा रहने लगा। कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश में एक जूता मिला है, जिसकी कार्बन डेटिंग के आधार पर वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि यह गिरधर कविराय का जूता है। कोई इस बात से सहमत हो या नहीं, लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वह यकीनन गिरधर कविराय का ही जूता है। गिरधर कविराय शुरुआती दिनों में जूते के ही हिमायती थे। जूता दर्शन में उनकी लोकप्रियता का डंका पूरे इलाके में बजता था। इसे देखकर उस समय के प्रतिष्ठित जूताबाज भी उनकी चमचई करने को लालायित रहते थे। लेकिन एक दिन क्या हुआ कि उनकी भिड़ंत किसी लट्ठबाज से हो गई। उसकी लाठी में गिरधर के जूते से ज्यादा दमखम था। सो, उसने दो लट्ठ गिरधर की पीठ पर जमाया, तो बेचारे लाठीवादी हो गए। उनके लाठीवादी होते ही समाज में लाठी का बोलबाला हो गया। इसे 'जूता युग` का अवसान काल भी कहा जा सकता है। देखते ही देखते लाठी की समाज में तूती बोलने लगी। कोई भी लाठी के बल किसी की भी भैंस खोल लेता था। तभी से यह कहावत समाज में मशहूर हो गया, जिसकी लाठी उसकी भैंस। सारे नियम-कानून लाठी की लंबाई और मजबूती के आधार पर तय किए जाते थे। जूते के मोह से विरक्त हुए गिरधर कविराय ने फतवा जारी कर दिया, 'लाठी में गुन बहुत है, सदा राखिए पास।` उनके इस फतवे का व्यापक असर हुआ और हर आदमी लाठी रखने के साथ ही साथ लाठी की भाषा बोलने लगा। उस युग की प्राथमिकता लाठी थी। लाठी ने न जाने कितने युद्ध कराए, न जाने कितने प्रपंच रचे, लेकिन वह भी समय के हाथों पराजित हुआ। लाठी युग का खात्मा होकर रहा। जैसे दिन के बाद रात आती है और रात के बाद दिन। इस देश में यह मानने वाले आपको करोड़ों लोग मिल जाएंगे, जो मानते हैं कि सबसे पहले 'सतयुग` आया, उसके बाद द्वापर और इसके बाद त्रेता और फिर कलियुग। अब कलियुग की अंतिम सांस चल रही है, इससे बाद सतयुग का ही नंबर है। ठीक इसी प्रकार मानव समाज ने जूता युग से लाठी युग में प्रवेश किया। फिर लाठी युग खत्म हुआ, तो एक बार फिर जूता युग आ गया। समाज के विकास का चक्रीय सिद्धांत तो यही कहता है। आज समाज में जूते-चप्पल की गूंज चारों ओर सुनाई दे रही है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा अभागा होगा जिसने जूता-चप्पल का शाश्वत उपयोग कभी न किया हो। आज के जूता-चप्पलवादी युग में गिरधर कविराय पैदा हुए होते, तो उनकी एकाध कुंडलियां जूता-चप्पल की प्रशंसा में जरूर होतीं। आज के जूता-चप्पलवादी युग का बेसिक फंडा है कि जूता जितना बड़ा होगा, पॉलिस उतनी ही खर्च होगी। कुछ लोग हमेशा अपना जूता बड़ा करने के चक्कर में लगे रहते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो विरोधी दल के विधायकों और सांसदों को आश्वस्त करते रहते हैं, तुऔहारे जूते में जितनी पॉलिस लगेगी, उसका खर्च मैं दूंगा। चिंता मत करो। बस जब मैं कहूं, तो आपको अपना जूता चमकाना होगा और यह जूता 'चमकौव्वल` तुऔहें उस पाले में रहकर नहीं, इस पाले में रहकर करना होगा। कई बार तो यह पाला बदल मनोरंजक हो जाता है। पाला बदलकर पॉलिस का जुगाड़ करने वाला नेता भी जब देखता है कि उसका जूता ही फटने वाला है, तो पॉलिस देने वाले को ठेंगा दिखाकर अपने मूल पाले में जा बैठता है या फिर नया जूता गांठ लेता है। राजनीति की भाषा में इसी को 'राजनीतिक दलों का जूतम-पैजार` कहा जाता है। विधानसभाओं के अंदर और बाहर नेताओं के बीच होने वाली जूतम-पैजार से देश का बच्चा-बच्चा वाकिफ है। यह तो जूता-चप्पलवादी युग की पहली पहचान है। उत्तर प्रदेश और बिहार की विधानसभाएं जूतम-पैजार के स्वर्णिम दौर से कई बार गुजर चुकी हैं। एक साल पहले एक पूर्व (तब वर्तमान) मुख्यमंत्री की चप्पल को लेकर खूब चर्चा हुई थी। नासमझ मीडिया वालों ने मामूली सी बात का बतंगड़ बना दिया था। बात केवल इतनी थी कि विधायकों का विधानसभा में मजमा लगा हुआ था। संयोग से तत्कालीन मुख्यमंत्री ने देखा कि उस विधायक की चप्पल मुख्यमंत्री के चप्पल से ज्यादा चमक रही थी। सो, उन्होंने इशारे से पूछा थी कि वह किस कंपनी की पॉलिस यूज करता है। लेकिन विधानसभा में मच रहे शोर-शराबे की वजह से वह (अब भूतपूर्व) मुख्यमंत्री की बात सुन नहीं पाया था। मजबूर होकर मुख्यमंत्री जी को चप्पल दिखाकर दो-तीन बार यह बात सांकेतिक भाषा में पूछनी पड़ी। लेकिन उस नासमझ विधायक को क्या कहा जाए कि उसने तड़ से मुख्यमंत्री जी पर आरोप म़ दिया कि वे उसे चप्पल दिखा रही थीं। मीडिया भी पूर्वाग्रह के चलते मामले को तूल देता रहा। आखिरकार मुख्यमंत्री जी को कहना पड़ा, 'चल तू ऐसा समझता है, तो ऐसा ही सही। जा जो कुछ कर सकता है, तो कर ले। देखूं, तेरी पार्टी में क्या बिगाड़ लेती है।` पाठकों, सच बताऊं। वह विधायक उस समय तो कुछ नहीं कर पाया था, लेकिन बाद में उसकी पार्टी ने बहुत कुछ कर दिखाया। मुख्यमंत्री को चुनाव में वह धोबिया पाट मारा कि वह चारों खाने चित हो गईं। अब बेचारी विपक्ष में बैठकर अपने चप्पल को चमकाने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, वह चमकती ही नहीं है। शायद इसी को कहते हैं करम का लेखा। जूते का महत्व सिर्फ राजनीति में ही नहीं, सामाजिक कार्यों में भी है। शादी-विवाह के समय दूल्हे से भी ज्यादा कीमती जूता ही होता है। दूल्हा अपनी इज्जत की तरह अपने जूते को छिपाता घूमता है और उसकी नई नवेली सालियां हाथ धोकर जूते के पीछे पड़ी रहती हैं। अगर खुदा न खास्ता, सालियों के हाथ में जूता लग गया, तो फिर शुरू हो जाता है उच्च स्वर में गायन 'पैसे ले लो, जूते दे दो।` उधर, दोनों समधियों में लेन-देन का मामला ठीकठाक निपट गया, तो समझो गनीमत है। वरना अगर बात बिगड़ जाए, तो जूता चलने में देर ही कितनी लगती है। पुलिस वाले भी हर बात में कानून को जूते की नोक पर रखते हैं। अभी कल ही एक पुलिस वाले ने चौराहे पर एक रिक्शेवाले को रोककर पहले तो खूब गालियां सुनाई, दो-चार डंडे लगाए और दिहाड़ी छीनने के बाद यह कहते हुए भगा दिया, 'जा! तू जाकर शिकायत कर दे अपने बाप से। जानता नहीं, कानून को में जूते की नोक पर रखता हूं। ज्यादा चबड़-चबड़ किया, तो तुझे और तेरे बाप को लगाऊंगा चार जूते कि तबीयत हरी हो जाएगी।` बेचारा रिक्शा वाला फटे जूते की तरह अपना मुंह लेकर बड़बड़ाता हुआ अपने रास्ते चला गया। छबीली भी जब मुझसे खफा होती है, तो बड़े प्यार से कहती है, 'तुम जैसे निखट्टू से प्यार करे मेरी जूती।

Tuesday, October 11, 2011

दुनिया के रिश्वतखोरों! एक हो


-अशोक मिश्र

काफी दिनों बाद उस्ताद गुनाहगार से भेट नहीं हुई थी। सोचा कि उनसे मुलाकात कर लिया जाए। सो, एक दिन उनके गरीबखाने में पहुंच गया। घर पहुंचने पर देखा कि गुनाहगार के चारों ओर कुछ कागज बिखरे पड़े हैं। वे काम में इतने व्यस्त थे कि मेरे आने की उन्हें भनक तक नहीं लगी। एक कागज उठाकर पहले तो वे कुछ देर तक उसे घूरते रहे और फिर एक कागज पर कुछ नोट करते हुए बोले, ‘दिल्ली में पेट्रोल के दाम में बढ़ोतरी हुई चार रुपये छियालिस पैसे, मुंबई में सात रुपये बत्तीस पैसे। इसका मतलब है कि मुंबई में खसरा-खतौनी की नकल मांगने पर बिटामिन ‘आर’ की कीमत पैंतीस रुपये से बढ़कर पैंसठ रुपये होगी और दिल्ली में बिटामिन ‘आर’ की कीमत पचास रुपये होगी।’

मैं चौंक गया। मन ही मन सोचने लगा कि यह मुई बिटामिन ‘आर’ क्या बला है? मुझसे रहा नहीं गया। मैंने गुनाहगार को दंडवत प्रणाम करते हुए कहा, ‘उस्ताद! यह बिटामिन ‘आर’ क्या है?’ मुझे देखकर गुनाहगार चौंके और हड़बड़ी में हाथ का कागज छिपाने लगे। मुझसे पूछा, ‘तुम कब आए?’ मैंने हंसते हुए कहा, ‘जब से आप पेट्रोल के दाम और बिटामिन ‘आर’ को किसी नामाकूल फार्मूले पर कस रहे थे। मेरी बात सुनकर उन्होंने गहरी सांस ली और मुझे बैठने का इशारा किया और फिर बोले, ‘बात यह है कि जब-जब पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ते हैं, सभी जरूरी चीजों के दाम बढ़ जाते हैं। ऐसे में ‘सुविधा शुल्क’ यानी बिटामिन ‘आर’ की कीमत भी बढ़ जाता है। देश भर के आफिसों में बाकायदा एक सूची सबको दे दी जाती है कि आज से फलां काम के इतने और फलां काम के इतने रुपये लिए जाएं। हर बार यह सूची बनाने का जिम्मा मुझे दे दिया जाता है। कल से जुटा पड़ा हूं, लेकिन अभी तक सूची बन नहीं पाई है।’

मैंने आश्चर्य जताते हुए कहा, ‘बिटामिन आर मतलब रिश्वत?’ गुनाहगार ने चेहरे पर कोई भाव लाए बिना कहा, ‘रिश्वत होगी तुम्हारे लिए, हम सबके लिए तो बिटामिन ‘आर’ है। बिटामिन आर का सेवन करते ही कर्मचारी में अपार ऊर्जा का संचार होता है, वह आलस्य किए बिना काम झटपट निबटा देता है, अधिकारी भी बिटामिन आर की झलक पाते ही अपना सारा जरूरी काम-धाम छोड़कर उस फाइल पर चिड़िया बिठा देते हैं। जिस बिटामिन ‘आर’...तुम्हारे शब्दों में कहें, तो रिश्वतखोरी को अन्ना दादा जैसे लोग इतनी हिकारत की नजर से देखते हैं, अगर इसका प्रचलन हिंदुस्तान में न होता, तो उसका इतना विकास न हुआ होता। भ्रष्टाचार की बदौलत जो सड़क पांच-छह महीने में बन जाती है, उसी सड़क की फाइल रिश्वत न मिलने पर सालों अटकी रहती।’

‘तो क्या रिश्वतखोरी इस देश के भाग्य में हमेशा के लिए लिख गया है?’ यह सवाल पूछते समय मैं काफी निराश हो गया था। ‘बिल्कुल...जब तक सरकारी और गैर सरकारी आफिसों में बिटामिन ‘आर’ खिलाकर कर्मचारियों को मोटा किया जाता रहेगा, तब तक देश का विकास द्रुत गति से होता रहेगा। मैं तो कहता हूं कि सरकार और ट्रेड यूनियनों को नया नारा गढ़ना चाहिए, दुनिया के रिश्वतखोरों! एक हों।’ यह कहकर उस्ताद गुनाहगार ने अपना कागज समेटा और चाय बनाने के लिए किचन में चले गए। चाय पीने के बाद मैं भी अपने घर लौट आया।

कहो फलाने अब का होई

-अशोक मिश्र

सुबह मार्निंग वॉक को निकला, तो सोचा कि उस्ताद मुजरिम से मिल लिया जाए। सो, वॉक से लौटते समय उनके ‘गरीबखाने’ पर पहुंच गया। मुझे देखते ही मुजरिम प्रसन्न हो गए और बोले, ‘आओ...आओ..बड़े मौके पर आए। तुम्हें अभी थोड़ी देर पहले ही याद कर रहा था। बात दरअसल यह है कि कविता की कुछ पंक्तियों का अर्थ मेरी समझ में नहीं आ रहा है। तुम काव्यप्रेमी हो। इसलिए संभव है कि तुम उसका अर्थ बता सको। कविता की लाइनें हैं ‘कहो फलाने अब का होई...। अब तौ छूटल घाट धोबिनिया, पटक-पटक कै धोई। कहो फलाने अब का होई...।’

उस्ताद मुजरिम की बात सुनकर पलभर को मेरा दिमाग भक्क से उड़ गया। कुछ देर तक सोचा-विचारा। फिर मैंने कहा, ‘उस्ताद! ये पंक्तियां किस कवि की है, यह तो मैं नहीं बता सकता। मेरा अंदाजा है कि यह उत्तर प्रदेश के किसी पुराने लिखाड़ कवि की है। हां, इन पंक्तियों के अर्थ संदर्भ बदल जाने पर बदल जाते हैं। अगर हम इसे कबीर के रहस्यवादी दर्शन से जोड़ें, तो इसका तात्पर्य यह है कि इस धरती पर पापाचार और अनैतिक कृत्यों को देख-सुनकर एक आत्मा बिलबिला उठती है और वह दूसरी आत्मा से कहती है कि हे भाई! भगवान ने हमें इस धरती पर लोगों का भला करने को भेजा था, वह तो हम माया, मोह, भाई-भतीजावाद के चंगुल में फंसकर भूल गए। अब आखिरी समय आ पहुंचा है, अब धोबिन रूपी परमात्मा पाप-पुण्य रूपी घाट पर हमें पटक-पटक कर धोएगी और हमें भी चौसठ करोड़ योनियों में भटकने के लिए भेज देगी। वह आत्मा भयातुर होकर कहती है कि हे भाई! अब हम लोगों का क्या होगा।’

