Tuesday, June 25, 2013

शिवभूमि में सैलाब

केदारनाथ में प्रकृति का तांडव

क्या शिव ने अपने महातांडव का साक्षात दर्शन उत्तराखंड में कराया है? क्या शिव ने महाप्रलय की चेतावनी इंसानों को दी है? क्या शिव ने प्रकृति पर विजय पाने की इंसानी लालच को चेताया है और क्या शिव ने अपने आधार स्थल केदारनाथ और पूरे हिमालयन क्षेत्र में जल प्रलय और भूस्खलन के जरिए लाशों का सैलाब लाकर धर्म और विज्ञान के बीच सामंजस्य रखने की चेतावनी दी है? जिस तरह से देवभूमि उत्तराखंड से लेकर हिमाचल के पहाड़ों में मौत की लीला सामने आई है, उसे देख कर कहा जा सकता है कि प्रकृति से खेलकर हम ज्यादा जिंदा नहीं रह सकते। शिव के महातांडव लाशों के सैलाब जल प्रलय की कहानी से लेकर देवभूमि में कराहते लोगों की दर्दनाक दृश्य पर हम विस्तार से चर्चा करेंगे और सरकार की नियत की भी पोल खोलेंगे, लेकिन सबसे पहले शिवदर्शन पर एक नजर...

