Monday, March 26, 2012

पगला गई है सरकार

अशोक मिश्र

गांव के बाग में कुछ ठेलुए जमा थे। चार लोग ताश (प्लेइंग कार्ड्स) खेल रहे थे, बाकी उनको घेरे हुए खेल का आनंद उठा रहे थे। उनमें से कुछ कोयले से चलने वाली रेलगाड़ी के इंजन की तरह मुंह से ‘भुक्क-भुक्क’ बीड़ी का धुआं उगल रहे थे, तो कुछ हथेली पर तंबाकू रखकर उसे रगड़ रहे थे, मानो अपने दुश्मन को मच्छर की तरह मसलने का इरादा रखते हों। मैंने ठेलुओं पर एक नजर डाली और एक से कहा, ‘का हो भगौती भाई, अमीरी का सुख उठा रहे हैं काम-धंधा छोड़कर?’ भगौती भाई ने तंबाकू रगड़ने के बाद चूने की गर्द झाड़ते हुए कहा, ‘काहे की अमीरी? ई महंगाई तो गिद्ध की तरह नोच-नोचकर खाए जा रही है और तुम कहते हो कि अमीरी का सुख उठा रहे हैं। बड़े भाई से मसखरी करते हो!’

मुझे लगा कि भगौती भाई नाराज हो गए हैं। मैंने तपाक से सफाई पेश की, ‘भइया नाराज न हो। यह मैं नहीं कहता। यह आपकी अपनी सरकार कह रही है जिसे आप ही लोगों ने बड़े अरमानों के साथ अपने अधिकारों की रक्षा के लिए चुना था। सरकारी रिपोर्ट तो यहां तक कहती है कि गांव में जो लोग साढ़े छह सौ रुपल्ली से ज्यादा महीना भर में खर्च करते हैं, वे गरीब नहीं हैं।’ मैं या भगौती भाई कुछ कहते उससे पहले बड़कऊ काका बोल पड़े, ‘सरकार पगला गई है बच्चा। साढ़े छह सौ रुपल्ली में हम किस तरह की अमीरी भोग रहे हैं, वह दिल्ली में बैठी सरकार को कैसे पता चलेगा? ई दिल्ली वाले ‘बड़का’ अर्थशास्त्री बने फिरते हैं। साढ़े छह सौ नहीं, हजार-डेढ़ हजार रुपल्ली वाला मासिक बजट बनाकर दे दें जिसमें मियां-बीवी और दो बच्चों के खाने-पीने, कपड़े-लत्ते, दवा-दारू और दो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खर्चा शामिल हो, तो मैं मान लूं कि हम सब अमीर हो गए।’ बड़कऊ काका ने यह कहते हुए अपने हाथ के पत्ते जमीन पर फेंक दिए और फिर सारे पत्ते बटोरकर लगे फेंटने। मैं चुपचाप उनको पत्ते फेंटता देखने लगा।
तभी एक युवक ने पिच्च से तंबाकू की पीक थूकते हुए कहा, ‘काका! एक बात बताऊं। मुझे तो लगता है कि पत्तेबाजी में सरकार हम सबकी बाप है। उसके पास हमेशा ट्रंप का कोई न कोई पत्ता मौजूद रहता है। जब सरकार देखती है कि वह खेल में हार रही है, तो ट्रंप कार्ड चल देती है और जनता भकुआई-सी खड़ी टुकुर-टुकुर मुंह ताकती रहती है। जनता की समझ में यह नहीं आता कि वह हंसे कि रोये। अब इसी बात को लो। यह शहर वाले भइया कहते हैं कि सरकार की नजर में अब हम सब गरीब नहीं रहे, अमीर हो गए हैं। यह तो वही बात हुई कि रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमारा। आग लगे ऐसी अमीरी को।’

