Thursday, April 25, 2013

...आज पर्चा सही होगा

अशोक मिश्र 
जैसे ही आफिस के मोड़ पर गाड़ी पहुंची, तो सीधी सड़क पर काफी दूर एक गधे को खड़ा देखकर संपादक जी ने कहा,‘आज का पर्चा (प्रश्नपत्र) सही होगा?’ मैं चौंक गया। प्रतिक्रियास्वरूप तत्काल मेरे मुंह से निकला, ‘क्या मतलब?...’ संपादक जी ने गहरी मुस्कान बिखेरते हुए कहा, ‘बचपन में परीक्षा देते जाते समय अगर रास्ते में कोई गधा मिल जाता था, तो हम लोग मानते थे कि आज का पर्चा ठीक होगा।’ मैं भी गधे पर दांव खेल गया। बड़ी जोर की आवाज निकाली, ‘हूं...ऊ...तो आप भी गर्दभराजों की बदौलत पास होते रहे हैं?’ संपादक जी ने तत्काल फुलटॉस फेंकी, ‘नहीं...गधों के बल पर नहीं...पास तो मैं अपनी मेहतन और लगन के बल पर होता रहा हूं, लेकिन बात बताऊं। गधे उस समय के दौर में परीक्षार्थियों के लिए ‘चीयरगर्ल्स’ जैसी भूमिका निभाते थे। हम परीक्षार्थियों को देखते ही जिस लय और ताल में तत्कालीन गधे दुलत्तियां झाड़ते थे, गर्दभ राग अलापते थे, वह हम लोगों में नई ऊर्जा का संचार करता था। तुमने कभी क्रिकेट मैचों में चीयरगर्ल्स को कमर मटकाकर दर्शकों को उत्साहित करते देखा है? अगर नहीं, तो देखो। तब तुम्हें चीयरगर्ल्स की उपयोगिता समझ में आएगी। अच्छा, हमारे जमाने की कल्पना करो और बताओ, हम विद्यार्थियों को चीयरअप करने वाला कौन था। बापू को अपने काम-धंधों से ही फुरसत नहीं थी। फुरसत भी मिली, तो उनके अपने ऐब थे। डंड-बैठक लगाना, जमकर दूध पीना और दिन भर में सेर भर भांग खाकर मस्त रहने के सिवा उन्हें कुछ आता नहीं था। अम्मा के लिए यही बहुत था कि उनका बेटा स्कूल-कॉलेज जाता है। प्रेरक कौन था उस जमाने में? यही गर्दभराज ही न! स्कूल जाते समय मिल गए, तो आज मास्साब नहीं पीटेंगे। पर्चा देने जाते समय गधे से मुलाकात हो गई, तो पर्चा अच्छा होगा। पथप्रदर्शक कहो या प्रेरक, गधे महाराज ही थे न! अगर इन्हें देखकर हमारे कोमल मन को यह विश्वास न होता कि आज मास्साब नहीं पीटेंगे, तो क्या रमुआ, बुधई, प्रीतो, कांति जैसे लोग साक्षर हो पाते? सरकार की शिक्षा योजनाएं धूल-धूसरित हो गई होतीं और साक्षरता दर घड़ी के पेंडुलम की तरह आज भी उसी तरह झूल रही होती, जिस तरह आज से चार-पांच दशक पहले झूल रही थी।’
इतना कहकर संपादक जी सांस लेने के लिए रुके, ‘भारत में शिक्षा के प्रचार-प्रसार में जितना महत्वपूर्ण योगदान इन गधों का है, उतना किसी का नहीं। गधे टाइप विद्यार्थियों और शिक्षकों का भी नहीं।’ मैंने पूछा, ‘अच्छा एक बात बताइए, सर। क्या राजनीति में ‘चीयरगर्ल्स’ या ‘चीयरलीडर्स’ टाइप के गधे पाए जाते हैं?’
संपादक जी ने कार का शीशा गिराकर थूकने के बाद कुछ देर सोचा और फिर बोले, ‘देखो, प्रवृत्ति और पेशे के हिसाब से कहूं, तो पूरी राजनीति में ऐसे ही लोग भरे पड़े हैं। ये बडका नेता को देखकर तो चारों पैर उठाकर लोट लगाते हैं, ढेंचू-ढेंचू करके प्रशस्तिगायन करते हैं, लेकिन उन्हें जहां अपनी बिरादरी का दूसरा गधा टाइप का नेता दिखा, दुलत्तियां झाड़ने लगते हैं। किसी पार्क या चारागाह में ये मुंह मार रहे हों और दूसरा गधा आ जाए, तो फिर देखो इनका रवैया। न खुद खाएंगे, न अपनी बिरादरी वाले को खाने देंगे। दूसरा भले ही खाए भी और जाते समय चारागाह में आग लगाकर चला जाए, इन्हें संतोष रहेगा।’
‘लेकिन इनकी संख्या तो बहुत सीमित होगी?’ अब मेरी उत्सुकता चरम पर थी। गधे के पास से गुजरते समय मुझ पर पता नहीं क्या खब्त सवार हुई, मैंने हाथ निकालकर गधे की पीठ पर फेर दिया। हाथ लगते ही गर्दभराज भड़क गए। उन्होंने तिरछे होकर पता नहीं किस स्टाइल से दुलत्ती झाड़ी की कि कार की विंडो का ग्लास ‘चटाक’की आवाज करता हुआ शहीद हो गया। ऐसा होते ही संपादक जी अगिया बैताल हो गए, ‘नामाकूल, नालायक...गधे...गधे से प्यार जताने की क्या जरूरत थी? बहुत ज्यादा बिरादराना मोह जाग गया था, तो गाड़ी से उतरकर उसको गले लगाते, उससे लाड़ जताते। करवा दिया न...दो हजार का नुकसान। यह नुकसान तेरी तनख्वाह से काटकर पूरा करूंगा।’ आॅफिस के सामने गाड़ी से उतरा, तो बुदबुदा रहा था, ‘सर जी! गधे को देखने से भले ही बचपन में आपका पर्चा सही हुआ हो, लेकिन मेरा पर्चा तो बिगड़ गया। कसम खाता हूं, जो आज के बाद घर या बाहर किसी गधे को भाव दिया तो...।’ ...और महीने बाद जब तनख्वाह मिली, तो उसमें से दो हजार रुपये काट लिए गए थे।

