Monday, December 23, 2013

घरेलू लोकपाल के शिकंजे में

अशोक मिश्र 
अपने दोस्तों के साथ मटरगश्ती करने के बाद रात नौ बजे घर पहुंचते ही दरवाजे पर से ही मैंने हांक लगाई, ‘अरे घरैतिन! यार जरा एक गिलास गुनगुना पानी दे जाना।’ एक ही हांक पर दौड़ी चली आने वाली घरैतिन की जब आवाज ही नहीं सुनाई दी, मैं चौंक गया। कमरे में जाकर देखा कि एक बड़ी-सी मेज के सामने रखी कुर्सी पर घरैतिन बैठी हुई हैं। उनके दाईं ओर बेटी एक काला कोट पहने बैठी हुई है। इकलौते पुत्र ने पुलिसिया बेंत (रूल) की ही तरह बेलन थाम रखा था। मेज पर कुछ कागज-पत्तर रखे हुए थे। मैंने हंसने का प्रयास करते हुए कहा, ‘यार! यह सब क्या है? किसी नाटक का रिहर्सल कर रहे हो तुम लोग?’ घरैतिन गंभीर आवाज में बोलीं, ‘मिस्टर अशोक! इस समय मैं ‘घरेलू लोकपाल’ के अध्यक्ष की भूमिका में हूं। वैसे तो अब तक इस घर में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, गृहमंत्री और विदेश मंत्री की सारी शक्तियां मुझमें ही निहित रही हैं। आज से लोकपाल की भी समस्त शक्तियां मुझे हासिल हो गई हैं। मिस्टर मिश्रा! आप पर आर्थिक भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया है। आप पर आरोप है कि आप आपनी तनख्वाह का एक हिस्सा कहीं और खर्च कर रहे हैं। आपको इस आरोप के बारे में कुछ कहना हो, तो आप थोड़ी देर बाद चार्ज शीट पेश होने के बाद रख सकते हैं।’घरैतिन, बेटी और बेटे के तेवर बता रहे थे कि मामला गंभीर है। किसी ने या तो इनके कान भरे हैं या फिर ये कूढ़मगज लोग फालतू मुझ जैसे शरीफ व्यक्ति पर शक कर रहे हैं। मैं कुछ कहता कि इससे पहले घरैतिन एक बार फिर बोल पड़ीं, ‘मिस्टर मिश्रा! एक बात आपको बता दूं, बेटा इस समय सीबीआई की भूमिका में है। वही आपके खिलाफ लगाए गए आरोपों की सूची मुझे अभी थोड़ी देर में सौंपेगा। उसके बाद आप पर जो भी आरोप आयद होंगे, उन पर बेटी लोकपाल की ओर से  आपके से जिरह करेगी। जब तक घरेलू लोकपाल अस्तित्व में रहेगा, आप इस समयावधि में बेटे, बेटी और मुझ पर धौंस नहीं जमा सकेंगे। आपको प्यास या चाय की तलब लगने पर दस मिनट की छूट दी जाएगी, ताकि आप चाय बना सकें। अगर आप दूसरों को भी चाय, पानी या दूसरी खाने-पीने की वस्तुएं आॅफर करते हैं, तो वह उत्कोच (रिश्वत) नहीं माना जाएगा। दूसरी बात यह है कि लोकपाल की कार्रवाई के दौरान आपको सिर्फ लगाए गए आरोपों का जवाब देना है। संबंधों की दुहाई देकर आप बचने का प्रयास नहीं कर सकते हैं।’ इतना कहकर घरैतिन ने फुंकनी से मेज को तीन बार ठकठकाया और फिर बेटे को कार्रवाई आगे बढ़ाने का इशारा किया। मैंने झल्लाते हुए कहा, ‘अरे यार! तब तक मैं बैठ भी सकता हूं या नहीं। इसी तरह कब तक खड़ा रहूंगा।’ घरैतिन ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘जब तक आपके मामले का निस्तारण नहीं हो जाता आपको इस तरह काल्पनिक कठघरे में खड़ा रहना पड़ेगा। पांव दुखने पर घोड़े की तरह इधर-उधर झटकने की छूट आपको रहेगी।’
बेटे ने हाथ में पकड़े बेलन को अपनी बायीं हथेली पर धीरे-धीरे मारते हुए कहा, ‘पापा..ओह सॉरी! मिस्टर मिश्रा, आप पर आरोप है कि आप अपनी पूरी तनख्वाह घर पर नहीं देते हैं। पिछले तीन साल से आप एक निश्चित रकम ही घरेलू खर्च के लिए देते हैं। आपको यह मालूम होना चाहिए कि पिछले तीन साल में महंगाई कहां से कहां पहुंच गई है। लोकपाल को पक्का पता है कि आपकी तनख्वाह तीन साल में कम से कम बीस फीसदी बढ़ी है। ऐसे में यह रकम आप घर में जमा न करके किसी महिला/पुरुष पर खर्च करते रहे हैं।’ बेटे की बात सुनते ही मैं चीख पड़ा, ‘तुम सब लोग प्रकारांतर से मुझे चरित्रहीन साबित करना चाहते हो? मैं एक बात इस लोकपाल के समक्ष साफ कर दूं। मैं चरित्रहीन नहीं हूं। हां, ‘चरित्ररिक्त’हो सकता हूं।’ मेरी बात सुनते ही मेरे दायी ओर खड़ी बेटी जोर से चिल्लाई, ‘लोकपाल मैम! आरोपी शब्दजाल में फंसाकर हमें गुमराह करना चाहता है। यह हिंदी के कठिन शब्दों का उपयोग कर लोकपाल के शिकंजे से बचना चाहता है। आरोपी को यह आदेश दिया जाए कि वह पहले ‘चरित्ररिक्त’ शब्द की व्याख्या करे।’ मैंने लोकपाल बनी घरैतिन के सामने सिर झुकाते हुए कहा, ‘देखिए, चरित्रहीन शब्द का अर्थ है कि जो चरित्र से हीन हो, दूसरी स्त्रियों या पुरुषों से विवाहेत्तर संबंध रखता हो। किसी भी समाज में चरित्रहीन होना शर्मनाक है। घृणास्पद है, लेकिन ‘चरित्ररिक्त’ होने का तात्पर्य यह है कि ऐसा व्यक्ति जिसका कोई चरित्र ही न हो। न अच्छा, न बुरा। एकदम चरित्र से शून्य। इस देश की बहुसंख्यक आबादी चरित्ररिक्त है।
न अच्छी है, न बुरी। सिर्फ जिए जा रही है। पूछो क्यों, तो इसका कोई जवाब उसके पास नहीं है। जहां तक आर्थिक भ्रष्टाचार का सवाल है, मैं यह साबित कर सकता हूं कि पिछले तीन साल से मेरी तनख्वाह ही नहीं बढ़ी है। ऐसे में मैं क्या कर सकता हूं। अगर घरेलू लोकपाल मेरे संस्थान के मुखिया को तनख्वाह बढ़ाने का आदेश दे, तो संभव है कि इस आर्थिक तंगी का कोई नतीजा निकले। मैं अपनी बात तो साबित कर सकता हूं।’ इसके बाद मैंने घरैतिन को तीन साल की सैलरी स्लिप लाकर दी। कुछ देर तक उन्होंने उसका गहन अध्ययन किया और बोलीं, ‘आरोपी पर आर्थिक भ्रष्टाचार का आरोप साबित नहीं हुआ। इसलिए मुन्नू के पापा को बाइज्जत बरी किया जाता है।’ यह सुनने के बाद मैंने इस भयंकर ठंडक में भी   माथे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछते हुए सोचा, ‘जब घरेलू लोकपाल इतना खतरनाक है, तो फिर वास्तविक लोकपाल कैसा होगा? खुदा बचाए ऐसे लोकपाल से।’

Tuesday, December 17, 2013

अब कै राखि लेहु भगवान!

