Tuesday, July 30, 2013

खतरे में हैं ‘हम’

विलुप्त होते पशु-पक्षियों को बचाने की जद्दोजहद और कॉरपोरेट घरानों की मक्कारी

विलुप्त होने के कगार पर हैं कई जीव-जंतु और पेड़-पौधे। इससे असंतुलित हो रहा है प्रकृति का तानाबाना। अगर समय रहते नहीं चेते, तो धरती का संतुलन बिगड़ सकता है। इसके लिए जिम्मेदार होंगे सिर्फ और सिर्फ हम और आप...। इसी मुद्दे पर पढ़िए खास रिपोर्ट...
-अशोक मिश्र
चूं-चूं करती आई चिड़िया/चोंच में दाना लाई चिड़िया। शायद एकाध दशक बाद कोई भी बच्चा यह गीत गाता नहीं मिले। चिड़िया इतिहास की वस्तु हो जाए। हमारे जीवन में उसका स्थान ही न रहे। बच्चे किताबों और म्यूजियम में देखकर आश्चर्य से मुंह फैलाकर कहें, ऐसी होती थी चिड़िया। पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक दशक पहले तक छोटे बच्चों को खाना खिलाते समय माएं कहा करती थीं, ‘तिलोरी मौसी आओ, तो भैया को खिलाओ तो। दूध-बताशा लाओ तो।और इतना कहकर हाथ में लिया हुआ कौर बच्चे के मुंह में डाल देती थीं। खाते समय बच्चे का ध्यान खाने की मात्रा पर न जाए, इसके लिए कुछ न कुछ गाना या इसी तरह का कुछ करतब दिखाना अनिवार्य था। अब न अपने बच्चों को उस तरह गीत गा-गाकर दूध-बताशा खिलाने वाली माएं रहीं, न बच्चों की प्रिय तिलोरी मौसी ही बहुतायत में रही। बच्चों को अपने पर्यावरण से जोड़ने, चिड़िया, कबूतर, कुत्ता, बिल्ली, मेंढ़क, सांप, छछूंदर, झींगुर आदि का महत्व बताने के लिए इनका मानवीकरण कर दिया जाता था। सभी जानते हैं कि किसी बच्चे के लिए मौसी कितनी प्रिय होती है, क्योंकि वह मा-
सी’ होती है। हमारी संस्कृति के पुरोधाओं ने तिलोरी को बच्चों को मौसी कहकर उसे मानवीय रिश्तों से जोड़ दिया। वे इस बात को अच्छी तरह से समझते थे कि प्रकृति में जितने भी जीव पाए जाते हैं, उनका आपस में संबंध अन्योनाश्रति है। एक के रहने से ही दूसरे का जीवन संभव है। हमारे आस-पास से अगर एक भी जीव खत्म होता है, तो उसका प्रभाव पूरे मानव समाज पर पड़ता है। तिलोरी, एक तरह की मैना पक्षी होती है, जो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, हरियाणा, पंजाब आदि प्रदेशों में बहुतायत में पाई जाती थी। रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के फसलों में लगातार बढ़ते उपयोग, झाड़ियों, वनों की अवैध कटान और पिछले कुछ दशकों से लगातार बिगड़ते पर्यावरण की वजह से बहुतायत में पाई जाने वाली इस तिलोरी (तेलिया मैना) का दिखना कम हो गया है। खेती में अंधाधुंध और बिना सोचे बिचारे रासायनिक उर्वरकों के उपयोग ने इन पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों को या तो नष्ट कर दिया है या फिर इनकी प्रजनन क्षमता को कम कर दिया है, जिसकी वजह से इनकी वंश वृद्धि लगातार घटती जा रही है। यदि यही हालात रहे, तो एक दिन तिलोरी भी विलुप्त प्राणियों में शामिल हो जाएगी।
और तिलोरी की ही बात क्यों करें। अगर हम अपने आसपास गंभीरता से देखें, तो न जाने कितनी वनस्पतियां, जीव-जंतु, पेड़-पौधे विलुप्त हो चुके हैं। आज से दो दशक पहले तो पाए जाते थे, लेकिन आज खोजने पर भी नहीं मिलते हैं। कहां गए ये? अब क्यों नहीं पाए जाते? इनको हमारे विकास की अमानवीय विकासवादी अवधारणा खा गई। हजारों वनस्पतियों, जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों के विलुप्त होने का कारण दुनिया में चल रही एकांगी विकासवादी नीतियां हैं। इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में जब आदमी की कोई कीमत नहीं रही, तो भला विलुप्त हो गईं या विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई वनस्पतियों को लेकर कौन चिंतित होगा। मुनाफा कमाने की होड़ में लगी बहुराष्ट्रीय कंपनियां, एनजीओज, देशी-विदेशी पूंजीपतियों को सिर्फ अपने लाभ से मतलब है। विशालकाय कल-कारखानों, चमकती सड़कों, गगनचुंबी अट्टालिकाओं को देखकर पूंजीपति ही नहीं, हम सभी कितने मुग्ध हो जाते हैं। गर्व से सिर उठाकर कहते हैं, हमने कितनी तरक्की कर ली है, लेकिन इस तरक्की की हमने क्या कीमत अदा की है, इसकी ओर देखने, सोचने, समझने की कोशिश कभी नहीं की है। हमने विकास तो किया, इसमें कोई शक नहीं है, लेकिन हमने एकांगी विकास के चलते पूरी दुनिया की जैव विविधता को खतरे में डाल दिया है। हजारों जीव-जंतु या तो नष्ट हो गए या फिर निकट भविष्य में नष्ट होने वाले हैं। चिड़िया, गौरेया, फाख्ता, गिद्ध, कौवे जैसे पक्षी हमारे जीवन का हिस्सा थे। हमारे साहित्य में स्थान पाते थे। बच्चे इन्हीं को देख-देखकर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने, इसकी हिफाजत करने का सबक सीखते थे। समाज के भावी नागरिकों को इसके बारे में बताने की जरूरत नहीं महसूस होती थी। वे जीवन संघर्ष के क्रम में सीखते जाते थे। गंगा में पाई जाने वाली डॉल्फिन सहित दूसरी कई प्रकार प्रजाति की मछलियां, मेंढक, सांप आदि हमारे जीवनचर्या में शामिल थे, लेकिन आज...? इन जीवों की ज्यादातर प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। नील गाय, मोर, गीदड़, सियार, रोही बिल्ली, पाटा गोह, उड़ने वाली गिलहरी, कनखजूरे जल्दी ही हमसे विदा मांगने वाले हैं। मानव की लगातार बढ़ती सक्रियता, लिप्सा, विकास की होड़ के चलते खेत, जंगल, पहाड़, तालाब, नदियां, समुद्र, सब संकट में हैं। इसके साथ ही साथ संकट में हैं इन पर या इनमें रहने वाले लाखों-करोड़ों जीव। लगातार बढ़ते जल प्रदूषण ने सिर्फ इनसानों के सामने ही संकट नहीं खड़ा किया है, बल्कि जल में रहने वाले जीव-जंतुओं, पौधों, एक कोशकीय सूक्ष्म और बहुकोशकीय पादपों के सामने भी संकट खड़ा कर दिया है। अगर आंकड़ों पर नजर डालें, तो प्रकृति, पर्यावरण, पहाड़, नदियों, पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं आदि के प्रति संवेदनशील मन अवश्य विचलित हो जाएगा। मानव समाज ने अपनी आवागमन की सुविधा के लिए बड़े-बड़े और अत्याधुनिक हवाई जहाज, जलयान तो बना दिए, दूरसंचार माध्यमों में क्रांति करके मोबाइल   फोन का आविष्कार कर लिया, मोबाइल फोन की हर जगह संबद्धता के लिए बड़े-बड़े टॉवर खड़े कर लिया, लेकिन हवाई जहाजों, मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली  रेडियो तरंगों का कोई विकल्प नहीं खोज पाए। ये तरंगे न केवल पशु-पक्षियों, बल्कि कीट-पतंगों से लेकर मानवों तक के लिए हानिकारक हैं, कई घातक और असाध्य रोगों की जनक हैं। इसके चपेट में आने वाले लोगों को बहुत कष्टमय जीवन बिताना पड़ रहा है।
विलुप्त होने का खतरा
थार की पाटा गोह हो या फोग का पौधा, गंगा की डाल्फिन हो, हिमालय के ग्लेशियर हों या तंजानिया का किहांसी स्प्रे मेंढक, सब पर संकट के बादल लगातार गहराते जा रहे हैं। भारत में 687 पौधों और इतने ही जीवों पर विलुप्त होने का संकट गहरा रहा है। आईयूसीएन की रेड लिस्ट बताती है कि 47,677 में से कुल 17,291 जीव प्रजातियां कब खत्म हो जाएं, कहा नहीं जा सकता है। इसमें 22 प्रतिशत स्तनधारी जीव हैं, 30 प्रतिशत मेंढकों की प्रजातियां हैं, इसमें 70 प्रतिशत पौधे और 35 प्रतिशत सरीसृप जैसे जीव हैं। भारत में ही पौधे और वन्य जीवों की विलुप्त होने की कगार में पहुंच चुकी कुल 687 प्रजातियां में से 96 स्तनपायी, 67 पक्षी, 25 सरीसृप, 64 मछली और 217 पौधों की प्रजातियां हैं।
प्रकृति संरक्षण के लिए काम कर रही संस्था अंतरराष्ट्रीय संघ की निदेशक जुलिया मार्टोन लेफेव्रे का कहना है कि जापान के नागोया में जैव संरक्षण की दशा-दिशा तय करने के लिए हमने बड़ी योजनाएं बनाई थीं, जिसके लक्ष्य एकदम जमीन से जुड़े हुए थे। हमें गति बनाए रखनी होगी। जैव विविधता लगातार कम हो रही है। यह सुरक्षित धरती के लिए जरूरी सीमा भी तोड़ चुकी है। धरती से खत्म हो रही प्रजातियों में 41 फीसदी उभयचर, 33 फीसदी प्रवाल, 25 फीसदी स्तनपायी, 13 प्रतिशत पक्षी और 23 प्रतिशत कोनफर वृक्ष हैं।
खतरे में समुद्री जीव-जंतु
आईयूसीएन के रिपोर्ट के मुताबिक, महासागरों की हालात भी काफी चिंताजनक है। रिपोर्ट से पता चलता है कि समुद्री प्रजातियों में से ज्यादातर जीव-जंतु अत्यधिक मछली पकड़ने, जलवायु परिव
र्तन, तटीय विकास और प्रदूषण की वजह से नुकसान का सामना कर रहे हैं। मछली पकड़ने में उपयोग किए जाने वाले मशीनचालित नावों (ट्रॉलरों) और जलयानों से समुद्र में रहने वाले दूसरे जीव-जंतु बहुत बड़ी संख्या में न केवल घायल होते हैं, बल्कि मर भी जाते हैं। समुद्र का लगातार दोहन करने से शार्क सहित कई समुद्री प्रजाति के जलीय जीव, छह-सात समुद्री प्रजाति के कछुए विलुप्त होने के कगार पर आ गए हैं। चट्टान मूंगों की 845 प्रजातियों में से 27 प्रतिशत विलुप्त हो चुकी हैं। इनमें से 20 प्रतिशत पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। पिछले कुछ दशकों से समुद्री पक्षियों पर खतरा कुछ अधिक है। रिपोर्ट के मुताबिक, स्थलीय पक्षियों के विलुप्त होने की दर 11.8 प्रतिशत है, वहीं 27.5 प्रतिशत की दर से समुद्री पक्षियों पर विलुप्त होने का खतरा है। निकट भविष्य में स्थलीय और समुद्री पक्षियों के विलुप्त होने के प्रतिशत में बढ़ोत्तरी की आशंका है।
डराने लगी है रिपोर्ट