Wednesday, April 24, 2013

पीड़ा को आवाज देती कहानियां

सुभाष झा                                                     
कोई रचनाकार तभी सफल माना जाता है, जब उसकी रचनाएं पाठकों को अपनी लगें। अपनी जैसी लगें। आस-पड़ोस की लगें। रचनाएं भी वही मौजूं होती हैं, जिससे कोई संदेश समाज को मिलता हो। जो देशकाल का प्रतिनिधित्व करता हो। इस लिहाज से दयानंद पांडेय समर्थ रचनाकार हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत यही है कि वे अपनी रचनाओं में नाटकी
यता को हावी नहीं होने देते। सीधे-सीधे पाठकों से संवाद करने में उनकी कलम समर्थ है। बेहतरीन शिल्प के साथ रोजमर्रा घटित हो रही घटनाओं को वे बड़ी तल्खी से उजागर करने में माहिर हैं। ऐसे ही तमाम पक्षों को समेटते हुए उनकी पुस्तक है ‘फेसबुक में फंसे चेहरे’।
कहानी संग्रह ‘फेसबुक में फंसे चेहरे’ शीर्षक कहानी की सबसे पहले बात की जाए, तो इसमें लेखक ने बाजार में स्याह होती संवेदनाओं को पुरजोर तरीके से पाठकों के सामने रखा है। इस कहानी के मुख्य पात्र राम सिंगार की इस चिंता से ही शुरू होती है कि आदमी के आत्म विज्ञापन की यह राह (फेसबुक) क्या उसे अकेलेपन की आह और आंधी से बचा पाएगी? अपनी कहानी में कथाकार स्वयं बताते हैं कि रामसिंगार भाई यह जानकर मुदित होते हैं कि बड़े बाबू ने अकेले ही गांव के विकास में बहुत योगदान दिया, जिससे गांव में बिजली, सड़क स्कूल आदि सुलभ हो गए हंै। राम सिंगार भाई सोचते हैं कि यह फेसबुक पर नहीं है। फेसबुक पर वे लोग हैं, जो आत्म विज्ञापन के चोंचले में डूबे हुए हैं। वहां अतिरिक्त कामुकता है, अपराध है, बेशर्मी है। ऐसे लोगों के मुखौटे उधेड़ती यह कहानी वहां खत्म होती है, जहां एक मॉडल की कुछ लिखी हुई नंगी पीठ की पोस्ट लगाते ही सौ से ज्यादा कमेंट आ जाते हैं, लेकिन जब जन सरोकार संबंधी गांव की पोस्ट लगाई जाती है, तो उस पर सिर्फ दो कमेंट आते हैं, वह भी शिकायती अंदाज में। मजे की बात यह है कि सब जानने के बाद भी राम सिंगार भाई फेसबुक पर उपस्थित हैं।
झूठे रंग-रोगन में चमकते चेहरे और बाजार मनुष्यता को किस प्रकार लील रहे हैं, उस पर तल्ख टिप्पणी कथाकार ने ‘सूर्यनाथ की मौत’ शीर्षक कहानी में की है। इस कहानी में वे बताते हैं कि एक आदमी जिस परिवेश को अपने अनुकूल नहीं समझता है, उसी में रहने के लिए किस तरह विवश होता है। इसमें मॉल कल्चर की अमानवीयता को दिखाया गया है। इसमें यह दिखाने की कोशिश की गई है कि इतना बड़ा बाजार, इतने अधिक उत्पाद मनुष्य को बौना बना रहे हैं। उनकी मौलिकता के पंख को नोचकर उनमें केवल क्रेता या विक्रेता का भाव भर रहे हैं। कहानी का नायक सूर्यनाथ है, प्रकाशमान, न्यायी और खरा है, इसीलिए वह धीरे-धीरे मौत की ओर खिसक रहा है। कहानी में एक बार नायक के मन में आता है कि ‘बिरला भवन’ में ‘गांधी स्मृति’ चला जाए, जहां महात्मा गांधी को गोडसे ने गोली मारी थी, वहीं खड़ा होकर प्रार्थना के बजाय चीख-चीख कर कहे कि ‘हे गोडसे आओ, हमें और हम जैसों को भी मार डालो।’ दरअसल, इस कहानी मेंकथाकार दयानंद पांडेय देश की जनता की सबसे कमजोर और दुखती रग पर अंगुली रखते हैं। कहानी के अंत में स्वयं वे कहते हैं, ‘कोई गोडसे गोली नहीं मारता। सब व्यस्त हैं, बाजार में दाम बढ़ाने में व्यस्त हैं। सूर्यनाथ बिना गोली खाए ही मर जाते हैं।’
‘घोड वाले बाऊ साहब’ खोखले अहंकार और नैतिकता के टूटने की कहानी है। इस कहानी में झाड़-फूंक, संन्यासी, आश्रम, पुलिस स्टेशन आदि के दोगलपन का वर्णन है। ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ में कथाकार ने बड़े ही साफगोई के साथ स्वार्थ पर टिके हुए विवाहेत्तर संबंध को बयां किया है। कभी-कभी जीनियस से जीनियस किस कदर पतन के गर्त में चला जाता है, जहां मौत भी पनाह नहीं देती, उसे हत्या या आत्महत्या के दौर से गुजरना होता है, इस बात को बड़ी बेबाकीपन से बयां किया है। ‘बर्फ में फंसी मछली’ कहानी में नायक को कई लड़कियों से प्रेम, फ्लर्ट, चैटिंग और उनसे पीछा छुड़ाते हुए आखिर उसे एक रशियन लड़की से प्यार हो जाता है। रशियन पुरुषों से अतृप्त रीम्मा भारतीय पुरुष से प्यार पाना चाहती है, वह हिंदुस्तान आना चाहती है। इस कहानी का नायक देखता है कि समूचा अंतरजाल सेक्स को समर्पित है। कहानी संग्रह की सबसे लंबी कहानी ‘मैत्रोयी की मुश्किलें’ है। इसकी नायिका जितना ही प्रेम, सम्मान और सुरक्षा पाना चाहती है, उतनी ही मुश्किलों में फंसती जाती है। इसमें कथाकार ने बड़ी ही खूबी से पल-पल बदलते स्त्री-पुरुष के संबंध को पाठकों के समक्ष पेश किया है।
इस सबके बीच यदि कहानी संग्रह की पहली कहानी की जिक्र नहीं की जाए, तो पुस्तक और कहानीकार के साथ न्याय नहीं होगा। ‘हवाई पट्टी के हवा सिंह’ नामक शीर्षक कहानी में दयानंद पांडेय ने अपनी खिलदंड़े अंदाज को पाठकों से रू-ब-रू कराया है। हालांकि, इसमें अशिक्षित, बेलगाम युवाओं की समस्या उठाई गई है। गांव का चित्रण, ग्रामीण परिवेश के लोगों की सोच को लोगों के सामने रखा है। संग्रह की तमाम कहानियों और उसके कथ्य को समष्टीय में देखा जाए, तो पहली कहानी पाठकों को औरों से अलग दिखती है। यदि यह कहा जाए, तो संग्रह की सबसे कमजोर कहानी पहली कहानी ही है, तो गलत नहीं होगा।
कुछ मिलाकर कहानी संग्रह की सभी कहानियां उत्तम हैं। सही मायने में अपने पास-पड़ोस की घटनाओं पर लेखनी चलाने में दयानंद पांडेय सिद्धहस्त हैं। उनकी भाषा में प्रवाह है। प्रांजलता है। शिल्प के स्तर पर वह सशक्त हैं। संवाद अदायगी प्रभावपूर्ण है। इन सबसे बड़ी खूबी है उनकी किस्सागोई, जो उन्हें समकालीन कहानीकारों से अलग करती है। आम आदमी की पीड़ा को आवाज देने में काफी सफल हुए हैं।
पुस्तक: फेसबुक में फंसे चेहरे
लेखक: दयानंद पाण्डेय
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि., मूल्य: रु. 350/-
पता: 5/7, डालीबाग आफिसर्स कालोनी, लखनऊ, मो. 09450246765, मो. 09450246765