-अशोक मिश्र
लय और प्रलय, दोनों शिव के आधीन हैं। शिव का अर्थ ही सुंदर और कल्याणकारी, मंगल का मूल और अमंगल का उन्मूलन है। शिव के दो रूप हैं, सौम्य और रौद्र। जब शिव अपने सौम्य रूप में होते हैं, तो प्रकृति में लय बनी रहती है। इस प्रकृति में रहने वाले चराचर सम्यक जीवन निर्वाह करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। पुराणों में शिव को पुरुष (ऊर्जा) और प्रकृति (स्त्री) का पर्याय माना गया है यानी पुुरुष और प्रकृति का सामयिक संतुलन ही आकाश, पदार्थ, ब्रह्मांड और ऊर्जा को नियंत्रित रखते हुए गतिमान बनाए रखता है। प्रकृति में जो कुछ भी है, आकाश, पाताल, पृथ्वी, अग्नि, वायु, सबमें सामियक संतुलन बनाए रखने का नाम ही शिव है। शिव खुद परस्पर विरोधी शक्तियों के बीच सामंजस्य बनाए रखने के सुंदरतम और प्राचीन प्रतीक हैं। शिव का जो प्रचलित रूप है, वह है, शीश पर चंद्रमा और गले में अत्यंत विषैला नाग। चंद्रमा आदिकाल से ही ऋषियों और कवियों के बीच शीतलता प्रदान करने वाला माना जाता रहा है, लेकिन नाग...? अपने विष की एक बूंद से किसी भी प्राणी के जीवन को मृत्यु की आग में झोंक देने वाला। कैसा अजीब सा संतुलन है इन दोनों के बीच। शिव अर्द्धनारीश्वर हैं, पुरुष और प्रकृति (स्त्री) का सम्मिलित रूप। वे अर्द्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं, काम पर विजय प्राप्त करने वाले और क्रोध की ज्वाला में काम को भस्म कर देने वाले। प्रकृति यानी उमा अर्थात् पार्वती उनकी पत्नी हैं, लेकिन हैं वीतरागी। गृहस्थ होते हुए भी श्मशान में रहते हैं। मतलब काम और संयम का सम्यक संतुलन। भोग भी, विराग भी। शक्ति भी, विनयशीलता भी। आसक्ति इतनी कि पत्नी उमा के यज्ञवेदी में कूदकर जान दे देने पर उनके शव को लेकर शोक में तांडव करने लगते हैं शिव। विरक्ति इतनी कि पार्वती का शिव से विवाह की प्रेरणा पैदा करने के लिए प्रयत्नशील काम को भस्म करने के बाद वे पुन: ध्यानरत हो जाते हैं।
प्रकृति और पुरुष में असंतुलन का नाम रुद्र है। हालांकि वेदों में उन्हें रुद्र ही कहा गया है। वेदों के काफी बाद रचे गए पुराणों और उपनिषदों में रुद्र का ही नाम शिव हो गया है। प्रकृति में जहां कहीं भी मानव संतुलन से असंतुलन की ओर अग्रसर हुआ है, शिव ने रौद्र रूप धारण किया है। लय और प्रलय में संतुलन रखने वाले शिव की भूमि रुद्रप्रयाग, चमोली और उत्तरकाशी जैसे तीर्थ और पर्यटन स्थल पिछले दिनों आई प्राकृतिक आपदा के चलते कराह रहे हैं। बारिश और नदियों में आई बाढ़ के चलते जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। हजारों लोग असमय काल कवलित हो गए हैं। अरबों रुपये की संपत्ति तहस-नहस हो गई है। जिस तीर्थ और पर्यटन स्थलों के निर्माण और विकास में अरबों रुपये, कई दशक और लाखों मानवों का श्रम लगा, उसे प्रकृति की प्रलयकारी शक्तियों ने पल भर में धूल-धूसरित करके अपनी सत्ता को अक्षुण्ण रखा है। यह विनाश उन लोगों के लिए एक प्रकार से चुनौती है, जो लाभ कमाने के लिए प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ रहे हैं। कल तक जो शिव भूमि अपने स्वाभाविक लय में थी, आज वहां प्रलय के साक्षात दर्शन हो रहे हैं। नदियां रौद्र रूप धारण किए तांडव मचा रही हैं। जीवनदायिनी वर्षा जैसे वहां रहने वाले लोगों से अपना कोई पुराना प्रतिशोध लेने को आकुल-व्याकुल नजर आ रही है। उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा में केदारनाथ का प्राचीन मंदिर भले ही सुरक्षित बच गया हो, लेकिन उसके इर्द-गिर्द किया गया संपूर्ण विकास एक ही झटके में विनाश की गर्त में समा गया। केदारनाथ धाम जाने पर रास्ते में लोक निर्माण विभाग उत्तराखंड की ओर से एक बोर्ड लगा है, ‘रौद्र रुद्र ब्रह्मांड प्रलयति, प्रलयति प्रलेयनाथ केदारनाथम्।’ इसका भावार्थ यह है कि जो रुद्र अपने रौद्र रूप से यानी अपना तीसरा नेत्र खोलकर पूरे ब्रह्मांड को भस्म कर देने की सामर्थ्य रखते हैं, वही भगवान रुद्र यहां केदारनाथ नाम से निवास करते हैं।
उत्तराखंड ही नहीं, पूरे हिमालय क्षेत्र में विकास की अजस्र गंगा बहाने का दावा करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि मैदानी क्षेत्र में जिस तरह कंक्रीट का महासागर रच कर उन्होंने प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़कर रख दिया है, ठीक वैसा ही   हिमालय की छाती पर कंक्रीट का जंगल उगाने पर हिमालय चुपचाप सहन कर लेगा। वह क्षेत्र जो शिव यानी रुद्र का निवास स्थान हो, वह देव जो प्रकृति में सम्यक संतुलन का हिमायती रहा हो, वह हिमालयी क्षेत्र में पैदा किए जा रहे असंतुलन को सहर्ष स्वीकार कर लेगा? पिछले सप्ताह में हजारों लोगों का बलिदान देने, अरबों रुपये की संपत्ति का नुकसान सहने के बाद भी हम नहीं चेते, तो निकट भविष्य में इससे भी कुछ ज्यादा त्रासद स्थितियों का सामना करने को हमें तैयार रहना होगा। प्रकृति अब मानवीय हस्तक्षेप की उस सीमा रेखा पर आकर खड़ी हो गई है, जो अब उसकी बर्दाश्त से बाहर है। पिछले कुछ दशकों से हिमालय पर्वत और उसके आस-पास के क्षेत्रों में हर साल आने वाली प्राकृतिक आपदाओं को लेकर हमें बहुत पहले ही सतर्क और गंभीर हो जाना चाहिए था, लेकिन हम विकास और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में इतने रम गए कि हम प्रकृति के गंभीर से गंभीर संकेतों को समझने की भूल करते रहे।
