Wednesday, March 25, 2015

कभी नहीं गाऊंगा 'गोरकी पतरकी रे...'

अशोक मिश्र
पता नहीं, मेरी किस्मत खराब है या मेरे अच्छे ग्रह-नक्षत्रों ने नासपीटे राहु-केतु से कोई राजनीतिक गठबंधन कर लिया है, इन दिनों मेरा हर काम बिगड़ जा रहा है। बस..मन की एक तरंग, एक मौज ने मेरी हालत खराब कर दी है। कल तक जिन बातों पर मेरी सालियां, सलहजें हंस-हंस कर लोट-पोट हो जाया करती थीं, खिखियाती-इठलाती हुई कहती थीं, 'जाओ जीजा! आप बड़े 'वोÓ हैं।Ó और जिस अंदाज में वे 'वोÓ कहती थीं, तो मैं निहाल हो जाता था। लेकि समय का फेर देखिए, वही सालियां, सलहजें और मेरी एकमात्र घरैतिन मेरे खिलाफ ससुराल में ही धरना-प्रदर्शन कर रही हैं, मेरे खिलाफ कैंडिल मार्च निकाल रही हैं। हालत यहां तक खराब हैं कि अब घरैतिन से ही हाथ धो बैठने की नौबत आ गई है। अब आपको क्या बताऊं। बात दरअसल यह है कि मैं अपनी ससुराल..हां..हां वही ससुराल जिसकी महिमा संस्कृत साहित्य में 'असारे खलु संसारे सारम स्वसुर मंदिरमÓ कहकर की गई है। तो किस्सा कोताह यह कि मैं अपनी ससुराल में बैठा थोड़ी दूर काम कर रही छोटकी साली को निहार रहा था। पता नहीं, कौन-सी तरंग मन में उठी कि मैं बड़ी जोर से गा उठा, 'गोरकी पतरकी रे होऽ ऽ...छँवड़ी पतरकी रे...मारे गुलेलवा जियरा उडि़ उडि़ जाय।Ó यह गाने के बाद उम्मीद थी कि हर बार की तरह मेरी छोटकी साली इठलाते हुए जवाब देगी, 'संइया संवरका रे, हो हो ऐ हो...संइया संवरका रे, तोरी नजरिया जिया में गडि़ गडि़ जाय।Ó लेकिन यह क्या? छोटकी साली तमतमा कर उठी और वहां जाकर खड़ी हो गई जहां मेरी घरैतिन किसी ब्लाक स्तर की नेता की झुंड बनाए बैठी अपनी बहनों और भाभियों के साथ गप्प लड़ा रही थीं।
थोड़ी देर बाद घरैतिन, छोटी-बड़ी सालियां, सलहजें छत्ते में से निकली बर्रैया की तरह मुझे घेरकर खड़ी हो गईं। घरैतिन ने गुर्राते हुए कहा, 'आजकल बड़े रसिक हो रहे हैं..अभी थोड़ी देर पहले क्या गा रहे थे...हां..?Ó घरैतिन और बाकी औरतें जिस तरह मुझे घेर कर खड़ी थीं, उससे मैं सकपका गया, 'क्या गा रहा था...और गा रहा था, तो कौन सा गुनाहकर दिया...अपनी साली को देखकर ही तो गाया था, किसी के कलेजे में बांस क्यों घुसा जा रहा है?Ó बड़ी सलहज ने हाथ नचाते हुए कहा, 'अच्छा जीजा जी...आप लोग घर से लेकर संसद तक हम औरतों को जो मुंह में आएगा, कहते रहेंगे। मैं पूछती हूं, आपने हमारी छोटी ननद को गोरकी क्यों कहा, जबकि वह सांवली है? मोटी है, तो पतरकी क्यों कहा? इसका मतलब है कि आपके मन में हमारी दीदी की जगह कोई गोरकी पतरकी भी बसी हुई है..?Ó मैंने लाख समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है, लेकिन वे नहीं मानी, तो नहीं मानी। अब तो हालत यह खाना मांगो, पानी मांगो या बात करने की कोशिश करो, तो तख्तियां दिखाती हैं जिस पर लिखे रहते हैं, औरतों का सम्मान करना सीखो। औरतें आपकी गुलाम नहीं। औरतों से ही दुनिया कायम है..आदि..आदि। मेरे सास-ससुर और साले दूसरे पक्ष पर समझौते के लिए दबाव डाल रहे हैं। देखिए, आगे क्या होता है?

Saturday, March 21, 2015

वो देवता तो नहीं थे, पर...

