Tuesday, May 23, 2017

बीवी-बॉस के चक्कर में घनचक्कर पुरुष

अशोक मिश्र
स्त्री जीवन भर तीन ‘प’ यानि पिता, पति और पुत्र नामक रिश्ते से मु
क्त नहीं हो पाती। इनमें से एक न एक ‘प’ का दखल उसके जीवन में हमेशा बना ही रहा है। काल भले ही कोई रहा हो। सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग या वर्तमान कलयुग। चलिए थोड़ी देर के लिए मान लिया कि किसी स्त्री ने शादी नहीं की। शादी नहीं की, तो दो ‘प’ यानि पति और पुत्र की गुंजाइश ही नहीं रही। मान लिया कि शादी की भी और उसने किसी पुत्र को जन्म नहीं दिया। फिर भी पिता और पति रूपी ‘प’ तो मौजूद ही रहे न उसके जीवन में। अब यह मत कहिएगा कि पिता के बिना भी किसी स्त्री या पुरुष का जीवन हो सकता है। हां, कई बार ऐसा होता है कि किसी स्त्री को अपने पिता के बारे में ज्ञात न हो, लेकिन पिता का अस्तित्व ही न हो, ऐसा कहीं हो सकता है? स्त्री के पास दो ‘प’ यानी पति और पुत्र से मुक्त रहने का विकल्प हमेशा रहा है। यह भी सच है कि सौ में से निन्नान्वे स्त्रियां सज्ञान होते ही पति और पुत्र की कामना से तीरथ, व्रत में रत हो जाती हैं।
अब पुरुष की नियति देखिए। वह भी जीवन भर स्त्रियों की तरह दो ‘ब’ यानी बीवी और बॉस से मुक्त नहीं हो पाता है। स्त्रियों की तरह वह भी जवान होते ही एक ‘ब’ यानि बीवी के ख्वाब देखने लगता है। कंचे, गुल्ली-डंडा, ताश आदि खेलने की उम्र में वह बेचारा अपने वजन से दो गुना ज्यादा भारी बस्ता पीठ पर लादकर इस कामना के साथ स्कूल जाता है कि बड़े होकर एक अदद अच्छी बीवी और एक सहृदय बॉस मिलेगा। बचपन से ही उसके दिमाग में यह बात ठूंस-ठूंसकर बैठा दी जाती है कि बेटा! अगर अच्छी तरह से पढ़ाई-लिखाई नहीं की, तो जीवन में अच्छी बीवी और अच्छे बॉस को तरस जाओगे। यही समीकरण स्त्रियों पर भी लागू होता है। अच्छा पति और बॉस चाहिए, तो सारी किताबें घोंट जाओ, अच्छे नंबर लाओ। ज्ञानी बनो या भाड़ में जाओ, लेकिन मार्कशीट में नंबर कम नहीं दिखाने चाहिए।
भाग्य की विडंबना देखिए। पुरुष इन दोनों अर्थात बीवी और बॉस को प्रसन्न करने के चक्कर में जीवन भर घनचक्कर बना रहता है। पति या कर्मचारी के हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी बीवी या बॉस खुश हुए हों, ऐसा कोई उदाहरण हाल-फिलहाल में नहीं दिखाई देता है। आप किसी भी बॉस से बात करके देखिए, वह अपने अधीनस्थों के काम-काज से कभी खुश नहीं दिखाई देगा। एक अजीब सी खिन्नता उसके चेहरे पर विराजमान रहती है। कितना भी कमाइए, घर भर दीजिए, लेकिन बीवी को हमेशा लगता है कि उसका पति दुनिया का सबसे बड़ा निखट्टू है। कार्ल मार्क्स का द्वंद्वात्मकता का सिद्धांत यहां पूरी तरह लागू होता है। बीवी और बॉस का अस्तित्व तभी तक है, जब तक पति और अधीनस्थ का अस्तित्व है। यही तर्क स्त्री और पुरुष के संदर्भ में दिया जा सकता है। स्त्री को पुरुष बिना चैन नहीं और पुरुष तो स्त्री के लिए हर युग में जन्मजाती तौर बेचैन रहा है।