इतना कहकर मैं सांस लेने के लिए रुका और फिर कहना शुरू किया, ‘इसके दूसरे अर्थ में पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था का सार छिपा है। इन पंक्तियों की गहन मीमांसा करने पर यह अर्थ निकलता है कि एक सांसद या मंत्री दूसरे सांसद या मंत्री से कहता है कि हे भाई! हम लोगों का क्या हश्र होगा। इस बार चुनाव आने पर जनता रूपी धोबिन पोलिंग बूथ रूपी घाट पर हमारे पक्ष में मतदान न करके हमें पटक देगी और आज जो नेता विपक्ष में बैठे हैं, वे हम सब लोगों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच आयोग गठित कर हमारे कृत्यों को धो देंगे।’ इतना कहकर मैं सांस लेने के लिए रुका।

मेरी बात सुनकर मुजरिम मंद-मंद मुस्कुराते रहे और फिर बोले, ‘तुम जैसा योग्य शिष्य पाकर मैं धन्य हो गया। इन पंक्तियों की तुमने जो सुंदर व्याख्या की है, वह काव्य के बड़े-बड़े महारथियों के लिए भी दुरूह हो सकता था। मैं तुम्हारी व्याख्या से संतुष्ट हूं।’ इतना कहकर उस्ताद मुजरिम ने मुझे चाय बनाने का निर्देश दिया और सोफे पर बैठकर खर्राटे लेने लगे। चाय बनाने के निर्देश पर कुढ़ता हुआ मैं किचन में चला गया।

Thursday, September 1, 2011

अभी सिर्फ नींद टूटी है, जागना बाकी है


-अशोक मिश्र

आज पूरे देश में चारों तरफ बस अन्ना ही अन्ना छाए हुए हैं। जिसे देखो वही, अन्ना हजारे और उनके जनसरोकारों को लेकर किए गए आंदोलन पर न केवल चर्चा कर रहा है, बल्कि अपनी समझ के मुताबिक राय भी व्यक्त कर रहा है। इसका कारण है। कारण यह है कि करोड़ों लोग इस आंदोलन से किसी न किसी रूप में जुड़े थे। कोई अपना काम-काज छोड़कर दिल्ली के रामलीला मैदान पहुंचा था, तो कोई अपनी ही गली में सिर्फ कैंडल जलाकर रह गया। कुछ लोग फैशन के तहत अन्ना से जुड़े, तो कोई सचमुच चाहता था कि अन्ना हजारे सफल हों और देश से भ्रष्टाचार का खात्मा होगा। इस जन जुड़ाव के चलते अन्ना हजारे पिछले कुछ दिनों में जनांदोलन के एक प्रतीक के रूप में उभर कर सबके सामने आए। यह जन जुड़ाव ही था कि सरकार को मजबूर होकर अवकाश के दिन संसद आहूत करके ध्वनिमत से तीनों प्रस्तावों को पारित करना पड़ा। लोकतंत्र में ‘लोक’ की शक्ति का एहसास पहली बार महसूस हुआ। इससे पहले तो पूरा ‘इंडिया’ सुशुप्तावस्था में था। अन्ना हजारे के आंदोलन ने हमें ठीक उसी तरह झकझोर कर आंखें खोलने पर मजबूर कर दिया, जैसे कोई शरारती बच्चा किसी बात पर नाराज होकर शतरंज की बिछी बिसात को झकझोर कर रख दे और शतरंज खेलने वाले अकबका कर रह जाएं। अन्ना के आंदोलन से पहले हमारे समाज की मानसिकता ‘मूंदहु आंख कतहु कुछ नाहीं’ वाली थी। हम सबके अंतर में एक बात घर कर गई थी कि हम लाख कोशिश कर लें, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई जैसी अन्य समस्याओं को दूर कर पाना हमारे वश में नहीं हैं। इसके लिए हम अपने को दोषी मानने की बजाय सभी जिम्मेदारियों को केंद्र या राज्य सरकारों, उनके प्रशासनिक अमलों पर थोपकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते थे। हम यह मान बैठे थे कि समाज को स्वस्थ और सुरक्षित रखना सिर्फ सरकार और सरकारी नुमाइंदों का काम है, लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन ने इस मिथक को तोड़ा। कहने का मतलब यह है कि इस आंदोलन से समाज की नींद जरूर टूटी है, लेकिन अभी पूरी तरह जागना बाकी है।

उन्होंने जेपी के बाद सबसे बड़ा आंदोलन खड़ा करके यह समझाया कि यदि साध्य और साधन जनसरोकारों से जुड़ते हों, तो सरकार को झुकने को बाध्य किया जा सकता है। जरूरत तो उस जड़ता को तोड़ने की है, जो सांप बनकर हमारे मन और समाज में कुंडली मारकर बैठा है। और अन्ना हजारे ने यही किया। यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है।

संसद में उनकी तीनों मांगों, नागरिक संहिता, केंद्रीय और राज्य कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाने और सभी राज्यों में लोकायुक्त की स्थापना पर प्रस्ताव पारित हो चुका है। अब उस पर स्थायी समिति विचार करेगी। इसके बाद ही यह कानून के रूप में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सशक्त हथियार बन सकेगा। दरअसल, महत्वपूर्ण यह नहीं है कि संसद में कौन-सा बिल पेश किया गया, भ्रष्टाचार के खिलाफ संसद में कौन-सा कानून पारित किया गया। सबसे अहम वह व्यवस्था है, जो भ्रष्टाचार को जन्म देती है। भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली व्यवस्था के ध्वंस और उन्मूलन की बात की जानी चााहिए। जब तक हम ऐसी सामाजिक व्यवस्था को नहीं गढ़ लेते, जो भ्रष्टाचार को प्रश्रय न दे, तब तक अन्ना हजारे जैसे लोग सिर्फ आंदोलन करते रहेंगे, गरीबी, बेकारी, महंगाई और भ्रष्टाचार को रोकने की कवायद के नाम पर कुछ तमाशे होते रहेंगे और देश के चंद मुट्ठी भर लोग करोड़ों जनता के श्रम से पैदा की गई अतिरिक्त पूंजी (मुनाफे) का उपभोग करते रहेंगे, शोषण और दोहन के साथ-साथ भ्रष्टाचार का तांडव होता रहेगा। लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि अन्ना की लड़ाई बेकार गई। अन्ना के माध्यम से छेड़े गए इस जनांदोलन का सबसे सार्थक पहलू यह है कि अब हम लड़ना सीख रहे हैं। बस जरूरत इस बात की है कि इस लड़ने की कला का उपयोग उस व्यवस्था के खिलाफ करना है, जो भ्रष्टाचार की गंगोत्री है। भ्रष्टाचार की गंगोत्री का उद्गम कहां है, इसकी तलाश अभी बाकी है। वैसे भी अन्ना हजारे के अनशन तोड़ने और संसद में तीनों प्रस्ताव पारित होने के बाद भी कुछ सवाल हैं जिनका उत्तर मिलना अभी बाकी है। सबसे पहले तो यह तय होना शेष है कि जब लोकपाल विधेयक कानून बन जाएगा, तो उसका स्वरूप क्या होगा? लोकपाल नामक संस्था किसके प्रति जवाबदेह होगी? उसको संचालित करने के लिए पैसा कहां से आएगा? लोकपाल, संसद और न्यायालय के बीच तारत्मय कैसे स्थापित होगा? थोड़ी देर के लिए यदि मान लिया जाए कि लोकपाल संस्था का ही कोई अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाए, तो फिर उसके खिलाफ कैसी और किस हद तक कार्रवाई होगी? इस जैसे कुछ और भी सवाल हैं जिनका जवाब मिलने में समय लगेगा।

Sunday, August 28, 2011

स्वर्ग में भर्ती

-अशोक मिश्र
मेरी जगह आप भी होते, तो चौंक गए होते। वजह यह थी कि मेरे सामने एक अनिंद्य ‘सुंदरी’ खड़ी मुस्कुरा रही थी। मैंने पहले समझा कि कोई भूतनी मुझ पर सवार होने आई है। यह सोचते ही मेरे पूरे शरीर में भय का संचार होने लगा। बचपन में जब भी किसी भूत या भूतनी से मुठभेड़ हो जाती थी, तो हम लोग एकमात्र ब्रह्मास्त्र ‘हनुमान चालीसा’ का जोर-जोर से पाठ शुरू कर देते थे। चूंकि मेनका एकाएक मेरे सामने आ खड़ी हुई थी, इसलिए मैं भय और हड़बड़ी में ‘हनुमान चालीसा’ ही भूल गया। लाख सोचा, लेकिन मौके पर याद ही नहीं आया। अब क्या करूं? तभी मुझे एक उपाय सूझा। जब रत्नावली की एक घुड़की सुनकर तुलसी दास जैसे साधारण गृहस्थ महाकवि हो सकते हैं, ‘रामचरित मानस’ जैसा महाकाव्य रच सकते हैं, तो क्या मैं अपनी घरैतिन के नाम का जाप करके भूतनी को नहीं भगा सकता। बस फिर क्या था? मैं आंखें बंद और हाथ जोड़कर जोर-जोर से घरैतिन के नाम का जाप करने लगा। लेकिन यह क्या! वह ‘सुंदरी’भागने की जगह खड़ी मंद-मंद मुस्कुराती रही।
उसने मेरे कंधे को थपथपाते हुए कहा, ‘चलिए, आपको ‘यमराज सर’ ने बुलाया है।’
मैंने विनीत स्वर में कहा, ‘देवि! आप कौन हैं? मुझे यमराज सर ने क्यों बुलाया है?’
सुंदरी ने किंचित रोष भरे स्वर में कहा, ‘ताज्जुब है, तुम मुझे नहीं पहचानते? मैं ‘सनातन सुंदरी’ मेनका हूं। यमराज सर ने तत्काल तुम्हें तलब किया है। क्यों बुलाया है, यह तुम उन्हीं से पूछना।’ ‘मरता क्या न करता’ वाली दशा में मुझे यमराज सर के हुजूर में पेश होना पड़ा। यमराज आफिस के बाहर कुछ पुण्यात्माएं खड़ी ‘जिंदाबाद-मुर्दाबाद’ के नारे लगा रही थीं। एक पुण्यात्मा ने मेनका को देखते ही चीखकर कहा, ‘जवानी से लेकर बूढ़ापे तक संयमित जीवन जीने, दान-पुण्य करके भी हमें स्वर्ग में क्या मिला। वही लाखों साल की बूढ़ी रंभाएं, मेनकाएं, उर्वशियां। अरे हमने विभिन्न मंदिरों और धार्मिक स्थलों पर लाखों-करोड़ों रुपये के सोने-चांदी इसलिए नहीं दान किए थे कि जब मैं स्वर्ग में आऊं, तो राजा मनु से लेकर मनमोहन सिंह के शासनकाल तक जीवित रहने वाली अप्सराएं हमारा स्वागत करें। वैसे भी ये अप्सराएं देवों, दानवों, असुरों और ऋषियों की सेवा करने से फुरसत पाएं, तो हमारा मनोरंजन करें। सत्ता और बाहुबल की हनक के बल पर देवों और असुरों ने इन अप्सराओं को हथिया लिया है। अगर जल्दी ही नई अप्सराओं की भर्ती नहीं हुई, तो हम स्वर्ग में हड़ताल कर देंगे। स्वर्ग सरकार की ईंट से ईंट बजा देंगे।’ मुझे लगा कि यह पुण्यात्मा पृथ्वी पर जरूर नेता रही होगी।
मेनका ने मुझसे कहा था, ‘ये बागी हैं, इनकी बातें मत सुनो।’ तब तक यमराज का दफ्तर आ चुका था। मुझे देखते ही यमराज ने कहा, ‘आओ! तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था। रास्ते में तुमने देख ही लिया होगा कि यहां हड़ताल के आसार हैं। मामला क्या है? यह भी तुम्हारे संज्ञान में आ चुका होगा। अत: हमने फैसला किया है कि मर्त्यलोक की कुछ सुंदरियों को अप्सरा नियुक्त किया जाए। अप्सराओं का चयन एक कमेटी करेगी जिसके तुम अध्यक्ष मनोनीत किए गए हो। हम पर पक्षपात का आरोप न लगे, इसलिए तुम्हें बुलाकर अध्यक्ष बनाना पड़ा।’
यमराज की बात सुनकर मैं हक्की-बक्की भूल गया। मैंने कांपते स्वर में पूछा, ‘सर! तो इन सनातन सुंदरियों का क्या होगा?’ यमराज मेरे सामने पहली बार मुस्कुराये, ‘मेनका ने वीआरएस के तहत स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए एप्लीकेशन दिया है। रंभा पहले से ही नोटिस पीरियड में चल रही है। अगले हफ्ते तक नोटिस पीरियड खत्म हो जाएगा। उसे इंद्र सर ने अपनी विशेष सेवा में ले लिया है। रिटारमेंट के बाद उसकी तनख्वाह इंद्र सर देंगे। उर्वशी को कोई न कोई आरोप लगाकर सेवा से मुक्त कर दिया जाएगा। उसकी तैयारी कर ली गई है। बस, यहां का माहौल थोड़ा ठीक हो जाए।’‘’ यमराज द्वारा महत्व दिए जाने से मैं गदगद हो गया। मैंने हाथ जोड़कर विनीत भाव से कहा, ‘सर...मुझे क्या करना होगा?’
यमराज कुछ कहते इससे पहले मेनका बोल पड़ी, ‘मर्त्यलोक की कुछ सुंदरियां बुलाई गई हैं, आप चित्रगुप्त जी, नारद जी और वरुण देव जी के साथ बैठकर उन सुंदरियों में से योग्य पात्रों का सलेक्शन कर लें।’ इतना कहकर मेनका ने चलने का इशारा किया। मैं मेनका के साथ एक बड़े से हाल में पहुंचा। वहां रूस, अमेरिका, चीन, जापान आदि देशों की विश्वविख्यात रूप गर्विता सुंदरियां बैठी अपनी मधु मुस्कान बिखेरती वातावरण को नैसर्गिक सुषमा प्रदान कर रही थीं। मैंने चारों तरफ इस उम्मीद से नजर दौड़ाई कि भारत की कौन-कौन सी सुंदरियां बुलाई गई हैं। मैंने सोचा कि जिन सुंदिरयों ने मुझे भाव नहीं दिया है, कभी गले नहीं लगाया, आज उनका चयन कर उन पर एक एहसान लाद दूंगा, ताकि जब मैं स्वर्ग आऊं, तो वे मेरी विशेष सेवा करें। लेकिन यह क्या? भारत की एक भी सुंदरी उनमें नहीं थी। मैंने मेनका से पूछा, ‘भारत से सुंदरियां नहीं बुलाई गईं?’
मेनका ने इधर उधर देखा और फिर फुसफुसाती हुई बोली, ‘वो क्या है सर...पिछली बार जब भी भर्ती हुई थी, तो सारी अप्सराएं देवभूमि भारत से थीं। स्वर्ग के देव, दानव भारतीय सुंदरियों की सेवा लेते-लेते ऊब चुके हैं। सो, इस बार अमेरिका, चीन, जापान और रूस की सुंदरियों को मौका देने पर विचार किया गया है। यमराज और इंद्र सर भी यही चाहते हैं।’
यह सुनते ही मुझे ताव आ गया। मैं चिल्लाया, ‘यह तो भारत का अपमान है। वहां एक से बढ़कर एक सुंदरियां मौजूद हैं। इन सुंदरियों के आगे तो मेनका, रंभा, उर्वशी जैसी अप्सराएं पानी भरती नजर आएं। राखी सावंत, मल्लिका सहरावत, मलाइका अरोड़ा खान को बुलाओ। उनके बिना तो यह सलेक्शन ही पूरा नहीं होगा। मेरे सामने से हटो। मैं जाकर यमराज से पूछता हूं कि यह भेदभाव उन्होंने क्यों किया।’ इतना कहकर मैंने मेनका को ढकेलकर आगे बढ़ना चाहा। लेकिन यह क्या! मुझे धप्प की आवाज के साथ किसी के गिरने का एहसास हुआ। मैं चौंक गया। मैंने देखा कि मैं अपने बिस्तर पर हूं और घरैतिन नीचे गिरी चिल्ला रही थीं, ‘हाय राम...मर गई।’ अब आप समझ सकते हैं कि हुआ क्या था?