अशोक मिश्र 
पिछले दिनों मैं अपने मित्र के घर गया, तो वे अपने बेटे मतिभ्रम को बुरी तरह डांट रहे थे। मैंने मामले की पूंछ पकड़ने की कोशिश की तो पता चला कि मतिभ्रम ने नौवीं कक्षा की अर्धवार्षिक परीक्षा में हिंदी विषय में सूरदास के एक पद की संदर्भ सहित ऐसी व्याख्या की थी कि हिंदी अध्यापक से लेकर प्रधानाध्यापक तक बौखला उठे थे। अध्यापक ने मतिभ्रम के माध्यम से मेरे मित्र के अवलोकनार्थ हिंदी की उत्तर पुस्तिका भिजवाई थी। मैंने देखा, तो चकित रह गया। जिस छात्र का सार्वजनिक अभिनंदन होना चाहिए, उसे स्कूल और घर में डांट पड़ रही थी। उत्तर पुस्तिका में लिखा था,
प्रश्न संख्या 3 (क) निम्न पद की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
अब कै राखि लेहु भगवान।
हौं अनाथ बैठ्यो द्रुम-डरिया, पारधी साधे बान।
ताके डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर ढुक्यो सचान।
दुहूँ भाँति दुख भयौ आनि यह, कौन उबारे प्रान?
सुमिरत ही अहि डस्यो पारधी, कर छूट्यौ संधान।
सूरदास सर लग्यौ सचानहिं, जय जय कृपानिधान॥
उत्तर : संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियां हमारी पाठ्य पुस्तक ‘काव्य संकलन’ के सूरदास के पद नामक पाठ से ली गई हैं। इसके रचियता महाकवि सूरदास जी हैं।
व्याख्या: प्रस्तुत पद में महाकवि सूरदास जी कहते हैं कि पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम आ चुके हैं। तीन राज्यों में कांग्रेस की ऐसी की तैसी हो चुकी है, दिल्ली में भाजपा, कांग्रेस और नवोदित पार्टी आप ‘न मैं खाऊं, न तेरे को खाने दूं’ जैसी अधोगति को प्राप्त होकर बतकूचन कर रही हैं। एक दूसरे पर झल्ला रही हैं। ऐसे में आसन्न लोकसभा चुनाव के भावी परिणाम की सोचकर एक कांग्रेसी नेता भगवान से प्रार्थना करता है, हे भगवान! पिछले दस साल के शासनकाल में हमने कई भूलें की हैं, कई घपले-घोटाले किए हैं। हम पिछले दस सालों में किए गए कर्मों-सुकर्मों-कुकर्मों के लिए माफी मांगते हैं। आपसे बस यही विनती है कि इस बार हमारी रक्षा करो। हम आपसे वादा करते हैं कि देश की जनता को न तो आगे से महंगाई झेलनी पड़ेगी, न बेरोजगारी, न किसी लड़की की देश में कहीं इज्जत से खिलवाड़ होगा, न कोई नेता, मंत्री और अधिकारी भ्रष्टाचार कर पाएगा। कांग्रेस पार्टी ही क्या, पूरा ‘यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस’ ही इस समय अनाथ पक्षी की तरह शाखा विहीन पेड़ रूपी सत्ता पर काबिज है। उसकी इस दीन-हीन दशा को देखकर सत्ता से दूर भाजपा, बसपा, सपा, सीपीआई, सीपीएम और तमाम तरह की क्षेत्रीय पार्टियां शिकारी के रूप में हाथों में तीर-तरकश लेकर शिकार करने को आतुर हैं।
कविवर सूरदास जी आगे कहते हैं कि कांग्रेसी नेता कहता है कि इतना ही नहीं प्रभु! अगर मैं इन विपक्षी पार्टियां रूपी शिकारियों से बचकर भागना भी चाहूं, तो ऊपर सचान (बाज) रूपी चुनाव आयोग मंडरा रहा है, जो किसी भी हालत में निष्पक्ष चुनाव कराकर मुझे हराने पर तुला हुआ है। इस तरह तो दोनों तरफ से यूपीए के प्राण संकट में हैं। हे प्रभु! अब इस संकट से आपके सिवा कोई दूसरा कैसे प्राण बचा सकता है। आप चाहें, तो विपक्षी दलों का मति भ्रष्ट करके उन्हें सभी घपलों, घोटालों के प्रति उदासीन होने की प्रेरणा दे सकते हैं, चुनाव आयोग के ईमानदार अधिकारियों को समय से पूर्व रिटायरमेंट लेने का स्वप्न दिखा सकते हैं। उन्हें मतदान के दिन छुट्टी पर जाने को प्रेरित कर सकते हैं। महाकवि सूरदास जी का कहना है कि कांग्रेसी नेता के भगवान का स्मरण करते ही एकाएक मीडिया में विपक्षी नेताओं के सेक्स स्कैंडल, पैसे लेकर फर्जी चिट्ठियां लिखने, विपक्षी पार्टियों के जिन राज्यों में सत्ता है, उस प्रदेश में हुए घोटालों के मामले उजागर होने लगे, इससे विपक्षी पार्टियों को बैकफुट पर आना पड़ा। वे सत्तारूढ़ दल पर हमला करने को कौन कहे, अपने ही बचाव में इधर-उधर भागने लगे। कल तक जो लोग आक्रामक थे, वे भगवान की कृपा से अपना बचाव करते हुए मुंह छिपाकर रहने को मजबूर थे। सत्तारूढ़ दल ने विपक्षी दलों के सांसदों के वॉक आउट के दौरान एक विधेयक पेश करके पास करा लिया कि चुनाव आयोग सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं को फर्जी मतदान करने से नहीं रोकेगा। वह सभी विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को मतदान से रोकने का हर संभव प्रयास किया जाएगा। महाकवि सूरदास कहते हैं कि भगवान बहुत ही भक्तवत्सल हैं। वे अपने भक्तों का इतना ध्यान रखते हैं कि उन्हें कृपानिधान कहकर उनकी वंदना की जानी चाहिए।
तो पाठको! यह बताइए, मेरे मित्र के पुत्र मतिभ्रम की प्रतिभा अनुकरणीय और प्रशंसनीय है कि नहीं।