अशोक मिश्र
अवधी भाषा का एक शब्द है 'चापरकरन'। इस शब्द का संधि विच्छेद किया जाए तो बनता है चापर+करन। चापर का अर्थ है विनाश, नष्ट। करन का अर्थ हुआ करने वाला। चापरकरन यानी विनाश करने वाला। आज से करीब तीन चार दशक पूर्व बलरामपुर, बहराइच, गोण्डा, फैजाबाद, यहां तक कि बस्ती आदि जिलों में इस शब्द का उपयोग उस समय किया जाता था, जब बच्चों को बड़े प्यार से झिड़कना होता था। बड़े-बूढ़े अपने बाल-बच्चों को डपटते हुए कहते थे, 'रुकि जाउ चापरकरन...अब्बै बताइत है।' इसी तरह के बहुत सारे शब्द हैं, जैसे दाढ़ीजार, दहिजरा, मूड़ीकटऊ, नासियाकटऊ..। अब इन शब्दों का अवधी भाषा-भाषियों ने भी उपयोग करना काफी कम कर दिया है। नतीजा यह हुआ कि अवधी भाषा का लालित्य जैसे बिला सा गया है। चापरकरन शब्द आज मुझे याद इसलिए आ गया कि मैं आगरा के कारगिल पेट्रोल पंप चौराहे से करकुंज की ओर जा रहा था कि आगे सड़क से थोड़ा हटकर बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। बच्चों ने बॉल फेंका, तो वह बॉल सड़क पर बड़ी तेजी से आती कार के शीशे से टकराने से बाल-बाल बची। अचानक मेरे मुंंह से निकला, 'बड़े चापरकरन हैं ई लरिके..अब्बै तौ सिसवै फोरि  डारिन होत।'
बप्पा...यानी भग्गन मिसिर (असल नाम रामचंद्र मिश्र)  की मृत्यु सन उन्नीस सौ चौरासी में 11 सितंबर को हुई थी। उसी साल करुणेश भइया (जय शंकर प्रसाद मिश्र, इन दिनों बलरामपुर जिले में एक निजी स्कूल के प्रिंसिपल हैं) की शादी हुई थी। बप्पा मतलब..बड़े पापा या पिता जी नहीं...यहां बप्पा का मतलब बाबा से है। वे मेरे बाबा छोटे पंडित (रामाचार्य मिश्र) के बड़े भाई थे। गांव जवार में उन्हें लोग या तो बप्पा कहते थे, बड़कऊ कहते थे या फिर भग्गन मिसिर। थे भी बड़कऊ। उमर में तो बड़कऊ थे ही, शरीर से बड़कऊ थे। उन्हें दस नंबर का जूता लगता था। इस नाप का जूता ही जल्दी किसी दुकान पर मिलता नहीं था। बलरामपुर में वीर विनय चौक के पास फखरूल के यहां से दस नंबर का जूता खरीदा जाता, तो वह कम से कम चार-पांच साल चलता। बाद में फखरूल ने भी हाथ जोड़ लिए कि पंडित जी..दस नंबर का जूता सिर्फ बाटा ही बनाता है। बलरामपुर में इस नंबर के जूता-चप्पल बस आठ-दस जोड़ी साल भर में बिकते हैं, तो अब इतने जोड़ी जूतों के लिए इतना बड़ा झमेला कौन पाले। हां, अगर आसानी से मिल जाया करेगा, तो मंगाकर रख लिया करूंगा। बप्पा का जूता जब फटने वाला होता, तो दादा (बालेश्वर प्रसाद मिश्र) उस रास्ते से आते-जाते जरूर फखरूल को टोक देते। मिलता तो ले आते नहीं तो ताकीद कर देते, अगली बार जरूर मंगवा लेना।
खेत-खलिहान से लेकर गांव-जंवार में बप्पा नंगे पैर घूमते रहते। जूता उनके पैरों में तभी दिखता, जब उन्हें कहीं नाते-रिश्तेदारी में आना जाना होता। पहले तो वे भरसक कोशिश करते कि घर का दूसरा कोई चला जाए, यदि ऐसा न हो पाता, तो वे बड़े बेमन से कहीं आते-जाते। जूता पहनना जो पड़ जाता था। बरसात या गर्मी के दिनों में जब कोई उनसे कहता, भग्गन भाई, जूतवा पहिर लेव। तो वे उसे सुनारों की भाषा में कहें तो सौ टंच (एकदम कनपटी तक सुलगा देने वाली) गारी (गाली) देकर कहते, 'जाव..जाव..नचनिया अस ई कमर मटकावत हौ, अब्बै एक हाथ धई देई तो पादि मारिहौ। हमका पढ़ावै चले हौ।' गाली सुन कर तिलमिलाया आदमी मुंह बिचाकर अपनी राह चला जाता। सचमुच..अगर वे क्रोध में उस पैसठ-सत्तर साल की उम्र में भी किसी जवान को एक भरपूर हाथ से मार देते..तो प्राण पखेरू सचमुच उड़ जाते। भीमकाय शरीर...चलते तो जैसे मदमस्त हाथी चला आ रहा हो....एकदम राक्षसों वाला डील-डौल। भग्गन मिसिर के बल, डील-डौल और क्रोध के सौ-पचास गवाह आज भी गांव-जंवार में हैं। एकाध दशक बाद ये लोग भी शायद न रहें। दस-बीस गांवों में पुरानी पीढ़ी बल की जब भी बात चलती है, तो वे कहते हैं, जाव...जाव..हियां बल न देखाव..का भग्गन होइगेव है। गांव में जब किसी को अपने घर का फरका (छप्पर) चढ़वाना होता था, तो बप्पा को चिरौरी करके ले जाता था। दस हाथ के फरके में चार हाथ छोड़कर बाकी छह हाथ में दस-बारह लोग लगते और चार हाथ वाले हिस्से में बप्पा अकेले लगते। दस-बारह आदमियों के बावजूद छह हाथ वाला हिस्सा दबा ही रहता।
जेठ-आषाढ़ की भरी दुपहरिया में फावड़े से खेत गोड़ते थे। गांव-जवार के लोग कहते, सब लोग खेत कै कोना कुदारि से गोड़त हैं, भग्गन भाई फरुहा से पूरा खेतवै गोडि़ डारत हैं। सन 1980 से पहले और उसके एकाध साल बाद तक हमारे यहां लोकई काका उर्फ लोकनाथ प्रजापति (अब स्वर्गीय) और बाद में फौजदार काका (लोकई काका के छोटे भाई) काम करते थे। उन दिनों ये दोनों भाई खूब जवान थे, लेकिन बप्पा के साथ काम करने से कतराते थे। सचमुच..सुबह पांच बजे खेत में जाने के बाद वे ग्यारह-बारह बजे घर लौटते थे और कम से कम आधा-पौन बीघा जमीन फरुहे से गोड़कर आते थे।
दादी बताती थीं कि भग्गन मिसिर कहे जाने के पीछे भी एक उपकथा है। कहते हैं कि मेरी परदादी के जितने भी बच्चे होते थे, वे साल-छह महीने में ही मर जाते थे। जब बप्पा का जन्म होने वाला हुआ तो मेरी परदादी अपने मायके चली गई थीं। बप्पा के जन्म के बाद जब परदादी नथईपुरवा (यह गांव बलरामपुर श्रावस्ती रोड़ पर बलरामपुर से लगभग चौदह-पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ऐतिहासिक नगरी श्रावस्ती (सेहट -महेट ) इससे मात्र डेढ़ किमी दूर है।) आईं और बप्पा कुछ बड़े हुए, तो उनके बुआ-चाचाओं ने 'भग्गन..भग्गन' कहकर चिढ़ाना शुरू किया। बप्पा के बाद छोटे पंडित यानी रामाचार्य मिश्र (हमारे बाबा) का जन्म हुआ। इन दोनों भाइयों के एक छोटी बहन भी है जिन्हें हम लोग बुआ आजी कहते हैं। जिस युग में बुआ आजी पैदा हुई थीं, उस युग में जन्म प्रमाण पत्र नहीं बनते थे। यह बुआ आजी लोगों के कहने के मुताबिक लगभग एक सौ छह-सात साल की होंगी। साल भर पहले तक लाठी टेककर चलती थीं, लेकिन पिछले साल फर्श पर गिर जाने से कूल्हे की हड्डी टूट जाने की वजह से अब चलना-फिरना बहुत कम हो गया है।
बप्पा के पांच बेटियां थीं जिनमें से एक साबी बुआ (सावित्री) पांच-सात साल पहले नहीं रहीं। बप्पा के कोई बेटा नहीं था। उन्होंने आजीवन अपने छोटे भाई के तीन बेटों (मेरे पिता) स्व. रामेश्वर दत्त 'मानव', बड़े चाचा प्रो. कामेश्वर नाथ मिश्र और छोटे चाचा बालेश्वर प्रसाद मिश्र और बेटी कमला को ही अपना बेटा-बेटी माना। छोटे पंडित के एक बेटा और था जिसका नाम हरीश्वर था, जो पंद्रह सोलह साल की उम्र में ही दिवंगत हो गए थे। कहते हैं कि एक साल उत्तर प्रदेश में चेचक ने महामारी का रूप ले लिया था। (वर्ष नहीं मालूम..)। अम्मा, दादी या बुआ आज के शब्दों में कहें, तो थंब ग्रेजुएट थीं मतलब निपट निरक्षर। उनको सन् वगैरह से कोई लेना देना नहीं था। दादी, अम्मा और बुआ जब भी चर्चा चलती तो बताती थीं कि जिस साल चेचक की महामारी फैली थी, उस साल नथईपुरवा गांव से ही 21 लाशें उठी थीं। उसी चेचक में हरीश्वर चाचा की मौत हो गई थी। चेचक की चपेट में कमला बुआ और भइया (आनंद भइया)  भी थे। जिस रात हरीश्वर चाचा की मौत हुई, उसी समय भइया की हालत बहुत खराब थी। बलरामपुर से बाबा यानी छोटे पंडित आए और पालकी पर लादकर भइया को बलरामपुर अस्पताल ले गए। फफोले काफी बड़े और फूट गए थे जिसके चलते बनियान को कैंची से काटना पड़ा। लोगों ने छोटे पंडित से बलरामपुर जाकर कहा कि हरीश्वर की लाश गांव में पड़ी है। दाह संस्कार तुम्हारे बिना रुका हुआ है। छोटे पंडित ने एक पल आकाश की ओर निहारा और बोले, जो चला गया, उसका शोक जीवन भर रहेगा, लेकिन जो अभी जिंदा है, उसे बचाना सबसे जरूरी है। तुम लोग जाकर फूंक-ताप लो, अब या तो आनंद को यहां से सकुशल लेकर जाऊंगा या फिर इसका भी अंतिम संस्कार करने नथईपुरवा आऊंगा। लोगों ने काफी समझाया कि बस घड़ी भर को चलो और फिर लौट आना। लेकिन छोटे पंडित नहीं गए, तो नहीं गए। दादी वगैरह बताती थीं कि वे उसके बाद कई सालों तक हंसना भूल गए थे। किशोर बेटे की मौत को भुला नहीं पाए थे। इसके कुछ ही वर्षों बाद टीबी से उनकी मौत हो गई।
