Tuesday, December 25, 2012

आ रही है 'योजना'


अशोक मिश्र
मैं लखनऊ  के प्रसिद्ध ‘सर चिरकुटानंद प्रतिभावल्लभ स्मृति पुस्तकालय’ में दैनिक समाचारपत्र ‘अधिंयारे में प्रकाश’ की पुरानी प्रतियां उलट-पलट रहा था। उसी दौरान सन् 1952 में प्रकाशित एक व्यंग्य पर मेरी निगाह गई, जिसे किसी ऐसे शख्स ने लिखा था, जिसका तखल्लुस ‘खुरपेंची’ था। दरअसल, उस पुरानी और रखे-रखे धूमिल पड़ गई प्रति में व्यंग्यकार का सिर्फ तखल्लुस ही पढ़ने में आ रहा था। वह व्यंग्य मुझे आज आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी प्रासंगिक लगा, तो आपके सामने यथावत पेश करने का दुस्साहस कर रहा हूं। कुकुरभुकवा गांव के बाहर की पगडंडी पर पूरा गांव जमा था। स्त्री-पुरुष, बच्चे, जवान और बूढ़े सबकी निगाहें सड़क से निकलकर गांव तक आने वाली पगडंडी पर लगी हुई थीं। बच्चे जहां पगडंडी के किनारे के खेतों में खेलने में मशगूल थे, तो घूंघट में छिपी औरतें झुंड बनाकर अपनी दुनिया में मस्त थीं। उस भीड़ में शामिल साठ वर्षीय भुलुई प्रसाद ने तंबाकू को चूने से रगड़ने के बाद होंठों के बीच दबाते हुए कहा, ‘देखो! वह आए, तो सबसे पहले बच्चे लपककर उसके पैर छुएंगे। उसके बाद अपनी उम्र और पद के हिसाब से गांव की बहुएं पांव छुएंगी।’ यह सुनते ही भुलुई की भौजाई ने ठिठोली की, ‘और तुम क्या करोगे, भुलुई?’ गांव की जवान भौजाइयों से रस लेकर बतियाने वाले भुलुई इस मौके पर कहां चूकने वाले थे, ‘जैसे ही वह आएगी, सब उसकी ओर निहारने लगेंगे। सबकी और भइया की निगाह बचाकर मैं तुम्हें निहारने लगूंगा। निहारने दोगी न भौजाई?’ द्विअर्थी संवाद में माहिर भुलुई ने झट से नहले पर दहला जड़ दिया। भुलुई की बात सुनकर भौजाई के दूसरे देवर ठहाका लगाकर हंस पड़े। भौजाई भी कहां चूकने वाली थीं! उन्होंने तपाक से कहा, ‘भुलुई, तुम मुझे नहीं, बचना (भुलुई के बेटे) की महतारी को निहारना। कहीं ऐसा न हो कि तुम भौजाइयों के फेर में पड़ो और बचना की महतारी को उसका कोई देवर ले उड़े। बचना की महतारी के देवर कम छबीले नहीं हैं। भौजाई तो हाथ आने वाली नहीं है, लुगाई से भी हाथ धो बैठो।’
खिसियाए भुलुई दूसरी ओर सरक गए। भुलुई की बुआ, काकी, बहन या ताई लगने वाली औरतें खिलखिलाकर हंस पड़ी। कुछ बुजुर्ग औरतों ने भुलुई की भौजाई को मीठी झिड़की भी दी। काफी देर से कुछ बोलने को कुनमुना रहे कंधई से आखिर रहा नहीं गया, ‘बप्पा! वह कैसी है? उसको आपने कभी देखा है? तिक्कर काका बता रहे थे कि अभी कमसिन उमर है उसकी?’ पिछले चार-पांच घंटे से इंतजार में बैठे-बैठे ऊब चुके गोबरधन (गोवर्धन) ने झुंझलाते हुए कहा, ‘तुम्हारी छोटकी मौसी जैसी है वह। जा भाग ससुर के नाती! नहीं तो दूंगा कान के नीचे एक कंटाप, मुंह झांवर हो जाएगा। जवाहिरा भी न जाने किस मुसीबत में फंसा दिया हम सबको। अरे! भेजना ही था, तो भेज देता। यह क्या कि पूरी दुनिया में ढिंढोरा पीट दिया।’ उस भीड़ में शामिल कुछ और लोग भी अब इंतजार करते-करते थक चुके थे, उन्होंने भी गोबरधन की बात पर ‘हां में हां’ मिलाना अपना पुनीत कर्तव्य समझा। कुछ लोग इंतजार करते-करते थक चुके थे और वे घर वापसी की सोच ही रहे थे कि तभी उन्हें दूर पगडंडी पर सुर्ख लाल कपड़ों में लिपटी एक महिला और उसके आगे-आगे एक पुरुष आता दिखाई पड़ा, तो उत्साहित होकर चिल्ला पड़े। एक बुजुर्ग ने गौर से देखते हुए कहा, ‘लगता है, जवाहिरा खुद लेकर आ रहा है।’ लोग टकटकी लगाए देखते रहे। उस जोड़े के नजदीक आते ही छबीली की माई चिल्ला पड़ी, ‘अरे यह तो खुरपेंचिया और उसकी मेहरिया है। अपनी ससुराल वह कल अपनी मेहरिया को विदा कराने गया था।’
गांव के बाहर भीड़ देखकर मैं (पाठक ध्यान दें, यह मुझे नहीं, बल्कि खुरपेंची समझकर पढ़ें) भौंचक्का रह गया। मैंने गांव के बुजुर्गों को प्रणाम करते हुए कहा, ‘अरे! आप लोग यहां...?’  गोबरधन ने झुंझलाते हुए कहा, ‘कल रेडियो पर जवाहिरा बोला था कि लोगों की गरीबी और भुखमरी मिटाने के लिए गांव-गांव योजना भेजी जा रही है। तो हम लोग सुबह से ही यहां पगडंडी पर योजना का इंतजार कर रहे हैं।’ गोवरधन काका की बात सुनते ही मेरी हंसी छूट गई। मैं पेट पकड़कर ठहाका लगाकर हंस पड़ा, ‘आप लोग भी कितने भोले हैं। अरे, ऐसी योजना को आते-आते अभी कई साल लगेंगे। और फिर योजना कोई मर्द या औरत तो है नहीं कि उसका आप लोग यहां खड़े होकर इंतजार करें। आप लोग घर जाइए, जब योजना आएगी, तो आपको पता लग जाएगा।’ तब से आज  तक उस गांव के लोगों को योजना का इंतजार है।