Tuesday, April 16, 2013

उपन्यास ‘चिरकुट’ का एक अंश

अशोक मिश्र                                                                                                                                                एक दिन शिवाकांत आफिस पहुंचा, तो देखा कि न्यूज रूम में मजमा लगा हुआ है। सहायक संपादक प्रतुल गुप्ता, रिपोर्टर गीतिका, क्राइम रिपोर्टर सागर दत्त शुक्ल, पहले पेज के इंचार्ज नमो नारायण भारद्वाज, फीचर डिपार्टमेंट का संजीव चौहान, डिप्टी न्यूज एडीटर सुकांत अस्थाना, आईटी डिपार्टमेंट के कुछ लड़के बैठे ठहाका लगा रहे हैं। निखिलेश निखिल कथा वाचक की तरह दोनों पैर सिकोड़कर कुर्सी पर बैठे हुए हैं। पास में रखे डस्टबिन में वे बार-बार गुटखे की पीक थूकते और फिर अपनी बातों में लग जाते। 
‘तुम मुझे क्या सिखाओगे न्यूज लिखना? पहले तो यह बताओ, तुम खुद क्या हो? यू आर टोटली क्रिमिनल। तुम्हें तो बीच चौराहे पर गोली मार देनी चाहिए। इस देश में दस लोग कंटेंट के मास्टर हैं, उनमें से एक मैं भी हूं। बाकी सब जगलर हैं, लाइजनर हैं, मैनेजर हैं, लेकिन पत्रकार कोई नहीं है। क्या...पत्रकार कोई नहीं है। खुद जिंदगी भर एसपी सिंह का जूठा खाते रहे, उनकी लंगोट धोते रहे और पूरी जिंदगी एसपी सिंह को बेचते रहे। इसके सिवा तुमने किया ही क्या है जी। मुझे चले हो न्यूज समझाने। मैंने भी एसपी सिंह के साथ काम किया है।’ निखिल जी हाथ नचा-नचाकर बमक रहे थे, ‘मैं सबकी असलियत जानता हूं। इस दिल्ली में जितने भी छोटे से लेकर बड़े अखबारों के संपादक और बड़े पत्रकार हैं, उन सबकी असलियत जानता हूं। मैं तो लिखने जा रहा हूं न...इन बड़े-बड़े संपादकों पर किताब लिख रहा हूं, उसमें लिख रहा हूं न..कौन किसकी रंडी है, कौन किसका भड़ुवा है?’
निर्धारित जगह पर अपना हेलमेट रखने के बाद शिवाकांत जा पहुंचा निखिल के पास, ‘क्या हुआ भाई साहब? आप कुछ खफा दिख रहे हैं?’
डस्टबिन में गुटखा थूकने के बाद शिवाकांत की ओर अंगुली उठाकर निखिल बोले, ‘यह सब तुम्हारी ही करतूत है? क्यों जी...मुझमें न्यूजसेंस नहीं है क्या? मेरी भाषा खराब हो सकती है, मात्रा-फुलस्टाप की गलतियां हो सकती हैं, लेकिन मेरी रिपोर्ट खराब है, यह कहने वाले तुम कौन होते हो?’
एकाएक हुए हमले से शिवाकांत घबरा गया, ‘मैंने कब कहा कि आपकी रिपोर्ट खराब है? मुझसे यह क्यों कह रहे हैं? जिसने कहा है, उससे जाकर कहिए। है हिम्मत? खामख्वाह मुझे धमका रहे हैं।’ धीरे-धीरे उसका स्वर तल्ख होता गया।
‘क्या...मुझमें हिम्मत नहीं है? मेरी हिम्मत को चुनौती तो दो ही नहीं। मैं क्या कर सकता हंू, इसकी तुम लोग कल्पना भी नहीं कर सकते हो। मैं अब तक कई संपादकों को पीट चुका हूं। डीडी वन पर बहुत पहले शालिनी सिंह का एक न्यूज प्रोग्राम आता था। एक दिन किसी बात पर उसने आफिस के एक कर्मचारी पर हाथ उठा दिया। बस, मुझे गुस्सा आ गया। मैंने पकड़े उसके बाल और उसे खीचते हुए न्यूज रूम तक लाया। आज भी शालिनी सिंह के सिर के बीचोबीच कुछ जगह बाल नहीं हैं। उसके काफी बाल उखड़कर मेरे हाथ में आ गए थे।’
‘लेकिन इसमें मैं कहां से आ गया?’ शिवाकांत पूछ बैठा। 
‘नहीं..तुम नहीं...लोग कह रहे हैं। मेरे सामने कहें, तो मैं गोली मार दूं। खुद तो चोट्टे हैं, कुछ इस खबर का हिस्सा, कुछ उस खबर का हिस्सा लेकर जोड़-गांठ कर किसी तरह खबर पूरी कर ली, इधर-उधर से कापी पेस्ट कर लिया और हो गए बड़का रिपोर्टर।’ निखिल धारा प्रवाह बोलते जा रहे थे। 
