Tuesday, June 30, 2015

रोज तमाशा जनता के आगे

अशोक मिश्र
मोहल्ले अपने जिले के अपररूप होते हैं और जिले अपने राज्य के। राज्यों में पूरे देश का बिंब उभरता है। आज दिल्ली की जो हालत है, उसे देखकर मुझे अपने बचपन का वह मोहल्ला याद आता है, जहां सभी औरतें रहती तो एक साथ हिल मिलकर। किसी के सिर में जरा सा दर्द हुआ, तो मोहल्ले की लगभग सभी औरतें सेवा में हाजिर। कोई बाम लाकर दे रहा है, लो जिज्जी..थोड़ा सा मल लो..अभी थोड़ी देर में सिरदर्द ऐसे गायब हो जाएगा, जैसे दर्द मुआ कभी रहा ही नहीं हो। कोई महकउवा (महकने वाला) तेल लिए हाजिर। रामू की अम्मा..बड़ा ठंडा तेल है, लाओ सिर की मालिश कर देती हूं, दर्द अभी छूमंतर हो जाएगा। और खबरदार..जो आज तिनका भी तोड़ा, रामदुलारी से कह दूंगी, सारा घर का काम कर देगी और खाना बनाकर सबको खिला भी देगी। अगर खुदा न खास्ता..वहां रामदुलारी अगर मौजूद हुई, तो उसकी पीठ पर दो धौल जमाती हुई उसकी मां कहती थी, कुलच्छनी कहीं की..देख नहीं रही कि चाची के घर के बरतन-भांडे जूठे पड़े हैं। चल जल्दी से बरतन साफ कर खाना बना दे। यह हाल पूरे मोहल्ले की औरतों का था। सुख-दुख में ऐसे साथ कि जैसे एक ही पेट से पैदा हुई बहनें हों।
लेकिन जिस दिन किसी भी दो औरतों की किसी भी बात को लेकर आपस में बिगड़ जाती थी, उस दिन हम बच्चों को मनोरंजन का एक साधन भी मिल जाता था। वैसे इससे हम बच्चों का सामान्य ज्ञान भी बढ़ता था, हम सब में संबंधों को लेकर एक समझ विकसित होती थी। दोनों पक्ष की औरतें एक दूसरे के वैध और अवैध संबंधों का खुलासा करती हुई सात पुश्त तक का सिजरा पेश कर देती थीं। दिल्ली में आजकल यही हो रहा है। सभी राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे का सिजरा खोलकर बैठी हैं। छोटी-छोटी बातों को बतंगड़ बनाया जा रहा है, जैसे इसी पुनीत कार्य के लिए जनता ने उन्हें चुनकर संसद और विधानसभा में भेजा है। एक पार्टी दूसरी पार्टी पर आरोप लगाती है कि तुम्हारे इतने सांसदों-विधायकों की डिग्रियां फर्जी हैं, तो दूसरी झट से आरोप लगाने वाली पार्टी का कच्चा-चिटठा पेश कर देती है। देश-प्रदेश की जनता भकुआई हुई यह तमाशा देखने को मजबूर है।