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पशु-पक्षियों के संरक्षण को लेकर सक्रिय संस्था आईयूसीएन (इंटरनेशनल यूनियन कंजरवेशन फार नेचर) की रिपोर्ट चौंकाती ही नहीं, प्रकृति प्रेमियों और पयावरणविदों को डराती भी है। आईयूसीएन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में पाए जाने वाले जीवों में से एक तिहाई विलुप्त होने के कगार पर हैं। यह खतरा हर दिन बीतने के साथ बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट में किहांसी स्प्रे टोड के बारे में खास तौर पर चर्चा की गई है। आईयूसीएन की रिपोर्ट के मुताबिक, मेंढक की यह प्रजाति इसलिए विलुप्त हो गई, क्योंकि जिस नदी में इनका निवास था, उस नदी के ऊपरी हिस्से पर बांध बना दिया गया था। पानी के बहाव में कमी आने से ये मेंढक खत्म हो गए। हमारे देश में भी ठीक ऐसा ही हो रहा है। गंगा, यमुना, राप्ती और व्यास आदि नदियों पर बांध बनाने और बिजली उत्पादन करने की एक होड़-सी लगी हुई है। अभी एक महीने पहले उत्तराखंड में हुई व्यापक तबाही के कारण वहां से निकलने वाली नदियों के उद्गम क्षेत्र पर बनने वाले बांध, पहाड़ों को तोड़ने के लिए उपयोग में लाए जा रहे विस्फोटक हैं। उत्तराखंड की बहुगुणा सरकार इन बांधों के निर्माण के लिए विकास और बिजली उत्पादन का तर्क देकर अपने को बचाने की कोशिश कर रही है। संवैधानिक रूप से नदियों पर बांध बनाना, भले ही अपराध या गैरकानूनी न हो, लेकिन पर्यावरण और मानव जाति के प्रति किया गया अक्षम्य अपराध तो है ही। जिन इलाकों में बहने वाली नदियों पर बांध बनाए गए हैं, उन इलाकों में जल प्रवाह कम हो जाने से जल में रहने वाले जीव-जंतु या तो नष्ट हो गए या भविष्य में नष्ट हो जाएंगे। पिछले दशक में भारत ने कम से कम पांच दुर्लभ जानवर लुप्त होते देखे हैं। ये इंडियन चीता, छोटे कद का गैंडा, गुलाबी सिर वाली बत्तख, जंगली उल्लू और हिमालयन बटेर हैं। कई लोगों को हैरानी होगी कि अभी 2005 में अरुणाचल प्रदेश में दुर्लभ प्रजाति का बंदर मिला था। जियोलॉजिकल सर्वे आॅफ  इंडिया के अनुसार, 2011 में जानवरों की 193 नई प्रजातियां पाई गई थीं। भारत शेर, बाघ, हाथी और गैंडे को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है। हालांकि इस बीच अफ्रीका से इंडियन चीते को लाने के प्रयास भी हुए हैं। लेकिन यह भी सच है कि देश शेरों के लिए उपयुक्त वैकल्पिक रिहाइश खोज पाने में सफल नहीं हो पा रहा है। यह सब इंसान के लालच और जंगलों के कटाव के कारण हुआ है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन आॅफ नेचर (आईयूसीएन) ने चेतावनी दी है कि इस समय पूरी दुनिया में 929 दुर्लभ प्रजातियां खतरे की जद में आ चुकी हैं। वर्ष 2004 में यह संख्या 648 थी। विश्व धरोहर को गंवाने वाले देशों की शर्मनाक सूची में भारत चीन के ठीक बाद सातवें स्थान पर है।
काम कम, चीख-पुकार ज्यादा
जैव विविधता को लेकर सबसे ज्यादा चीख -पुकार वही देश मचा रहे हैं, जो सबसे ज्यादा कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन के दोषी हैं। अभी पिछले साल अक्टूबर में हैदराबाद में जैव विविधता को सहेजने की चुनौती को लेकर सम्मेलन आयोजित किया गया था। भारत अपनी जैव विविधता को बचाने की हर संभव कोशिश कर रहा है। देश के 4.8 25 लुप्तप्राय जानवरों की सूची से हटा दिया है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में इनकी संख्या में इजाफा हुआ है। हैदराबाद में आयोजित सम्मेलन इस पर होने वाले खर्च की बात उठी, तो ज्यादातर देशों ने अपने हाथ खींचने की कोशिश भी की। हैदराबाद में 193 देशों के हजारों विशेषज्ञ इसी बात विचार करते रहे कि इस पर होने वाले खर्च की पूर्ति कहां से होगी? पर्यावरण विशेषज्ञों और समाजसेवियों का मानना है कि इस पर लगभग 40 अरब डॉलर का खर्चा आएगा। कन्वेनशन आॅन बायोजॉजिकल डायवर्सिटी ट्रीटी में शामिल देशों को ही यह खर्च उठाना होगा, लेकिन इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाले ज्यादातर देश अपनी कम से कम भागीदारी चाहते हैं। अमेरिका और सूडान जैसे देश पहले से ही अपना पल्ला झाड़ चुके हैं। इन सब विपरीत स्थितियों के बावजूद सुखद यह है कि अब पूरी दुनिया में जैव विविधता को लेकर चेतना जागृति होने लगी है। मानव समाज को लेकर चिंतित विचारकों और सामाजिक संस्थाओं ने इस दिशा में सोचना और पहल करना शुरू कर दिया है। उम्मीद है कि इन लोगों की मेहनत और भागीदारी रंग लाएगी।
प्रतिशत भौगोलिक हिस्से को इसके लिए सुरक्षित रखा गया है। भारत इस समय जैव विविधता पर दो अरब डॉलर खर्च कर रहा है। इसके परिणाम भी सामने आने लगे हैं। आईयूसीएन ने शेर जैसी पूंछ वाले बंदर को
कॉरपोरेट कंपनियों का हित
अमीर देशों की कॉरपोरेट कंपनियों का हित इन प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ा हुआ है। ये अपना हित साधने के लिए दुनिया भर के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तो करना चाहते हैं, लेकिन जैविक असंतुलन को रोकने के लिए अपनी गांठ से दमड़ी भी खर्च करना नहीं चाहते। दोनों हाथों में लड्डू चाहने वाली कॉरपोरेट कंपनियों में से एक कंपनी भारत में भी सक्रिय है। सरकारी लापरवाही, लोगों की अनभिज्ञता और कॉरपोरेट कंपनियों की चालाकी इससे जाहिर होती है कि भारत के दक्षिण पूर्व में स्थित मन्नार की खाड़ी से करोड़ों रुपये का समुद्री शैवाल निर्यात करती है शीतल पेय बनाने वाली कंपनी पेप्सी। साल-दो साल पहले जब राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण ने कंपनी पर दबाव डाला, तो उसने भारत सरकार को सिर्फ 38 लाख रुपये की ही क्षतिपूर्ति दी थी। तब जयराम रमेश ने एक कार्यक्रम में बड़े गर्व से कहा था कि इस राशि का उपयोग स्थानीय समुदाय के विकास में किया जाएगा। सचमुच, करोड़ों रुपये के प्राकृतिक संसाधनों को गंवाकर सिर्फ 38 लाख रुपये वसूलना काबिलेतारीफ है। और फिर दक्षिण पूर्व स्थित मन्नार की खाड़ी के आसपास रहने वाले समुदायों के हिस्से में कितनी रकम आएगी, यह भी गौर करने लायक है। मजेदार बात यह है कि पेप्सी इन शैवालों का सिंगापुर, मलेशिया सहित कई यूरोपीय देशों को निर्यात करके वास्तविक लागत से दसियों गुना कमाई करती है। यह तो एक उदाहरण मात्र है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीकी देशों सहित अन्य विकासशील और अविकसित देशों के प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन करके मोटा मुनाफा कमाती हैं और इस निर्मम दोहन के चलते प्राकृतिक असंतुलन पैदा होता है। इन देशों की वनस्पतियों, जीव-जंतुओं, पादपों की अपूर्णीय क्षति होती है। प्राकृतिक असंतुलन, ग्लोबल वॉर्मिंग और वनस्पतियों के नष्ट होने से ऐसे इलाकों में महामारी, भुखमरी और गरीबी फैलती है और अमीर देशों की कॉरपोरेट कंपनियां गरीबी, बेकारी और भुखमरी से जूझ रहे लोगों को अपनी मोटी कमाई में से एक मामूली सा हिस्सा दान, अनुदान देकर और विभिन्न परियोजनाओं में निवेश करके दुनिया के सामने अपनी पीठ थपथपाती हैं।
विकसित देशों का रवैया निराशाजनक
प्रकृति में पादप, जीव-जंतुओं के जीनेम में आ रहे बदलाव और उनके विलुप्त होने के बारे में गंभीरता से सबसे पहली बार जून 1992 में सोचा गया। जून 1992 में ब्राजील के रियो द जेनेरो में हुए पृथ्वी सम्मेलन में जैव विविधता पर अभिसमयसंधि (कन्वेंशन आॅन बॉयोलॉजिकल डायवर्सिटी) के माध्यम से दुनिया का ध्यान इस गंभीर मुद्दे की ओर खींचा गया। उस समय तय किया गया कि पृथ्वी को ग्लोबल वॉर्मिंग और प्रकृति में रहने वाले उभयचरों, जलचरों, नभचरों और पादपों को विलुप्त होने से बचाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का कम से कम दोहन और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने पर जोर दिया जाएगा। जो विकसित और विकासशील देश ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन ज्यादा करते हैं, उनसे उत्सर्जन कम करने को कहा जाएगा। रियो सम्मेलन के अगले साल दिसंबर 1993 से विश्व समुदाय को   प्रेरित और किसी हद तक बाध्य करने के लिए जैव विविधता पर अभिसमयलागू कर दिया गया। लेकिन अफसोस कि इस मुद्दे पर विकसित देशों ने ध्यान नहीं दिया। चीन, अमेरिका, जापान, सोवियत रूस, भारत जैसे विकसित और विकासशील देशों की प्रमुखता सूची में यह मुद्दा रहा ही नहीं। वे सिर्फ फर्ज अदायगी के तौर पर मामले को लेते रहे। संयुक्त राष्ट्र कन्वेनशन आॅन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी (सीबीडी) संधि पर हस्ताक्षर करने से अमेरिका इनकार कर चुका है। वह 1994 से ही जैव विविधता के मुद्दे पर पृथकतावादी रुख अपनाए हुए है। अमेरिका को इस बात से आपत्ति है कि सभी देशों को इस संबंध में किए गए प्रयास का फायदा बराबर क्यों मिले। वह सीबीडी की कुछ दूसरी शर्तों का भी विरोध कर रहा है। सूडान भी अमेरिका का पिछलग्गू बना सीबीडी का विरोध कर रहा है। वहीं इस संधि पर दुनिया के 193 देश हस्ताक्षर कर चुके हैं। इनमें से ज्यादातर देशों ने अपने यहां इस पर अमल करना भी शुरू कर दिया है।
पिछले साल 2012 में बीस साल बाद जब रियो प्लस ट्वेंटी’ (रियो+ 20) सम्मेलन आयोजित किया गया, तो विकसित देशों को भी इसकी गंभीरता समझ में आई। इसके बावजूद विडंबना यह रही कि अमेरिका और ब्रिटेन के प्रधानमंत्रियों ने रियो प्लस ट्वेंटी पृथ्वी सम्मेलन में भाग नहीं लिया। इसमें अगर भाग लिया
, तो ज्यादातर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अधिकृत प्रतिनिधियों और उनके प्रमुखों ने । इस सम्मेलन की जो परिणति होनी थी, वही हुई। कंपनियों ने सबसे पहले अपने हितों पर ध्यान दिया। वे पर्यावरण असंतुलन, ग्लोबल वार्मिंग और जैविक असंतुलन के लिए एक दूसरे को दोष देती रहीं और खुद कोई जिम्मेदारी उठाने से बचती रहीं।
सम्मेलन के दौरान आए विशेषज्ञों ने तो यहां तक कहा कि आयोजित किया गया रियो+ 20 सम्मेलन वास्तव में संयुक्त राष्ट्र का वैश्विक पर्यावरणीय कॉन्फ्रेंस है। इस सम्मलेन में बातें तो लंबी चौड़ी की गईं, लेकिन वहां पेश किए गए दस्तावेजों में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि पूरे विश्व पर मंडरा रहे इस खतरे से निजात कैसे मिलेगी? दस्तावेज की कई बातों से तो यह ध्वनित होता है कि गरीब देशों के जल, जंगल, जमीन, हवा और जलीय जीवन आदि को बचाने और उसके संरक्षण के लिए जो कुछ दान देना पड़ रहा है, वह उनके साथ अन्याय है। ऐसा करके अमीर देशों की जनता का हक छीना जा रहा है। विकसित देश तो अब बात यहां तक कह रहे हैं कि अगर गरीब देश अपने हिस्से की जमीन, हवा, पानी, जंगल आदि की सुरक्षा और देखभाल नहीं कर सकते हैं, तो वे इसे या तो बेच दें या लीज पर दे दें। अमीर देश प्राकृतिक संसाधन को बिकाऊ बनाने पर तुले हुए हैं, ताकि वे उन पर कब्जा करके अधिकतम दोहन करने के साथ-साथ पूरी दुनिया में यह दंभ भर सकें कि वे धरती की सुरक्षा कर रहे हैं।