उस युवक की बात सुनकर मैं भौंचक्का रह गया। मन हुआ कि उस युवक का हाथ चूम लूं। गांव के लोग भी बुद्धिमान होते हैं, यह मुझे पहली बार एहसास हुआ। इससे पहले मैं समझता कि भगवान सारी बुद्धि शहर वालों में बांटकर गांववालों से हाथ झाड़ लेता है। मैंने कहा, ‘आप लोगों को इस बात से खुश होना चाहिए। लेकिन मैं देख रहा हूं कि आप लोग हत्थे से उखड़े जा रहे हैं।’ भगौती भाई ने गंभीर स्वर में कहा, ‘भइया! तुम इस अमीरी के पीछे छिपी गरीबी का अर्थशास्त्र नहीं बूझ पा रहे हो। जानते हो, अब क्या होगा? सबसे पहले ‘लाल रंग’ वाला राशन कार्ड ‘पीले रंग’ में बदलेगा। अब तक जो दो-चार रुपये प्रति किलो मुट्ठी भर सड़ा-गला अनाज पेट भरने के लिए मिल जाता था, वह भी छिन जाएगा। बेटे-बेटियों को कोई सुविधा पहले से ही नहीं मिलती थी। उस पर दबंग पहले से ही डाका डाले हुए थे, लेकिन अब तो हमसे अपने को गरीब कहने का हक भी सरकार छीनने जा रही है।’ ‘लेकिन आप लोगों की गिनती टाटा, बिरला, मुकेश और अनिल अंबानी जैसे अमीरों में होगी, यह सुख कोई कम है क्या?’ मैंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘अब इतने बड़े सुख के लिए छोटे-मोटे सुखों को तिलांजलि तो देनी ही होगी।’ इतना कहकर मैंने अपने घर की राह पकड़ी और बाकी लोग ताश खेलने में मशगूल हो गए।

Tuesday, March 20, 2012

मतदाताओं की थोड़ी-सी बेवफाई

अशोक मिश्र

चुनाव परिणाम आ चुका था। चुनाव से पहले काफी जोर-जोर से गरजने वाले बादल बरसकर न जाने कहां बिला चुके थे। चुनावी सर्वेक्षण की धुंध छंट चुकी थी। मेरे पड़ोस में रहने वाले चुन्नीलाल चुनाव हार चुके थे। उनकी पटकनी भी उनके ही एक शिष्य ने दी थी। शाम जैसे-जैसे गहराती गई, मैं एक अजीब-सी बेचैनी महसूस करने लगा। मुझे पता नहीं क्यों लग रहा था कि एक बार चुन्नी लाल से मिलकर उन्हें सांत्वना दी जानी चाहिए। आखिर वे चुनाव परिणाम आने से पहले तक इस इलाके के माई-बाप थे। पीडब्ल्यूÞडी विभाग, नहर विभाग जैसे तमाम विभागों के बड़े-बड़े अधिकारी उनके ही इशारे पर उठते-बैठते थे। आज वे भूतपूर्व विधायक हो गए हैं, तो क्या उनके कार्यों को भुलाया जा सकता है। पिछले पांच साल में जितने भी विकास हुए, उनकी मर्जी से। अगर विकास नहीं हुए, तो इसमें भी उनकी ही मेहरबानी रही। सो, मैं उन्हें सांत्वना देने पहुंच गया उनके ‘डेरे’ पर। घर पर वे आज वैसे भी नहीं मिलते, जीतते तो भी, नहीं जीते तो भी। अब आप उलझन में पड़ गए होंगे कि यह डेरा और घर का क्या चक्कर है। तो मैं आपको समझाता हूं।