Saturday, December 14, 2013

हीरो आफ द सेंचुरी : नेल्सन मंडेला

अलविदा शांति दूत

अशोक मिश्र 
दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार की जगह एक लोकतांत्रिक बहुनस्लीय सरकार बनाने के लिए लंबा संघर्ष और इसके लिए 27 वर्ष तक जेल काटने वाले नेल्सन मंडेला नहीं रहे। देश के पहले अश्वेत राष्ट्रपति का पद संभालते हुए उन्होंने कई अन्य संघर्षों में भी शांति बहाल करवाने में अग्रणी भूमिका निभाई थी।

बीसवीं सदी के दो महानायक, मोहनदास करमचंद गांधी और नेल्सन रोहिल्हाला मंडेला। भारत में राष्ट्रपिता के खिताब से नवाजे गए मोहनदास करमचंद गांधी, तो दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला भी लगभग वैसी ही ख्याति और रुतबे के हकदार। गांधी और मंडेला की प्रवृत्ति और प्रकृति एक जैसी। दोनों ही अहिंसा और रक्तहीन क्रांति के पुरोधा। सामाजिक विषमता और रंगभेद की नीति के खिलाफ मुखर विरोध के हिमायती। दोनों ने बैरिस्टर के रूप में अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। दोनों को ही जोहांसबर्ग की कुख्यात फोर्ट जेल में अपने राजनीतिक आंदोलनों और रंगभेद विरोधी नीतियों के कारण सजा काटनी पड़ी। रूस के महान साहित्यकार लियो टॉलस्टाय की ‘वार एंड पीस’ कृति से सत्य और अहिंसा के सिद्धांत की प्रेरणा लेने वाले मोहनदास करमचंद गांधी कालांतर में रंगभेद और उपनिवेशवाद के विरोधी नेल्सन मंडेला के प्रेरणास्रोत बने। हालांकि यह भी सत्य है कि नेल्सन मंडेला की मोहनदास करमचंद गांधी से आजीवन भेंट नहीं हो पाई। गांधीवाद को अपना सैद्धांतिक हथियार बताने वाले दक्षिण अफ्रीका के महानायक मंडेला को अपने अहिंसक आंदोलन के लिए वर्ष 1993 में विश्व का सबसे प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार मिला, लेकिन गांधी इससे वंचित ही रहे। रंगभेद, शोषण और उत्पीड़न की शिकार दक्षिण अफ्रीकी जनता के लिए मुक्तिदाता बनकर दुनिया के सामने अपनी आभा बिखेरने वाले मंडेला अब हमारे बीच नहीं हैं। पिछले कई दिनों से वे अस्वस्थ थे और जीवन रक्षक प्रणाली पर थे।

गांधी और मंडेला में बुनियादी फर्क

दक्षिण अफ्रीका ही नहीं, पूरी दुनिया में रंगभेद और असमानता के विरुद्ध चल रहे किसी भी तरह आंदोलन के स्तंभ पुरुष कहे जा सकते हैं नेल्सन मंडेला। उपनिवेशवाद और ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीतियों के साथ-साथ रंगभेद और नस्लभेद विरोधी नीतियों के खिलाफ अहिंसा को हथियार बनाकर उठ खड़े होने वाले नेल्सन मंडेला ने गांधीवाद को ‘एज इट इज’ स्वीकार नहीं किया। गांधीवादी अहिंसा और असहयोग में कुछ मूलभूत सुधार भी किए। उनकी अहिंसक नीति गांधी की अहिंसा नीति के बजाय बुद्ध की नीति के कहीं समीप प्रतीत होती है। गांधी के प्रेरणास्रोत लियो टॉलस्टाय का मानना था कि यदि शासक हिंसा करे, तो करे, लेकिन प्रजा को हिंसा नहीं करनी चाहिए। वहीं बुद्ध की अहिंसा नीति कहती है कि यदि शासक हिंसा न करे, तो प्रजा कभी हिंसा नहीं करती।
यही वजह है कि महात्मा बुद्ध अपनी अहिंसा का प्रचार करने के लिए राजाओं के साथ-साथ प्रजा के बीच गए। उन्होंने तत्कालीन राजाओं और महाराजाओं को अहिंसक बनाने का प्रयत्न किया। हालांकि, बाद में बुद्ध की अहिंसा नीति में उनके परिवर्तियों ने कुछ ऐसे संशोधन, परिवर्तन किए कि उसका मूल स्वरूप ही कुछ और हो गया। आप अगर पूरे गांधीवादी चरित्र को समझने का प्रयास करें, तो यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जाती है। गांधीवादी अहिंसा के स्वरूप को समझने का सबसे बेहतरीन उदाहरण दक्षिण अफ्रीका में ही सन् 1897 से 1899 तक चला बोअर युद्ध है। बोअर युद्ध को समझने के लिए दक्षिण अफ्रीका की तत्कालीन परिस्थितियों को समझना बहुत जरूरी है।
यह तो सभी जानते हैं कि सत्रहवीं शताब्दी में हीरे और सोने की खानों के लालच में हॉलैंड के डच और ब्रिटेन से अंग्रेज दक्षिण अफ्रीका गए थे। उन दिनों यह मशहूर था कि अफ्रीका में सोने और हीरे की खानें बहुतायत में पाई जाती हैं। हीरों और सोने की खानों पर कब्जे की नीयत से पहुंचे डच और अंग्रेजों ने वहां पहुंचकर उपनिवेश स्थापित करने शुरू किए। उपनिवेशों के विस्तार को लेकर डचों और अंग्रेजों में युद्ध होने लगे। हालांकि, डचों ने एक समय सीमा के बाद अफ्रीकी मूल के निवासियों के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया और वहीं रहने लगे। कालांतर में इन्हीं डच मूल के अफ्रीकी निवासियों को बोअर कहा जाने लगा। अंग्रेजों के लगातार बढ़ते उपनिवेश, शोषण, दोहन और उत्पीड़न से परेशान होकर बोअर लोगों ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर गुरिल्ला युद्ध शुरू किया।
यह संघर्ष लगातार तीव्र से तीव्रतर होता गया। डचों के नेतृत्व में अफ्रीकी मूल के निवासी सन् 1887 से 1899 के बीच निर्णयाक स्थिति में पहुंचने वाले ही थे कि दक्षिण अफ्रीका की राजनीति में मोहनदास करमचंद गांधी का पदार्पण हुआ। इसके बाद डचों और वहां के मूल निवासियों के पक्ष में पैदा होती परिस्थितियां एकाएक बदल गईं। ‘एक्सपेरिमेंट विद ट्रूथ’ (सत्य के प्रयोग) में महात्मा गांधी खुद लिखते हैं, ‘जब दक्षिण अफ्रीका में बोअर युद्ध चल रहा था, तब मेरी सहानुभूति केवल बेअरों की ओर थी। पर मैं यह मानता था कि ऐसे मामलों में व्यक्तिगत विचारों के अनुसार काम करने का अधिकार मुझे अभी नहीं प्राप्त हुआ है। इस संबंध में मंथन, चिंतन का सूक्ष्म निरीक्षण मैंने ‘दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास’ में किया है, इसलिए यहां नहीं करना चाहता। जिज्ञासुओं को मेरी सलाह है कि वे उस इतिहास को पढ़ें। यहां तो इतना कहना काफी होगा कि ब्रिटिश राज के प्रति मेरी वफादारी मुझे युद्ध में सम्मिलित होने के लिए जबरदस्ती घसीट ले गई। मैंने अनुभव किया कि जब मैं ब्रिटिश प्रजाजन के नाते अधिकार मांग रहा हूं, तो उसी नाते ब्रिटिश राज की रक्षा में हाथ बंटाना भी मेरा धर्म है। उस समय मेरी यह राय थी कि   हिंदुस्तान की सम्पूर्ण उन्नति ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर रहकर हो सकती है।’ इतना ही नहीं, दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीय युवाओं से अंग्रेजी फौज में भर्ती होने का आह्वान किया और खुद एंबुलेंस कोर में शामिल हो गए। बोअर युद्ध के बाद ग्यारह सौ सदस्यों वाली एंबुलेंस कोर के 39 मुखियों को प्रसन्न होकर अंग्रेजों ने युद्ध पदक देकर सम्मानित किया। सन् 1903 में दक्षिण अफ्रीका प्रवास के विषय में गांधी ने इंडियन ओपीनियन में एक लेख लिखा। इसमें उन्होंने लिखा, ‘मैं मानता हूं कि जितना वे (दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार) अपनी जाति की शुद्धता पर विश्वास  करते हैं, उतना हम भी...हम मानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में जो गोरी जाति है, उसे ही श्रेष्ठ जाति होनी चाहिए।’ यही क्यों, जब द्वितीय विश्व महायुद्ध चल रहा था, तो भारत में भी महात्मा गांधी ने भारतीय युवाओं से अनुरोध किया कि इन दिनों अंग्रेज संकट में हैं। हमारा धर्म है कि हम संकट के समय में अंग्रेजों की मदद करें, इसलिए इस संकट की घड़ी में ज्यादा से ज्यादा भारतीय युवाओं को ब्रिटिश फौज में भर्ती हो जाना चाहिए।