Monday, July 29, 2013

पत्नी को प्रेम भरी पाती

-अशोक मिश्र 
आजादी से पहले अवध क्षेत्र के किसी शहर से कलकत्ता (अब कोलकाता) कमाने गए किसी पति ने हिंदी और अवधी मिश्रित भाषा में अपनी पत्नी को प्रेम भरा पत्र भेजा, ‘सर्व श्री सर्वोपमायोग लिखा कि चिट्ठी रमुआ की माई को पहुंचे। हम यहां ठीक से रहते हुए भगवान से नेक मनाया करते हैं कि तुम भी गांव मा अम्मा-बप्पा और रमुआ के साथ राजी-खुशी से होगी। रमुआ की माई! जब से हम यहां कलकत्ता कमाय आए हैं, तब से तुम्हारी याद बहुत आवत है। तुम्हारी सूरत आंखिन के आगे दिनभर नाचती रहती है। जानती हो, कल हम दाल मा लौकी डार के बटुली चूल्हे पर चढ़ाय दिये रही पकने की खातिर, लेकिन तुम्हारी याद आई, तो हम दाल की बटुली उतारना ही भूल गए। दाल जलकर कोइला होइगा। अब हम क्या करते, नोन भात खाकर काम पर गए। आवात समय जब तुम दरवाजे के पीछे हिचकी लेकर रोवै लागी, तो हमरा मन कहिस कि न जाई कलकत्ता। लेकिन गांव में भी तौ गुजारा नहीं हो सकता था। तो रमुआ की माई हमका आवै का पड़ा। रस्ता मा भी मन कई बार पिछरा कि लौट चलो। टरेन का तीन रुपये का टिकट भी कटवाय लिया रहा, इससे दिल कड़ा करिकै आना पड़ा। अब हम तौ यही कहेंगे, कि जी कड़ा करके कुछ महीना इंतजार करौ। फागुन मा हम आवै का बंदोबस्त कर रहे हैं। राम चाहेंगे, तो महीना-पंदरह दिन की छुट्टी भी मिल जाई।’
इसके बाद चिट्ठी पर दो जगह की एक छोटी सी जगह की स्याही फैल गई थी। इससे अनुमान होता है कि चिट्ठी लिखने वाला रो पड़ा था। चिट्ठी में आगे लिखा था, ‘रमुआ की माई! हमार चिंता मत करना। हम यहां काफी राजी-खुसी से रह रहे हैं। हमार चिंता मत करना। हां, तुम्हरी एक बात याद करकै हमका बहुत हंसी आवात है। चलते समय तुम डर रही थी कि कलकत्ता मा कोई मेहरारू हम पर मोहित होकर भेढ़ा न बनाय ले। धत्त पगली, हम लोगन की तरफ कलकत्ता आने वाले को जो डराया जाता है, वह बिल्कुल झूठ है। यहां की औरतें कोई जादू-टोना नाही करती हैं। सात-आठ महीना मा जो हमरी समझ में आवा है, वह यह कि यहां कमाने आने वाले लोग कई बार भटक जाते हैं। यहां की मेहरारुओं के चक्कर मा आ जात हैं। फिर वे अपने गांव-घर का भूलि जात हैं, अपने अम्मा-बप्पा, मेहरारू और लड़कन-बच्चन का भूलि जात हैं। तुम चिंता मत करौ। हम तोहार कसम खाई कै कहते हैं कि हम किसी के चक्कर मा न पड़ब। तू हमका जान से ज्यादा पियारी हो।’
इसके बाद पत्र की स्याही कुछ ज्यादा चटख हो गई थी। इसका निहितार्थ यही है कि स्याही खत्म होने के बाद दूसरे दिन स्याही लाने पर आगे पत्र लिखा गया था। पत्र में लिखा था, ‘रमुआ तौ अब अपने पैरन पर चलै लाग होई। उसकी भी बहुत याद आवत है। इस बार आऊंगा, तो उसके लिए यहां से कपड़े ले आऊंगा। अम्मा की रतौंधी की दवाई भी यहां के एक वैद्य महाराज से लैके रख लिया है। आऊंगा तौ लेता आऊंगा। बप्पा की खातिर जूता खरीदै का है, अबकी पइसा मिली, तो सबसे पहले वही खरीदब। शामसुंदर काका के हाथ जो चौतीस रुपया भिजवावा रहा, ऊ मिल गवा होई। बप्पा से कहना, कंधई बाबा का सतरह रुपया उधार चुकाय देहैं, उनकै नौ रुपया रहि जाई, जो हम फागुन मा आने पर चुकाय देबै। बाकी पइसा से अनाज-वनाज खरीदकर रख लें। अगर श्रीधर काका की भैंस दूध देती हो, तो रमुआ के लिए पाव भर दूध बंधाय दिहौ। रुपया-दुई रुपया जो भी दाम होगा, आने पर चुका दूंगा। एक बात कही, यहां की औरतें बहुत चालाक हैं। यहां जिस कोठरी मा हम रहते हैं, उसकी मालकिन के पास हर महीना अपनी बचत जमा करते रहते हैं कि जब गांव जाएंगे, तब लैइ लेंगे। हमरे हिसाब से उसके पास तेइस रुपया जमा होना चाहिए,  लेकिन ऊ कहती है कि उन्नैइस रुपया जमा है। हम मन मसोस कै उससे उन्नैइस रुपया लैके घोसाल बाबू के पास जमा कर दिया है। सुना है कि ऊ बहुत ईमानदार हैं। एक तौ मालिक काम ज्यादा करवाते हैं, मजूरी कम देते हैं। ऊपर से ई लुटेरा लोग हम सबका अलग से लूटि लेते हैं। तुम चिंता मत करना। हम गरीबन कै पइसा इनके पची ना (पचेगा नहीं)।’
‘रमुआ की माई! अम्मा-बप्पा की देखभाल अब तुम्हारे ही जिम्मे है। हम विशवास है, तू अपने जियत कोई कष्ट नाही होने दोगी। लेकिन का करैं, पापी मन मानता नहीं है यह बात कहे बिना। अम्मा से कहना, फागुन मा उनकी खातिर दो धोती और कुर्ती का कपड़ा लेता आऊंगा। बप्पा की खातिर भी कुर्ता-धोती का कपड़ा मोलवाया हूं। ढाई रुपये मा दो जोड़ी कुर्ता-धोती मिल जाई। तुम्हरे लिए एक पाजेब देखा है सोनार के दुकान पर। दाढ़ीजार! चार रुपया मांगत है। लेकिन चिंता मत करो, फागुन से पहले खरीद लेब। रमुआ की माई, जब पाजेब पहिनकै गांव मा निकली, तो देखै वालेन के सीने पर सांप लोटि जाई। अच्छा, अब चिट्ठी लिखब बंद करित है। अम्मा-बप्पा का पैलगी, रमुआ का आसीरवाद और तुहका पियार।-रिखीराम तेवारी।’