पुश्तैनी जमीन पर ईंट और गारों से बने चार-पांच कमरों को वे घर कहते हैं। यहां उनके बीवी, बच्चे रहते हैं। नाते-रिश्तेदार आते हैं, ठूंस-ठूंसकर खाते हैं और फिर कुछ दिन रहकर चले जाते हैं। उन्होंने निजी कार्यों के लिए घर से थोड़ी दूर एक कोठी किराए पर ले रखी है जिसे वे डेरा कहते हैं। यहां उनके चमचे रहते हैं, चेलियां रहती हैं। विधायक जी को जब एहसास होता है कि इस असार संसार में सब कुछ मिथ्या है। यह दुनिया क्षणभंगुर है, न कुछ साथ लेकर आए थे, न कुछ साथ लेकर जाना है। तो वे बेचैन हो उठते हैं। तब वे डेरे की ओर भागते। उन्हें डेरे पर चेलियों-चमचों के बीच ही शांति मिलती है। जब मैं चुन्नी लाल के डेरे पर पहुंचा, वे कुछ चमचों और चेलियों से घिरे बैठे अपना गम गलत (भुला) कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा, ‘विधायक जी! दोपहर तक तो लग रहा था कि आप पटखनी दे रहे हैं, लेकिन शाम को आप पटखनी खा गए। ऐसे कैसे हो गया?’

विधायक जी (अब भूतपूर्व) रुआंसे स्वर में बोले, ‘बेवफाई ले डूबी।’ मैंने तपाक से पूछा, ‘किसकी? आपकी या आपके चेले-चेलियों की?’ मेरा सवाल सुनते ही चुन्नी लाल जी का चेहरा तमतमा उठा, ‘मतदाताओं की। बड़ी वफा से निभाई हमने मतदाताओं की थोड़ी-सी बेवफार्ई। लेकिन इस बार मतदाताओं ने पूड़ी-सब्जी मेरी खाई, दारू मेरे पैसे की पी, पोलिंग बूथ तक मेरी गाड़ियों में गए, लेकिन बटन विरोधियों की दबा आए। हालांकि ऐसा करने के लिए चुनाव आयोग को किस तरह गच्चा दिया, यह मैं ही जानता हूं। मुझे हर मोहल्ले में अपने कार्यकर्ताओं की शादियां करवानी पड़ीं, ताकि भुक्खड़ मतदाता खा-पीकर एहसान स्वरूप मुझे वोट दें। आपने पिछले हफ्ते अपने पड़ोसी गॉटर के बेटे धुन्ना प्रसाद की शादी में जो ‘मटन-चिकन’ सूत था, उसमें मेरा ही पैसा लगा था।’ आया तो मैं चुन्नी लाल जी के जख्मों पर सांत्वना की मलहम लगाने, लेकिन उनकी बातों से पता नहीं क्यों लगा कि वे मतदाताओं के बहाने मुझ पर तंज कस रहे हैं। मैंने तल्ख स्वर में कहा, ‘चुन्नी लाल जी! पहले बेवफाई किसने की? आपने या मतदाताओं ने? पिछली बार मतदाताओं ने आपको इसीलिए न जितवाया था कि आप विकास करेंगे। सड़कें बनवाएंगे, बिजली-पानी की व्यवस्था करेंगे। बच्चों के लिए स्कूल-कालेज खुलवाएंगे, लेकिन आपने कुछ भी नहीं किया। विकास के नाम पर आया सारा पैसा ठेकेदारों, दलालों और अधिकारियों से मिलकर आप हड़प गए। हां, अगर कुछ खुलवाए भी, तो दारू के ठेके, शॉपिंग माल्स। बड़ी-बड़ी कंपनियों के हित में किसानों की जमीन सस्ते में बिकवाकर आपने खूब कमाई की। आपने पांच साल जनता को ठेंगा दिखाया। जब उसकी बारी आई, तो उसने ठेंगा दिखा दिया। बस, हो गया हिसाब-किताब बराबर।’ इतना कहकर मैं उठा और अपने घर चला आया। चुन्नी लाल जी एक खूबसूरत चेली के पहलू में शांति तलाशने लगे।

