Sunday, September 28, 2014

झाड़ू से स्वच्छ होता भारत

-अशोक मिश्र
उन्होंने अपनी साड़ी की चुन्नट को एक बार फिर ठीक किया। बायां हाथ उठाकर बालों को संवारा। विभागीय अधिकारियों ने मुरीद हो जाने वाली नजरों से उन्हें देखा। होते भी क्यों न! वह उनके विभाग की मंत्री जो थीं। मंत्री महोदया सचिव के कान में फुसफुसाईं, यह झाड़ू हाइजेनिक तो है न! इसे छूने में कोई परेशानी तो नहीं होगी? यू नो...मैंने कभी झाड़ू नहीं लगाया, तो जरा कैमरे के सामने संभाल लेना। कहीं ऐसा न हो कि सब कुछ गड़बड़ हो जाए। मीडिया में आने पर प्रधानमंत्री तो पूरी क्लास ही ले लेंगे।
सचिव ने मुस्कराते हुए कहा, अरे नहीं मैडम...कुछ नहीं होगा। मैंने सब कुछ मैनेज कर लिया है। बस आपको झाड़ू पकड़कर दो-तीन बार आगे पीछे करना है, फोटो शूट हो जाए बस। कौन-सा आपको पूरा स्कूल बुहारना है! यह तो एक रस्म है, ताकि देश के लोग भी आपसे झाड़ू लगाने की प्रेरणा लेकर अपने आसपास सफाई रखें।
मंत्री महोदया को सचिव की बात से थोड़ी राहत मिली। उन्होंने गर्दन, चेहरे और माथे पर हलके से हाथ फेरकर देखा कि कहीं मेकअप बिगड़ तो नहीं गया है। उन्होंने एक बार फिर सचिव से पूछा, बहुत धूल तो नहीं उड़ेगी? मुझे डस्ट से एलर्जी है। चुनाव प्रचार के लिए भी जाती थी, तो इस बात का ख्याल रखती थी कि धूल वाली जगहों पर जाने से परहेज करूं। लोग इतनी गंदगी में रह कैसे लेते हैं, यह मेरी समझ में आज तक नहीं आया।
सचिव ने उनकी बात सुनकर शिष्टता से बत्तीसी दिखा दी, मैडम...भारत है ही गंदे लोगों का देश। चांद और मंगल की बात तो करेंगे, पर सफाई नहीं करेंगे। तभी तो अपने प्रधानमंत्री ने पूरे भारत को स्वच्छ बनाने की दिशा में पहल की है। इस स्वच्छ भारत अभियान में आपका भी बहुत बड़ा रोल है।
मंत्री महोदया अपनी प्रशंसा से खिल गईं, अब देर किस बात की है? मुझे कहीं और भी जाना है। एक अधिकारी ने चापलूसी भरे स्वर में कहा, बस मीडिया वालों का इंतजार है। और वह लीजिए, आ गए मीडिया वाले भी। और फिर मंत्री महोदया स्वच्छ भारत अभियान का शुभारंभ करने में तल्लीन हो गईं।
(29 सितम्बर 2014 को दैनिक अमर उजाला में प्रकाशित)

Wednesday, September 24, 2014

अमेरिका लोगे या पाकिस्तान?