प्रतुल गुप्ता ने मानो हवन में जलता लोहबान डाला, ‘सर जी...सारे लोग ऐसे ही करते हैं।’
‘बिल्कुल..ऐसा ही करते हैं। मैं तुम्हें बताऊं। सन 98 या उसके एकाध साल बाद की बात है। उन दिनों मैं बेरोजगार था। एक दिन सुबह-सुबह मेरे पास इंडिया टुडे से एक मित्र का फोन आया। मित्र ने कहा कि संपादक जी ने बुलाया है। मैं पहुंचा, तो संपादक जी ने कहा कि मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में बड़े पैमाने पर आदिवासी धर्म परिवर्तन कर रहे हैं। मुझे इस मुद्दे पर एक बढ़िया-सी मुकम्मल रिपोर्ट चाहिए। अगर आप कर सकें, तो मैं यह आपको एसाइन कर दूं। मुझे भी पैसे की जरूरत थी। मैंने हां कर दिया। उन्होंने दस हजार रुपये दिलाए भी। चलते समय सहारा के मैगेजीन डिपार्टमेंट के हेड ने भी अलग से एक रिपोर्ट मांगी। मैं किसी तरह लस्टम-पस्टम लोगों से पूछता-पाछता झाबुआ पहुंचा। देखा, एक चर्च के सामने सभी टीवी चैनलों ने अपने ओबी वैन लगा रखे हैं। चैनलों पर टिकर और फ्लैश चल रहे थे, ‘यही है वह चर्च, जहां हुआ धर्म परिवर्तन’..‘आदिवासियों के धर्म परिवर्तन के लिए आया विदेश से पैसा’...‘खतरे में है हिंदू धर्म’..‘पांच हजार से ज्यादा आदिवासी बने ईसाई..।’ बाद में मैंने तहकीकात की, तो पता चला कि जहां धर्म परिवर्तन हुआ है, वह गांव नवापारा तो यहां से चौदह पंद्रह किमी दूर घने जंगलों में है। टीवी चैलन वाले झुट्ठै..फर्जी खबर चला रहे हैं। मन नहीं माना। पहाड़, जंगल, नदी पार करके किसी तरह दूसरे दिन नवापारा गांव पहुंचा, जहां कथित रूप से धर्म परिवर्तन हुआ था। मन में एक डर भी था कि कहीं कोई जंगली जानवर न हमला कर दे, नक्सलियों के हाथ न लग जाऊं? फिर भी, पत्रकारिता का जुनून खींचे लिए चला जा रहा था। वहां पहुंचा, तो सब तरफ सन्नाटा। एक छोटे से बच्चे को पकड़ा, उसे दस रुपये दिए। उससे पूछा, तो उसने एक छोटे से चर्च की ओर इशारा किया।’
इतना कहकर निखिल ने डस्टबिन में फिर गुटखा थूका। बोले, ‘मैं इधर उधर झांकता उस ओर बढ़ा। तभी पता नहीं कहां से चर्च का फादर प्रकट हुआ। उससे बात की, तो वह भड़क उठा। काफी देर समझाने-बुझाने और यह विश्वास दिलाने के बाद कि जो भी घटना हुई है, उसको उसी रूप में छापा जाएगा, वह बात करने को तैयार हुआ। मैंने उसे बताया कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो ईसाई मिशनरियों की छवि बिगाड़ रहे हैं। काफी ना नुकुर करने के बाद उसे जो बताया, वह हैरतअंगेज था। सच बताऊं...धर्मांतरण तो हुआ था, लेकिन असली बात तो मीडिया को पता ही नहीं थी। ईसाई मिशनरियों में काम करने वाली तीन ननों के स्तन काटे गए थे। दो तो गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती थीं। उनसे मारपीट की गई थी, उन्हें लूटने की कोशिश हुई थी।’
निखिल ने जैसे ही यह बात पूरी की, प्रतुल गुप्ता ने तालियां बजाते हुए कहा, ‘यह अच्छा हुआ था। ईसाइयों और मुसलमानों के साथ ऐसा ही किया जाना चाहिए। मैं तो होता, तो बहुत कुछ करता। उन लोगों ने सिर्फ स्तन ही काटे थे।’ 
पहले पेज के इंचार्ज नमो नारायम भारद्वाज ने प्रतुल को झिड़कते हुए कहा, ‘आप हर बात और घटना को हिंदूवादी चश्मे से देखना बंद कीजिए। आपको ऐसी बात कहते हुए शर्म आनी चाहिए। आप अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं। यदि हिंदुत्ववादी होने का इतना ही शौक है, तो दीजिए इस्तीफा और चले जाइए भाजपा या संघ में।’ 