Tuesday, March 13, 2012

सर जी! बागी ‘पान सिंह तोमर’ बनना चाहता हूं

-अशोक मिश्र
संपादक जी, पिछले दिनों गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा था कि उन्होंने राजनीति में आकर गलती की है। अगर वे टेनिस खिलाड़ी ही रहते, तो शायद ज्यादा सफल होते। चिदंबरम की ही तरह मुझे लगता है कि पत्रकारिता में आकर मैंने भी गलती की है। इससे अच्छा था कि मैं डाकू ‘पान सिंह तोमर’ बन गया होता। पत्रकारिता लोगों को कितना भरमाती है, लुभाती है, इसे आप बेहतर समझते हैं। एक अनियतकालीन पत्रिका ‘सास-बहू के झगड़े’ से कैरियर शुरू करते समय मैंने सोचा था कि मंत्री, विधायकों और अधिकारियों पर ही नहीं, आम जनता पर भी अपना ‘भौकाल’ टाइट रहेगा। जिधर से निकलूंगा, लोग स्वागत करेंगे, पलकों पर बिठाएंगे, लेकिन अफसोस ऐसा कुछ भी नहीं हुअ। सर जी! जिन दिनों गृहमंत्री के सपने के बिखर रहे थे, वे मीडिया के सामने जार-जार रो रहे थे, उसी समय मेरे भीतर भी कुछ टूट रहा था, बिखर रहा था। सोचा था कि रिपोर्टिंग के दौरान विभिन्न पार्टियों के पक्ष में खबर लिखकर मोटा नांवा (रकम) पीटूंगा। उन्हीं कार्यक्रमों को अटैंड करूंगा, जहां से कीमती ‘डग्गा’ मिलने का जुगाड़ होगा, लेकिन पत्रकारिता की नैतिकता और जनपक्षधरता के हितैषी होने के कारण न आपने कभी खुद खाया, न मुझे खाने दिया।

इससे निराश होकर मैंने बागी ‘पान सिंह तोमर’ बनने का फैसला किया है। आप कभी नहीं चाहेंगे कि मैं बागी ‘पान सिंह तोमर’ बनूं, लेकिन मैं पान सिंह तोमर बनकर रहूंगा। सर जी! आपको एक बात बताऊं। मैं बचपन से ही जिद्दी रहा हूं। जब मैं नौ-दस साल का था, तो पता नहीं कैसे, मुझ पर राष्ट्रपिता बनने की सनक सवार हो गई थी। मैंने तो बचपन में गांधी जी की तरह झुककर चलने की आदत भी डाल ली थी। इसके चलते कई बार पीठ में भयानक पीड़ा भी झेली थी। जब मैं किशोरावस्था में पहुंचा, तो पाया कि लोगों में गांधी जी के प्रति पुरानी वाली श्रद्धा नहीं रही। युवाओं का रोल मॉडल गांधी नहीं, गोडसे हो गया है। कुछ दल तो बाकायदा उसे राष्ट्रनायक बनाने पर तुले हुए थे। बस फिर क्या था! मेरा मन गांधी से हटकर गोडसे की ओर झुकने लगा। लेकिन अफसोस, मैं गोडसे बन पाता, उससे पहले ही आपके एक लेख ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैं पत्रकार बनने की ठानकर पत्रकारिता के कुरुक्षेत्र में कूद पड़ा। खुदा के फजल से पत्रकार भी बन गया, लेकिन अब मैं पत्रकार नहीं, बागी पान सिंह बनना चाहता हूं।