पिछले कुछ दशक से देशी और विदेशी वैज्ञानिक, पर्यावरणविद् यह कहते चले आ रहे हैं कि दुनिया भर की पर्वत शृंखलाओं में हिमालय की प्रकृति कुछ भिन्न है। वह अन्य पर्वतों जैसी नहीं है। इतिहासकारों का तो यहां तक कहना है कि आज जहां हिमालय पर्वत है, वहां आज से लाखों साल पहले क्षिति सागर हुआ करता था और हिमालय पर्वत उस सागर में समाया हुआ था। फिर कालांतर में क्षिति सागर में हुई भौतिक हलचलों के चलते सागर के गर्भ में छिपा बैठा हिमालय पर्वत ऊपर आ गया और उस सागर का पानी बहकर दक्षिण में चला गया। दक्षिण की बहुत-सी भूमि उस पानी में डूब गर्ई। पर्यावरणविदों ने कई बार चेतावनी दी है कि हिमालय क्षेत्र में लगातार बढ़ते हस्तक्षेप को सहन करने की स्थिति में हिमालय नहीं रह गया है। लगातार बढ़ती मानवीय गतिविधियों को हिमालय क्षेत्र बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। इन चेतावनियों के बावजूद हम नहीं संभले, हमारा हस्तक्षेप लगातार बढ़ता जा रहा है और उसी का नतीजा है पिछले हफ्ते ही नहीं, पिछले कई सालों से हिमालय क्षेत्र में होती आ रही प्राकृतिक आपदाएं।
आज पर्यटन और तीर्थाटन के नाम पर देशी और विदेशी लोग उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की ओर भागते चले जा रहे हैं। पर्यटन के नाम पर देशी-विदेशी मुद्रा जुटाने और उद्योग-धंधे लगाकर मुनाफा कमाने की होड़ में हमारी सरकारों ने हिमालय का भरपूर दोहन और शोषण किया है। पर्वतों का सीना काटकर चौड़ी-चौड़ी डामर की सड़कें बनाई गर्इं, पहाड़ी नदियों की प्रकृति और प्रवृत्ति समझे-बूझे बिना उनके किनारे पक्के भवन और होटलों का निर्माण किया गया। पहाड़ों और छोटी-छोटी पहाड़ियों को भू-स्खलन से रोकने वाले पेड़-पौधों को विकास के नाम पर काट-छांटकर पूरे हिमालय को नंगा कर दिया गया। यह सच है कि प्राचीनकाल से भारत में पर्यटन और तीर्थाटन की परंपरा रही है, लेकिन आज की पर्यटन और तीर्थाटन की परंपरा से बिल्कुल भिन्न रही है। यदि हम गौर करें, तो पाते हैं कि प्राचीनकाल में पर्यटन शिक्षा का एक माध्यम हुआ करता था। गुरुकुलों में पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं एक निश्चित समय तक अध्ययन करने के बाद पर्यटन पर निकलते थे, ताकि उन्होंने जो कुछ गुरुकुल में सैद्धांतिक रूप से पढ़ा है, उसको समाज में कैसे लागू करना है? सिद्धांत और वास्तविकता में कितना फर्क है? इसका वे स्वयं विवेचन कर सकें, इसके लिए पर्यटन जरूरी था। तीर्थाटन पर आम तौर पर तत्कालीन समाज में वे लोग निकलते थे, जो चौथेपन में पहुंच गए होते थे। ऐसे लोग तीर्थाटन पर निकलने से पहले अपना अंतिम संस्कार कर जाते थे, क्योंकि आवागमन की कठिन परिस्थितियों और उम्र के आखिरी पड़ाव पर होने के चलते वे यह मान लेते थे कि हो सकता है, रास्ते में उनकी मौत हो जाए। आमतौर पर 90 फीसदी लोगों की मौत हो भी जाती थी। तीर्थाटन उनके लिए लाभ-हानि का माध्यम नहीं था। जीवन भर परिवार और गांव के लिए खटने वाला व्यक्ति उम्र के आखिरी पड़ाव पर समाज के लिए जीने का संकल्प लेकर घर से निकलता था और परिवार पर बोझ बनने के बजाय किसी अनजान शहर में गुमनाम मौत का शिकार हो जाता था।
आज तीर्थाटन और पर्यटन के अर्थ और उद्देश्य बदल गए हैं। तीर्थाटन और पर्यटन मौज-मेले का पर्याय बनकर रह गए हैं। लोग मैदानी भागों में पड़ने वाली गर्मियों से निजात पाने के लिए पहाड़ों की ओर भागते हैं। ऐसे लोगों को लुभाने के लिए पर्वतीय क्षेत्रों में बड़े-बड़े वातानुकूलित होटल्स, शॉपिंग मॉल्स, हवाई अड्डे और अन्य सुविधाओं का जाल बिछा दिया गया है। होटल, शॉपिंग मॉल आदि के निर्माण के लिए पर्वतों का सीना काटकर समतल किया गया। अबाध बहने वाली नदियों के किनारे कई तरह के प्रोजेक्ट शुरू किए गए, उनके अजस्र प्रवाह को बाधित कर लाभ कमाने के साधन पैदा किए गए। नतीजा यह हुआ कि वनाच्छादित पर्वत नंगे सिर, घायल छाती लिए सिसकते रहे और पूंजीपति वर्ग सरकारों के साथ मिलकर पर्वतों का दोहन करते रहे। इसका एक स्वाभाविक नतीजा यह हुआ कि साल भर शीतल रहने वाले पर्वत भी ग्लोबल वार्मिंग का शिकार होकर गर्माने लगे। अब तो पर्वतीय क्षेत्रों में भी तापमान 40-42 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने लगा है। वहां भी पर्यटकों को एसी कमरों की जरूरत पड़ने लगी है। कमरों और गाड़ियों में लगे एसी,वाहनों और हवाई जहाजों से निकलने वाले धुओं ने पर्वतीय क्षेत्र को प्रदूषित ही नहीं किया, बल्कि वहां की नदियों को दूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यही वजह है कि अब पहाड़ और पहाड़ी नदियां प्रतिरोध की मुद्रा में आ गई हैं। बादल, बारिश और नदियां मिलकर मानवीय कुकृत्यों का प्रतिरोध ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं के रूप में कर रही हैं। अब भी समय है, संभल जाने का। पर्वतीय क्षेत्रों को उनकी स्वाभाविक लय में जीने देने का, वरना प्रलय निश्चित है।