‘अरे जाने दो...ये लोग किसी औरत की पीड़ा को क्या समझेंगे। पत्रकारिता में ऐसे लोग घुस आए हैं या कहो कि पत्रकारिता में ऐसे ही लोगों का वर्चस्व होता जा रहा है, जो समाज विरोधी हैं, मानवता विरोधी हैं। ये कहते हैं कि हम तो न्यूज के व्यापारी हैं, हमें समाज से क्या लेना देना। समाज लेकर बैठे, तो अपनी दुकान ही लुट जाएगी। सच कहता हूं, ऐसे लोगों को तो बीच चौराहे पर खड़ा करके गांड पर गोली मार देनी चाहिए।’ निखिल अपनी रौ में फिर आ गए। यह उनकी आदत है। वे जब भी बोलने लगते हैं, तो यह भूल जाते हैं कि वे कहां बैठे हैं। 
नमो नारायण ने हस्तक्षेप किया, ‘हां तो ..भाई साहब! फिर क्या हुआ?’
निखिल ने फिर पिच्च से थूक दिया, ‘हां..तो मैं कह रहा था कि उसने सात ननों को लाकर मेरे सामने पेश कर दिया। मैंने देखा, सभी ननों के शरीर पर कोई न कोई चोट के निशान अवश्य थे। मैं घबड़ा गया। मैंने पूछा कि मामला क्या है? फादर बताने लगा, पिछले कई दशक से ईसाई मिशनरियां यहां काम कर रही हैं। इन मिशनरियों में काम करने वाली ननें आदिवासियों के गांव-गांव जाकर उन्हें शिक्षित करती हैं, उनमें जागरूकता पैदा करती हैं। उनकी हर तरह से मदद करती हैं। ऐसे में वे चाहती भी हैं कि आदिवासी ईसाई हो जाएं। तभी एक लड़की ने कराहते हुए कहा, मैं भगौर गांव में दवाइयां बांटने जा रही थी, टिहिया की पांच वर्षीय बेटी हिकरी बीमार थी। तभी दूसरे गांव के पंद्रह-सोलह भील आदिवासी लाठी, कुल्हाड़ी और तीर-धनुष लेकर आए और हम पर हमला बोल दिया। उन्होंने हमें मारा-पीटा, कुल्हाड़ी से हम तीन लड़कियों के सीने पर प्रहार किया। वे हमारे पास मौजूद खाने-पीने का सामान छील ले गए। दो अस्पताल में भर्ती हैं। इसी बीच कुछ लोग आ गए, तो हमलावर भाग खड़े हुए। बाद में हम अस्पताल गए। मैंने उन सबके नाम नोट किए। मैं फादर से कहा, मैं धर्म परिवर्तन करने वालों से भी मिलना चाहता हूं। फादर ने बताया कि वे लोग तो दंगे के भय से यहां से हटा दिए गए हैं। अगर कल दोपहर तक का मौका दें, तो उनसे मिलवा सकता हूं।’
‘फिर तो मेरे पास कोई विकल्प ही नहीं था। मैं रात में उसी चर्च की बाउंड्री में सो गया। थका हुआ था, सो नींद आ रही थी। मन में भय भी था कि कहीं कोई बदमाशी न करें। अनजान इलाका था। एक तरफ आदिवासियों का खतरा था, तो दूसरी ओर नक्सलियों का। अपनी कमजोरी बता रहा हूं, चर्चा वालों पर भी पता नहीं क्यों विश्वास नहीं हो रहा था। खैर..नींद आई, तो सुबह तक सोता रहा। सुबह उठा, तो चर्च वालों ने ही चाय-नाश्ता करवाया। दोपहर डेड़-दो बजे तक धर्मांतरण करने वाले आदिवासी भी आ गए।’ निखिल बता रहे थे, ‘मैंने एक आदिवासी से उसका नाम पूछा।’
उस आदिवासी ने कहा, ‘फादर ने नया नाम दिया है थॉमस, वैसे नाम है झीतरा।’
‘तुमने धर्म क्यों बदल लिया?’ मेरा सवाल था। 
झीतरा उर्फ थॉमस पहले तो चुपचाप सामने देखता रहा, फिर कुछ इस तरह बोला, मानो उसकी आवाज आसपास की पहाड़ियों से टकराकर लौट रही हो..एकदम भर्राई हुई सी, ‘धर्म न बदलता, तो मर जाता। जिंदा रहूंगा, तभी न धर्म रहेगा। लाश का भी कोई धर्म होता है क्या? जब से धर्म बदला है, भरपेट खाना खा रहा हूं। इससे पहले तो मुझे याद ही नहीं था कि मैंने भरपेट खाना कब खाया था? मिशनरी वाले खाना देते हैं, बीमार पड़ने पर दवा-दारू कराते हैं। जिस धर्म में पैदा हुआ था, वे हमें दुरदुराते थे। ये हमें दुरदुराते नहीं, हमें घृणित नहीं समझते। हमारी बहू-बेटियों से बलात्कार नहीं करते। अगर हम झीतरा से थॉमस नहीं बनते, तो क्या करते। सिर्फ धर्म के सहारे तो जिंदा नहीं रहा जा सकता है, साहब! पेट तो भरना ही है न।’

