Tuesday, May 28, 2013

मरवा देगा श्रीसंतवा

-अशोक मिश्र 
आफिस में बैठा खबरों की कतरब्योंत कर रहा था कि मेरा मोबाइल किसी हलाल होते बकरे की तरह चिंचियाया। मैंने लपककर उसे उठाया। अपने कर्ण पटल तक लाकर बड़े प्यार से कहा, ‘हेलो..!’ उधर से गुर्राती हुई आवाज कानों में इस तरह घुसी मानो कानों के पर्दे को फाड़ देगी, ‘कहां हो इस समय...और कौन-कौन कलमुहियां हैं तुम्हारे साथ?’ मैंने आम भारतीय पतियों की तरह गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘कोई तो नहीं है मेरे साथ...और फिर गॉटर की मम्मी...आॅफिस में कौन हो सकता है? तुम्हें ऐसा क्यों लगा कि इस समय मेरे साथ कोई हो सकता है?’ मैंने मामले की पूंछ पकड़ने की फिराक में पत्नी से दरियाफ्त किया। उधर से एक बार फिर गुर्राती हुई आवाज आई, ‘सुनो जी...अगर मैंने आपके बारे में कुछ ऐसा-वैसा किसी से सुना, अखबार या चैनल पर कुछ दिखाई पड़ा या मुझे ही कोई सुबूत मिल गया, तो एक बात याद रखना...मुझसे बुरा कोई नहीं होगा आपके लिए?’
‘यार मामला क्या है? यह तो बताओ... खामुख्वाह मुझ जैसे शरीफ आदमी पर तुम झांसी की रानी की तरह चढ़ाई किए हुए हो। मैं तुम्हें पहले भी कई बार बता चुका हूं कि मैं रसिक मिजाज का हूं, अय्याश नहीं हूं। हां, ससुराल में सालियों, सलहजों, मोहल्ले में भाभियों से हंसी-ठिठोली कर लेता हूं। कुछ मेरी फ्रेंड हैं, उनसे तुम्हारे ही सामने कुछ हल्के-फुल्के मजाक कर लेता हूं, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम मेरी इज्जत का फालूदा बनाकर चौराहे पर बेचती फिरो। यार मैंने तुमसे शादी की है, कोई गुलामी का पट्टा नहीं लिखवा लिया है।’ मैं भी भगोने में चढ़ी दाल की तरह उबल पड़ा। मेरा मन हुआ कि मोबाइल का स्विच आॅफ कर दूं, लेकिन फिर अपनी स्थिति का ख्याल आया। भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में किसी पति नामधारी जीव की यह हिम्मत नहीं हो सकती है कि वह अपनी पत्नी की कॉल बीच में काट दे। दुनिया के सबसे श्क्तिशाली राष्ट्र के राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर लाठी और लंगोट पहनकर ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला देने वाले महात्मा गांधी तक अपनी पत्नी से घिघियाकर बात करते हैं/करते थे। ‘ज्यादा भाव मत खाओ...आपको और आपकी रसिकता को मैं अच्छी तरह से समझती हूं। पिछले चौदह वर्षों से देख रही हूं आपकी रसिकता। रसिकता की आड़ में आप जो कुछ भी करते हैं, वह मैं बहुत अच्छी तरह से समझती हूं। मेरा मुंह मत खुलवाइए। मुझसे ज्यादा उड़िए भी मत...और यह बताइए कि सचमुच आॅफिस में ही हैं या कहीं और किसी कलमुंही के साथ गुलछर्रे उड़ा रहे हैं।’ अब शायद पत्नी का भी ब्लड प्रेशर हाई होने लगा। वह कूकर में लगी सीटी की तरह फुंफकारती हुई बोलीं, ‘अगर आपकी बात सच है, तो एक मरदूद मेरे पास पैसा लेकर क्यों आया है? कहता है कि ये पांच सौ बत्तीस रुपये आपके हैं। सच सच बताना, यह रुपये कैसे हैं और किस बात के हैं? अगर कहीं कोई गड़बड़-सड़बड़ बात हुई, तो समझ लेना...