Tuesday, July 30, 2013

खतरे में हैं ‘हम’

विलुप्त होते पशु-पक्षियों को बचाने की जद्दोजहद और कॉरपोरेट घरानों की मक्कारी

विलुप्त होने के कगार पर हैं कई जीव-जंतु और पेड़-पौधे। इससे असंतुलित हो रहा है प्रकृति का तानाबाना। अगर समय रहते नहीं चेते, तो धरती का संतुलन बिगड़ सकता है। इसके लिए जिम्मेदार होंगे सिर्फ और सिर्फ हम और आप...। इसी मुद्दे पर पढ़िए खास रिपोर्ट...
-अशोक मिश्र
चूं-चूं करती आई चिड़िया/चोंच में दाना लाई चिड़िया। शायद एकाध दशक बाद कोई भी बच्चा यह गीत गाता नहीं मिले। चिड़िया इतिहास की वस्तु हो जाए। हमारे जीवन में उसका स्थान ही न रहे। बच्चे किताबों और म्यूजियम में देखकर आश्चर्य से मुंह फैलाकर कहें, ऐसी होती थी चिड़िया। पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक दशक पहले तक छोटे बच्चों को खाना खिलाते समय माएं कहा करती थीं, ‘तिलोरी मौसी आओ, तो भैया को खिलाओ तो। दूध-बताशा लाओ तो।और इतना कहकर हाथ में लिया हुआ कौर बच्चे के मुंह में डाल देती थीं। खाते समय बच्चे का ध्यान खाने की मात्रा पर न जाए, इसके लिए कुछ न कुछ गाना या इसी तरह का कुछ करतब दिखाना अनिवार्य था। अब न अपने बच्चों को उस तरह गीत गा-गाकर दूध-बताशा खिलाने वाली माएं रहीं, न बच्चों की प्रिय तिलोरी मौसी ही बहुतायत में रही। बच्चों को अपने पर्यावरण से जोड़ने, चिड़िया, कबूतर, कुत्ता, बिल्ली, मेंढ़क, सांप, छछूंदर, झींगुर आदि का महत्व बताने के लिए इनका मानवीकरण कर दिया जाता था। सभी जानते हैं कि किसी बच्चे के लिए मौसी कितनी प्रिय होती है, क्योंकि वह मा-
सी’ होती है। हमारी संस्कृति के पुरोधाओं ने तिलोरी को बच्चों को मौसी कहकर उसे मानवीय रिश्तों से जोड़ दिया। वे इस बात को अच्छी तरह से समझते थे कि प्रकृति में जितने भी जीव पाए जाते हैं, उनका आपस में संबंध अन्योनाश्रति है। एक के रहने से ही दूसरे का जीवन संभव है। हमारे आस-पास से अगर एक भी जीव खत्म होता है, तो उसका प्रभाव पूरे मानव समाज पर पड़ता है। तिलोरी, एक तरह की मैना पक्षी होती है, जो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, हरियाणा, पंजाब आदि प्रदेशों में बहुतायत में पाई जाती थी। रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के फसलों में लगातार बढ़ते उपयोग, झाड़ियों, वनों की अवैध कटान और पिछले कुछ दशकों से लगातार बिगड़ते पर्यावरण की वजह से बहुतायत में पाई जाने वाली इस तिलोरी (तेलिया मैना) का दिखना कम हो गया है। खेती में अंधाधुंध और बिना सोचे बिचारे रासायनिक उर्वरकों के उपयोग ने इन पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों को या तो नष्ट कर दिया है या फिर इनकी प्रजनन क्षमता को कम कर दिया है, जिसकी वजह से इनकी वंश वृद्धि लगातार घटती जा रही है। यदि यही हालात रहे, तो एक दिन तिलोरी भी विलुप्त प्राणियों में शामिल हो जाएगी।