-अशोक मिश्र
कुछ नामी-सरनामी ठेलुओं की मंडली गांव के बाहर बनी पुलिया पर जमा थी। गांजे की चिलम ‘बोल..बम..बम’ के नारे के साथ खींची जाती, तो उसकी लपट बिजली सी चमककर पीने वाले को आनंदित कर जाती थी। एक लंबा कश खींचने के बाद हरिहरन ने चिलम बीरबल की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘कुछ भी हो, सतनमवा एकदम ओरिजन माल बेचता है। मजा आ जाता है।’ सत्तन ने हरिहरन की बात लपक ली, ‘ओरिजनल माल के लिए पैसा भी तो ज्यादा लेता है। कोई फोटक में तो नहीं देता। साला..एक चिलम गांजे के लिए बाइस रुपिया मांगता है, वहीं कल्लुआ सोलह रुपये में डेढ़ चिलम गांजा देता है। हां..नहीं तो..’
‘सत्तन..तुम भी न..जिंदगी भर रहोगे एकदम चिरकुटै..अरे दो-चार रुपिया ज्यादा ले लेता है, तो मजा भी खूब आता है। कल्लुआ का तीन चिलम भर का गांजा खींच जाओ, तब भी नशा नहीं चढ़ता।’ बात सत्तन को चुभ गई, वह तमक कर बोला, ‘तुम्हीं कौन सा महाराजा पाटेसरी प्रसाद के घर मा पैदा हुए हो? पिछले भादो में तीन बोरा भूसा उधार ले गए थे, आज तक वापस करने का नाम ही नहीं लिया और बात करते हो..महाराजाओं वाली। बात के बड़े धनी हो, तो नशा उतरने से पहले ही मेरा तीन बोरा भूसा वापस कर दो। हां.... नहीं तो..’ ‘हां..नहीं तो..’ सत्तन का तकिया कलाम था। ‘देखो..सत्तन..बात को घुमाओ नहीं। बात गांजे की हो रही थी..तुम उधारी तक पहुंच गए। हरिहरन किसी का उधार नहीं रखता। जहां तक उधार की बात है, तो तू कहे तो मैं इस उधारी के बदले अमेरिका भी दे सकता हूं, पाकिस्तान भी दे सकता हूं। बोल..क्या लेगा अमेरिका या पाकिस्तान?’ हरिहरन की बात पर बीरबल, सत्तन और सुखई दांत चियारकर हंस पड़े। बीरबल और सत्तन की आंखें नशे की अधिकता के चलते बार-बार मुंदी जा रही थी। लगभग यही हालत हरिहरन की भी थी।
इन तीनों से हंसने से हरिहरन चिढ़ गया। उसने गुर्राते हुए कहा,‘दांत मत निपोरो। पूरा जंवार जानता है मेरे खानदान के बारे में। तू जानता है, अमेरिका में एक जाति रहती है रेड इंडियन। उस जाति का और मेरे खानदान का डीएनए एक है। मेरे बाबा की बारहवीं पीढ़ी से पहले के एक बाबा थे दलिद्दर नाथ। सबसे पहले वे गए थे अमेरिका। उन्हें जन्म से ललछहुआं रोग था। उनका पूरा शरीर लाल दिखता था। मेरे बाबा बताते