आपका भले ही कुछ न हो, लेकिन मैं तो जहर खाकर किसी कुएं-खाई में कूदकर जान दे दूंगी...हां।’ पत्नी की यह बात सुनकर मैं घबरा गया। आॅफिस में फुल वाल्यूम पर चल रहे एसी के बावजूद मुझे पसीना आ गया। मैंने जल्दी से हड़बड़ाते हुए कहा, ‘यार...तुम कह क्या रही हो? मेरी समझ में नहीं आ रहा है। कौन से पैसे और कैसे पैसे? और फिर...मान लो, यह पैसे मैंने ही भिजवाए हैं, तो इसमें कौन-सी आफत आ गई। तुम भी खामुख्वाह बात का बतंगड़ बना देती हो।’
‘सुनिए...जब तक पकड़ा नहीं गया था, तब तक श्रीसंतवा और चंदीलवा भी सारी दुनिया से यही कहता फिरता था कि मैं बहुत ‘आॅनेस्ट’ क्रिकेटर हूं। देश के लिए खेलता हूं, देश से बढ़कर कुछ नहीं है...पैसा तो हाथ की मैल है, इधर आता है, उधर चला जाता है...अब जब पकड़ा गया है, तो बाप रे...कैसे-कैसे कारनामे उजागर हो रहे हैं। पिद्दी भर का छोरा...और ऐसे-ऐसे कारनामे?’ उधर, पत्नी ने किस तरह आश्चर्य से मुंह फाड़ा होगा, इसकी मैं कल्पना कर सकता हूं। मैंने पत्नी की बात में संशोधन किया, ‘पिद्दी भर का नहीं... 23-24 साल का युवक...।’ पत्नी ने झिड़कते हुए कहां, ‘हां...हां...युवक...आप भी तो बड़े खिलाड़ी रहे हैं, कैसे-कैसे गुल खिलाते रहे होंगे, कौन जानता है। अब भी क्या आप अपनी हरकतों से बाज आते हैं।’ मैंने पत्नी को समझाते हुए कहा, ‘सुनो! गॉटर की मम्मी...यह पैसे किसी फिक्सिंग-विक्सिंग के नहीं हैं। राम बहल ने पिछले महीने पांच सौ कुछ रुपये मुझसे उधार लिए थे, वही लौटाने आया होगा। मैं नहीं मिला, तो वह तुम्हें दे गया होगा। तुम्हीं सोचो...मैं एक मामूली-सा व्यंग्यकार किसी से क्या फिक्सिंग कर सकता हूं। मैं अपनी सबसे सुंदर साली की कसम खाकर कह रहा हूं कि इस वक्त मैं आॅफिस में हूं, मेरे साथ कोई दुधमुंही या कलमुंही नहीं है। मुझे अब बख्शो...शाम को घर आता हूं, तो बातें होगीं।’ इतना कहकर मैंने बात खत्म की और चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछते हुए बुदबुदाया, ‘यह श्रीसंतवा...मरवा देगा किसी दिन हम जैसे सीधे-शरीफ लोगों को। करता खुद है...और शक के घेरे में रहते हम सब हैं।’

Tuesday, May 21, 2013

दिल बदतमीज...दिल बदतमीज

-अशोक मिश्र
मैं अपने दिल का क्या करूं? कई बार तो मुझे भी अपने-आप पर कोफ्त होने लगती है। सोचता हूं, भगवान ने भी क्या झंझट पाल दिया। अगर पंप हाउस की तरह सिर्फ रक्त इधर से उधर लाने-ले जाने का काम ही दिल का होता, तो गनीमत थी। लेकिन भगवान को पता नहीं क्या सूझी कि उन्होंने कुछ और भी काम सौंप दिए बेचारे दिल को। नामुराद दिल... किसी शोषित-पीड़ित श्रमिक की तरह उफ भी नहीं कर पाया। एक तो पहले से ही दिल पर काम का बोझ इतना ज्यादा है कि वह चौबीसों घंटे अनवरत काम करता रहता है। नो मेडिकल लीव, अर्नलीव, कैजुअल लीव या वीकली आॅफ। वह सारे अंगों की तरह सोते