छोटे पंडित के बेटों ने बप्पा को जीवन भर निराश भी नहीं किया। बप्पा की पत्नी यानी हमारी बड़ी दादी भरी जवानी में ही गुजर गई थीं। मेरे बाबा यानी छोटे पंडित भी सन 1966-67 में गुजर गए थे। मैंने अपने बाबा को देखा नहीं है। एक बार बचपन में लखनऊ से गांव गया (तब मार्च-अप्रैल में परीक्षा खत्म होने के बाद सात जुलाई को स्कूल खुला करते थे और इस दौरान हम सभी भाई गांव नथईपुरवा में रहा करते थे), तो रात में बप्पा से यों ही पूछ लिया था, 'बप्पा..जब आप बड़े हैं, तो पहले आप क्यों नहीं मरे, हमारे बाबा क्यों पहले मर गए? जब आप बड़े हैं, तो पहले आपको मरना चाहिए था न।' तब मैं यह समझता था कि जो जिस क्रम में पैदा होता है, वो उसी क्रम में मरता भी है। बप्पा बेजार होकर बोले थे, 'सब करमन का लेखा-जोखा है..भगवान कै मरजी रही, तो हम बैइठ हन औ ऊ चले गए।' शायद यह कहते समय उनकी आंखें भी भीग गई थीं। बचपन में मुझे मरने से बड़ा डर लगता था। जब भी रात में अकेला होता, मन ही मन दोहराता जाता था, 'हे भगवान..हम न मरी..हे भगवान..हम न मरी..।' इसके बाद ख्याल आता कि हमही जिंदा रहे और बाकी लोग मर गए, तो मजा नहीं आइएगा। तो फिर मन ही मन दोहराते, 'हे भगवान..हम न मरी..राजेशवा न मरै, दद्दा न मरै, अम्मा न मरै..' और फिर धीरे-धीरे इस सूची में जितने भी परिचितों के नाम याद आते जाते शामिल होते जाते। जिस दिन स्कूल या मोहल्ले में (तब हम लोग लखनऊ के आलमबाग के छोटा बरहा मोहल्ले में ठाकुर हरिनाम सिंह के अहाते में किराये के मकान में रहते थे।) जिस लड़के से झगड़ा हो जाता था, उस रात 'हे भगवान..हम न मरी..' वाली प्रार्थना में से उस लड़के का नाम कट्ट..यानी अगर वह मरता है, तो मर जाए, लेकिन जो सूची मैं पेश कर रहा हूं, उसमें से कोई न मरे। जब दोस्ती हो जाती, तो वह नाम फिर जुड़ जाता। तब यह कहां मालूम था कि जो पैदा हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है। जो आज है, कल नहीं रहेगा, जो कल होगा, वह भी एक दिन नहीं रहेगा। यही तो प्रकृति की द्वंद्वात्मकता है। पदार्थ में हर पल बदलाव ही प्रकृति का शाश्वत सत्य है।
यह तो मुझे बहुत बाद में अम्मा ने बताया कि बड़कऊ पंडित और छोटे पंडित का विवाह एक ही मडय़ै के नीचे एक ही दिन एक ही समय में हुआ था। दरअसल, हमारी बड़ी दादी और हमारी दादी दोनों बुआ-भतीजी थीं। नहीं समझे...विवाह से पहले बड़ी दादी उम्र में बड़ी जरूर थीं, लेकिन पद में छोटी थीं। अर्थात विवाह से पहले जो बुआ थीं, वे शादी के बाद अपनी ही भतीजी की देवरानी हो गई थीं। शादी के बाद चूल्हा-चौके से भतीजी यानी जेठानी का कोई मतलब नहीं रह गया। और बुआ यानी देवरानी का इस बात से मतलब नहीं रह गया कि उनके बच्चों ने खाया कि  नहीं, पिया कि नहीं, कपड़े हैं कि नहीं। यही हाल खेत-खलिहान और रुपये पैसे को लेकर दोनों भाइयों में था। खेत में क्या बोया जाएगा, क्या काटा जाएगा, कितना गल्ला रखा जाएगा, कितना बेचा जाएगा, इससे छोटे पंडित को कोई लेना देना नहीं था। यह सब कुछ बड़कऊ पंडित के जिम्मे पर था। लेकिन छोटे पंडित ने अपने बड़े भाई की बेटियों का जहां-जहां विवाह तय किया, जो-जो लेना-देना था, लिया दिया, लेकिन भग्गन मिसिर ने अपने छोटे भाई से उसका मुजरा (हिसाब) नहीं लिया। न ही बेटी के भावी घर-द्वार के बारे में पूछा। बेटियों की शादी में उनसे जितना कहा गया उतना उन्होंने कर दिया, बाकी उनसे कोई मतलब नहीं रहा। दोनों भाइयों में आजीवन कभी मन मुटाव नहीं हुआ, देवरानी-जिठानी में तू-तू-मैं..मैं नहीं हुई। संपत्ति का बंटवारा तो बहुत दूर की बात है। कहते हैं कि बड़कऊ पंडि़त को पहलवानी का शौक था। वे रोज सुबह-शाम दंड-बैठक लगाया करते थे। लेकिन शनिवार और रविवार को नहीं। क्योंकि उस दिन छोटे पंडित गांव में होते थे। लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि बड़कऊ पंडित अपने छोटे भाई से डरते थे।
छोटे पंडित जब बलरामपुर से 12 -14 किमी पैदल चलकर गिधरइयां या घूघुलपुर (ये बगल के गांव हैं और इसी गांव के निवासी गांव के रिश्ते से मेरे बड़े भाई लगने वाले विनय कुमार पांडेय यानी बिन्नू पांडेय दो बार उत्तर प्रदेश सरकार में होमगार्ड राज्य मंत्री रह चुके हैं और 16  मई 2014 से पहले श्रावस्ती के सांसद भी रहे हैं।) पहुंच जाते, तो गांव में सन्नाटा छा जाता। गांव की बहू-बेटियां, छोटे पंडित की भाभी, बुआ, बहन, काकी लगने वाली औरतें अपने घर में दुबक जाती थीं। वे किसी को भी डपट देते थे। किसी के भी घर में बैठकर परपंच बतियाने वाली काकी, बुआ कहतीं, 'चली बहनी..सोमवार का आइब..तब बैठिकै बतियाब..लडि़कवा कहत रहा कि छोटे पंडित आवत हैं। अब्बै जौ भेटाइ जाब, तो कुलि गति कै डरिहैं।'
सन 1935 से एकाध साल पहले बलरामपुर के पूरबटोला स्थित कटार सिंह प्राइमरी स्कूल में छोटे पंडित मास्टर हो गए थे। कहते हैं कि जब उनकी तनख्वाह दस रुपये हुई, तो गांव जंवार के लोग उन्हें देखने और बधाई देने आए थे। धीरे-धीरे एक-एक कर बेटियां विदा हुईं, तीनों बेटों (रामेश्वर दत्त, कामेश्वर नाथ और बालेश्वर प्रसाद) की शादियां हुईं। इनके परिवार भी धीरे-धीरे लखनऊ, सारनाथ और बलरामपुर में व्यवस्थित हो गए, तो गांव नथईपुरवा में रह गए भग्गन मिसिर और उनकी बेवा भयो (छोटे भाई की पत्नी यानी हमारी दादी)। सामाजिक रिश्ता ऐसा कि वे दोनों न एक दूसरे की मदद कर सकें, न बोल बतिया सकें। हमारे यहां छोटे भाई की पत्नी को छूना महापातक की श्रेणी में आता है। हम लोग बचपन में कई बार बप्पा के साथ खटिया पर बैठे-बैठे दादी को छूने या उन्हें पकडऩे का प्रयास करते, तो दादी डपट देतीं, 'आंधर हौ का, देखत नाहीं..छुई जात तौ...।' हम समझ नहीं पाते, तो बड़ा मासूम सा सवाल करते, 'तौ भा का?' तब तक अम्मा, चाची या अगर बुआ होतीं, तो बोल बैठतीं, 'तोहार कपार अऊर का..।'
आधे जून के बाद जब बरसात होती, तो बप्पा खेत बोने लगते। धान बैठाने के लिए खेत तैयार किए जाने लगते। पलेवा करने के लिए खेत में पानी भरकर जुताई होती और फिर हेंगा (समतल करने वाला लकड़ी का पाटा) बैलों के जुआठे में बांधकर खेत हेंगाया जाता, तो मैं भी जिद करता कि हेंगा पर बैठबै। लोकई काका अगर होते, तो बैठा लेते। बप्पा साफ मना कर देते, 'बेटी*** अगर मुंहि के बले हेंगा के आगे गिर परिहौ, तो परान निकरि जाई। हियां गडि़** मरवावै आयौ है।' बप्पा हर बात-बात पर गारी देते थे। यहां तक कि कुत्ते-बिल्ली को भी नहीं छोड़ते थे। अवधी भाषी क्षेत्र के लोगों की यह खास बात मैंने महसूस की है कि जब वे अपने बेटे-बेटियों को प्यार से दुलराते हैं, तो 'बहन** या बेटी** कहे बिना नहीं रहते।' ये गालियां ऐसे देते हैं, मानो उसके बिना प्यार की अभिव्यक्ति हो ही नहीं सकती। तो जब भी हम सभी भाई (इसमें चचेरे भाई भी शामिल हैं) गर्मी की छुट्टियों में गांव जाते, तो दिन भर में कम से कम चार-पांच बार गालियों का उपहार जरूर पा जाते। हम लोग सीधे-सादे थे ही इतने कि बप्पा को किसी न किसी बात पर क्रोध आ ही जाता। और वैसे भी बप्पा के नाक पर गुस्सा रखा ही रहता था। कभी बैल या गाय को एक छपकी लगा दी या कोई शरारत की और बप्पा ने देख लिया, तो वे गुस्से में झपटते हुए कहते, 'ई असोकवा बड़ा चापरकरन है...अब्बै बताइत है डीहकरन कहूं कै।' आपको बता दे कि डीहकरन शब्द चापरकरन शब्द का लगभग समानार्थी है। डीहकरन का मतलब किसी बसी-बसाई जगह को खंडहर बना देना। घर या मकान को खंंडहर कर देना।
अगर आप इन गालियों के अर्थ देखें, तो पाएंगे कि ये बड़ी मधुर गालियां हैं। डीहकरन, चापरकरन, मूड़ीकटऊ, नासकटऊ, दाढिज़ार, दहिजरा। अब आपको दाढिज़ार या दहिजरा के बारे में बताएं। यह गाली वस्तुत: औरतें ही दिया करती हैं, पुरुष नहीं। वह भी बुआ, मामी। काकी, मौसी और मां नहीं। अब बुआ और मामी अपने भतीजे-भांजे को दाढिज़ार या दहिजरा क्यों कहती थीं? गौर करें। हिंदू संस्कृति में ननद-भौजी का रिश्ता बड़ा मधुर और नजदीकी है। इनकी अंतरंगता एकदम सहेलियों जैसी रही है। एक दूसरे के गुण-अवगुण से परिचित। सुख-दुख में एक दूसरे की सहभागी। लोक गीत कोई सा भी हो, किसी भी अवसर का हो। भौजी के साथ ननदी का होना, एकदम अनिवार्य सा है। इनमें सहेलियों जैसी हंसी-मजाक भी चलता रहता है। अब गौर करें दाढ़ी पर। हिंदू संस्कृति में दाढ़ी या तो ऋषि-मुनि रखते थे या मुसलमान भाई। बुआ या मामी अपने भतीजे-भांजे को दाढ़ीजार (यानी जिसकी दाढ़ी जल गई हो) कहकर प्रकारांतर से अपनी भाभी के अवैध संबंध की ओर इशारा करके परिहास करती हैं। दाढ़ीजार या दहिजरा शब्द की व्यंजना बड़ी मनोरंजक है। इसमें भाभी-ननद की हंसी-ठिठोली है, तो उनका आपसी राग, प्रेम और साहचर्य की मिठास भी है। आधुनिक बुआ और मामियां इन मधुर गालियों की मिठास, इनका लालित्य तो जैसे जानती ही नहीं हैं। तो बात..बप्पा और उनकी गालियों की हो रही थी। वे मर्दवादी गालियां देने में विशेषज्ञ थे। कई बार हम लोगों को दी गई गालियां चुभ जातीं, तो दादी, अम्मा या चाची इन गालियों को लेकर बप्पा से भिड़ जाती थीं, लेकिन बप्पा नहीं सुधरे, तो नहीं सुधरे। आजीवन वैसे ही बने रहे, जैसे थे।
बप्पा इन गालियों के संबंध में एक बड़ी रोचक बात बताया करते थे। वे बताते थे कि वे सिर्फ दो जमात ही पढ़े थे। उन्हें गीता के ढेर सारे श्लोक और उर्दू की वर्णमाला याद थी। एक बार उन्होंने बहुत प्रसन्न मन से बताया कि जब वे दस बारह साल के थे, तो दूसरी कक्षा में थे। एक दिन गणित के मुंशी जी ने उन्हें गाली दे दी। बस, परशुराम के अवतार को क्रोध आ गया। उन्होंने मुंसी जी को उठाकर पटक दिया और धोती खोलकर फाड़ दी। उन दिनों लोग धोती के नीचे कच्छा या लंगोट नहीं पहना करते थे। नंगधड़ंग मुंशी जी बचाने की गुहार लगाते रहे और वे जी भर मुंशी जी को पीटने के बाद स्कूल से गांव भाग आए। दिन भर अरहर के खेत में छिपे रहे। बाद में बप्पा के बप्पा यानी पिता जी उन्हें खोजकर लाए और उसी दिन से उनकी पढ़ाई खत्म हो गई। (अभी तो इतना ही, बाकी लिख रहा हूं। उसे भी आपके सामने पेश करूंगा।)

