Saturday, March 25, 2017

तुम्हारी भौजाई ने घुघुरी बनाया है, आ जाना

अशोक मिश्र
जब से उन्होंने कनफुसकी की है, तब से सारा देश सन्न है! कयासों का बाजार गर्म है। अखबारी और चैनली लाल बुझक्कड़ों से लेकर गली-कूचे तक के गपोड़ियों और ठेलुओं के अपने-अपने कयास हैं, अपने-अपने विश्लेषण हैं। पत्रकारिता की खाल ओढ़कर किसी ज्योतिषी की तरह भविष्यवाणी करने वाले लाल बुझक्कड़ तभी से यह खोजने की कवायद कर रहे हैं कि आखिर मामले की पूंछ कहां है? पूंछ पारिवारिक है या राजनीतिक, बेटे की चिंता से जुड़ा है या जवानी के दिनों में की गई खुराफात के उजागर हो जाने की चिंता।
उस्ताद गुनाहगार तो बड़े दावे के साथ कह रहे हैं, ‘मूर्ख हो तुम लोग, जो इन्हें एक दूसरे का विरोधी मानते हो। अरे ये सब एक ही थाली के बैगन हैं। जब इनमें से कोई एक देश का भाग्यविधाता होता है, तो दोनों, तीनों...या यों कहें कि सभी एक दूसरे को राजनीतिक मंच पर भले ही रावण, अहिरावण या महिरावण बताते हों, लेकिन पर्दे के पीछे गलबहियां डालकर हंसते हैं, खिलखिलाते हैं, एक दूसरे के कंधे पर सिर रखकर अपनी-अपनी भूली-बिसरी प्रेमिकाओं की याद में आंसू बहाते हैं, स्याह-सफेद कारनामों का हल खोजने की जुगत भिड़ाते हैं। यह कानाफूसी किसी विपदा को टालने का अनुरोध करने के लिए की गई थी।’
मेरे पत्रकार मित्र राम लुभाया अपने किसी सूत्र के हवाले से कहते हैं कि उन्होंने कान में सिर्फ इतना कहा था, ‘गुरु! तुम्हीं अच्छे रहे, जो न इधर फंसे, न उधर। मुझे देखो, मेरी तो हालत तो ‘दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय’ वाली हो रही है। कभी ये कुर्ता पकड़कर खींचती है, तो कभी दूसरी वाली के बाल-बच्चे। भाई-पट्टीदारी के झगड़े में मेरी हालत फुटबाल जैसी हो गई है, जिसे हर कोई किक लगाना चाहता है, ताकि ‘गोल’ हो जाऊं। ‘माया’, ‘मोह’ ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा।’
लेकिन असली बात कोई नहीं जानता, सिवा मेरे। आपको राज की बात बताता हूं किसी से कहिएगा नहीं। कान में पुराने पहलवान ने नए पहलवान से सिर्फ इतना ही कहा था, ‘गुरु! फुरसत हो, तो आज शाम को घर आना। तुम्हारी भाभी ने मसालेदार घुघुरी बनाई है। ठंडी-ठंडी छाछ के साथ घुघुरी खाने का मजा ही कुछ और है।’ पहलवान ने जब पोते की शादी की थी, तो उन्होंने दूसरे अखाड़े का होते हुए नए पहलवान को शादी में शरीक होने का न्यौता भेजा था। नए पहलवान आए और राजनीतिक वैर-भाव भुलाकर बहू-पोते को आशीर्वाद के साथ-साथ गिफ्ट-शिफ्ट भी दिया था। वैसे भी लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था की राजनीति में मतभेद होते हैं, मनभेद नहीं। यह तो हम-आप जैसे बज्रमूरख होते हैं, जो इनके चक्कर में अपने पड़ोसी से मारकर लेते हैं। जिस बात को लेकर बड़े-बड़े लाल बुझक्कड़ जो कयास लगा रहे हैं, वैसी कोई बात नहीं है। बस, घुघुरी खाने का न्यौता भर है।

श्रंगार के दोहे

अधर-अधर मिलकर कभी, प्रिये हुए थे एक
प्रणय ग्रंथ के अनपढ़े, बांचे पृष्ठ अनेक।
वसुधा पर झरती रही, टप-टप, टप-टप मेह।
रहे पयोधर अनमने, अलसायी-सी देह।
प्रेम कभी मत तौलिए, मन पर पड़ती चोट।
लाख निकटता फिर बढ़े, रह जाती है खोट।
मन कस्तूरी हो गया, प्रिय का पा सानिध्य।
विकसा पंकज प्रेम का, कुछ न रहा मालिन्य।
तप्त अधर जब भी मिले, हुई चंदनी देह।
मधुकर-सा मन हो गया, द्राक्षासव-सा देह।
प्रीत पतिंगे की अमर, दीपक को सब दोष।
परस्वारथ जलता रहा, मिला यही परितोष।

