Wednesday, September 24, 2014

अमेरिका लोगे या पाकिस्तान?

-अशोक मिश्र
कुछ नामी-सरनामी ठेलुओं की मंडली गांव के बाहर बनी पुलिया पर जमा थी। गांजे की चिलम ‘बोल..बम..बम’ के नारे के साथ खींची जाती, तो उसकी लपट बिजली सी चमककर पीने वाले को आनंदित कर जाती थी। एक लंबा कश खींचने के बाद हरिहरन ने चिलम बीरबल की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘कुछ भी हो, सतनमवा एकदम ओरिजन माल बेचता है। मजा आ जाता है।’ सत्तन ने हरिहरन की बात लपक ली, ‘ओरिजनल माल के लिए पैसा भी तो ज्यादा लेता है। कोई फोटक में तो नहीं देता। साला..एक चिलम गांजे के लिए बाइस रुपिया मांगता है, वहीं कल्लुआ सोलह रुपये में डेढ़ चिलम गांजा देता है। हां..नहीं तो..’
‘सत्तन..तुम भी न..जिंदगी भर रहोगे एकदम चिरकुटै..अरे दो-चार रुपिया ज्यादा ले लेता है, तो मजा भी खूब आता है। कल्लुआ का तीन चिलम भर का गांजा खींच जाओ, तब भी नशा नहीं चढ़ता।’ बात सत्तन को चुभ गई, वह तमक कर बोला, ‘तुम्हीं कौन सा महाराजा पाटेसरी प्रसाद के घर मा पैदा हुए हो? पिछले भादो में तीन बोरा भूसा उधार ले गए थे, आज तक वापस करने का नाम ही नहीं लिया और बात करते हो..महाराजाओं वाली। बात के बड़े धनी हो, तो नशा उतरने से पहले ही मेरा तीन बोरा भूसा वापस कर दो। हां.... नहीं तो..’ ‘हां..नहीं तो..’ सत्तन का तकिया कलाम था। ‘देखो..सत्तन..बात को घुमाओ नहीं। बात गांजे की हो रही थी..तुम उधारी तक पहुंच गए। हरिहरन किसी का उधार नहीं रखता। जहां तक उधार की बात है, तो तू कहे तो मैं इस उधारी के बदले अमेरिका भी दे सकता हूं, पाकिस्तान भी दे सकता हूं। बोल..क्या लेगा अमेरिका या पाकिस्तान?’ हरिहरन की बात पर बीरबल, सत्तन और सुखई दांत चियारकर हंस पड़े। बीरबल और सत्तन की आंखें नशे की अधिकता के चलते बार-बार मुंदी जा रही थी। लगभग यही हालत हरिहरन की भी थी।
इन तीनों से हंसने से हरिहरन चिढ़ गया। उसने गुर्राते हुए कहा,‘दांत मत निपोरो। पूरा जंवार जानता है मेरे खानदान के बारे में। तू जानता है, अमेरिका में एक जाति रहती है रेड इंडियन। उस जाति का और मेरे खानदान का डीएनए एक है। मेरे बाबा की बारहवीं पीढ़ी से पहले के एक बाबा थे दलिद्दर नाथ। सबसे पहले वे गए थे अमेरिका। उन्हें जन्म से ललछहुआं रोग था। उनका पूरा शरीर लाल दिखता था। मेरे बाबा बताते थे कि जब हमारे पुरखा दलिद्दर नाथ वहां पहुंचे, तो वहां रहने वाले आदिवासियों ने उन्हें एक तरह से अपना महाराज ही मान लिया। वे उन्हें बड़े सम्मान के साथ ‘लाल महाराज’ कहते थे। यह रेड इंडियन शब्द ‘लाल महाराज’ का ही उल्टा-पुल्टा रूप है। बाद में ये ससुर के नाती अंगरेज पहुंचे, तो सब कुछ गड़बड़झाला कर डाला। अंगरेजों ने हमारे लाल महाराज के उत्तराधिकारियों से पूरा अमेरिका ही छीन लिया। अब अगर कोई किसी की कोई वस्तु छीन ले, तो उसकी नहीं हो जाती न! सो, चिरकुट सत्तन..अमेरिका आज भी हमारी बपौती है। हम जिसे चाहें उसे देने के लिए स्वतंत्र हैं। तुझे लेना है, तो चल..कागज-पत्तर ला, अभी लिख देता हूं अमेरिका तेरे नाम।’
‘और पाकिस्तान..?’सुखई ने बचे-खुचे गांजे का अंतिम कश मारते हुए पूछ लिया। हरिहरन ने अपनी मुंदती आंखों को जबरदस्ती खोलते हुए कहा, ‘पाकिस्तान का पट्टा तो मेरे बाबा के बड़े ताऊ चमक नाथ के नाम आज भी है। कागज पत्तर देखना पड़ेगा.. कहीं रखा होगा। अफगानिस्तान युद्ध में बाबा चमक नाथ बड़ी बहादुरी से लडेÞ थे, इससे खुश होकर अंगरेज बहादुर (लाट साहब) ने कश्मीर से लेकर अफगानिस्तान की सीमा तक की जमीन ईनाम में दी थी। अंगरेजों के गाढ़े समय में काम जो आए थे। अंगरेज जब चले गए, तो बाबा चमक नाथ से जिन्ना चिरौरी करते रहे कि वे उस जमीन के कागजात उन्हें सौंप दें। बाबा मर गए, लेकिन मजाल है कि वह कागज उन्हें सौंपा हो। उनके खानदान का इकलौता वारिस भी मैं हूं। पाकिस्तान पर भी मेरा उतना ही हक है जितना अमेरिका पर। अब तू बोल..तुझे क्या चाहिए? अमेरिका या पाकिस्तान?’
सत्तन ने लड़खड़ाती जुबान से कहा, ‘तू मुझे तीन बोरा भू सा वापस कर दे, मुझे कुछ नहीं चाहिए। तू अपना पाकिस्तान, अमेरिका, रूस और जापान अपने पास रख।’ ‘अबे दाढ़ीजार..भूसा होता, तो मेरे पशु-पहिया भूखों नहीं मर रहे होते। जा..नहीं देता..तुझे तेरा तीन बोरा भूसा। कर ले जो तुझे करना हो।’ इतना कहकर हरिहरन ने सत्तन को धक्का दिया, तो सत्तन औंधे मुंह भहराकर गिर गए। इसके बाद क्या हुआ होगा, कहने की जरूरत नहीं है। आधे गांव के पुरुष फरार हैं, आधे गांव के लोग या तो थाने में बंद हैं या फिर बंद होने वालों को छुड़ाने और फरार होने वाले लोगों की जमानत कराने में व्यस्त हैं।


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