Tuesday, March 17, 2015

घरैतिन और स्टिंग ऑपरेशन

अशोक मिश्र

मैं बाहर गैलरी में खड़ा हो रही बरसात का आनंद ले रहा था। घरैतिन खानदानी परंपरा के मुताबिक रसोईघर में खाना भी बना रही थीं और मेरी सात पुश्तों को न्यौतती भी जा रही थीं। रसोई घर से आवाज आ रही थी, 'बुढ़ा गए हैं, लेकिन आज भी ताक-झांक करने की आदत नहीं गई। इस कलमुंही बारिश में गैलरी में खड़े पता नहीं किस निगोड़ी को निहार रहे हैं आधे घंटे से।Ó घरैतिन की बड़बड़ाहट का आनंद लेते हुए मैंने चुटकी ली, 'अरे बेगम..बूढ़ा किसे कह रही हैं आप? जानती हो, हमारे गांव नथईपुरवा में एक बहुत पुरानी कहावत है, साठा..तब पाठा। लगता है तुमने शायद वह गजल नहीं सुनी जिसे सौ साल के बूढ़े भी गाते हुए कहते हैं, अभी तो मैं जवान हूं..अभी तो मैं जवान हूं..जवानी महसूस करने की चीज है..महसूस करो, तो सौ साल में भी आदमी जवान रहेगा, नहीं तो सोलह साल के बूढ़े भी आजकल बहुत मिल जाते हैं।Ó
हाथ में करछुल लिए घरैतिन किचन से बाहर आ गईं, 'तुम कैसे जवान हो..यह मुझे मालूम है..दो बच्चों के बाप हो गए हो, लेकिन छिछोरापन अभी तक नहीं गया? मेरे पास आपकी सारी करतूतों के प्रमाण हैं..देश-दुनिया में उजागर कर दूं, तो मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। मुझसे ज्यादा अकड़ दिखाने की कोशिश मत कीजिए।' घरैतिन की बात सुनकर मुझे ताव आ गया। मैंने कहा, 'ओए..सुन..तू अपने को 'खांसीवाल' मत समझ...अगर तेरे पास कोई सुबूत हो तो पेश कर..वरना खाली-पीली मुझे बदनाम मत कर।'
तभी कमरे से निकलकर मेरे कुल दीपक ने मोबाइल फोन पर एक रिकॉर्डिंग स्पीकर ऑन करके मुझे सुनानी शुरू की। मोबाइल के स्पीकर से आवाज आ रही थी, 'तुम चिंता मत करो..बुढिय़ा को भनक तक नहीं लगेगी..बस..समय पर आ जाना...।' यह आवाज सुनते ही मेरे होश उड़ गए। मैंने लपककर बेटे के हाथ से मोबाइल फोन छीना और उसमें मौजूद सारी रिकार्डिंग डिलीट करते हुए बेटे से कहा, 'गॉटर...तुम भी?' मानो कहा जा रहा हो, ब्रूटस..यू टू..। बेटे ने कुटल मुस्कान बिखेरते हुए कहा, 'हां पापा...मेरा बिना शर्त समर्थन हमेशा गृहाध्यक्ष की तरफ ही रहेगा...आपकी बहुत सारी रिकॉर्डिंग..वीडियो टेप वाली एक मोबाइल चिप मेरे मामा को कल ही भेजी गई है, ताकि वक्त जरूरत पर काम आए। इस चिप में  विभिन्न आंटियों..मौसियों..से की गई आपकी बातचीत, छेड़छाड़ की क्लिपिंग्स मौजूद हैं।'
मुझे अब उस शख्स पर गुस्सा आ रहा था जिसने स्टिंग ऑपरेशन जैसी वाहियात परंपरा को जन्म दिया था। मैंने घरैतिन के आगे हाथ जोड़ते हुए माफी मांगी, लेकिन घरैतिन ने यह कहते हुए समझौते से इनकार कर दिया, 'जेठ जी की अदालत में कल ही आपके खिलाफ मुकदमा दायर किया जा चुका है..आपको जो कुछ कहना है, वह जेठ जी की अदालत में कहिएगा। आज शाम तक मेरी जिठानी वकील की नोटिस भी आपको मिल जाएगी।' इतना कहकर वे अपने काम में मशगूल हो गईं और मैं लुटा-पिटा सा खड़ा बेटे को घूरता रहा।

Sunday, March 15, 2015

जंग जारी है

-अशोक मिश्र
मैं चाहता हूं
तुम्हारे रक्तिम अधर
चूम लूं,
हरी भरी वादियों में/ सुनहरी प्रात: की वेला में
या फिर दूधिया चांदनी के आंचल तले
जीवन भर न सही
एक पल ही सही
तुम्हारे साथ घूम लूं।
किंतु/ मैं ऐसा चाहकर भी
नहीं कर सकता क्योंकि
मुझे बार-बार याद आता है
उस दुधमुंहे बच्चे का
बिलख-बिलख कर रोना
जो अपनी मां के शव के पास
खड़ा/महज इसलिए रो रहा था
कि उसकी मां
बिना स्तनपान कराए ही/चल बसी थी
बच्चा/ शायद यह भी नहीं जानता था
कि समाज के ठेकेदारों की हवस की भेंट
न जाने कितनी बार/शायद बार-बार
हजार बार चढ़ी थी।
मुझे आज भी याद है/वो बच्चा
जो एक बूंद दूध के लिए
बार-बार अपनी मां के स्तन को
झिंझोड़ता था/ और फिर
स्तन में मुंह लगाकर
सो गया हमेशा के लिए।
प्रिये! सच कहता हूं
यह मेरी चिर अभिलाषा है
कि तुम्हारे कुंतलों की मदहोश कर देने वाली
छांव तले जीवन का एक-एक पल
गुजार दूं
तुम्हारी अनसुलझी अलकें बार-बार
सुलझाऊं और फिर उन्हें
यथावत..... उलझाऊं।
तुम्हारी वलयाकृत लटों में
उलझकर
संपूर्ण जीवन...हां...हां संपूर्ण जीवन
वार दूं
'परंतु....किंतु...और...' में उलझा
मैं
ऐसा नहीं कर सकता/क्योंकि
जिंदगी सिर्फ यही है
ऐसा भी तो नहीं कह सकता
आदि और अंतहीन
कहीं सरल तो कहीं सर्पिलाकार
सड़क जैसी दिखती है जिंदगी
हां/यह भी तो सच है
कि हजारों हजार बार
राहों, तिराहों और चौराहों...
अनगिनत राहों में
जाने-अनजाने/बंट जाती है आदमी की जिंदगी
शायद तुमने भी
जिंदगी के बार-बार बंटने की
पीड़ा कभी हंसकर, तो कभी रोकर
या बस यूं ही आदतन/भोगी है
कहीं ऐसा तो नहीं
इसीलिए तुम्हारा अंतरमन
बार-बार भीगा है।
हां...यह सच है कि मैं
अपने जीवन में आने वाले/राहों, तिराहों और चौराहों को
बड़े प्यार से दुलराता हूं/सहलाता हूं
और इसके बाद
इन्हीं कांपते हाथों से
प्रत्येक राहों, तिराहों और चौराहों पर
मील का सुंदरतम पत्थर लगाता हूं।
सच कहता हूं प्रिये!
जीवन के ये अनगिनत/मील के पत्थर
हिमालय की तरह मेरे सीने पर
बोझ सरीखे रखे हैं
ये वो अनपढ़े शिलालेख हैं
जिन्हें मैंने
जीवन प्रस्तर पर अनुभव की हथौड़ी/और संघर्ष की छेनी से
काल के घात-प्रतिघात/सहकर भी
अनवरत गढ़ा है।


सच कहता हूं प्रिये!
जब प्रात: काल प्राची में सूर्य
लाल बुश्शर्ट पहने/किसी शरारती बालक की तरह
चुपके-चुपके झांकता है
न जाने क्यों/तब मुझे
छत की मुंडेर से झांकता
तुम्हारा चेहरा याद आता है
और तब
मैं चाहता हूं/सूरज का मुंह लपक कर चूम लूं
परंतु सीने पर रखे मील के ये पत्थर
मुझे मजबूर कर देते हैं
मेरी अभिलाषाओं को
अभीप्सित कामनाओं के बढ़ते रथ को
पल भर में ही चूर चूर कर देते हैं।
किंतु मैं अभी हारा नहीं हूं
एक-न-एक दिन
मैं...हां...हां...मैं
सूरज का मुंह चूम कर रहूंगा
हारा तो मैं तब भी नहीं था/जब
मैं नंगा था/भूखा था
जानती हो/चौपाया से दोपाया बनने के प्रयास में
कितना बार गिरा था...!!!
या क्षुधाग्नि को शांत करने हेतु
जानी-अनजानी विपदाओं से
कितनी बार घिरा था....!!!
भूख से बिलबिलाते बच्चों को
बहलाने के लिए विवश होकर/मैंने ही तो
दो पाषाण खंडों को लड़ाया था
जिससे उत्पन्न आग में
जल मरे/बंधु-बांधवों, पुत्र, पुत्री व पत्नी
जंगली हिंस्र पशुओं के भुने मांस को
अपनी क्षुधाग्नि बुझाने के लिए/खाया था
तुम क्या समझती हो...
तब मैं हार गया था?
किंतु यह तुम्हारा भ्रम है
यही तो मेरी हार और जीत का/अनवरत क्रम है
और तब से मेरी यह लड़ाई जारी है
मैं तब भी नहीं हारा था जब
चंद मु_ी भर लोग शोषण पर आधारित
बिकाऊमाल की अर्थव्यवस्था को जन्म देकर
मेरे मालिक बन गए थे
और मुझे/मेरे तथाकथित मालिकों ने
दास, भूदास और न जाने कितने नामों से पुकारा था
मेरी नवविवाहिता पत्नी के साथ
बार-बार, हजार बार बलात्कार करने के बाद
उन्होंने मुझे ही धिक्कारा था
मैं तब भी लड़ रहा था/जब मुझे
मेरी ही श्रमशक्ति से उत्पादित माल के
अधिकार से कर दिया गया था वंचित
या फिर/जब मैं स्वयं बिकाऊ माल बन गया था
हाथों और पांवों में
हथकड़ी-बेड़ी डालकर/हाटों में, बाजारों में
बिकाऊ माल की तरह सजा दिया गया था
मेरा क्रेता
मुझे ही नहीं/मेरी आत्मा तक खरीद लेता था।
सच कहता हूं प्रिये!
मैं कितनी बार बिका हूं/शायद तुम गिन नहीं पाओगी
अगणित जन्म लेने के बाद भी
गिनते-गिनते थक जाओगी
किंतु/तुम्हें मेरी कसम है
यह मत कहना कि मैं हार गया था
मैं तब भी लड़ रहा था जब
मेरे श्रमशक्ति के खरीदारों ने
पांवों में बेडिय़ां डालकर/हाथों में हथौड़ी और छेनी पकड़ा दी थी
और मैं दीवानों की तरह
प्रस्तर खंडों से जूझता रहा स्वाधीनता की चाह में
विश्वास नहीं होता....न!
जरा एक बार जा कर
अजंता और एलोरा की गुफाओं में देखो
चप्पे-चप्पे पर मेरे संघर्ष की कहानी लिखी है।


