Thursday, May 16, 2013

दीदी! भांजे को मत लाना

अशोक मिश्र
मेरी पत्नी पिछले दो सप्ताह से कान खाए जा रही थीं, ‘सुनिए...आपको छुट्टी मिल जाएगी न! कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि पिछली बार की तरह आपका मुआ बॉस अपनी छुट्टियां बीवी-बच्चों के साथ मनाने हल्द्वानी चला जाए और आपको कलम घिसने के लिए सड़ी गर्मी में छोड़ जाए।’ मैंने चेहरे पर परमहंसी मुस्कान चिपकाते हुए कहा, ‘नहीं प्राण वल्लभे!...प्राण प्रगल्भे! इस बार ठोंक-बजाकर छुट्टी ली है। पूरे आॅफिस में घूम-घूमकर सबको बताया है कि फलां तारीख से अमुक तारीख तक आॅफिस में कोई छुट्टी नहीं लेगा। अभी कल ही साहब के सामने दांत चियारकर उन्हें याद दिलाया है कि सर इस बार छुट्टी पर जाने की बारी मेरी है। पिछली बार भाभी जी की जिद की वजह से आपको हल्द्वानी जाना पड़ गया था और मुझे ऐन वक्त पर अपना प्रोग्राम कैंसिल करना पड़ा था। इस बार कुछ लोचा हुआ, तो समझिए, सर...मैं हलाल हो जाऊंगा। मेरी बीवी इस बार अपने मायके जाना चाहती है।’
मेरी बात सुनकर घरैतिन आश्वस्त हो गईं। मैंने घरैतिन का हाथ पकड़कर बगल में बैठाते हुए कहा, ‘जानती हो, स्वसुर नंदिनी...! मेरी बात सुनकर संपादक जी ने पहले तो मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा। फिर बोले थे, बीवी चाहे तुम्हारी हो या मेरी...प्रसन्न हों तो प्राणप्यारी। अगर तनिक भी ऊंच-नीच हो जाए, प्राणप्यासी। निश्चिंत रहो... इस बार लकी ड्रॉ तुम्हारे ही नाम निकला है। जाओ... मौज करो।’ मेरे स्वस्तिवचन सुनकर घरैतिन गदगद हो गईं। उन्होंने गले में बाहों का हार पहनाते हुए कहा, ‘तुम्हें वर माला पहनाकर मैंने शायद पहली बार कोई सही फैसला लिया था। अच्छा यह बताओ...मैं नीली वाली साड़ी रख लूं या फिरोजी वाली...तुम्हें कौन-सी अच्छी लगती है। अच्छा छोड़ो...यह बताओ...तुम क्या पहनकर चलोगे? तुमने तो अपनी तैयारी की ही नहीं। पिछली बार की तरह बस यों ही मुंह उठाकर मत चल देना। इन दिनों अंबाला वाले जीजा और जीजी भी आए हुए हैं। कुरुक्षेत्र वाले जीजा भी बस कल शाम तक पहुंच जाएंगे। इस बार कोई बढ़िया-सा सूट बनवा लो..अभी तीन दिन बाकी हैं जाने में। न हो, तो अभी चलो मार्केट से कुछ कपड़ों की खरीदारी कर ली जाए।’ पत्नी ने प्यार की अविरल गंगा बहाते हुए कहा था।
मैंने परिहास करते हुए कहा,‘रहने दो यार! यह सब कुछ करने को...मैं लाल वाली शर्ट पहन लूंगा और तहमद (लुंगी) बांध लूंगा। दुनिया की नजर में मैं भले ही कुछ होऊं, लेकिन तुम्हारे लिए तो मैं कुली ही हंू। सूटकेस, बैग और थैले हमेशा की तरह मुझे ही उठाकर ले जाने हैं। गाड़ी रुकते ही तुम्हारे बेटी-बेटे तो बाहर की ओर भाग लेते हैं। बैग या थैला पकड़ने को कहो, तुम कहती हो... मेरा मायके में इस तरह सामान उठाकर जाना शोभा नहीं देता। अब बचा मैं, तो मैं कुली की तरह सारा सामान उठाकर रेलवे स्टेशन से तुम्हारे मायके तक ढोना पड़ता है। साले भी...मेरा मतलब...तुम्हारे भाई भी मुझे सामान से लदा-फंदा देख लपककर मदद नहीं करते। और नजदीक आ जाने का इंतजार करते हैं।’ मेरी बात सुनकर घरैतिन रूठ गईं।
जिस दिन हम सबको जाना था, उस दिन सुबह से ही घरैतिन हजार वॉट वाले बल्ब की तरह जलने-बुझने लगीं। बच्चों को सुबह ही उठाकर बैठा दिया। एक कप चाय के बदले मुझे भी इतने काम बताए कि मेरे होश फाख्ता हो गए। मुझे लगा कि हम लोग किसी यात्रा के बजाय रणभूमि की ओर तो नहीं प्रस्थान कर रहे हैं। घरैतिन का उत्साह देखते ही बनता था। आठ बजे घरैतिन के मोबाइल फोन की घंटी बजी, उन्होंने स्क्रीन पर नाम पढ़ते हुए मुझे बताया, ‘छोटे भइया का फोन है।’ उन्होंने मोबाइल कान में लगाते हुए कहा, ‘छोटे भइया! हम लोग बस निकलने ही वाले हैं। बारह बजे की ट्रेन है।’ उधर से छोटे भइया ने कहा, ‘दीदी! एक बात कहूं। आप लोग आएं, आपका स्वागत है। लेकिन एक रिक्वेस्ट है, भांजे को मत लाना। आजकल मामाओं की कुंडली पर भांजे की शनि ढइया भारी है। भांजा यहां आएगा, तो अनर्थ ही अनर्थ कराएगा। पता नहीं कब और कहां किसी से सेटिंग कर बैठे और मामा की भट्ठी बुझ जाए। वैसे, दीदी...अब तक मामा ही भांजे पर भारी पड़ते रहे हैं। कंस मामा...शकुनि मामा...मामा मारीचि...ये जगप्रसिद्ध मामा हैं, जिनकी कुंडली का राहु भांजे के बृहस्पति पर भारी पड़ा था, लेकिन इस कलियुग में सब उल्टा-पुल्टा हो गया है। अब मामाओं को भांजे से खतरा हो गया है। भांजा खुद तो जेल जा ही रहा है, मामाओं की भी थू-थू करा रहा है। प्लीज दीदी..इस बार गुट्टू को मत लाना..जब शनि का ढइया खत्म हो जाए, तब देखा जाएगा।’ फोन सुनते ही घरैतिन सोफे पर पसर गईं, ‘रहने दो..कहीं नहीं जाना है..जहां मेरा बेटा नहीं जा सकता, वहां मैं भी नहीं जाऊंगी।’ घरैतिन की बात सुनकर मैंने संतोष की सांस ली।

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