Sunday, December 16, 2012

समधन का अचार

अशोक मिश्र 


सुबह उठकर श्रीवास्तव जी ने अंगड़ाई ली, तो मैंने चुटकी लेते हुए कहा, ‘भाई साहब! आपकी अंगड़ाई लेने की अदा देखकर मुझे एक शेर याद आ रहा है, अगर इजाजत हो, तो पेश करूं।’ श्रीवास्तव जी ने मुझे पहले तो घूरकर देखा। उनके घूरते ही मैं सकपका गया। मुझे सकपकाते देखकर उन्होंने दरियादिली दिखाई और किसी शहंशाह की तरह बोले, ‘अब जब दिमाग में आ ही गया है, तो सुना भी डालो।’ उनकी इस दरियादिली पर मैं खुश हो गया। मैंने अर्ज किया, ‘उनसे छींके से कोई चीज उतरवाई है/काम का काम है, अंगड़ाई की अंगड़ाई है।’ मेरे इतना कहते ही वे कविवर बिहारी लाल के किसी परकीया नायक की तरह शर्मा गए और बोले, ‘मैं एक बात बताऊं। जब मैं गोरखपुर यूनिवर्सिटी में पढ़ता था, तो मैं कई लड़कियों को अपनी अंगड़ाई से बेहोश कर चुका हूं। मेरी अंगड़ाइयों के बारे में लड़कियां शेर कहा करती थीं, ‘कहां पे बर्क (बिजली) चमकती है ऐ सानिया देख!\कोई मरदूद हॉस्टल के आस-पास अंगड़ाइयां लेता है।’ और यह कहते-कहते श्रीवास्तव जी खिलखिलाकर हंस पड़े। तभी रामभूल ने किचन से निकल कर कहा, ‘सर जी! भोजन तैयार हो गया है, तैयार हो जाइए।’
रामभूल की बात सुनकर हम दोनों अपने दैनिक कार्यों में संलग्न हो गए। मेरे बाथरूम से निकलते ही श्रीवास्तव जी ने सर्दी भगाने के लिए हाथ-पैरों को इधर-उधर फेंकते हुए बाबा रामदेव जैसी मुद्रा अख्तियार की और लगे नृत्यासन करने। इस पर भी ठंड से जकड़े हाथ-पैरों में गर्मी नहीं आई, तो उन्होंने ठुमका लगाते हुए द्रुत गति के विलंबित ताल में आलाप भरा, ‘समधन तेरी घोड़ी चने के खेत में...।’ और लगे नृत्य करने। मैंने कहा, ‘भाई साहब, जरा ध्यान से हिलोरें लें, कहीं बुढ़ापे में कमर लचक गई, तो मुश्किल होगी।’ श्रीवास्तव जी ने फिर मुझे घूरा, लेकिन मैं तब तक भागकर दूसरे कमरे में चला गया था। बाथरूम से श्रीवास्तव जी के गाने की अब आवाज आ रही थी, ‘ठंडे-ठंडे पानी में नहाना चाहिए...।’पूजा-पाठ का संक्षिप्त कार्यक्रम निबटाने के बाद जब श्रीवास्तव जी खाने को बैठे, तो उन्होंने रामभूल को हुक्म दिया, ‘सुनो! वह अचार का डिब्बा उठाकर लाना। बहुत दिन हुए अचार नहीं खाया है। आज अचार खाने का मन हो रहा है।’ रामभूल ने अचार का डिब्बा उठाया, लेकिन इसे संयोग कहें या दुर्योग, वह डिब्बा हाथ से छूटा और ‘पट्ट’ की आवाज करता हुआ जमीन पर आ गिरा। गटापारचे (प्लास्टिक) के डिब्बे का ढक्कन संयोग से नहीं खुला था, इसलिए अचार जमीन पर गिरने से बच गया था। अचार के डिब्बे को जमीन पर गिरा देखकर श्रीवास्तव जी कलप उठे, ‘हाय! यह तूने क्या कर डाला। नामुराद! तेरी आंखें क्या घास चरने चली गई हैं, तेरे हाथों में जान नहीं है क्या? ठीक से नहीं पकड़ सकता था अचार का डिब्बा।