Tuesday, May 9, 2017

‘लालबत्ती’ ने ‘हूटर’ को दिया जन्म


अशोक मिश्र
जब देश आजाद हुआ और पहली सरकार बनी, तब सबसे विकट समस्या यह थी कि इस मुई ‘लालबत्ती’ का क्या किया जाए? ‘लालबत्ती’ का जन्म तो अंग्रेजों के समय में ही हो गया था, लेकिन तब उसके आशिक सिर्फ अंग्रेज ही हुआ करते थे। हां, भारतीय लोग बस दूर से ही ‘लालबत्ती’ के नित्य निखरते सौंदर्य को देखकर ललचाते और हाथ मलकर रह जाते। आजादी के बाद जैसे-जैसे ‘लालबत्ती’ का रूप-यौवन दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा था, उसके आशिकों की तादात भी बढ़ती जा रही थी। ‘लालबत्ती’ के आशिक कहीं गृहयुद्ध पर आमादा न हो जाएं, यही सोचकर ‘लालबत्ती’ का विवाह इस शर्त के साथ राजनीति से करा दिया गया कि जब तक सत्ता सुंदरी तुम पर मेहरबान है, तभी तक तुम इस ‘लालबत्ती’ का मनचाहा उपभोग करने के अधिकारी हो। खबरदार, तुम इसके आजीवन उपभोग की उम्मीद कतई न करना और न ही कभी ‘लालबत्ती’ उम्मीद से होने पाए।
लेकिन शायद यह नियति को मंजूर नहीं था या ‘लालबत्ती’ के किसी आशिक की करतूत कि राजनीति और ‘लालबत्ती’ के वैवाहिक जीवन के 67 साल बाद ‘लालबत्ती’ उम्मीद से हो गई। ‘लालबत्ती’ के उम्मीद से होने की खबर फैलते ही आशिकों के दिल बैठ गए। कुछ आशिक तो गश खाकर पड़े। होश आया, तो लगा छाती पीटने। सदमाग्रस्त आशिक लगे अवांट-बंवाट बकने। कुछ के मुंह से बकते-बकते झाग भी निकलने लगा। ‘लालबत्ती’ के कुछ चतुर आशिकों ने अपने थोबड़े का भूगोल सुधारा। मुंह पर ठंडे पानी का छींटा मारा, क्रीम-पॉवडर लीपने-पोतने के बाद चार बार बचे-खुचे बालों पर कंघी फेरा और टीवी चैनल्स पर चलने वाली डिबेट्स में भाग लेने आ गए, ‘अच्छा हुआ, ‘लालबत्ती’ से पीछा छूटा। 67 साल की बुढ़िया से मोहभंग होने लगा था। अब कम से कम बिना किसी मोहग्रस्तता के जनसेवा तो कर सकूंगा। ‘लालबत्ती’ के चलते में गरीब, असहाय जनता की सेवा से वंचित था। अच्छा हुआ, मुई ‘लालबत्ती’ से पिंड छूटा।’
‘लालबत्ती’ की काफी गहन जांच पड़ताल के बाद प्रधान दाई ने घोषणा की कि ‘लालबत्ती’ पूरे दिन से है, एक मई तक कुछ हो सकता है। उन्होंने यह संभावना व्यक्त की कि ‘लालबत्ती’ की गर्भकाल में यदि ठीक-ठाक देखभाल की जाए, तो यह स्वस्थ ‘ईपीआई’ कल्चर को जन्म दे सकती है। पूरा देश दिल थामकर ‘लालबत्ती’ के प्रसव का इंतजार करने लगा।
आखिर एक मई का वह बहुप्रतीक्षित दिन आ पहुंचा। पूरे देश की निगाह ‘लालबत्ती’ पर लगी हुई थी। सभी ‘ईपीआई’ का जन्मोत्सव मनाने की तैयारी में जुट गए। कुछ तो बाकायदा गोला-बारूद से लैस हो गए। समय पर ‘लालबत्ती’ के प्रसव पीड़ा शुरू हुई। उसे अस्पताल लाया गया। पूरे चौबीस घंटे की मेहनत के बाद लेबर रूम से डॉक्टर निकली और उदास स्वर में घोषणा की, ‘लालबत्ती’ ने सीजेरियन ऑपरेशन से ‘हूटर’ को जन्म दिया है।’ यह सुनते ही लालबत्ती के आशिकों के चेहरे खिल उठे। वह समझ गए कि लालबत्ती भले ही बेवफा हो गई हो, लेकिन अब हूटर का उपयोग करके भौकाल कायम रखा जा सकता है। ‘लालबत्ती’ नहीं, न सही। हूटर तो है कम से कम भौकाल टाइट रखने को।