सचमुच...बड़ा लुत्फ था जब...

अशोक मिश्र
(पिछले हफ्ते व्यंग्य छपते ही संपादक जी ने मुझे तलब किया और लगे डांट पिलाने। बोले, पत्रकारिता का पहला उसूल है कि खबर चाहे कितनी ही पक्की क्यों न हो, लेकिन दूसरे पक्ष का वर्जन (उसका पक्ष जाने बिना) लिए बिना खबर मुक्कमिल नहीं मानी जाती। उन्होंने आदेशात्मक लहजे में कहा, ‘जाओ, पत्नी का वर्जन लेकर आओ। नहीं तो मुझे व्यंग्य के लिए भी खंडन छापना पड़ेगा।’ सो, मरता क्या न करता। पत्नी जी के पास जाकर उनका पक्ष लिया। पेश है पत्नी द्वारा दिए गए बयान का असंपादित अंश।)
सचमुच...बड़ा लुत्फ था जब कुंवारी थीं हम सब। वे भी क्या दिन थे? सुख-दुख धूप-छांव की तरह लगते थे। बप्पा भले ही अपना फटा कुर्ता पहने सारा शहर घूम आएं, लेकिन मेरी गुÞड़िया लाना नहीं भूलते थे। गलती होने पर बप्पा तो महटिया (नजरअंदाज कर) जाते थे, लेकिन अम्मा तो अम्मा थीं, बिना कोसे उनको पानी भी हजम नहीं होता था। सुबह जागने में थोड़ी-सी भी देर हुई कि अम्मा पीठ पर ‘धप्प’ से एक धौल जमाती हुई कहती थीं, ‘बहुत नींद आवति है। पढ़िहौ-लिखिहौ ना, तो कौनो रिक्शावाले-चाट टिक्की वाले से ब्याह दी जाओगी। सुबह-शाम चूल्हा फुकिहौ, तो समझ मा आई जाई पढ़ाई का मतलब।’ मैं भी कम बदमाश नहीं थी, झट से कह बैठती, ‘मुंह झौंसे की गर्ज होगी, तो कमाकर खिलाएगा।’ तब अम्मा आंचर में मुंह छुपाकर हंसती थीं, लेकिन दिखावे में उनका गुस्सा बरकरार रहता था। सच्ची...उन दिनों नींद भी कितनी आती थी, मुए सपने भी कैसे...कैसे आते थे। सपने में ही देह फुरेहरी छोड़ने लगती थी। सुबह-सुबह जब सपने और नींद दोनों मधुर होते थे, तभी अम्मा की आवाज कानों में जैसे धमाका करती थी, ‘यह लड़की कितना सोती है। सुबह से काम करते-करते पीठ और कमर धनुष हुई जाती है, लेकिन यह निगोड़ी उठती ही नहीं।’ सच्ची कितने सुहाने दिन थे वे...। रोज सुबह होते ही किसी न किसी बात पर भाइयों से ‘ढिशुम..ढिशुम’ हो ही जाती थी। कई बार भाई पिट जाते, तो कई बार मैं। पिटने के बाद अगर छोटकू या बड़कू अम्मा के पास शिकायत लेकर पहुंच जाते, तो अम्मा ‘धाड़’ से कान के नीचे एक बजा देती थीं, ‘नासकाटे...पहले लड़त हैं, फिर चले आवत हैं शिकाइत लेकर।’
सचमुच... कई बार सोचती हूं, तो लगता है कि कहीं शादी के लड्डू में चीनी की जगह मिर्चा पीसकर तो नहीं मिलाया जाता? हाय...कितने याद आते हैं सहेलियों के साथ स्कूल-कॉलेज जाने के वे दिन। कई बार सहेलियों से तू-तू मैं-मैं और झोंटा नुचौव्वल सिर्फ इस बात को लेकर होती थी कि अभी पास से गुजरे छैलछबीले ने उसे देखा था या मुझे। लड़ने-भिड़ने के बावजूद सहेलियों की प्रेम कहानियां अकेले में भले ही बांची गई हो, लेकिन मजाल है कि किसी दूसरे को भनक भी लगी हो। कितने सपने संजोए थे हम सहेलियों ने शादी को लेकर, लेकिन अब कई बार तो लगता है कि इनसे शादी करके कोई गलती तो नहीं की। कई बार लगता है कि इनसे अच्छा तो शायद वह बनारस वाला था। बस, थोड़ा-सा एलएलटीटी था। एलएलटीटी नहीं समझे...लुकिंग लंदन, टॉकिंग टोकियो...मतलब...ऐंचातानी...भैंगा। अगर उसका यह अवगुण छोड़ दिया जाए, तो वह देखने-सुनने में इनसे तो लाख गुना अच्छा था। शादी के बाद इनके साथ शहर आई, तो लगा कि किसी पुरानी फिल्म में दिखाए गए भुतहे महल में आ गई हूं। इनका बिस्तर देखा, तो पहली बार लगा कि यह नहीं है राइट च्वाइस बेबी। यह तो महाम्लेच्छ है। साफ करने के लिए बेड पर पड़े गद्दे को उठाया, तो जितना हिस्सा पकड़ा था, वह हाथ में आ गया। दूसरा हिस्सा पकड़कर उठाया, तो परिणाम वही निकला। बाद में इन्होंने मुस्कुराते हुए बताया कि दस साल पहले जब यह गद्दा खरीदा गया था, तब से यह बेड पर वैसे ही पड़ा है, इसे उठाया या उठाकर झाड़ा-पोछा नहीं गया है। आज किसी तरह रात काटो, कल नया गद्दा आ जाएगा। जब भी हाथ-पैर धोकर बिस्तर पर चढ़ने को कहो, तो ऐसे मुंह बनाते हैं, मानो कुनैन की गोली खा ली हो।
किसी दिन इतने भारी-भारी चादर धोने पड़ जाएं, तो मैं किसी से भी शर्त बदने को तैयार हूं, अगर हफ्ते भर से पहले जो बुखार उतर जाए। यदि भूल से किसी दिन अपनी बनियान धो ली, तो ऐसे डींगें मारते हैं, मानो कोई पहाड़ उठा लिया हो। ये कई बार मुझसे कहते हैं कि तुम किसी मुनीम की तरह मुझसे दिनभर का हिसाब मत मांगा करो। अरे, जब इतनी लगाम लगा रखी है, तब तो यह हाल है। कहते हैं काबुल में हूं और होते बगदाद में हैं। दस साल की छोकरी से लेकर पचास साल की अम्मा तक को घूरने से बाज नहीं आते। इधर-उधर मुंह मारने की कोशिश करते रहते हैं, अगर छुट्टा छोड़ दिया, तो किसी सठियाए बछड़े की तरह पगहा ही तुड़ाकर भाग जाएंगे। हमें भी इनके पगहा तुड़ा लेने का डर नहीं है, लेकिन इन बच्चों का क्या होगा, यही सोचकर चुप रह जाती हूं। वरना गुलछर्रे उड़ाना सिर्फ पुरुषों को ही नहीं आता है।

Thursday, April 11, 2013

बड़ा लुत्फ था जब कुंवारे थे...

कैनेडा से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक
पत्रिका 'हिन्‍दी चेतना' का जनवरी-मार्च 2014
अंक में पेज 27 पर प्रकाशित मेरा व्‍यंग्‍य।