तेरे हाथ से सब्जी से भरी कड़ाही गिर जाती, तो मुझे इतना दुख नहीं होता। कमअक्ल तूने अचार का डिब्बा गिरा दिया।’ श्रीवास्तव जी की बात सुनकर मैं भी भौंचक रह गया। बात-बात पर हंसने-खिलखिलाने और अपनी विनोदप्रियता के लिए विख्यात श्रीवास्तव जी का यह रूप अप्रत्याशित था। डिब्बे के गिरने और डांट खाने से रुंआसा रामभूल चुपचाप आकर खाना खाने लगा। उससे ज्यादा खाया नहीं गया और वह थोड़ा बहुत खाकर उठ गया। थोड़ी देर बाद श्रीवास्तव जी किसी काम से घर से निकल गए, तो रामभूल ने मुझसे पूछा, ‘भाई जी! मान लीजिए, अचार का डिब्बा हाथ से छूट ही गया था, तो श्रीवास्तव जी इस मामूली बात पर इतने नाराज क्यों हो उठे थे?’ मैंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘तुम नहीं समझोगे। दरअसल, अचार का जो डिब्बा तुम्हारे हाथ से छूटकर गिरा था, वह अचार उनकी समधन ने भिजवाया था। जब यह अचार लाए थे, तो वे इस डिब्बे को मुझे भी नहीं छूने देते थे। बहुत थोड़ा-सा अचार निकालकर दो भागों में बांटकर एक अपने लिए रखकर दूसरा मुझे दे देते थे। एक दिन मैंने थोड़ा बड़ा टुकड़ा ले लिया, तो वे बिगड़ पड़े थे, ‘सारा एक ही दिन में खा जाओगे। जानते हो, इसे मेरी समधन ने कितने प्यार से बनाकर भेजा है। इसमें समाए समधन के प्यार की नमकीनियत तुम जैसा हृदयहीन व्यक्ति क्या समझ सकता है। यह तो मुझसे पूछो, जो उस चुलबुली समधन को दिन में चार बार याद करता है।’
जानते हो, दिन में कई बार किचन में जाकर अपने तौलिये या रुमाल से अचार के डिब्बे पर जमी धूल को बड़े प्यार से झाड़ते हैं। उस डिब्बे को बड़े प्यार से सहलाते हैं। एक मजेदार बात बताऊं। सवा साल पहले भूल से श्रीवास्तव जी की बेल्ट उनकी साली के पर्स में और उनकी साली का टैल्क पाउडर उनके बैग में रह गया। दिल्ली आने पर उन्हें इस बात का पता चला। तब से वे उस पॉवडर के डिब्बे को अपने बैग में छिपाकर रखते हैं और उनकी बेल्ट उनकी साली जी लगा रही हैं। यह बुढ़ापे का प्रेम ऐसा ही होता है। तुम उनकी बात का बुरा मत मानना।’ मेरी बात सुनकर रामभूल चुपचाप अपने काम में लग गया।