यह पुलिस है या चूं-चूं का मुरब्बा

अशोक मिश्र
उस्ताद गुनहगार और मुसद्दी लाल पड़ोसी होने के साथ-साथ दोस्त भी हैं। इनकी दोस्ती फिल्म शोले के 'जय'  और 'वीरू' वाली है। एक देश का नामी-गिरामी पाकेटमार, जिसके सौ-पचास शिष्य पूरे देश में अपनी अंगुलियों का कमाल दिखाकर अपने बाल बच्चों का पेट पाल रहे हैं। दूसरा एक थाने का मामूली सा सिपाही, जो साल के दस महीने या तो लाइनहाजिर रहता है या फिर सस्पेंड। दोनों को एक दूसरे के 'प्लस-माइनस' यानी गुण-अवगुण अच्छी तरह से पता हैं। कई बार तो अपना सस्पेंशन खत्म कराने के लिए मुसद्दी लाल ने उस्ताद गुनहगार को रंगे हाथ पकडऩे का कारनामा किया है और फिर अपनी बीवी को भेजकर उनकी जमानत भी करवाई है। शाम को मुसद्दी लाल ने गुनहगार को अपनी छत पर आने का इशारा किया, तो वे दबे पांव अपनी छत से मुसद्दीलाल की छत पर आ गए। मुसद्दी लाल ने बैठने का इशारा करते हुए कहा, 'आइए उस्ताद! मेरे पास एक बोतल सामाजिक बुराई है, हम दोनों इसको पीकर समाज से इसे खत्म करने का पुनीत कार्य करते हैं।'
आधी सामाजिक बुराई खत्म करने के बाद मुसद्दी लाल बोले, 'यार! तू मुझे भी पाकेटमारी सिखा दे। मैं भी तेरी तरह पाकेटमार बनकर सुकून की जिंदगी बिता सकूं। यह नौकरी है कि मुसीबत है। अब तो मन ऊब गया है इस पुलिसिया नौकरी से।'  गुनहगार झूमते हुए बोले, 'पॉकेटमारी कोई गाजर का हलवा है कि मुंह में रखा और घूंट गए? जानते हो, जब कोई चोर या पाकेटमार पकड़ा जाता है, तो उसका स्वागत सत्कार लोग किस तरह करते हैं? हर आता-जाता आदमी के हाथ जमाने के बाद मुंह पर ऐसे थूक कर चला जाता है, जैसे इस दुनिया का सबसे बड़ा शरीफ वही हो, भले ही उसने लाखों रुपये का गबन किया हो, अमानत में खयानत किया हो। तुम पुलिसिये भी तो गाहे-बगाहे हम लोगों की किस तरह पूजा करते हो, यह किसी से छिपा हुआ है क्या? अब साफ-साफ बताओ..हुआ क्या है? तू तो बहुत खुश रहता था अपनी पुलिस की नौकरी से।'
मुसद्दी लाल ने एक लंबा घूंट भरा और बोले, 'पहले तो सब कुछ ठीक ठाक था। चोरी-चकारी करने वालों को पकड़ता था, उनसे कुछ वसूली-फसूली कर ली, दो-चार थप्पड़ लगा दिए, बहुत गंभीर अपराध हुआ, तो कानून के अनुसार धाराएं लगा दी और अदालत में पेश कर दिया। अपना काम खत्म। भले ही हम भ्रष्ट हों, लाख बुराई हों हम पुलिस वालों में, लेकिन मन में कहीं न कहीं एक सुकून था कि हमारी भी समाज में एक उपयोगिता है। लेकिन यह भ्रम अब टूटता जा रहा है। लगता है कि हम सिर्फ काठ के उल्लू हैं।'
उस्ताद गुनहगार ने गिलास भरते हुए कहा, 'तू कुछ बताएगा भी या मामले की पूंछ यों ही खींचता रहेगा। हुआ क्या..जो तू आज दार्शनिक बना हुआ है?' मुसद्दी लाल ने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'क्या बताऊं..आज हमारी हालत यह हो गई है कि मंत्री का कच्छा खो जाए, तो हम खोजकर लाएं। उनकी बनियान हवा में उड़ जाए, तो पुलिस वाले दोषी..किसी की भैंस चोरी हो, तो पुलिस खोजे, मंत्री, सांसद, विधायक या साहब का टॉमी आवारगी के चक्कर में बंगले से बाहर चला जाए, तो वह भी पुलिस के मत्थे..बताओ भला..अब मुर्गियां कहां से ढूंढकर लाया जाए। भला बताओ..पुलिस न हो गई, चूं-चूं का मुरब्बा हो गई..जिसका जब मन हुआ मुंह में रखा और गप्प से घूंट गया।'
'हां..भाई..सचमुच..जैसे पुलिस वालों की कोई औकात ही नहीं रह गई है। अरे..इन लोगों को समझना चाहिए कि पुलिस वाले भी इंसान होते हैं। मुझे तो अब उस मुर्गी और भैंस चोर पर गुस्सा आ रहा है। इन नासपीटों ने हम चोरों-पाकेटमारों की इज्जत का फालूदा बना दिया है। कोई स्टैंडर्ड ही नहीं रह गया है चोरी-चकारी का।' इतना कहकर दोनों घूंट-घूंट पीकर अपना गम गलत करते रहे।