Monday, March 6, 2017

बौराती प्रकृति, कुत्ते और राम लुभाया

अशोक मिश्र
फागुन में पहले प्रकृति बौराती थी। फिर आम्र मंजरियां बौराती थीं। फिर पोपले मुंह और पिलपिले शरीर वाले सत्तर-पचहत्तर साल की उम्र वाले ‘बाबा’ बौराते थे। इनके बौराते ही भौजाइयां बौरा जाती थीं। फिर तो देवर, सालियां-सलहजें, ननद-ननदोई के बौराने का एक सिलसिला ही शुरू हो जाता था। हंसी-ठिठोली के नाम पर श्लील-अश्लील का जैसे भेद ही मिट जाता था। फागुनी बयार शरीर में मादकता, कामुकता या छिछोरेपन का ऐसा संचार करती थी कि सारी मान-मर्यादाएं बिला जाती थीं। फागुनी बयार अब भी चलती है, लेकिन अब बाबा, भौजाइयां, साली-सहलजों की बजाय कुत्ते बौराते हैं, राजनीति बौराती है, नेता बौराते हैं और बौराते हैं मेरे वरिष्ठ पत्रकार साथी राम लुभाया।
वैसे राम लुभाया तो बारहों महीने बौराये रहते हैं। अभी कल की बात है। सुबह आफिस आए, तो मैंने लपकर अभिवादन किया, ‘सर जी गुड मार्निंग...।’ राम लुभाया ने अपनी पीठ पर टंगा छोटा सा बैग मेज पर पटका और घूमकर झल्लाते हुए बोले, ‘क्या है... अरे हो गया एक दिन गुड मार्निंग..अब रोज-रोज आते ही मेरे सिर पर काहे दे मारते हैं गुडमार्निंग? एक तो रात भर मोहल्ले के कुत्तों ने सोने नहीं दिया, सुबह थोड़ी देर के लिए झपकी भी आई, तो एक मरघिल्ली सी खबर छूटने की वजह से सुबह-सुबह संपादक जी हौंकते रहे। जीना हराम हो गया है मेरा।’ जैसे बरसात में किसी बच्चे के छू लेने पर केंचुआ सिकुड़ जाता है, उसी तरह राम लुभाया की बात सुनकर मैं सिमट गया। शायद राम लुभाया को अपनी गलती का एहसास हुआ। बोले, ‘यार..क्या बताऊं। इधर जब से चुनावी बयार बहने लगी है, तब से सारे मोहल्ले के कुत्ते मेरे दरवाजे पर रात दस-ग्यारह बजे के बाद इकट्ठा हो जाते हैं। दरवाजे के सामने का खुला हिस्सा चुनावी सभा में तब्दील हो जाता है। कुत्ते मुंह उठाकर मानो भाषण देने लगते हैं। कोई नाली के इस पार, तो कोई नाली के उस पार। अगर उनकी भाषा मेरी समझ में आती, तो शायद यही कहते होंगे-प्यारे कुत्ता भाइयों! हमारी पार्टी की सरकार बनी, तो विकास की हड्डियां सबको मिलेंगी। सबको कहीं भी टांग उठाकर सूसू करने की स्वतंत्रता होगी।’
राम लुभाया अब अपनी रौ में आ गए थे। बोले, ‘तब तक दूसरा मुंह उठाकर भौंकता है, झुट्ठे हैं ये विकास की बात करने वाले। ये हम कुत्तों को छोटा-बड़ा, नस्ल, रंग के नाम पर लड़ाते हैं और मौज करते हैं। हमारी सरकार में किसी के साथ भेदभाव नहीं होता है। हमारी सरकार बनी, तो सबको किसी के भी घर में घुसकर रोटी और बोटी चुराने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी।’ राम लुभाया थोड़ी देर सांस लेने के लिए रुके। फिर बोले, ‘रात में जब देखा कि इस कुत्ता सभा के चलते सोने को नहीं मिलेगा, तो मैंने उठाया डंडा। चुपके से गेट खोला और पिल पड़ा इन कुत्तों पर। खूब लठियाया। तीनों गली के कुत्तों को खूब धोया। ससुरों! मेरा दरवाजा छोड़कर कहीं और करो अपनी चुनावी सभा। आदमी अगर कुत्तों के चुनाव में वोट दे सकता, तो मैं कतई तुम कुत्तों को वोट नहीं देता।’ इतना कहकर राम लुभाया फिस्स से हंस दिए।