Tuesday, August 2, 2011

स्लटवॉक यानी मार्च टुवार्ड्स फ्रीडम

-अशोक मिश्र
छबीली को देखकर मेरी आंखें फटी रह गईं। क्या गजब का लुक था! उसने क्या पहन रखा था, यह तो मैं नहीं जानता। या यों कहें कि औरतों के परिधानों की जानकारी के मामले में मैं बचपन से ही घोंचू रहा हूं। लेकिन उसने जो कुछ भी पहन रखा था, वह मल्लिका सहरावत, राखी सावंत या मलाइका अरोड़ा खान जैसी पटाखा हीरोइनें भी शायद पहनने से इनकार कर दें। उसकी वेशभूषा देखकर मेरी आंखें आवारगी पर उतारू हो गईं। ये नामुराद आंखें उसके शरीर पर कहां-कहां भटक रही थीं, अब आपसे क्या बताऊं। यदि मेरी इकलौती घरैतिन इस मौके पर साथ होती, तो यकीन मानिए, आंखों की आवारगी के चलते मैं बीच चौराहे पर ही बीवी से पिट चुका होता।

मैंने उसे घूरते हुए पूछा, ‘शॉपिंग करने जा रही हो?’

‘नहीं...‘स्लटवॉक’ में शामिल होने जा रही हूं। तुम जैसे बेशर्मों के खिलाफ मोर्चा निकालने। तुम्हारी बेशर्मी तो मैं पिछले बीस साल से ही देख रही हूं...इस वक्त भी तुम उसी तरह दीदे फाड़-फाड़कर मुझे घूर रहे हो, जैसे पांच दिन से भूखा भिखारी हलवाई की दुकान में कड़ाही से निकल रही गर्मागरम कचौड़ी को देखता है।’ इतना कहकर छबीली बड़ी अदा से मुस्कुराई। छबीली की बात सुनकर मैं चौंक गया। अब उसके दशहरे के हाथी और राखी सांवत की तरह सज-धजकर निकलने का अर्थ समझ में आ गया था।

मैंने किसी रास्ता भूले पथिक की तरह अकबका कर पूछा, ‘क्या...स्लटवॉक? यह कौन-सी वॉक है? अब तक मार्निंग वॉक, इवनिंग वॉक, नाइट वॉक तो सुना था, लेकिन यह स्लटवॉक किस खेत की मूली है। मैं नहीं जानता!’ छबीली के सामने मैंने अपना अज्ञान प्रकट किया। मेरी अज्ञानता पर छबीली ठहाका लगाकर हंस पड़ी। उसने आंखें मटकाते हुए कहा, ‘स्लटवॉक यानी कि हम औरतों का तुम बेशर्म मर्दों के खिलाफ सविनय अवज्ञा आंदोलन। जस्ट लाइक मार्च टुवार्ड्स फ्रीडम। अभी तो हम सिर्फ स्लटवॉक निकालने जा रहे हैं। तुम जैसे बेशर्मों को पहले बातों से समझाएंगे। यदि नहीं माने, तो हमारी लातें किस दिन काम आएंगी। हालांकि हम यह भी जानते हैं कि तुम जैसे बेशर्मों की संख्या इस दुनिया में काफी है। सबको ‘शर्मदार’ बनाने में समय लगेगा। इसलिए हम जब तक अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर लेते, तब तक हर साल इसी दिन हम ‘स्लटवॉक डे’ मनाएंगे।’

छबीली की बात सुनकर मैं गंभीर हो गया। चेहरे पर बत्तीस इंची परमहंसी मुस्कान चिपकाते हुए कहा, ‘इसके लिए स्लट बनना क्या जरूरी है? कम से कम कपड़े पहनकर तुम क्या साबित करना चाहती हो कि यदि तुम अपने पर उतारू हो गईं, तो हम मर्दों से ज्यादा बेशर्म हो सकती हो? और फिर ऐसा करने से क्या हम ‘हयादार’ हो जाएंगे?’

छबीली ने मेरी बात काटते हुए कहा, ‘देखो। यह बहुत पुरानी कहावत है कि लोहा लोहे को काटता है। तुम कलमघसीटू, बुद्धिबेचू पत्रकार हो। इतना तो तुम समझते ही होगे कि दुनिया भर में सभी लड़कियों को तुम मर्द घूरते रहते हो, लेकिन क्या अब तक कभी किसी अखबार या चैनल पर राखी सावंत, मल्लिका सहरावत या मलाइका अरोड़ा खान जैसी लड़कियों को छेड़ने की खबर आई है? आखिर राखी सावंत जैसी लड़कियां भरे बाजार में भी क्यों नहीं छेड़ी जाती? इसका कारण कभी जानने का प्रयास किया है?’

छबीली की बात सुनकर वाकई मेरी बोलती बंद हो गई। मैं कारण सोचने पर मजबूर हो गया, लेकिन लाख बुद्धि भिड़ाने पर कारण मेरी समझ में नहीं आया। मैंने हथियार डालते हुए कहा, ‘माई डियर छबीली! तुम्हीं बता दो कि आखिर राखी को छेड़ने की हिम्मत हम मर्द क्यों नहीं जुटा पाते।’ मैंने अपने चेहरे पर बेचारगी ओढ़ ली। मेरी बात पर छबीली विजयी भाव से मुस्कुराई और चौराहे पर आते-जाते उसे घूर-घूर कर देखते मर्दों पर हेयदृष्टि डालने के बाद बोली, ‘क्योंकि राखी सावंत या मल्लिका बहन तुम लोगों से ज्यादा बेशर्म है। वह जब कम कपड़े पहनकर निकलती है, तुम्हारे चेहरे पर मर्दानगी का भाव जागने की बजाय पसीना छूटने लगता है। जब वह किसी मंच से तुम्हें नामर्द कह देती है, तो तुम आत्महत्या कर लेते हो। अब हम समझ गई हैं कि ईंट का जवाब हाथ जोड़ना नहीं, बल्कि पत्थर मारना है। अब आज से तुम लोग जितनी बेशर्मी दिखाओगे, उससे ज्यादा बेशर्म बनकर हम दिखाएंगी।’

छबीली की बात सुनकर वाकई मुझे पसीना आने लगा। मुझे लगा कि ज्यादा देर उसके आसपास खड़ा रहा, तो मेरे मोहल्ले का कोई न कोई व्यक्ति हम दोनों को बातचीत करते देख ही लेगा। अगर खुदा न खास्ता यह बात मेरी घरैतिन को बता चल गई, तो घर लौटने पर मेरा ‘स्लटवॉक’ निश्चित है। मेरे वाले ‘स्लटवॉक’ का अर्थ तो आप समझ ही गए होंगे।

Monday, June 27, 2011

स्वामी जी के राहु-केतु

-अशोक मिश्र

आज सुबह चाय पिलाने के बाद बेगम ने हाथ में थैला और नेताओं के करेक्टर की तरह सड़े-गले नोट थमाकर फरमान जारी किया, 'ऊंट की तरह गले तक चाय भर चुके हों, तो घर का एक काम कर दीजिए। बाजार से सब्जी खरीद लाइए।Ó बेगम की व्यंग्यात्मक लहजे में कही गई बात चुभ गई। मैंने सचमुच ऊंट की तरह गर्दन ऊंची की और कहा, 'बेगम...जरा सुर में बात किया करो, तुम्हारा पति हूं। अगर तुम्हारा सुर ज्यादा ही बेसुरा हुआ, तो समझो तुम्हारी फाइल बाबा रामदेव की तरह निपटते देर नहीं लगेगी। अभी इतना भी बूढ़ा नहीं हुआ हूं कि दूसरी न मिल सके।Ó

बेगम ने मुझे बाहर की ओर ढकेलते हुए कहा, 'जाइए...जाइए...दिग्गी राजा की तरह बहकिए नहीं। जल्दी से सब्जी लेकर आइए, नहीं तो सिर्फ दाल-रोटी खाकर काम चलाना पड़ेगा।Ó मैंने सोचा कि कौन इसके मुंह लगे। सो, थैला और नोट लेकर बाहर निकल आया।

घर से जैसे ही बाहर निकला, किसी चमचमाती नई बीडब्ल्यूएम की तरह आगे आकर खड़ी हो गई। मैं छबीली को कई बार समझा चुका हूं कि तू भगवान भास्कर की तरह मुझे दर्शन मत दिया कर। लेकिन वह है कि किसी न किसी बहाने मुझसे टकरा ही जाती है। एक तो मेरा मूड पहले से ही बिगड़ा हुआ था। मैं उसे देखते ही भड़क उठा, 'देख छबीली...तुझे देखते ही पता नहीं क्यों मेरा दिल सत्याग्रह करने पर आमादा हो जाता है, दिमाग अनशन पर बैठ जाता है। इसलिए मुझ पर इतनी दया कर कि इस तरह दशहरे का हाथी बनकर मेरे सामने न आया कर।Ó
छबीली मेरी बात सुनकर मुस्कुराई। बोली, 'मेरी मानो, तो अपनी कुंडली लेकर किसी ज्योतिषी के पास चले जाइए। आपका कल्याण हो जाएगा। मुझे लगता है कि आपके ग्रह ठीक नहीं चल रहे हैं।Ó

मैंने तल्ख स्वर में कहा, 'पहले तो तू अपने ग्रहों को संभाल। कभी इनसे नैन मटक्का करते हैं, तो कभी उनसे। तेरी तो वही हालत है कि बुढिय़ा औरों को सीख दे और अपनी खटिया भीतर ले।Ó

मेरी बात सुनकर भी छबीली नहीं भड़की। वह मुस्कुराती हुई बोली, 'आप ग्रहों को कम मत समझिए। अपने योग गुरु स्वामी जी को ही लीजिए। उनकी कुंडली के सातवें घर में बैठा चंद्रमा तीसरे ग्रह में बैठे गुरु से टांका भिड़ा बैठा, तो उन्हें वो करना पड़ा जिसकी उन्होंने कल्पना नहीं की। बेचारे स्वामी जी को आधी रात में कुर्ता-सलवार पहनकर भागना पड़ा। शुक्र और राहु ने पल्टासन किया, तो बेचारे हरिद्वार में बिना खाये-पिये अनशन पर बैठे हैं। सरकार उनकी सुन नहीं रही है।Ó

छबीली की बात सुनकर मुझे हंसी आ गई। घरैतिन से हुई 'किच-किचÓ और सब्जी लाने की बात भूलकर उससे बतियाने लगा। मैंने अपने चेहरे पर बत्तीस इंची मुस्कान बिखेरते हुए कहा, 'और क्या गुल खिलाते हैं तुम्हारे ये ग्रह?Ó

मेरी बात सुनकर छबीली उत्साह में आ गई। वह बोली, 'मेरे ग्रह...तुम मेरे ग्रहों की बात छोड़ो। उनकी चाल तो शुरू से ही उलटी रही है। मुझे तो चिंता स्वामी जी के ग्रहों को लेकर हो रही है। बेचारे उधर अनशन पर बैठे हैं और इधर उनके ग्रह ही उनकी भट्ठी बुझाने पर तुले हुए हैं। अब देखिए न! अगर उनके नवें घर में बैठा शनि दूसरे घर में बैठे मंगल एक दूसरे से न टकराते, तो स्वामी जी काहे को रामलीला मैदान में अनशनलीला शुरू करते। बेचारे अनशन पर बैठे इसलिए थे कि वे भी अन्ना हजारे की तरह दूसरे गांधी नहीं, तो तीसरे गांधी बन ही जाएंगे। लोग उनकी जय-जयकार करेंगे। जब वे राजनीतिक पार्टी बनाकर चुनाव लडेंगे, तो देश की जनता उन्हें सिर आंखों पर बिठाएगी। उनके मन में उपजी लालसा और अहंकार शनि के नवें घर में बैठने से ही है। अगर यह किसी तरह कूद कर चौथे घर में बैठ जाता, तो फिर समझो कि स्वामी जी के बेड़ा पार हो जाता। लेकिन अफसोस की शनि नवें घर में किसी ढीठ किरायेदार की तरह जमकर बैठा हुआ है। अब वह पांचवें घर में बुध के साथ मिलकर उनकी कंपनियों की जांच करा रहा है। उनकी ढंकी छिपी इज्जत का फालूदा बनाकर जनता में बांटने की फिराक में है।Ó इतना कहकर छबीली सांस लेने के लिए रुकी। मैंने उससे कहा, 'अगर स्वामी जी के ग्रह इतने ही कुढंगी चाल चल रहे थे, तो अब तक वे इतने फेमस कैसे हो गए।Ó