नासपीटा मोबाइल

-अशोक मिश्र
उस्ताद गुनहगार बाथरूम से निकले और दीवार की ओर मुंह करके बड़ी लय में गाने लगे, ‘रामचंद्र कृपाल भज मन, हरण भव भय दारुणम।’ हालांकि, दीवार पर किसी देवी-देवता की मूर्ति या फोटो नहीं लगी हुई थी। तभी मोबाइल फोन पर एसएमएस आने की ट्यून बजी। सोफे पर बैठी उस्ताद गुनहगार की पत्नी उर्वशी ने लपककर मोबाइल फोन उठाया और संदेश देखने लगीं। लिखा था,‘हाय जानूं! अकेले हो? मैं भी अकेली हूं। फोन करो न!-कविता।’ यह पढ़ते ही उर्वशी का पारा पिछले तीस साल का रिकॉर्ड तोड़कर अधिकतम पर पहुंच गया। उस्ताद गुनहगार और उर्वशी के वैवाहिक जीवन को भी तीस साल अभी कुछ ही दिन पहले पूरे हुए थे। भजन पूरा करने के बाद उस्ताद गुनहगार ‘मेरी फोटो को सीने से यार...चिपका ले...फेवीकोल से’ गाते हुए आए और उर्वशी की बगल में बैठ गए, ‘मेरी जान! कुछ नाश्ता पानी मिलेगा इस प्यारे-दुलारे पति परमेश्वर को। जल्दी करो...धंधे पर भी जाना है।’
गुनहगार की बात सुनकर उर्वशी एकदम ‘लाल’ के साथ-साथ ‘कृष्ण’ हो गईं। बोलीं, ‘जो कलमुंही तुम्हारा इंतजार कर रही है, जो आज अकेली है, जिसके लिए सुबह निकलते हो और आधी रात तक भी दर्शन नहीं होते, उससे मांगो नाश्ता-पानी। उस कलमुंही की इतनी हिम्मत...वह संदेश भेजकर कहती है, हाय जानूं...तो फिर जाओ...उसी जानूं के पास। मेरे पास क्या लेने आते हो?’ इतना कहकर उर्वशी दुपट्टे से अपने अश्रु प्रवाह को रोकने का प्रयास करने लगीं। उस्ताद गुनहगार पहले तो अवाक खड़े रहे, उनकी समझ में ही मामले की पूंछ नहीं आ रही थी। फिर वे बोले, ‘अरे खफा क्यों हो, बेगम! आखिर हुआ क्या है? अभी थोड़ी देर पहले तक तो तुम ठीक थीं, फिर निम्न तापमान से उच्च तापमान तक कैसे पहुंच गईं। बताओ तो, बात क्या है?’ उर्वशी तपाक से उठी और मोबाइल फोन उठाकर गुनहगार के सीने पर फेंकते हुए कहा, ‘पढ़ो उस नासपीटी का संदेश। अभी थोड़ी देर पहले ही आया है। हाय राम! मेरे तो करम ही फूटे थे, पता नहीं कब से उस कलमुंही के साथ गुलछर्रे उड़ा रहे हो।’ उस्ताद गुनहगार ने एसएमएस पढ़ा तो एक बार वे भी सन्न रह गए। फिर उन्हें याद आया कि ऐसे एसएमएस तो अक्सर आते रहते हैं। कुछ लोगों से जब इस बारे में बात की, उन्होंने बताया कि यह कुछ कंपनियां का फ्राड है, जो लोगों को दिए गए नंबर पर फोन करने को उकसाती हैं। उधर से एक महिला फोन करने वाले से कुछ सीली-रसीली बातें करती है। इस फोन का चार्ज वसूला जाता है।
उस्ताद गुनहगार ने मामले को समझकर हंसते हुए कहा, ‘अरे यार! तुम भी न...हो एकदम बुद्धू...यह मोबाइल कंपनी की ओर से भेजा गया एसएमएस है। कुछ कंपनियां लोगों को बेवकूफ बनाकर इस नंबर पर बात करने को उकसाती हैं और कुछ ‘आंखे के अंधे, गांठ के पूरे’ लोग इनके चक्कर में फोन कर बैठते हैं। ये कंपनियां फोन करने वाले से मोटा चार्ज वसूलती हैं।’ इतना कहकर गुनहगार ने उर्वशी के कंधे पर हाथ रखते हुए मनाने की कोशिश की। उर्वशी ने हाथ झटकते हुए कहा, ‘जाओ...पिछले तीस साल से बुद्धू बना रहे हो। अब बुढ़ापे में पोल खुली है, तो अपना दोष कंपनियों के सिर पर टरका रहे हो।’ उर्वशी की बात सुनकर उस्ताद मुजरिम ने क्रोध से दांत पीसते हुए कहा, ‘ऐसा करो...तुम इसी फोन नंबर पर कॉल बैक करो। तुम्हें असलियत पता चल जाएगी।’ उर्वशी ने फोन लगाया। उधर से आवाज आई, ‘जिस नंबर पर आप फोन लगा रहे हैं, वह नंबर अभी व्यस्त है।’ यह सुनते ही उर्वशी शेरनी की तरह गुर्राईं, ‘लो...तुम्हारी सहेली तो अब किसी और को घास डाल रही है। अपने किसी दूसरे यार से बतिया रही है।’
पत्नी की बात सुनकर रुंआसे स्वर में उस्ताद गुनहगार कहा, ‘हे भगवान!..मैं कैसे इस मंदअक्ल औरत को समझाऊं कि पिछले तीस साल से एक ही खूंटे से बंधा रिरिया रहा हूं। शादी के बाद से तो मैंने सपने में भी किसी खूबसूरत औरत को आने नहीं दिया। सपने में जब भी कोई औरत आई है, तो वह खुद या फिर ताड़का, लंकिनी, डंकिनी ही रही है।’ तभी उर्वशी के मोबाइल पर एसएमएस आया। उर्वशी झटके से उठीं और संदेश पढ़ने लगीं। उस्ताद गुनहगार ने उत्सुकता से उनकी ओर देखा। एसएमएस पढ़कर उर्वशी को चार सौ चालीस वोल्ट का झटका लगा। उन्होंने उस्ताद गुनहगार की ओर देखते हुए कहा, ‘आप नाश्ता कर लीजिए। आपको धंधे पर जाने को देर नहीं हो रही है।’ इतना कहकर वे मोबाइल फोन को ‘उचित जगह’ पर रखकर किचन की ओर जाने लगीं। उस्ताद गुनहगार ने पूछा, ‘अरे उस संदेश में ऐसा क्या लिखा था कि कुरुक्षेत्र में मारकाट मचाने को आतुर सेनानियों का उत्साह ठंडा हो गया। जरा मैं भी तो देखूं, उस संदेश में आखिर है क्या?’ उर्वशी ने खिसियानी हंसी हंसकर कहा, ‘बेकार के पचड़े में फंसने से क्या फायदा, नाश्ता कीजिए और अपना धंधा देखिए।’ उस्ताद गुनहगार ने बड़ी ठसक के साथ ‘उचित जगह’ से उर्वशी का मोबाइल निकाला और पढ़ने लगे, ‘स्वीट डार्लिंग..अकेली हो? मैं भी अकेला हूं। मुझसे बात करने के लिए फोन करो न!-संजय।’ यह पढ़ते ही उस्ताद गुनहगार ठहाका लगाकर हंस पड़े। उनके साथ ही उर्वशी भी खिसियानी हंसी हंसने लगीं।