समय आराम भी नहीं कर सकता। खुदा न खास्ता! अगर वह आराम की सोचे भी, तो समझो कयामत आ गई। इधर दिल ने फुरसत से टांग फैलाई, उधर ‘राम नाम सत्य है’ कोरस गान शुरू हो जाता है। जब से भगवान ने दिल को रक्त प्रवाह के सनातनी कार्य के साथ-साथ ‘लगने और लगाने’ की छूट दी है, तब से गड़बड़ होने लगी है। हालात इतने खराब हैं कि अब किसी भी उम्र में किसी पर भी दिल आने लगा है। पहले तो यह बात नीम-हकीमों, ओझा-गुनियों, ज्ञानी-अज्ञानियों की समझ में नहीं आई। भला किसी का किसी पर दिल कैसे आ सकता है? लेकिन नहीं साहब! ...जिसका किसी पर दिल आया हो, वह दावे के साथ बता सकता है कि जनाब! सचमुच दिल किसी पर भी आ सकता है। हां, कुछ लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं, कह देते हैं, ‘जाने दो यार...दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी।’
मैं तो यह भी नहीं कह सकता हूं कि दिल तो बच्चा है जी।...बच्चा होता, तो दिल लगाता? दिल लगाना बड़ों का काम है, बच्चों का नहीं। हां, इधर कुछ सालों में ‘दिल बदतमीज...दिल बदतमीज...माने ना’ जैसा जरूर हो गया है। आप लाख समझाइए, लेकिन दिल है कि उसी ओर भागता है जिस ओर जाने से मना किया जाता है। बचपन से लेकर आज तक बड़े-बूढ़े समझाते आए हैं कि किसी को घूरना, उसे एकटक निहारना, गलत है, अभद्रता है। अब तो कानून भी पास हो गया है कि आधा मिनट से ज्यादा किसी महिला या लड़की को घूरने पर सजा हो जाएगी। अगर आप इस राज को राज रहने देने का वायदा करें, तो मैं आपको एक ऐसा नुस्खा बता सकता हूं जिससे आप इस कानून की गिरफ्त में आने बच सकते हैं। आप चाहें, तो उनतीस सेकेंड तक घूरने के बाद एकाध सेकेंड का ब्रेक लें और फिर अगले उनतीस सेकेंड तक बड़े प्रेम से घूरिए। ऐसा करने पर कानून क्या, कानून का बाप भी आपका बाल बांका नहीं कर पाएगा। यह क्रम आप तब तक चला सकते हैं, जब तक आपकी इच्छा हो या फिर जिसे आप घूर रहे हैं, वह चली न जाए।
मेरी इस दशा को देखकर पत्नी कई बार समझा चुकी हैं। कभी प्यार से, कभी तकरार से। सत्तर बार तो वे अपनी कसम दे चुकी हैं, तो बहत्तर बार मायके जाने का अल्टीमेटम। पत्नी की गुहार पर अड़ोसी-पड़ोसी भी समझा-बुझाकर थक चुके हैं। पत्नी का खैरख्वाह बनने के चक्कर में तो कई अड़ोसी मुझसे भिड़ चुके हैं, तो कई पड़ोसी लट्ठलट्ठा कर चुके हैं। बच्चे अभी छोटे हैं, लेकिन उन्हें भी अब लोगों के बीच बैठने-उठने में संकोच होने लगा है। वे बाहर खेलने भी नहीं जाते हैं, क्योंकि उनके दोस्त झगड़ा होने पर मेरा ही ताना देते हैं। आॅफिस का तो हाल ही मत पूछिए। थोड़ी-सी गलती होने पर संपादक जी तंज कसते हैं, ‘काम में तो दिल लगता नहीं है। हथेली पर दिल लिए घूमते हो। जब और जहां कोई सुमुखी, मृगनयनी, प्रीत पयस्विनी मिली, तो लगे दिल बांटने। ‘तू भी ले...तू भी ले’ वाली स्टाइल में। जब दिल सबको बांटते फिरोगे, तो काम के लायक दिल बचेगा ही कहां? काम में फिर दिल लगेगा कैसे?’