Tuesday, July 23, 2013

कहां जाएं मुसलमान?

देश के सामने यक्ष प्रश्न 

-अशोक मिश्र
देश में मुसलमानों की आबादी हिंदुओं के बाद सबसे ज्यादा है। आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 16 करोड़ मुसलमान रहते हैं, जो कि इंडोनेशिया के बाद सबसे अधिक है। यानी कि भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा मुस्लिम देश है। इस बड़े वोट बैंक की तरफ राजनीतिक दलों का ध्यान जाना बहुत स्वाभाविक है। कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां, जैसे- कांग्रेस, सपा, माकपा, भाकपा और बसपा सहित अन्य धार्मिक संगठन अपने पाले में रखना चाहते हैं। ये राजनीतिक दल तो इनका शोषण करते ही हैं, इनके धार्मिक संगठन भी स्वार्थ के लिए इनका सिर्फ उपयोग ही करते हैं। वे नहीं चाहते कि मुसलमानों में नई आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि पैदा हो, ताकि वे अंधविश्वास और रूढ़ियों से मुक्त हो सकें। इनके धार्मिक नेता जानते हैं कि जिस दिन वे इन रूढ़ियों और अंधविश्वासों से मुक्त हो जाएंगे, वे इनके हाथ से निकल जाएंगे। यही वजह है कि वे इनके जेहन में ऐसी कोई किरण पैदा ही नहीं होने देना चाहते, जो इन मुसलमानों को तरक्की की ओर ले जाता है।  दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना जैसे दल इतिहास का हवाला देकर मुसलमानों को खलनायक बताकर, हिंदुओं का ध्रुवीकरण करना चाहते हैं और इसका फायदा वे चुनाव में उठाना चाहते हैं। तभी तो दक्षिणपंथियों के बीच यह जुमला प्रसिद्ध है कि ‘हर मुसलमान आतंकी नहीं होते, लेकिन हर आतंकी मुसलमान क्यों होते हैं?’ अब उन्हें कौन समझाए कि आंतक का कोई धर्म नहीं होता। इसी तरह जब नरेंद्र मोदी कांग्रेस को कोसते वक्त बुर्का श्ब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो उनका इशारा साफ है कि कांग्रेस मुसलमानों का बंकर बन गई है। इसके जवाब में हिंदुओं को एकजुट होकर भाजपा के साथ जुड़ जाना चाहिए। तभी तो मोदी दिल्ली की सल्तनत से मुकाबला करने के लिए आतुर हैं। मोदी जब ‘दिल्ली के सल्तनत’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो उनका अभिप्राय होता है कि दिल्ली में अब तक मुगलों का ही शासन है। उनकी नजर में मुसलमानों का समर्थन लेने वाला मुगल ही तो कहलाएगा। वैसे इनका समर्थन तो भाजपा भी लेना चाहती है, लेकिन गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के केंद्रीय चुनाव प्रचार समिति के सर्वेसर्वा नरेंद्र भाई मोदी की माफी की शर्त पर नहीं। वैसे भी सन 2002 में हुए गुजरात दंगों की जिम्मेदारी लेने या माफी मांगने को नरेंद्र मोदी तैयार नहीं हैं। हां, पिछले साल संपन्न हुए गुजरात चुनाव में तीसरी बार जीत के बाद नरेंद्र मोदी ने यह कहना जरूर शुरू कर दिया है कि उनकी जीत में गुजराती मुसलमानों की भी भूमिका रही है। उन्हें गुजरात में रहने वाले मुसलमानों ने भी वोट दिया है। दरअसल, यह कहकर नरेंद्र मोदी यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि वे मुसलमान विरोधी नहीं हैं, लेकिन इस देश के मुसलमानों को ठीक से रहना होगा। ठीक से रहने का मतलब? मनु संहिता पर आधारित हिंदू राष्ट्र में दोयम दर्जे के नागरिक के तौर पर भाजपा की नीतियों और कार्यक्रम का विरोध किए बिना वे भारत में रह सकते हैं। यही वजह है कि भाजपा नेता अपने को हिंदू राष्ट्रवादी कहने से नहीं चूकते हैं। हिंदूवादियों के विचारों का अंतर्विरोध देखिए, एक तरफ तो वे कट्टर हिंदू राष्ट्र की कल्पना करते हैं, दूसरी तरफ राम राज्य की बात करते हैं, जिसका आदर्श वाक्य है, ‘दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, राम राज्य काहू नहिं व्यापा।’ ऐसा तो है नहीं कि आज रामराज्य स्थापित हो जाए, तो इन तीनों प्रकार के तापों से सिर्फ हिंदुओं को ही मुक्ति मिलेगी और मुसलमान इसके दायरे से बाहर रहेंगे? हिंदू राष्ट्रवादी मोदी की इस बात से जाहिर है कि देश के मुसलमान लोकसभा और विधानसभा चुनावों के दौरान कुछ सीटों पर निर्णायक भूमिका निभा सकने की स्थिति में हैं। नरेंद्र मोदी के निकट सहयोगी और गुजरात के पूर्व गृहराज्य मंत्री रहे अमित शाह ने पिछले दिनों अयोध्या में जाकर जिस तरह से राम मंदिर को लेकर हुंकार भरी, उससे जाहिर है कि वे उत्तर प्रदेश के साथ-साथ मंदिर-मस्जिद मुद्दा उभारकर धुव्रीकरण की प्रक्रिया तेज करना चाहते हैं। अगर वे अपने मकसद में सफल हो गए, तो जाहिर है कि इससे हिंदू-मुस्लिम के बीच वैमनस्य बढ़ेगा, एकाध जगहों पर दंगे भी हो सकते हैं।
देश में जब भी कहीं कोई आतंकी घटना होती है, तो इसे पूरी मुस्लिम संप्रदाय द्वारा की जा रही गतिविधियों से जोड़कर देखा जाता है। यह भी सही है कि देश में होने वाली ज्यादातर आतंकी घटनाओं में पाकिस्तानी, बांग्लादेशी और कुछ दूसरे देशों के मुसलमानों के साथ-साथ देश के भी कुछ मुसलमानों की भी मिलीभगत होती है। बम विस्फोट या दूसरी किस्म की आतंकी गतिविधियों की योजना भले ही पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल आदि में बैठे आतंकवादी संगठन तैयार करते हों, आवश्यक संसाधन (विस्फोटक, बंदूकें, रुपये आदि) मुहैया कराते हों। वहां से कुछ अपने एजेंट भेजते हों, लेकिन उन्हें सहयोग देने, रेकी करने और स्लीपिंग सेल उपलब्ध कराने में निस्संदेह यहीं के लोगों का हाथ होता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि देश का हर मुसलमान संदिग्ध है। सन 1980 से पहले और उसके बाद देश के ही एक महत्वपूर्ण हिस्से में जो खालिस्तानी आंदोलन चला, उसके लिए क्या देश के सभी सिखों को दोषी माना जा सकता है? कतई नहीं। सिखों की मेहनती,   स्वाभिमानी और जुझारू प्रवृत्ति पर कौन फिदा नहीं होगा! फेसबुक और ट्विटर पर हिंदू अस्मिता के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ इन दिनों खूब विष वमन किया जा रहा है। कुछ लोग फेसबुक और ट्विटर पर ऐसे सक्रिय हैं, जो हिंदुत्ववादी संगठनों के पेड कार्यकर्ता लगते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो सोशल साइट्स पर सेक्युलरिज्म के नाम पर ऊलजुलूल बातों को पोस्ट करते हैं, उन पर कमेंट करते हैं। ऐसा लग रहा है कि मीडिया और सोशल साइट्स पर दो मोर्चे खुले हुए हैं और दोनों का एक ही लक्ष्य है, अपने विरोधियों को शिकस्त देना। आगामी लोकसभा चुनाव के बाद हो सकता है कि ये दोनों मोर्चे (हिंदुत्ववादी और सेक्युलरवादी) मीडिया, फेसबुक और ट्विटर से गायब हो जाएं, क्योंकि तब तक इनका अभीष्ट पूरा हो चुका होगा। हां, इसका खामियाजा भुगतेंगे इस देश के करोड़ों हिंदू और मुसलमान। सोशल नेटवर्किंग से धार्मिक कट्टरता का पाठ पढ़ चुके लोग जब समाज में बैठेंगे, तो वहां भी विष वमन ही न करेंगे? और नतीजा...? यह होगा कि हिंदू-मुसलमान एक दूसरे को फूटी आंखों से भी देखना पसंद नहीं करेंगे।