'उन्हें फेमस तो होना ही था। सच बताऊं। यह उस समय सीधे चल रहे ग्रहों का ही कमाल था कि स्वामी जी खाये-मुटाए तोंदियल लोगों को योग के नाम पर कसरत सिखाकर खूब चांदी कूट रहे थे। ये खाए-अघाए लोग भी योग के नाम पर रत्ती भर चर्बी घटाने के लिए योगगुरु..योगगुरु के नाम की माला जपते फिर रहे थे। स्वामी जी के किसी शिविर में कोई नंगा-भूखा गया हो, तो बताइए। अरे, स्वामी के कुंडली के सातवें घर में पिछले कई दशक से घर जवांई की तरह रहने वाला केतु उन्हें हजारों करोड़ रुपये का स्वामी बना गया। स्वामी जी तो शिविर में आगे बैठने, पीछे बैठने या बीच में बैठने का भी अलग से चार्ज करते थे।Ó छबीली इतना कह हंसी, तभी दरवाजे पर बेगम नजर आईं और मुझे छबीली के साथ देखकर बोलीं, 'अच्छा, तो आप अभी तक यहीं अटके हुए हैं। मैं तो सोच रही थी कि आप लौट रहे होंगे। और जनाब यहां नैन-मटक्का कर रहे हैं।Ó घरैतिन को देखकर मैं यह कहते हुए पतली गली से सब्जी मंडी की ओर दौड़ पड़ा कि 'बेटा! जल्दी से फूट लो, वरना कुंडली के राहू-केतु भरतनाट्यम करने लगेंगे। ये राहु-केतु सीधे चलें, तो बीवी से पिटवाते हैं और उल्टे चलें, तो पड़ोसन से।Ó

हाईवे पर 'रामदेव' ढाबा

-अशोक मिश्र

पिछले काफी दिनों से पता नहीं क्यों विरक्ति का भाव मन में पैदा हो रहा था। बाबा होने का ख्याल मन में घर करता जा रहा था। वैसे भी बाबाओं के ठाट-बाट देखकर मुझे बाबा होना कोई बुरा नहीं लग रहा था। बाबा तो मैं तब भी बनना चाहता था, जब छबीली से टांका भिड़े दो साल हो गए थे और छबीली का बाप अपनी बेटी का हाथ मुझे सौंपने को तैयार नहीं हो रहा था। अपनी विरक्ति और बाबा बनने की बात छबीली को बताई तो वह उछल पड़ी, 'वाह गुरु! क्या आइडिया सूझा है तुम्हें। तुम बाबा बनो और मैं तुम्हारी चेलिन।'

मैंने डपटते हुए कहा, 'खबरदार! जो तुमने मेरे साथ सटने का प्रयास किया। जब मैं तुम्हारे पीछे पागल बना घूम रहा था, तब तो तुम अपने बाप के पाले में बैठी चोर-सिपाही का गेम खेल रही थी। अब जब मैं भगवान से लौ लगाने जा रहा हूं, तो मेनका बनकर मेरा तप भंग करना चाहती है। तुझे किस आधुनिक इंद्र ने मेरे पीछे लगा दिया है।'
'ओए...बाबा की दुम! अन्ना हजारे की तरह ज्यादा भाव मत खा। थोड़ा-सा मुंह क्या लगा लिया, अपने को रामदेव समझने लग पड़ा। मैं तो तेरे साथ क्या, तेरी ही गाड़ी में हरिद्वार तक जाऊंगी। देखती हूं, तू मेरा क्या बिगाड़ लेता है।' अब छबीली अपनी औकात में आ गई थी। छबीली जब भी अपनी औकात में आती है, मैं अपनी औकात भूल जाता हूं।

सो, मैंने हथियार रखते हुए कहा, 'ठीक है। मेरे साथ चल, लेकिन मेरी प्रमुख चेलिन तू नहीं बनेगी... हां।'
बात तय हो गई। मैंने अपने पड़ोस में रहने वाले लंगोटिया यार मुसद्दीलाल को पकड़ा और उनकी गाड़ी लेकर हरिद्वार के लिए निकल पड़ा। निकलते समय सोचा था कि यदि अपनी वहां कोई सेटिंग हो गई, तो बाबा बन जाऊंगा। यदि कोई सेटिंग नहीं हुई, तो घूम-फिरकर लौट आऊंगा। हरिद्वार पहुंचते-पहुंचते दोपहर हो गई। भूख काफी तेज लग आई थी। छबीली के पेट में तो चूहों ने बाकायदा पोस्टर-बैनर लेकर अनशन शुरू कर दिया था। गाड़ी रफ्तार में भागी चली जा रही थी कि एकाएक छबीली जोर से चिल्लाई, 'रोको...गाड़ी रोको...!'

ड्राइवर ने हड़बड़ाकर गाड़ी रोक दी। मैंने देखा कि दायीं तरफ एक ढाबा था। ढाबे का नाम था 'रामदेव ढाबा।' मैं चौंक गया। मेरे मन में एक संदेह ने सिर उठाया कि कहीं यह ढाबा अपने योगगुरु स्वामी जी का कोई नया वेंचर तो नहीं है। छबीली गाड़ी रुकते ही लपककर फाइव स्टार होटल से भी ज्यादा आलीशान ढाबे पर पहुंची और रिसेप्शन के सामने रखे कीमती सोफे पर ढह गई। रिसेप्शन पर बैठी बाला के अलौकिक सौंदर्य को देखकर मैं दहशत में आ गया। मन ही मन 'राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनी पुत्र पवनसुत नामा' का जाप कर मन में उठ रहे विकारों को दमित करने और 'साधु' बनने का प्रयास करते हुए कहा, 'माते! हम दोनों तुच्छ प्राणी बिभुक्षित (भूखे) हैं। हमें भक्षणार्थ को कुछ मिलेगा।'

उस बाला ने अमृतमयी वाणी में कहा, 'बिभुक्षित हो, तो पहले अपनी वासनाओं का भक्षण करो, विकारों को उदरस्थ करो। अपनी तृष्णाओं का पान करो। भूख मिट जाएगी।' रिसेप्शनिष्ट ने नहले पर दहला जड़ते हुए कहा। यह सुनते ही भूख से बिलबिला रही छबीली बौखला उठी। उसने चिघाड़ते हुए कहा, 'ओ साध्वी की बच्ची! यहां हमारे पेट में चूहे कूद रहे हैं और तू हमें ज्ञान पिला रही है। यह बता तेरे इस ढाबे में खाने को क्या-क्या है?'

मशीनी अंदाज में उस बाला ने बताना शुरू किया, 'योग कोफ्ता, योग पुलाव, लंबितासन रोटी, विलंबित नॉन, पल्टासन भुजिया, फ्राइड मकरासन दाल विद बटर, नैन-मटक्का चटनी....'

'बस...बस...यह तू खाने का आइटम बता रही है या किसी हेल्थ क्लब में सिखाये जा रहे आसनों की जानकारी दे रही है।' छबीली के दिमाग का पारा नीचे आने को तैयार ही नहीं था।

छबीली की बात सुनकर रिसेप्शनिष्ट ने शांत भाव से कहा, 'मैडम...यह हमारे ढाबे का मेन्यू है। यहां परोसे जाने वाले हर व्यंजन का एक औषधिय गुण है। यह आम ढाबे में परोसे जाने वाला खाना नहीं है। अब आप योग कोफ्ता को ही लें। इसे खाने से पहले व्यक्ति भले ही सन्नी देओल की तरह कहता फिरता रहा हो कि जब दस किलो का हाथ पड़ता है, तो आदमी उठता नहीं उठ जाता है। लेकिन योग कोफ्ता खाने के बाद व्यक्ति पुलपुला हो जाता है। अंदर से खाली, लेकिन बाहर से भरा हुआ दिखता है। पल्टासन भुजिया खाने वाली महिलाओं के सिर्फ बेटा ही होगा, इसकी गारंटी हमारा ढाबा लेता है। हमारे ढाबे की नैन मटक्का चटनी खाने से रूठी हुई प्रेमिका या पत्नी अपना गुस्सा थूककर मान जाती है।' मैंने हस्तक्षेप किया, 'आज की खास रेसिपी क्या है?'

'मंच कूद हलवा, सलवार-कुर्ता पहन खीर...' रिसेप्शनिष्ट ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

छबीली ने मेरा हाथ पकड़कर बाहर खींचते हुए कहा, 'भूख से भले ही मैं मर जाऊं। लेकिन इस ढाबे का पानी तक नहीं पीना है। चलो यहां से।' और मैं कटी पतंग के साथ लटकने वाली डोर की तरह छबीली के साथ खिंचता हुआ गाड़ी तक आया और छबीली ने धक्का देकर मुझे गाड़ी में ठूंसा और ड्राइवर से कहा, 'चलो...वापस चलो। हो गई संत और साध्वी बनने की इच्छा पूरी।' ड्राइवर ने गाड़ी वापस लौटा दी।

Wednesday, April 13, 2011

पलटासन के फायदे

अशोक मिश्र
एक राजनीतिक पार्टी का प्रशिक्षण शिविर चल रहा था। पार्टी अध्यक्ष घपलानंद अपनी पार्टी के नवांकुरों को समझा रहे थे, ‘राजनीति में पलटासन का विशेष महत्व है। चर्चा में बने रहने के लिए कोई विवादास्पद बयान दो और बाद में जब मामला तूल पकड़ जाए, तो पलट जाओ। आपके पलट जाने पर एक बार फिर मामला गर्माएगा और यह गर्माहट आपको एक बार फिर चर्चा में ला देगा। आपकी छवि और निखर कर जनता के सामने आ जाएगी। इस पलटासन का एक फायदा यह भी होता है कि लोग कन्फ्यूज हो जाते हैं। उन्हें पता नहीं लग पाता कि आपने जो पहले बयान दिया था, वह सही था या आपके पलटने के बाद दिया गया बयान। आप इस कन्फ्यूजन को अपनी पार्टी के हित में उपयोग कर सकते हैं।’

एक छुटभैये नेता ने सवाल दागा, ‘सर, भारतीय राजनीति के संदर्भ में उदाहरण देते हुए समझाइए, ताकि हम लोग इस आसन को अच्छी तरह से आत्मसात कर सकें।’

घपलानंद उस नेता की बात सुनकर मुस्कुराये और बोले, ‘अब देखो, योग गुरु ने लोकपाल बिल प्रारूप कमेटी में भाई-भतीजावाद का मुद्दा उछाला और बाद में जब थुक्का-फजीहत हुई, तो वे पलट गए। कपिल सिब्बल पलटासन के बेहतरीन उदाहरण हैं। पाकिस्तान क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान शाहिद अफरीदी, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी भी पलटासन में काफी माहिर हैं। अभी कुछ दिन पहले ये लोग भारत में रहे, भारत का अन्न खाते रहे, तब तक तो भारत उनके लिए बहुत अच्छा था। लेकिन जैसे ही उनके पेट में पाकिस्तानी अन्न पहुंचा, उन्हें भारत के लोग तंगदिल और खुरपेंची नजर आने लगे। इनसे हर राजनीतिक दल के नेता को पलटासन सीखना चाहिए। वैसे तो भारतीय राजनीति का हर बड़ा नेता अपने जीवन में कभी न कभी विवादास्पद बयान देता और बाद में पलट जाता है।’

एक दूसरे नवांकुर ने उत्सुकता जाहिर की, ‘अगर पलटासन फेल हो जाए, तो फिर क्या किया जाए?’
पार्टी अध्यक्ष ने खैनी रगड़कर होंठों के नीचे दबाते हुए कहा, ‘वैसे तो पलटासन के फेल होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। लेकिन अगर थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि विशेष काल परिस्थितियों में पलटासन बेअसर साबित होता है, तो बिगड़ी बात को संभालने के लिए कुतर्कासन, मीडिया आरोपासन, चुप्पासन, ढीठासन जैसे कई उपाय हैं जिनका प्रयोग कर विषम परिस्थितियों से निपटा जा सकता है। इन आसनों के बारे में आप लोगों को कल बताया जाएगा, तब तक आप लोग एक दूसरे को विरोधी मानकर खूब कीचड़ उछालिए और पलटासन का अभ्यास कीजिए।’ इतना कहकर अध्यक्ष जी ने प्रशिक्षण शिविर कल तक के लिए स्थगित कर दिया।

Sunday, April 10, 2011

बीवी-बेटे की रिश्वतखोरी भी रुकेगी?

अशोक मिश्र

मैं गहरी निद्रा में था। अपनी एक अदद बीवी की निगाह बचाकर देर रात तक ऐसे-वैसे चैनल देखने के बाद सोया था। सुबह नौ बजे बीवी ने पीठ पर एक धौल जमाते हुए कहा, ‘उठिये...सत्य की जीत हो गई। अन्ना दादा देश से भ्रष्टाचार खत्म करने में सफल हो गए।’ मैं चौंक गया। मुझे लगा कि कहीं भूकंप आया है और घरैतिन बचने के लिए कह रही हों। मैं हड़बड़ाकर उठ गया। मैंने कहा, ‘अरे हुआ क्या? सुबह-सुबह पंचम सुर में काहे को अलाप ले रही हो। कौन सा पहाड़ टूट पड़ा है या भूकंप आया है।’

बीवी ने उत्साहित होकर बताया, ‘यह अखबार देखो, सरकार ने कह दिया है कि वह आगामी लोकसभा सत्र में जन लोकपाल विधेयक को पेश कर देगी। विधेयक मंजूर होते ही समझो भ्रष्टाचारियों के दिन। फटाफट नहा-धो लो, मंदिर चलना है। मैंने मनौती मानी थी कि यदि अन्ना दादा सफल होते हैं, तो मैं मंदिर में 51 रुपये का प्रसाद चढ़ाऊंगी।’ यह सुनते ही मैं चौंक गया। मेरे मुंह से यकायक निकला, ‘हे भगवान! भ्रष्टाचार खत्म होने की खुशी में भगवान को रिश्वत। चलो थोड़ी देर के लिए मान लिया कि इस देश में जन लोकपाल विधेयक पारित होकर कानून बन गया। लेकिन क्या बात-बात में भगवान को घूस देने की इस सनातनी परंपरा पर अंकुश लगाया जा सकेगा?’ यह बात वैसे तो मैंने बहुत धीमें सुर में कही थी, लेकिन घरैतिन के कानों का एंटीना कुछ ज्यादा ही सेंसटिव था। उसने तुरंत मेरी बात को कैच कर लिया और नतीजा यह हुआ कि घरैतिन ने तुरंत मुंह फुला लिया। मुझे लगा कि आज का चाय नाश्ता ही नहीं, खाना-पानी भी कट। मैंने खुशामदी लहजे में कहा, ‘अरी भागवान! यह तो मैंने मजाक किया था। आज तुम कुछ ज्यादा ही खूबसूरत लग रही हो, इसलिए।’