बचपन से गांधी का प्रभाव

बचपन से ही रंग और नस्लभेदी नीतियों के चलते अपमान और तिरस्कार झेलने वाले नेल्सन मंडेला पर गांधी का प्रभाव तो था, लेकिन उन्होंने हिंसक आंदोलन की भूमिका और महत्ता को कभी अस्वीकार नहीं किया। विद्यार्थी जीवन में भोगे गए अपमान ने उन्हें विद्रोही बना दिया। दक्षिण अफ्रीकी श्वेतों की सरकार वहां के मूल निवासियों को बार-बार यह अहसास दिलाती थी कि उनका रंग काला है। उन्हें शासन-प्रशासन में कोई सम्मानजनक पद और हैसियत नहीं हासिल हो सकती है। कालों को तो सड़क पर सीना तानकर चलने का भी अधिकार नहीं है। यदि वे ऐसा करते पाए जाएंगे, तो उन्हें जेल में ठूंस दिया जाएगा। ऐसी स्थितियों ने नेल्सन मंडेला के दिल और दिमाग को क्रांतिकारी बना दिया। अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों और राजनीतिक विचारों के चलते काले लोगों के बीच लोकप्रियता हासिल कर रहे मंडेला को अश्वेतों के लिए बनाए गए एक विशेष कॉलेज हेल्डटाउन से निष्कासित कर दिया गया। कॉलेज परिसर में उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कॉलेज से निकाले जाने के बाद मंडेला अपने माता-पिता के पास ट्रांस्की लौट आए। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों को देखकर वैवाहिक बंधन में बांधने की तैयारी में जुटे परिवार को झटका तब लगा, जब वे एक दिन घर से भाग खड़े हुए और जोहांसबर्ग की एक सोने की खदान में चौकीदार की नौकरी करने लगे। जोहांसबर्ग की एक बस्ती अलेक्जेंडरा उनका ठिकाना बनी। जोहांसबर्ग में उनकी मुलाकात ह्यवाल्टर सिसुलूह्ण और ह्यवाल्टर एल्बरटाइनह्ण से हुई जिनका प्रभाव पूरी जिंदगी मंडेला पर बना रहा। बाद में खदान की चौकीदारी छोड़कर मंडेला ने एक कानूनी फर्म में लिपिक की नौकरी कर ली। 1944 में मंडेला ह्यअफ्रीकन नेशनल कांग्रेसह्ण में शामिल हो गए। जल्दी ही उन्होंने टाम्बो, सिसुलू और अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस यूथ लीग का निर्माण किया। 1947 में मंडेला को इस संस्था का सचिव और ट्रांसवाल एएनसी का अधिकारी नियुक्त किया गया।
इसी बीच नेल्सन मंडेला ने कानून की पढ़ाई शुरू कर दी, लेकिन व्यस्तता के कारण वे एलएलबी की परीक्षा पास नहीं कर सके। तब उन्होंने अटॉर्नी के तौर पर काम करने को पात्रता परीक्षा पास करने का फैसला किया। इसी बीच ह्यअफ्रीकन नेशनल कांग्रेसह्ण को चुनावों में करारी पराजय का सामना करना पड़ा। 1951 में नेल्सन को यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। नेल्सन ने दक्षिण अफ्रीकियों की कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए 1952 में एक कानूनी फर्म की स्थापना की। कुछ ही समय में उनकी फर्म अश्वेतों द्वारा चलाई जा रही देश की पहली फर्म हो गई। गोरी सरकार को नेल्सन की बढ़ती हुई लोकप्रियता फूटी आंख नहीं सुहा रही थी। उसने मंडेला के राजनीतिक सभाओं में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया और कई तरह के झूठे आरोप लगाकर उन्हें जोहांसबर्ग से बाहर भेज दिया गया। सरकार के दमनचक्र से बचने के लिए नेल्सन और आॅलिवर टाम्ब ने एम (मंडेला) प्लान बनाया। तय हुआ कि कांग्रेस को टुकड़ों में तोड़कर काम किया जाए। जरूरत पड़े तो भूमिगत रहकर काम किया जाए। इसी बीच अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) ने स्वतंत्रता का चार्टर क्या स्वीकार किया, गोरी सरकार का दमन चक्र शुरू हो गया। देश में गिरफ्तारियां शुरू हो गईं। एएनसी के अध्यक्ष और नेल्सन के साथ एक सौ छप्पन नेता गिरफ्तार किए गए। आंदोलन नेतृत्व विहीन हो गया। नेल्सन और उनके साथियों पर देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने और देशद्रोह का आरोप लगाया गया। इस अपराध की सजा मृत्युदण्ड थी। 1961 में नेल्सन और 29 साथी निर्दोष साबित हुए।
सरकारी दमन बढ़ने से अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस और नेल्सन का जनाधार बढ़ाता जा रहा था। लोगों के संगठन से जुड़ने पर आंदोलन दिनोंदिन मजबूत होता जा रहा था। रंगभेदी सरकार ने इसी बीच कुछ ऐसे कानून पास किए गए, जो अश्वेतों की गरिमा के खिलाफ थे। मंडेला ने इन कानूनों का विरोध करने के लिए प्रदर्शन किया। प्रदर्शन में दक्षिण अफ्रीकी पुलिस ने शार्पविले शहर में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं। 180 लोग मारे गए, 69 लोग घायल हुए। बस इसी घटना ने नेल्सन मंडेला का अहिंसा पर से विश्वास उठा दिया। उन्होंने समझ लिया कि दक्षिण अफ्रीका में रंग और नस्लभेद का खात्मा अहिंसा से नहीं हो सकता है।
बिना हथियार उठाए दक्षिण अफ्रीका के मूल निवासियों को उनका हक मिलने वाला नहीं है। रंगभेदी सरकार के अत्याचार, शोषण और दोहन सभी सीमाएं तोड़ते जा रहे थे। अपने मानवीय अधिकारों की प्राप्ति के लिए पिछले कई दशकों से संघर्षरत अश्वेतों के खून से दक्षिण अफ्रीका की धरती लाल हो रही थी। एएनसी और दूसरे प्रमुख दलों ने सशस्त्र युद्ध का फैसला किया। मुक्तिकामी दलों ने अपने-अपने जुझारू दल बनाकर गोरी सरकार के नुमाइंदों पर हमला शुरू कर दिया। हालांकि पिछले कई दशक से अहिंसक आंदोलन चला रहे नेल्सन मंडेला के सिद्धांत और प्रवृत्ति के ये हिंसक कार्रवाइयां खिलाफ थीं, लेकिन दक्षिण अफ्रीका की औपनिवेशिक और बर्बर सरकार को नेस्तनाबूत करने के लिए आवश्यक थी। एएनसी ने अपने जुझारू दल का नाम रखा, ह्यस्पीयर आॅफ दी नेशनह्ण। नेल्सन मंडेसा नए गुट के अध्यक्ष बनाए गए। दबी-कुचली, शोषित-पीड़ित दक्षिण अफ्रीकी जनता के लिए मंडेला को यह रास्ता मंजूर था। दक्षिण अफ्रीकी जनता को न्याय और सम्मान दिलाने जैसा पवित्र उद्देश्य और लक्ष्य उनके सामने था। गुप्त लड़ाका दल बनते ही जैसे रंगभेदी सरकार और क्रूर हो उठी। उसने मूल निवासियों के साथ-साथ क्रांतिकारी संगठनों को बर्बरतापूर्वक दबाना शुरू किया। दक्षिण अफ्रीका की जेलें मुक्तिकामी संगठनों के नेताओं, कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और नागरिकों से भरे जाने लगे। जिस पर भी रंगभेदी सरकार को थोड़ा-सा भी शक हुआ, वह जेल में ठूंस दिया गया, उस पर बेइंतहा जुल्म ढाए गए। दुनिया भर की लोकतांत्रिक सरकारों ने नस्लभेदी दक्षिण अफ्रीकी सरकार की आलोचना की, कई तरह के प्रतिबंध लगाए गए, खेलों में उसके खिलाड़ियों का बहिष्कार किया गया, लेकिन अफ्रीकी सरकार अपनी क्रूरता से पीछे नहीं हटी।