ऐसी हालत में दोनों धर्मों के लोगों को सिर्फ एक बात समझने की जरूरत है। हिंदुओं को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि इस देश से मुसलमान कहीं नहीं जाने वाले हैं। 16 करोड़ मुसलमानों को क्या समुद्र में फिंकवाया जा सकता है? क्या उन्हें पाकिस्तान या बांग्लादेश भेजा जा सकता है? क्या इन मुसलमानों को इस्लामी मुल्क का ठप्पा लगाए बैठे किसी दूसरे देश में भेजा जा सकता है? निश्चित तौर पर नहीं। जब भारत के नागरिक इन मुसलमानों को हिंदुस्तान में ही रहना है, तो क्यों न उन्हें भी हिंदुओं की तरह जीने दिया जाए। उनके साथ दोस्ताना व्यवहार किया जाए, उन्हें अपना हमदर्द पड़ोसी मानकर उनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाए। उन्हें अपने धार्मिक रिवायतों के साथ जीवन निर्वाह की सहूलियत दी जाए। और मुसलमानों को भी अपने दिमाग में एक बात अच्छी तरह से बिठा लेनी चाहिए कि इस देश के प्रति जितने जवाबदेह यहां रहने वाले हिंदू हैं, उतनी ही जवाबदेही उनकी भी बनती है। आज से आठ सौ साल पहले भले ही बाबर विदेशी आक्रांता रहा हो, लेकिन उसकी बाद के वंशजों ने इसे अपना ही मुल्क माना। यदि उनके वंशजों के दिलोदिमाग में विदेशी होने की बात होती, तो मुगलिया खानदान के शासकों ने हिंदुस्तान में इतनी खूबसूरत इमारतों को तामीर नहीं कराया होता। दिल्ली और आगरे का लाल किला, आगरे का ताजमहल जैसी विश्व प्रसिद्ध इमारतें वजूद में न आई होतीं। मुगल बादशाह हुमायूं के बाद की पीढ़ी ने यहां की प्रजा को अपनी प्रजा मानकर उनके सुख-दुख में एकसार होने का प्रयास किया, तो आज के मुसलमान ऐसा क्यों नहीं कर सकते? वे अपने पड़ोसी हिंदुओं से कटकर अपना विकास नहीं कर सकते हैं। उन्हें अगर किसी तरह की तकलीफ होती है, तो उसका निराकरण करने उनका पड़ोसी हिंदू ही आएगा। फिर यह जाति-धर्म का झमेला क्यों? अक्सर ऐसा देखा जाता है कि जब भी भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच होता है, तो कुछ शहरों के कुछ विशेष हिस्सों में तनाव की स्थिति पैदा हो जाती है। भारत जिंदाबाद के साथ-साथ पाकिस्तान जिंदाबाद के भी नारे गूंजते हैं। क्या ऐसा करना किसी भी दृष्टिकोण से जायज है? कोई भी वतनपरस्त मुसलमान इसको पसंद नहीं करेगा। टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा की भले ही पाकिस्तानी नागरिक से शादी हो गई हो, लेकिन वे आज भी पाकिस्तान के बजाय हिंदुस्तान के लिए खेलती हैं। यह उनकी मादरेवतन के प्रति प्रेम और निराशा को दर्शाता है। हर देशवासी को यह बात समझ लेने की जरूरत है कि भारत-पाक बंटवारा एक हकीकत है। इसे कोई झुठला नहीं सकता है। सन 1947 में एक ही घर के दो टुकड़े हुए थे, तो क्या उनके आपसी रिश्ते खत्म हो गए थे? हां, दोनों देशों के सियासतदानों ने भौगोलिक बंटवारे के साथ-साथ दिल भी बांट लिया था। लेकिन आज जरूरत है कि हिंदू अपने मत और संप्रदाय के मुताबिक आचरण करें, मुसलमान अपने। अगर हिंदू और मुसलमानों के धार्मिक नेता उकसावे की राजनीति न करें, तो ऐसा संभव भी है। रोजी-रोटी, हारी-बीमारी और भुखमरी के दुष्चक्र में फंसी आम जनता को कहां इतनी फुर्सत है कि वह धार्मिक मुद्दों को लेकर अपने भाई-बंधुओं, टोले-मोहल्ले के लोगों से उलझता फिरे। यह उलझन पैदा करते हैं अपने वोट बैंक की राजनीति करने वाले सियासी दलों और धार्मिक संगठनों के नेता।
इस देश में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आजादी के बाद हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई विभिन्न धर्म और मतावलंबी न होकर वोट बैंक में तब्दील हो गए हैं। सबको धार्मिक और जातीय आधार पर बंटे वोट बैंक के रूप में देखा जा रहा है। इस घिनौनी राजनीति ने तो हिंदुओं में भी कई विभेद पैदा कर दिए हैं, ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया, दलित। इतने पर भी संतोष नहीं हुआ, तो इनमें भी दलित, महादलित जैसे विभेद पैदा कर दिए गए। देश का नेतृत्व अगर मानवीय और सहिष्णु हो, तो हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई जैसे धर्मों के लोग बड़े प्रेम से रह सकते हैं। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण सन् 1857 में हुए गदर के दौरान देखा गया। इतिहास गवाह है कि जब सन् 1857 का गदर चल रहा था, तो उत्तर भारत के पंडितों और मौलवियों का भाईचारा दुनिया के सामने सांप्रदायिक एकता का एक बेमिसाल उदारण बनकर   उभरा था। अवध, रुहेलखंड, झांसी, कानपुर, बनारस, पटना, दिल्ली आदि रियासतों के हिंदू-मुसलमान कितनी शिद्दत से एक दूसरे से कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ रहे थे। अवध प्रांत की राजधानी लखनऊ का मूल निवासी पीर अली पटना में हिंदू विद्रोहियों का नेतृत्व कर रहा था। यही नहीं, उत्तर भारत के पंडित-पुरोहित अपने जजमानों से कहते थे कि वे चारों धाम की यात्रा पर जाएं। वहीं मौलवी अपने धर्मानुयायियों से हज करने जाने पर जोर दे रहे थे, ताकि लोग अपने घरों से निकलें और देश में हो रही विद्रोही गतिविधियों से परिचित हों। मंदिरों और मस्जिदों में पंडित और मौलवी अंग्रेजों के खिलाफ एक साथ मिलकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जनता के भड़का रहे थे। उत्तर भारत में अंग्रेजी सेना पर ‘हर हर महादेव’ और ‘दीन दीन’ कहकर टूट पड़ने वालों ने कभी एक दूसरे से नहीं पूछा कि तुम्हारा मजहब या धर्म क्या है? फिर हम अपने देश की खुशहाली, समृद्धि और शांति के लिए एक होकर नहीं रह सकते हैं? रह सकते हैं, बशर्ते यह सियासत हमें एक रहने दे, तब। सत्ता की सीढ़ियां तो धर्म, जाति, संप्रदाय, भाषा और क्षेत्र की उठापटक और लड़ाई-झगड़े से होकर जाती है। आज यह समय आ गया है, जब इस देश के राजनीतिज्ञों से यह पूछा जाए कि अगर इस देश के मुसलमान अवांक्षित हैं, तो वे जाएं कहां?