सर जी! ‘पान सिंह तोमर’ तो मैं उसी दिन बन जाता, जिस दिन आपने ‘जानेमन, जाने जिगर, जाने बहार छबीली’ से मिलने जाने के लिए मांगने पर एक दिन का अवकाश नहीं दिया था। ‘पान सिंह तोमर’ तो मैं तब भी बनना चाहता था, जब एक विदेशी कंपनी के प्रेस कान्फ्रेंस को आपके मना करने के बावजूद ‘डग्गे’ की लालच में कवर करने पहुंच गया था। इसके लिए आपकी डांट भी खाई थी। ‘पान सिंह तोमर’ तो उसी दिन बन जाता जिस दिन छबीली से नैन मटक्का करते देख घरैतिन ने मेरी ऐसी धुलाई की थी कि मैं तीन-चार दिन तक उठने-बैठने को तरसता रहा। सर जी, मैं बागी पान सिंह तोमर बनने को चंबल की ओर जा रहा हूं। वहां जाकर पहले एक गिरोह बनाऊंगा, जमींदारों और पंूजीपतियों को लूटूंगा। मैं आपसे वायदा करता हूं, लूटी गई रकम का दस प्रतिशत आपको ईमानदारी के साथ देता रहूंगा। जिस दिन मुझे लगा कि आप भी पूंजीपति हो गए हैं, तो उस दिन आपको भी लूट लूंगा और बाद में दस फीसदी रकम आपको वापस भी कर दूंगा। मैं बागी पान सिंह तोमर बन सकूं, इसके लिए मुझे तीन महीने के अवैतनिक अवकाश की जरूरत है। तीन महीने के भीतर अगर मैं सच्चा बागी बन सका, तो कोई बात नहीं। अगर मैं अपने मकसद में नाकामयाब रहा, तो तीन महीने बाद आकर दोबारा नौकरी ज्वाइन कर लूंगा। आशा है कि आप तीन महीने का अवकाश स्वीकृत कर मुझे अनुग्रहीत करेंगे। आपका ही- खुरपेंचानंद।

Sunday, March 11, 2012

होली, हुड़दंग और सेक्सी छबीली

-अशोक मिश्र

बचपन में होली का सबसे ज्यादा बेसब्री से इंतजार मोहल्ले में मैं करता था। होली का दिन बीता नहीं कि मैं गिनना शुरू कर देता था, अब होली आने में 364 दिन बचे, अब 363 दिन और अब 362.....। इस तरह गिनते-गिनते होली फिर आ जाती थी। होली से एक हफ्ते पहले मैं विभिन्न रंगों और सेल (बैटरी) को तोड़कर निकाली गई कालिख को मिलाकर नया रंग तैयार करने में जुट जाता था। यह आदत आज है। अब इस काम में मेरा बेटा ी हाथ बंटाता है। मोहल्ले की जो औरतें साल र मेरी घरैतिन के सामने मेरी शिकायतों का पुलिंदा खोलकर मुझे पिटवाती रहती हैं, उनसे बदला चुकाने का सबसे उपयुक्त अवसर होली होती है। मेरे घर महफिल जमाने वाली औरतें साड़ी, गहने की लफ्फाजी करने के बाद जाते-जाते यह कहना नहीं ूलती हैं, ‘कल गॉटर के पापा फलां बाजार या चौराहे पर मिले थे। बड़ी देर तक वे मुझे ऐसे घूरते रहे कि हाय! अब तुम्हें क्या बताऊं, मुझे तो शर्म आती है।मैं ऐसी औरतों की बाकायदा लिस्ट तैयार रखता हूं, ताकि होली के दिन उन औरतों से गिन-गिनकर बदले लूं।

होली की सुबह मैंने सबसे पहले छबीली से निपटने की सोची। चाय नाश्ता करने के बाद मैंने बमभोलेका प्रसाद खाया, अपने चेहरे पर खूब तबीयत से कालिख पोती, ताकि कोई दूसरा चेहरे पर कालिख लगाने का श्रेय न हासिल कर सके। इस मामले में मेरा फंडा यह है कि कोई आपकी चाल, चरित्र और चेहरे पर कालिख पोते, इससे पहले आप खुद को ही इतना कलुषित कर लें कि दूसरा बाजी न मार सके। मैं पूरी तैयारी के साथ छबीली की तलाश में निकल पड़ा। छबीली को देखते ही मेरे चेहरे पर रौनक आ गई। मैंने उसको पल र निहारा। वह रंग, अबीर, गुलाल और कालिख का कोलाज पूरे शरीर पर रचे मोहल्ले के शोहदे हुरिहारों के साथ किसी नायिका सी इठला रही थी। जब हुरिहारों के दल में से कोई रंग लगाने के बहाने यहां-वहां हाथ फेरने लगता, तो छबीली मचल उठती थी। ंग की तरंग मैंने लपककर छबीली का हाथ पकड़Þते हुए कहा, ‘हाय सेक्सी! अब मैं तुम्हारे साथ ऐसी होली खेलूंगा कि तुम पूरे साल याद रखोगी।