सच कहता हूं प्रिये!
राजा जनक की भरी सभा में
याज्ञ्यवल्क्य की अमानवीय धार्मिक व्याखा का
विरोध करने के लिए/मैं भी उपस्थित था
पाखंडी याज्ञ्यवल्क्य द्वारा डपटी गई गार्गी को
सांत्वना देने के लिए मेरे ही हाथ आगे बढ़े थे
'गार्गी, यदि तूने अगला प्रश्र किया
तो क्षण भर में तेरा मस्तक भूलुंठित हो जाएगाÓ
कहते हुए पाखंड और शक्ति के बल पर
मेरे ही सामने गायें याज्ञ्यवल्क्य के लठैत हांक ले गए थे
धन्य था धर्माधिकारी! योगिराज जनक!!
जो विद्रूपतापूर्वक उन्मुक्त अ_ाहास करके
हंसा था न्याय पर अन्याय की विजय देखकर
यद्यपि मैं
गार्गी को नहीं दिला सका था न्याय
किंतु मैं ही अकेले बैठ
रोया था फूट-फूट कर
बल और शक्तिहीन होते हुए भी
मैं निराश नहीं था/जानती हो क्यों...?
क्योंकि मैं
अजानबाहु था, रक्तबीज की तरह मैं
विशाल आकार कर रहा था ग्रहण
देखना चाहती हो...!
विश्व के जर्रे-जर्रे में मेरे खून-पसीने की
देख सकती हो लालिमा
यह सुंदरतम दुनिया मेरे ही श्रम का
प्रतिफल है प्रिये!
मेरे रुधिर से अगणित बार
स्नान करने वाली असि की मूठ देखो
उस पर की गई चित्रकारी/मैंने ही तो की है
मेरे मालिक
पाषाणों के साथ-साथ तीर, तलवार, भाला, कृपाण पर भी
उत्साहित करते रहे चित्रकारी हेतु
और मैं
बड़ी लगन से अपने संहारक यंत्रों को
बनाता रहा
इसीलिए तो बार-बार
वक्ष पर घाव पाता रहा
तब भी तो मैं संघर्ष के पथ से रंचमात्र/विचलित नहीं हुआ
मानवजाति का इतिहास मेरे
संघर्षों की गाथाओं से भरा पड़ा है
इनके अनखुले पृष्ठों को सावधानी से
पलटो, तभी जान पाओगी कि
मानव मानव से कितनी बार/लड़ा है...
संपूर्ण विश्व का मित्र...विश्वामित्र
मैं ही तो था
जिसने शोषित पीडि़त मानवता के लिए
शोषक शासक के स्वर्ग से बेहतर स्वर्ग के
निर्माण हेतु सतत् प्रयास किया था
मेरे प्रतिद्वंद्वियों ने कितनी निर्ममता से
किया था धूल-धूसरित/मेरा स्वर्ग
यह आज भी मुझे याद है
मुझे जीवित जलना पड़ा था चिता में
क्यों....? क्योंकि
मैं संपूर्ण विश्व में ज्ञान का आलोक/फैलाना चाहता था
मानवता को अज्ञानता और मूढ़ता के महाकूप से निकाल कर
नई दुनिया, नए सत्य और मानवीय संवेदनाओं से
कराना चाहता था परिचित
हां...!! यदि मैं अपने लक्ष्य तक/पहुंच गया होता
तो....
तरह-तरह के दर्शन औ सिद्धांतों
तरह-तरह के वादों और मत-मतांतरों से सजी
धर्म की दुकानों को
किसी खंडहर के मलबे की तरह
खुद हटा देता शोषित पीडि़़त जनमानस
और तब/जर्जर खंडहर सरीखे तन वालों के
कंपित करों में होती शमशीरें
रक्त पिपासुओं से मांगते अपने एक-एक कतरा खून का
हिसाब
नि:शस्त्र मानव अपनी फौलादी छातियों से
खूनी भेडिय़ों के दांतों की नोक/धारहीन कर देते
सदियों से होते आए
अत्याचार का बदला ले ही लेते
किंतु अफसोस!
मुझे ही जीवित जलना पड़ा...
क्योंकि सदियों से कल्पित भगवान को
यथार्थ की कसौटी पर कसना चाहा था मैंने
पाषाण की उस प्रतिमा से
जिसे तुम भगवान कहती हो...
अपने एक-एक बूंद का हिसाब मांगा था मैंने
आह..! इससे पहले कि
कपोल कल्पित भगवान को
परमाणु और अणु की कसौटी पर कसता
उसे कल्पित और मिथ्या साबित करता
उससे पहले/मुझे आग में झोंक दिया गया।
सच कहता हूं प्रिये!
आग में जलने के बावजूद मैं
हारा नहीं था, निराश नहीं था
मैं अंतिम सांस तक कहता रहा
परमाणु...! परमाणु....!! प...र..मा..णु!!! प..
हां/तुमने ठीक पहचाना
मैं वही कणादि ऋषि हूं।




जब कभी
गुलाब की कोमल पंखुडिय़ों पर ओस बिंदु
हीरे-मोती की तरह/बिखरी दिखाई देती है
जी चाहता है इन हीरे-मोतियों को
चूम लूं/किंतु
डरता हूं कहीं एक अहिल्या धरा पर/एक बार फिर
मुक्ति की आस लिए पाषाण न बन जाए
आज भी याद है मुझे
अहिल्या की प्रश्न करती मूक आंखें
पूछती थीं मुझसे बार-बार/एक सौ/हजार बार
'तुम्हीं बता दो, मेरा दोष क्या था?
गौतम जैसे तत्वज्ञानी और विज्ञानी
मुझे पाषाण होने का अभिशाप देते समय
स्वयं पाषाण न था...?
उनका पौरुष कहर बन कर/टूटा था
मेरे कोमल और पवित्र तन पर
मैं पूछती हूं/है तुम्हारे पास इसका कोई उत्तर
आततायी और विलासी, कपटी-दुराचारी
देवराज इंद्र को
दंडित करने के लिए क्यों नहीं उठे थे हाथ...?Ó
सच कहता हूं सखे!
शायद मैं पहली बार हुआ था निरुत्तर
जंग तब भी जारी था
हां, इस बार प्रतिद्वंद्वियों से नहीं
लड़ रहा था मैं अपने आप से
कुछ कांच स²श बिखर गए विश्वास से
और कुछ अभागिन अहिल्या के संताप से
राम भी तो/ अपने संपूर्ण 'रामत्वÓ का उपयोग करने के बाद
पतित और पापाचारी नृपति शिरोमणि देवराज इंद्र को
न तो दंडित कर पाए/और न ही
अहिल्या को उसका गौतम दिला पाए
धन्य हो महाप्रभु! विष्णु अवतार!!
यह केवल मैंने समझा था
तुम्हारी लीला है अपरंपार
एक आर्य का दूसरे आर्य के प्रति विद्रोह
एक शासक का दूसरे शासक के प्रति क्रोध
एक शोषक का दूसरे शोषक के प्रति रोष
भला कैसे संभव था
वह भी महज एक नारी के लिए
नहीं...नहीं...कदापि नहीं...
सच कहता हूं प्रिये!
सूपर्णखा के नासिका-कर्ण विच्छेदन पर
वैदेही हरण/ और अग्नि परीक्षा के बाद
मर्यादा पुरुषोत्तम द्वारा वैदेही निष्कासन पर
केवल और केवल मैंने
राम और रावण का प्रबलतम विरोध किया था
²ष्टिहीन धृतराष्ट्र की भरी सभा में बलात्
लाई गई द्रुपदसुता के चीर हरण का
विरोध मैंने ही किया था/क्योंकि मैं
विकर्ण के रूप में वहीं उपस्थित था
इतना ही नहीं/सूत पुत्र कर्ण मैं ही था
शायद तुम्हें ज्ञात हो?
सूत पुत्र होने के कारण नहीं पा सका था धुनर्शिक्षा
राजकुमारों के गुरु होने के कारण ही तो
द्रोण/मुझे हेय ²ष्टि से देखते थे
भरी सभा में 'सूत पुत्रÓ कह कर उपहास करने का
साहस पांचाली/ महज इसलिए कर सकी थी
क्योंकि मैं था
राजसी ठाठ-बाट से अपरिचित  गरीब की आंखों का तारा
'सूत पुत्रÓ कह कर उपहास करने वाली महारानी
शायद भूल गई थी कि
उसके स्वर्ण जडि़त सिंहासन
गगनचुंबी प्रासादों को मैंने ही अपने लोहित
औÓ स्वेद बिंदुओं से सींचा है
अपने पांच पतियों की वीरता पर अभिमान करने वाली
महारानी को शायद याद नहीं कि
विजय अभियान पर निकलने वाले उसके पति
मेरी पीठ पर पांव रख कर ही
अश्वों पर चढ़ सके थे/अन्यथा
अश्वों की वल्गा थामना तो दूर
राजसी ठाठ-बाट में पले सुकोमल गात को
अश्व पगों से इतनी बार/रौंदा गया होता कि
शायद उनके शवों को
पहचानने से कुंती और माद्री इनकार कर देतीं
समरांगण में/उनके पक्ष औÓ विपक्ष दोनों में
मैं ही तो हुआ था लहूलुहान
गिद्धों, चीलों, सियारों और भेडिय़ों को
मैं ही देने गया था न्यौता
मैंने ही अपने कटे फटे/इधर उधर बिखरे अंगों को
समेट पहुंचाया था श्मशान
मुझे आज भी याद है कि
मैंने पुन: एक बार सौगंध खाई थी
यह युद्ध फिलहाल चलता रहेगा।