Tuesday, May 2, 2017

गधे तो वाकई गधे होते हैं

अशोक मिश्र
गधे तो वाकई गधे होते हैं। एकदम सीधे-सादे, मेहनती और संतोषी। गधे के यही तीन गुण उसको महान बना देते हैं। सीधा इतना कि मालिक बात-बेबात दो लट्ठ लगा भी दे, तो बिलबिलाकर ‘ढेंचू-ढेंच’ कर लेगा और फिर निरपेक्ष भाव से काम में लग जाएगा या चरने लगेगा। मेहनत के बारे में तो कहना ही क्या। इंसान को उसकी औकात से थोड़ा ज्यादा काम बता दो, तो तत्काल कह बैठता है, ‘गधा समझ लिया है क्या? कि लाद दिया एक गधे भर का काम।’ कहने का भाव यह है कि गधे जितना काम कोई कर ही नहीं सकता। संतोष के मामले में इस चराचर जगत में गधे का मुकाबला कोई जीव कर ही नहीं सकता है, न एक कोशिकीय, न बहुकोशिकीय। सिधाई, मेहनत और संतोष मिलकर किसी गधे को गधा बना देते हैं, उसे गधत्व (गधापन) प्रदान करते हैं। जिस तरह संतत्व, बुद्धत्व, वीरत्व एक भाव है, एक विशेषण है, ठीक उसी तरह गधत्व भी एक खास किस्म की प्रवृत्ति का बोध कराता है। यह अमूर्त होते हुए भी प्राचीनकाल से ही इंसानों में भी मूर्तमान होता रहा है।
यह गधत्व ही है जिसकी बदौलत आप किसी भी व्यक्ति को देखते ही कह देते हैं, ‘अरे! यह तो पूरा गधा है।’ अब आप चीनियों की बुद्धिमत्ता देखिए। वे पाकिस्तान से गधे आयात करने जा रहे हैं। मानो पूरी दुनिया में पाकिस्तानी गधे और उनका गधत्व ही उच्चकोटि का है। अब चीनियों को कौन समझाए कि पाकिस्तान से गधों का आयात करके ही वे उच्चकोटि के गधत्व को प्रदर्शित कर रहे हैं। मेरे एक पाकिस्तानी मित्र हैं ‘कमरटुट्ट’। एक बार किसी बात पर खफा होकर उनकी बेगम ने उनकी कमर पर पाद प्रहार किया था, जिससे कमर में लचक आ गई। बस तभी से उनका नाम कमरटुट्ट पड़ गया। लोग उनका असली नाम ही भूल गए। टेलीपैथी (मानसिक तरंगों) से हम रोज बातचीत जरूर करते हैं। एक दिन ‘चीन द्वारा पाकिस्तानी गधों के आयात’पर बातचीत होने लगी, तो उन्होंने बड़े गर्व से बताया, ‘जानते हैं, एशिया महाद्वीप में पाकिस्तानी गधे हमेशा से ही उच्चकोटि के रहे हैं।
पाकिस्तान में चाहे लोकतांत्रिक सरकार रही हो या सेना की तानाशाही वाली, सबने गधों को संरक्षण प्रदान किया है। पूरी दुनिया में सबसे शुद्ध गधत्व पाकिस्तान का ही रहा है। हमारे यहां एक से बढ़कर एक गधे हुए हैं जिनके गधत्व की पूरी दुनिया में धूम रही है। कई बार तो अमेरिका, रूस, चीन, जापान से लेकर होनोलूलू द्वीप समूह तक के नागरिक हमारे देश के गधों का गधत्व देखकर आश्चर्यचकित रह गए हैं। यही वजह है कि चीन मुंहमांगी कीमत पर हमारे गधों का आयात कर रहा है। वैसे गुणवत्ता में पाकिस्तानी खच्चर भी किसी से कम नहीं हैं, लेकिन जितनी ख्याति पाकिस्तानी गधों की रही है, वैसी ख्याति खच्चरों को नहीं मिल पाई। या कहिए कि पाकिस्तानी खच्चरों की ब्रांडिंग ठीक से नहीं की गई। अगर ब्रांडिंग हुई होती, तो पाकिस्तानी खच्चरों का निर्यात करके पाक अमीर हो गया होता।’ अब कमरटुट्ट की बात पर मैं बोलूं भी तो क्या बोलूं? आप लोग ही बताएं।