Monday, June 22, 2015

योगबल से ग्रहों पर जाना आसान

अशोक मिश्र
मैं राजपथ पर अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराया पाया, तो सोचा कि चलो, टीवी पर देख-देखकर ही योगाभ्यास करते हैं। एक छोटे से कमरे में रखे टीवी के सामने पूरे परिवार ने अपने-अपने आसन जमा लिए। किसी ने दरी बिछाई, तो किसी ने गद्दा। कोई चादर ही बिछाकर प्रधानसेवक जी को देख-देखकर अभ्यास करने लगा। राजपथ पर योगाभ्यास की इतिश्री होने लगी, तो मैंने चैन की सांस ली। जीवन में पहली बार योगाभ्यास करने और भयंकर गर्मी के कारण माथे पर चुहचुहा आए पसीने को पोछते हुए मैंने मुदित मन से अपने कुलदीपक जटाशंकर प्रसाद की मखमली जटाओं में हाथ फेरते हुए पूछा, 'बेटा..योग करने से क्या फायदे हैं, तुम मुझे बता सकते हो?Ó
बेटे ने मुस्कुराते हुए कहा, 'योग....योग तो बहुत ही चमत्कारी विद्या है। अगर ठीक मन और तन से योग कर लिया जाए, तो एक नया 'सृजनÓ हो जाता है। योग से तपती दुपहरिया में बारिश कराई जा सकती है, जैसे दिल्ली में हुई। अगर अतिवृष्टि की आशंका हो, तो अनावृष्टि करवाई जा सकती है। योग के प्रभाव से कैंसर को खांसी-जुकाम जैसी मामूली बीमारी में तब्दील किया जा सकता है। आप जानते हैं पापा.. एक बुजुर्ग नेता को जब साठ साल की उम्र में एक जानलेवा रोग हुआ, तो उन्होंने मन ही मन कहा, 'अबे नामुराद बीमारी..तुझे तो मैं तेरी औकात बताता हूं। तू मेरा क्या बिगाड़ेगा..मैं तेरा नाश करता हूं।Ó और उन्होंने कुछ नहीं बस योग किया..सुबह योग..शाम को योग...दोपहर में योग..कहने का मतलब है कि सोते-जागते, खाते-पीते हर समय बस योग ही योग..उन्होंने अपने पूरे जीवन को योगमय बना लिया और आज उनके लगभग एक दर्जन बच्चे इस देश की छाती पर मूंग दल रहे हैं।Ó
उसकी बात सुनकर मैंने उसे रुकने का इशारा किया, लेकिन सुपुत्र जटाशंकर तो अपनी जटाओं को खोले धारा प्रवाह बोलते जा रहे थे, 'आपने अगर इतिहास पढ़ा हो, तो आपको पता ही होगा कि प्राचीनकाल में हमारे आम नागरिक तक जब चाहते थे, तो चंद्रमा, सूर्य, बृहस्पति का चक्कर लगाकर लौट आते थे। बच्चे तक एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक मटरगश्ती करते रहते थे। आपको पता है कि पहले कुबेर और बाद में रावण के पास एक पुष्पक विमान था। वह सिर्फ और सिर्फ योग के ही बल पर चलता था। कुबेर और रावण इतने योगाभ्यासी थे कि उनके योगबल से पुष्पक विमान मन की गति से भी तेज चलता था। योगबल से बच्चे पैदा करने की टेक्नीक सिर्फ अपने देश में थी। योगी को सिर्फ अपनी या पराई स्त्री को नजर भर देखना होता था और 'अभीष्टÓ की प्राप्ति हो जाती थी। यह है योग का चमत्कार। एड्स-फेड्स, ऐंसर-कैंसर जैसी बीमारियां को दूर करना तो उन दिनों बायें हाथ का खेल था। हम लोगों ने एक बार फिर योग शुरू कर दिया है न! अब देखिएगा, इस देश में कहीं भी सूखा, अकाल नहीं पड़ेगा। जहां भी बारिश न होने की आशंका हुई, बस घंटे-दो घंटे योग कर लिया। झमाझम बारिश होने लगेगी। खेतों में बस बीज डालना होगा, गेहूं, धान, ज्वार-बाजरा, दलहन-तिलहन..सारी फसलें योग से ही बड़ी होंगी और अनाज पकने पर योगबल से दाने अपने-आप बोरियों में जमा हो जाएंगे। कहीं गर्मी अधिक पड़ी, तो योग कर लिया। सर्दियों का मौसम आया, तो योग कर लिया। कहने का मतलब है कि इस देश की सभी समस्याओं का बस एक ही समाधान है..योग..योग..योग।Ó इतना कहकर सुपुत्र ने पहले तो अपनी आंखें मटकाई और बोला, 'अब तो मैं कल से स्कूल या घर में पढऩे की बजाय योग करूंगा और योग बल से सारी परीक्षाएं पास करके दिखाऊंगा।Ó बेटे की योजना सुनते ही मेरे होश उड़ गए। मैंने कहा, 'अरे नहीं..मेरे ताऊ..इस योग से सब कुछ किया जा सकता है, लेकिन स्कूल की परीक्षा बिना पढ़े पास नहीं की जा सकती।Ó लेकिन बेटा मेरी इस बात को मानने को तैयार नहीं है। वह कहता है कि प्रधान सेवक जी ने सभी समस्याओं का हल जब योग बताया है, तो परीक्षा जैसी समस्या का हल भी योग से ही निकलेगा। बस..तभी से मेरे मन में एक ही बात सावन-भादों के बादलों की तरह उमड़-घुमड़ रही है कि सुपुत्र तो इस साल फेल होकर ही रहेगा।