अब लोगों को कैसे समझाऊं कि यह किसी महिला या लड़की से दिल लगाने या घूरने का मामला नहीं है। अब आपको बताऊंगा, तो आप भी हंसेंगे। मेरे पड़ोस में रहता है कल्लू घोसी। उसकी एक नई नवेली दुल्हन है। कुछ ही दिन पहले हुए विवाह में उसे एक महिषी यानी भैंस दहेज में मिली है। उस भैंस को निहारना मुझे पता नहीं क्यों अच्छा लगता है। मैं घंटों उसे देखकर सोचता रहता हूं कि जब यह महिषी है, तो प्राचीन काल में राजाओं ने अपनी रानियों को राजमहिषी क्यों कहा? बस, इसी सवाल का जवाब पाने को घंटों उस महिषी को निहारता रहता हूं, पता नहीं कब कोई क्लू मिल जाए और राजमहिषी पदवी प्रदान करने की गुत्थी सुलझ जाए, लेकिन लोग हैं कि यही समझते हैं कि मैं कल्लू घोसी की नई नवेली दुलहन को घूरता रहता हूं। पत्नी भी यही समझती है। कोई बताओ कि मैं सबको यह बात कैसे समझाऊं?

Thursday, May 16, 2013

दीदी! भांजे को मत लाना

अशोक मिश्र
मेरी पत्नी पिछले दो सप्ताह से कान खाए जा रही थीं, ‘सुनिए...आपको छुट्टी मिल जाएगी न! कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि पिछली बार की तरह आपका मुआ बॉस अपनी छुट्टियां बीवी-बच्चों के साथ मनाने हल्द्वानी चला जाए और आपको कलम घिसने के लिए सड़ी गर्मी में छोड़ जाए।’ मैंने चेहरे पर परमहंसी मुस्कान चिपकाते हुए कहा, ‘नहीं प्राण वल्लभे!...प्राण प्रगल्भे! इस बार ठोंक-बजाकर छुट्टी ली है। पूरे आॅफिस में घूम-घूमकर सबको बताया है कि फलां तारीख से अमुक तारीख तक आॅफिस में कोई छुट्टी नहीं लेगा। अभी कल ही साहब के सामने दांत चियारकर उन्हें याद दिलाया है कि सर इस बार छुट्टी पर जाने की बारी मेरी है। पिछली बार भाभी जी की जिद की वजह से आपको हल्द्वानी जाना पड़ गया था और मुझे ऐन वक्त पर अपना प्रोग्राम कैंसिल करना पड़ा था। इस बार कुछ लोचा हुआ, तो समझिए, सर...मैं हलाल हो जाऊंगा। मेरी बीवी इस बार अपने मायके जाना चाहती है।’
मेरी बात सुनकर घरैतिन आश्वस्त हो गईं। मैंने घरैतिन का हाथ पकड़कर बगल में बैठाते हुए कहा, ‘जानती हो, स्वसुर नंदिनी...! मेरी बात सुनकर संपादक जी ने पहले तो मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा। फिर बोले थे, बीवी चाहे तुम्हारी हो या मेरी...प्रसन्न हों तो प्राणप्यारी। अगर तनिक भी ऊंच-नीच हो जाए, प्राणप्यासी। निश्चिंत रहो... इस बार लकी ड्रॉ तुम्हारे ही नाम निकला है। जाओ... मौज करो।’ मेरे स्वस्तिवचन सुनकर घरैतिन गदगद हो गईं। उन्होंने गले में बाहों का हार पहनाते हुए कहा, ‘तुम्हें वर माला पहनाकर मैंने शायद पहली बार कोई सही फैसला लिया था। अच्छा यह बताओ...मैं नीली वाली साड़ी रख लूं या फिरोजी वाली...तुम्हें कौन-सी अच्छी लगती है। अच्छा छोड़ो...यह बताओ...तुम क्या पहनकर चलोगे? तुमने तो अपनी तैयारी की ही नहीं। पिछली बार की तरह बस यों ही मुंह उठाकर मत चल देना। इन दिनों अंबाला वाले जीजा और जीजी भी आए हुए हैं। कुरुक्षेत्र वाले जीजा भी बस कल शाम तक पहुंच जाएंगे। इस बार कोई बढ़िया-सा सूट बनवा लो..अभी तीन दिन बाकी हैं जाने में। न हो, तो अभी चलो मार्केट से कुछ कपड़ों की खरीदारी कर ली जाए।’ पत्नी ने प्यार की अविरल गंगा बहाते हुए कहा था।