थे कि जब हमारे पुरखा दलिद्दर नाथ वहां पहुंचे, तो वहां रहने वाले आदिवासियों ने उन्हें एक तरह से अपना महाराज ही मान लिया। वे उन्हें बड़े सम्मान के साथ ‘लाल महाराज’ कहते थे। यह रेड इंडियन शब्द ‘लाल महाराज’ का ही उल्टा-पुल्टा रूप है। बाद में ये ससुर के नाती अंगरेज पहुंचे, तो सब कुछ गड़बड़झाला कर डाला। अंगरेजों ने हमारे लाल महाराज के उत्तराधिकारियों से पूरा अमेरिका ही छीन लिया। अब अगर कोई किसी की कोई वस्तु छीन ले, तो उसकी नहीं हो जाती न! सो, चिरकुट सत्तन..अमेरिका आज भी हमारी बपौती है। हम जिसे चाहें उसे देने के लिए स्वतंत्र हैं। तुझे लेना है, तो चल..कागज-पत्तर ला, अभी लिख देता हूं अमेरिका तेरे नाम।’
‘और पाकिस्तान..?’सुखई ने बचे-खुचे गांजे का अंतिम कश मारते हुए पूछ लिया। हरिहरन ने अपनी मुंदती आंखों को जबरदस्ती खोलते हुए कहा, ‘पाकिस्तान का पट्टा तो मेरे बाबा के बड़े ताऊ चमक नाथ के नाम आज भी है। कागज पत्तर देखना पड़ेगा.. कहीं रखा होगा। अफगानिस्तान युद्ध में बाबा चमक नाथ बड़ी बहादुरी से लडेÞ थे, इससे खुश होकर अंगरेज बहादुर (लाट साहब) ने कश्मीर से लेकर अफगानिस्तान की सीमा तक की जमीन ईनाम में दी थी। अंगरेजों के गाढ़े समय में काम जो आए थे। अंगरेज जब चले गए, तो बाबा चमक नाथ से जिन्ना चिरौरी करते रहे कि वे उस जमीन के कागजात उन्हें सौंप दें। बाबा मर गए, लेकिन मजाल है कि वह कागज उन्हें सौंपा हो। उनके खानदान का इकलौता वारिस भी मैं हूं। पाकिस्तान पर भी मेरा उतना ही हक है जितना अमेरिका पर। अब तू बोल..तुझे क्या चाहिए? अमेरिका या पाकिस्तान?’
सत्तन ने लड़खड़ाती जुबान से कहा, ‘तू मुझे तीन बोरा भू सा वापस कर दे, मुझे कुछ नहीं चाहिए। तू अपना पाकिस्तान, अमेरिका, रूस और जापान अपने पास रख।’ ‘अबे दाढ़ीजार..भूसा होता, तो मेरे पशु-पहिया भूखों नहीं मर रहे होते। जा..नहीं देता..तुझे तेरा तीन बोरा भूसा। कर ले जो तुझे करना हो।’ इतना कहकर हरिहरन ने सत्तन को धक्का दिया, तो सत्तन औंधे मुंह भहराकर गिर गए। इसके बाद क्या हुआ होगा, कहने की जरूरत नहीं है। आधे गांव के पुरुष फरार हैं, आधे गांव के लोग या तो थाने में बंद हैं या फिर बंद होने वालों को छुड़ाने और फरार होने वाले लोगों की जमानत कराने में व्यस्त हैं।