Sunday, June 21, 2015

कानून के लंबे हाथ

अशोक मिश्र
आपने फिल्मों में ही नहीं, असल जीवन में भी देखा होगा कि पुलिस वाले एकदम परमहंसी भाव से अपने थाने में बैठे पगुराते रहते हैं। अपराधी चाहे जितनी भागदौड़ करे, सावधानी बरते, अपने को दुनिया का सबसे बड़ा बुद्धिमान समझे, लेकिन वह अंतत: पुलिस की गिरफ्त में आ ही जाता है। पुलिस वालों की नौकरी का एक ही मूल मंत्र होता है, अपराधी चाहे जितनी भाग-दौड़ कर ले, जितना भाग सकता है, भाग ले। कोई सुबूत नहीं छोडऩा चाहता है, न छोड़े। आखिरकार उसे आना कानून के चंगुल में ही है। क्यों....क्योंकि पुलिस के हाथ बहुत लंबे होते हैं। फिर काहे को इतना सिरदर्द मोल लिया जाए। और फिर अपराध होने से पहले पुलिस आकर क्या करेगी? किसी की हत्या करने, कहीं कोई फर्जी डिग्री जुगाडऩे या फिर अपने विरोधियों के समूल नाश की सोचे, इस देश के कानून ने, संविधान ने किसी के सोचने पर पाबंदी थोड़े ही लगाई है। मैं दिन रात सोचता हंू कि कोई ऐसा जुगाड़ करूं कि वर्तमान प्रधानमंत्री जी को हटाकर मैं प्रधानमंत्री बन जाऊं। क्या मुझे इस देश का कानून, संविधान या कोई दूसरा ऐसा सोचने से रोक सकता है? जब कुछ हुआ ही नहीं, तो पुलिस कोई एक्शन कैसे ले ले? यही वजह है कि हमारे देश की ही नहीं, पूरी दुनिया की पुलिस अपराध हो जाने के बाद ही नमूदार होती है।
पता नहीं क्यों....बचपन से ही मुझे पुलिस की काबिलियत पर पूरा भरोसा था। जब जवान हुआ, तो पुलिस और कानून से बहुत डरने लगा। जिन दिनों मेरी शादी तय हो रही थी, तो मेरे मामा ने मेरी ससुरालवालों के पूछने पर बताया कि लडक़ा बीएससी, एलएलबी है। उनके इस झूठ पर मैंने आपत्ति जताई, तो मामा ने कहा, यार तू ठंड रख..एक तो लडक़ी वालों को बड़ी मुश्किल से पटा कर लाया हूं। तू सारा गुड़ गोबर मत कर..। अगर जरूरी हुआ, तो फर्जी-शर्जी डिग्री खरीद लाऊंगा, तेरी ससुराल वालों को दिखाने के लिए। लेकिन मैं कानून और पुलिस से डरने वाला, उस समय तो मैं मामा और घरवालों के डर से चुप रह गया, लेकिन जैसे ही भांवर पड़ी मैंने सबके सामने ही उगल दिया, 'मेरे मामा और घरवालों ने आप लोगों से झूठ बोला था। मैं सिर्फ दसवीं पास हूं।Ó मेरे ससुराल वालों ने बहुत हाय-तौबा मचाई, लेकिन अब हो क्या सकता था! हिंदू रीति-रिवाजों के मुताबिक शादी हो चुकी थी। झक मारकर उन्हें अपनी बेटी की विदाई करनी पड़ी। इसका खामियाजा आज तक भुगत रहा हंू। घरैतिन पुलिस और कानून का रोब दिखाकर फर्जी डिग्री के मामले में आज तक ब्लैकमेल करती हैं।