घरैतिन नहीं मानी। तो सहायता के लिए आठ वर्षीय बेटे टुन्नू को पुकारा। मामला जैसे ही उसकी समझ में आया, वह किसी रिश्वतखोर बाबू की तरह कुटिलता से मुस्कुराया और बोला, ‘आपने कुछ दिन पहले मुझसे वायदा किया था कि खिलौने खरीदने के लिए पांच सौ रुपये देंगे। लेकिन इस बात को आप महिला आरक्षण विधेयक की तरह लटकाते आ रहे हैं। यदि आप अपने वायदे पूरा करें, तो मैं मम्मी को समझाने का प्रयास करूं।’ बेटे की बात पूरी हुई भी नहीं थी कि बेटी भी बीच में कूद पड़ी। उसने कहा, ‘हां पापा...आप मामले को टरकाने में काफी उस्ताद हैं। आप अपना मतलब निकालने के लिए वायदा तो करते हैं और मतलब निकल जाने पर भूल जाते हैं। आप अपना पिछला वायदा पूरा करने की हामी भरें, तो मैं भी प्रयास करूं।’ ‘मरता क्या न करता’ वाली हालत से मैं दो-चार हो रहा था। बीवी को मनाना था, सो एक बार आश्वासन रूपी ब्रह्मास्त्र आजमाने की सोची। मैंने कहा, ‘ठीक है, आप लोग जो कहेंगे, वह पूरा करूंगा। लेकिन उससे पहले तुम्हारी मम्मी चाय-नाश्ता तो दें। पेट में चूहे कूद रहे हैं।’

बेटे ने कुशल अभिनेता की तरह हाथ नचाते हुए काह, ‘नहीं पापा...इस बार आश्वासन की चासनी हम लोग नहीं चाटने वाले। पहले आप एक हजार रुपये निकालिए, तब कोई बात होगी।’ मजबूरन मुझे अपनी टेंट ढीली करनी पड़ी। रुपया पाते ही भाई-बहन कोपभवन की ओर भागे। थोड़ी देर बाद बेटे ने आकर बताया,‘मम्मी...शाम को मंदिर चलकर भगवान को प्रसाद चढ़ाने को तैयार हैं, लेकिन अभी आपको बाजार जाकर वह साड़ी लानी होगी जिसे पिछले हफ्ते पैसे की कमी का रोना रोकर आप मम्मी को टरका चुके हैं।’

मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘हे भगवान! यह घर-घर में हो रही रिश्वतखोरी कब रुकेगी? इसके खिलाफ भी कोई बिल संसद में पेश होगा या नहीं?’ इतना कहकर मैंने हाथ-मुंह धोया और साड़ी लाने के लिए निकल पड़ा।

Saturday, April 9, 2011

अब चाहिए जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार



अशोक मिश्र

भ्रष्टाचार को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर 97 घंटे तक अनशन करने वाले अन्ना हजारे की सदिच्छा पर शायद ही किसी को कोई अविश्वास हो। उन पर कभी किसी आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप शायद ही लगे हों और यदि लगे भी हों, तो उस पर किसी ने विश्वास नहीं किया होगा क्योंकि अन्ना हजारे ने हमेशा कुछ करके दिखाने में विश्वास किया है, बयानबाजी करने में नहीं। उन्हें जहां भी लगा कि गलत हो रहा है, उसका मुखर विरोध किया। इसके लिए कभी अपने-पराये का भेद भी नहीं किया। शायद यही वजह है कि जब उन्होंने जन लोकपाल विधेयक पारित कराने की मांग को लेकर जंतर-मंतर पर प्रदर्शन का फैसला किया, तो पूरा देश उनके साथ उठ खड़ा हुआ। लेकिन अब जब उन्होंने केंद्र सरकार के आश्वासन पर अपना अनशन तोड़ दिया है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जिस उद्देश्य को लेकर उन्होंने अनशन किया और जिसे पूरे देश का भरपूर समर्थन मिला, वह उद्देश्य पूरा होगा? सरकार ठीक वैसा ही लोकपाल विधेयक संसद में पेश करेगी, जैसा अन्ना हजारे और देश की आम जनता चाहती है, इसकी क्या गारंटी है। और संसद इस विधेयक को पास भी कर देगी, इसको लेकर आश्वासन देने की स्थिति में शायद कोई नहीं है। थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि ड्राफ्ट कमेटी के सदस्य अन्ना हजारे द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक की मूल अवधारणा से छेड़छाड़ नहीं करेंगे। लेकिन इस भ्रष्ट लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसे पास कराना सबसे टेढ़ी खीर होगी।...कहीं इस विधेयक का हश्र महिला आरक्षण विधेयक जैसा ही तो नहीं होगा। जिस तरह दबाव में आकर सरकार ने अन्ना समर्थकों की सभी मांगों को स्वीकार किया है, उससे तो यही लगता है कि वह फिलहाल मसले को कुछ दिनों के लिए टालकर अपने लिए राहत की जुगाड़ में थी। उसने ड्राफ्ट कमेटी में सरकारी और गैर सरकारी सदस्यों की बराबर संख्या की बात भी मान ली है। लेकिन जिस तरह अन्ना हजारे समर्थकों ने आनन-फानन सरकार की बात मान ली है, उससे यह शक पैदा होता है कि कहीं वाहवाही लूटने के लिए तो नहीं जनता के उन्माद और जोश का इस्तेमाल किया गया।

हालांकि अन्ना हजारे ने सरकार के झुकने और लोकसभा में विधेयक पेश करने के आश्वासन को आम जनता की जीत बताते हुए कहा कि अब हमारी जिम्मेदारी बढ़ गई है। बिल का मसौदा तैयार करना और उसे मंत्रिमंडल में पास कराना अभी बाकी है। बिल को लोकसभा में पास करवाना भी एक बड़ा काम है। जब तक सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं होता, भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा।

इस पूरे प्रकरण में सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात पर कुछ ही लोगों ने ध्यान दिया होगा और वह था अन्ना हजारे के समर्थन में देहरादून में प्रदर्शन करने वाले विख्यात पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा और उनके साथियों द्वारा लिया गया एक पोस्टर जिसमें लिखा था कि पूंजीवादी व्यवस्था में भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है। इस पोस्टर का निहितार्थ यह हुआ कि जब तक मुनाफे पर आधारित बिकाऊ माल की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था रहेगी, तब तक भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा। जो व्यवस्था मुनाफा कमाने की इजाजत देती हो, उस व्यवस्था से रिश्वतखोरी, लूट, शोषण-दोहन खत्म हो जाएगा, इसकी कल्पना करना बुद्धिमानी नहीं होगी। शायद सुंदरलाल बहुगुणा और उनके साथियों को इस बात का पूरा विश्वास है कि पंूजीवादी संसदीय जनतंत्र भ्रष्टाचार की गंगोत्री है। और इस गंगोत्री के रहते किसी भी दल या राजनेता के पाक-साफ रहने की गुंजाइश बहुत ही कम है। इस पूरी व्यवस्था का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें, तो पता लगता है कि किसी वस्तु के उत्पादन प्रक्रिया में मुनाफा तभी पैदा होता है, जब उत्पादन कार्य में लगे श्रमिकों को उनकी वाजिब मजदूरी से कम दी जाए या उनसे दी गई मजदूरी के बदले ज्यादा समय तक काम लिया जाए।

अब जब भ्रष्टाचार के खिलाफ एक जागरूकता लोगों में पैदा हो ही गई है, तो ऐसे में उचित तो यह होगा कि जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का विधेयक पारित कराने का दबाव भी सरकार पर बनाया जाए। वैसे तो इस व्यवस्था में जब तक किसी मंत्री, सांसद या नौकरशाह पर आरोप नहीं लगता या उसके द्वारा किए गए भ्रष्टाचार का खुलासा नहीं होता, तब तक तो वह ईमानदार ही माना जाता है। लेकिन यदि किसी कारणवश उसके घपलों और घोटालों का पर्दाफाश हो भी जाए, तो वह बड़ी बेशर्मी से इसे विरोधियों द्वारा बदनाम करने की बात कहकर पहले तो अपने कुकृत्य को नकारने का प्रयास करता है। इस पर भी यदि बात नहीं बनी, तो सरकार या पार्टी उस व्यक्ति को सरकार या पार्टी से निकालकर मामले की लीपापोती में लग जाती है। कामनवेल्थ गेम्स घोटाले का खुलासा होने से पहले सुरेश कलमाडी ईमानदार नहीं माने जाते थे क्या? 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले का पर्दाफाश होने से पहले तो ए. राजा भी सीना ठोंककर अपने को ईमानदारों की श्रेणी में रखते थे। यह बात किसी व्यक्ति या राजनीतिक पार्टी विशेष पर लागू नहीं होती। यह बात इस पूरी पूंजीवादी व्यवस्था पर लागू होती है जो शोषण पर आधारित है।
सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि ड्राफ्ट कमेटी के सदस्यों में शामिल सरकारी और गैर सरकारी सदस्य किसी भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं रहे हैं, इसकी गारंटी कौन लेगा। चलिए थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए, जनलोकपाल विधेयक पारित भी हो जाएगा और तब? इस व्यवस्था को देखने के लिए जो लोग जिम्मेदार होंगे, वे दूध के धुले होंगे, इसकी भी गारंटी शायद ही कोई लेने को तैयार हो। जब तक शोषण पर आधारित व्यवस्था का खात्मा नहीं होता, तब तक के लिए सिर्फ इतना ही किया जा सकता है कि जन लोकपाल विधेयक के साथ ही जनता अपने जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार भी मांगे। जब तक जनप्रतिनिधियों पर यह तलवार नहीं लटकती रहेगी कि यदि उन्होंने कोई घपला-घोटाला किया, तो जनता न केवल उनसे पद छीन लेगी, वरन उन्हें लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा से वापस बुला लेगी। उन पर जनता की अदालत में मुकदमा चलेगा, वह अलग से। यही बात नौकरशाही के संबंध में भी लागू होनी चाहिए। एक बार अपनी पढ़ाई और योग्यता के बल पर चुने गये नौकरशाह को तभी हटाया जा सकता है, जब उसके खिलाफ पूरी तरह साबित हो जाए कि वह भ्रष्ट है या किसी गैरकानूनी कार्यों में लिप्त रहा है। लेकिन ऐसा होने का उदाहरण शायद ही कोई हो, जब किसी नौकरशाह को भ्रष्टाचार के आरोप में नौकरी से हाथ धोना पड़ा हो।

Tuesday, April 5, 2011

रिश्वत बिना सब सून


-अशोक मिश्र


‘भाई साहब! यह अन्ना हजारे क्या बला है?’ कल पीडब्ल्यूडी का एक जूनियर इंजीनियर खन्ना मुझसे पूछ रहा था। ‘भल बताइए, यह भी कोई बात हुई। भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन पर बैठ गए।’ मैंने उसकी बुद्धि पर तरस खाते हुए कहा, ‘अन्ना हजारे एक बहुत बड़े सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनकी हनक इतनी है कि मुंबई का बड़े से बड़ा दादा और भाई रोज सुबह शाम पांव छूने आते हैं। केंद्र सरकार तक उनकी ईमानदारी और साफगोई की कसमें खाती है।’ ‘तो इसका मतलब अन्ना हजारे सामाजिक क्षेत्र के दादा हैं, ठीक वैसे ही जैसे आपराधिक क्षेत्र के दादा अपने दाऊद भाई हैं।’ जूनियर इंजीनियर ने अपना ज्ञान बघारा। मैं कुछ बोलता, इससे पहले खन्ना बोल उठा, ‘ यह बताओ, उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन पर बैठने की क्या जरूरत थी। अगर दाल या सब्जी में से नमक गायब कर दिया जाए, तो दाल या सब्जी कैसी लगेगी। बिल्कुल फीकी, स्वादहीन। इसे खाने में मजा आएगा? अब अगर कोई कहे कि इस दुनिया से सभी रंगों को गायब कर दो, तो दुनिया कैसी लगेगी। रंगहीन दुनिया की कल्पना करके देखो, पसीने छूट जाएंगे। ठीक ऐसे ही कल्पना करो कि इस देश-दुनिया से भ्रष्टाचार खत्म हो गया है, तो फिर क्या इस दुनिया में जीना पसंद करेगा। भ्रष्टाचार खत्म होते ही हम सबके जीने का मकसद ही खत्म हो जाएगा।’ मैंने प्रतिवाद किया, ‘अन्ना दादा जो कुछ कर रहे हैं, वह राष्ट्रहित में है। भ्रष्टाचार खत्म होते ही देश के विकास की गाड़ी पटरी पर दौड़ने लगेगी। सब तरफ खुशहाली और अमीरी छा जाएगी। यह तुम क्यों नहीं सोचते।’ ‘अरे, विकास की गाड़ी दौड़ाने के लिए और भी तो कई रास्ते हैं। उस पर तुम्हारे ये अन्ना दादा चाहे रेलगाड़ी चलाएं, चाहे ट्रक। किसी ने रोका है उन्हें। लेकिन वे हम लोगों के पेट पर लात क्यों मारते हैं। अगर भ्रष्टाचार खत्म हो गया, तो क्या हम-आप जैसे लोग अपने बच्चों को महंगे-महंगे स्कूलों में पढ़ा सकेंगे। उन्हें ऐश करने के लिए ढेर सारे पैसे और मोटर बाइक आदि कहां से लेकर दे पाएंगे। सूखी तनख्वाह से तो दाल-रोटी चल जाए, यही बहुत है। यह बताओ, अन्ना हजारे अपने को गांधीवादी कहते हैं, लेकिन गांधी जी ने तो कभी भ्रष्टाचार का विरोध नहीं किया। अरे, गांधी बाबा तो अपनी बकरी को भी मेवे खिलाते थे, ताकि वह उन्हें बदले में पौष्टिक दूध दे। वे कभी भ्रष्टाचार या रिश्वतखोरी के खिलाफ अनशन पर नहीं बैठे। यदि वे रिश्वतखोरी को बुरा समझते, तो विरोध कर सकते थे। लेकिन उन्होंने कभी इसका विरोध किया हो, ऐसा कहीं लिखा नहीं है।’ मैं कुछ कहता, इससे पहले खन्ना ने अपनी बाइक उठायी और चलता बना। मैं वहीं खड़ा उसकी बातो पर गौर करता रहा।

Monday, April 4, 2011

सारा गुड़ गोबर कर दिया

अशोक मिश्र

‘पता नहीं किस का शेर है कि ‘बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, चीरा तो कतरा-ए-खूं निकला।’ पिछले कई महीनों से वर्ल्ड कप भारत जीतेगा, शाबाश धोनी के धुरंधरों, देश की आन, बान-शान...और पता नहीं क्या-क्या तुम्हीं हो, तुम्हें अट्ठाइस साल पुराना इतिहास दोहराना है। जैसे-जैसे नारे सुनते-सुनते कान पक गए थे। अखबार से लेकर टीवी चैनल तक चीख-चीख कर चिल्ला रहे थे। इस बार विश्व कप हमारा है, हम जीत कर रहेंगे। कोई चैनल वाला इसे महामुकाबला बता रहा था, तो कोई महायुद्ध। और अब, जब यह महामुकाबला जीत लिया, तो आईसीसी वालों की नालायकी देखिए, नकली ट्राफी थमा दी। हद हो गयी यार...सारा गुड़ गोबर कर दिया।’ यह कहते मुसद्दी लाल का चेहरा क्रोध से काला पड़ गया।