Friday, September 19, 2014

चीन के बहाने अमेरिका को संदेश

समझने होंगे चीन के राष्ट्रपति  की गर्मजोशी से स्वागत के निहितार्थ

अशोक मिश्र
शतरंज और राजनीति..दोनों में सिर्फ एक ही साम्यता होती है। वह है शह और मात की प्रवृत्ति। कोई जरूरी नहीं है कि जो शतरंज खेलने में माहिर हो, वह धुरंधर राजनीतिज्ञ भी हो।
धुरंधर राजनीतिज्ञ, शतरंज का धुरंधर खिलाड़ी हो, यह  भी कतई जरूरी नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शतरंज खेलना जानते हैं या नहीं, नहीं कह सकता, लेकिन राजनीति की शतरंज पर बिसात बिछाने में माहिर अवश्य हैं। माहिर राजनीतिज्ञ हैं, वे इसमें कोई दोराय इसलिए  भी नहीं है क्योंकि चुनाव के दौरान उनके प्रबल विरोधी रहे कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी उनके राजनीतिक चालों के मुरीद अवश्य हैं। अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में देखें, तो पिछले कुछ महीने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका और चीन जैसे प्रबल प्रतिद्वंद्वियों को शिकस्त देने के लिए राजनीतिक शतरंज पर बिसात बिछाने में लगे हुए हैं। देश का प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद उन्होंने नेपाल, भूटान की यात्रा की, फिर ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में भाग  लिया।
 उसके बाद वे जापान गए। और अभी जापान की यात्रा को कुछ ही दिन बीते थे कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए। कहने को ये सिर्फ एक राजनीतिक गतिविधियां हो सकती हैं। हैं भी। इसमें कोई दो राय भी नहीं है। लेकिन इन गतिविधियों के पीछे का संकेत यदि समझा जाए, तो पता चलता है कि नरेंद्र मोदी राजनीति के कितने बड़े खिलाड़ी हैं। चीन के राष्ट्रध्यक्ष जिनपिंग की गर्मजोशी से किए गए स्वागत के पीछे वर्चस्ववादी अमेरिका को यह संदेश देना भी  है कि यदि उसने भारत के प्रति अपने रवैये में बदलाव नहीं किया, तो वह चीन के साथ हाथ मिला सकता है, जो उसका प्रबल विरोधी है। बौद्ध धर्मावलंबी भूटान और जापान की यात्रा करके प्रधानमंत्री मोदी ने वह कोशिश की है, जिसे करने का साहस पिछले कई दशकों से राजनेता नहीं कर पाए थे। हिंदुस्तान में बौद्ध और सनातन धर्मावलंबियों के बीच एका कायम करने की यह अभी तो कोशिश भर है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम होंगे, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। इन देशों की यात्रा के बाद चीन के ही अभिन्न अंग तिब्बत में रहने वाले लाखों बौद्ध तिब्बतियों को भी एक प्रकार से यह अश्वस्ति मिली है कि भविष्य में यदि जरूरत पड़ी, तो भारत उनके संरक्षक की भूमिका निभा सकता है। चीन और तिब्बत का विवाद बहुत पुराना है और भारत हमेशा से तिब्बत के साथ खड़ा रहा है। तिब्बतियों के धर्म गुरु दलाई लामा तो पिछले कई दशकों से भारत में ही रह रहे हैं। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी ने एक तीर से कई शिकार करने की कोशिश की है। एक तो उन्होंने गुजरात और दिल्ली में जिस तरह जिनपिंग का गर्मजोशी से स्वागत किया और उसको मीडिया के माध्यम से प्रचारित-प्रसारित किया गया, उसका जो संदेश अमेरिका जैसे वर्चस्ववादी और अधिनायकवादी देश को जाना था, वह चला गया। 27 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक को संबोधित करेंगे, उसके बाद 28 सितंबर को अमेरिकन इंडियन कम्युनिटी फाउंडेशन के कार्यक्रम में भारतीय मूल के लोगों को संबोधित करेंगे। यह संगठन अमेरिकी कांग्रेस में भारत समर्थक सांसदों और भारतीय मूल के व्यापारियों के सहयोग से बनाया गया है। इसके अगले ही दिन अमेरिकन राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा आयोजित निजी भोज में मोदी शामिल होंगे। यह वही अमेरिका है, जिसके राष्ट्रध्यक्ष अपने को महामानव समझते थे और दूसरे देशों के राष्ट्रध्यक्षों को कोई भाव नहीं देते थे। वर्ष 2005 में तो अमेरिका ने गुजरात में हुए दंगों के चलते नरेंद्र मोदी का वीजा ही खारिज कर दिया था, वहीं वामपंथी कहे जाने वाले देश चीन ने मोदी की तारीफ ही की थी। आज अमेरिका अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए बैठा है, तो सिर्फ इसलिए क्योंकि मोदी ने अंतर्राराष्ट्रय फलक पर कुछ ऐसी बिसात बिछा दी जिसकी अनदेखी करने का मतलब है, एशिया में अमेरिकी प्रभुत्व का खात्मा और अलग-थलग पड़ जाने का अंदेशा। जिस तरह पिछले कुछ सालों से ब्रिक्स देशों (ब्रिटेन, रूस, भारत, चीन और दक्षिणी अफ्रीका) की सहभागिता बढ़ी है, ब्रिक्स बैंक बनाने की पहल हुई है (अभी तो ब्रिक्स मुद्रा की भी बात चल रही है, यूरोपीय संघ की मुद्रा यूरो की तर्ज पर), उससे अमेरिका के होश उड़े हुए हैं। अमेरिका इस बात को अच्छी तरह से समझ रहा है कि जैसे ही ब्रिक्स बैंक अस्तित्व में आएगा, वर्ल्ड बैंक के माध्यम से पूरी दुनिया में अमेरिका की चल रही विस्तारवादी नीतियों पर अंकुश लग जाएगा। भविष्य में एशिया महाद्वीप के छोटे-छोटे देश इन ब्रिक्स देशों के साथ जाने को विवश हो सकते हैं। यदि ऐसा हुआ, तो जिन छोटे-छोटे देशों को आपस में लड़ाकर अमेरिका अपने सैन्य उपकरणों को बेचता है या मानवाधिकारों के नाम पर पूरी दुनिया का चौधरी बनकर वह किसी भी देश पर हमला करता है, उसकी इस प्रवृत्ति पर लगाम लग जाएगी। उसकी मनमानी पर अंकुश लगने का मतलब अमेरिका भलीभांति जानता है।