फिर गए हवाई चप्पलों के दिन

-अशोक मिश्र
ठीक उसी तरह ‘कि पहले अंडा आया कि मुर्गी’ की तरह यह सवाल भी मौजू है कि पहले जूते आए या चप्पल। जूते का ही संशोधित रूप चप्पल है या चप्पल की ही अगली पीढ़ी का नुमाइंदा है जूता। मेरा ख्याल है कि ऊंचे-नीचे, पथरीले-रेतीले रास्तों पर चलने से होने वाली दिक्कत से बचने के लिए आदमी ने सबसे पहले जिस चीज की कल्पना की होगी, वह खड़ाऊं ही रही होगी। अब तक सबसे ज्यादा प्रसिद्ध खड़ाऊं रामचंद्र जी की ही रही है, जिसे उनके छोटे भाई भरत ने सिंहासन पर रखकर अमर कर दिया। खड़ाऊं का ही संशोधित रूप चप्पल है, इसे मानने में शायद ही किसी को आपत्ति हो। खड़ाऊं पहनकर चलने-भागने में होने वाली दिक्कतों ने चप्पल का ईजाद किया। हां, आजादी के कई दशक पहले से लेकर आजादी के बाद के दो-ढाई दशक तक पूरे देश में गटापारची (प्लास्टिक) चप्पलों का राज रहा है, लेकिन जैसे ही रबड़ की चप्पलें बाजार में आईं, गटापारची चप्पलों का पराभव हो गया। ठीक वैसे ही जैसे दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार और मनोज कुमार का स्टारडम राजेश खन्ना के आते ही क्षीण हो गया था।
हवाई चप्पल भी बहुत दिनों तक लोगों के दिलों पर राज नहीं कर सकी। किसिम-किसिम की सैंडिलों और जूते-जूतियों ने हवाई चप्पलों को उनकी औकात बता दी। जिस गटापारची या हवाई चप्पलों को पहनकर लोग शादी-विवाह, नाते-रिश्तेदारी में आते-जाते थे, उसको पहनकर घर से बाहर निकलना, हास्यास्पद हो गया। गटापारची चप्पल तो जहां बिला गए, वहीं हवाई चप्पलों का दायरा घर तक ही सीमित कर दिया गया।
कहते हैं न कि बारह साल बाद घूरे के भी दिन फिर जाते हैं। हवाई चप्पलों के भी दिन फिर गए हैं। कल तक बड़े-बड़े शापिंग मॉल्स, बड़े-बड़े शूज स्टोर्स से लेकर गांव-कस्बों में खुली ‘मटुकनाथ जूता स्टोर’ टाइप दुकानों में इतराने वाले ब्रांडेड जूते-चप्पल अपनी किस्मत को रो रहे हैं। उन्हें कोई पूछ ही नहीं रहा है। मानो हवाई चप्पलों के सामने उनकी कोई औकात ही न बची हो। हवाई चप्पल खरीदने को भीड़ उमड़ी पड़ रही है। भले ही अभी हवाई यात्रा का जुगाड़ न हो पाया हो, लेकिन निरहू प्रसाद से लेकर कल्लो भटियारिन तक हवाई चप्पल खरीद कर रख लेना चाहते हैं। क्या पता किस दिन हवाई यात्रा का कोई जुगाड़ भिड़ ही जाए। ऐन मौके पर हवाई चप्पल न मिले, तब? नासपीटा घुरहुआ उस दिन दुकान बंद रखे, तो क्या होगा? हवाई यात्रा का सपना तो ‘टांय-टांय फिस्स’ हो जाएगा। आज हवाई चप्पल पहनकर हवाई यात्रा करने की इजाजत मिली है, कल हवाई यात्रा के लिए हवाई चप्पल अनिवार्य कर दिया गया, तो? सरकार कुछ भी कर सकती है। सरकार सरकार है। उसका कोई हाथ पकड़ सकता है भला। गरीब नवाज तो कल यह भी कह सकते हैं कि चड्ढी-बनियान पहनकर भी लोग हवाई यात्रा कर सकते हैं, बस चड्ढी-बनियान फटी न हो। दुकानदार भी मौके की नजाकत देखकर हवाई चप्पल की कालाबाजारी कर रहे हैं। साठ-सत्तर रुपल्ली में बिकने वाली हवाई चप्पल आकाश कुसुम होती जा रही है। अभी कल ही एक खबर छपी थी कि जूते की दुकान का ताला तोड़कर चोर पचास जोड़ी हवाई चप्पल चुरा ले गए। ब्रांडेड और लक्जरियस जूते, सैंडिल्स चोर से हाथ जोड़कर विनती करते रहे, लेकिन चोर ने उनकी एक नहीं सुनी।