और तिलोरी की ही बात क्यों करें। अगर हम अपने आसपास गंभीरता से देखें, तो न जाने कितनी वनस्पतियां, जीव-जंतु, पेड़-पौधे विलुप्त हो चुके हैं। आज से दो दशक पहले तो पाए जाते थे, लेकिन आज खोजने पर भी नहीं मिलते हैं। कहां गए ये? अब क्यों नहीं पाए जाते? इनको हमारे विकास की अमानवीय विकासवादी अवधारणा खा गई। हजारों वनस्पतियों, जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों के विलुप्त होने का कारण दुनिया में चल रही एकांगी विकासवादी नीतियां हैं। इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में जब आदमी की कोई कीमत नहीं रही, तो भला विलुप्त हो गईं या विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई वनस्पतियों को लेकर कौन चिंतित होगा। मुनाफा कमाने की होड़ में लगी बहुराष्ट्रीय कंपनियां, एनजीओज, देशी-विदेशी पूंजीपतियों को सिर्फ अपने लाभ से मतलब है। विशालकाय कल-कारखानों, चमकती सड़कों, गगनचुंबी अट्टालिकाओं को देखकर पूंजीपति ही नहीं, हम सभी कितने मुग्ध हो जाते हैं। गर्व से सिर उठाकर कहते हैं, हमने कितनी तरक्की कर ली है, लेकिन इस तरक्की की हमने क्या कीमत अदा की है, इसकी ओर देखने, सोचने, समझने की कोशिश कभी नहीं की है। हमने विकास तो किया, इसमें कोई शक नहीं है, लेकिन हमने एकांगी विकास के चलते पूरी दुनिया की जैव विविधता को खतरे में डाल दिया है। हजारों जीव-जंतु या तो नष्ट हो गए या फिर निकट भविष्य में नष्ट होने वाले हैं। चिड़िया, गौरेया, फाख्ता, गिद्ध, कौवे जैसे पक्षी हमारे जीवन का हिस्सा थे। हमारे साहित्य में स्थान पाते थे। बच्चे इन्हीं को देख-देखकर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने, इसकी हिफाजत करने का सबक सीखते थे। समाज के भावी नागरिकों को इसके बारे में बताने की जरूरत नहीं महसूस होती थी। वे जीवन संघर्ष के क्रम में सीखते जाते थे। गंगा में पाई जाने वाली डॉल्फिन सहित दूसरी कई प्रकार प्रजाति की मछलियां, मेंढक, सांप आदि हमारे जीवनचर्या में शामिल थे, लेकिन आज...? इन जीवों की ज्यादातर प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। नील गाय, मोर, गीदड़, सियार, रोही बिल्ली, पाटा गोह, उड़ने वाली गिलहरी, कनखजूरे जल्दी ही हमसे विदा मांगने वाले हैं। मानव की लगातार बढ़ती सक्रियता, लिप्सा, विकास की होड़ के चलते खेत, जंगल, पहाड़, तालाब, नदियां, समुद्र, सब संकट में हैं। इसके साथ ही साथ संकट में हैं इन पर या इनमें रहने वाले लाखों-करोड़ों जीव। लगातार बढ़ते जल प्रदूषण ने सिर्फ इनसानों के सामने ही संकट नहीं खड़ा किया है, बल्कि जल में रहने वाले जीव-जंतुओं, पौधों, एक कोशकीय सूक्ष्म और बहुकोशकीय पादपों के सामने भी संकट खड़ा कर दिया है। अगर आंकड़ों पर नजर डालें, तो प्रकृति, पर्यावरण, पहाड़, नदियों, पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं आदि के प्रति संवेदनशील मन अवश्य विचलित हो जाएगा। मानव समाज ने अपनी आवागमन की सुविधा के लिए बड़े-बड़े और अत्याधुनिक हवाई जहाज, जलयान तो बना दिए, दूरसंचार माध्यमों में क्रांति करके मोबाइल   फोन का आविष्कार कर लिया, मोबाइल फोन की हर जगह संबद्धता के लिए बड़े-बड़े टॉवर खड़े कर लिया, लेकिन हवाई जहाजों, मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली  रेडियो तरंगों का कोई विकल्प नहीं खोज पाए। ये तरंगे न केवल पशु-पक्षियों, बल्कि कीट-पतंगों से लेकर मानवों तक के लिए हानिकारक हैं, कई घातक और असाध्य रोगों की जनक हैं। इसके चपेट में आने वाले लोगों को बहुत कष्टमय जीवन बिताना पड़ रहा है।
विलुप्त होने का खतरा
