Sunday, December 16, 2012

समधन का अचार

अशोक मिश्र 


सुबह उठकर श्रीवास्तव जी ने अंगड़ाई ली, तो मैंने चुटकी लेते हुए कहा, ‘भाई साहब! आपकी अंगड़ाई लेने की अदा देखकर मुझे एक शेर याद आ रहा है, अगर इजाजत हो, तो पेश करूं।’ श्रीवास्तव जी ने मुझे पहले तो घूरकर देखा। उनके घूरते ही मैं सकपका गया। मुझे सकपकाते देखकर उन्होंने दरियादिली दिखाई और किसी शहंशाह की तरह बोले, ‘अब जब दिमाग में आ ही गया है, तो सुना भी डालो।’ उनकी इस दरियादिली पर मैं खुश हो गया। मैंने अर्ज किया, ‘उनसे छींके से कोई चीज उतरवाई है/काम का काम है, अंगड़ाई की अंगड़ाई है।’ मेरे इतना कहते ही वे कविवर बिहारी लाल के किसी परकीया नायक की तरह शर्मा गए और बोले, ‘मैं एक बात बताऊं। जब मैं गोरखपुर यूनिवर्सिटी में पढ़ता था, तो मैं कई लड़कियों को अपनी अंगड़ाई से बेहोश कर चुका हूं। मेरी अंगड़ाइयों के बारे में लड़कियां शेर कहा करती थीं, ‘कहां पे बर्क (बिजली) चमकती है ऐ सानिया देख!\कोई मरदूद हॉस्टल के आस-पास अंगड़ाइयां लेता है।’ और यह कहते-कहते श्रीवास्तव जी खिलखिलाकर हंस पड़े। तभी रामभूल ने किचन से निकल कर कहा, ‘सर जी! भोजन तैयार हो गया है, तैयार हो जाइए।’
रामभूल की बात सुनकर हम दोनों अपने दैनिक कार्यों में संलग्न हो गए। मेरे बाथरूम से निकलते ही श्रीवास्तव जी ने सर्दी भगाने के लिए हाथ-पैरों को इधर-उधर फेंकते हुए बाबा रामदेव जैसी मुद्रा अख्तियार की और लगे नृत्यासन करने। इस पर भी ठंड से जकड़े हाथ-पैरों में गर्मी नहीं आई, तो उन्होंने ठुमका लगाते हुए द्रुत गति के विलंबित ताल में आलाप भरा, ‘समधन तेरी घोड़ी चने के खेत में...।’ और लगे नृत्य करने। मैंने कहा, ‘भाई साहब, जरा ध्यान से हिलोरें लें, कहीं बुढ़ापे में कमर लचक गई, तो मुश्किल होगी।’ श्रीवास्तव जी ने फिर मुझे घूरा, लेकिन मैं तब तक भागकर दूसरे कमरे में चला गया था। बाथरूम से श्रीवास्तव जी के गाने की अब आवाज आ रही थी, ‘ठंडे-ठंडे पानी में नहाना चाहिए...।’पूजा-पाठ का संक्षिप्त कार्यक्रम निबटाने के बाद जब श्रीवास्तव जी खाने को बैठे, तो उन्होंने रामभूल को हुक्म दिया, ‘सुनो! वह अचार का डिब्बा उठाकर लाना। बहुत दिन हुए अचार नहीं खाया है। आज अचार खाने का मन हो रहा है।’ रामभूल ने अचार का डिब्बा उठाया, लेकिन इसे संयोग कहें या दुर्योग, वह डिब्बा हाथ से छूटा और ‘पट्ट’ की आवाज करता हुआ जमीन पर आ गिरा। गटापारचे (प्लास्टिक) के डिब्बे का ढक्कन संयोग से नहीं खुला था, इसलिए अचार जमीन पर गिरने से बच गया था। अचार के डिब्बे को जमीन पर गिरा देखकर श्रीवास्तव जी कलप उठे, ‘हाय! यह तूने क्या कर डाला। नामुराद! तेरी आंखें क्या घास चरने चली गई हैं, तेरे हाथों में जान नहीं है क्या? ठीक से नहीं पकड़ सकता था अचार का डिब्बा।
तेरे हाथ से सब्जी से भरी कड़ाही गिर जाती, तो मुझे इतना दुख नहीं होता। कमअक्ल तूने अचार का डिब्बा गिरा दिया।’ श्रीवास्तव जी की बात सुनकर मैं भी भौंचक रह गया। बात-बात पर हंसने-खिलखिलाने और अपनी विनोदप्रियता के लिए विख्यात श्रीवास्तव जी का यह रूप अप्रत्याशित था। डिब्बे के गिरने और डांट खाने से रुंआसा रामभूल चुपचाप आकर खाना खाने लगा। उससे ज्यादा खाया नहीं गया और वह थोड़ा बहुत खाकर उठ गया। थोड़ी देर बाद श्रीवास्तव जी किसी काम से घर से निकल गए, तो रामभूल ने मुझसे पूछा, ‘भाई जी! मान लीजिए, अचार का डिब्बा हाथ से छूट ही गया था, तो श्रीवास्तव जी इस मामूली बात पर इतने नाराज क्यों हो उठे थे?’ मैंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘तुम नहीं समझोगे। दरअसल, अचार का जो डिब्बा तुम्हारे हाथ से छूटकर गिरा था, वह अचार उनकी समधन ने भिजवाया था। जब यह अचार लाए थे, तो वे इस डिब्बे को मुझे भी नहीं छूने देते थे। बहुत थोड़ा-सा अचार निकालकर दो भागों में बांटकर एक अपने लिए रखकर दूसरा मुझे दे देते थे। एक दिन मैंने थोड़ा बड़ा टुकड़ा ले लिया, तो वे बिगड़ पड़े थे, ‘सारा एक ही दिन में खा जाओगे। जानते हो, इसे मेरी समधन ने कितने प्यार से बनाकर भेजा है। इसमें समाए समधन के प्यार की नमकीनियत तुम जैसा हृदयहीन व्यक्ति क्या समझ सकता है। यह तो मुझसे पूछो, जो उस चुलबुली समधन को दिन में चार बार याद करता है।’
जानते हो, दिन में कई बार किचन में जाकर अपने तौलिये या रुमाल से अचार के डिब्बे पर जमी धूल को बड़े प्यार से झाड़ते हैं। उस डिब्बे को बड़े प्यार से सहलाते हैं। एक मजेदार बात बताऊं। सवा साल पहले भूल से श्रीवास्तव जी की बेल्ट उनकी साली के पर्स में और उनकी साली का टैल्क पाउडर उनके बैग में रह गया। दिल्ली आने पर उन्हें इस बात का पता चला। तब से वे उस पॉवडर के डिब्बे को अपने बैग में छिपाकर रखते हैं और उनकी बेल्ट उनकी साली जी लगा रही हैं। यह बुढ़ापे का प्रेम ऐसा ही होता है। तुम उनकी बात का बुरा मत मानना।’ मेरी बात सुनकर रामभूल चुपचाप अपने काम में लग गया।

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