Friday, June 19, 2015

योगमय होता देश

25 june 2015 ko daily amar ujala mein
-अशोक मिश्र
मुझे कानपुर जाने वाली ट्रेन पकडऩी थी, तो भागकर दिल्ली रेलवे स्टेशन गया। टिकट खरीदने के लिए पसीना पोछता हुआ लाइन में खड़ा हो गया। काफी देर तक जब लाइन में लगे व्यक्ति नहीं खिसके, तो मैं बेचैन होने लगा। गाड़ी छूटने में मुश्किल से आधा घंटा बचा था। मैंने आगे वाले से पूछा, ‘भाई साहब..यह लाइन खिसक क्यों नहीं रही है?’ उसने मुझे घूरते हुए कहा, ‘मुझे क्या पता..लाइन में लगा हूं, जब नंबर आएगा, तो टिकट ले लूंगा।’ मैं सिटपिटाकर रह गया। उससे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई। जब दस मिनट और गुजरने के बाद लाइन जस की तस रही, तो मेरा धैर्य जवाब देने लगा। मैंने उस आदमी से कहा, ‘मैं आपके पीछे लाइन में लगा हुआ हूं। अभी देखकर आता हूं कि क्या माजरा है?’ मैं आगे पहुंचा, तो देखा कि टिकट बांटने वाला नदारद है। फिर नजर दौड़ाई, तो पता लगा कि किसी भी टिकट खिडक़ी पर कर्मचारी नहीं हैं। मैंने सबसे आगे वाले से पूछा, ‘यह टिकट बांटने वाला कहां गया है?’
उस आदमी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘योगा करने..सरकारी आदेश आया है कि हर सरकारी आदमी घंटे-दो घंटे योगा करेगा। देश के कर्मचारियों का स्वस्थ रहना बहुत जरूरी है। जब कर्मचारी स्वस्थ रहेंगे, तो देश स्वस्थ रहेगा और जब देश स्वस्थ रहेगा, तो अच्छे दिन समझो आ गए।’ आगे वाला आदमी शायद इंतजार करते-करते दार्शनिक हो गया था। मैं प्लेटफॉर्म की ओर भागा। रास्ते में मैंने अपना बैग स्कैनर पर रखना चाहा, तो देखा कि लोगों की जेब से पर्स तक निकाल कर देख लेने वाले सुरक्षा कर्मी भी गायब हैं। थोड़ी दूर पर एक मोटा थुलथुल सुरक्षा कर्मी खड़ा दायें बायें झूम रहा था। मैं उसके पास पहुंचा और जिम्मेदार नागरिक की तरह अपना बैग खोलते हुए कहा, ‘आप मेरा बैग चेक कर लीजिए, वैसे इसमें कुछ है नहीं।’ सुरक्षा कर्मी ने झूमना बंद नहीं किया और गुर्राया, ‘अबे भाग..योग करने दे। नहीं तो सरकारी काम में बाधा डालने के अपराध में अंदर कर दंूगा।’ हांफता कांपता प्लेटफार्म पर पहुंचा, तो देखा कि प्लेटफार्म पर ही गार्ड और ड्राइवर कागज बिछाए योगा कर रहे हैं। अब मुझे विश्वास हो गया कि बस..कुछ ही दिनों में अपना देश पूरी दुनिया में ‘योगगुरु’ होने वाला है।