Sunday, June 16, 2013

पाती, शिल्पा भौजी के नाम

-अशोक मिश्र
शिल्पा भौजी, सच्ची-सच्ची बात बताऊं। आज मुझे पुलिस पर बहुत गुस्सा आ रहा है। यह पुलिस बहुत है नासपीटी। भला बताओ, यह भी कोई बात हुई कि जांच की, न पड़ताल। किसी उठाईगीरे के कहने पर राज भैया को पुलिस और सीबीआई वालों ने पूछताछ के लिए बुला लिया। राज भैया जैसे भले और सीधे-सादे आदमी को पूछताछ के लिए बुलाने का कोई औचित्य मेरी ही नहीं, मेरे जैसे आपके चेहते करोड़ों दर्शकों की समझ में नहीं आया। मैं तो कहता हूं कि आप जैसा जिगरा (साहस) पिछले सौ साल के हिंदी सिनेमा के इतिहास में किसी हीरोइन का नहीं रहा है। आज तक कोई हीरोइन खुलेआम यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा सकी कि ‘दिलवालों के दिल का करार लूटने, आई हूं यूपी-बिहार लूटने।’ आय-हाय! क्या ठुमका था आपका, मेरा दिल तो कसम से हिल-डुलकर रह गया था। उन दिनों मैं नया-नया जवान हुआ था। पर्दे पर आपका नाच देखकर मेरे दिल को पच्चासी झटके लगते थे। शिल्पा भौजी, वह तो कहिए कि उन दिनों मेरी जवानी उफान पर थी और मेरा दिल भी बहुत मजबूत था, सो वे पच्चासी झटके सहन कर गया। किसी और का दिल होता, तो कब का ‘टें’ बोल गया होता। खैर...बात मैं आपके दुख की कर रहा था और बहक मैं दूसरी तरफ गया। वैसे भौजी,बुरा मत मानिएगा, बहकने की मेरी पुरानी और खानदानी आदत है। हां, तो मैं कह रहा था कि जब आपने यूपी-बिहार को ऐलानिया लूटने की घोषणा करके भी लूटा भी, तो सिर्फ राज भैया का दिल। और अपने राज भैया भी कोई मामूली आदमी हैं, करोड़-दो करोड़ रुपये तो उनके लिए मामूली रकम है। अगर वे खेल-खेल में करोड़-दो करोड़ रुपये की शर्त (कथित सट्टा) लगा ही बैठे, तो कौन-सी आफत आ गई। और फिर शर्त लगाना, कहां का गुनाह है। वह तो भला हो उमेश गोयनका का, जो अदालत में बोले और खुलकर बोले। अपना पिटा हुआ मुंह लेकर रह गई पुलिस, जब उमेश भाई ने खम (ताल) ठोंककर कहा कि पुलिस ने उनसे जबरदस्ती राज भैया का नाम लेने को कहा था। पिटाई के डर से उन्होंने राज भैया का नाम ले लिया। पुलिस वाले ठोंकते भी बहुत हैं, मार-मार कर भुरकुस निकाल देते हैं।
शिल्पा भौजी आप बुरा न मानें, तो एक बात पूछंू? राज भैया की पुलिस ने ठुकाई तो नहीं की थी? आप किसी को बताइएगा नहीं, बात दरअसल यह है कि उसे सट्टा कहा जाए या शर्त, लेकिन मेरी घरैतिन और बच्चे बात-बात में शर्त लगाते रहते हैं। आपको कुछ उदाहरण देकर बात समझाने का प्रयास करता हूं। अभी एक हफ्ते पहले की ही बात लीजिए। बीस किलो गेहूं लेने मैं अपने पूरे परिवार के साथ बाजार गया। गेहूं, सब्जी और अन्य चीजें खरीदने के बाद मेरी पत्नी ने कहा, ‘मैं शर्त लगाकर कह सकती हूं कि आप यह गेहूं कंधे पर लादकर घर तक नहीं ले जा सकते हैं।’ मुझे भी ताव आ गया। आपको तो मर्दों के ताव का अनुभव होगा ही। मैंने एक झटके से बीस किलो गेहूं की बोरी उठाई और कंधे पर लादकर घर की ओर चल पड़ा। बाजार में बच्चों के साथ खड़ी घरैतिन मुझे आगे बढ़ता हुआ देखती रहीं और फिर उन्होंने एक रिक्शा तय किया, बच्चों और बाकी बचे सामान को उस पर लादा और घर पहुंच गईं। इस भीषण गर्मी में पसीने से लथपथ हांफता हुआ जब मैं घर पहुंचा, तब तक घरैतिन और बच्चे लस्सी के चार-चार गिलास हजम कर चुके थे। मेरे घर पहुंचने पर बेटी चिल्लाई, ‘मम्मी...मम्मी...देखो पापा शर्त जीत गए...पापा शर्त जीत गए।’ पत्नी ने फ्रिज से एक गिलास ठंडा पानी निकालकर देते हुए कहा, ‘आपने बीस रुपये की शर्त जीती है, उस बीस रुपये के शाम को समोसे आएंगे।’ शिल्पा भौजी...मेरे घर में घरैतिन और बच्चे अक्सर मुझसे बेट (शर्त) लगाते रहते हैं। कभी बेटी कहती है, ‘पापा...लगी पचास रुपये की शर्त। शाम को आॅफिस से जल्दी घर आकर हम लोगों को चाऊमिन खिलाने अगर आप नहीं ले गए, तो आपको पचास रुपये देने होंगे।’ पचास रुपये की शर्त जीतने के चक्कर में न केवल आॅफिस से बहाना बनाकर जल्दी आया, बल्कि बारह सौ रुपये का होटल का बिल भी अदा किया। शर्त के पचास रुपये बेटी से मांगे, तो उसने कहा कि आप कल जो पाकेट मनी देने वाले हैं, उसमें से काट लीजिएगा।
भौजी! पत्र लिखने का मकसद आपसे यह पूछना है कि अपने घर में हम लोग जो ऐसी शर्तें लगाते हैं, क्या वे भी कानून के दायरे में आती हैं। चूंकि राज भैया यह सब कुछ भुगत रहे हैं, तो ऐसे मामले में यकीनन आपको मुझसे ज्यादा अनुभव होगा। एक बात और बताइए, आप भी राज भैया से ऐसी ही शर्त लगाती रहती होंगी। पुलिस ने क्या इन शर्तों के बारे में भी कोई पूछताछ की थी? जब से राज भैया शर्त (सट्टेबाजी) लगाने के मामले में पुलिस की गिरफ्त में आए हैं, तब से मैं भीतर ही भीतर काफी डरा हुआ हूं। कसम आपके ठुमके की, अब तो घरैतिन और बच्चे भी सहमे-सहमे से हैं। आप अपने कीमती समय में से कुछ पल निकालकर मेरा मार्गदर्शन करके मुझ जैसे करोड़ों पतियों का भला करेंगी। आपका ही-एक परेशान देवर।