मैंने परिहास करते हुए कहा,‘रहने दो यार! यह सब कुछ करने को...मैं लाल वाली शर्ट पहन लूंगा और तहमद (लुंगी) बांध लूंगा। दुनिया की नजर में मैं भले ही कुछ होऊं, लेकिन तुम्हारे लिए तो मैं कुली ही हंू। सूटकेस, बैग और थैले हमेशा की तरह मुझे ही उठाकर ले जाने हैं। गाड़ी रुकते ही तुम्हारे बेटी-बेटे तो बाहर की ओर भाग लेते हैं। बैग या थैला पकड़ने को कहो, तुम कहती हो... मेरा मायके में इस तरह सामान उठाकर जाना शोभा नहीं देता। अब बचा मैं, तो मैं कुली की तरह सारा सामान उठाकर रेलवे स्टेशन से तुम्हारे मायके तक ढोना पड़ता है। साले भी...मेरा मतलब...तुम्हारे भाई भी मुझे सामान से लदा-फंदा देख लपककर मदद नहीं करते। और नजदीक आ जाने का इंतजार करते हैं।’ मेरी बात सुनकर घरैतिन रूठ गईं।
जिस दिन हम सबको जाना था, उस दिन सुबह से ही घरैतिन हजार वॉट वाले बल्ब की तरह जलने-बुझने लगीं। बच्चों को सुबह ही उठाकर बैठा दिया। एक कप चाय के बदले मुझे भी इतने काम बताए कि मेरे होश फाख्ता हो गए। मुझे लगा कि हम लोग किसी यात्रा के बजाय रणभूमि की ओर तो नहीं प्रस्थान कर रहे हैं। घरैतिन का उत्साह देखते ही बनता था। आठ बजे घरैतिन के मोबाइल फोन की घंटी बजी, उन्होंने स्क्रीन पर नाम पढ़ते हुए मुझे बताया, ‘छोटे भइया का फोन है।’ उन्होंने मोबाइल कान में लगाते हुए कहा, ‘छोटे भइया! हम लोग बस निकलने ही वाले हैं। बारह बजे की ट्रेन है।’ उधर से छोटे भइया ने कहा, ‘दीदी! एक बात कहूं। आप लोग आएं, आपका स्वागत है। लेकिन एक रिक्वेस्ट है, भांजे को मत लाना। आजकल मामाओं की कुंडली पर भांजे की शनि ढइया भारी है। भांजा यहां आएगा, तो अनर्थ ही अनर्थ कराएगा। पता नहीं कब और कहां किसी से सेटिंग कर बैठे और मामा की भट्ठी बुझ जाए। वैसे, दीदी...अब तक मामा ही भांजे पर भारी पड़ते रहे हैं। कंस मामा...शकुनि मामा...मामा मारीचि...ये जगप्रसिद्ध मामा हैं, जिनकी कुंडली का राहु भांजे के बृहस्पति पर भारी पड़ा था, लेकिन इस कलियुग में सब उल्टा-पुल्टा हो गया है। अब मामाओं को भांजे से खतरा हो गया है। भांजा खुद तो जेल जा ही रहा है, मामाओं की भी थू-थू करा रहा है। प्लीज दीदी..इस बार गुट्टू को मत लाना..जब शनि का ढइया खत्म हो जाए, तब देखा जाएगा।’ फोन सुनते ही घरैतिन सोफे पर पसर गईं, ‘रहने दो..कहीं नहीं जाना है..जहां मेरा बेटा नहीं जा सकता, वहां मैं भी नहीं जाऊंगी।’ घरैतिन की बात सुनकर मैंने संतोष की सांस ली।

Tuesday, May 7, 2013

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रोमांचक रेल यात्रा

अशोक मिश्र 