मंडेला के खात्मे पर ध्यान

सरकार का पूरा ध्यान नेल्सन मंडेला को गिरफ्तार कर पूरे संगठन को खत्म करने पर था। इस त्रासदी से बचने के लिए उन्हें चोरी से देश के बाहर भेजा गया, ताकि वे स्वतंत्र रहकर दक्षिण अफ्रीकी जनता का नेतृत्व कर सकें। देश से बाहर आते ही उन्होंने सबसे पहले अदीस अबाबा में अफ्रीकी नेशनलिस्ट लीडर्स कान्फ्रेंस को संबोधित किया। वहां से वे   अल्जीरिया चले गए और लड़ने की गुरिल्ला तकनीक का गहन प्रशिक्षण लिया। इसके बाद उन्होंने लंदन में ओलिवर टाम्बो को साथ लेकर विपक्षी दलों के साथ नेताओं से मुलाकात की और अपनी बात समझाने की कोशिश की। इसके बाद वे एक बार फिर दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। वहां पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। राष्ट्रद्रोह और सशस्त्र संघर्ष छेड़ने के अपराध में उन्हें पांच साल की सजा सुनाई गई। उन्हें आम जनता से दूर रखने के लिए रोबन द्वीप पर भेज दिया गया, जहां वे सत्ताइस साल तक नजरबंदी की हैसियत में रहे। अंतत: जब 1989 में नस्ल और रंगभेद विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था, तभी दक्षिण अफ्रीका में हुए चुनाव में सत्ता की बागडोर उदारवादी एफ डब्ल्यू क्लार्क के हाथों में आई। सत्ता संभालते ही क्लार्क ने देश में सुधारवादी रवैया अपनाते हुए सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने के साथ-साथ सभी राजनीतिक संगठनों से प्रतिबंध खत्म कर दिया। अश्वेतों को भी श्वेत नागरिकों के समान अधिकार दिए गए। उन्हें भी इंसान माना गया। नेल्सन मंडेला का संघर्ष रंग लाया और जब 1994 में जब दक्षिण अफ्रीका में चुनाव हुए, तो  10 मई 1994 को इतिहास रचते हुए नेल्सन मंडेला ने पहले अश्वेत राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण की।
दक्षिण अफ्रीका की वर्तमान दशा
दक्षिण अफ्रीका का राष्ट्रपति बनने के बाद नेल्सन मंडेला ने कई तरह के सुधारवादी कार्य किए। श्वेत और अश्वेत में सदियों से किया जा रहा भेदभाव ही खत्म नहीं हुआ, बल्कि गरीबी, बेकारी, भुखमरी आदि के खिलाफ भी सरकारी योजानाएं बननी शुरू हुईं। इसके बावजूद दक्षिण अफ्रीका की ही नहीं, अफ्रीकी देशों में रहने वाली करोड़ों जनता का जीवन स्तर संतोषजनक नहीं है। पिछले साल के अंतिम दिनों जर्मनी में आयोजित ‘इफेक्टिव को-आपरेशन फॉर एक ग्रीन अफ्रीका’ के पहले अधिवेशन में ओबांग मेथो की पेश की गई रिपोर्ट पर विचार करें, तो दक्षिण अफ्रीका के साथ-साथ अन्य अफ्रीकी देशों में भारत, चीन, सउदी अरब, अमेरिका आदि देशों की सरकारों और कारपोरेट कंपनियों में वहां की जमीन पर कब्जे की एक होड़ शुरू हो चुकी है। अफ्रीका के अनेक देशों की जनविरोधी सरकारें पैसे की लालच अपने ही देश की जनता के खिलाफ काम कर रही हैं। अपार प्राकृतिक संपदा से भरपूर उपजाऊ जमीनों को विकसित और विकासशील देशों को बेचती जा रही हैं। विदेशी कॉरपोरेट कंपनियों के खिलाफ जनता का प्रतिरोध बढ़ने से उन्हें दमन का सामना करना पड़ रहा है।
इथोपिया के एक अनजान जनजातीय समूह अनुवाक से आए ओबांग मेथो के मुताबिक, अफ्रीका की लूूटपाट का यह दूसरा दौर शुरू हो गया है। वे बताते हैं कि अफ्रीकी देशों के सामने आज सबसे बड़ा खतरा वहां की आबादी को अपने जमीन से वंचित होने का है। अनेक देशों में जमीन हड़पने वालों ने न तो उस जमीन पर बसने वालों को कोई मुआवजा दिया और न उनके जीने का कोई उपाय उपलब्ध कराया है। विदेशी निवेशकों ने इन देशों की भ्रष्ट सरकारों के साथ जो गुप्त समझौते किए उसकी जानकारी भी यहां के बाशिंदों को नहीं मिल सकी। 1985 में बर्लिन सम्मेलन के दौरान साम्राज्यवादी देशों ने पूरे अफ्रीका को आपस में बांट लिया था। अफ्रीका की यह पहली लूट थी। 2008 से आज तक तकरीबन 20 करोड़ 40 लाख एकड़ जमीन सारी दुनिया में लीज पर दी गई है। इसका अधिकांश हिस्सा अफ्रीकी देशों में आता है। दक्षिण अफ्रीका में आज हालात यह है कि वहां की जमीनों पर तेजी से कब्जा होता जा रहा है। स्थानीय लोगों को जबरन उनकी जमीन से हटाकर सरकार द्वारा बनायी गई बस्तियों में रखा जा रहा है।