Monday, June 15, 2015

मानवीयता के आधार पर मदद

अशोक मिश्र
आदरणीय प्रधानमंत्री जी, नमस्कार। वैसे मेरा नाम गुनहगार है। पेश से मैं एक पाकेटमार हूं। जब से होश संभाला है, हाथों की अंगुलियों में फंसा ब्लेड और फूटी किस्मत मेरे हर संकट में साथी रहे हैं। लोग मुझे बड़े आदर और सम्मान के साथ उस्ताद गुनहगार कहते हैं। इस देश के हर गली-मोहल्ले में मेरे पट्टशिष्य अपनी रोजी-रोटी कमा-खा कर इस देश के विकास में अपनी महती भूमिका अदा कर रहे हैं। कुछ तो इतना उन्नति कर गए हैं कि वे संसद और विधानसभाओं की शोभा बढ़ा रहे हैं। अब अपने मुंह मियां मि_ु क्या बनूं, प्रधानमंत्री जी। जब से आपने छप्पन इंच वाला जुमला दिया है, तब से मैं भी अपना छप्पन इंची सीना फुलाकर यह कहने लगा हूं कि मेरे शिष्यों ने ऐसे-ऐसे कारनामों को अंजाम दिया है कि लोग-बाग दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। मेरे एक शिष्य ने तो इंगलैंड से आए अंग्रेज को बीस करोड़ में आगरे का ताजमहल तक बेच दिया था। वह तो उस बेचारे की किस्मत फूटी थी कि पैसा मिलने से पहले ही पुलिस ने उसे पाकेटमारी के एक मामले में धर लिया और उसे वह रात हवालात में गुजारनी पड़ी।
प्रधानमंत्री जी, आपको  यह पत्र लिखने की जरूरत इसलिए आ पड़ी क्योंकि आज मुझे चार राज्यों की पुलिस खोज रही है। मुझे मानवीयता के आधार पर किसी की मदद करने का यह शिला मिलेगा, मैंने ऐसा सोचा नहीं था। बात दरअसल यह है कि कुछ दिन पहले मैंने एक चोर की भागने में मदद की थी। वह पुलिस से बचकर भाग रहा था, तभी मैं उससे टकरा गया। उसने गिड़गिड़ाते हुए मुझसे कहा, 'उस्ताद! मुझे बचा लो..पुलिस मेरे पीछे पड़ी है। यदि इस बार पकड़ा गया, तो सीधे इनकाउंटर ही हो जाएगा। मेरे बीवी-बच्चे अनाथ हो जाएंगे। यदि मैं इनकाउंटर में मारा गया, तो मेरी खूबसूरत बीवी को मेरे प्रतिद्वंद्वी किसी भी हालत में नहीं छोड़ेंगे।Ó सर..मुझे उसकी करुणगाथा और दशा देखकर दया आ गई। मैंने मानवीयता के आधार पर उसकी मदद कर दी। आपको शायद नहीं मालूम होगा कि मैं दयालु बहुत हूं। मुझे किसी का रोना-धोना नहीं देखा जाता है। बस..उसके रोने-धोने और इंसानियत की दुहाई देने पर मैं फंस गया। वह तो बाद में पता चला कि वह नामुराद सिर्फ चोर ही नहीं, बहुत बड़ा ठग भी था। कई राज्यों की पुलिस उसे तलाश रही है। उसने हजारों लोगों का पैसा मार दिया था। अब आपसे क्या बताऊं! जिंदगी में अपनी इसी मानवीयता के चक्कर में कई बार फंस चुका हूं। इसके चक्कर में पिटते-पिटते बचा हूं। सर जी..आप तो जानते हैं यह देश सबको समभाव से देखने और मानने की शिक्षा देता है। साधु और डाकू के हृदय में जब परमात्मा समभाव से निवास कर सकते हैं, तो उनमें विभेद करने वाला मैं कौन होता हूं। बस, शायद यही समझना मेरी भूल बन गई। पुलिस मेरे पीछे है और मैं अपनी फूटी किस्मत लिए आगे-आगे भाग रहा हूं। सर जी..अब आप ही मुझे इस संकट से उबार सकते हैं। आपका ही-गुनहगार