Monday, July 22, 2013

बप्पा मर गए

-अशोक मिश्र
किसी बहुत पुराने समय में किसी गांव में रहते थे बप्पा। बप्पा का एक ही बेटा था। कलकत्ता शहर में रहता था। छह महीने बाद बेटा शहर से गांव आया, तो जाते समय उसने बप्पा से कहा, ‘बप्पा! इन दिनों खेत का भी काम नहीं है, क्यों न आप मेरे साथ शहर चलें। आपने जिंदगी भर शहर भी नहीं देखा है।’ बप्पा भी पता नहीं किस मूड में थे। उन्होंने कहा, ‘चलो...शहर ही घूम आते हैं।’ बप्पा शहर में करीब पंद्रह-बीस दिन रहे और अपने गांव की ओर रवाना हो गए। बेटे ने सोचा कि जब बप्पा शहर आ रहे थे, तो उसकी विवाहिता बहन भी वहीं थी। उसने कहा था, ‘भइया! बप्पा का हाल-चाल बताते रहना।’ जब बप्पा गांव रवाना हो गए, तो उसने सोचा कि दीदी को भी खबर कर दूं। उसने दीदी की ससुराल तार (टेलीग्राम) भेजा, ‘बप्पा घर गए।’ दीदी की ससुराल में तार पहुंचते ही हाहाकार मच गया। अब उस तार को पढ़ने के लिए किसी योग्य व्यक्ति की खोज होने लगी। गांव में सिर्फ हरीशर का बारह वर्षीय बेटा परमेसरा ही छठवीं तक पढ़ा था। परमेसरा की खोज की गई, वह डरता-सकुचाता आया। उसने हिज्जे मिला-मिलाकर पढ़ा, ‘बप्पा...म...र...ग...ए।’
इतना सुनना था कि बप्पा की बेटी दहाड़ मारकर रो उठी। उसने परमेसरा से बिलखते हुए तार छीना और धोती-कपड़ा उठाकर मायके की ओर चल पड़ी। मायके की डांड़ (चौहद्दी) पर पहुंचकर दहाड़ मारकर फिर रोने लगी, ‘हाय...हमार...बप्पा...आहाहहह...हाय...हमार...बप्पा...अब हम का करी...।’ गांव के बाहर बाग में खेल रहा बुधई दौड़ता हुआ बप्पा के घर पहुंचा और बप्पा की पत्नी से बोला, ‘काकी...काकी...बहिनी...गांव के बाहर रोती हुई आ रही हैं। लगता है...उनके बप्पा को कुछ हो गया है।’ बप्पा की पत्नी की समझ में आया कि उसके पति बेटे के साथ शहर गए थे, अभी तक लौटे भी नहीं हैं। वहीं उन्हें कुछ हो गया होगा, जिससे उनकी मौत हो गई है। बेटी को तार या चिट्ठी मिली होगी, तभी वह रोती-बिलखती हुई आ रही है। तब तक बप्पा की बेटी भी गांव में प्रवेश कर चुकी थी। गांव की कुछ महिलाएं उत्सुकतावश गांव के बाहर आ गईं। गांव की बेटी को रोती देखकर वे भी टसुए बहाने लगीं। उनको रोता देखकर बेटी ने फिर से छाती पीटते हुए कहा, ‘हाय...हमार बप्पा...हमका...अंतिम...समय...मां...आपन मुहौ (मुंह) नाही देखायव...हाय रे दइया...अब हम का करिवै...बप्पा।’ रोती बिलखती बेटी घर पहुंची, तो उसके आने की सूचना पहले ही पहुंच चुकी थी। गांव की अड़ोस-पड़ोस की महिलाएं और लोग दरवाजे पर जमा हो चुके थे। बेटी को देखते ही उसकी मां भी जोर-जोर से हिचकी लेकर रोने लगी। बप्पा की पत्नी भी छाती पीटती हुई रोने लगीं, ‘हाय...हमार...बपई...शहर...गए...रह्यो...घूमै टहरै का। हम का जानित रहै, अब न लौटिहौ..जौ जानि पाइत..तौ शहर काहे जाय देइत...।’
यह सुनते ही वहां मौजूद महिलाएं कोरस में रोने लगीं। बप्पा की बेटी या पत्नी में से कोई एक ऊंचे स्वर बैन (मरने वाले को याद करते हुए कुछ कहकर रोना) करती, तो मौजूद महिलाएं उसी को दोबारा कहकर फिल्म रुदाली वाले अंदाज में रोने लगतीं। सुबह आठ-नौ बजे पहुंची बेटी ने जब देखा कि दोपहर के दो बज गए हैं, तो वह धोती-ब्लाउज उठाकर रोती हुई गांव के बाहर स्थित तालाब की ओर चल दी। हिंदू समाज में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है कि किसी की भी मौत होने पर उसके घर और भाई-पट्टीदारी की महिलाएं तालाब या नदी में नहाती हैं। इसके बाद ही पुरुष भी तालाब या नदी में नहाने जाते हैं। बेटी को नहाने जाते देखकर बप्पा की पत्नी और टोले-मोहल्ले की महिलाओं ने भी कपड़ा उठाया और तालाब की ओर चल दीं। रास्ते में और नहाते समय भी महिलाएं विलाप करती रहीं। घर के बाहर जमा पुरुष बप्पा के बारे में बात करके दुखी हो रहे थे। किसी ने कहा, ‘बप्पा बहुत दयालु थे।’ तो किसी ने पुराने दिनों को याद करते हुए कहा, ‘एक बार बप्पा नौरइया की बगिया से होकर शाम को कहीं जा रहे थे। बगिया में एक पीपल का पेड़ था। उस पेड़ पर बरम (ब्रह्म-पिशाच) रहता था। वह बप्पा के सामने आया और बोला, इधर से नहीं जाने देंगे। बप्पा भी अड़ गए। भइया...रात भर दोनों में मल्ल जुद्ध होता रहा। कभी बप्पा पटकनी देते, तो कभी बरम। न बप्पा हार मानें, न बरम। जब सुबह होने लगी, तो बरम यह कहते हुए गायब हो गया, कल फिर आना। तुमसे जुद्ध करके मजा आया। सुबह मैं उधर से जा रहा था। देखा, बप्पा बेहोस पड़े आंव-बांव बक रहे हैं। एक सौ चार-एक सौ पांच डिगरी बुखार चढ़ा हुआ था। बड़ी मुश्किल से उस बार बप्पा की जान बची थी।’
महिलाएं जब तालाब से नहाकर घर आईं, तो बेटी ने चूल्हा जलाया और अपनी मां से पूछा, ‘अम्मा...बप्पा मरे कब?’ मां ने कहा, ‘बिटिया ई तो तुमही बताइहौ। तुमही रोती-पीटती यहां आई थी।’ बेटी ने कहा,‘अम्मा! भइया का तार आवा रहा कि बप्पा मर गए। यह देखौ तार।’ इतना कहकर उसने अपने झोले में से तार निकाला और अम्मा को थमा दिया। अम्मा तार लेकर गांव के ही मथुरा प्रसाद के पास गईं। बप्पा के मरने पर लोगों के साथ नदी नहाकर वे लौटे थे। उन्होंने तार पढ़कर हंसते हुए कहा, ‘इसमें लिखा है, बप्पा घर गए।’ फिर बप्पा अभी तक घर क्यों नहीं पहुंचे? दरअसल, बात यह थी कि जब बप्पा घर की ओर आ रहे थे, तो उन्होंने सोचा, रास्ते में ससुराल है। बहुत दिन   हुए सलहज (साले की पत्नी) से हंसी-ठिठोली नहीं की है। सो, उससे भी मिलते चलें। और...रसीली सलहज ने उन्हें पंद्रह दिन तक आने नहीं दिया था।ं