अफ्रीका की स्वतंत्रता का इतिहास

अफ्रीका महाद्वीप के नाम के पीछे कई कहानियां एवं धारणाएं हैं। 1981 में प्रकाशित एक शोध के अनुसार अफ्रीका शब्द की उत्पत्ति बरबर भाषा के शब्द इफ्री या इफ्रान से हुई है, जिसका अर्थ गुफा होता है जो गुफा में रहने वाली जातियों के लिए प्रयोग किया जाता था। एक और धारणा के अनुसार अफ्री उन लोगों को कहा जाता था, जो उत्तरी अफ्रीका में प्राचीन नगर कार्थेज के निकट रहा करते थे। कार्थेज में प्रचलित फोनेसियन भाषा के अनुसार अफ्री शब्द का अर्थ है धूल। कालांतर में कार्थेज रोमन साम्राज्य के अधीन हो गया और लोकप्रिय रोमन प्रत्यय -का (जो किसी नगर या देश को जताने के लिए उपयोग में किया जाता है) को अफ्री के साथ जोड़ कर अफ्रीका शब्द की उत्पत्ति हुई।
अफ्रीका के इतिहास को मानव विकास का इतिहास भी कहा जा सकता है। अफ्रीका में 17 लाख 50 हजार वर्ष पहले पाए जाने वाले आदि मानव का नामकरण होमो इरेक्टस अर्थात उर्ध्व मेरूदण्डी मानव हुआ है। होमो सेपियेंस या प्रथम आधुनिक मानव का आविर्भाव लगभग 30 से 40 हजार वर्ष पहले हुआ था। लिखित इतिहास में सबसे पहले वर्णन मिस्र की सभ्यता का मिलता ह,ै जो नील नदी की घाटी में ईसा से 4000 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई। इस सभ्यता के बाद विभिन्न सभ्यताएं नील नदी की घाटी के निकट आरम्भ हुई और सभी दिशाओं में फैली। आरम्भिक काल से ही इन सभ्यताओं ने उत्तर एवं पूर्व की यूरोपीय एवं एशियाई सभ्यताओं एवं जातियों से परस्पर सम्बन्ध बनाने आरम्भ किए जिसके फलस्वरूप महाद्वीप नई संस्कृति और धर्म से अवगत हुआ। ईसा से एक शताब्दी पूर्व तक रोमन साम्राज्य ने उत्तरी अफ्रीका में अपने उपनिवेश बना लिए थे। ईसाई धर्म बाद में इसी रास्ते से होकर अफ्रीका पहुंचा। ईसा से 7 शताब्दी पश्चात इस्लाम धर्म ने अफ्रीका में व्यापक रूप से फैलना शुरू किया और नई संस्कृतियों जैसे पूर्वी अफ्रीका की स्वाहिली और उप-सहारा क्षेत्र के सोंघाई साम्राज्य को जन्म दिया। इस्लाम और ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार से दक्षिणी अफ्रीका के कुछ साम्राज्य जैसे घाना, ओयो और बेनिन अछूते रहे। उन्होंने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। इस्लाम के प्रचार के साथ ही ह्यअरब दास व्यापारह्ण की भी शुरुआत हुई जिसने यूरोपीय देशों को अफ्रीका की तरफ आकर्षित किया। अफ्रीका को एक यूरोपीय उपनिवेश बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। 19 वीं शताब्दी से शुरू हुआ यह औपनिवेशिक काल 1951 में लीबिया के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ख़त्म होने लगा और 1993 तक अधिकतर अफ्रीकी देश उपनिवेशवाद से मुक्त हो गए।

संक्षिप्त परिचय

पूरा नाम : नेल्सन रोहिल्हाला मंडेला
जन्म : 18 जुलाई, 1918 ई.
मृत्यु  : ०5 दिसंबर 2013
जन्मभूमि : मबासा नदी के किनारे मवेजों गांव, ट्रांस्की
माता-पिता : गेडला हेनरी (पिता), नेक्यूफी नोसकेनी (माता)
जीवन संगिनी : इवलिन मेस (प्रथम पत्नी), नोमजामो विनी मेडीकिजाला (द्वितीय पत्नी) तथा ग्रेस मेकल (तीसरी पत्नी)
नागरिकता : दक्षिण अफीका
प्रसिद्धि : रंगभेद विरोधी नेता के रूप में ख्याति प्राप्त
पार्टी : अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस यूथ लीग
पद : पूर्व राष्ट्रपति दक्षिण अफ्रीका
शिक्षा : मेथडिस्ट मिशनरी स्कूल, क्लाकर्बेरी मिशनरी स्कूल और हेल्डटाउन कॉलेज [स्नातक]
पुरस्कार-उपाधि : भारत रत्न (1990 ई.), नोबेल पुरस्कार
(1993 ई.)