सच कहता हूं प्रिये!
एक चुटकी सिंदूर की/ तुम्हारी
चिर अभिलाषा पूर्ण न कर पाने की पीड़ा
सालती रहती है मेरे अंतरमन को
उस पर तुम्हारी निष्कलंक स्नेहिल मुस्कान
मेरे हृदयतंत्र को
मथने के लिए है पर्याप्त
मेरी इच्छा है कि/तुम्हारा
रोम-रोम शाप दे कर मुझे शापित कर दे
ताकि वक्ष के हिमालय की बर्फ पिघले/और
दो गंगाएं एक साथ बह निकलें
ताकि गुरु द्रोण के मन का कल्मष धुल जाए
शायद पता नहीं, इसी तरह
सेत-मेत में लिया गया मेरा दाहिना अंगूठा
इसी बहाने वापस मिल जाए।
सच कहूं तो शायद तुम्हें रुचि कर न लगे
गुरु द्रोण/इतना गिर सकते हैं मुझे
कदापि विश्वास न था
किंतु मैं करता भी क्या?
भील पुत्र ही सही/मानवीय संवेदनाओं से हीन
मानव से घृणा करने वाला, ऊंच-नीच/अमीर-गरीब के
मध्य  खाई चौड़ी करने वाला तो नहीं था न!
निर्लज्जतापूर्वक मांगने पर
दाहिने हाथ का अंगूठा तो क्या
संपूर्ण दाहिना अंग दे देता/आखिर मानव पुुत्र जो ठहरा
जानती हो! यही गुरु द्रोण
मेरे पग रखने से अपवित्र हुई भूमि पर
थूक बैठे थे/घृणापूर्वक निहारा था पल भर को
'रे अस्पृश्य भील पुत्र
रंगशाला में प्रवेश करते समय
भावी विश्व विजयी महान धनुर्धर अर्जुन के धनुही की
प्रत्यंचा का प्रचंड नाद सुनाई नहीं पड़ा
लगता है भील पुत्र! तू बधिर है?Ó
कितना गर्व था उन्हें
भावी शासक, भावी शोषक के गुरु होने का
लगता था उनके पांव धरती पर नहीं
आसमान पर पड़ रहे थे
गुरु द्रोण...हां..हां..गुरु द्रोण ने ही
मुझसे कहा था कि
मैं एक शासक और एक शासित
एक शोषक और एक शोषित को एक साथ
धनुर्विद्या कैसे सिखा सकता हूं/तू इतना भी
नहीं जानता कि दोनों में द्वंद्वमय प्रवृत्ति के कारण
अनिवार्य है संघर्ष!
मैं चाहता तो
पूछ सकता था आचार्य द्रोण से/कि
आपने द्रुपद का उत्तर/क्यों नहीं स्वीकारा था सहर्ष...?
उस समय तो आप तिलमिला उठे थे श्रीमन!
और कर डाली थी प्रतिज्ञा
द्रुपद का मान खंड-खंड कर देने की
मेरे इस प्रश्र का है  आपके पास कोई उत्तर...?
किंतु मैं मौन साध गया था
तात्पर्य मेरी मौनता का/हार जाना कदापि न था
धनुर्धारी अर्जुन को समरांगण में
मैंने ही तो ललकारा था।
पतले बांस की बनी धनुही की टंकार को/सुनकर ही
अर्जुन का गांडीव कांप उठा था
क्योंकि धनुही पर चढ़ी
प्रत्यंचा डोरी की नहीं/मेरी सूखी आंत से बनी थी
तभी तो मेरी प्रत्यंचा की टंकार
अर्जुन से सौ गुनी थी।
गुरु द्रोण को मेरी शक्ति का आभास था
तभी तो उन्होंने षड्यंत्र रचकर
निर्लज्जतापूर्वक मांगा था मुझसे/दायें हाथ का अंगूठा
उन्हें अर्जुन के गांडीव पर
अपने सर्वाधिक प्रिय शिष्य पर
कदापि विश्वास न था
सच कहता हूं सखे!
द्रोण का यही अविश्वास
मेरी विजय पताका बन फहरती रहेगी युगों तक।


तुम्हारी कसम, एक बार फिर कहता हूं प्रियतमे!
महसूसता हूं तुम्हारे साथ किया गया अन्याय
चौरवृत्ति का प्रबलतम विरोधी होने के बावजूद
तुम्हारी निद्रा भंग हो/इससे पूर्व
मैं पलायन कर गया था स्वर्ण पिंजर से
दरअसल पलायन था राजत्व से
देवत्व, स्वामित्व, धार्मिक असंगतियों और सामाजिक कुप्रथाओं से
सबके सब शोषण के निमित्त मात्र
शोषणविहीन समाज की रचना हेतु
तुमने भी तो सौंपा था मुझे
अपना प्यारा दुलारा राहुल
भिक्षा पात्र में लाल डालते समय/नहीं कांपी थी तुम्हारी देहयष्टि
किंतु मैं जानता हूं
मेरे ओझल होने तक
ताकती रही थीं तुम आकुल
सच कहता हूं प्रिये!
तब मेरे गर्वोन्नत भाल को देख
आकाश भी हो उठा था लज्जित
धरती तुम्हारे त्याग से विचलित
कंपायमान हो उठा था अचल गिरिराज हिमालय
मेरे प्रतिपक्षियों का भी वक्ष
तुम्हारे आत्मोत्सर्ग और विश्व करुणा को देख
द्रवित हो उठा था/शायद तुम्हें याद हो
तब मैंने जाना
तुम आमोद-प्रमोद, हास-विलास की ही नहीं
तप्त रेगिस्तान, झंझा-भूचाल और प्रलय में भी
सहचरी हो
राहुल की दी गई शपथ
मेरे लिए पृथ्वी से भी थी गुरुतर
लाख तर्क-वितर्क के बावजूद
स्वीकारा मैंने भिक्षा हो निरुत्तर
सच कहूं
तो मैं उस दिन सहर्ष हारा
तुम्हारे त्याग को/मैंने ही नहीं/बाद में
संपूर्ण संसृति ने जयनाद करते हुए स्वीकारा
राहुल को अपने पुत्रत्व पर
और संपूर्ण संसृति को
तुम्हारे कृतित्व पर है गर्व और अभिमान
रहे युग-युगांतर तक तेरा जयगान
किंतु हंत!
प्राणाधिक प्रिय सहचरी!
तुम्हारा त्याग और बलिदान
मेरा सत्य, अहिंसा और विश्व प्रेम का संदेश
युगों से पोषित
युद्ध व राज्य लिप्सा और शोषण उत्पीडऩ का
ध्वंस और उन्मूलन नहीं कर सका
इनके विरुद्ध जंग आज भी जारी है।