दोस्ती के साथ सतर्कता भी जरूरी

अशोक मिश्र 
चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग की भारत यात्रा कई मायने में महत्वपूर्ण रही। भारत और चीन के बीच 12 समझौते हुए हैं। इन समझौतों के बाद यह माना जा रहा है कि दोनों देशों के बीच पिछले कई दशकों से जमी बर्फ पिघलेगी और दोनों एक दूसरे के विकास में सकारात्मक भूमिका निभाएंगे। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की जितनी गर्मजोशी के साथ भारत ने पहले गुजरात में और फिर दिल्ली में स्वागत किया है, उससे तो यही लगता है कि दोनों देश अपने रिश्तों में सकारात्मक बदलाव लाने की दिशा में बहुत गंभीरता से विचार कर रहे हैं। वैश्विक राजनीति के मद्देनजर यह जरूरी भी है। चीन मानसरोवर की यात्रा के लिए सिक्किम के नाथू ला दर्रे से रास्ता देने को तैयार हो गया है। भारत में चलने वाली कुछ रेलगाड़ियों की स्पीड बढ़ाने और उनमें मूलभूत सुधार में भी सहयोग देने को चीन राजी है। उसका सबसे ज्यादा जोर भी  रेल क्षेत्र में सहयोग देने का है। इतना ही नहीं, चीन ने आगामी पांच साल में 20 अरब डॉलर निवेश का आश्वासन दिया है, जिसको चीन के राष्ट्रपति की भारत यात्रा की उपलब्धि बताई जा रही है। इसके बावजूद कुछ बातें ऐसी हैं जिनको लेकर पहले भी शंकाएं थीं और ये शंकाएं तब भी बरकरार हैं, जब चीन के राष्ट्रपति अपने देश जा चुके हैं। सीमा विवाद को हल करने की दिशा में अब तक कोई सार्थक कदम नहीं उठाया जा सका है। यह महज संयोग नहीं हो सकता है कि चीनी राष्ट्रपति के भारत आने से दो हफ्ते पहले चीनी सेना भारत के अभिन्न भूभाग लद्दाख के देमचोक क्षेत्र में खानाबदोशों को घुसा दे और ये खानाबदोश भारत की जमीन पर जारी सिंचाई परियोजना का विरोध करें। भारतीय सैनिकों के विरोध करने पर भी चीनी सैनिक वह भूभाग खाली करने से इंकार कर दें। पिछले साल मई के महीने में  जब चीन के प्रधानमंत्री ली केकियांग भारत आने वाले थे, तो उन्हीं दिनों चीनी सेना भारतीय सीमा में घुस आई थी और भारत के कड़ा विरोध जताने के बाद ही चीनी सैनिक वापस जाने को तैयार हुए थे। चीन ने यही हरकत फिर दोहराई है। इस मामले में चीन के राष्ट्रपति की मंशा पर भी प्रश्न चिह्न खड़ा होता है, जब भारतीय प्रधानमंत्री ने सीमा विवाद का मुद्दा उठाया, तो उन्होंने इसे हलके में लेते हुए कहा कि सीमा पर लकीरें खिंची नहीं हैं, इसलिए ऐसी घटनाएं हो सकती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सख्त लहजे में सीमा विवाद का मुद्दा उठाए जाने पर लद्दाख के ही चुमार क्षेत्र से चीनी सैनिकों की वापस हुई, लेकिन देमचोक में यह स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई थी। अगर हम भारत और चीन के संबंधों का इतिहास खंगालें, तो पता चलता है कि 28 जून 1954 को भारत आने वाले चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई का तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने ऐसी ही गर्मजोशी के साथ स्वागत किया था और बदले में चीन ने सन् 1962 की सर्दियों में हमारे देश के खिलाफ युद्ध का आगाज कर दिया था। इसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय जनमानस को अपने पड़ोसी राष्ट्र चीन पर विश्वास नहीं रह गया। भारतीय जनमानस का यह अविश्वास आज भी कम नहीं हुआ है। पंचशील के सिद्धांतों पर विश्वास रखने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाए थे।
भारत और चीन के बीच आज जिस तरह जरूरतों को ध्यान में रखते हुए समझौते हो रहे हैं, उनका स्वागत किया जाना चाहिए। हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर चीन की तरफ दोस्ती का हाथ जरूर बढ़ाना चाहिए, लेकिन अतीत में हुई भूलों से सबक सीखते हुए चीन से सतर्क भी रहना चाहिए। यह सही है कि वैश्विक परिदृश्य के मद्देनजर भारत का चीन से सहयोगात्मक संबंध समय की मांग है, लेकिन हमें अपने देश की सीमाओं की रक्षा का दायित्व भी याद रखना होगा।