मैं हांफता-कांपता गोंडा जाने के लिए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचा, तो वहां पहले से मौजूद वरिष्ठ पत्रकार सुखहरण जी ने बताया कि हम दोनों में से किसी का भी टिकट कन्फर्म नहीं हो पाया है। मैं गुस्से से चीख पड़ा, ‘आपने तो कहा था, पीएमओ से हो जाएगा, रेलमंत्री कार्यालय से हो जाएगा। ये मंत्री करा देंगे, वे विधायक करा देंगे...अब क्या हुआ?’ सुखहरण जी ने झुंझलाते हुए कहा, ‘एक बात समझो, नहीं हो पाया...तो नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री जी कनाडा गए हैं गिल्ली डंडा मैच का उद्घाटन करने, रेल मंत्री जी चार्ट तैयार होने तक छुट्टी पर थे। मंत्री-विधायक सभी टूर पर गए हुए हैं।’ मैंने चारों ओर नजर दौड़ाई, लगता था कि पूरी दिल्ली सिर्फ उसी प्लेटफार्म पर जमा हो गई है। अगर सरसों भी उछाल दो, तो जमीन पर नहीं जाने वाली। मैंने खीझते हुए कहा, ‘आपने प्रयास ही नहीं किया होगा।’ मुझे भीड़ देखकर घबराहट होने लगी। मैंने सुखहरण जी से कहा, ‘आइए, लौट चलें।’ उन्होंने नाक-भौं सिकोड़ते हुए कहा, ‘बेटा प्यारे लाल! अपने तो जीवन का फलसफा भी खूब है, सौ-सौ जूते खाओ, तमाशा घुस कर देखो।’ तभी ‘धड़...धड़’ करती वैशाली एक्सप्रेस आती दिखाई दी, प्लेटफार्म पर ऐसी भगदड़ मची, मानो कहीं हालाडोला (भूकंप) आ गया हो।  मैं घबड़ाया, तो सुखहरण जी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘बस... इतने में ही घबड़ा गए। इब्तदा-ए-सफर है रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या?’
किसी शायर के शेर की जिस अंदाज में उन्होंने मैय्यत निकाली, मैं दहल गया। ट्रेन आई, स्लीपर क्लास में भी भीड़ ऐसे टूट पड़ी, मानो कोई फौज सामने खड़ी दुश्मन की फौज पर टूट पड़ती है। मेरे मित्र सुखहरण जी ने बड़ी चतुराई से अपने को भीड़ प्रवाह में डाल दिया और बीस सेकेंड में वे बहते हुए डिब्बे के अंदर पहुंच गए। ‘मैं बपुरा बूढ़न डरा, रहा किनारे ठाढ़’ की तरह किनारे खड़ा भकुराता रहा। तभी एक ‘हट्टा-कट्ठा, उल्लू का पट्ठा’ टाइप का युवक आया और उसने बोगी के बाहर लगे दोनों हत्थों को पकड़ा और ‘जय बजरंग बली’ कहकर बोगी में घुसी भीड़ को धकियाया कि अंदर घुसे सारे लोग वैसे ही ‘लमलोट’ (एक दूसरे पर गिरना) हो गए, जैसे बहुत ज्यादा आंधी-पानी आने से खेत में खड़ी धान या गेहूं की फसल बिछ जाती है। अंदर पैंतालिस वर्षीया एक महिला चिल्लाई, ‘ई कौन नासाकाटा आय, हमका धक्का दिहिस है...मरी आवै वहिका। अरे...उठाव हमका।’ उस महिला ने अपने ऊपर गिरे युवक के मुंह पर अपनी दायीं टांग का प्रहार किया, तो वह युवक बिलबिला उठा। इसके बाद तो बोगी में जो कौउवा रोर मचा कि पूछिए मत। मैं अपना बैग उठाकर उस युवक के पास पहुंचा और गिड़गिड़ाया, ‘भाई साहब! आप तो बोगी में घुस ही जाएंगे, इसमें कोई शक ही नहीं है। अगर आप मुझे पहले घुस जाने दें, तो बड़ी मेहरबानी होगी।’ पहले तो उस आदमी ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। उसे पता नहीं मेरी दीन-हीन दशा पर रहम आया, या फिर वह वाकई दयावान था। उसने मुझे अंदर घुस जाने का इशारा किया। मैं किसी तरह अंदर पहुंचा और अपने मित्र सुखहरण जी को खोजने लगा। काफी अंदर जाने के बाद वे मुझे सफाई कर्मियों को दी जाने वाली बर्थ पर ऊपर जमे नजर आए। मुझे ऊपर आने का इशारा किया, तो मैं भी भीड़ को धकियाकर ‘जय बजरंग बली’ कहता हुआ ऊपर जाकर जम गया। ऊपर पहुंचने पर सुखहरण जी कान में फुसफुसाए, ‘दोनों लोगों का एक हजार रुपये देना होगा। इस भीड़ में तो एक हजार रुपये में जाना भी सस्ते का सौदा है।’
सुखहरण जी अपनी सफलता पर फूले नहीं समा रहे थे। सफलता की इस खुशी को बीस मिनट भी नहीं हुए थे कि काला कोट पहने कोच अटेंडेंट जी पधारे और सुखहरण जी से बोले, ‘अरे!..आप लोग ऊपर कैसे बैठ गए। खाली कीजिए बर्थ...वह बर्थ मैंने इन्हें दे दी है।’ सुखहरण जी बिगड़ गए, ‘आप कौन होते हैं यह बर्थ किसी को एलॉट करने वाले। यह बर्थ इस सफाई कर्मी को रेलवे देती है...और फिर मैं कोई फोकट में तो बैठ नहीं रहा हूं। मैं भी पत्रकार हूं, देखता हूं...कैसे कोई यह बर्थ एलॉट करता है।’ सुखहरण और कोच अटेंडेंट में खूब ‘हत्तेरे की, धत्तेरे की’ हुई, लेकिन अंतत: जीत काले कोट वाले की ही हुई। सुखहरण ने कोच अटेंडेंट को ‘चोट्टा...क्रिमिनल...’ जैसे न जाने कितनी उपाधियों से नवाजा और कोच अटेंडेंट विजयी मुद्रा में यह कहता हुआ चला गया, ‘बहुत देखे हैं, तुम जैसे पत्रकार...।’ इसके बाद मेरी और सुखहरण जी की यात्रा कैसी रही होगी, इसकी कल्पना आप कर सकते हैं। यदि आपको स्लीपर क्लास में बिना कन्फर्म टिकट लेकर रेल यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हो, तो...?

Monday, May 6, 2013

कोई पुरस्कार दिलाओ, यार!

अशोक मिश्र 
बताओ भला...दोस्त ऐसे होते हैं, जैसे मेरे हैं? मेरे दोस्त किसी काम के नहीं हैं। सबके सब नकारा हैं। मेरे एक दोस्त हैं...कुछ-कुछ लंगोटिया यार टाइप के। लखनऊ में हम दोनों एक साथ ही कवितागीरी किया करते थे। यह दोस्त मुझे अपना दोस्त कहते नहीं थकता था। कवि गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में हम दोनों एक साथ ‘अनामंत्रित’ किए जाते थे। (क्योंकि हमारे सत्कर्मों के चलते कोई अपना कार्यक्रम चौपट नहीं कराना चाहता था।) फिर भी हमारी हिम्मत तो देखिए, हम सुबह उठते ही अखबारों में प्रकाशित होने वाले ‘आज के कार्यक्रम’ को देखते और जहां कहीं भी कोई कवि गोष्ठी या कवि सम्मेलन आयोजन की सूचना होती, हम वहां पहुंच जाते। हमें देखते ही आयोजक का दिल बड़ी जोर से धड़कने लगता, लेकिन उसके चेहरे से मुस्कान नहीं जाती। कई आयोजक तो बत्तीस इंची मुस्कान चेहरे पर चिपकाकर कहते, ‘आओ...आओ...मैं आप दोनों को बुलाना भूल गया था। अच्छा हुआ आप दोनों आ गए।’ लेकिन धीरे से कान में कहता, ‘कार्यक्रम चौपट मत करना।’ इसके बाद जो भी कवि आता, मेरा दोस्त ‘वाह...वाह...मरहबा...