Monday, June 8, 2015

पीकू से सीखो

-अशोक मिश्र
मेरे एक पड़ोसी हैं मुसद्दी लाल। जब से वे फिल्म 'पीकू' देखकर आए हैं, उनका तो जैसे तकिया कलाम हो गया है, 'पीकू से सीखो।' पीकू ऐसी है, पीकू वैसी है। पीकू ऐसे बोलती है, तो पीकू वैसे चलती है। मतलब कि हर बात में बस पीकू ही पीकू। पीकू न हुई, मानो किसी पंडित-पुजारी की सुमरिनी हो गई जिसको हर समय मुसद्दीलाल फेरते रहते हैं। वे अगर किसी से राजनीति पर बातचीत कर रहे हों, तो घूम फिर वे पीकू पर ही आ जाते हैं, 'अमा यार...अगर एक बार पीकू राजनीति में आ जाए, तो इस देश से भ्रष्टाचार का तो नामो निशान समझ मिट ही गया। उसको तो कोई घोटाला करना है नहीं। अच्छे भले मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती है, बढिय़ा कमाती है। शादी-शूदी की नहीं। बस ले-दे कर एक बाप है। तो इन बाप-बेटी को खर्चे के लिए कितना पैसा चाहिए? एक अच्छा खासा ब्वायफ्रेंड है, जो उस पर लट्टू होकर कुछ न कुछ उड़ाता ही होगा। फिर कोई घोटाला-शोटाला करने की जरूरत ही क्या है?'
मुसद्दी लाल के एक बेटा और एक ही बेटी है। प्यारी सी पत्नी है, लेकिन जैसे फिल्म देखकर आने के बाद उनके लिए ये सब बेकार। उन्होंने पानी पीने की इच्छा जताई और मानो थोड़ी देर हो गई, तो वे गुर्राते हुए बोलते हैं, 'इतनी देर हो गई..कब से प्यासा बैठा हुआ हूं। तुम लोगों को तो जैसे मेरा कोई ख्याल ही नहीं है। पीकू को देखो..अपने पिता का कितना ख्याल रखती है, बेचारी।'  उनकी इस आदत से सब परेशान..। सनक की सीमा तक उनके सिर पर छाई हुई है पीकू। अभी कल की ही बात है। मेरा बेटा मोहल्ले के पार्क में क्रिकेट खेल रहा था। उसके साथी ने बॉल को जोर से मारा, संयोग से उधर से आ रहे मुसद्दीलाल के पैरों से बॉल टकरा गई। मुसद्दीलाल का पारा सातवें आसमान पर। बेटा उनके पास पहुंचा और 'अंकल नमस्ते' कहकर बाल उठाने लगा, तो उन्होंने गुर्राते हुए कहा, 'अगर तुम्हारी यह बाल मेरे सिर पर लग जाती तो?' मेरे बेटे ने सिटपिटाकर जवाब दिया, 'लेकिन अंकल..लगी तो नहीं न!'
'मान लो, लग जाती तो? फिर तो मैं गया था बारह के भाव..तुम्हारी बाल लगने से मेरी मौत भी हो सकती थी? तुम्हारे क्रिकेट के चक्कर में मेरा तो रामनाम सत्य हो जाता।' इतना कहकर उन्होंने बेटे से पूछा, 'तुम पढऩे जाते हो? किस क्लास में पढ़ते हो?' मेरे बेटे ने शालीनता से जवाब दिया, 'हां..छठवीं में।'
'फिर तुम्हारा यह हाल है...दिन भर मटरगश्ती करते फिरते हो। शाम को आता हूं, तुम्हारे घर..करता हूं तुम्हारे बाप से शिकायत..सीखो..पीकू से सीखो..तुम्हारे जितनी थी पीकू, तो सिर्फ पढऩे के सिवाय उसे कुछ नहीं आता था। तुम लोगों की तरह दिन भर उछल-कूद नहीं मचाती थी। तभी तो मल्टी नेशनल कंपनी में काम पा गई।' मुसद्दीलाल बड़बड़ाते हुए अपने घर चले गए।
आज सुबह बैठा मैं अखबार पढ़ रहा था कि तभी हड़बड़ाते हुए मुसद्दीलाल मेरे घर में घुसे। मैंने नमस्कार किया, तो वे मेरी बांह पकड़कर बोले, 'आप जरा मेरे घर चलिए, देखिए मेरे सपूत मेरी नाक कटाने पर तुले हैं।' उनकी हड़बड़ाहट देख में भी भागकर उनके घर गया। देखा एक खूबसूरत युवती का हाथ पकड़े उनका सपूत खड़ा है। मैंने शांति से पूछा, 'बेटे..यह कौन है?'
बेटे ने बेहद गुस्से से कहा, 'यह मेरी गर्लफ्रेंड है। मैंने अब पीकू से सीख लिया है। हम दोनों अब इसी घर में रहेंगे..बिना किसी सामाजिक बंधन में। पिता जी...जब बात-बात में कहते हैं कि पीकू से सीखो..तो अंकल..आज मैंने पीकू से सीख लिया।' इसके बाद तो मुसद्दीलाल का चेहरा देखने लायक था। मैं बिना कुछ बोले घर लौट आया।