Tuesday, June 11, 2013

जिंदगी पर भारी बाजार

-अशोक मिश्र
बाजार..बाजार..बाजार..जीवन का ऐसा कौन-सा क्षेत्र है जिसे बाजार ने प्रभावित नहीं किया है? दुनिया का सबसे पवित्रतम रिश्ता होता है मां और बच्चे का। मां अपने बच्चे को नौ माह तक कोख में रखकर उसका पोषण, सुरक्षा करती है। कई बार तो जान पर खेलकर बच्चे को जन्म देती है। इसमें उसका कोई स्वार्थ नहीं होता है। मां प्रकृति द्वारा सौंपे गए इस गुरुतर दायित्व का निर्वाह सदियों से बिना किसी स्वार्थ, हानि-लाभ या भय के करती आ रही है। सदियां गुजर गर्इं, मां और बच्चे के बीच के इस रिश्ते का कोई आर्थिक आधार नहीं रहा है।  दास, भूदास व्यवस्था से लेकर अभी सौ-सवा सौ साल पहले तक विश्व में मौजूद रही सामंती व्यवस्था में भी मां की ममता अमूल्य रही है, लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था और उसके अनिवार्य घटक बाजार का करिश्मा तो देखिए...उसने मां को अपने बच्चे के हिस्से आने वाले दूध का कुछ हिस्सा बचाकर बेचना सिखा दिया। इसके पीछे कुपोषित और मातृविहीन बच्चों को बचाने का लुभावना तर्क दिया जाता है, लेकिन मां के दूध को खरीदने-बेचने में होने वाले मुनाफे पर किसी नजर नहीं पड़ती है। विदेश में ही नहीं, देश के कई हिस्सों में अब मदर मिल्क बैंक खुलने लगे हैं। प्रसूताएं अपने बच्चों को कम पिलाकर बचा हुआ दूध इन बैंकों में औने-पौने दामों में बेचने को मजबूर हैं। मजे की बात यह है कि मां को दूध बेचने जैसे निकृष्ट कार्य के लिए मजबूर भी बाजार ही करता है। इतना ही नहीं, बाजार ने चिकित्सा विज्ञान की आड़ लेकर मातृत्व को ही बिकाऊ बना दिया है। सरोगेट मदर बनना, तो अब पुण्य कमाने के साथ-साथ फायदे का धंधा हो गया है। हालांकि,  कई देशों में सरोगेसी मामले में कई सख्त कानून हैं। ऐसे देशों में किराये की कोख हासिल कर पाना, काफी मुश्किल और खर्चीला है, लेकिन भारत सहित कई देशों में तो यह उद्योग  की तरह फलने-फूलने लगा है। नि:संतान दंपतियों की बच्चे की चाह अपनी जगह जायज है, लेकिन बाजार ने इनकी इसी कामना को मुनाफे का आधार बना लिया और समाज में किराये की कोख जैसी परंपरा का आविर्भाव हुआ।
बाजार की घुसपैठ व्यक्ति के अंतरंग और नितांत वैयक्तिक मामलों में भी होने लगी है। अब तो बाजार ही यह तय करने लगा है कि आप क्या खाएंगे, पिएंगे, पहनेंगे? इतना ही नहीं, आप अपनी पत्नी या प्रेमिका के साथ अंतरंग क्षणों में कैसा व्यवहार करेंगे, आपका यौन व्यवहार कैसा रहेगा? यह भी बाजार ही तय करने लगा है। हो सकता है आपको इस पर यकीन न हो, लेकिन विभिन्न तरह की कंडोम कंपनियां, विभिन्न तरह के उत्तेजक स्प्रे और सेक्स की भूख बढ़ाने की दवा बनाने वाली कंपनियां यही तो कर रही हैं। वैसे तो मनुष्य के जीवन की तीन ही ऐसी प्रमुख आवश्यकताएं हैं, जिसकी पूर्ति आवश्यक मानी जाती है। शरीर को ऊर्जावान बनाए रखने के लिए भोजन, रहने के लिए एक घर और पहने के लिए वस्त्र। जीवन की इन अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रुपया चाहिए। रुपये के लिए रोजगार चाहिए और ये दोनों चीजें निर्भर करती हैं बाजार पर। इन तीनों आवश्यकताओं को तो बाजार ने अपनी गिरफ्त में ले ही रखा है, लेकिन उसने कुछ ऐसा माहौल रच रखा है, जैसे लगे कि सेक्स (काम भावना) इंसान की प्राथमिक जरूरत हो। बाजार का सारा जाल-जंजाल इसी सेक्स के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। सेक्स को खूबसूरती, छरहरी काया आदि से जोड़कर महिमामंडित किया जा रहा है। साबुन, सेंट और अन्य सौंदर्य प्रसाधनों के तमाम उत्पादों का विभिन्न संचार माध्यमों पर दिन-रात किया रहा प्रचार बाजार की एक रणनीति का हिस्सा है। बाजार सबसे पहले बड़ी चतुराई से मनुष्य के जीवन में पहले जरूरत पैदा करता है। इसके लिए कई तरह के सच्चे-झूठे सर्वे, अनुसंधान और शोध कराए जाते हैं, इन सर्वे, अनुसंधान और शोध की रिपोर्ट की आड़ में लोगों को बताया जाता है कि अगर वे इस उत्पाद का उपयोग इतनते समय तक करेंगे, तो वे ऐसे हो जाएंगे, इसका उनके जीवन पर ऐसा सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। बाजार की यह कोशिश इतने तक ही सीमित नहीं रहती है, वह अपने संभावित उपभोक्ताओं के बीच से ही उस उत्पाद का ब्रांड एंबेसडर खोजता है। यह ब्रांड एंबेसडर कोई बड़ा खिलाड़ी, फिल्मी दुनिया से जुड़े अभिनेता-अत्रिनेत्री या राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र से जुड़ी कोई भी हस्ती हो सकती है। पैसा लेकर ये ब्रांड एंबेसडर उस उत्पाद का प्रचार करते हैं, उपभोक्ताओं को उस उत्पाद का उपयोग करने को प्रेरित करते हैं। पहले तो ये उत्पाद व्यक्ति के जीवन में शौकिया, किसी की प्रतिस्पर्धा या उत्सुकतावश प्रवेश करते हैं और कालांतर में ये उस व्यक्ति की अनिवार्य आवश्यकता बन जाते हैं। बाजार की एक कुटिल चाल यह भी है कि वह अपने उत्पाद बेचने के साथ-साथ एक सपना भी बेचता है। यही सपना मध्यम और निम्न वर्ग को अपनी गिरफ्त में लेता है। मध्यम और निम्न आय वर्गों के लोगों को बाजार की आक्टोपसी बाहें कुछ इस कदर जकड़ लेती हैं कि वे छटपटाकर दम तोड़ने के सिवा कुछ नहीं कर पाते। नतीजा यह निकलता है कि वे हताश और अवसादग्रस्त होकर आत्मघात कर बैठते हैं। कई बार तो परिवार के अन्य सदस्य भी इस आत्मघात में शामिल हो जाते हैं। कई बार ऐसा भी हुआ है कि आत्महत्या करने वाले पुरुष या स्त्री को ऐसा भी लगता है कि वह आत्महत्या कर लेगा/कर लेगी, तो उसके बाद उस पर आश्रित रहने वाले लोग कैसे जिएंगे, उनके साथ समाज अच्छा व्यवहार नहीं करेगा। यही सोचकर वे पहले अपने आश्रितों (बेटा, बेटी, पत्नी, नाबालिग छोटे भाई-बहनों) की पहले हत्या करते हैं और फिर बाद में आत्महत्या कर लेते हैं। पिछले कुछ दशक से इसका चलन बढ़ता जा रहा है।
दो  साल पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक सर्वे कराया था। उस सर्वे के मुताबिक विश्व के सर्वाधिक निराश और हताश लोगों की संख्या भारत में सबसे ज्यादा है। उस सर्वे के मुताबिक भारत के नौ फीसदी लोग लंबे समय से अपने जीवन से निराशाजनक स्थिति से गुजर रहे हैं। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि भारत जैसे धार्मिक व आध्यात्मिक देश के 36 फीसदी लोग, तो गंभीर रूप से हताशा की स्थिति (मेजर डिप्रेसिव एपीसोड) में हैं...और इस हताशा की स्थिति के कारण ही देश में एक तिहाई से भी अधिक लोग उदास हैं। उनके जीवन में आनंद व ऊर्जा की अनुभूति समाप्ति के कगार पर है। वे अपराध-बोध की भावना से ग्रस्त हैं। परिणामत: उनकी भूख और निंद्रा धीरे-धीरे सिमट रही है। साथ ही अब उन्हें अपना जीवन उपयोगी नजर नहीं आता। इंस्टीट्यूट आफ ह्यूमन विहेवियर एड एलाइड साइंसेस की रिपोर्ट बताती है कि सामाजिक सहभागिता कम होने से लोगों मे अवसाद बढ़ रहा है। शहरी समाज का संपूर्ण मनोविज्ञान पूंजी-उन्मुख हो  जाने से हर कोई भौतिक सुख के पीछे भाग रहा है। सफलता और विफलता के बीच बढ़ते फासले ने लोगों को अकेलेपन, अलगाव और अवसाद मे घेर लिया है। हमारा सरोकार सिर्फ  खुद से रह गया है।   