बेतुकी मांग पर बेतुका तर्क

आखिर कब तक पिता के नाम की हुंडी भुनाएंगे अजित सिंह?

-अशोक मिश्र
इसे कहते हैं ‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे’ और इस कहावत को किसानों के मसीहा कहे जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह के पुत्र और पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी अजित सिंह पूरी तरह से चरितार्थ कर रहे हैं। राष्ट्रीय लोकदल के मुखिया चौधरी अजित सिंह दिल्ली स्थित उस सरकारी बंगले को खाली करने से इनकार कर रहे हैं, जो संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के दौरान उन्हें रहने को दिया गया था। अजित सिंह और उनके समर्थकों की मांग है कि 12 तुगलक रोड जो सरकारी बंगला उनसे खाली करने को कहा जा रहा है, वहां चौधरी चरण सिंह स्मारक बनना चाहिए। इस बंगले को चौधरी चरण सिंह स्मारक बनाने की बेतुकी मांग के पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि चौधरी चरण सिंह 28 जुलाई 1979 को जब देश के प्रधानमंत्री बने थे, तो तब भी उन्होंने यह बंगला खाली नहीं किया था। इस बंगले के साथ उनका (अजित सिंह) का भावनात्मक रिश्ता है।
चौधरी अजित सिंह और उनके समर्थक इस भावनात्मक रिश्ते की आड़ में सरकारी बंगला खाली नहीं करना चाहते हैं, यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ही नहीं, देश की जनता भी समझ रही है। अगर चौधरी अजित सिंह को उस बंगले से इतना ही लगाव था, तो उन्होंने उस समय यह बात क्यों नहीं उठाई जब वे पूर्ववर्ती केंद्र सरकार में मंत्री थे। पिछले दस सालों में अपने पिता का स्मारक बनाने का ख्याल क्यों नहीं आया? इस बात को मानने से कोई गुरेज नहीं है कि स्व. चौधरी चरण सिंह ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए काफी कुछ किया। वे जीवन भर किसानों और मजदूरों की समस्याओं के लिए संघर्ष करते रहे। सन् 1979 में केंद्रीय वित्त मंत्री और उप प्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना करके किसानों की वित्तीय मदद करने का एक आधार तैयार किया। इसके बावजूद सच यह है कि चौधरी अजित सिंह जीवन भर अपने पिता स्व. चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत को कंधे पर उठाए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों और किसानों का दोहन करते रहे हैं। यही काम अब उनके सुपुत्र चौधरी जयंत सिंह कर रहे हैं।
चौधरी चरण सिंह को किसानों का मसीहा यों ही नहीं कहा जाता है। गाजियाबाद जिले की तहसील हापुड़ के एक गांव नूरपुर में 23 दिसंबर 1902 को जन्मे चौधरी चरण सिंह ने बचपन से ही किसानों की गरीबी, उनकी बेकारी, उनका हो रहा शोषण, दोहन और उत्पीड़न देखा था। वे इसके लिए जिम्मेदार कारकों को जानते और समझते भी थे। सन् 1930 को जब मोहनदास करमचंद गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत दांडी मार्च निकालकर नमक बनाकर कानून को तोड़ा, तो गाजियाबाद के निकट से बहने वाली हिंडन नदी के किनारे नमक बनाकर कानून तोड़ने वालों में चौधरी चरण सिंह का नाम सबसे प्रमुख था। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि देश के सर्वांगीण विकास में चौधरी चरण सिंह के कार्यों को कमतर नहीं आंका जा सकता है, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं है कि उनके पुत्र और पौत्र को अराजक हो जाने की इजाजत मिल गई है। अजित सिंह जी! चौधरी चरण सिंह का पुत्र होने की हुंडी को आप कब तक भुनाते रहेंगे? आप अपने पिता की विरासत को भी तो ठीक से नहीं संभाल पाए। कभी  इस दल से, तो कभी उस दल से अपने पिता की पार्टी ‘लोकदल’ का विलय कराते रहे, मोह भंग होने पर दोबारा कभी लोकदल अजित, तो कभी  राष्ट्रीय लोकदल का निर्माण करते रहे। अजित सिंह कई बार सांसद रहे, कभी जीतकर संसद में पहुंचे, तो भी राज्यसभा के जरिये। लेकिन अजित सिंह ने अपने संसदीय क्षेत्र में जाना और वहां का विकास करना जरूरी नहीं समझा। यदि ऐसा नहीं था, तो फिर पिछले लोकसभा चुनाव में बागपत लोकसभा सीट से उनकी इतनी बुरी तरह पराजय क्यों हुई? 1998 में भी वे भाजपा प्रत्याशी सोमपाल से चुनाव हार चुके थे।
वही अजित सिंह आज चौधरी चरण सिंह के नाम पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश को जंग का मैदान बना देना चाहते हैं। उनके समर्थकों ने दिल्ली का बिजली-पानी बंद करने की धमकी देने से लेकर मुरादनगर और उसके आस-पास के इलाकों में हंगामा खड़ा कर रखा है। सैकड़ों पुलिस कर्मी और बेकसूर आम नागरिक घायल हो चुके हैं। इसके बावजूद रालोद (राष्ट्रीय लोकदल) के कार्यकर्ता शांत नहीं हुए हैं, वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सड़कों पर आतंक मचाते हुए घूम रहे हैं।