http://issuu.com/hindichetna/docs/hindi_chetna_january_march_2014
अशोक मिश्र 
जो लोग आज कुंवारे हैं, वे उस सुख का अंदाजा नहीं लगा सकते हैं, जो सुख विवाहितों ने अपने कुंवारेपन में उठाया था। सुख हो या दुख, स्वतंत्रता हो या गुलामी, जब तक एक-दूसरे के सापेक्ष नहीं होते हैं, तब तक उनका महत्व समझ में नहीं आता है। आज वैवाहिक जीवन के सुखों को देखते हुए कहा जा सकता है कि सचमुच...बहुत सुख था, जब कुंवारे थे हम सब। अगर मैं अपनी बात करूं, तो यह कह सकता हूं कि तब आधी-आधी रात तक मटरगश्ती करने के बाद भी कोई यह पूछने वाला नहीं था कि इतनी देर कहां रहे। सुबह देर तक सोओ, रात भर जागो, मन हो, तो किसी दोस्त के घर या हॉस्टल में रुक जाओ। नौकरी करो या न करो, कोई फर्क नहीं पड़ता था उन दिनों। क्या मौज के दिन थे। दोस्तों से उधार पर उधार लेता जाता था, जब सात-आठ हजार रुपये उधार हो जाते थे, तब कहना पड़ता था, ‘यार! बड़ा कर्जदार हो गया हूं, कहीं कोई नौकरी दिलाओ।’ जिनको अपना कर्ज वसूलना होता था, वे भाग-दौड़ करके किसी अखबार या पत्रिका में छोटी-मोटी नौकरी दिला दिया करते थे। जैसे ही सभी दोस्तों का कर्जा चुकता, नौकरी को लात मारकर परम स्वतंत्र हो जाते थे। यह सुख शादी के बाद तो जैसे आकाश कुसुम हो गया। अब तो हाल यह है कि जैसे ही बॉस नाराज होते हैं, धुकधुकी-सी सवार हो जाती है, ‘हाय...नौकरी बचेगी या जाएगी। इस उम्र में अब कौन देगा नौकरी? नौकरी गई, तो इस बार चुन्नू की फीस कैसे जाएगी, मुन्नी की फ्रॉक कैसे आएगी? तमाम चिंताएं सवार हो जाती हैं सिर पर।’ नतीजतन, बॉस की लल्लो-चप्पो करनी पड़ती है। उनकी दो-चार झिड़कियां सहनी पड़ती हैं, मौका दें, तो उनके घर की सब्जियां लाने से लेकर टेलीफोन, बिजली के बिल जमा करने को भी तैयार हो जाता हूं। भले ही अपने घर का गेहूं चक्की पर पांच दिन पड़ा रहे, लेकिन बॉस का चेक जमा कराने को हमेशा तैयार रहना पड़ता है। और यह सब ‘शादी का लड्डू’ खाने का नतीजा है। बॉस के नाराज होने की बात जैसे ही घरैतिन को पता चलती है, उनका रेडियो ‘सीलोन’ चालू हो जाता है, ‘कितनी बार समझाया है कि सबसे हिल-मिलकर रहो। अगर बॉस कुछ कहें, तो सिर झुकाकर सुन लो। अगर दो-चार बातें आॅफिस में सुन ही लोगे, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा।’
अब घरैतिन को कौन यह समझाए कि शादी से पहले क्या मजाल थी, कोई बॉस-फॉस कुछ कहकर निकल जाए। नाक पर गुस्सा और जेब में इस्तीफा हम कुंवारों की शान हुआ करता था। इधर बॉस के मुंह से बात निकलती भी नहीं थी कि इस्तीफा उनकी मेज पर और अलविदा कहते हुए दो-चार लोगों से हाथ-साथ भी मिला चुके होते थे। सच्ची...कित्ता मजा आता था, जब कुंवारे थे हम। अब तो हालत धोबी के कुत्ते जैसी हो गई है। दोस्तों से मिलना हो, तो बहाना बनाना पड़ता है, ‘डार्लिंग! जाम में फंसा हुआ हूं...घर पहुंचने में थोड़ी देर लगेगी।’ घर पहुंचो, तो एक अलग झमेला, ‘इतनी देर कहां लगा दी? पड़ोस वाले वर्मा जी तो शाम को छह बजे ही घर आ जाते हैं। आजकल किसी से नैन मटक्का तो नहीं कर रहे हैं। सच्ची बात बताइएगा...खाइए मेरी कसम कि आपका किसी के साथ लफड़ा नहीं है। दो महीने से देख रही हूं, आप कुछ उखड़े-उखड़े से हैं। रमेश बता रहा था कि आॅफिस में आजकल उस कलमुंही के साथ कुछ ज्यादा ही टाइम बिताते हैं।’ मेरे एक सीनियर हैं...नाम आप कुछ भी रख सकते हैं। थोड़ी देर के लिए अखिल..निखिल..रमेश-सुरेश कुछ भी रख लेते हैं। जब वे किसी दिन कहीं बैठे हुए ‘सटक’ मार (शराब पी रहे) हों और घर से फोन आ जाए, तो कहते हैं, ‘अभी आॅफिस में हूं। हेड आॅफिस से कुछ बॉस टाइप के लोग आए हुए हैं। उनके साथ मीटिंग चल रही है। घंटे-आधे घंटे में आता हूं।’ हाय...वे भी क्या दिन थे...जब हम सारे कुंवारे दोस्त घर से उपेक्षित किंतु मित्रों में लोकप्रिय हुआ करते थे। पसंदीदा लड़की की एक झलक पाने के लिए मई-जून की दुपहरिया में छत पर खड़े उनके घर की ओर ताका करते थे और ताकते-ताकते आंखें बटन हो जाती थीं। एक ही पैंट-शर्ट को हफ्ते तक पहने मजनंू की तरह दाढ़ी-बाल बढ़ाए घूमा करते थे। उस सुख की सिर्फ अब तो कल्पना ही की जा सकती है। न रोज नहाने की प्रतिबद्धता, न रोज दाढ़ी बनाने की झंझट, न रोज बिस्तर झाड़ने की जहमत। जब तक शरीर से बदबू न आने लगे, तब शरीर पर पानी डालना भी गुनाह था। पैर लाख गंदे हों, घुस जाओ बिस्तर में। ऐसी स्वतंत्रता अब कहां। जीवन के हर मोड़ पर घरैतिन किसी प्रवीण मास्टरनी की तरह छड़ी लेकर हाजिर हैं। माघ-पूस में आधी रात को भी बिना पैर धुलवाए बिस्तर पर चढ़ गए, तो खैर नहीं। अब तो मन रो-रो कर यही कहता है, ‘कोई लौटा दे मेरे...बीते हुए दिन।’

Wednesday, April 3, 2013

कानून है या कानून का बाप!