Thursday, December 6, 2012

कौन है ‘आम’ आदमी?

अशोक मिश्र 

कल आफिस में बैठा खबरों की कतरब्योंत कर रहा था कि संपादक जी का बुलावा आया। उनके पास पहुंचा, तो उन्होंने तालिबानी फरमान सुनाते हुए कहा, ‘केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पर एक राइटअप जा रहा है। मुझे चार ‘आम’ आदमियों की बाइट्स चाहिए। फटाफट यहां से फूटो और शाम तक अपना काम पूरा करके वैसे ही हवा पर सवार होकर वापस आओ, जैसे हनुमान जी किष्किंधा पर्वत से संजीवनी बूटी लेकर वापस आए थे। और सुनो! ये चारों आम ही होने चाहिए, खास नहीं।ह्ण संपादक जी का आदेश सिर माथे पर रखकर मैं ‘आम आदमी’ खोजने निकला। कई लोगों से पूछा, सबने बस एक ही बात कही, ‘देश की सवा सौ करोड़ आबादी में से सिर्फ पांच फीसदी खास आदमी हैं, बाकी तो सब आम ही हैं। आम आदमी तो सब जगह पाए जाते हैं।’ मैंने उस आदमी से पूछा, ‘तो क्या तुम भी आम आदमी हो?’ उसने कहा, ‘नहीं, मैं तो ‘फ्राड एंड फ्राड संस’ में सीनियर क्लर्क हूं। मैं आम आदमी कैसे हो सकता हूं?’ उस सीनियर क्लर्क से मैंने पूछा, ‘यह कमबख्त आम आदमी मुझे मिलेगा कहां? उसकी कोई पहचान तो होगी, उसका कोई रंग-रूप, कद-काठी...कुछ तो होगा यार...।’ वह सीनियर क्लर्क मेरी बात सुनकर पहले तो खूब हंसा और फिर यह कहते हुए अपनी राह चला गया, ‘भगवान का ही दूसरा रूप है आम आदमी। जिस तरह भगवान सब जगह हैं, सबमें हैं, वे घर में भी हैं, श्मशान में भी। वह हिंदू में हैं, मुसलमान में भी...ठीक उसी तरह आम आदमी है। सब जगह है, लेकिन कहीं नहीं है।’ मैंने उस आदमी को सनकी समझकर अपने कंधे उचकाए और आम आदमी की तलाश में आगे बढ़ गया।