सच बताऊं प्रिये!
कुंजों में गलबहियां डाले
जब झूमती हैं मस्त हो कर दो लताएं
तब लगता है
वर्षों बाद मिलने वाली दो बहनें
सुना रही हों सुख-दुख की गाथाएं
और ओस की मोती जैसी बूंदें
बिखेर दी गई हों
उवारे गए राई-नोन की तरह।
जब दूर कहीं ओस की बूंदें
टपाटप...टपाटप...
धरती के आंचल को भिगो देती हैं
तो मैं जानता हूं कि
रजनी
रत्नगर्भा वसुंधरा के क्षत-विक्षत अंगों को
देखकर/क्रंदन कर रही है
बर्फीली हवा क्रोध में
सर्पिणी की तरह फुंफकारती है
हहर...हहर कर चलने वाली
बर्फीली हवाएं
झकझोर-झकझोर नेस्तनाबूत कर
देने को आतुर हैं
हत्यारों के इस निजाम को
किंतु बर्फीली हवाओं का आक्रोश
साबुन के झाग की तरह
बैठता जा रहा है
ज्यों
हवस के भेडिय़ों के चंगुल में फंसी
बेटी को देख कर
और कुछ न कर पाने की विवशता से
बाप का रोष, आक्रोश
पानी के बुलबुले के समान
फूट-फूट कर विलुप्त होता जा रहा हो।
चिंतित मत हो प्रिये!
देखना एक दिन
ये बेचैन हवाएं अपना प्रतिशोध ले लेंगी
फूल के कोमलांगों को
क्षत-विक्षत करने वाले
तितलियों के मनोहारी परों को
अपनी नोकों से बींधने वाले
शूलों के दंत को
तोड़ कर रख देंगी।
इन विवश और शक्तिहीन लगने वाली
हवाओं का शौर्य
तब तुम देख लेना।
सच कहता हूं प्रिये! तुब तुम देख लेना! ये हवाएं
फूलों को तोडऩे के लिए बढ़ते
हाथों का रुख मोड़ देंगी
या फिर
उन्हें एक ही झटके में
तोड़ देंगी
जो सुंदर गुलाब, बेला, चमेरी और जूही की
पुष्पित, पल्लवित कलियों को
'फूल तोडऩा मना हैÓ की
तख्तियां लगाने के बाद
कोट में लगाने के लिए तोड़ते हैं
और जो इन बागीचों में खिले
पुष्पों को अपनी बपौती समझते हैं।
तुम सोच नहीं सकती
वह दिन बहुत शीघ्र आने वाला है
जब प्रत्येक कुचली गई कली को
न्याय मिल जाने वाला है
फूलों और बेचैन बर्फीली हवाओं का
संघर्ष आज भी जारी है
इनके हृदय में सुप्त चिंगारी को
धधकाना/दावाग्नि भड़काना
मेरी अपनी लाचारी है
क्योंकि
जंग आज भी जारी है।
सच बताना प्रिये!
अतीत के इन अनगढ़ शिलालेखों के पृष्ठ
उलटते-पलटते
तुम्हारी नाजुक अंगुलियां/रक्तिम तो नहीं हो गईं
या फिर
कटु यथार्थ के ऊबड़-खाबड़/पथरीले
धरातल से टकराने से बने
फफोलों को सहलाते-सहलाते
कल्पनालोक की वीथिकाओं में
खो तो नहीं गईं
तुम्हारी निर्निमेष आंखों की भाषा
पढ़ता आ रहा हूं युगों से
केवल...हां..केवल
मैं ही तो समझता हूं कि
तुम क्या कहना और करना चाहती हो
हां, मैं समझता हूं
मैं सब समझता हूं
तुम्हारी आंखों का मौन प्रश्न
देवदासी, पतिव्रता, देवी जैसे
शब्दों की आड़ में
किए गए अन्याय का प्रतिकार
तुम करना चाहती हो।
हर अन्याय, अत्याचार और बलात्कार का
एक मात्र मैं ही तो साक्षी हूं
राजभक्ति के नाम पर
नवपरिणीता भार्या को
रंग महल में भेजने के बाद
फूट-फूट कर मैं ही तो रोया था
कामांध नृपति का काम ज्वर उतरते ही
सीलन और बदबूदार कुटिया में
जब तुम आई थीं
तो हम तुम गले लग/फूट-पूट कर रोए थे
तुम
साजन....साजन कह कर वक्ष से
सटी जा रही थी/और मैं
पाषाणखंड-सा खड़ा
बाहों का हार भी न पिन्हा सका था।
कि नृपति का कारिंदा
एक बार फिर/बुलाने आ पहुंचा था।
सातवीं बार
तुम्हारे मुर्छित होने पर
दो घूंट...हां..हां..दो घूंट
पानी पिलाने के अपराध में/लाठियों से
पीटा गया था मैं ही
और तब
क्रोध से दांत पीसते हुए
विद्रोह की पताका पहली बार
फहराई थी मैंने ही।
शायद तुम्हें याद हो प्रिये!
युद्ध की घोषणा होते ही मैं
बागी घोषित किया गया था नृपति द्वारा
अहा! निहत्था और एकाकी होने के बावजूद
समरांगण में मुझे...
'विजय श्रीÓ के रूप में मिली कारा
किंतु तुम...
कितना फूट-फूट कर रोई थी
विजयोन्माद के नशे में
मैं रो भी तो नहीं सकता था
क्योंकि संघर्ष तब भी जारी था।


अरे प्रिये!
तुम पार्क में पुष्पित-पल्लवित
लता-वल्लरी गुल्मों को
देख इतनी चकित क्यों हो...?
सच कहूं
तो शायद विश्वास न हो...
ये सब...ये सब कुछ
मेरा है/मैंने अपने खून से इसे सींचा है
सच कहूं तो
यही मेरे स्वप्नों में छाया हुआ बगीचा है।
तुम इसे स्पर्श करना चाहोगी
नजदीक जाओ और देखो
मेरे श्रम का प्रतिफल है कितना अनुपम
किंतु ठहरो!
इन लता-वल्लरियों को स्पर्श करने का
मत करना दुस्साहस
इन पर स्वामित्व को लेकर
विवाद है मेरे और कथित मालिक के बीच
लेकिन...! लेकिन...!!
तुम्हें मेरी कसम/सच बताना
मेरी कृति/ मुझसे सुंदर है न
यही क्यों
इन गगनचुंबी अट्टालिकाओं-प्रासादों को
देखो
इसे भी तो मैंने गी बनाया है
किंतु मैं
सड़कों-फुटपाथों पर ही
पैदा होने के बाद मरता भी
सड़कों-फुटपाथों पर हूं
तुम विधि का विधान समझ
भले ही कर लो संतोष
किंतु मैं तो इसे
धनिकों और शासकों का युगों से
रचा जा रहा षड्यंत्र ही कहूंगा
कई बार तुम तो जानती हो
मैं इनके विरुद्ध/जंग का ऐलान कर चुका हूं।
कई बार फूटा है मेरा असंतोष
जानती हो प्रियतमे!
कल मेरा भाई
किसी धनिक के घर से फेंके गए
कूड़े के ढेर में से/दो दाना अन्न बीनने की
प्रार्थना करते-करते
जीवन से जंग हार बैठा
मैं रो बी तो नहीं सका था
उसकी मृत्यु पर रोता/तो शायद
उसकी मौत का अपमान ही होता न!
अरे! तुम्हारी आंखों से एक साथ
अश्रु और ज्वाला निकलने क्यों लगी...?
वाह..वाह..तुमने तो कमाल कर दिया
कितनी सहजता से
जंग का ऐलान कर दिया।
तुम्हें निराश तो नहीं करना चाहता
किंतु सच तो यह है कि
तुम लड़ नहीं पाओगी/हार जाओगी
अस्तु, पहले अपना हृदय
फौलाद सरीखा बनाओ/ अपनी
अस्थियों को वज्र की तरह कठोरतम
कोमल कमनीय काया को
शिलाखंड सा।
वर्गीय चेतना पर धार रख कर
असि की नोक सरीखी बनाओ प्रखरतम
तब...शायद तुम भी
इस महाजंग की सैनिकों की पंक्ति में
स्थान पा जाओ
तुम वो...दूर
सिर पर ईंट-दर-ईंट रखे
बांस की सीढिय़ों पर
कुशलतापूर्वक सधे पगों से चढऩे वाली
महिला को देख रही हो न...!
फटे वस्त्रों से तेज निकल रहा है
धूल-धूसरित शरीर स्वर्णमय
वाणी में मधु
औÓ स्वेद बिंदु से चंदन की महक
वस्तुत: वही है क्रांति की देवी
और फिर.....
मेरे जंग की मुख्य सूत्रधार
सेनापति
वही तो है न!
उसके श्यामल और कृशकाय गात पर
संघर्ष के अनेक चिह्न/ अनगिनत गाथाएं
मिल सकती हैं तुम्हें
इस जंग का सहेजा गया इतिहास
हमें...तुम्हें....और भावी पीढ़ी को
भेडिय़ों, नरपिशाचों और शोषकों से
बचा कर रखना होगा...!
मिलों, कारखानों की चिमनियां भी
अब तो/सुलगने को हैं आतुर
सुंदरतम विश्व को रचने वाले हाथों में
अब दिखाई देने लगी हैं शमशीरें
जिन हाथों में था कल तक कन्नी, बसुली/फावड़ा-बेलचा
आज वो इस व्यवस्था के ध्वंस-उन्मूलनार्थ
मानवीय मानव समाज के सृजनार्थ
संगठित हो रहे हैं
शोषणविहीन....!
दोहनविहीन....!!
उत्पीडऩविहीन.....!!!
वर्गविहीन.....!!!
मानव समाज की स्थापना ही
इन मानवता के पुजारियों का अंतिम लक्ष्य
वो देखो प्रियतमे!
सिंहनाद से हो उठा वातायन कंपायमान
झुंड के झुंड/दल के दल
लक्ष्य की ओर बढ़ते जा रहे हैं
उधर देखो
प्रतिपक्षियों के कलेजे हैं कंपित
दूधिया गात से पीलापन झलकने लगा है
क्रूरता के साक्षात अवतारों को बी
मौत का तांडव होता दिखाई देने लगा है।
मैंने कहा था न, सखे!
वह दिन दूर नहीं
जब मैं सूरज का मुंह
चूम कर रहूंगा
आओ, हम तुम एक साथ मिल कर
सूरज का मुंह चूमें/उसे दुलराएं
क्योंकि
चंद क्षणों बाद
असंख्य मुख सूरज को चूमने के लिए
होंगे बेताब
निकट आती जा रही महाध्वनियां
परिवर्तन का दे रही हैं संकेत
लो, उस दुधमुंहे बच्चे को देखो!
उसने अंतिम जंग की घोषणा कर दी है
हां..हां..
अब अंतिम जंग जारी है....!
अब अंतिम जंग जारी है....!!
अंतिम जंग जारी है....!!!!
जंग जारी है.....!!!
(रचना काल : १९९३, लखनऊ)

Tuesday, March 10, 2015

भाजपा कब तक ढोएगी पीडीपी को?

