Saturday, March 25, 2017

श्रंगार के दोहे

अधर-अधर मिलकर कभी, प्रिये हुए थे एक
प्रणय ग्रंथ के अनपढ़े, बांचे पृष्ठ अनेक।
वसुधा पर झरती रही, टप-टप, टप-टप मेह।
रहे पयोधर अनमने, अलसायी-सी देह।
प्रेम कभी मत तौलिए, मन पर पड़ती चोट।
लाख निकटता फिर बढ़े, रह जाती है खोट।
मन कस्तूरी हो गया, प्रिय का पा सानिध्य।
विकसा पंकज प्रेम का, कुछ न रहा मालिन्य।
तप्त अधर जब भी मिले, हुई चंदनी देह।
मधुकर-सा मन हो गया, द्राक्षासव-सा देह।
प्रीत पतिंगे की अमर, दीपक को सब दोष।
परस्वारथ जलता रहा, मिला यही परितोष।

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