लट्टू पड़ोसन की भाभी हो गई

-अशोक मिश्र
मेरे पड़ोस में एक कोचिंग इंस्टीट्यूट पिछले पांच साल से चल रहा है। नाम है ‘राम भरोसे कोचिंग इंस्टीट्यूट।’ इंस्टीट्यूट की संचालिका हैं मिस छबीली। मेरे पड़ोस में रहती हैं। जब कोचिंग इस्टीट्यूट का उद्घाटन समारोह आयोजित किया गया था, तो वे मुझे भी न्योता देने आई थीं। कोचिंग इंस्टीट्यूट का नाम देखकर मैं चौंक गया था, ‘आपने इंस्टीट्यूट का नाम राम भरोसे क्यों रखा है?’ मेरी बात सुनकर छबीली मुस्कुराई और उनकी यह मुस्कुराहट देखकर किचन में चाय तैयार कर रही घरैतिन गर्म तवे की तरह दहक उठीं। उन्होंने वहीं से आवाज लगाई, ‘जरा सुनिए...।’ मैं लपककर उनके पास पहुंचा, तो वे कानों में फुसफुसाने के अंदाज में गुर्राईं, ‘ज्यादा दांत मत चियारो। इसे चाय पिलाकर विदा करो।’ मैं घरैतिन के गुस्से का आनंद लेता हुआ लौटा और बोला, ‘बताया नहीं आपने... राम भरोसे कोचिंग इंस्टीट्यूट नाम क्यों रखा?’ उन्होंने आगे की ओर झुकते हुए कहा, ‘क्योंकि इसमें पढ़ने वाले सारे बच्चे ‘राम भरोसे’ ही पढ़ेंगे।’ उनकी यह गूढ़ बात मेरी तब समझ में आई, जब कुछ दिन बाद पता चला कि पड़ोस में परचून की दुकान खोलकर बैठा कन्हैया लाल उनके कोचिंग इंस्टीट्यूट में अर्थशास्त्र पढ़ाता है। बीए में तीन साल फेल होने वाला रघु गणित पढ़ाता है। गली-मोहल्ले की लड़कियों को प्रेम पत्र लिखकर उन्हें घूरने और छेड़छाड़ करने वाला मुन्ना लाल पिछले दो साल से छबीली के कोचिंग इस्ंटीट्यूट में रीतिकालीन काव्य पढ़ाता है।
परसों आॅफिस जाने के लिए घर से निकलते समय छबीली से मुलाकात हो गई। उन्होंने मेरी पत्नी से अनुरोध किया, ‘दीदी... मेरे कोचिंग इंस्टीट्यूट में हिंदी पढ़ाने वाला मुन्ना लाल छात्र-छात्राओं को भ्रमरगीत पढ़ाते-पढ़ाते एक लड़की को लेकर भ्रमर हो गया। अगर भाई साहब, मेरे इंस्टीट्यूट में एकाध घंटे हिंदी पढ़ा दिया करें, तो मैं आभारी रहूंगी। उसके बदले मैं पैसा भी दूंगी।’ पैसे का नाम सुनते ही घरैतिन का वैरभाव पता नहीं कहां तिरोहित हो गया। उन्होंने कहा, ‘हां...हां...क्यों नहीं। शाम को तो ये वैसे भी खाली रहते हैं। और फिर...आॅफिस में ही कौन-सा पहाड़ ढकेलते हैं कि शाम को थके हुए होंगे।’ घरैतिन द्वारा अध्यादेश जारी होने पर अपील की कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी। ‘मरता... क्या न करता’ वाली हालत मेरी थी। घरैतिन या छबीली को क्या बताता कि अगर मैं इतना ही बड़ा तुर्रमखां होता, तो क्या अखबारों में कलमघसीटी करता? खैर... हिंदी के कुछ फार्मूले-वार्मूले रट-रटाकर अगले दिन बच्चों को पढ़ाने पहुंचा। क्लास में सत्ताइस लड़कियां और तेरह लड़के थे। छबीली ने सबसे परिचय कराया और मेरा परिचय देते हुए बताया कि आज से हिंदी यही पढ़ाएंगे। पता नहीं क्यों, छात्रों के चेहरे लटक गए और कुछ छात्राओं के चेहरे चमक उठे। भगवान जाने... इसके पीछे क्या मसलहत (भेद) थी। विद्यार्थियों से पूछा, ‘आज तो फिलहाल सारा समय परिचय में ही निकल गया है, लेकिन अगर किसी को कुछ पूछना हो, पूछ सकता है।’ एक चंद्रमुखी, मृगनयनी, सुगठित देहयष्टि वाली छात्रा ने किसी मुग्धा नायिका की तरह नाजुक होंठों को तकलीफ दी, ‘सर... एक गीत की एक पंक्ति मेरी समझ में नहीं आ रही है।’ मैंने कहा, ‘पूछो...।’ मेरे इतना कहते ही एक बार लगा कि कहीं कोई कोकिल कूकी हो, ‘हां, जींस पहन के जो तूने मारा ठुमका, तो लट्टू पड़ोसन की भाभी हो गई। सर... इस गीत के इस हिस्से का भावार्थ समझ में नहीं आ रहा है कि जींस पहनकर ठुमका मारने से लट्टू पड़ोसन की भाभी कोई कैसे हो सकती है?’ छात्रा के प्रश्न पूछते ही मेरा दिमाग ही ‘भक्क’ से उड़ गया। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। कहां तो मैं आया था अपनी विद्वता का सिक्का जमाने और कहां ‘उल्टे बांस बरेली’ को लादे जा रहे थे।
 मैंने कहा, ‘देखो, इस गीत का जब तक प्रसंग आप लोगों की समझ में नहीं आएगा, तब तक अर्थ स्पष्ट नहीं होगा। इस गीत की दो नायिकाएं हैं। दोनों नायिकाएं आपस में सखियां भी हैं। एक नायिका नायक के पड़ोस में रहती है, माने प्रतिवेशी है। दूसरी नायिका लट्टू है। यहां, लट्टू शब्द द्विअर्थी है। एक अर्थ के हिसाब से लट्टू नायिका का नाम ठहरता है, दूसरे अर्थ में पहली नायिका के नायक पर लट्टू (मोहित होने) का भाव दर्शाता है। हालांकि, लट्टू शब्द नायिका के नाम होने के अर्थ में ही सर्वमान्य है। अब इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार बनता है। जब नायिका लट्टू ने किसी समारोह में जींस पहनकर नायक के सामने ठुमका मारा, तो नायक उसके नृत्य से इतना अभिभूत हुआ कि उसने तत्काल नायिका लट्टू से विवाह करने की ठान ली। उसने अपना यह निश्चय अपने घरवालों के सामने दुहराया, तो उसके घरवाले नायिका के घरवालों से मिले और दोनों परिवारों की सहमति से उनकी शादी हो गई।
 चूंकि दूसरी नायिका नायक के पड़ोस में रहती थी, समाज को दिखाने के लिए नायक को भाई साहब कहती थी, इसलिए जब नायिका लट्टू और नायक का विवाह हुआ, तो नायिका लट्टू अपने सहेली और नायक की पड़ोसन यानी कि दूसरी नायिका की भाभी कही जाने लगी।’ इतना कहकर मैंने अपने चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछा और कहा, ‘बाकी बातें कल होंगी।’ इतना कहकर मैं कोचिंग से बाहर आ गया। अच्छा, आप विद्वत जन ही बताएं, इस गीत की व्याख्या मैंने ठीक की थी या   गलत?

Tuesday, June 4, 2013

फटे पायजामे में टांग क्यों अड़ाऊं?