थार की पाटा गोह हो या फोग का पौधा, गंगा की डाल्फिन हो, हिमालय के ग्लेशियर हों या तंजानिया का किहांसी स्प्रे मेंढक, सब पर संकट के बादल लगातार गहराते जा रहे हैं। भारत में 687 पौधों और इतने ही जीवों पर विलुप्त होने का संकट गहरा रहा है। आईयूसीएन की रेड लिस्ट बताती है कि 47,677 में से कुल 17,291 जीव प्रजातियां कब खत्म हो जाएं, कहा नहीं जा सकता है। इसमें 22 प्रतिशत स्तनधारी जीव हैं, 30 प्रतिशत मेंढकों की प्रजातियां हैं, इसमें 70 प्रतिशत पौधे और 35 प्रतिशत सरीसृप जैसे जीव हैं। भारत में ही पौधे और वन्य जीवों की विलुप्त होने की कगार में पहुंच चुकी कुल 687 प्रजातियां में से 96 स्तनपायी, 67 पक्षी, 25 सरीसृप, 64 मछली और 217 पौधों की प्रजातियां हैं।
प्रकृति संरक्षण के लिए काम कर रही संस्था अंतरराष्ट्रीय संघ की निदेशक जुलिया मार्टोन लेफेव्रे का कहना है कि जापान के नागोया में जैव संरक्षण की दशा-दिशा तय करने के लिए हमने बड़ी योजनाएं बनाई थीं, जिसके लक्ष्य एकदम जमीन से जुड़े हुए थे। हमें गति बनाए रखनी होगी। जैव विविधता लगातार कम हो रही है। यह सुरक्षित धरती के लिए जरूरी सीमा भी तोड़ चुकी है। धरती से खत्म हो रही प्रजातियों में 41 फीसदी उभयचर, 33 फीसदी प्रवाल, 25 फीसदी स्तनपायी, 13 प्रतिशत पक्षी और 23 प्रतिशत कोनफर वृक्ष हैं।
खतरे में समुद्री जीव-जंतु
आईयूसीएन के रिपोर्ट के मुताबिक, महासागरों की हालात भी काफी चिंताजनक है। रिपोर्ट से पता चलता है कि समुद्री प्रजातियों में से ज्यादातर जीव-जंतु अत्यधिक मछली पकड़ने, जलवायु परिव
र्तन, तटीय विकास और प्रदूषण की वजह से नुकसान का सामना कर रहे हैं। मछली पकड़ने में उपयोग किए जाने वाले मशीनचालित नावों (ट्रॉलरों) और जलयानों से समुद्र में रहने वाले दूसरे जीव-जंतु बहुत बड़ी संख्या में न केवल घायल होते हैं, बल्कि मर भी जाते हैं। समुद्र का लगातार दोहन करने से शार्क सहित कई समुद्री प्रजाति के जलीय जीव, छह-सात समुद्री प्रजाति के कछुए विलुप्त होने के कगार पर आ गए हैं। चट्टान मूंगों की 845 प्रजातियों में से 27 प्रतिशत विलुप्त हो चुकी हैं। इनमें से 20 प्रतिशत पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। पिछले कुछ दशकों से समुद्री पक्षियों पर खतरा कुछ अधिक है। रिपोर्ट के मुताबिक, स्थलीय पक्षियों के विलुप्त होने की दर 11.8 प्रतिशत है, वहीं 27.5 प्रतिशत की दर से समुद्री पक्षियों पर विलुप्त होने का खतरा है। निकट भविष्य में स्थलीय और समुद्री पक्षियों के विलुप्त होने के प्रतिशत में बढ़ोत्तरी की आशंका है।
डराने लगी है रिपोर्ट
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पशु-पक्षियों के संरक्षण को लेकर सक्रिय संस्था आईयूसीएन (इंटरनेशनल यूनियन कंजरवेशन फार नेचर) की रिपोर्ट चौंकाती ही नहीं, प्रकृति प्रेमियों और पयावरणविदों को डराती भी है। आईयूसीएन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में पाए जाने वाले जीवों में से एक तिहाई विलुप्त होने के कगार पर हैं। यह खतरा हर दिन बीतने के साथ बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट में किहांसी स्प्रे टोड के बारे में खास तौर पर चर्चा की गई है। आईयूसीएन की रिपोर्ट के मुताबिक, मेंढक की यह प्रजाति इसलिए विलुप्त हो गई, क्योंकि जिस नदी में इनका निवास था, उस नदी के ऊपरी हिस्से पर बांध बना दिया गया था। पानी के बहाव में कमी आने से ये मेंढक खत्म हो गए। हमारे देश में भी ठीक ऐसा ही हो रहा है। गंगा, यमुना, राप्ती