मरहबा’ ऐसे झूम-झूम कर कहता, मानो कविता का सबसे ज्यादा मजा वही उठा रहा हो। जब काव्य पाठ की मेरी बारी आती, तो उसे पता नहीं क्या हो जाता। उसके मुंह पर ऐसे ढक्कन लग जाता कि कुछ पूछिए मत! कई बार तो मुझे शुबहा होता कि कहीं वह गूंगा तो नहीं हो गया है। मैं उसकी ओर याचक निगाह डालता कि अबे...एक बार तो तालियां पीट, ‘वाह...वाह’ कह, दूसरों की तो सड़ी से सड़ी कविता पर तालियां पीट रहा था, वाह-वाह कह रहा था, लेकिन नामुराद कुछ बोलता ही नहीं था।
अभी हाल ही में वह दोस्त नोएडा की सड़कों पर भुने चने खाता मिल गया। मैंने कहा, ‘यार...मुझे भी कोई पुरस्कार-फुरस्कार दिलाओ। लोग अपने दोस्त के लिए क्या-क्या नहीं करते। तुम इतना ही कर डालो कि एकाध पद्मश्री, पद्म विभूषण, ज्ञानपीठ, यश भारती दिला ही दो।’ वह बोला, ‘यों ही दिला दें। अच्छा चल...मैं नहीं दिलाता, तो तू ही मुझे दिला दे।’ मैंने रूठते हुए कहा, ‘अबे...जा...बहुत देखे हैं तेरे जैसे दोस्त। एक तुम हो मेरे दोस्त, जो मेरी प्रसिद्धि से जलते हो। ...और एक मेरे पड़ोसी मुसद्दीलाल और उनका दोस्त नासपीटे हैं। पता है...अभी कुछ ही दिन पहले उन्होंने अपने दोस्त की प्रोफाइल साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए जमा कराई है। वे अपने पैसे पर ही नोबेल चयन समिति के सदस्यों से मिलने गए। अपने दोस्त की एक मात्र कविता ‘दुख गड़ता है’ की चार-पांच हजार फोटोस्टेट प्रतियां साथ ले गया। वह तो यूपीए सरकार में बैठे एक प्रभावशाली मंत्री के माध्यम से पद्मश्री का भी जुगाड़ लगा रहा है। यदि इस बार जुगाड़ नहीं लग पाया, तो अगली जो भी सरकार बनेगी, उसमें उसका टांका एकदम फिट है। वैसे, वह कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं में भी अपना जाल बिछा रहा है। कल मेरे पड़ोसी मुसद्दीलाल कह रहे थे कि इस साल के अंत तक कम से कम एक दर्जन सरकारी और गैर सरकारी पुरस्कार उसे मिलने वाले हैं। वह अपने मित्र नासपीटे की इतनी प्रशंसा कर रहा था कि अब क्या बताऊं। मेरा भी मन करता है कि मैं तुम्हारी इसी तरह प्रशंसा करूं, लेकिन तुम मौका तो दो।’
‘यह बताओ...मैं तुम्हें कोई भकुआ दिखाई देता हूं? मेरे सिर पर कोई सींग उगी हुई है? मुझे तुम क्या समझते हो? अगर मुझमें इतनी ही कूबत होती, तो मैं तुम्हारे लिए भागदौड़ करने के बजाय अपने लिए भागदौड़ करता। मनमोहन चच्चा से अपनी सिफारिश करवाता, बंगाल, बिहार से लेकर कर्नाटक तक अपनी गोटी फिट कराता, ताकि इन प्रदेशों में जितने भी साहित्यिक पुरस्कार हैं, वह मुझे मिलते। और फिर कोई सूखा-सूखा सम्मान ही तो नहीं मिलता, उसके साथ रोकड़ा भी तो मिलता है। सम्मान और रोकड़ा मुझे बुरा लगता है? यह बताओ बीस साल की दोस्ती में कभी तुमसे ऐसा कहा?’ इतना कहकर मेरा दोस्त फिर चने खाने लगा। मुझे कुछ बोलता न पाकर उसने कहा, ‘फिर भी तुमने कहा है, मैं देखता हूं मेरे मोहल्ले की कमेटी तुम्हें कोई पुरस्कार दे दे, लेकिन रोकड़ा खर्च करना पड़ेगा...हां।’ इतना कहकर वह चलता बना।