सेक्सी? होश में तो हैं आप?’ छबीली बरस पड़ी, ‘मुंह झौसे! कुछ उम्र का ख्याल है कि नहीं! आप होली खेलने निकले हैं,मेरे मुंह पर थोड़ा-बहुत रंग लगाइए और अपना रास्ता नापिए। मुझे अी अपने ब्वायफ्रेंड के पास होली खेलने जाना है। आज के दिन थोड़ी-बहुत हंसी-ठिठोली चलती है, इसलिए मुझे गुस्सा नहीं आ रहा है, वरना सेक्सीकहने पर तुम्हारी जो गति-दुर्गति करती, वह सारी दुनिया देखती।

छबीली की बात सुनकर मुझे गुस्सा आ गया, ‘तू सेक्सी कहने पर इतना ाव क्यों खा रही है। तू सेक्सी थी, सेक्सी है, और सेक्सी रहेगी। इसका तुझे आज बुरा ही नहीं मानना चाहिए क्योंकि आज होली है। अब अगर तू बुरा मानती है, तो मानती रह मेरी बला से। वैसे एक बात बताऊं। अब सेक्सी शब्द का अर्थ बदल गया है। सेक्सी का मतलब है, सुंदर, खूबसूरत। इसको अब तुम महिलाओं को पाजिटिव लेना चाहिए, निगेटिव नहीं। यह मैं नहीं कहता, राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष कह रही हैं।यह सुनते ही छबीली ने गुलाल की थैली मेरे सिर पर पलटते हुए कहा, ‘तुम अपनी घरवाली को और तुम्हारी यह राष्ट्रीय अध्यक्ष अपनी बहन-बेटियों को सेक्सी कहकर पुकारे, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। अगर फिर की आपने मुझे सेक्सी कहा, तो आपके थोबड़े पर श्रीलंका का नक्शा छाप दूंगी। समझे कि नहीं।छबीली की बात सुनते ही ांग का नशा काफूर हो गया। इतना कहकर छबीली अपने सैंडिल की ओर झुकी। मैंने समझा कि वह सैंडिल निकालकर उसका कोई दूसरा उपयोग करने जा रही है। मैं लपककर उसके गालों पर गुलाल मलने लगा। मैं कुछ और हरकत करता कि मेरी नजर घरैतिन पर पड़ी। वह लपकती हुई मेरी ही ओर चली आ रही थीं। इस पर मैंने वहां से फूट लेने में ही लाई समझी।

रंग, हुड़दंग और जिगर से जलती ‘बीड़ी’