आम आदमी को खोजते-खोजते शाम हो गई, लेकिन वह नामाकूल कहीं नहीं मिला। थकहार कर मैंने घर का रास्ता पकड़ा, रास्ते में छबीली अपने दरवाजे पर खड़ी मिल गई। मैंने उससे पूछा, ‘तुम आम आदमी हो?’ उसने अपनी चोटी को पकड़कर सीने की ओर लहराते हुए इठलाकर कहा, ‘तुममें सामान्य ज्ञान की बहुत कमी है। मैं आम या खास किसी भी तरह की आदमी नहीं हो सकती हूं। हां, मैं ‘आम महिला’ हो सकती हूं।’ मैं हड़बड़ा गया, ‘अरे...उस अर्थ में मैंने नहीं पूछा था। मेरा मतलब है कि तुम कॉमन मैन हो?’ वह इस बार भी मुस्कुराई और बोली, ‘अर्ज किया है कि मैं कॉमन वीमेन हो सकती हूं, कॉमन मैन नहीं।’ बार-बार उपहास उड़ाए जाने और कार्य में असफल रहने से खिन्न होकर मैंने कहा, ‘मुझे माफ करो, मैंने गलत दरवाजा खटखटा लिया है।’ इतना कहकर मैं जैसे ही आगे बढ़ा, छबीली ने कहा, ‘सुनिए, मैं आपकी ‘वो’ हूं, अपने बच्चों की मां हूं, लेकिन आम आदमी नहीं हूं।’ घर पहुंचा, तो काफी निराश था। मेरी दशा-दुर्दशा देखकर बीवी घबरा गई। उसने मुझसे परेशानी पूछी, तो मैंने झल्लाते हुए कहा, ‘यार! सारे देश में हल्ला हो रहा है आम आदमी का और दोपहर से ढूंढ रहा हूं इस नासपीटे ‘आम’ आदमी को। पता नहीं किस गली-कूंचे में रहता है यह मुआ।’ मेरी बीवी ने चाय का प्याला पकड़ाते हुए कहा, ‘बस..इतनी सी बात है? कल सुबह आपको एक आम आदमी से जरूर मिलवा दूंगी। निश्चिंत होकर बैठिए।’

अगले दिन सुबह जब बेटी तैयार होकर स्कूल जाने लगी, तो मेरी पत्नी ने जगाते हुए कहा, ‘एक आम आदमी आने वाला है। बाहर जाकर मिल लो।’ दरवाजे पर मेरी बेटी को स्कूल पहुंचाने वाला रिक्शाचालक खड़ा था। मैंने उससे पूछा, ‘तुम आम आदमी हो?’ मेरे पूछने पर वह घबड़ा गया, ‘ना बाबू! हम कइसे आम आदमी होय सकित है। हमार ऐसन भाग कहां? हम तौ कमरुद्दीन हूं, बच्चन (बच्चों) का इस्कूल पहुंचाइत हय। हमका आम आदमी से का लेना-देना है।’ मैंने बीवी की ओर सवालिया निगाहों से घूरा और कहा, ‘यही है तुम्हारा आम आदमी? कल से अब तक जो समझ पाया हूं, इस देश में हिंदू बसते हैं, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, सिख बसते हैं। अधिकारी-कर्मचारी, बेरोजगार-बारोजगार, अच्छे-बुरे रहते हैं, लेकिन आम आदमी कहीं नहीं पाया जाता है। खामुख्वाह, लोग आम आदमी के पीछे पड़े रहते हैं।’ दस बजे जब आफिस पहुंचा, तो संपादक जी के पास जाकर मैंने कहा, ‘सर! इस देश में आम आदमी नहीं पाया जाता। हां, अगर पाकिस्तान से घुसपैठ करके आया हो, मैं नहीं कह सकता। सीबीआई, आईबी, रॉ या आप जहां कहें, वहां आम आदमी के संबंध में आरटीआई लगा दूं। सरकार खोजकर बता देगी, यह कमबख्त आम आदमी कहां पाया जाता है।’ इतना कहकर मैं उनके चैंबर से बाहर आ गया। सुना है, मेरी बात सुनकर वे काफी देर तक अपना सिर पकड़कर बैठे रहे।