मैंने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘ट्रॉफी ट्रॉफी होती है, असली या नकली से कोई फर्क नहीं पड़ता। अब आपको बताऊं। मेरा बेटा है टुन्नू। जब वह हवाई जहाज लेने की जिद करता है तो क्या उसे मैं असली हवाई जहाज खरीद कर देता हूं। प्लास्टिक का एक खिलौना हवाई जहाज खरीदता हूं और पकड़ा देता हूं। आपने अपने बच्चे को इसी तरह बहलाया होगा, तो आपको मालूम ही होगा कि वह कितना खुश हो जाता है। वह नाचने लगता है। कभी वह दौड़कर अपने खिलौना हवाई जहाज अपनी मम्मी को दिखाता है, तो कभी अपने पड़ोस में रहने वाले दोस्त राजू को। खिलौना दिखाते समय वह उन्हें बरजता भी है, हां...पेंच मत घुमाना...टूट जाएगा। उसके उमंग और उत्साह की तुलना आज के एक अरब इक्कीस करोड़ भारतीयों से कीजिए। लगभग मेरे बेटे टुन्नू जैसी स्थिति पूरे देश की है। कहीं सोनिया गांधी नाच रही हैं, तो कहीं अमिताभ बच्चन। कहीं खुशी से युवराज फफक रहे हैं, तो कहीं सचिन की आंखें गीली हैं। कैप्टन कूल इस खुशी में मुंडन संस्कार करवा रहे हैं। आप सोच नहीं सकते कि हम भारतीयों का खुशी के मारे क्या हाल है। हम विश्व कप विजेता बन गए...यह पूरी दुनिया ने देखा, आंखें फाड़कर देखा। अब आप इसका मजा किरकिरा मत कीजिए।’

‘लेकिन अगर असली ट्रॉफी दे देते, तो आईसीसी वालों का क्या बिगड़ जाता?’ मुसद्दी लाल अब भी बरस रहे थे। उनके क्रोध का पारा नीचे आने को जैसे तैयार ही नहीं था।

मैंने समझाने वाले लहजे में कहा, ‘भइया बात यह है कि बच्चे जिद कर रहे थे। इस बार हम ही वर्ल्डकप ट्रॉफी लेंगे। आईसीसी के मुखिया शरद पवार ने एक अरब इक्कीस करोड़ बच्चों को बहलाने के लिए एक झुनझुना थमा दिया। अब आप अगर किसी चीज की जिद कर बैठेंगे, तो कोई क्या करेगा। इसीलिए हमारे पूर्वज कहते थे कि अच्छे बच्चों को जिद नहीं करनी चाहिए। अब अगर जिद की है, तो भुगतो।’

मेरी बात सुनकर मुसद्दी लाल थोड़ा नरम पड़े। बोले, ‘यार...मुझे तो अब समझ में आ रहा है कि पाकिस्तान वालों ने सचिन के सात कैच क्यों छोड़ दिये या श्रीलंका वालों ने मैच में ज्यादा रन क्यों नहीं बनाए। जबकि वे इससे पहले के मैचों में अपने विरोधियों के छक्के छुड़ा चुके थे।’

मुसद्दी लाल की बातें अब कुछ रस देने लगी थी। मुझे भी उत्सुकता हुई कि आखिर कौन सी ऐसी बात है जिसे मुसद्दी लाल समझ गए और मैं अभी तक नहीं समझ पाया। मैंने पुचकारने वाले अंदाज में कहा, ‘भाई साहब! बात क्या है! लगता है कि आपने कोई रहस्य पा लिया है। वैसे भी हमारे देश में जो रहस्य पा लेता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है। इस असार संसार के आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है। लगता है कि आप भी बुद्धत्व को प्राप्त हो गए हैं।’

मुसद्दी लाल ने मुझे घूरते हुए कहा, ‘मेरी बात को हल्के में मत लो। अब तो मुझे पक्का विश्वास हो गया है कि पाकिस्तान और श्रीलंका की क्रिकेट टीम को यह बात पहले से ही पता थी कि ट्रॉफी नकली है। अब जब वे इस बात को जान चुके थे, तो नकली ट्रॉफी के लिए क्यों अपनी जान लड़ाते। उन्होंने मैच इसी तरह खेला जैसे कोई बुजुर्ग खिलाड़ी किसी बच्चे से कोई खेल खेले और झूठ-मूठ में हार जाए। अपनी इस जीत पर बच्चा खुश हो जाता है। वह इसे अपनी प्रतिभा और खेलने की कला की विजय मानकर इतराता घूमता है। अब आप जरा पाकिस्तान और श्रीलंका के खिलाड़ियों के चेहरे को याद कीजिए। वे हारने के बाद भी दुखी नहीं थे। उनके चेहरे पर शायद इस बात का संतोष था कि वे नकली ट्रॉफी के बेकार में ढोकर अपने देश ले जाने की जहमत से बच गए।’ इतना कहकर मुसद्दी लाल ने एक गिलास पानी पिया और बैठकर आईसीसी वालो को कोसने के पुनीत कर्म में लग गए। मैं उन्हें कोसता छोड़कर अपने घर लौट आया।

Thursday, March 24, 2011

कुत्तों की खरीद पर आयकर

-अशोक मिश्र
आज श्यामलाल का चेहरा उतरा हुआ था। सब्जी लेते समय मिले, तो उन्होंने बिना चीनी की गुझिया की तरह फीके अंदाज में अभिवादन किया। मैंने पूछा, ‘भाई श्याम लाल, घर में सब सुख-सांद तो है न! काफी उदास से लग रहे हैं। बात क्या है?’

श्याम लाल ने फुफकार की तरह गहरी सांस छोड़ी, ‘अच्छा, भाई साहब! एक बात बताइए। सरकारी महकमे के अधिकारियों के पास कोई काम नहीं है क्या? बैठे-ठाले बस फिजूल की बातें सोचते और खुरपेंच करते रहते हैं।’
मैं हंस पड़ा। पूछा, ‘हुअ क्या? कुछ तो बताइए। आप बात तो बताते नहीं है और बस अधिकारियों को खरी-खोटी सुनाए जा रहे हैं। मामले की पूंछ कुछ पकड़ में आए, तो कुछ सलाह-वलाह दे सकूंगा।’

मेरी इस बात पर श्यामलाल जी कुछ खुले। उन्होंने कहा, ‘बात यह है कि मेरी मुनिया ने चार बच्चे दिए थे। बड़े प्यारे-प्यारे, सुंदर-सुडौल बच्चे। उन बच्चों में से एक को मेरे पड़ोसी के पड़ोसी मेहता जी मांग कर ले गए। दूसरे को मेरे आफिस के सुपरवाइजर कालरा साहब उठा ले गए, बोले कि इसे मैं पालूंगा। बाकी बचे दो बच्चों में से एक को कोई रात में चुरा ले गया। एक मेरे पास है जिस पर मेरे बच्चे के क्लास टीचर की निगाह है। वह रोज शाम को मेरे बेटे को ट्यूशन पढ़ाने आता है और जाते समय उसे बड़ी हसरत भरी निगाहों से देखता है।’

‘तो इसमें ऐसी कौन सी बात हो गई कि आप अधिकारियों के खिलाफ लट्ठ लिए घूम रहे हैं। और फिर एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि यह मुनिया कौन है? बकरी है, कुतिया है या फिर कोई महिला है? कौन है यह मुनिया?’ मैंने झल्लाते हुए पूछा।

मेरी बात सुनकर श्यामलाल जी के चेहरे पर नागवारी के भाव उभरे। उन्होंने कठोर लहजे में कहा, ‘आप इतना भी नहीं समझते! मुनिया मेरे घर की पालतू कुतिया है। उसने चार बच्चे दिए हैं। अब असली समस्या यह है बरखुरदार कि कल ही आयकर विभाग, दिल्ली से एक सरकुलर जारी हुआ है कि कुत्तों की खरीद-फरोख्त बाकायदा रसीद लेकर की जाए। यदि कुत्ते किसी को दान में भी दिए जाएं, तो इसकी भी लिखत-पढ़त जरूरी है। अब भला बताओ, यह भी कोई बात हुई, कुत्ते न हो गए सोने-चांदी के जेवर हो गए कि लिखत-पढ़त करा लो, ताकि भविष्य में कोई जेवर खराब निकले, तो मामला सुलटाया जा सके।’

मुझे श्यामलाल की बात सुनकर काफी गुस्सा आया। श्यामलाल जी की यही एक आदत मुझे खराब लगती है। वे किसी बात को आधा सुनते हैं, बाकी ले उड़ते हैं। मैंने उन्हें समझाते हुए कहा, ‘भाई साहब, यह सरकुलर गली-कूचे में हर आते-जाते लोगों को देखकर भौं-भौं करने वाले कुत्तों के लिए नहीं है। कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली। यह आदेश उन कुत्तों के लिए है, जो कारों में घूमते हैं, शैंपू से जिनके बाल धोए जाते हैं। जिन्हें उनकी मालकिन या मालकिन की बिटिया गोद में लिए घूमती-फिरती है। ऐसे कुत्तों की खरीद-फरोख्त पर अब रसीद जरूरी होगी। आपकी मुनिया के लिए नहीं, जिसे दिन भर में पूरी एक रोटी भी नसीब नहीं होती है। कार में घूमने और महलनुमा कोठियों में रहने वाले कुत्तों का कारोबार कई सौ करोड़ रुपये सालाना है। अब अगर आयकर विभाग वाले इन कुत्तों की खरीद-फरोख्त पर आयकर वसूलने की फिराक में है, तो आपको क्या तकलीफ है।’ मेरी बात सुनकर श्यामलाल जी सिर्फ इतना ही बोले, ‘अच्छा तो यह बात है। मैं तो बेकार में ही कल से दुबला होता जा रहा था।’ इतना कहकर श्यामलाल खुशी-खुशी सब्जियां खरीदने लगे।

Wednesday, March 16, 2011

ओटन लगे कपास

अशोक मिश्र

एक हैं स्वामी जी। खा-अघाकर मुटा गए तोंदियल धन्ना सेठों और मध्यमवर्गीय लोगों को कसरत कराते-कराते उन्होंने काफी नाम और दाम कमा लिया। उनके कसरत शिविरों में लोग फीस देकर जाते हैं। गरीब को वैसे भी कसरत-फसरत की जरूरत नहीं होती और उसका प्रवेश भी स्वामी जी के कसरत शिविरों में वर्जित रहता है। जैसा कि आमतौर पर होता है, स्वामी जी को एक दिन अहसास हुआ कि अरे! मैं तो ब्रह्म हो गया। मैं जो कुछ कहूंगा, लोग भक्तिभाव से सुनेंगे। तो वे लगे भ्रष्टाचार और कालेधन पर भाषण देने। उन्होंने सोचा, वे राजनीतिक पार्टी बनाएंगे, तो लोग उन्हें चुनकर देश का भाग्यनियंता बना देंगे और वे योग (कसरत) के बल पर देश को भ्रष्टाचार मुक्त बना देंगे। इस ज्ञानोदय के बाद स्वामी जी लगे, प्रवचन देने। फलां व्यक्ति का कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है, अमुक व्यक्ति चोर है। जिसके वे कालेधन का मालिक बताते, वह तो तिलमिलाकर रह जाता, लेकिन उसके विरोधियों को एक मौका मिल जाता घेरने का। एक पार्टी के पीछे तो वे हाथ-पैर धोकर पड़े हुए थे।

लेकिन एक कहावत है न! आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास। कहां योग के नाम पर कसरत सिखा रहे थे, कहां योग से सत्ता सुंदरी को भोगने के चक्कर में पड़ गए। उनकी सत्ता भोग लिप्सा और एक ही पार्टी को निशाना बनाने की प्रवृत्ति पर निशाना बन रही पार्टी ने जवाबी हमला कर दिया। स्वामी जी से पूछा जाने लगा कि एक हजार करोड़ से ज्यादा की संपत्ति कहां से आई? जानते हैं स्वामी जी का क्या जवाब था इस पर। स्वामी जी कहते हैं कि उन्होंने जितना भी कमाया, अपनी मेहनत से कमाया। काला धन अगर लिया भी, तो उसे साबुन से धोकर श्वेत धन में बदल दिया था। अब स्वामी जी की इस बात का तोड़ विरोधी खोजने में लगे हुए हैं। हो सके, तो आप भी उनकी मदद करें।

ये क्या हो रहा है?

-अशोक मिश्र

कभी सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने एक फिल्म में गीत गाया था, ये क्या हो रहा है, भाई ये क्या हो रहा है? इसका जवाब यह दिया गया कि कुछ नहीं...कुछ नहीं... बस प्यार हो रहा है। मैंने इस फिल्म को देखा नहीं है। लेकिन गीत के बोल से लगता है कि प्रेमी-प्रेमिका को कुछ ऐसा-वैसा करते पकड़ लेने पर ही उनके मुंह से निकला होगा कि ये क्या हो रहा है? आज हालत यह है कि सुप्रीम कोर्ट पूरे देश से पूछ रही है कि यह क्या हो रहा है और इसका जवाब देने वाला कोई नहीं है। यही सवाल एक दिन सुबह-सुबह मैंने उस्ताद गुनाहगार के घर जाकर पूछा, तो वे झल्ला उठे। उन्होंने भाभी जी से चाय पिलाने का अनुरोध करते हुए कहा, ‘होने को तो बस केवल भ्रष्टाचार हो रहा है, घपले हो रहे हैं, घोटाले हो रहे हैं। महिलाओं और बच्चियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं। इसके अलावा कुछ नहीं हो रहा है। तुम और क्या सुनना चाहते हो? सुबह-सुबह राम का नाम लेने के बजाय मेरे मुंह से खराब बातें ही निकलवा रहे हो।’

मैंने उस्ताद गुनाहगार को छेड़ा, ‘आप भी अमिताभ बच्चन की तरह लोगों से पूछिए, यह क्या हो रहा है?’
गुनाहगार थोड़े नम्र हुए। बोले, ‘यार! किससे-किससे पूछोगे। सुप्रीम कोर्ट पूछ तो रही है? है कोई जवाब देने वाला? प्रधानमंत्री से पूछो, तो अपनी ईमानदारी का तमगा और मजबूरी का रोना रो देंगे। विपक्षी सिर्फ हाय-हाय करना जानते हैं। उनको भी पता है कि देश में क्या हो रहा है। कुछ उन्होंने किया है, कुछ उनके भाई-बंधु कर रहे हैं और कुछ उनके भविष्य में करने की आशा है। इसी आशा पर उनकी सारी हाय-हाय टिकी है।’

मैंने कहा, ‘सरकार को कुछ मत कहिए। उसने किया तो है। ए राजा को जेल भेजा, सुरेश कलमाड़ी के किये-कराये पर पानी फेर दिया। बेचारे अब सफाई देते फिर रहे हैं कि मैंने कुछ नहीं किया।’

गुनाहगार फिर झल्ला उठे, ‘अरे, तो करते न! उन्हें कुछ करने के लिए ही तो जिम्मेदारी सौंपी गई थी। जब कुछ नहीं किया, तो इतना बड़ा घोटाला निकला और अगर कहीं खुदा न खास्ता करते, तो फिर पूरा देश ही कंगाल हो जाता। भगवान बचाए, ऐसे करने वालों से। अगर अपने देश में दो-चार ऐसा करने वाले निकल जाएं, तो फिर देश का बंटाढार ही समझो।’

‘भाई साहब, ऐसा करने वालों से हमारे देश की धरती कभी खाली नहीं रही है। आजादी के बाद से लेकर आज तक के इन घोटालेबाजों के नाम गिनाऊं क्या?’