अशोक मिश्र 
एक बहुत पुरानी कहावत है कि पूत के पांव पालने से ही दिखाई देने लगते हैं। यह कहावत अभी इसी महीने जम्मू-कश्मीर में गठित हुई भाजपा और पीडीपी की गठबंधन सरकार पर पूरी तरह चरितार्थ हो रही है। पीडीपी के मुखिया मुफ्ती मोहम्मद सईद ने मुख्यमंत्री बनने के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में ही भाजपा के लिए संकट खड़ा कर दिया। अब गठबंधन धर्म के नाते संसद में भाजपा सवालों के घेरे में खड़ी है। इतना ही नहीं, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद जहां राज्य में सही ढंग से हुए चुनाव में पाकिस्तान और अलगाववादियों की भूमिका को सही ठहराते हुए अपनी बात पर अड़े हुए हैं, वहीं उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती मीडिया पर दोष मढ़ रही हैं कि मीडिया ने उनकी बात को सही तरीके से समझा नहीं। बात इतनी ही होती, तो शायद भाजपा-पीडीपी गठबंधन सरकार के रिश्तों को लेकर आशंका नहीं पैदा होती। इस विवादित बयान के दूसरे ही दिन पीडीपी विधायकों ने अफजल गुरु के शव के अवशेष मांगकर भाजपा के सामने एक और नई मुसीबत खड़ी कर दी। यह एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिस पर मोदी सरकार ही नहीं, पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह की सरकार भी फूंक-फूंक कर कदम रख रही थी।
दरअसल, पीडीपी से गठबंधन करके भाजपा ने एक जुआ खेला है। इस बात को भाजपा भी समझती है कि यदि जरा सी चूक हुई, तो यह दांव उलटा पड़ सकता है। जम्मू-कश्मीर में खोने के लिए पीडीपी के पास भले ही कुछ न हो, लेकिन भाजपा के पास बहुत कुछ है। यह सही है कि भाजपा का कश्मीरघाटी में जनाधार नहीं है। यदि यह सरकार छह साल चल भी गई, तो भी उसका जनाधार कश्मीर में बनने वाला नहीं है। वहां का माहौल ही भाजपा और भारतीय सेना के विरोध में हैं। केंद्र में इतने वर्षों तक शासन करने के बावजूद कांग्रेस वहां अपना जनाधार नहीं बना पाई, तो भाजपा के प्रति वहां पहले से ही दुराग्रह का भाव है। हां, यदि निकट भविष्य में भाजपा और पीडीपी सरकार का पतन होता है, तो भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि के साथ-साथ कुछ प्रतिशत जनाधार से भी हाथ धोना पड़ेगा। इस बात से सभी वाकिफ हैं कि पीडीपी और भाजपा दोनों विपरीत ध्रुव वाली पार्टियां हैं। इन दोनों का आपसी तालमेल कायम रखना, तेल और पानी को मिलाने की कोशिश करने जैसा है। ठीक वैसे ही जैसे जम्मू और कश्मीर में रहने वाले लोगों की मानसिकता में जमीन आसमान का अंतर है, ठीक वैसा ही अंतर इन दोनों पार्टियों की विचारधारा में है। फिर भी यदि दोनों पार्टियों के मुखिया यह गठबंधन की सरकार बनाए रखना चाहते हैं, तो सबसे पहले दोनों को विवादास्पद बयान देने से बचना होगा। यह जिम्मेदारी मुख्यमंत्री होने के नाते सईद की सबसे ज्यादा है। उन्हें भारतीय जनमानस की मानसिकता को समझना होगा। उन्हें ऐसे हालात पैदा करने से बचना होगा, जो भाजपा को असहज कर दें। पीडीपी से गठबंधन करने के बाद से ही भाजपा के उन समर्थकों को लग रहा है कि जम्मू-कश्मीर से धारा ३७० को हटते हुए देखना चाहते हैं। ऐसे लोगों को लग सकता है कि भाजपा ने सत्ता की लालच में पीडीपी को ज्यादा ही छूट दी है और ये लोग उससे दूर जा सकते हैं। भाजपा के साथ-साथ पीडीपी को यह भी तय करना होगा कि राज्य सरकार और सेना का संबंध कैसा रहे। पीडीपी और अलगाववादी नेता काफी दिनों से अफ्सा जैसे कानून को हटाने की मांग करते आ रहे हैं। अफ्सा जैसे कानून की मदद से ही सेना अलगाववादी ताकतों और पाक समर्थित-पोषित आतंकवादियों पर काबू पाने में सफल हो पाती है। वैसे, तो नेशनल कान्फ्रेंस भी अफ्सा को हटाने की बात करती रही है, लेकिन जब तक उनकी सरकार रही, वह ऐसे मुद्दे पर खामोश रही। अब जब उनके हाथ से सत्ता जा चुकी है, तो वह भी पीडीपी के सुर में सुर मिला रही है। मुख्यमंत्री सईद को सेना के साथ सहयोगात्मक रवैया अपनाना होगा। यदि ऐसा नहीं होता है, तो भाजपा को मजबूरन गठबंधन तोडऩा पड़ सकता है। इसके साथ ही कई ऐसे क्षेत्रीय मुद्दे हैं जिन पर भाजपा और पीडीपी में टकराव संभव है। पीडीपी अपने जन्मकाल से ही जम्मू को हिंदुओं का और कश्मीर को मुसलमानों का मानती आई है। उसके नेता कश्मीरी पंडितों के पलायन को उचित ठहराने की कोशिश करते रहे हैं।
इन दोनों हिस्सों में रहने वालों के बीच प्रतिद्वंद्विता का भाव भी काफी गहरा है। गठबंधन सरकार की यह पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि वे ऐसी भावना को कतई हवा न दें। यदि ऐसा होता है, तो यह न केवल राज्य बल्कि पूरे देश का माहौल बिगाड़ सकता है। मुख्यमंत्री को दोनों समुदायों हिंदू और मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा करनी होगी। अगर आपसी समझदारी और सामंजस्य से चलाया गया तो यह राज्य के क्षेत्रीय और धार्मिक विभाजन को पाटने में ऐतिहासिक साबित हो सकता है।

एक पाती आतंकियों के नाम

अशोक मिश्र
आज सुबह होली के बाद उस्ताद गुनाहगार को बधाई देने पहुंचा, तो वे कुछ लिख रहे थे। मैंने चरण स्पर्श के बाद मजाकिया लहजे में पूछ ही लिया, 'उस्ताद! यह क्या? भाभी जी को प्रेम पत्र लिख रहे हैं? अब बुढ़ापे में!... पूरी जवानी बीत गई, यह तन-मन को मादक कर देने वाली होली बीत गई, अब आप सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने वाली कहावत क्यों चरितार्थ कर रहे हैं?Ó मेरी बात सुनते ही गुनाहगार की भवें तन गईं, 'अबे बूढ़ा होगा तू, तेरा बारह साल का बच्चा, तेरी बीवी..तेरा पूरा खानदान..मैं तो जवान था, जवान हूं और जवान रहूंगा। जहां तक लिखने की बात है, तो हां..यह सही है कि खत लिख रहा हूं, लेकिन मालकिन को नहीं.. अपने और पड़ोसी देश के आतंकियों को।Ó आपको बता दूं, उस्ताद गुनाहगार अपनी पत्नी को बड़े प्यार से मालकिन कहकर बुलाते हैं। उस्ताद की बात सुनते ही मैं चौंक गया। मैंने अकबकाते हुए कहा, 'अमा..उस्ताद..यह क्या गजब कर रहे हो? किसी को पता चला, तो सीधा राष्ट्रद्रोह का मुकदमा..और दस-बीस साल के लिए जेल के अंदर.... क्यों बुढ़ौती में अपनी छीछालेदर कराने पर तुले हुए हो?Ó
मेरी बात सुनकर उस्ताद गुनाहगार ने चश्मे के लेंस से मुझे निहारा और कलम रख दिया। बोले, 'जब अपने प्यारे राष्ट्रीय चचा 'मुमोÓ अपने प्यारे राष्ट्रवादी भाई 'नमोÓ से गलबहियां डालने के बाद पाकिस्तानी आतंकवादियों को थैंकू बोल सकते हैं, तो मैं उन्हें पत्र क्यों नहीं लिख सकता? जब वे राष्ट्रभक्त हैं, तो मैं राष्ट्रद्रोही कैसे हो जाऊंगा?Ó उस्ताद गुनाहगार की बात सुनकर मैं बेचैन हो गया,'पर आपको यह थैंकू...मेरा मतलब है कि थैंक्यू बोलने की जरूरत क्या है? आप चुपचाप पाकेटमारी कीजिए और चैन की वंशी बजाइए। आपको इस पचड़े में पडि़ए ही नहीं।  आप जानते नहीं..बड़े लोग आतंकियों को थैंकू बोलें, तो सियासत...हम आप जैसे लोग आतंकियों को थैंकू बोलेंगे, तो वह राष्ट्रद्रोह होगा। आप बात को बूझते क्यों नहीं हैं।Ó उस्ताद मुजरिम को भी बेचारगी भरी आवाज में बोले, 'यार! ये आतंकी भी तो आदमी होते हैं। बेचारों ने कितना पैसा खर्च किया होगा गोला-बारूद, बम-पिस्तौल खरीदने में।  अपने मुमो चचा के चक्कर में उनका वह सब धरा का धरा रह गया। बेचारों का कितना नुकसान हुआ होगा। बम-पटाखे फोड़-फाड़ लेते तो उन्हें संतोष हो जाता कि चलो, जितना गोला-बारूद खरीदा था काम आ गया। अब बेचारे रखे-रखे कुढ़ रहे होंगे। ऐसे में उन्हें सांत्वना तो देना बनता है न! उनके भी बाल बच्चे हैं कि नहीं..बेचारे वे भी बेरोजगार बैठे होंगे। होली में दीपावली मनाने की उनकी तमन्ना अपने चचा मुमो के चलते रह गई।Ó मुझे उस्ताद की बात सुनकर गुस्सा आ गया, मैंने उन्हें होली की रस्मी बधाई दी और घर चला आया। बाद में सुना कि उन्होंने वह खत पोस्ट कर दिया है। अब वह खत आतंकियों तक पहुंचा या नहीं, मैं नहीं जानता। अगर किसी को मालूम हो, मीडिया में खबर आई हो, मुझे भी आप लोग बताइएगा।