-अशोक मिश्र

मुंबई में होली का हुड़दंग देख किसी का भी दिल जिया धड़क धड़क...जिया धड़क धड़क...जाएकी तर्ज पर उठक-बैठक लगाने पर मजबूर हो सकता था। होली की मस्ती और मुंबइया छिछोरापन देख मैं बिना पिए ही बहकने लगा। मेरे भी मन में कुछ-कुछहोने लगा। मैंने एक बार अपने कुर्ते की जेब में रखी रंग, अबीर और गुलाल की थैली को बाहर से ही थपथपाया और कुछ करने पर ऊतारू हो गया। मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई। मेरे आगे-आगे एक तिहाई नंगी, एक तिहाई अधनंगी और बाकी एक तिहाई कपड़े पहने एक युवती इठलाती, कमर मटकाती चली जा रही थी। लड़की की देहयष्टि क्या थी! आप यों समझिए कि एकदम कनक छरी’ (सोने की छड़ी) थी। मैं लपककर उसके पास पहुंचा। वह कुछ समझ पाती कि मैंने पीछे से लगभग उस पर लदते हुए उसके गालों पर गुलाल मल दिया। लड़की पहले तो अकबकाई और फिर मेरी ओर घूमी और लगी घूरने। मेरे पेशानी ने ढेर सारा पसीना उगल दिया। डर गया। पहली बार मुंबई गया था और अपनी नादानी से सिर मुड़ाते ही ओले गिरनेवाली कहावत चरितार्थ कर बैठा था। मैंने कंपकपाती आवाज में कहा, ‘सॉरी मैम...दरअसल क्या है कि पहली बार मुंबई आया हूं। मुझे लोगों ने बताया था कि मुंबई की लड़कियां बिंदास होती हैं, वे होली पर थोड़ी छेड़छाड़ का बुरा नहीं मानेंगी। सो, यह गलती कर बैठा। अब कान पकड़ता हूं, ऐसी गलती नहीं करूंगा।मैंने जल्दी से कान भी पकड़ लिए।

लड़की के पूरे शरीर पर कालिख, रंग और अबीर-गुलाल पुता हुआ था। लग रहा था कि वह बारी-बारी से सभी रंगों और कालिख के ड्रम में डुबकी लगाकर आई हो। मेरी बात सुनकर लड़की हंस पड़ी। मैं चौंक उठा, ‘अरे! यह तो स्वप्न सुंदरी मल्लिका शहरावत हैं।मैंने झेंपते हुए बोलना जारी रखा, ‘आप तो पहचान में ही नहीं आ रही हैं। अब तो मैं आपके साथ जमकर होली खेलूंगा।इतना कहकर उनकी ओर लपका। मल्लिका ने हाथ के इशारे से रुकने को कहा और बोली, ‘पास में ही मेरा घर है। आओ, वहां चलकर होली खेलते हैं।मैं उनके साथ हो लिया। मल्लिका के घर पहुंचा। सैकड़ों युवक-युवतियां मल्लिका की ही तरह न्यूनतम कपड़ों में होली के नाम पर हुड़दंग मचा रहे थे। युवकों ने आइटम सांग गाने की फरमाइश की, तो वे लगीं झूमकर गाने, ‘बीड़ी जलइले जिगर से पिया...जिगर मा बड़ी आग है...आग है, आग है।उनकी देखा-देखी बंगले में मौजूद भीड़ भी कमर मटकाव, लात चलावनृत्य करने लगी। भीड़ के साथ मैं भी नाच के नाम पर हाथ-पैर फेंकने लगा। इसी बीच पता नहीं किस नामाकूल को शरारत सूझी और उसने पिचकारी की धार ठीक सीने के बीचोबीच दे मारी। नागिन की तरह लहराती-बलखाती मल्लिका का थिरकना रुक गया। उस समय मुझे ऐसा लगा, जिगर से जिगर सटाकर युवाओं की बीड़ी जलाने की कोशिश कर रही मल्लिका के जिगर पर ढेर सारा पानी डालकर किसी ने जिगर की धधकती आग को ठंडा कर दिया हो। सारे युवा स्तब्ध से खड़े रहे। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें।