‘रहने दो यार...अपने देश के तो भाग्य नियंता हो गए हैं घोटालेबाज। हम जन-गण-मन के अधिनायक तो यही हैं। इन्हीं का जयगान गाते-गाते इस दुनिया से विदा हो जाएंगे।’ उस्ताद गुनाहगार अब कुछ भावुक और भाग्यवादी से हो चले थे। उन्हें अधिक परेशान करने की बजाय घर की ओर लौट चला। चौराहे पर पहुंचा, तो वहां भीड़ देखकर मैं मामला जानने की नीयत से पास गया, तो पता चला कि एक रिक्शे पर कुछ लड़के गोमती नगर से पालिटेक्निक कालेज तक बड़े ठाठ से बैठकर आये और किराये के नाम पर पांच रुपये पकड़ाकर चल दिए। रिक्शेवाले ने विरोध किया, तो उसे मारा पीटा और उसके पास जो कुछ था, वह भी छीन कर भाग गए। लुटा-पिटा रिक्शावाला तमाशाई भीड़ से पूछ रहा था, ‘भइया, यह क्या हो रहा है? एकदम अंधेर मची है इस देश में। मेहनत भी कराया और जो कुछ था, वह भी लूटकर चलते बने।’ मैं गुनगुनाता हुआ घर लौट आया, ‘यह क्या हो रहा है...भाई...यह क्या हो रहा है?’

होली का त्योहार और कर्ज

-अशोक मिश्र

उस्ताद गुनाहगार कह रहे थे, ‘यार...वर्ल्ड बैंक के ग्लोबल डेवलेपमेंट फाइनेंस की रिपोर्ट कहती है कि हम दुनिया के पांचवें बड़े कर्जदार देश हैं। यह बात हमारे वित्त मंत्री प्रणव दादा बड़े गर्व से लोकसभा में बताते हैं। वैसे तो कर्ज लेने के मामले में अपने दिल्ली वाले मिर्जा गालिब ही बदनाम थे। लेकिन लगता है कि अपने दादा तो उनसे भी चार जूता आगे निकले। मिर्जा गालिब तो कर्ज की दारू पीने के बाद अपनी फाकामस्ती के रंग लाने का इंतजार करते थे। लेकिन हमारी सरकार वर्ल्ड बैंक से भारी भरकम कर्ज लेने के बाद मरभुक्खे मंत्रियों और सांसदों की समिति गठित करके तरह-तरह के आयोजन कराती है, ताकि उनकी फाकामस्ती दूर की जा सके।’

मैंने जमुहाई रोकते की कोशिश करते हुए कहा, ‘सच? आपकी बात पर विश्वा स नहीं होता है।’

गुनाहगार ने मुझे झिड़कते हुए कहा, ‘जब प्राइमरी वाले गुरु जी कहते थे, इतिहास पढ़ लो, काम आयेगा। तब आपको कुछ दूसरा ही सूझता था। यदि आपने ठीक से इतिहास पढ़ा होता, तो आपको पता होता कि हम सदियों तक कर्ज मांगने के मामले में विश्व शिरोमणि रहे हैं। हमारे यहां का राष्ट्रीय कर्म कर्ज मांगना था। यदि कर्ज न मिले, तो भीख मांगो। पहले पूरा देश एक दूसरे से भीख या कर्ज मांगता था, लेकिन बाद में यह काम कुछ वर्ण के लोगों को ठेके पर दे दिया गया। बाद में इस ठेके के खिलाफ आवाज उठी, तो यह हक देश के उन निकम्मे और कामचोरों को सौप दिया गया जिसे साधु कहते हैं। चार्वाक महोदय ने तो बाकायदा एक सूत्र पूरे देश को थमा दिया था, ‘ऋणम कृत्व घृतम पिबेत।’ चार्वाक तो कहते थे कि इस शरीर के भस्म हो जाने पर कौन किससे कर्ज की रकम वसूलने आयेगा।’

मैंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, ‘क्या...कभी ऐसा भी होता था। लोगों को भीख या कर्ज मांगने में लज्जा भी नहीं आती थी?’

गुनाहगार ने कहा, ‘काहे की लज्जा। लज्जा और भिक्षा में वैसा ही बैर होता है जैसे सौतों में होता है। अरबों-खरबों का कर्ज लेने वाली सरकार कहीं शर्माती है क्या? रूस और चीन कभी शर्म से पानी-पानी हुए? ऐसी कोई खबर अखबारों में छपी क्या?’ इसके बाद गुनाहगार का स्वर एकाएक अत्यंत मधुर हो उठा। वे बोले, ‘यार तुम्हें तो मालूम है कि अगले कुछ ही दिनों में होली आने वाली है। पिछले कई दिनों से लोगों की पाकेट मार रहा हूं, लेकिन कोई खास रकम मिली नहीं। किसी के पर्स से दो सौ से ज्यादा की रकम निकली नहीं। और तुम जानते ही हो कि इस महंगाई के जमाने में इतनी रकम से होली नहीं मनाई जा सकता है। यदि तुम कुछ मदद कर सको, तो....’

गुनाहगार ने पलभर मेरे चेहरे को निहारा, फिर बोले, ‘क्या बताऊं यार, अपने घर का बजट भी बिल्कुल आम बजट की तरह है। होली हो या दीवाली, हमेशा गड़बड़ाया ही रहता है। कभी बच्चे त्योहार के अवसर पर कम बजट का रोना रोते हैं, तो कभी घरैतिन राशन, कपड़े, हारी-बीमारी के मद में कम पैसे को लेकर अपना माथा पीटती है। हर महीने कुछ न कुछ रुपये तो उधारी चुकाने में चला जाता है। अगर तुम कुछ मदद कर सको, तो थोड़े-थोड़े रुपये तुम्हें भी हर महीने वापस करता रहूंगा। वैसे होली पर जब लोग रंग खेलने में मशगूल होंगे, तब मैं अपने ब्लेड का भरपूर उपयोग करूंगा और हो सकता है कि तुम्हारी रकम होली की शाम तक ही वापस हो जाए।’

इसके बाद गुनाहगार ने कर्ज मांगने के वे तमाम लटके झटके अपनाए, जो आम तौर पर सरकारें वर्ल्ड बैंक से कर्ज लेते समय अपनाती हैं। मैं भी दस-बारह हजार रुपये का चूना लगवाकर घर लौट आया।

Tuesday, March 15, 2011

हाय राम...लोकतंत्र मर गया

-अशोक मिश्र

(पर्दा उठता है। दो आदमी दिल्ली की सड़कों पर पैदल जाते दिखाई देते हैं। उनके पीछे-पीछे सूत्रधार आता है और जनता की ओर मुंह करके खड़ा हो जाता है।)

सूत्रधार : यह दिल्ली है। वह दिल्ली जो कई बार उजड़ी और बसी। उजड़ने के दौरान दिल्ली और उसके आस-पास रहने वालों का खून बहा, तो बसने के दौरान श्रमिकों का पसीना। इसी दिल्ली में 15 अगस्त 1947 को पैदा हुई थी लूली-लंगड़ी स्वतंत्रता जिसका अपहरण पैदा होते ही काले बनियों के दलालों ने कर लिया। इसी के कुछ दिन बाद पैदा हुआ लोकतंत्र जिसके सीने पर घोटालों का बदनुमा जन्मजात दाग था। यह लोकतंत्र मर गया, पर कैसे? यह आज तक रहस्य है। तो आइए, आपको रू-ब-रू कराते हैं उस्ताद मुजरिम और टुटपुंजिया पत्रकार से।

(इतना कहकर सूत्रधार पर्दे के पीछे चला जाता है। दिल्ली की सड़कों पर उस्ताद मुजरिम और पत्रकार बुद्धिबेचू प्रसाद घूमते दिखाई देते हैं।)

पत्रकार बुद्धिबेचू प्रसाद :
हाय...हाय...सुबह से दिल्ली की गलियों की खाक छानते-छानते पैर और दिमाग का कचूमर निकल गया। उस्ताद! अगर इन दिनों बेरोजगार न होता, तो आपके चंगुल में कतई नहीं आता। (दर्शकों की ओर मुंह करके) भाइयों, आप तो जानते ही होंगे, बेरोजगार आदमी किसी काम का नहीं होता। बेरोजगारी का एक मच्छर आदमी को नपुंसक बना देती है। अभी कुछ ही दिन पहले तो दैनिक ‘बमबम टाइम्स’ की नौकरी से इस्तीफा दिया है।

उस्ताद मुजरिम :
बेटा बुद्धिबेचू प्रसाद वल्द कलम खसीटू प्रसाद! सड़कों की खाक छानने के फायदे से अभी तुम वाकिफ नहीं हो। इसी से ऐसी बातें करते हो। अगर सुबह से शाम तक खाली पेट सड़कों की खाक छानी जाए, तो दिमाग रूपी गटर से ढेर सारे नए-नए विचार निकलते हैं। ये विचार किसी भी आदमी की तकदीर बदल देते हैं।

बुद्धिबेचू प्रसाद : उस्ताद! सुबह की एक चाय की बदौलत आधी दिल्ली की खाक छान आए हैं। दिमाग के गटर से आइडिये के बगूले तो अब तक नहीं फूटे। हां, इतना जरूर हुआ कि पांच घंटे पैदल चलते-चलते टांगों की कचूमर जरूर निकल गई। मुझे तो लग रहा है कि अगर अब दो कदम भी चलना पड़ा, तो गश खाकर गिर पड़ूंगा। वहीं आप हैं कि किसी जिराफ की तरह लंबे डग भरे चले जा रहे हैं।

(तभी मंच के एक कोने में खड़ी भीड़ नजर पड़ते ही दोनों ठिठक जाते हैं।)

मुजरिम : या इलाही ये माजरा क्या है? यहां इतनी भीड़ क्यों लगी हुई है। बेटा बुद्धिबेचू, आओ चलते हैं, देखते हैं कि मामला क्या है? ’

(दोनों लपककर भीड़ के पास पहुंचते हैं। सड़क के बीचोबीच एक लाश पड़ी है और पुलिस के कुछ सिपाही उसके पास खड़े हैं। भीड़ में शामिल एक आदमी फुसफुसाता है।)

आदमी : साले, पिछले आधे घंटे से खड़े अपने बाप का इंतजार कर रहे हैं। यह नहीं होता कि इसे हटाकर रास्ता साफ करायें।

मुजरिम : अरे! यहां तो कोई मरा पड़ा है, लगता है कि कोई एक्सीडेंट हुआ है। इस देश में कोई भरोसा नहीं कब एक्सीडेंट हो जाए। (उस आदमी से) ‘शिनाख्त हुई? किसकी लाश है यह? पुलिस कुछ करती क्यों नहीं?’

आदमी : (मुस्कुराते हुए) अभी तक तो नहीं हो पाई है। आप भी देख लें, क्या पता आपका ही कोई परिचित निकल आए। वैसे आपको बता दें, पुलिस अपना काम कर रही है।
मुजरिम : मुझे तो पुलिस कोई काम करती नहीं दिखाई दे रही है। हां, सनातनी काम करती जरूर दिख रही है पुलिस। चुपचाप खड़ी मक्खियां मार रही है।

आदमी : (विरोध करते हुए) जी नहीं, पुलिस अपने काम में बड़ी मुस्तैदी से जुटी हुई है। पुलिस को भीड़ में से एक ऐसे आदमी की तलाश है जिसको बलि का बकरा बनाया जा सके। वह आदमी आप भी हो सकते हैं, मैं भी हो सकता हूं। इस भीड़ में शामिल हर व्यक्ति पुलिसवालों की निगाह में सिर्फ बकरा है जिसे जब चाहे, जहां चाहे हलाल किया जा सकता है।

(तब तक मुजरिम भीड़ को चीरकर लाश के पास पहुंच चुके थे।

मुजरिम : (लाश पर नजर पड़ते ही चिल्लाते हैं) अरे! यह तो लोकतंत्र है! हाय राम...यह क्या हो गया?...लोकतंत्र मर गया?’

(मुजरिम की बात सुनते ही ऐं...कहता हुआ एक पुलिस वाला चौंकता है।)

सिपाही : (पिच्च से तंबाकू थूकता हुआ) अबे! तू जानता है इसे? (एक दूसरे पुलिस वाले की तरफ घूमता हुआ)चौबे जी, एक प्रॉब्लम तो इस ससुरे ने साल्व कर दी।’

(सिपाही चौबे जी को पास आने का इशारा करता है।)

मुजरिम: (रुआंसा होकर) ‘हां साब! मैं शिनाख्त कर सकता हूं इसकी। यह लोकतंत्र है...भारतीय लोकतंत्र...दुनिया का सबसे बड़ा किंतु किसी कोढ़ के रोगी की तरह सड़ांध मारता हमारा प्यारा लोकतंत्र। घपलों और घोटालों का मारा लोकतंत्र। विपक्षी दलों द्वारा पंगु बना दिया गया बेचारा लोकतंत्र।’

सिपाही : (मुजरिम का कालर पकड़ते हुए) : ‘क्या बकता है बे! जिस लोकतंत्र की सुरक्षा का भार ‘चार कंधों’ पर हो, वह इस तरह लावारिस मर जाए, यह हमारे लिए शर्म की बात है। तू कहीं नशे में तो नहीं है?’