और व्यास आदि नदियों पर बांध बनाने और बिजली उत्पादन करने की एक होड़-सी लगी हुई है। अभी एक महीने पहले उत्तराखंड में हुई व्यापक तबाही के कारण वहां से निकलने वाली नदियों के उद्गम क्षेत्र पर बनने वाले बांध, पहाड़ों को तोड़ने के लिए उपयोग में लाए जा रहे विस्फोटक हैं। उत्तराखंड की बहुगुणा सरकार इन बांधों के निर्माण के लिए विकास और बिजली उत्पादन का तर्क देकर अपने को बचाने की कोशिश कर रही है। संवैधानिक रूप से नदियों पर बांध बनाना, भले ही अपराध या गैरकानूनी न हो, लेकिन पर्यावरण और मानव जाति के प्रति किया गया अक्षम्य अपराध तो है ही। जिन इलाकों में बहने वाली नदियों पर बांध बनाए गए हैं, उन इलाकों में जल प्रवाह कम हो जाने से जल में रहने वाले जीव-जंतु या तो नष्ट हो गए या भविष्य में नष्ट हो जाएंगे। पिछले दशक में भारत ने कम से कम पांच दुर्लभ जानवर लुप्त होते देखे हैं। ये इंडियन चीता, छोटे कद का गैंडा, गुलाबी सिर वाली बत्तख, जंगली उल्लू और हिमालयन बटेर हैं। कई लोगों को हैरानी होगी कि अभी 2005 में अरुणाचल प्रदेश में दुर्लभ प्रजाति का बंदर मिला था। जियोलॉजिकल सर्वे आॅफ  इंडिया के अनुसार, 2011 में जानवरों की 193 नई प्रजातियां पाई गई थीं। भारत शेर, बाघ, हाथी और गैंडे को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है। हालांकि इस बीच अफ्रीका से इंडियन चीते को लाने के प्रयास भी हुए हैं। लेकिन यह भी सच है कि देश शेरों के लिए उपयुक्त वैकल्पिक रिहाइश खोज पाने में सफल नहीं हो पा रहा है। यह सब इंसान के लालच और जंगलों के कटाव के कारण हुआ है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन आॅफ नेचर (आईयूसीएन) ने चेतावनी दी है कि इस समय पूरी दुनिया में 929 दुर्लभ प्रजातियां खतरे की जद में आ चुकी हैं। वर्ष 2004 में यह संख्या 648 थी। विश्व धरोहर को गंवाने वाले देशों की शर्मनाक सूची में भारत चीन के ठीक बाद सातवें स्थान पर है।
काम कम, चीख-पुकार ज्यादा
जैव विविधता को लेकर सबसे ज्यादा चीख -पुकार वही देश मचा रहे हैं, जो सबसे ज्यादा कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन के दोषी हैं। अभी पिछले साल अक्टूबर में हैदराबाद में जैव विविधता को सहेजने की चुनौती को लेकर सम्मेलन आयोजित किया गया था। भारत अपनी जैव विविधता को बचाने की हर संभव कोशिश कर रहा है। देश के 4.8 25 लुप्तप्राय जानवरों की सूची से हटा दिया है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में इनकी संख्या में इजाफा हुआ है। हैदराबाद में आयोजित सम्मेलन इस पर होने वाले खर्च की बात उठी, तो ज्यादातर देशों ने अपने हाथ खींचने की कोशिश भी की। हैदराबाद में 193 देशों के हजारों विशेषज्ञ इसी बात विचार करते रहे कि इस पर होने वाले खर्च की पूर्ति कहां से होगी? पर्यावरण विशेषज्ञों और समाजसेवियों का मानना है कि इस पर लगभग 40 अरब डॉलर का खर्चा आएगा। कन्वेनशन आॅन बायोजॉजिकल डायवर्सिटी ट्रीटी में शामिल देशों को ही यह खर्च उठाना होगा, लेकिन इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाले ज्यादातर देश अपनी कम से कम भागीदारी चाहते हैं। अमेरिका और सूडान जैसे देश पहले से ही अपना पल्ला झाड़ चुके हैं। इन सब विपरीत स्थितियों के बावजूद सुखद यह है कि अब पूरी दुनिया में जैव विविधता को लेकर चेतना जागृति होने लगी है। मानव समाज को लेकर चिंतित विचारकों और सामाजिक संस्थाओं ने इस दिशा में सोचना और पहल करना शुरू कर दिया है। उम्मीद है कि इन लोगों की मेहनत और भागीदारी रंग लाएगी।