अशोक मिश्र
नथईपुरवा गांव के रास्ते पर मगन मन यह सोचता हुआ चला जा रहा था कि इस बार गांव में होली पर खूब धमाल मचाऊंगा। नइकी भौजी लाख चिरौरी-विनती करें, उन्हें छोडूंगा नहीं। छोटकी भौजी को यहां रंग लगाऊंगा, बड़की भौजी को वहां। मंझली भौजी को कीचड़ से सराबोर कर दूंगा। पिछली बार का बदला जो लेना था। पिछली होली पर गांव की भौजियों ने मेरी इतनी दुर्गति की थी कि पांच दिन तक देह दर्द करती रही थी। नालियों का कचड़ा, गोबर, राख, रंग और मिट्टी से सिर से लेकर पांव तक सराबोर कर दिया था। अछयबर काका की छोटकी बहू ने तो खूब गाढ़ा रंग ऐसी-ऐसी जगह पर मला था कि मैं किसी को बता भी नहीं सकता था। शाम को जब छोटकी भौजी के पांव छूने पहुंचा, तो उन्होंने गाल पर चिकोटी काटते हुए कहा था, ‘ई बताओ...होली खेलै मा मजा आवा कि नाही।’ तब मैंने गाल सहलाते हुए कहा था, ‘इस बार तो चूक गया भौजी, सावधान नहीं था। अगली बार मैं भी ठांव-कुठांव ऐसा रंग लगाऊंगा, ताकि आप उसे भइया को भी नहीं दिखा सकें।’ छोटकी भौजी ने हाथ नचाते हुए कहा था, ‘जाव..जाव..बहुत देखे हैं तुमरे जैसन देवर।’ तब तक पंडिताइन काकी आ गर्इं और छोटकी भौजी काम में लग गई थीं।
गांव पहुंचा, तो इस बार मुझे देखकर न पहले की तरह कुत्ते भौंके, न बछिया रंभाई। मुझे ताज्जुब हुआ कि इस जिंदादिल गांव को क्या हो गया है! घर पहुंचा, तो काकी ने मुझे देखकर कहा, ‘तू क्यों आ गया होली पर? शहर में ही मना लेता।’ मैंने मन ही मन कहा, ‘ये लो..मैं इतनी दूर से होली मनाने गांव आ रहा हूं और काकी कहती हैं कि वहीं क्यों नहीं मना लिया तूने होली?’ मैंने बैग खटिया पर रखते हुए पूछा, ‘और काकी...काका नहीं दिखाई दे रहे हैं, खेत गए हैं क्या? मुन्नू और चुन्नू..’ मेरी बात पूरी होती, इससे पहले काकी बोल उठीं, ‘सब जेल में हैं...यही नहीं, गांव के सभी मर्द जेल में हैं।’ मैं चौंक उठा, ‘क्या...ऐसा भला क्या हुआ कि गांव के सभी मर्द जेल पहुंच गए।’ काकी ने आंचर से मुंह पर आए पसीने को पोंछते हुए कहा, ‘बेटा, रामबहल रोज अपने खेत सुबह-शाम बड़की बगिया से होकर जाता था। पंद्रह दिन पहले की बात है। श्याम सुंदर की बिटिया घरघुसरी भी उसी रास्ते से आने जाने लगी। दस-बारह दिन पहले बलरामपुर से पुलिस आई और रामबहल को पकड़कर ले गई। इसके बाद तो जैसे गांव के मर्दों के जेल जाने का सिलसिला ही शुरू हो गया। मुक्ता बरई की बहू गांव भर में गालियां देती घूमती रही कि श्याम सुंदर और उसका लड़का अगियार उसे घूरते हैं। वह पुलिस में जाकर रिपोर्ट लिखा आई। उस रात श्याम सुंदर के घर छापा पड़ा और घर के सारे मर्द गिरफ्तार कर लिए गए। यहां तक आठ साल के लड़के को भी नहीं छोड़ा।’ काकी की बात सुनकर मेरी उत्सुकता इस बात में थी कि काका और चुन्नू-मुन्नू किस अपराध में जेल में हैं?
मैंने काकी से पूछा, ‘फिर क्या हुआ?’ काकी ने कहा, ‘फिर क्या होना था! सबने अपनी-अपनी दुश्मनी निकालनी शुरू कर दी।’ मैंने गहरी सांस लेकर कहा, ‘यह बताओ काकी, काका और चुन्नू-मुन्नू क्यों जेल गए?’ काकी ने अपना माथा पीटते हुए कहा, ‘क्या बताऊं बेटा! किस्मत खराब थी, वरना कोई भैंस को छेड़ने के अपराध में जेल जाता है, वह भी बच्चों समेत।’ काकी की बात सुनकर मैं चौंक उठा, ‘क्या...भैंस को छेड़ने के अपराध में? यह क्या कह रही हैं आप?’ काकी ने पलकों की कोर से ढुलक आए आंसुओं को पोंछते हुए कहा, ‘हां बेटा! दो महीने पहले की बात है। बहादुर बाबा का संझला बेटा शैतानी कर रहा था, तुम्हारे काका ने उसे डांट दिया था। बहादुर बाबा को तुम्हारे काका का डांटना शायद बुरा लगा। वे इस बात को अपने मन में रखे रहे। देश में जैसे ही नाशपीटा नया कानून लगा हुआ, वे सारी खुन्नस निकाल लिए। उन्होंने थाने जाकर रिपोर्ट दर्ज कराई कि तुम्हारे काका उनकी ‘श्रीदेवी’ से छेड़छाड़ कर रहे थे। चुन्नू-मुन्नू भी गाहे-बगाहे ‘श्रीदेवी’ को घूरते रहते हैं, उसका पीछा करते हैं। पुलिस वाले शिकायत मिलने के बाद कार्रवाई न करने पर होने वाली सजा के डर से आनन-फानन आए और तुम्हारे काका सहित चुन्नू-मुन्नू को जेल के लिए बुक कर दिया। तब से वे सभी जेल में हैं।’ मैंने पूछा, ‘काकी! यह श्रीदेवी कौन है? उनके कोई बेटी या बहू तो है नहीं।’ काकी ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘मुए अपनी भैंस को ही श्रीदेवी कहकर बुलाते हैं। पुलिस वालों ने यह जानने की जहमत नहीं उठाई कि श्रीदेवी भैंस है या नारी।’ बहादुर बाबा तो गांव में यह कहते हुए घूम रहे हैं कि श्रीदेवी भले ही भैंस है, लेकिन है तो मादा। काकी की बात सुनकर मैंने अपना माथा पीट लिया और बिना होली खेले शहर लौट आया।