मुजरिम : (अपना कॉलर छुड़ाते हुए) आप चारों की वजह से ही तो परेशान था यह! आप में से जिसे भी जब मौका मिलता था, दबोच लेते थे और वह सब कुछ कर डालते थे, जो नहीं करना चाहिए। बेचारा साठ-बासठ साल में ही सात सौ साल का लगने लगा था। इधर कुछ दिनों से तो बहुत परेशान था।

सिपाही : (जमीन पर डंडा फटकारता है) साफ-साफ बता, बात क्या है? पहेलियां बूझने की न तो अपनी आदत है और न ही यह भाषा अपने पल्ले पड़ती है। डंडे की भाषा जानता हूं और यह समझाना जानता हूं। कहे तो समझाऊं? तेरे जैसों से रोज पाला पड़ता है।

मुजरिम : (पुलिस वाले के तेवर देखकर खुशामदी लहजा अख्तियार करते हुए) साब! जब से यह टू-जी, राडिया-राजा प्रकरण और आदर्श घोटाला हुआ है, तब से कुछ ज्यादा ही बेचैन था। कुछ साल पहले जब कुछ सांसदों ने सवाल पूछने के नाम पर रोकड़ा मांगा था, तब तो एकदम पागल हो गया था लोकतंत्र। अपनी करतूतों से जितनी बार लोकतंत्र के ये चारों स्तंभ दुनिया के सामने नंगे होते थे, जितनी बार भारतीय राजनीति दागदार होती थी, उतने दाग इसके शरीर पर उभर आते थे। साब, आपको विश्वास न हो, तो इसकी कमीज उलटकर देख लें। इसकी पीठ और पेट पर घोटालों और शर्मनाक कांडों के निशान आपको मिल जाएंगे।’

(मुजरिम की बात पूरी नहीं हो पाती है कि पुलिस की एक जीप आकर भीड़ के पास रुकती है। उसमें से एसएचओ और कुछ सिपाही उतर कर भीड़ को लाश के आसपास से हटाने लगते हैं। पहले से मौजूद सिपाही एसएचओ को जोरदार सल्यूट मारता है।)

सिपाही : ‘मृतक की शिनाख्त हो चुकी है सर। यह आदमी इसे लोकतंत्र बताता है। बाकी आप दरियाफ्त कर लें, हुजूर।

थानेदार : (मुजरिम को पहले ऊपर से नीचे तक निहारता है। फिर कड़क स्वर में पूछता है।) तू क्या बेचता है और कैसे कह सकता है कि यह लोकतंत्र है? जिस लोकतंत्र की रक्षा में देश-प्रदेशों के सांसद, विधायक, सत्तारूढ़ और गैर सत्तारूढ़ पार्टियों के नेता, अफसर लगे हुए हों। पूरा का पूरा पुलिस महकमा लगा हुआ हो, वह लोकतंत्र इस तरह सड़क पर लावारिस मरा हुआ पाया जाए, यह कैसे हो सकता है? अगर सचमुच लोकतंत्र मर गया, तो सबके भूसा भर दूंगा।

मुजरिम : (थूक निगलते हुए) हुजूर! मैं कुछ बेचता नहीं, एक मामूली पाकेटमार हूं। मेरा और आपका पेशा लगभग एक जैसा है। जिस काम को आप बड़े पैमाने पर सामूहिक रूप से करते हैं, वही काम मैं छोटे स्तर पर व्यक्तिगत रूप से करता हूं। आप इस काम की पगार लेते हैं, जबकि मैं अगर यह करता पकड़ा जाऊं, तो पब्लिक से लेकर पुलिसवालों तक के जूते खाता हूं। अब तो आप जान ही गए होंगे कि मेरा नाम मुजरिम है।

मुजरिम : (सांस लेने के लिए पल भर को रुकता है।) इस लोकतंत्र से मेरी पुरानी यारी रही है। हम दोनों एक दूसरे के लंगोटिया यार थे। मजे की बात तो यह है कि हम दोनों की पैदाइश भी एक ही दिन की है। मेरी मां ‘व्यवस्था’ बताती हैं कि जिस समय मैं यानी मुजरिम पैदा हुआ था, खूब हट्टा-कट्टा था, लेकिन यह तो जन्म से ही लंगड़ा था। कहते हैं कि अंग्रेजों और देसी पूंजीपतियों से इसके ‘बापू’ बड़ी सहानुभूति रखते थे। वे नहीं चाहते थे कि विद्रोहिणी क्रांति यानी मेरी मौसी कोई ऐसा बच्चा जने, जो इन दोनों यानी बापू और लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो। इसलिए ‘बापू’ ने गर्भवती ‘क्रांति’ के पेट पर लात मारकर गर्भ गिरा दिया था। बाद में पता नहीं कैसे क्रांति की सौतेली बहन व्यवस्था के गर्भ से यह लंगड़ा लोकतंत्र पैदा हो गया। अंग्रेज पूंजीपतियों ने हम जैसों का खून चूसकर इसको पाला-पोसा। काले बनियों ने बैसाखी के सहारे चलना सिखाया। इसीलिए यह काले बनियों का मुरीद बनकर रह गया। काले बनियों पर जब भी कोई मुसीबत आती थी, यह डेढ़ टांग पर खड़ा होकर अपनी साजिशी तान देने लगता था। साब! मजाल है, कोई मुसीबत इसकी जानकारी में इन काले बनियों का कुछ बिगाड़ सके। यह तो बातचीत के दौरान अक्सर कहा करता था। बनिये इस देश के भाग्यविधाता हैं। भाग्य विधाता का हित सुरक्षित रहे, इसके लिए जरूरी है कि जनता के हित असुरक्षित रहें। उनका भरपूर शोषण होता रहे।

एसएचओ: (आंख पर चढ़ा काला चश्मा उतार कर लाश का मुआयना करता है। कमीज उलटकर लाश के पास बने एक पैदायशी निशान को गौर से देखता है।) हवलदार रामधनी, नोट करो। मृतक की कमर से दो इंच नीचे एक पैदायशी निशान है।

मुजरिम : (एसएचओ की बात काटते हुए) हां साब, यह निशान जीप घोटाले का है। हुजूर! आप तो जानते ही होंगे, देश का सबसे पहला घोटाला ही जीप घोटाला था। तब यह पैदा नहीं हुआ था। हां, व्यवस्था के गर्भ में भ्रूण रूप में जरूर आ चुका था। उस समय देश पर अंग्रेजों का शासन था। लेकिन उस घोटाले के पैदायशी निशान इसकी कमर पर उभर आए थे। इसके बाद देश आजाद हो गया। कुछ दिन तक सत्ताधीशों ने चना-चबैना खाकर दिन काटे, लेकिन एक मंत्री से बर्दाश्त नहीं हुआ। उसने आजाद भारत का पहला घोटाला किया। इस घोटाले का निशान आपको लोकतंत्र के ठीक दिल के पास दिख गया होगा। इसके बाद मंत्री, सांसद, विधायक और अधिकारी मरभुक्खों की तरह लोकतंत्र पर टूट पड़े और लूट-लूट कर खाने लगे। फिर क्या था। जैसे-जैसे घोटाले बढ़ते गए। लोकतंत्र के शरीर पर दाग बढ़ते गए। जितना बड़ा घोटाला, उतने बड़े दाग। लोकतंत्र का चेहरा ही बदरंग हो गया। साब, एक बात बताऊं! हर घोटाले पर इसकी आत्मा कराह उठती थी। कई बार तो मैंने इसे बिलख-बिलखकर रोते देखा था।

एसएचओ : (रोब झाड़ता हुआ) अबे! तू फालतू की राम कहानी छोड़। सबसे पहले तो तू यह बता, यह मरा कैसे?’

मुजरिम: (एसएचओ की बात सुनकर सिटपिटा जाता है।) साब! मैं यह कैसे बता सकता हूं। मैं कोई डॉक्टर तो नहीं हूं। आप लाश का पंचनामा बनाइए, पोस्टमार्टम के लिए भेजिए। कल तक आपको सब पता चल जाएगा। हां, इतना बता सकता हूं...कल रात यह मेरे पास आया था। कुछ बोल नहीं पा रहा था। बीच-बीच में आदर्श..आदर्श...कामनवेल्थ-कामनवेल्थ, राडिया-राजा जैसा कुछ बड़बड़ा रहा था। फिर बोला कि मैं किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं रहा। इतना कहकर लोकतंत्र कहीं चला गया था। मैंने समझा कि घर गया होगा। आज सुबह यहां इसकी लाश देखी। मेरा ख्याल है कि यह शर्म से मर गया है।’

सिपाही : (एसएचओ के कान में फुसफुसाता है।) ‘साब! मुझे तो यही कातिल लगता है।’

एसएचओ : पकड़ लो साले को, यही हत्यारा है। पकड़कर थाने ले चलो और चार्जशीट तैयार करो।
(लोकतंत्र की हत्या के जुर्म में मुजरिम पकड़ लिया जाता है। पत्रकार बुद्धिबेचू प्रसाद चुपचाप वहां से खिसक लेता है।)

(इस नुक्कड़ नाटक को संस्थाओं को इस शर्त पर मंचन की अनुमति प्रदान की जाती है कि वे रचियता के रूप में मेरा नाम देंगे। यदि वे कोई संशोधन या सुधार करते हैं, तो इसके बारे में भी जानकारी देंगे।)

Thursday, March 3, 2011

विकीलीक्स के फंदे में गुनाहगार

-अशोक मिश्र

कल उस्ताद गुनाहगार घर आए, तो बहुत घबड़ाए हुए थे। मैंने उन्हें ठंडा पानी पिलाया और पूछा, 'क्या बात है उस्ताद! काफी घबराए हुए से हैं। भाभी जी ने तलाक तो नहीं दिया है न!'

उस्ताद ने बसंत ऋतु में ही माथे पर चुहचुहा आए पसीने को पोछते हुए कहा, 'तुम्हारी भाभी गयीं मिट्टी का तेल लेने। तुम्हें इसके अलावा कुछ सूझता भी है? यहां विकीलीक् स वालों द्वारा नाक में दम कर देने का अंदेशा है और तुम हो कि भरी दोपहरिया में राग विहान गा रहे हो। पहले तो मुझे यह बताओ कि ये विकीलिक्स क्या बला है। क्या विकीलीक्स की पहुंच हर कहीं है? अमेरिका राष्ट्रपति के बेडरूम से लेकर अमीनाबाद के मदर चेंज...मेरा मतलब है कि माता बदल पंसारी के गोदाम तक...।'

उस्ताद की बात सुनकर मैं चौंक गया। उस्ताद और विकीलीक्स के बीच किसी कनेक्शन की बात मैं सोच भी नहीं पा रहा था। काफी दिमाग खपाने के बाद भी जब नहीं सूझा, तो उस्ताद से ही पूछ लिया, 'उस्ताद, विकीलीक्स का आपसे क्या लेना देना। कहां आप और कहां विकीलीक्स। भारत के ख्यातिप्राप्त पाकेटमार का विकीलीक्स जैसे टुटपुंजियां नेकवर्क से क्या वास्ता?'

उस्ताद ने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'अमां यार! कुछ भी कहो, विकीलीक्स ने तो अमेरिका और भारत जैसे देशों की आंख में अपनी अंगुली घुसेड़ रखी है। पट्ठे ने कैसी-कैसी बातें उजागर की है। अमेरिका के राष्ट्रपति विदेशी राष्ट्राध्यक्षों को यह कहते हैं, वह कहते हैं, जैसी बातें भी खोल कर रख दी है। तभी तो अमेरिका वाले तिलमिलाए घूम रहे हैं। गुरु कहो चाहे कुछ भी, लेकिन ये विकीलीक्स वाले हैं बडेÞ शातिर।'

'लेकिन आप यह बताएं कि आप विकीलीक्स के मामले में कहां फिट होते हैं। आपकी टांग उसमें कैसे फंसी हुई है।'

मेरी बात सुनते ही उस्ताद एक बार फिर उदास हो गए। उन्होंने कहा,'कोई जुगाड़ हो, तो विकीलीक्स वालों से मेरी बात कराओ। अगर विकीलीक्स वालों के पास मेरे बारे में कोई जानकारी हो, तो मैं उसे किसी भी कीमत पर खरीद या वह सूचना लीक करने से रोकना चाहता हूं।'

उस्ताद की बात सुनकर मुझे कोफ्त हुई। बात क्या है, यह बताने की बजाय लंतरानी हांके चले जा रहे हैं। मैंने थोड़ा तल्ख लहजे में कहा, 'जब तक मामले की पूंछ मेरी पकड़ में नहीं आएगी, तब तक मैं आपकी समस्या का हल नहीं सुझा सकता। आप कम से कम मुझे तो साफ-साफ बताएं कि माजरा क्या है। विकीलीक्स वालों ने आपकी कौन-सी भैंस खोल दी है। या आपके घर से भेली (गुड़) चुरा ली है।'

उस्ताद ने 'सूं...' करके गहरी सांस ली और बोले, 'बात यह है कि तुम्हारी भाभी को शक है कि मैं बाजू वाली मिसेज सक्सेना को लाइन मारता हूं। बात दरअसल यह है कि कुछ दिन पहले घर से निकलते वक्त मिसेज सक्सेना से थोड़ी बात हो गई। उसके अगले दिन मिसेज सक्सेना बाजार में मिल गईं। ऐसा ही संयोग तब बना, जब मैं तुम्हारी भाभी जी के साथ मल्टीप्लैक्स में 'आन मिलो सजना' देखने गया। वहां मिसेज सक्सेना को देखते ही बेगम के कान खड़े हो गए। पता नहीं किस नामुराद ने तुम्हारी भाभी को पिछली दो मुलाकातों के बारे में बता दिया। तब से मैं उसको खोज रहा हूं। अगर वह मिल जाए, तो उसके कान के नीचे गरम कर दूं। इस मामले में तो वही कहावत चरितार्थ हो रही है कि सूत न कपास, जुलाहे से लट्ठमलट्ठा। अभी कल ही अखबारों में पढ़ा है कि विकीलीक्स वालों की इतनी तगड़ी पहुंच है कि वे पूरी दुनिया के बारे में राई-रत्ती खबर रखते हैं। सोचता हूं कि कहीं विकीलीक्स वालों ने तो तुम्हारी भाभी के कान नहीं भरे हैं। अगर उनके पास मेरी और मिसेज सक्सेना की बात करते हुए फोटो-सोटो हो और वह बेगम के हाथ लग गए, तो अपनी लंका लग जाएगी। यदि कोई सुबूत वगैरह हो, तो पैसा ले-देकर मामला सुलट जाए, तो अच्छा है।'

उस्ताद गुनाहगार की बात सुनकर मुझे काफी हंसी आई। मैंने ठहाका लगाते हुए कहा, 'उस्ताद! काली भेड़ को खोजना है, तो अपने इर्द-गिर्द रहने वालों में तलाशिए। विकीलीक्स वालों के पास आपके खिलाफ कोई सुबूत नहीं होगा, इसकी मैं गारंटी लेता हूं।'

मेरी बात सुनकर उस्ताद गुनाहगार झटके से उठे और बोले, 'तुमसे कोई सलाह मांगना ही बेकार है। जब मैं कहता हूं कि विकीलीक्स वालों की यह करतूत हो सकती है, तो आप उसे क्लीन चिट देने पर तुले हुए हैं। लगता है कि तुम विकीलीक्स वालों से पैसा खा गए हो।!' इतना कहकर वे चलते बने।