मैंने मल्लिका से कहा कि मैं बॉलीवुड की आइटम गर्ल्स के साथ होली खेलना चाहता हूं। आपसे तो खेल लिया, लेकिन बाकी और से मैं कहां मिल सकता हूं। मल्लिका ने मेरा हाथ पकड़ा और बाहर की ओर खींचते हुए कहा,‘चलो, मैं तुम्हें मलाइका अरोड़ा खान के बंगले पर छोड़ देता हूं। हां, मैं किसी के बंगले में नहीं जाऊंगी। बाहर खड़ी होकर मैं तुम्हारे वापस आने का इंतजार करूंगी।मलाइका के बंगले में भीड़ बिल्कुल नहीं थी। एकाध लोग ही हाथों में रंग, अबीर-गुलाल लिए लाइन में खड़े थे। आइटम गर्ल मलाइका जिसके सामने से गुजर जातीं, वह आहें भरने लगता। दूर से ही रंग आदि उछालने के बाद सीने पर हाथ रखकर धड़कन को नियंत्रित करने की जुगत में लग जाता। मैं चूंकि पहली बार मुंबई गया था। उत्साह की अधिकता में लपककर मलाइका के पास पहुंचा और मुट्ठी भर गुलाल उनके चिकने गालों पर मलते हुए नारा जैसा लगाया, ‘भीगे चाहे तेरी चुनरिया...भीगे चाहे चोली, खेलेंगे हम होली।गुलाल मलना था कि एक तरफ से आवाज आई, ‘ओए..चुलबुल पांडे की भाभी पर रंग फेकने की जुर्रत तूने कैसे की?’ मैंने आवाज की ओर नजर दौड़ाई। देखा, हाथों में एक बड़ा-सा डंडा लिए दबंगपुलिसिया दौड़ा चला आ रहा है। मै घबरा गया। रंग और गुलाल की थैली छोड़कर भागा, तो मल्लिका के पास ही जाकर रुका। मल्लिका ने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘मुस्टंडा पुलिसवाला मारने दौड़ा था क्या?’ मेरे स्वीकारात्मक सिर हिलाने वह बोली, ‘जब से दबंग बना है, मलाइका के साथ जो भी बतियाता मिल जाता है, वह उसी के साथ दबंगई करता है। कल मलाइका मिली थी, कह रही थी कि इस दबंग जेठ ने होली का सारा मजा ही किरकिरा कर दिया है।

मैंने मल्लिका के सामने शीलाके साथ हुड़दंग करने की इच्छा जाहिर की। शीलाके घर पहुंचा, तो पता लगा कि वे शक्ति कपूर के साथ बिजीहैं। शक्ति कपूर पैग हाथ में लिए कैटरीना के साथ आइटम सांग माई नेम इज शीला...शीला की जवानीके साथ मटक रहे हैं। वे मटकते-मटकते शीला के साथ उस हरकत पर उतर आए जिसके लिए वे विख्यात हैं। पहले तो शीला ने इसे सिर्फ होली का हुड़दंग समझा, लेकिन जब पानी सिर से ऊपर जाने लगा, तो वे चिल्ला उठीं, ‘बचाओ...यह मुआ बुड्ढा रील लाइफ को रियल लाइफ में मिलाकर मेरी इज्जत लूटना चाहता है।अपनी प्रिय हीरोइन को संकट में देखकर मेरा गंवई जोश ठाठें मारने लगा। मैं लपककर शक्ति कपूर के पास पहुंचा और उन्हें जबरदस्त धक्का दिया। शक्ति कपूर धड़ाम से गिरे और हरकतहीन हो गए। मल्लिका और शीला ने समझा कि वे इस दुनिया से गो, वेंट, गॉनहो गए हैं। वे चीखने लगीं, ‘हाय राम! इस आदमी ने शक्ति सर को मार डाला...दौड़ो...पकड़ो...मारो...।इन दोनों नाजनीनों को पाला बदलते और चीखते-चिल्लाते देखा, तो सिर पर पैर रखकर भागा। भागते-भागते पलटकर देखा, तो वे शीला और मल्लिका के साथ छिछोरी हरकत पर उतारू थे और दोनों खड़ी मस्तियाती जा रही थीं। राखी सावंत, पूनम पांडे के साथ होली खेलने की हिम्मत ही नहीं पड़ी।