-अशोक मिश्र
कल शाम को मैं उस्ताद गुनहगार से मिलने उनके घर गया। काफी देर गुफ्तगू के बाद वहां से निकला और अपने घर की राह ली। गुनहगार ने बहुत कहा कि मैं पीएमओ की मदद करूं। यह राष्ट्र सेवा है। गुनहगार ने काफी चिरौरी की, लेकिन मैंने कह दिया, मुझसे यह नहीं होगा। ...मुझे क्या पड़ी है किसी के फटे में टांग अड़ाने की। बचपन में कई बार दूसरों के फटे में टांग अड़ाने के चलते भैया से पिटा, जिसके फटे पायजामे में टांग अड़ाई, उसने पीटा। होता यह था कि मेरे दसवीं-बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाले दोस्त बड़ी मुश्किल से किसी कन्या को अपने प्रेमपाश में फांसते थे और मैं अपना नैतिक और पुनीत कर्तव्य समझकर उस कन्या के पिता या भाई को जाकर चेता देता था। जब मेरे दोस्त कन्या के भाइयों या पिता से पिट-पिटाकर आते तो वे मेरी उससे कहीं ज्यादा खातिरदारी किया करते थे, जितनी उनकी हुई होती थी। वे घर में आकर भैया से भी मेरी करतूत बता जाते थे। बस फिर क्या था? भैया भी जमकर पीट देते थे। कई बार तो ऐसे हालात पैदा हुए कि अगर बीवी कुलवंती, शीलवंती और पति को परमेश्वर मानने की परंपरा वाली न होती, तो मेरा पिटना निश्चित था। एक बार तो आजिज आकर घरैतिन ने कसम दे दी कि खबरदार...आज के बाद किसी के मामले में टांग अड़ाई तो? कसम की लाज बचाने की खातिर मैंने वह काम कर दिखाया, जो भैया और दोस्तों की पिटाई भी नहीं करवा पाई थी। मैंने दूसरों के  फटे में टांग अड़ाना छोड़ दिया। अब जब शरीफ हो गया हू, तो मैं किसी की चाहूं, तो भी मदद नहीं कर सकता। वरना...जिस बात को लेकर पिछले बहत्तर घंटे से पीएमओ में हड़कंप मचा हुआ है, मैं उस मामले को चुटकियों में सुलझा सकता हूं।
आप अगर किसी से यह बात न बताने का वायदा करें, तो मैं आपको असली बात बता सकता हूं। हुआ क्या कि गुजरात के एक वैज्ञानिक को कोई साल भर पहले आणंद में खुदाई करते समय एक कंकाल मिला था। कार्बन डेटिंग और डीएनए परीक्षण में यह साबित हुआ कि यह सदाचार का कंकाल है। किसी ने अकेले-दुकेले पाकर सदाचार को लूटने के बाद उसकी हत्या कर दी थी और लाश को वहीं दफना दिया था। सदाचार की हत्या होने के बाद से ही देश में भ्रष्टाचारियों, बलात्कारियों, धोखेबाजों, लंपटों का बोलबाला होने लगा। उस वैज्ञानिक ने दावा किया था कि वह इस कंकाल के डीएनए से हजारों-लाखों सदाचारियों को पैदा कर सकता है। इन सदाचारियों को अगर चुनाव लड़वाया जाए, तो ये चुनाव जीतकर देश और समाज में सदाचार का विस्तार कर सकते हैं। इससे भ्रष्टाचारियों को प्रश्रय देने, उन्हें टिकट देकर जितवाने और भ्रष्ट सरकार के मुखिया होने का उन पर लग रहा आरोप धुल जाएगा और यूपीए हैट्रिक भी मार लेगी। प्रधानमंत्री ने उस वैज्ञानिक को हरी झंडी दिखाते हुए इस योजना को गुप्त रखने को कहा था। उन्होंने सोचा था कि आगामी लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस इन्हीं सदाचारियों को टिकट देकर विपक्षियों को चारों खाने चित कर देगी, लेकिन होनी तो कुछ और ही थी। उस वैज्ञानिक ने प्रधानमंत्री कार्यालय को यह कहते हुए कंकाल सौंप दिया था कि मैं लैब-सैब की व्यवस्था करके आता हूं, फिर ‘प्रोजेक्ट सदाचार’ में लगूंगा। विशेष सुरक्षा में रखा गया वह कंकाल पिछले बहत्तर घंटों से गायब है। पीएमओ में कार्यरत सभी अधिकारियों और कर्मचारियों के होश फाख्ता हैं। वे एक- दूसरे को शक की निगाहों से देख रहे हैं। एक अधिकारी ने अपने एक वरिष्ठ पर आरोप लगाते हुए यहां तक कहा कि  हो न हो, कंकाल गायब करने में सिन्हा जी का हाथ है। पिछले कुछ दिनों से वे बार-बार उस कंकाल को हसरत भरी निगाहों से देख रहे थे। उस्ताद गुनहगार बता रहे थे कि लापरवाही बरतने के आरोप में कुछ कर्मचारी और अधिकारी निलंबित किए जा चुके हैं। इस मामले की गुप्त रूप से जांच खुफिया एजेंसियों को सौंपी जा चुकी है।
अब आप कहेंगे कि पीएमओ के इस फटे पायजामे में मैं कैसे टांग अड़ा सकता हूं। बात दरअसल यह है कि जिस समय एक व्यक्ति कपड़े में लपेटकर उस कंकाल को लेकर जा रहा था, मैं सुबह-सुबह हवाखोरी के लिए उधर गया था। मैंने चेहरे पर कपड़ा लपेटे उस व्यक्ति का उत्सुकतावश पीछा किया। उस आदमी ने उस कंकाल को दिल्ली के ही एक इलाके में दफना दिया है। मैं वह स्थान जानता हूं। यह बात उस्ताद गुनहगार को पता चली, तो वे प्रधानमंत्री कार्यालय से कंकाल खोज निकालने का बयाना ले बैठे। अब बयाना लिया है, वे झेलें। मैं क्यों जहमत उठाऊं। और फिर कहीं...देश में सदाचार का बोलबाला हो गया, तो? सारे भ्रष्टाचारी मुझे ही कोसेंगे न! बेचारे भ्रष्टाचारियों की हाय क्यों मोल लूं। कितनी मेहनत करते हैं, तब कहीं जाकर हजार-दो हजार करोड़ रुपये कमा पाते हैं। मैं नहीं पड़ने वाला इस पचड़े में। अच्छा आप ही बताएं, मैं किसी की फटी पैंट में टांग क्यों अड़ाऊं। आखिर मैंने अपनी पत्नी को वचन दिया है। आप पूछेंगे, तो भी कंकाल का पता नहीं बताऊंगा।