प्रतिशत भौगोलिक हिस्से को इसके लिए सुरक्षित रखा गया है। भारत इस समय जैव विविधता पर दो अरब डॉलर खर्च कर रहा है। इसके परिणाम भी सामने आने लगे हैं। आईयूसीएन ने शेर जैसी पूंछ वाले बंदर को
कॉरपोरेट कंपनियों का हित
अमीर देशों की कॉरपोरेट कंपनियों का हित इन प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ा हुआ है। ये अपना हित साधने के लिए दुनिया भर के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तो करना चाहते हैं, लेकिन जैविक असंतुलन को रोकने के लिए अपनी गांठ से दमड़ी भी खर्च करना नहीं चाहते। दोनों हाथों में लड्डू चाहने वाली कॉरपोरेट कंपनियों में से एक कंपनी भारत में भी सक्रिय है। सरकारी लापरवाही, लोगों की अनभिज्ञता और कॉरपोरेट कंपनियों की चालाकी इससे जाहिर होती है कि भारत के दक्षिण पूर्व में स्थित मन्नार की खाड़ी से करोड़ों रुपये का समुद्री शैवाल निर्यात करती है शीतल पेय बनाने वाली कंपनी पेप्सी। साल-दो साल पहले जब राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण ने कंपनी पर दबाव डाला, तो उसने भारत सरकार को सिर्फ 38 लाख रुपये की ही क्षतिपूर्ति दी थी। तब जयराम रमेश ने एक कार्यक्रम में बड़े गर्व से कहा था कि इस राशि का उपयोग स्थानीय समुदाय के विकास में किया जाएगा। सचमुच, करोड़ों रुपये के प्राकृतिक संसाधनों को गंवाकर सिर्फ 38 लाख रुपये वसूलना काबिलेतारीफ है। और फिर दक्षिण पूर्व स्थित मन्नार की खाड़ी के आसपास रहने वाले समुदायों के हिस्से में कितनी रकम आएगी, यह भी गौर करने लायक है। मजेदार बात यह है कि पेप्सी इन शैवालों का सिंगापुर, मलेशिया सहित कई यूरोपीय देशों को निर्यात करके वास्तविक लागत से दसियों गुना कमाई करती है। यह तो एक उदाहरण मात्र है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीकी देशों सहित अन्य विकासशील और अविकसित देशों के प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन करके मोटा मुनाफा कमाती हैं और इस निर्मम दोहन के चलते प्राकृतिक असंतुलन पैदा होता है। इन देशों की वनस्पतियों, जीव-जंतुओं, पादपों की अपूर्णीय क्षति होती है। प्राकृतिक असंतुलन, ग्लोबल वॉर्मिंग और वनस्पतियों के नष्ट होने से ऐसे इलाकों में महामारी, भुखमरी और गरीबी फैलती है और अमीर देशों की कॉरपोरेट कंपनियां गरीबी, बेकारी और भुखमरी से जूझ रहे लोगों को अपनी मोटी कमाई में से एक मामूली सा हिस्सा दान, अनुदान देकर और विभिन्न परियोजनाओं में निवेश करके दुनिया के सामने अपनी पीठ थपथपाती हैं।
विकसित देशों का रवैया निराशाजनक
प्रकृति में पादप, जीव-जंतुओं के जीनेम में आ रहे बदलाव और उनके विलुप्त होने के बारे में गंभीरता से सबसे पहली बार जून 1992 में सोचा गया। जून 1992 में ब्राजील के रियो द जेनेरो में हुए पृथ्वी सम्मेलन में जैव विविधता पर अभिसमयसंधि (कन्वेंशन आॅन बॉयोलॉजिकल डायवर्सिटी) के माध्यम से दुनिया का ध्यान इस गंभीर मुद्दे की ओर खींचा गया। उस समय तय किया गया कि पृथ्वी को ग्लोबल वॉर्मिंग और प्रकृति में रहने वाले उभयचरों, जलचरों, नभचरों और पादपों को विलुप्त होने से बचाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का कम से कम दोहन और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने पर जोर दिया जाएगा। जो विकसित और विकासशील देश ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन ज्यादा करते हैं, उनसे उत्सर्जन कम करने को कहा जाएगा। रियो सम्मेलन के अगले साल दिसंबर 1993 से विश्व समुदाय को   प्रेरित और किसी हद तक बाध्य करने के लिए जैव विविधता पर अभिसमयलागू कर दिया गया। लेकिन अफसोस कि इस मुद्दे पर विकसित देशों ने ध्यान नहीं दिया। चीन, अमेरिका, जापान, सोवियत रूस, भारत जैसे विकसित और विकासशील देशों की प्रमुखता सूची में यह मुद्दा रहा ही नहीं। वे सिर्फ फर्ज अदायगी के तौर पर मामले को लेते रहे। संयुक्त राष्ट्र कन्वेनशन आॅन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी (सीबीडी) संधि पर हस्ताक्षर करने से अमेरिका इनकार कर चुका है। वह 1994 से ही जैव विविधता के मुद्दे पर पृथकतावादी रुख अपनाए हुए है। अमेरिका को इस बात से आपत्ति है कि सभी देशों को इस संबंध में किए गए प्रयास का फायदा बराबर क्यों मिले। वह सीबीडी की कुछ दूसरी शर्तों का भी विरोध कर रहा है। सूडान भी अमेरिका का पिछलग्गू बना सीबीडी का विरोध कर रहा है। वहीं इस संधि पर दुनिया के 193 देश हस्ताक्षर कर चुके हैं। इनमें से ज्यादातर देशों ने अपने यहां इस पर अमल करना भी शुरू कर दिया है।
पिछले साल 2012 में बीस साल बाद जब रियो प्लस ट्वेंटी’ (रियो+ 20) सम्मेलन आयोजित किया गया, तो विकसित देशों को भी इसकी गंभीरता समझ में आई। इसके बावजूद विडंबना यह रही कि अमेरिका और ब्रिटेन के प्रधानमंत्रियों ने रियो प्लस ट्वेंटी पृथ्वी सम्मेलन में भाग नहीं लिया। इसमें अगर भाग लिया
, तो ज्यादातर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अधिकृत प्रतिनिधियों और उनके प्रमुखों ने । इस सम्मेलन की जो परिणति होनी थी, वही हुई। कंपनियों ने सबसे पहले अपने हितों पर ध्यान दिया। वे पर्यावरण असंतुलन, ग्लोबल वार्मिंग और जैविक असंतुलन के लिए एक दूसरे को दोष देती रहीं और खुद कोई जिम्मेदारी उठाने से बचती रहीं।
सम्मेलन के दौरान आए विशेषज्ञों ने तो यहां तक कहा कि आयोजित किया गया रियो+ 20 सम्मेलन वास्तव में संयुक्त राष्ट्र का वैश्विक पर्यावरणीय कॉन्फ्रेंस है। इस सम्मलेन में बातें तो लंबी चौड़ी की गईं, लेकिन वहां पेश किए गए दस्तावेजों में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि पूरे विश्व पर मंडरा रहे इस खतरे से निजात कैसे मिलेगी? दस्तावेज की कई बातों से तो यह ध्वनित होता है कि गरीब देशों के जल, जंगल, जमीन, हवा और जलीय जीवन आदि को बचाने और उसके संरक्षण के लिए जो कुछ दान देना पड़ रहा है, वह उनके साथ अन्याय है। ऐसा करके अमीर देशों की जनता का हक छीना जा रहा है। विकसित देश तो अब बात यहां तक कह रहे हैं कि अगर गरीब देश अपने हिस्से की जमीन, हवा, पानी, जंगल आदि की सुरक्षा और देखभाल नहीं कर सकते हैं, तो वे इसे या तो बेच दें या लीज पर दे दें। अमीर देश प्राकृतिक संसाधन को बिकाऊ बनाने पर तुले हुए हैं, ताकि वे उन पर कब्जा करके अधिकतम दोहन करने के साथ-साथ पूरी दुनिया में यह दंभ भर सकें कि वे धरती की सुरक्षा कर रहे हैं।

1 comment:

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