Tuesday, July 16, 2013

हम तो ‘फेंक’ चुके सनम

अशोक मिश्र
उस्ताद गुनाहगार के घर पहुंचा, तो वे कुछ लिखने पढ़ने में मशगूल थे। चरण स्पर्श करते हुए कहा, ‘क्या उस्ताद! पॉकेटमारी का धंधा छोड़कर यह बाबूगीरी कब से करने लगे?’ गुनाहगार ने चश्मा उतारकर मेज पर रखते हुए कहा, ‘क्या करूं? दोस्तों की बात तो माननी ही पड़ती है। मेरे एक मित्र हैं लतखोर सिंह। पॉकेटमारी के धंधे में हम दोनों गुरु भाई हैं। उनका भी अच्छा भला धंधा चल रहा था। एक दिन पता नहीं किस कुसाइत (बुरे समय) में उन्होंने एक नेता का पॉकेटमार दिया। तब से न उन्हें दिन को चैन है, न रात को। उनको खब्त सवार है कि नेता बनेंगे? मैंने उन्हें लाख समझाया कि नेतागीरी बड़ी खतरनाक बीमारी है। इसके बैक्टीरिया जिसको एक बार लग जाते हैं, वह किसी काम का नहीं रहता। दिन भर लंबी-लंबी फेंकता है, रात में पगुराता है। सुबह उठकर फिर फेंकने लगता है। नहीं माने, तो मैंने सुझाव दिया कि आपके चरित्र को आधार बनाकर अगर फिल्म बनाई जाए, तो हो सकता है कि आप राजनीति में स्थापित हो जाएं। तुम तो इस पुरानी कहावत से वाकिफ ही हो। जो बोले, सो कुंडी खोले। आगामी फिल्म ‘हम तो ‘फेंक’ चुके सनम’ की पिछले चार दिन से पटकथा लिख रहा हंू। ससुरा पूरा ही नहीं हो रहा है। इस करेक्टर को सुधारता हूं, तो दूसरा बिगड़ जाता है। दूसरे को सुधारो, तो तीसरा बिगड़ने पर उतारू हो जाता है।’
मैंने उनकी बात सुनकर उत्साहित स्वर में कहा, ‘हीरो की तलाश पूरी हो गई? मेरा भी चेहरा-मोहरा हीरो जैसा ही लगता है। वैसे आप कुछ पैसे न भी दिलाएं, तो भी मैं आपकी खातिर हीरो बनने को तैयार हूं।’ उस्ताद गुनाहगार ने झिड़कते हुए कहा, ‘बाजू हट, हवा आने दे! कभी आईने में शक्ल देखी है? हीरो बनेगा? अरे! इस फिल्म का हीरो कोई सुपरलेटिव डिग्री का राजनीतिक फेंकू होगा। फेंकने की कला में पारंगत होने के साथ-साथ जिसका करैक्टर दागी हो, भ्रष्टाचार, हत्या, बलात्कार, दंगा करने और कराने के सौ-पचास केस चल रहे हों। जिसके घर में भले ही आज से दस-बीस साल पहले भूजी भांग न रही हो, लेकिन आज हर शहर में आलीशान कोठी हो, स्विस बैंक में दस-बीस नामी-बेनामी खाते हों। चुनाव के दौरान अपने मतदाताओं को लंबी-लंबी फेंककर उन्हें रिझाने में माहिर हो। ऐसा ही कोई सर्वगुण सम्पन्न नेता ही इस सुपर-डुपर साबित होने वाली फिल्म का हीरो हो सकता है। कांग्रेस में एकाध चेहरे हैं। जिन पर विचार किया जा सकता है। ये चेहरे उच्च स्तर के लंतरानीबाज हैं। ऐसी लंतरानी हांकते हैं कि कई बार तो उनकी ही समझ में नहीं आता कि वे कितनी ऊपर की फेंक गए हैं। अगर इनमें से किसी से डील हो गई, तो समझो हीरो के आने-जाने का खर्चा बच जाएगा। इस पार्टी के ज्यादातर लंतरानीबाज तो विदेश में ही डेरा जमाए रहते हैं। जिस जगह ये हों, उस जगह अपनी यूनिट लेकर पहुंच जाओ, शूटिंग करो। कांग्रेस से डील होने पर कम बजट में ही फिल्म तैयार हो जाएगी।’ हीरो बनने का चांस न दिखने से वार्ता में मजा नहीं आ रहा था। मैंने मरी-सी आवाज में कहा, ‘क्या इस फिल्म में कांग्रेसिये ही ऐक्टिंग करेंगे? दूसरी पार्टी वाले नहीं?’ मेरी बात सुनकर गुनाहगार मुस्कुराए, ‘बेहाल काहे होते हो? अब तुम इच्छुक हो, तो तुम्हें भी कोई न कोई रोल जरूर देंगे।
तनिक धीरज धरो। हां, तो मैं कह रहा था? भाजपा में भी फेंकुओं का स्टॉक कांग्रेस से कम नहीं है। एक तो जग प्रसिद्ध फेंकू हैं। उनके अलावा, कुछ दूसरे भी फेंकू हैं। उनसे भी बातचीत चल रही है। मेरा मानना है कि इस फिल्म को हीरो तो इसी पार्टी से मिल सकता है। एकदम नेचुरल...बिना कोई डेंटिंग-पेंटिंग किए, जब चाहो शूटिंग कर लो। बस, एक ही खतरा है। कहीं डायलाग बोलते बोलते..‘राघवी’ नैतिकता की बात करने लगे, तो सारा गुड़ गोबर हो जाएगा।’ गुनाहगार ने अपनी दोनों टांगें मेज पर पसारते हुए कहा, ‘अगर दोनों दल मान गए, तो स्क्रीन टेस्ट लेने के बाद एक दल के नेता को हीरो और दूसरे दल के नेता को विलेन का रोल दे दूंगा। साइड रोल में बसपा, सपा, जदयू, राजद आदि पार्टियां रहेंगी। इन दलों के महत्वपूर्ण पदाधिकारियों से बात हो चुकी है। ये लोग तैयार भी हैं।’ मैंने उकताए स्वर में पूछा, ‘आपकी इस फिल्म में सभी पुरुष ही होंगे? महिलाओं की कोई गुंजाइश है या नहीं? एकाध आइटम सॉन्ग के साथ-साथ हीरोइन के लटके-झटके भी रखिएगा कि नहीं?’ मेरी बात सुनकर उस्ताद गुनाहगार ठहाका लगाकर हंस पड़े, ‘बिना हीरोइन या आइटम सांग के अपनी फिल्म पिटवानी है क्या? हीरोइन तो सन 2045 की भावी विश्व सुंदरी छबीली रहेगी न! आय-हाय! क्या फोटोजनिक चेहरा है छबीली का? पब्लिक तो पागल हो जाएगी? बस..एक बार छबीली को फिल्मी दुनिया में डेब्यू करने दो। क्या धमाका करेगी फिल्मी दुनिया में। बॉलीवुड लेकर से ढॉलीवुड तक सिर्फ छबीली के ही चर्चे होंगे। हां, कल्लो भटियारिन के दो आइटम सॉन्ग रखने की सोच रहा हूं, लेकिन लाख कोशिश करके भी सिर्फ एक की ही गुंजाइश बन पा रही है। खैर..देखता हूं, कैसे गुंजाइश निकलती है।’ इतना कहकर उस्ताद गुनाहगार अपनी स्क्रिप्ट में उलझ गए और मैं अपने घर आ गया।

Tuesday, July 9, 2013

‘चूजे’ का गलत-सलत मतलब

अशोक मिश्र
रविवार की सुबह बाहर बैठा एक बित्ते की दातून चबा रहा था कि पास ही आवाज गूंजी, ‘कुकुडक्कूं।’ मैंने देखा, कुछ दिन पहले अंडा फोड़कर बाहर आया मुर्गी का चूजा फुदकता हुआ मेरी ओर आ रहा है। मैंने उसे सवालिया नजरों से देखा। वह पास आया और बोला, ‘कुकुडुक्कूं! आप मानवों पर हमारी चूजा बिरादरी ने कुछ गंभीर आरोप लगाए हैं। हमारा दो घंटे बाद मुर्गी फार्म में एक सभा आयोजित की गई है। आपको वहां उपस्थित होना है।’ मैं आश्चर्यचकित रह गया। मैंने चूजे को झिड़क दिया, ‘क्या है बे! मुझे इतना फालतू समझ रखा है। अबे तू यहां से जा। अगर मुझे तुझसे बातचीत करते घरैतिन ने देख लिया, तो आफत आ जाएगी। आजकल चूजे का कुछ गलत-सलत मतलब निकाला जाने लगा है।’ मैं एक बार फिर दंग रह गया, जब चूजे ने मेरी बात सुन ली और समझ भी ली, ‘मैं अभी तो जा रहा हूं, लेकिन ठीक दस बजे छबीली कुक्कुट फार्म पर पधारिएगा जरूर। बाद में मत कहना कि चूजों और मुर्गियों ने आप मनुष्यों के खिलाफ कुछ ऐसा-वैसा प्रस्ताव पारित कर दिया।’ इतना कहकर चूजा फुदकता हुआ चलता बना। मैं दातून हाथ में लिए सोचता रह गया कि वहां जाऊं, न जाऊं। तभी घरैतिन की आवाज आई, ‘सारा दिन दातून ही करते रहेंगे क्या?’ मैंने झटपट कुल्ला-दातून किया और तय कर लिया कि चूजों के सम्मेलन में जरूर जाऊंगा।
नियत समय पर पहुंचा, तो देखा कि मुर्गियों और चूजों ने बाकायदा एक मंच बना रखा है। विभिन्न तरह के चूजे और मुर्गियां कुर्सियों पर विराजमान थे। एक बुजुर्ग मुर्गी को सभा की अध्यक्षता सौंपी गई। पहुंचते ही सभी चूजों और मुर्गियों ने ‘कुकुडुक्कूं’ की ध्वनि के साथ मेरा स्वागत किया। मुझे एक कुर्सी पर बिठाया। एक नए-नए जवान हुए मुर्गे ने संयोजक का कार्यभार संभाला। उसने एकाध बार ‘हेल्लो माइक टेस्टिंग हेल्लो’ कहा और शुरू हो गया, ‘आज इस सभा की जरूरत इसलिए आ पड़ी कि अब मनुष्यों ने हमारी जाति को ही बदनाम करना शुरू कर दिया है। अब वह अपने कर्म-कुकर्म को छिपाने के लिए हम चूजों का उपयोग कोड वर्ड में करने लगा है। एक मंत्री महोदय तो खुले आम कहने लगे हैं कि इस बार आना तो चूजे लेकर आना। अगर मनुष्य अट्ठारह से बीस साल के बीच की लड़कियों का नाम चूजा रखना चाहता है, तो हमें इस पर कोई आपत्ति भी नहीं है। मनुष्य इस पृथ्वी का सबसे बुद्धिमान प्राणी है। उसके पास भाषा है, व्याकरण है, आचरण है, दुराचरण है, कर्म है, धत्कर्म है। वह अपनी बहन-बेटियों को चूजा कहने में गर्व महसूस करता है, तो करे। हम इसका विरोध क्यों करें, लेकिन उससे यह अनुरोध तो किया ही जा सकता है कि वह हमारा नाम बदल दे। वह हमारे भाइयों को किसी और नाम से पुकारे।’
इतना कहकर उसने अपनी बात का प्रभाव जांचा और कहना शुरू किया, ‘इंसानों ने हम मुर्गे-मुर्गियों को लेकर कई तरह के मुहावरे और कहावतें गढ़ीं। हमने कोई विरोध नहीं किया। जब भी किसी इंसान की मेहनत दूसरा हड़प लेता है, तो वह झट से कह बैठता है, मेहनत करे मुर्गा, अंडा खाय फकीर। हम में इतनी बुद्धि नहीं है कि हम रिश्तों-नातों की गरिमा समझ सकें या उसका निर्वाह कर सकें। हमारे यहां बाप, भाई, मां, बाप, बहन, बेटी जैसे रिश्ते हैं ही नहीं। इसका महत्व भी नहीं जानते, लेकिन मनुष्य को इस बात की इजाजत नहीं दी जा सकती है कि वह हमें बदनाम करता फिरे। मैं कल का वाकया सुनाऊं। इस फार्म हाउस की मालकिन छबीली अपने दरवाजे पर खड़ी पड़ोसी शर्मा जी से बतिया रही थी, तो सामने वाले वर्मा जी का बेटा अपने किसी दोस्त से कह रहा था, यार! शर्मा जी ने लगता है, मुर्गी फंसा ही लिया। मैं दिन भर परेशान रहा कि आज पता नहीं किस मुर्गी के हलाल होने की बारी थी। शाम को जब सभी मुर्गे-मुर्गियां दरबे में आ गईं, तो मैंने गिना। सभी मौजूद थीं। सुबह वर्मा जी के बेटे से पूछा, तो वह अश्लील ढंग से मुस्कुराता हुआ बोला, मुर्गी फंस गई का मतलब है कि छबीली आंटी शर्मा अंकल से ‘सेट’ हो गईं। अब भला बताओ। इसमें मुर्गियों का क्या दोष?
सभा के माध्यम से मैं मांग करता हूं कि इंसान या तो अपने मुहावरे बदले या फिर हम लोगों के नाम। हमें इस बात से कोई गिला-शिकवा नहीं है कि वह जब चाहता है, हमें हलाल करके खा जाता है। हम भी तो कीड़े-मकोड़ों को खाकर जिंदा रहते हैं। प्रकृति ने हमें इंसानों के भोजन के रूप में पैदा किया है, तो हमें उससे कोई उज्र नहीं है, लेकिन उसके कर्मों-कुकर्मों को अपने सिर ओढ़ने को तैयार नहीं हैं।’ संचालक के इतना कहते ही वहां उपस्थित सभी मुर्गे-मुर्गियों और चूजों ने समवेत स्वर में ‘कुकुडुक्कूं’ कहकर अपना विरोध जताया। सभा की अध्यक्षता कर रही मुर्गी ने लगभग धमकाते हुए कहा, ‘इंसान इस दुनिया का सबसे गंदा, स्वार्थी और वाहियात प्राणी है। अगर उसने भविष्य में कोई कुक्कुट विरोधी बात की, तो उसके खिलाफ आंदोलन किया जाएगा।’ इतना कहकर अध्यक्ष मुर्गी जी ने सभा बर्खास्त कर दी। मैं बिना कोई जिरह या सफाई पेश किए घर लौट आया। छबीली के कुक्कुट फार्म से निकलते देख घरैतिन ने जो बखेड़ा खड़ा किया, उसका किस्सा फिर कभी सुनाऊंगा।