Friday, December 13, 2013

बस..नीयत सौ टंच होनी चाहिए

-अशोक मिश्र 
चार राज्यों के चुनाव परिणाम घोषित होने वाले दिन सुबह अपने इलाके के विधानसभा उम्मीदवारों से मिलकर उनका हाल-चाल जानने और जीतने-हारने पर उनकी प्रतिक्रिया लेने को खूब लकदक कपड़े पहनकर निकलने लगा, तो घरैतिन ने टोक दिया, ‘किसी छमिया से मिलने जा रहे हैं क्या? एक दूल्हे राजा बनकर!’ घरैतिन के टोकने से कुछ परसेंट उत्साह कम तो हुआ, लेकिन मनसूबों पर पानी फिरने से बच गया। मैंने मतदाताओं की तरह इठलाते हुए कहा, ‘हां..तुम्हें कोई आपत्ति?’ घरैतिन मुस्कुराईं और बोलीं, ‘नहीं..मुझे कोई आपत्ति नहीं है। एक बात बताऊं, है बड़े मार्के की। अगर खुश हो जाएं, तो कोई गहना-गुरिया खरीद दीजिएगा, बाकी आपकी मर्जी..। ‘बाबा तुलसीदास’ जी ने एक बात बहुत पते की कही है, जस करनी तस भोगो ताता, नरक जात काहे पछताता। जैसा आप करेंगे, वैसा तो भोगना ही पड़ेगा। छमिया से मिलने जा रहे हैं, तो जाइए। अब तो रोकने की जरूरत भी नहीं है। कहीं किसी दिन छमिया का मूड बिगड़ा, तो ‘उलटे बांस बरेली को लदते’ कितनी देर लगेगी। सुनिए..अब वह जमाना लद गया, जब जीजा अपनी सालियों से रस ले-लेकर मजाक करते थे। अब तो जीजा को अपनी सालियों और सलहजों से किया गया मजाक भारी पड़ सकता है। अपने पड़ोस में रहने वाले श्रीवास्तव जी हैं न! उन्होंने अपनी पचपन साल की साली से कहीं मजाक भर कर लिया था। उस दिन उनकी साली की अपने पति से थोड़ा बहुत नोक-झोंक गई थी। बस, बना दिया तिल का ताड़। पहुंच गए श्रीवास्तव जी जेल। तीन दिन बात बड़ी मुश्किल से जमानत हुई है। वह भी बेचारी साली के रो-रोकर अपनी गलती मांगने और श्रीवास्तव जी के शरीफ होने की दुहाई देने पर। अब तो बेचारे श्रीवास्तव जी साली, सलहज जैसे शब्दों से ऐसे बिदकते हैं, मानो किसी सांड को लाल कपड़ा दिखा दिया गया हो।’
घरैतिन की बात सुनकर मुझे ताव आ गया। मुझे लगता है कि अपने कश्मीरी चचा फारुख को भी ऐसे ही किसी वजहों से ताव आया होगा और वे पता नहीं किस मनहूस घड़ी में कह बैठे, ‘अब तो हालात इतने बदतर हैं कि मैं किसी महिला को अपना सेक्रेटरी तक रखने से डरने लगा हूं।’ जिस घड़ी को मैं बड़े धैर्य से टालने की कोशिश में था, वह आ ही गई, ‘तू..बार-बार सालियों का उदाहरण देकर क्या साबित करना चाहती है..आंय? मैं लफंगा हूं, तेरी बहनों और भाभियों से नैन मटक्का करता हूं। उन्हें छेड़ता हूं, उनके साथ ऐसे-वैसे मजाक करता हूं। अरे..मैं तो घास भी नहीं डालता उनके आगे। तुम्हारी बहनें अपने आप को समझती क्या हैं? तुम्हारी बहनों के अलावा बहुत सारी लड़कियां हैं, जो मुझ पर आज भी मरती हैं। अगर मैं इस उम्र में भी बन-ठनकर निकल जाऊं, ‘उह..आह की आवाज है आती हर ओर से।..होश वालीं भी मदहोश आएं रे नजर..।’ कोई इधर इठलाती हुई कहती है, जीजा..ऐसे मत देखो। कोई उधर ठुनकती है, जीजा जी... आप कुछ बोलते क्यों नहीं? मुझसे नाराज हो? जीजा..देखो, मैं सुंदर लग रही हूं न! अजीब हालत हो जाती है मेरी। सालियों और सलहजों को निहारो, तो तुम्हारा मुंह चौखंभे मीनार की तरह बन जाता है, न देखो, तो यह सुनने को मिलता है, जीजा जी..घमंडी हो गए हैं, उन्हें पता नहीं किस बात का घमंड है, बोलते-चालते ही नहीं हैं। सच बताऊं, तुम्हारी बहनों और भाभियों ने मुझे जीजा नहीं चकरघिन्नी बना दिया है। जब से शादी हुई है, मैं नाच रहा हूं तुम तीनों के बीच।’ मेरी बात सुनते ही घरैतिन ठहाका लगाकर हंस पड़ीं, ‘आप मर्दों ने कैसी-कैसी खुशफहमियां पाल रखी हैं अपने मन में।  कोई तुम्हारी ओर सामान्य नजर से ही देख ले, तो तुम्हें लगता है कि सामने वाली तुम पर मर-मिट गई है। मेरे मायके जाते ही सबसे पहला काम मेरी बहनों और भाभियों को मस्का मारना ही होता है। शालू, तुम अच्छी लग रही हो। कामिनी..तुम्हें देखता हूं, तो मेरा दिल राजधानी एक्सप्रेस हो जाता है। अंकिता, तुम मुझे ऐसे मत देखा करो, दिल में कुछ-कुछ होने लगता है। जिन बातों और कामों को मेरे भाई देखकर बिदकते हैं, तुम मेरी भाभियों के उसी काम और बातों की प्रशंसा में ऐसे कसीदे काढ़ते हो, मानो कोई चारण-भाट अपने अन्नदाता महाराज की प्रशंसा में विरुदावलि गा रहा हो। ऐसे में वे क्या करें बेचारी। तुम्हारा मान रखने के लिए उन्हें आपकी बातों पर हंसने-मुस्कुराने का नाटक करना पड़ता है।’
घरैतिन की बात सुनते ही मुझे झटका लगा। मन ही मन सोचने लगा, ‘अच्छा..तो सुमन (मेरी सबसे छोटी साली) की वह ‘बलिहारी जाऊं’ वाली नजर सिर्फ मात्र छलावा है, धोखा है। कितनी बड़ी एक्टर हैं, मेरी ये सालियां और सलहजें? हाय..हाय..मेरे जैसा सीधा-सादा अधेड़ ‘युवक’ अपने ससुरालवालियों के कहे को सच मानकर उनके आगे-पीछे घूमता रहा।’ घरैतिन की बात सुनकर मैं मायूस हो गया, तो घरैतिन ने पुचकारते हुए कहा, ‘मेरी बहनों या भाभियों से डरने की तब तक जरूरत नहीं है, जब तक आपकी नीयत ठीक है। साली, सलहजें हैं, तो मजाक होगा ही। बस, आपकी नीयत सौ टंच होनी चाहिए। वरना..।’ मैं अपने चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछता हुआ बाहर आ गया। पिछली बार ससुराल जाने पर सालियों से की गई बातचीत बहुत देर तक कान में गूंज-गूंजकर हलाकान करती रही।