चीन में होंगे झानझूं त्रिपाठी

-अशोक मिश्र
नथईपुरवा गांव के कुछ बुजुर्ग चाय की दुकान पर बतकूचन कर रहे थे। रामबरन ने चाय का कप उठाकर मुंह से लगाया और सुर्रर्र..की आवाज करते हुए थोड़ी सी चाय अंदर ढकेली और बोले, ‘जिनफिंगवा की बदमाशी तो देखो। खुद तो भारत मा आकर माल-पूड़ी काट रहा है। अगहन के महीने में (आश्विन) सावन की तरह झूला झूल रहा है। हमारे प्रधानमंत्री उसे बड़े प्रेम से झुला भी रहे हैं, लेकिन उस ससुर के नाती ने हमारे यहां आने से पंद्रह दिन पहले ही अपने सैनिकन की आड़ में खानाबदोशों को लेह-लद्दाख में घुसा दिया कि जाओ बेटा! वहां जाकर बखद्दर करो।’ रामबरन यह कहते-कहते आवेश में आ गए और चाय छलक कर उनके कुर्ते पर गिर पड़ी, तो उन्होंने शुद्ध देशी क्लासिकल गाली चाय और कुर्ते के साथ-साथ जिनफिंगवा को भी दी।
‘बाबा! अगर भारत सरकार मेरी बातों पर अमल करे, तो कुछ साल में ही यह सीमा-फीमा विवाद  एकदम से खत्म से खत्म हो जाएगा। हां...यह लंबी योजना है, इसमें कम से कम बीस-बाइस साल तो लगेंगे ही। इसके बाद तो सीमा विवाद का कोई टंटा ही नहीं रहेगा। बीजिंग, शंघाई, मकाऊ, हांगकांग और तिब्बत जैस शहर और प्रांतों में लोग चूना-तंबाकू हथेली पर निकाल कर खुलेआम मलेंगे, होंठों के नीचे दबाएंगे और पिच्च से सामने की दीवार पर ‘पच्चीकारी’ का एक बेहतरीन नमूना पेश करते हुए आगे बढ़ जाएंगे। खुदा न खास्ता, अगर किसी ने उन्हें रोकने-टोकने की कोशिश की, तो उसकी मां-बहन से अंतरंग संबंधों की एक पूरी लिस्ट पेश कर देंगे।’ पच्चीस वर्षीय नकनऊ ने पान की पीक दुकान की दीवार पर दे मारी, मानो उसने चीन की दीवार पर भविष्य में होने वाली ‘पच्चीकारी का एक नमूना अभी से पेश कर दिया हो।’ उसकी बात सुनकर चाय की दुकान पर बैठे लोग चौंक गए। उन्हें उत्सुकता हुई कि जो ननकऊ अपनी पच्चीस साल की जिंदगी में अपने जिले से बाहर न गया हो, वह चीन से सीमा विवाद कैसे दूर कर देगा। वह सीमा विवाद जो पिछले पचास-साठ साल से भारत के लिए सिरदर्द बना हुआ है।
उजागर शुक्ल ने डपटते हुए कहा, ‘क्या रे ननकउवा! सुबह से ही भांग तो नहीं चढ़ा ली है। क्या उलूल-जुलूल बक रहा है। जिस समस्या को नेहरू से लेकर मोदी तक नहीं सुलझा पाए, तू उसे हल कर देगा? तेरा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है?’
उजागर शुक्ल की बात सुनते ही ननकउवा तंबाकू से कुछ-कुछ काले हो गए दांत दिखाकर हंसा और बोला, ‘नहीं काका! बूटी (भांग) तो मैं रात में ही लेता हूं। अभी तो मैं जो कह रहा हूं, उस पर गौर करें। आप यह तो मानते ही हैं कि बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग जहां जाते हैं, वहां के लोगों को अपना बना लेते हैं।बिहारी,  पुरबिहा और दूब (एक तरह की घास) में कोई अंतर नहीं है। दूब बार-बार सूखती है, लेकिन जैसे ही पानी मिलता है, हरिया जाती है। ऐसे ही बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग होते हैं। अब देखिए ! एक बिहारी थे मोहित राम गुलाम। वे जब मारीशस पहुंचे, तो पहले अपना ठीहा जमाया। बाद में उन्होंने अपने बहुत सारे  भा-बंधुओं को वहां बुला लिया। बस, फिर क्या था? बिहारी बढ़ते गए, मारीशसवासी मिट्टी के तेल होते गए। इसके बाद तो मारिशस मेंोजपुरी ही बोली जाने लगी। मारीशस आजाद हुआ, तो उनका लड़का शिवसागर राम गुलाम मारीशस का प्रधानमंत्री बना, अब उनका पौत्र नवीनचंद्र रामगुलाम वहां शासन कर रहा है कि नहीं! बस..इसी तरह कोई जुगाड़ करके दस-पंद्रह बिहारियों या उत्तर प्रदेश वालों को चीन के किसी प्रांत में घुसा दीजिए। पांच-दस साल बाद चीन में पैदा होने वाले लड़के-लड़कियों के नाम होंगे झानझूं तित्राठी, पींग-पांग झा, चेमपां यादव, शूफूत्यांग पासवान। ननकऊ की योजना सुनते ही चाय की दुकान में मौजूद सारे लोग आश्चर्यचकित रह गए। सुना है, ग्रामपंचायत ने ननकऊ की इस योजना को लागू करने का प्रस्ताव प्रधानमंत्री कार्यालय कोोजा है, प्रधानमंत्री कार्यालय तक प्रस्ताव पहुंचा या नहीं, इस संबंध में कोई सूचना नहीं है।