Friday, July 5, 2013

फेंकू भाई जिंदाबाद!

-अशोक मिश्र
आदरणीय भाई फेंकू, आप महान हैं। वाकई आप महान है। आपकी महानता का पता पूरी दुनिया को इस बात से चल जाना चाहिए कि मेरे जैसा लंतरानीबाज भी आपको उस्ताद मानने पर मजबूर हो गया है। आपकी फेंकने की क्या अदा है? बलिहारी जाऊं, आपकी इस अदा पर। जी चाहता है कि लपककर आपका मुंह चूम लूं, लेकिन दिक्कत यह है कि आप भी दाढ़ी रखते हैं और मैं भी। आपकी दाढ़ी के बाल सफेद हो गए हैं, मेरे अभी नब्बे फीसदी काले हैं। आपको बता दूं कि मैं बचपन से लेकर आज तक सिर्फ फेंकता ही आ रहा था। ऐसी-ऐसी फेंकता था कि घर वाले भी हैरान परेशान हो जाते थे। मेरे पिता जी अक्सर कहते थे कि बारह साल नली में रहने के बाद कुत्ते की पूंछ भले ही सीधी हो जाए, लेकिन यह लड़का नहीं सुधरेगा। और सचमुच... मैं नहीं सुधरा। मुझे सुधारने और सुधरा देखने की चाह लिए मेरे पूज्य पिता जी इस असार संसार को अलविदा कह गए। मरते समय उन्होंने मुझसे कहा भी था कि तुम्हें कोई तुमसे बड़ा फेंकू ही सुधार सकता है, दूसरा कोई नहीं। और आप देख लीजिए... मैंने आपको अपना उस्ताद मान लिया है। आपका मार्गदर्शन मिल जाए, तो मैं आपके बाद दुनिया का सबसे बड़ा फेंकू हो सकता हूं।
उस्ताद, मुझे आपसे एक शिकायत है। आप भगवान राम के उपासक हैं, यह जगजाहिर है। आपको भगवान राम का पुष्पक विमान मिल गया है, यह आपने न तो अपने इस अकिंचन शार्गिद को बताया, न ही पार्टी वालों को। इतना तो मैं भी जानता हूं कि रावण का वध करने के बाद भगवान राम पुष्पक विमान से अयोध्या आए थे, लेकिन उसके बाद वह पुष्पक विमान कहां गया, इसकी जानकारी शायद ही किसी को रही हो। जानते हैं उस्ताद, आपके आपदाग्रस्त क्षेत्र में जाने और पंद्रह हजार गुजरातियों को पुष्पक विमान पर बिठाकर सुरक्षित निकाल लाने पर भी ये कमअक्ल विरोधी हाय तौबा मचा रहे हैं। वैसे, इस मामले में मेरा ख्याल पूरी दुनिया से कुछ हटकर है। मेरा मानना है कि पुष्पक विमान के साथ-साथ आपके हाथ अलादीन का वह चिराग भी लग गया है, जिसको रगड़ने पर एक जिन्न प्रकट होता है और पूछता है, हुक्म मेरे आका। आपने पुष्पक विमान पर बैठकर आपदाग्रस्त क्षेत्र का सर्वेक्षण किया, पुष्पक विमान में ही अलादीन का चिराग रगड़ा और प्रकट हुए जिन्न को गुजरातियों को चुन-चुनकर लाने का हुक्म फरमा दिया। बस हो गया चमत्कार! अब आपको कोई गरज तो पड़ी नहीं है कि आप दुनिया को सफाई देते फिरें। आपका काम था अपने प्रदेशवासियों की रक्षा करना। सो, आपने किया। अब इसका प्रचार थोड़े न करना था आपको! इन विरोधियों को क्या कहा जाए। आप चुपचाप अपने काम में लगे रहिए, आखिरकार अपना मुंह पिटाकर ये विरोधी एक दिन चुप होकर बैठ जाएंगे। उस्ताद, आप शायद नहीं जानते हों कि मैं लखनऊ में रहकर पला-बढ़ा हूं। लखनऊ तो फेंकुओं की राजधानी है। वहां की सरजमीं पर एक से बढ़कर एक फेंकू पैदा हुए हैं। आपको दो फेंकुओं की कथा सुनाता हूं। वे भी शायद आपसे दो-चार जूता पीछे ही हैं। एक नवाब दूसरे नवाब के यहां गया। दोनों खा-पीकर बैठे, तो फेंकने लगे। एक नवाब ने दूसरे से कहा, ‘एक बार मैं बंदूक लेकर शिकार करने गया। ऊपर आकाश की ओर देखा, तो एक कबूतर सूरज के आसपास मंडरा रहा था। मैंने गोली चलाई, जो जाकर कबूतर के लगी। कबूतर गिरा, तो मैंने उसे कैच कर लिया, देखा...उसका मांस भुना हुआ था। बस, नमक-मिर्च लगाना था। मैंने नमक-मिर्च लगाकर उसे खा लिया।’ दूसरे फेंकू ने कहा, ‘अरे! जाओ...यह भी कोई बहादुरी हुई? एक बार मैं शिकार करने गया, तो एक शेर से मुठभेड़ हो गई। मैंने शेर को देखते ही गोली दागी। शेर भागा। गोली उसके पीछे दौड़ी। तो जनाब हुआ क्या कि कभी गोली आगे, तो कभी शेर आगे। कभी शेर आगे, तो कभी गोली आगे। शेर भागता-भागता एक पहाड़ के सामने जा पहुंचा, गोली उस शेर को लग गई। मैंने देखा कि शेर पांच सौ फीट का तो रहा ही होगा।’ इतना सुनकर पहला नवाब चिल्लाया, ‘झूठ...झूठ...पांच सौ फीट का शेर तो हो ही नहीं सकता।’ दूसरे नवाब के पास खड़े एक दरबारी ने इशारा किया कि हुजूर! शेर की लंबाई कुछ घटाइए। दूसरे नवाब ने कहा, ‘नहीं...चूंकि मैं दूर था, सो हो सकता है कि मेरा अंदाजा गलत हो। लेकिन साहब...चार सौ फीट का तो रहा ही होगा।’ पहले वाले के आपत्ति जताने पर दूसरे नवाब ने फिर कहा, ‘नवाब साहब! मैं यह सब आपको अंदाजे से बता रहा हूं। जब मैं शेर के पास पहुंचा, तो मैंने फीता निकाला और शेर को नाप लिया। तो हां साहब...शेर पचास फीट का निकला।’ पहले नवाब ने खिल्ली उड़ाते हुए कहा, ‘क्या जनाब! कहीं पचास फीट का शेर होता है? आप भी लंतरानी हांकते हैं।’ पास खड़े दरबारी ने नवाब साहब को शेर की लंबाई कम करने का इशारा किया, तो दूसरे नवाब ने झल्लाते हुए कहा, ‘अबे! अब कैसे घटाऊं...अब तो नाप दिया है।’ आदरणीय भाई फेंकू...आप इन नवाबों से भी चार जूता आगे निकल गए। हालांकि आपसे भी वही गलती हो गई। आपने शेर को फीता रखकर नाप दिया है, लेकिन इससे आपकी महानता कम नहीं होती, साहब! मैं तो अब भी कहता हूं, फेंकू भाई जिंदाबाद!