Thursday, December 5, 2013

हाय राम! दाढ़ी पर भी संकट

-अशोक मिश्र 
मैं रविवार की सुबह थोड़ा देर तक सोता हूं। मेरा ख्याल है कि हिंदुस्तान के सत्तर फीसदी मर्द ऐसा ही करते होंगे। आज भी ऐसा ही हुआ। बेगम ने चाय बनाने के बाद आवाज दी, तो मैं उसे महटिया (टाल) गया। बेगम ने बड़े प्रेम से बचे खुचे बालों में हाथ फेरते हुए जगाया और चाय के साथ अखबार थमा दिया। उनके इस असमय प्रेम प्रदर्शन पर मैं सतर्क हो गया। लगा कि मेरी कुंडली के सातवें घर में पिछले काफी दिनों से छिपकर बैठा राहु जेब कटवाने के फेर में है। जब-जब बेगम ने असमय प्रेम प्रदर्शन किया है, तब-तब उनका यह प्रेम प्रदर्शन जेब पर भारी पड़ा है। मैंने पुराने अनुभवों को देखते हुए मामले की गेंद को कवर ड्राइव की ओर खेल दिया, ‘बेगम! आज खरीदारी करने का विचार है क्या?’ मेरी बात सुनकर बेगम मुस्कुराईं और बोलीं, ‘नहीं..बस, आप जल्दी से चाय पी लीजिए और बाल कटवा आइए, बहुत बड़े-बड़े हो गए हैं।’ मैंने सतर्क आवाज में कहा, ‘बेगम! आपको मेरे इन बचे खुचे बालों से क्या दुश्मनी है? ठीक तो लग रहे हैं।’ तब तक बेगम भी अपनी चाय लेकर आ चुकी थीं। उन्होंने कहा, ‘मेरी आपके बालों से कोई दुश्मनी नहीं है। कटवाइए..या न कटवाइए। मेरी बला से। लेकिन भगवान के लिए आप आज दाढ़ी जरूर छिलवा लीजिए।’
बेगम की बात सुनकर मैं भौंचक रह गया। मैंने कहा, ‘अरे बेगम! क्या गजब करती हो। मैं दाढ़ी कैसे छिलवा सकता हूं। जानती हो, यही दाढ़ी मेरी पत्रकारिता का ट्रेडमार्क है। दाढ़ी मुंडवा लूंगा, तो लोग क्या कहेंगे? और फिर...यह दाढ़ी मुझ पर कितनी फबती है? शादी से पहले जब तुम्हें देखने आया था, तो तुमने इसी दाढ़ी की कितनी प्रशंसा की थी। याद है तुम्हें, तुम्हारी ममेरी बहन तो इसी दाढ़ी पर इतनी रीझ गई थी कि वह मुझसे शादी करने को तैयार थी। अगर तुम अड़ ना जातीं, तो तुम्हारी ममेरी बहन आज मेरी बेगम होती और तुम मेरी बड़ी साली।’ मुझे ताज्जुब हुआ कि बेगम का पारा आज इस पर भी थर्मामीटर तोड़ने पर आमादा नहीं हुआ। बेगम ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘मैं यह मान लेती हूं कि तब मैं पागल थी और आज मेरा दिमाग सही हुआ है, लेकिन आपको आज इस खिचड़ी दाढ़ी से मुक्ति पानी ही होगी। चाय पी लिया हो, तो फटाफट सैलून में जाकर इस मुई दाढ़ी से छुटकारा पाइए।’ बेगम की बात सुनकर मैं गंभीर हो गया। मैंने पूछा, ‘मेरी इस दाढ़ी को लेकर तुमने कहीं कोई खराब सपना तो नहीं देखा है। देखो! दाढ़ियां तो हमारे देश में शान मानी जाती हैं। अगर दाढ़ियों को लेकर कोई ऐसी वैसी बात होती, तो हमारे ऋषि-मुनि, साधु-संन्यासी गज-गज भर लंबी दाढ़ियां क्यों रखते। तुम कोई भी ऐसा ऋषि-मुनि या तपस्वी बता दो, जिसके दाढ़ियां न रही हों। हां, देवता इसके अपवाद रहे हैं। दाढ़ी रखने का सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि रोज-रोज दाढ़ी बनाने के झंझट से मुक्ति मिल जाती है। कुंडली की चाल को बदलने वाले राहु-केतु भी इन दाढ़ियों में उलझकर रह जाते हैं और कोई बुरा नहीं कर पाते हैं।’
बेगम ने हाथ पकड़कर मुझे उठाते हुए कहा, ‘आपकी सारी बातें सही हैं, लेकिन मैं नहीं चाहती कि अधेड़ावस्था में आप किसी ऐसे-वैसे आरोप में जेल जाएं।’ मैं चौंक गया, ‘क्या बकती हो? दाढ़ी से जेल जाने का क्या संबंध है? तुम भी न...कमाल करती हो।’ बेगम ने जिद भरे स्वर में कहा, ‘देखिए..आपके भले के लिए कह रही हूं। मान जाइए। इन दिनों जितने दाढ़ी वाले लोग हैं, वही ऐसे वैसे आरोपों में पकड़े जा रहे हैं। एक पत्रकार को ले लीजिए, संत शिरोमणि को ले लीजिए, उनके सुपुत्र को भी देख लीजिए। आजकल देश में दाढ़ियां बड़ी उत्पाती हो गई हैं। दाढ़ी चाहे छोटी हो या लंबी, इन दाढ़ियों के दुष्प्रभाव के चलते व्यक्ति दुष्कर्म के लिए प्रेरित हो रहा है। वह लड़कियों पर हमला कर रहा है, उसके साथ बुरा कार्य कर रहा है। अभी कल एक प्रसिद्ध ज्योतिषी बाबा आए थे। उन्होंने कहा था कि जो व्यक्ति दाढ़ी रखते हैं, उनकी कुंडली का मंगल और शुक्र मिलकर तृतीयेश में बैठे राहु के साथ बलात्कार योग का निर्माण करते हैं। आपकी भी कुंडली के पांचवें घर में बैठा शुक्र, नवें घर में बैठे बुध और दूसरे घर में बैठे केतु आपकी दाढ़ी के चलते पातक योग का निर्माण कर रहे हैं। इसलिए आप मेरी मानिये, झट से दाढ़ी मुंडवा लीजिए, ताकि पाप कटे।’ मैंने बेगम से पूछा, ‘यह बताओ..तुम्हारे ये ज्योतिषी महाराज कैसे थे? मतलब क्लीन शेव या दाढ़ी-मूंछ वाले?’ बेगम ने तत्परता से जवाब दिया, ‘उनके तो ये..लंबी-लंबी दाढ़ी थी।’ उन्होंने पेट के पास हाथ रखते हुए दाढ़ी की लंबाई बताने का प्रयास किया। मैंने कहा, ‘अरे बेवकूफ औरत! अगर दाढ़ी किसी को पापकर्म के लिए प्रेरित कर सकती होती, तो सबसे पहले आपके ज्योतिषी महाराज को प्रेरित करती न! उनके तो मेरे से कहीं ज्यादा लंबी दाढ़ी थी। मेरी तो अभी मात्र इंच-डेढ़ इंच लंबी दाढ़ी है। मुझे लगता है कि कोई तुम्हें बुद्धू बनाकर सौ-पचास रुपये ठग ले गया।’ मेरी बात सुनते ही बेगम अवाक रह गईं। बोली, ‘हां यार! यह तो मैंने सोचा ही नहीं था। आने दो, दोबारा उस दाढ़ीजार को, उसकी दाढ़ी न नोच ली, तो कहना।’ इतना कहकर बेगम किचन में घुस गईं।